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જૈન ગ્રંથમાળા દાદાસાહેબ, ભાવનગર. ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
5422008
श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथाय नमः
श्रीजैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहः।
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संपादक पूज्यपादगुरुवर्यश्रीअमी विजयशिष्याणुः ।
ज्योतिर्विद्याभिलाषी उपाध्याय क्षमाविजय गणी
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प्रकाशक
शाह मूलचंद बुलाखीदास मुळजी जेठा मार्कीट, द्वारकेश गडी, मुंबई
मूल्य २ रूप्यकद्वयम् ।
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પ્રખર વકતા છે . તપાદ છે 1૦ ૦ ૮ મુની મહારાજ શ્રી રમુના વિજયજી મહારાજના શિ થરન
પરમ પૂજ્ય પંન્યાસજી મહારાજ શ્રીમતુ સમાવિજયજી ગણીવર ,
:
-
ગણીપદ વિ. સં.
જન્મ વિ. સં. દીક્ષા વિ. સં. - ૧૯
૧૯૭૩ જંબુ, (પંજાબ - ( બીકાનેર, મારવાડ)
e પન્યાસપદ છે. સં.
૧ર૦ રાજનગર માં ના દલદદ)
રાજનગર. (અમદાવાદ)
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ོང་ང་
પ્રખર વકતા ધ્રુજ્યપાદ શ્રી ૧૦૦૮ મુની મહારાજ શ્રી અનીવિજયજી મહારાજના શિષ્યરત પરમ પૂજ્ય પન્યાસજી મહારાજ શ્રીમત્ ક્ષમાવિજયજી ગણીવર.
જન્મ વિ. સં ૧૯૫૮
જંબુ, (પાબ)
Sudharma
દીક્ષા વિ. સં.
૧૯૭૩
(બીકાનેર, મારવાડ)
ગણીપદ વિ. સં.
૧૯૯૦
રાજનગર, (અમદાવાદ)
ara, Surat
શ્રી પ્રકાશ ભાવ શ્રી મપ્રકાશ ભાર
પન્યાસપદ વિ. સં. ૧૯૯૦
રાજનગર, (અમદાવાદ)
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श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथाय नमः श्रीजैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहः।।
संपादक पूज्यपादगुरुवर्यश्रीअमीविजयशिष्याणुः
ज्योतिर्विद्याभिलाषी उपाध्याय क्षमाविजय गणी
प्रकाशक शाह मूलचंद बुलाखीदास मुळजी जेठा मार्कीट, द्वारकेश गल्ली, मुंबई
मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रालये मुद्रापयित्वा प्रकाशितः ।
शके १८५९, सन १९३८.
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प्रिंटरः-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस,
२६-२८, कोलभाट स्ट्रीट, मुंबई.
पब्लिशरः-शाह मूलचंद बुलाखीदास, मुळजी जेठा
मार्कीट, द्वारकेश गल्ली, मुंबई.
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NAMNANASUNNINNUNNNNNNNNNNNNN
UNELTISSERIETTIVITATSISPISETITONETTISIITTAISESTINIDITANNITINO
शाह मूलचंद बुलाखीदास.
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। जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहः। । ज्योतिर्विदाभरणपूज्यपादाचार्यश्रीविजयदानसूरीशेभ्यो नमः । । सुविहितशिरोमणिआचार्यवर्यश्रीहरिभद्रसूरिसूत्रिता।
।लमशुद्धिः।
अवितहसव्वाएसं नमिउं चोवीसमं जिणवरेसं । वुच्छामि समासेणं लग्गं सुगुरूवएसेणं ॥ १॥ कजं कुणंतयाणं सुहावहो जोइसम्मि जो३ भणिओ । कालविसेसो लग्गं कजं पुण बहुविहं जइ वि ॥ २ ॥ तह वि हु इह लोगुत्तरदिक्खोवट्ठावणापइट्ठाओ । अहिगिच्च लग्गसुद्धिं भणिजमाणं निसामेह ॥ ३ ॥ सा पुण इह विनेया गोअरसुद्धीई दिवससुद्धीएं । ६ तस्समयउदयपत्तस्स तह वि लग्गस्स सुद्धीएँ ॥ ४ ॥ गुरुससिरविणो बलिणो दिक्खोवट्ठावणासु सीसस्स । जइ तो गोअरसुद्धी गुरुणो वि हु ससिबले संते ॥ ५ ॥ बिंबपइट्ठाइ पुणो कारावयसावयस्स बलिएसु ।९ गुरुससिसूरेसु भवे गोअरसुद्धित्ति बिंति बुहा ॥ ६॥ दोपंसत्तैनवमिकारसमो जम्मरासिणो जीवो । पढमतिसत्तैदसमेक्कारसमो ससहरो बलवं ॥ ७ ॥ दोपंचनवमंगो विहु सियपक्खेसो रवी उ तिछदसमो । १२ इक्कारसमो अ बली सेसठाणेसु ते अबला ॥ ८॥ सियपक्खे चंदबलं असिए ताराबलं पि गहियव्वं । तं पुण तिपंचसत्तमत्ताराओ मुत्तु सेसा उ ॥ ९॥ पढमा जम्मणि रिक्खे तत्तो दसमम्मि इगुणवीसे अ । बीआ १५ तप्परएसुं तिसु एवं जाव नव तारा ॥ १० ॥ जम्मं संपई विप्पई खेमा पञ्चरये साहा निहणा । मित्ता अइमित्ता वा तारा नेआ असिअपक्खे ॥ ११ ॥ जइ नो नजइ जम्मणरासी तो गणह नामरासीओ । अव-१८ कहडाचकाओ सा नजइ तं पुण पसिद्धं ॥ १२ ॥ सुहमासवारतिहिं. रिक्खेंजोगकरणे दिणम्मि सगुणमि । निहोसे तह निदोससँगुणरिक्खंमि दिणसुद्धी ॥ १३ ॥ मिग्गसिराई मासह चित्तपोसाहिए वि मुत्तु मुहा ।।
