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________________ मितु-सूत्र १४६ (२७२) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अचचल है, जो प्रशान्त है, जो सयम में ध्रुवयोगी (सर्वया तल्लीन ) रहता है, जो सकट आने पर व्याकुल नहीं होता, जो : कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है। (२७३) जो कान में काटे के समान चुमनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारी को, तथा अयोग्य उपालभों को शान्तिपूर्वक सह लेता है, जो भीषण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जना वाले स्थानों में भी निर्भय · रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिनु है। (२७४) जो शरीर से परीपही को धैर्य के साथ सहन कर संसार-गत से अपना उद्वार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर मदा श्रमणे चित तपश्चरण में रस रहता है, वही भिन्तु है। (२७) जो हाथ, पाँव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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