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जातिमद-निवारण सूत्र १६६
(३०७) भिन्नु, अकिंचन है, अपरिग्रहो है और रूखा-सूत्वा जो पाता है उससे ही अपनी जीवनयात्रा निभाता है। ऐसा भिन्तु होकर जो अपनी ग्राजीविका के लिये अपने उत्तम कुल, जाति व गान का उपयोग करता है अर्थात् 'मैं तो अमुक उत्तम कुल का था, अमुक उत्तम धराने का था, अमुक ऊँचे गोत्र का था व अमुक विशिष्ट वश का या दस प्रकार अपनी बडाई करके जीवन-यात्रा चलाता है वह तत्त्व को न समझना हुया वारवार विपर्यास को पाता है।
(३०८) जो भिन्नु-मानव-प्रश के मद को, तप के मद को, गोत्र के' मद को तया चौधे धन के मट की नमाता है अर्थात् छोडता है वह पटित है, वह उत्तम आत्मा है। .
(३०६) वीर पुष्प ! इन मदों को काट दे-विशेषरूप से काट दे, मुधीर धर्मवाले मानक उन मदो का सेवन नहीं करते। ऐसे मदों को जड़ से काटने वाले महर्पिजन लव गोत्रों से दूर होकर उस स्यान को पाते हैं जहाँ न जाति है, न गोत्र है और न वश है। अर्थात महर्षिजन ऐसी उत्तम गति पाते हैं।