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। जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लमशुद्धिः ।
जइ न गुरू सुक्को वा बालो वुड्डो य अत्थमिओ ॥ १४ ॥ दसै तिन्नि दिणे बालो पणदिणे पक्खं च भिगुसुओ वुड्डो । पच्छिमपुवासु कमा गुरु ३ वि जहसंभवं एवं ॥ १५ ॥ आइञ्चबुहविहप्फइसणिवारा सुंदरा वयग्गहणे । बिंबपइट्ठाइ पुणो विहप्फइसोमबुहसुक्का ॥ १६ ॥ मुत्तुं चउदसि पनरसि नवमट्ठमि छट्टि बारसि चउत्थी । सेसा उ वयग्गहणे गुणावहा ६दुसु वि पक्खेसु ॥ १७ ॥ सियपक्खे पडिवय बीअ पंचमी दसमि तेरसी पुन्ना । कसिणे पडिवय बीआ पंचमी सुहया पइट्ठाए ॥ १८ ॥
सम्वे वि वारतिहिओ सुहया सइ सिद्धिजोगसब्भावे । चंदंमि उव९चयंमि न उण नट्ठम्मि झीण्णे वा ॥ १९ ॥ सियपडिवयाउ दस दिण चंदो मज्झिमबलो मुणेयव्यो । तत्तो अ उत्तमबलो अप्पबलो तइय
दसमम्मि ॥ २० ॥ उत्तररोहिणिहत्थाणुराहसयभिसयपुत्वभद्दवया । १२ पुस्स पुणव्वसु रेवइ मूलस्सिणि सवण साइ वए ॥ २१॥ मह मियसिर हत्थुत्तर अणुराहा रेवई सवण मूलं । पुस्स पुणव्वसु रोहिणि
साइ धणिट्ठा पइट्टाए ॥ २२ ॥ कारावयस्स जम्मणरिक्खं दस सोलसं १५ तहऽहारं । तेवीसं पंचवीसं बिंबपइट्ठाइ वजिज्जा ॥ २३ ॥ पढमो छट्ठो नवमो दसमो तह तेरसो अ पन्नरसो । सत्तरसेगुणवीसो सत्तावीसो
असुहजोगो ॥ २४ ॥ छट्ठो छ दसमो पणे पढमो नवमो अ पंचें१८ घडिआओ । तीसं सत्तावीसो नवं तेरसमो अ पन्नरसो॥२५॥ सव्वं
सत्तरसेगुणवीसो वजो अवस्समन्ने उ । जोगा सव्वे वि सुहा नायव्वा
सव्वकज्जेसु ॥ २६ ॥ विहिँ विवजिऊणं पाएण सुहाई सव्वकरणाई । २.आणंदयरं च दिणं सगुणं तह सिद्धिजोगजुअं ॥ २७ ॥ सिअंबुहंकुज
सणिगुरुणो पंचसु पढमासु छडि कुजसुका । सत्तमि बुहे अट्ठमि सूरमंगला नवमि सणिससिणी ॥ २८ ॥ दसमि गुरु इक्कारसि गुरुसुका २५ बारसी बुहो अ सुहो । तेरसि मंगलसुका चोदसि सणि पंचदसि
जीवो ॥ २९ ॥ हत्थुत्तरमूलाई रविणो सिद्धाइं पंच रिक्खाई। रोहिणिमिअसिरपुस्साऽणुराहसवणाइं सोमेणं ॥ ३० ॥ उत्तरभद्दवयस्सिणिरेव२. इरिक्खाई तिन्नि भोमेणं । कत्तिये रोहिणि मिअसिरै पुस्र्स अणु
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। जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लग्नशुद्धिः। ३ राहो उ पंच बुहे ॥ ३१ ॥ अस्सिणि पुरस पुणध्वसु अणुराही रेवई अ गुरुवारे । सत्तम पढमिकारस रेवई अणुशाह सण सिए ॥ ३२ ॥ रोहिणि सवणं सौई सणिणा इय 'रिक्रुधारसुहजोगा। अन्ने वि एव.३ माइ वित्थरगंथेसु जाणिजा ॥ ३३ ॥ अस्सिणि रोहिणि मूलं हर्त्यपुणव्वसुविसाहमहँसवर्णी । भद्दवया वि अ पुवा मंगलसिअंबुहैससीवारा ॥ ३४ ॥ दसमीछढिक्कारसिपडिवयंपंचमीतिहीणमन्नयरा । एसो कुमारजोगो रिक्खतिहीवारजोगम्मि ॥३५॥ घरवेसमित्तयाधम्मसिप्पविजाइया सुहा भावा । कायव्वा एएणं विरुद्धजोगं विवजित्ता ॥३६॥ रयच्छन्नयाई संकेतिगहणदड्डाइआ य दिणदोसौ । तह दिवस-१ वारनक्खत्तअसुहजोगेंद्धपहराई ॥ ३७॥ रयच्छन्नमब्भच्छन्नं पयंडपवणं तहा समुग्घायं । सुरवणुपरिवेस दिसादाहाईजुअं दिणं दुई ॥३८॥ संकंतीए पुव्वं संकंतिदिणं तयग्गिमं च दिणं । वजिज्जा तह संकेति-१२ दबृतिहिओ अ एआओ ॥ ३९ ॥ धणुमीणगए बीआ विसे अ कुंभे अ तह चउत्थीए । कक्कडमेसे छट्ठी अट्ठमि मिहुणो अ कने अ॥ ४०॥ विच्छियसीहे दसमी तुले अ मयरे अ बारसी भणिया । एआ दड्डतिहीओ १५ वजेअव्वा पयत्तेणं ॥ ४१ ॥ ससिसूराणं गहणं जंमि दिगंमि तमाइओ काउं । सत्तदिणाई वजह ताई जओ गहणदड्डाई ॥ ४२ ॥ सूरे बारसि सोमे इगारसी दसमि मंगले वजा । नवमि बुहे गुरु अहमि सत्तमि १८ सुक्कम्मि सणि छट्ठी ॥ ४३ ॥ ससिसूरदिणे सत्तमि तइआ सुक्कम्मि छट्टि गुरुवारे । पडिवय तइया य बुहे विवजियाओ सुहे कज्जे ॥४४॥ जिट्ठा महा विसाहा अणुराहा रविदिणम्मि वजिजा । आसाढाओ२१ दुन्नि य तह य विसाहा उ सोमम्मि ॥ ४५ ॥ सयभिसअहधणिट्ठा मंगलवारम्मि पुवभद्दवया । मूलऽस्सिणिभरणीरेवईओ वजिज बुहवारे ॥ ४६॥ रोहिणिमिअसिरअदासयभिसयाओ विहप्फइदिणम्मि ।२४ रोहिणिमहअसिलेसापुस्साइं सुहाई नो सुक्के ॥४७॥ उत्तरफग्गुणि हत्थो चित्ताऽऽसाढा दुगं च एयाइं । पंच वि नक्खत्ताई सणिवारे वजिअव्वाइं ॥४८॥ वजिज्ज भरणि चित्ता उत्तरसाढा तहेव य २०
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४ ।जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लमशुद्धिः । धणिट्ठा । उत्तरफग्गुणि पुस्सं रेवई सूराइसु कमेणं ॥ ४९ ॥ अद्धप्पहरो कुलिओ उवकुलिओ असुहकालहोरा य । एए वि हु ३ दिणदोसा वजेअव्वा सुहे कजे ॥ ५० ॥ कुजसिअरविबुहसणिससिगुरुवारेसु विवजणिजो य । अद्धप्पहरो बि-ति-चउँ-पंच-छ-सत्त-टुमो कमसो ॥ ५१ ॥ दिणवाराओ जइमा सणिगुरुणो तइयमद्धपहरेसु । ६ कुलिओ तह उवकुलिओ जहसंखेणं मुणेयन्वो ॥ ५२ ॥ आ-सु-बु-सो
स-गुमं तं वलयं जाणाहि कालहोरत्ति । अड्डाइज्जा घडिया दिणवाराओ गणसु पढमं ॥ ५३ ॥ संज्झागयं धूमियमालिंगियदड्डेविद्धसोवर्गहं । ९ लत्तापाएकग्गलदूसिअं इअ दुट्ठरिक्खाइं ॥ ५४ ॥ संज्झागयं रविगर्य विडेरं सग्गहं विलंब चै । राहुहयं गहभिन्नं विवजए सत्त नक्खत्ते ॥५५॥
संज्झागयंमि कलहो आइच्चगए न होइ निव्वाणी । विडेरे परविजओ १२ सगहमि अ विग्गहो होइ ।। ५६ ॥ दोसो असंगयत्तं होइ कुभुत्तं विलंबिनक्खत्ते । राहुहयम्मि अ मरणं गहमिन्ने सोणिअग्गालो ॥५७ ॥
अत्थमणे संज्झागय रविगय जहि ठिओ उ आइच्चो। विडेरमवद्दारिय १५ सग्गहं कूरग्गहठिअं तु ॥ ५८ ॥ रविरिक्खपिट्टओ जं विलंबि राहुहयं
जहिं गहणं । मज्झेणं जस्स गहो वच्चइ तं होइ गहमिन्नं ॥ ५९॥
समिंगलाण पुरो धूमियमालिंगियं च तजुत्तं । आलिंगियस्स पच्छा जं १८ रिक्खं तं भवे दद्धं ॥ ६० ॥ तिरियं सत्तसलाया उडाओ सत्त ताण
मज्झेणं । उवरिमपढमसलागाण कत्तिया तयणु सेसाणि ॥ ६१ ॥
दाउं नक्खत्ताई दिज गहे तद्दिणंमि जो जत्थ । तो जोइज्जा वेहं गण२. यवरो य चंदरिक्खस्स ॥ ६२ ॥ जइ एगसलागाए एकदिसि हुज
चंदनक्खत्तं । बीअदिसाए हुज्जा को वि गहो तो भवे वेहो ॥ ६३ ॥
उत्तरसाढापाए चउत्थए सवणपढमघडिआसु । चउसु य अभिई तत्थ २४ ठिए गहे रोहिणी वेहो ॥ ६४ ॥ पंचट्ठचउदसट्ठारइगुणवीसदुवीसतेवीसे । चउवीसमे अ रिक्खे उवग्गहो सूररिक्खाओ ॥ ६५ ॥ रवि. मंगल-गुरु-सणिणो दुवालेसं तईंछ?अट्ठमयं । निअरिक्खाओ कमेणं २७ रिक्खं लत्तंति अग्गिमयं ॥ ६६ ॥ बुह-सुक-राहु-पुन्निमससिणो पिटेण
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। जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लमशुद्धिः। ५ निययरिक्खस्स । सत्तम पंचम नवमं बावीसइमं च लत्तंति ॥६७॥ अस्सेस महा चित्ता अणुराहा सवण रेवई होइ । जइमा रविरिक्खाओ पाओ अस्सिणीइ तइममि ॥ ६८ ॥ आइच्चो जत्थ ठिओ तत्तो अणुराह ३ जइमिया होइ । तत्तो छठे छठे दस बीए पंचमे पाओ ॥ ६९ ॥ पढमो छट्ठो नवमो दसमो तह तेरसो अ पन्नरसो । सत्तरसे-गुणवीसो सत्तावीसो अ एयाणं ॥ ७० ॥ जो जोगो तस्संखं रिक्खं जइमं हविज ६ रविरिक्खा । तइमे ससिरिक्खे अस्सिणीइऊ इक्कग्गलो होइ ॥ ७१॥ तिरियं तेरस रेहा एका तम्मज्झगामिणी उड्डे । काऊणं चक्कमिणं सिररिक्खं दिज तस्स सिरे ॥ ७२ ॥ विसमे जोगे इकं अट्ठावीसं समंमि ९ दिजाहि । अद्धीकयंमि तंमि उ जं तं इह मुणसु सिररिक्खं ॥ ७३ ॥ अस्सिणि अणुराहा वि य मियसिर मूलो पुणव्वसू पुस्सो । असलेस महा चित्ता विक्खंभाईसु सिररिक्खा ॥ ७४ ॥ सिररिक्खाउ कमेणं १२ सत्तावीसं पि दिज रिक्खाइं । रेहासु तासु कमसो रिक्खेसु अ ठवसु ससिसूरे ॥ ७५ ॥ एकाए रेहाए जइ दुन्नि वि डंति चंद आइच्चा । एकग्गलो हु एवं जायइ नक्खत्तदोस त्ति ॥ ७६ । सगुणं पुण विनेयं १५ रिक्खं रविजोगसंजुअं तं च । रविरिक्खाओ चउत्थं छ-नव-दस तेरसं वीसं ॥ ७७ ॥ इत्तो वि लग्गसुद्धी सा पुण छवग्गसुद्धिओ होई। उदयत्थसुर्खिओ तह जहुत्तगहबलगुणेणं च ॥ ७८ ॥ गिह होरा दिक्काणा १८ नवं बारसे तीस अंसया य जहिं । सोमग्गहाण तणपा छवग्गसुद्धी तहिं लग्गे ॥ ७९ ॥ जइ पुण छवग्गसुद्धी संभवइ न चेव कह वि लग्गम्मि । तो पंचवग्गसुद्धी विसुद्धिहेऊ वि लग्गस्स ॥ ८० ॥ एसा २१ य बारसहं लग्गाणं जंमि तीसइ विभागे । संभवइ तयं वुच्छं लग्गपमाणं कहेऊणं ॥ ८१ ॥ दोईगुणवीस दोएंगवन्न सय तिन्नि तिजुअतेऔला । सँगैयाल संत्ततीसा मेसाइ पला कमुक्कमओ ॥ ८२ ॥ विसं २४ मयरोण चउदसे अहमए मीण-कर्क कन्नाणं । भायम्मि बारसे विच्छियस्से कुंभस्स छन्वीसे ॥ ८३ ॥ चउवीसमे तुलाए मेसस्सिगवीसमंमि भागम्मि । सीहस्स द्वारसमे धणमिहुणाणं च सत्तरसे ॥ ८४ ॥ इय २७
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६ । जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लग्नशुद्धिः। तीसइभागेसु छव्वग्गो हुंति पंचवग्गो वा । सोमग्गहाण तणओ हियइच्छियकज्जसिद्धिकरो ॥ ८५ ॥ अन्ने नवंसगं चिय एगं चित्तूण सोम३ गहतणयं । पभणंति लग्गसुद्धिं विणा वि छव्वग्गसुद्धीए ॥ ८६ ॥ गिहहोराई लग्गे गहस्स जं जस्स संति होइ । तं संपइ पयडत्थं वुच्छं
अबुहाण बोहत्थं ॥ ८७ ॥ कुजसुक्कबुहिंदुरविबुहसियकुजगुरुसणीसणी६ गुरूणं । मेसाईआ उ बारस लग्गाण घराई जहसंखं ॥ ८८ ॥ लग्ग• स्सद्धं होरा सा पढमा दिणयरस्स विसमंमि । बीआ य तहिं ससिणो विवजएणं समे लग्गे ॥ ८९ ॥ दिकाणो अ तिभागो सो पढमो नियय९रासिअहिवइणो । बीओ पंचमपहुणो तइओ पुण नवमगिहवइणो ॥९॥ मेसे मेसाईआ विसंमि मयराइया नवंसाओ। मिहुणम्मि तुलाईया कक्के
कक्काइया हुंति ॥ ९१ ॥ पुण मेसमयरतुलकक्कडाइया चउसु सीहमाईसु । १२ एवं धनुहाईसु वि नवंसया हुंति नायव्वा ॥ ९२ ॥ बारसभागो पयडो
सो पढमो निअरासिणो होइ । बीओ बीयस्स उ जाव बार बारसस्स
भवे ॥ ९३ ॥ कुजसणिगुरुबुहसुक्का पण पणे अर्ड सत्त पंचे अंसाणं । १५विसमे तीसंसं पहू विवजएणं समे लग्गे ॥ ९४ ॥ ससहरगुरुबुहसुक्का
सोमा सामन्नओ मुणेयव्वा । सेसा य हुंति कुरा तजुअघुहखीणससिणो अ॥ ९५ ॥ उदयत्थसुद्धिमिन्हि भणामि उदओ नवंसगो इत्थ । १८ तम्मिय लग्गविइन्ने सनाह दि8 उदयसुद्धी ॥ ९६ ॥ लग्गे नवंसगो जो
तस्सत्तमठाण अहिवई पिच्छे । लग्गा सत्तमठाणं जइ तो इह अत्थसुद्धि त्ति ॥ ९७ ॥ वयगहणपइट्ठासु उदयत्थ विसुद्धिवजि पि सुहं । २१ मन्नंति केइ लग्गं तं च मयं बहुमयं नेह ॥ ९८ ॥ इह उदयत्थविसुद्धी
गहदिट्ठीए विणा न संभवइ । एएण पसंगेणं गहदिट्ठी संपवक्खामि ॥९९।।
सट्ठाणाओ दसमं ठाणं तइयं च पायदिट्ठीए । पिच्छंति गहा नवमं सपंचमं २४ अद्धदिट्ठीए ॥ १०० ॥ पउणाए दिट्ठीए चउत्थयं अट्ठमं च पिच्छंति ।
सव्वाए सत्तमयं सुहासुहफलं च दिट्ठिसमं ॥ १०१ ॥ लग्गस्स गहा
बलिणो हवंति ते जत्थ संठिया ठाणे । तं वुच्छं दिक्खाए पढमं पच्छा .२७ पइट्ठाए ॥ १०२ ॥ दिक्खा लग्गे दो पंच छट्ठ इक्कारसो रवि सुहओ।
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। जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लग्नशुद्धिः। ७ चंदो बीओ तइओ छट्ठो इक्कारसो तह य ॥ १०३॥ तइओ छट्ठो दसमो इकारसमो कुजो बुहो अ सुहो । लग्गगओ चउ-पंच-सत्तम-नव-दसमगो अ गुरू ॥ १०४ ॥ तइओ छट्ठो नवमो दुवालसो सुंदरो भवे सुक्को ।३ बीओ पंचमओ अट्ठमो अ इक्कारसो असणी ॥ १०५ ॥ दुपणछट्ठो दु-ति-छठे ति-छ-दसि ति-छ-दसि तिकोणकिंदेसु । ति-छ-न-व-बारसि दु-पण-ट्ट सव्वि इगारे सियं मुत्तुं ॥१०६॥ गुरुबुहससिसूराणं छन्वग्गो ६ इह सुहो न सेसाणं । जा उण छव्वग्गसुद्धी पुव्वुत्ता सा पइट्ठाए॥१०७॥ अहवा वि मज्झिमबलं काऊण सणिं गुरुं च बलवंतं । अबलं शुकं लग्गे तो दिक्खं दिज सीसस्स ॥ १०८ ॥ दुपणछअडेक्कारसठाणे ९ मझिमबलो सणी होइ । लग्गगओ चउ सत्तम दसमो अ गुरू भवे बलवं ॥ १०९ ॥ छट्ठो दुवालसो तह अबलो सुक्को सुहो वयग्गहणे । दो तइय पंच छडिक्कारसमो तह बुहो सुहओ ॥ ११० ॥ तइए छटे १२ दसमे इकारसमम्मि मंगले लग्गे । दिक्खं पत्तो सत्तो जायइ बहुनाणतवजुत्तो ॥ १११ ॥ सुकंगारयमंदाण सत्तमे ससहरे गहियदिक्खो । पीडिजए अवस्सं सत्थदुसीलत्तवाहीहि ॥ ११२ ॥ इय दिक्खाकुंडलिया १५ दिसिमित्तं दंसिआ मए एवं । वुच्छं इओ पइट्ठाकुंडलियमहं समासेणं ॥ ११३ ॥ गुरुबुहसुक्का सुहया लग्गगया मज्झिमो ससी लग्गे । सूरंगारयसणिणो वजेयव्वा पयत्तेणं ॥ ११४ ॥ गुरुबुहससिणो सुहया १८ बीए ठाणम्मि मज्झिमो सुक्को । कजस्स विणासयरा दिणयरसणिमंगला बीआ ॥ ११५ ॥ तइयम्मि सुहा रविससिबुहभोमसणिच्छरा न संदेहो। मज्झिमओ सुरमंती सुक्को उ असुंदरो तइओ ॥ ११६ ॥ लग्गाओ२१ चउत्थगया गुरुबुहसुक्का सुहावहा भणिया । मज्झत्थो अ चउत्थो चंदो सेसा गहा असुहा ॥ ११७ ॥ रविससिकुजसुक्कसणी पंचमठाणम्मि मज्झिमा नेआ । बुहगुरुणो पुण दुनि वि सव्वत्थपसाहया तत्थ ॥११८॥२४ रविससिकुजगुरुसणिणो छढे ठाणम्मि संठिआ सुहया । सुक्कबुहा पुण छट्ठा मज्झिमया हुंति नायव्वा ॥ ११९ ॥ सत्तमठाणम्मि गुरू सुहओ
१ गुरु बुह सणि सूराणं इति प्रत्यन्तरे,
२७
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८
।जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लग्नशुद्धिः ।
सियससिबुहा य मज्झत्था । सणिसूरमंगला पुण वजेअव्वा पयत्तेणं
॥१२०॥ आइच्चसोममंगलबुहगुरुसुक्का विवजणिज्जाओ। अट्ठमठाणम्मि ३ठिया सणिच्छरो मज्झिमो भणिओ ॥ १२१ ॥ नवमम्मि सुहा भणिया सुक्कगुरू मज्झिमा य बुहससिणो। वजेयव्वा य सया सणिमंगलदिणयरा नवमा ॥ १२२ ॥ बुहगुरुसुक्का तिन्नि वि दसमम्मि हवंति कजसिद्धि६ करा । ससिसणिणो मज्झत्था असुहा रविमंगला दुन्नि ॥ १२३ ॥ सूराईया सत्त वि इक्कारसगा उ कजसिद्धिकरा । बारसमा पुण सव्वे विन्नेया
अत्थहाणिकरा ॥ १२४ ॥ छठे दुगे अ छठे आइम पण दसमयम्मि ९अतिअढे । चउनवदसगे ति छगे सव्वेगारे न बारसमे ॥ १२५ ॥ अहवा इगद्गचउपंचनवमदसमा सुहा सोमा । कूरा छट्ठा चंदो बीओ
सव्वे वि इक्कारा ॥ १२६ ॥ इय विंबपइट्टा-सूरिट्ठवण-रायाभिसेअ१२ वीवाहे । अन्ने वि य सुहकज्जेसुं कुंडलिया कजसिद्धिकरा ॥ १२७ ॥
जइ पुण तुरियं कजं हविज लग्गं न लब्भए सुद्धं । तो धुवपयच्छायाई निचं लग्गं गहेयव्वं ॥ १२८ ॥ तिरियं ठियम्मि धुवए करिज दिक्वा १५पइट्ठमाईयं । उद्धट्ठियम्मि तम्मि य कुणसु धयारोवणप्पमुहं ॥ १२९ ॥ तणुछायाइपयाई सणिससिसुक्केसु अद्धनव लिज्जा । अट्ट बुहे नव भोमे
सत्तिकारस गुरुरवीसु ॥ १३० ॥ एवं छायालग्गं बुहेहिं सव्वुत्तमं १८ समक्खायं । सव्वविसुद्धे वि दिणे सुहावहं सबकन्जेसु ॥ १३१ ॥ इय
सुंदरे वि लग्गे सुहसउणबलेण कुणसु किच्चाई । अहव निमित्तबलेणं
वयणमिणं हारिभई ति ॥ १३२ ॥ इय तिविहसुद्धिजुत्तं तीए विउत्तं च २१ संसियं लग्गं । जं किंचि इह अजुत्तं वुत्तं सोहिंतु तं विउसा ॥ १३३ ॥
॥ इति श्रीहारिभद्रीयं लग्नशुद्धिप्रकरणम् ॥
SMA
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॥ परोपकारप्रवणश्रीरत्नशेखरसूरिविरचिता ॥
॥ दिनशुद्धिः ॥
जोइमयं जोइगुरुं वीरं नमिऊण जोइदीवाउ । दिणसुद्धि दीविअ. मिणं पयडत्थं चेव पयडेमि ॥ १ ॥ रविचंदभोमबुहगुरुसुक्कसणिया३ कमेण दिणनाहा । चं सु गु सोमा मं स र कूरा य बुहो सहायसमो ॥२॥ चं स गु मं र सु बु वलयकमसो दिणवारमाइउ किच्चा । सड्डघडीदो. माणा होराहिव पुण्णफलजणया ॥ ३ ॥ विच्छिअकुंभाइतिए निसिमुहिक विसधणुहिकवितुलि मज्झे । मकमिहुणकन्नसिंहे निसिअंते संकमइ वारो॥४॥ चउघडिअ सुवेला, एग दो छच्च सूरे, पण इग अड सोमे, अट्ठ चऊ सत्त भोमे । छ तिअ अड बुहम्मि, पंच दो सत्त जीवे, छ९ अडिग चउ सुक्के, तिन्नि सत्तट्ठ पंच ॥ ५ ॥ रविबुहसुक्का सत्तउ हायंता कुलिअकंटउवकुलिआ । अड ति छ इग चउ सग दो सूराइसु कालवेलाओ ॥ ६ ॥ ता चउजुअ अद्धपहरा तेसिं सोलडदुतीसदुएगचऊ । १२ चउसट्ठी मज्झपला हेया पुव्वाउ दिसि छट्ठी ॥ ७ ॥ __ योग रवि सोम मंगळ | बुध गुरु शुक्र | शनि कुलिक
