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प्रसाद-स्थान-सूत्र
(१३६) रूप में प्रासक्त मनुष्य को कहीं भी कभी किंचिन्मान सुख . नहीं मिल सकता। खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग में कुछ भी सुख न पाकर कोश तथा दुःख हो पाता है ! . .
(१३७) जो मनुष्य कुत्सित रूपों के प्रति हेच रखता है, वह भविष्य में अलोम दुःह-परंपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापा संचित किये जाते हैं, जो बिपाक-कान में भयंकर दुःखरूप होते हैं।
( १३८) .. रूप-वरक्त मनुन्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह संसार में रहते हुबे भी दुःख-प्रदाह से अलिप्त रहता है, जैसे कमल का पत्ता जल से ।
(१३६) रागी मनुष्य के लिए ही उपर्युक्त इन्द्रियों तथा मन के विषम-भोग दुःख के कारण होते हैं। परन्तु वीतरागी को किती प्रकार कभी तनिक-सा दुःख नहीं पहुँचा सकते. ।