________________
१०६
चाल-सूत्र
(12) जय अनार्य मनुष्य काम-भोगों के लिये धर्म को छोड़ता है तत्र भोग-विजास में मूच्छित रहनेवाला वह मूर्स अपने भयंकर भविश्य को नहीं जानता।
(१८९) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्न रहने वाला चोर अपने ही दुप्फमों के कारण दुःख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य अपने दुराचरणो के कारण दुख पाता है और अन्तकाल में भी संवर धर्म की धाराधना नहीं कर सकता।
(१८६) जो मितु प्राध्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सोजाया करता है, वह पाप श्रमण' कहलाता है।
(१०) वैर रखने वाला मनुग्य हमेशा वैर ही किया करता है, यह वैर में ही मानन्द पाता है। हिंसा-कर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले है, अन्त में दुस पहुंचाने वाले हैं।
(१६१) यदि अनानी मनुष्य महीने-महीने भर का घोर तप करे और पारणा के दिन घेवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सरपुरपो के बताये धर्म का प्राचरण करने वाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुँच सकता।