अर्घप्रहर. १५
अर्धप्रहर. उपकुलिक
५ ४ | ३ २१ ७६ अर्धप्रहर. काळवेळा ८३६१ ४.२ अर्धप्रहर. १८ वर्ण अर्धप्रहर | २ | ५ | ८ | ३६ अर्धप्रहरना मध्य पळो | १६, ८ यात्रादिकमां वर्जवा. | पूर्व वायव्य दक्षिण ईशान पश्चिम अग्नि | उत्तर
जै०२
कंटक
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१० ।जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः । नंदा भद्दा य जया रित्ता पुण्णा य तिहिनंदा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा | सनामफला । पडिवइ छट्टि इगारांसे तिथि| १ | २ | ३ | ४ | ५ ३ पमुहा उ कमेण नायव्वा ॥ ८॥ छट्ठी तिथि| ६ | ७ | ८ | ९ | १० रित्तट्ठमी बारसी अ अमावसा गयतिही तिथि | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ उ। वुड्डतिहि कूरदद्धा वजिज सुहेसु कम्मेसु ॥९॥ मेसाइ चउसु चउरो तिही ६ कमेणं च पुण्ण सव्वेसु । एवं परउ सकूररासि असुहा तिही वजा॥१०॥ छग चउ अट्ठमि छट्टि दसमट्ठमि बार दसमि बीया उ । बारसि चउत्थि बीआ मेसाइसु सूरददिणा॥११॥* इति तिथिद्वारम् *- सउणि चउप्पय
धन मीन संक्रांतिमां २, वृष कुंभ संक्रांतिमा ४ सूर्य मेष कर्क संक्रांतिमा ६, कन्या मिथुन संक्रांतिमां ८ दग्धाः
वृश्चिक सिंह संक्रांतिमा १०, मकर तुला संक्रांतिमा १३ १२ नागा कित्थुग्घा किण्हचउद्दसि निसाओ। थिरकरण तीस घडिआ परओ
चलकरण एयाई॥१२॥ बव-बालव-कोलव-तेतिलक्ख गर-वणिअ-विट्ठिनामाणो । पायं सव्वे वि सुहा एगा विट्ठी महापावा॥१३॥ किण्हे पक्खे दिणे १५ भद्दा सत्तमी अ चउद्दसी । रत्तिं दसमि तीआए सुक्के एगदिणुत्तरा॥१४॥
भद्रानिवासयन्त्रम् । चउद्दसी अट्ठमी सत्तमीए राका चउत्थी दसमीइ तिथि प्रहर दिशा १८ भद्दा । एगारसी तीअ कमा दिसाहिं तस्संखजामे | १४ | १ | पूर्व भिमुहाऽतिपावा ॥ १५॥ पण दुग दस पण पण
अग्नि
दक्षिण तिअ विट्ठिघडी वयण कंठ उरु नाही । कडि पुच्छगा २१ य सिद्धिखयनिस्सकुबुद्धिकलहविजयकरा ॥ १६ ॥ कित्थुग्घ सउणि कोलव उड्ढकरण तिन्नि, तिन्नि सुत्ताई।
तेइल नाग चउप्पय, पण सेस निविट्ठकरणाई॥१७॥ २४-7 इति कारणद्वारम् - ति ति छ पण ति एग चऊ| ३ | ईशान
ति छ पण दु दु पणिग एग चउ चउरो। ति इगार चउ चउ तिगं ति चउ
सयं दु दुग बत्तीसं ॥ १८ ॥ इअ रिक्खाणं कमसो परिअरतारामिई २. मुणेयव्वा । तारासमसंखागा तिही वि रिक्खेसु वजिजा ॥ १९॥
१५
१०
वायव्य
११
उत्तर
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राशियुतानि नक्षत्रपादाक्षराणि
| जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः ।
तारा | नक्षत्र
३
स्वाति
६
विशाखा
न
तारा नक्षत्र
३ पुष्य
अश्विनी भरणी ३ अश्लेषा
कृत्तिका ६ मघा
रोहिणी
मृगशीर्ष
१ हस्त
૪
१ उत्तराषाढा ४
रेवती
९
आर्द्रा पुनर्वसु ४ चित्रा ऊ-खा अंतिमपायं सवण पढमघडिअचउ अभीइठिई । लत्तोवग्गहवेहे . एगग्गलप मुहकज्जेसु ॥ २० ॥ कित्ति मिग पुण असेसा उ-फ चिविसा जिट्ठ उ-ख धणी पू-भा । रेवइ अ एग दु ति चउ पायंता बार रासि कमा ॥ २१ ॥ | रु रे रो ता स्वाति. ति तु ते [ वृश्चिक- तो विशाखा.
न नि नु ने अनुराधा.
पूर्वाफाल्गुनी
३ उत्तराफाल्गुनी
डि
[ मेष - चु चे चो ला अश्विनी लिलु ले लो भरणी
ड
५
अ [ वृष - इ उ ए कृत्तिका ओ व विवु रोहिणी वे वो [ मिथुन- क कि मृगशिर कु घ ङ छ आर्द्रा
के को ह [ कर्क - हि पुनर्वसु
हु हे हो डा पुष्य
डे डो अश्लेषा
२
पुष ण ठ हस्त
पेपो [ तुला - ररि चित्रा
मूळ
५ पूर्वाषाढा
अनुराधा
ज्येष्ठा
तारा नक्षत्र
१
४
अभिजित्
श्रवण
४
धनिष्ठा
३ शतभिषक् पूर्वा भादपद
११
उत्तराभाद्रपद
| नो य यि यु ज्येष्ठा.
[ धन-ये यो भ भि मूळ. भुध फ ढ पूर्वाषाढा.
११
गगि [ कुम्भ-गु गे धनिष्ठा. गो स सि सु शतभिषक्.
तारा
३
३ ३
४
१००
मे [ मकर-भो ज जिं उत्तराषाढा. जु जे जो ख अभिजित्
खि खु खे खो श्रवण.
दुश झथ उत्तराभाद्रपद. | दे दो च चि रेवती.
