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________________ 'अप्रमादनमून ७५ (१२१) धर्म पर श्रद्धा होने पर भी शरीर से धर्म का प्रावरण करना बड़ा कठिन है ! संसार में बहुत से धर्म-श्रद्धानी मनुष्य भी कामभोगों में मूच्छित रहते हैं। हे गौतम ! य-मात्र मी प्रमाद न कर | (१.२। तेरा शरीर दिन-प्रति-दिन जीर्ण होता जा रहा है, सिर के बाल पककर श्वेत होने लगे हैं, अधिक क्या-शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार का बज घटता जा रहा है । हे गौतम ! शह-मात्र भी प्रमाद न कर । (१२३) अचि, फोड़ा, विसूचिका ( हैजा) श्रादि अनेक प्रकार के रोग शरीर में बढ़ते जा रहे हैं। इनके कारण तेरा शरीर बिल्कुल क्षीण तथा ध्वस्त हो रहा है। हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रसाद न कर । (१२४). . जेसे कमज शरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं छूताअलग अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी संसार से अपनी समस्त श्रासक्सियाँ दूर कर, सब प्रकार के स्नेह बन्धनों से रहित हो जा । हे गौतम ! क्षण-रात्र भो प्रमाद न कर । (१२५) स्त्री और धन का परित्याग करके तू महान् अनगार पद को पा चुका है, इसलिए अब फिर इन यमन की हुई वस्तुओं का पान न कर । हे गौतम ! क्षण-मान भी माद न कर ।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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