२६
२
३२
[ सिंह-ममि मु मे मघा मोट टि टु पूर्वाफाल्गुनी
टे [ कन्या - टोप पि उत्तराफाल्गुनी से सो द [ मीन - दि पूर्वाभाद्रपद.
१२
१५
१८
२१
२४
गय हरिअ मया मोया हासा किड्डा रई सयणमसणं । तावा कंपा सुत्था ससिवत्था बार नामफला ॥ २२ ॥ पइरासि बारसंसा असुहा उ चए जओ सुहो वि ससी । एयाहिं हवइ असुहो सुहाहिं असुहो २७ वि होइ सुहो ॥ २३ ॥ दाहिणुच्चो समो चंदो उत्तरुच्चो हलोवमो । धणु am असूलाभो मेसासु अ कमुक्कामा ॥ २४ ॥ *** इति चन्द्रबलम् + जम्मा कम्मं च आहाणं तारा अट्ठ अंतरे । सस्सनामफला सव्वा अंतरा ३०
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१२ ।जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः । इअ नामिआ ॥ २५ ॥ संपई आवई खेमा जामा साहण निद्धणा । मित्ती परममित्ती अ दुट्ठा ति सग पंचमा ॥२६॥ जम्माहाणा विवजिज्जा ३ गमे एयाहिं वाहिओ । कट्टेण जीवई किण्हे पक्खे चंदुत्तरा इमा ॥२७॥
जन्म संपद् आपद् क्षेमा | यामा साधना निर्धना मैत्री | परम मैत्री
कर्म । । । । । । । । । । । ॥ ॥ ॥ ६ आधान । । । । । । । ॥ | ॥ ॥ | ॥ ॥ ।
चउ छ8 नवम दसमं तेरस वीसं च सूररिक्खाओ । ससिरिक्खं होइ तया रविजोगो असुहसयदलणो ॥ २८ ॥ सोमे भोमे बुहे सुक्के अस्सि९णाई 'बिइंतरा । पंचमी दसमी नंदा सुहो जोगो कुमारओ ॥२९॥
सूरे सुके बुहे भोमे भद्दा तीया य पुण्णिमा । बितरा भरणीमुक्खा
राजजोगो सुहावहो ॥३०॥ थविरो गुरु सणि तेरसि रित्तट्ठमि कित्तिआ १२ दुगंतरिआ । रुअछेआणसणाई अपुण(णो)करणं इहं कुजा ॥ ३१ ॥ मंगल गुरु सणि भद्दा मिग चित्त धणिट्ठिआ जमलजोगो । कित्ति पुण
उ-फ विसाहा पू-भ उ-खाहिं तिपुक्खरओ ॥ ३२ ॥ पंचग धणिट्ठ १५अद्धा मयकिअवजिज जामदिसिगमणं । एसु तिसु सुहं असुहं विहिअं दु ति पण गुणं होई ॥३३॥ पण छस्सग नव घडिआ विक्खंभ दुगंड
१ विष्कंभ ८ धृति । १५ वज्र । २२ साध्य २२ प्रीति
९ शूल १६ सिद्धि | २३ शुभ ३ आयुष्यमान् १० गंड १७ व्यतीपात | २४ शुक्ल १४ सौभाग्य ११ वृद्धि १८ वरीयान् । २५ ब्रह्मा १५ शोभन १२ ध्रुव | १९ परिघ २६ ऐन्द्र
६ अतिगंड १३ व्याघात | २० शिव । २७ वैधृति Back ७ सुकर्मा १४ हर्षण । २१ सिद्ध । २४ सूल वाघारं । परिहद्धदिणं वजे विहिइ विईपाय सयलदिणं ॥ ३४ ॥
अस्सिणि मिग अस्सेसा हत्थ गुराहा य उत्तरासाढा । सयभिस कमेण
एए सूराइसु हुंति मुहरिक्खा ॥ ३५ ॥ निअवारे निअरिक्खे मुहगणिए २० जत्तियं ससीरिक्खं । तावंतिमोवओगो आनंदाई सनामफलो ॥ ३६ ॥
६ २७ योगनामानि
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२८ उपयोगाः
| जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः ।
१ आनंद
२ काळदंड
३ प्राजापत्य
४ शुभ ५ सौम्य
६ ध्वांक्ष
७ ध्वज
८ श्रीवत्स
९ वज्र
१० मुद्गर
११ छत्र
१२ मित्र
१३ मनोज्ञ
१४ कंप
१५ लुंपक
१६ प्रवास
१७ मरण
१८ व्याधि
१९ सिद्धि
२० शूळ
२१ अमृत
२२ मुशळ
२३ गज
२४ मातंग
२५ क्षय
२६ क्षिप्र
१३
२७ स्थिर
२८ वर्धमान
नवमे गहमी सूरे सोमे बीआ नवमिआ । भोमे जया यछट्टी अ बुहे भद्दा तिही सुहा ॥ ३७ ॥ गुरु एगारसी पुन्ना सुक्के नंदा य तेरसी । सर्णिम अट्ठमी रित्ता तिही वारेसु सोहणा ।। ३८ ।। रेवस्सिणी धणिट्ठा ९ य पुण पुस्स तिउत्तरा । सूरे सोमंमि पुस्सो अ रोहिणी अणुराहया ॥ ३९ ॥ भोमे मिगं च मूलं च अस्सेसा रेवई तहा । बुहे मिगसिरं पुस्सा सेसा सवण रोहिणी ॥ ४० ॥ जीवे हत्थ स्सिणी पू-फ विसा - १२ हादुग रेवई । सुके उ-फा उ-खा हत्थं सवणाणु पुणस्सिणी ॥ ४१ ॥ सणिमि सवणं पू-फा महा सयभिसा सुहा । पुत्र्त्ततिहिसंजोगे विसेसेण सुहावहा ।। ४२ ।। हत्थं मिग स्सिणी चेवाणुराहा पुस्स रेवई । रोहिणी १५ वारजोगेणामिअसिद्धिकरा कमा ॥ ४३ ॥ वारेसु कमसो रिक्खा विसा - हाइ चऊ चऊ । उप्पायमच्चुकाणाक्ख सिद्धिजोगावहा भवें ॥ ४४ ॥ शनि उत्तराफाल्गुनी
हस्त चित्रा
२१
रवि सोम मंगळ बुध गुरु शुक्र उत्पात विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य मृत्यु अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषक् अश्विनी मृगशिर अश्लेषा काण ज्येष्ठा अभिजित् पूर्वाभाद्रपद भरणी आर्द्रा मघा सिद्धि मूळ श्रवण | उत्तराभाद्रपद कृत्तिका | पुनर्वसु | पूर्वाफाल्गुनी स्वाति . विआ मू कि रोह सूराइसु वज्जणिज्ज जमघंटा । भचि उ-ख ध उ-फा जे रे इअ असुहा जम्मरिक्खा य ॥ ४५ ॥ गुरि सयभिस सणि उत्तरसाढा एया विवज्जए पायं । बारसि एगेगहीणा सूराइसु कक्कजोगु २४ चए ॥ ४६ ॥ छट्टि सत्तमि इगार चउदसी सूरि सोमि सग बार तेरसी । मंगले इग इगारसी बुहे वज्जए इग चउद्दसी जया ॥४७॥ छट्टि चउत्थि सहभद्दया गुरु सुकि बीअ सह तीइ रित्तया । पुन्न सत्तमि सर्णिमि सव्वद्दा २७
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१४ ।जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः । वज्जए इअ तिही विसेसओ॥४८॥*(इति योगाः चरमाइमतिहिलग्गरिक्ख मझेगअद्धदोघडिआ । तिदुसत्तंतरि मुत्तुं पुणो पुणो तिविह ३ गंडतं ॥ ४९ ॥ नटुं न लब्भए अत्थं अहिदट्ठो न जीवई । जाओ वि मरई पायं पत्थिओ न निअत्तई ॥ ५० ॥ बीआणुराह तीआ तिगुत्तरा
नाम । बेनी वच्चे । बेनी वच्चे । बेनी वच्चे । घडी. ६ तिथि गंडांत । १५-१ ५-६ । १०-११ । एक घडी. लग्न गंडांत । मीन-मेष । कर्क-सिंह वृश्चिक-धन | अर्ध घडी. नक्षत्र गंडांत | रेवती-अश्विनी । अश्लेषा-मघा | ज्येष्ठा-मूळ । बे घडी. | ९पंचमीइ महरिक्खं । रोहिणि छट्ठी करमूल सत्तमी वजपाओऽयं ॥५१॥ *मूलदसाइचित्ता असेससयभिसय कित्तिरेवइआ। नंदाए भद्दाए भद्दवया
फग्गुणी दो दो ॥ ५२ ॥ विजयाए मिग सवणा पुस्सस्सिणि भरणि १२ जिट्ट रित्ताए । आसाढदुग विसाहा अणुराह पुणव्वसु महा य ॥ ५३॥
पुन्नाइकरधणिट्ठा रोहिणि इअ मयगवत्थरिक्खाइं । नंदिपइट्ठापमुहे सुह
कजे वजए मइमं ॥ ५४ ॥ *जिट्ठद्दाऽसेस मूलं च तिक्खा रिक्खा १५ विआहिआ। मिऊणि मिग चित्ता य रेवई अणुराहया ॥ ५५ ॥ पुस्सो
अ अस्सिणी हत्थं अभिई लहुआ इमे । उग्गाणि पंच रिक्खाणि तिपुव्वा
भरणी महा ॥ ५६ ॥ चरा पुणव्वसू साई सवणाइतिअंतहा । धुवाणि १८ पुण चत्तारि उत्तराणि अ रोहिणी ॥ ५७ ॥ विसाहा कित्तिआ चेव दो
अ मिस्सा विआहिआ। तिक्खे तिगिच्छं कारिज्जा मिऊ गहणधारणे
॥ ५८ ॥ लहू चरे सुहारंभो उग्गरिक्खे तवं चरे । धुवे पुरपवेसाई २१ मिस्से संधिकिअं करे ॥ ५९॥ *दसधणु उवरि सयपंच मज्झि पत्थाणि
जाव दिण तिचऊ । थायव्वं लग्गतिहीखणरिक्खससिबलं घित्तुं ॥६०॥
*पहि· कुसलु लग्गि तिहि कजसिद्धि लाभ मुहूत्तओ होइ । रिक्खेणं २४ आरोग्गं चंदेणं सुक्ख संपत्ती ॥६१॥ *पाडिवए पडिवत्ती नत्थि विवत्ती
भणंति बीआए । तइआइ अत्थसिद्धी विजयंगी पंचमी भणिआ ॥६२॥ सत्तमिआ बहुलगुणा मग्गा निकंटया दसमिआए । आरुग्गिआ इगारसि
तेरसि रिउणो निविजिणइ ॥६३॥ *चाउसिं पन्नरसिं वजिज्जा अहमि २८ च नवमि च । छट्टि चउत्थिं बारसिं च दुन्हं पि पक्खाणं ।। ६४ ।।
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। जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः। १५ *दसमि पंचमि तेरसि बीअगो भिगुसुओ गमणेऽतिसुहावहो । गुरु पुणव्वसु पुस्स विसेसओ सयभिसा अणुराह बुहे तहा ॥६५॥ *सव्व दिसि सव्वकालं सिद्धिनिमित्तं विहारसमयंमि । पुस्सस्सिणिमिगहत्था रेवइ-३ सवणा गहेयव्वा ॥ ६६ ॥ *वजे वारतिअं कूरं पडिवाय चउद्दसी । नवमट्ठमी इमाहिं तु बुहो वि न सुहो गमे ॥ ६७ ॥ *पुस्सस्सिणिमिगसिररेवइअं हत्था पुणव्वसू चेव । अणुराह जिट्ठमूलं नव नक्खत्ता गम-६ णसिद्धा ॥ ६८ ॥ रोहिणी तिन्नि उ पुव्वा सवणधणिट्ठा य सयभिसा चेव । चित्ता साई एए नव नक्खत्ता गमणि मज्झा ॥ ६८ ॥ कित्तिअभरणिविसाहा अस्सेसमहउत्तरातिअं अदा । एए नव नक्खत्ता गमणे ९ अइदारुणा भणिया ॥ ७० ॥ *धुवेहि मिस्सेहि पभायकाले, उग्गेहि मज्झन्हि लहू परण्हे । मिऊ पओसे निसिमज्झि तिक्खे, चरे निसंते न सुहो विहारो॥७१॥ *पुवाइसु सग सग कित्तिआई दिसि रिक्ख सदिसि हुति सुहा । घरदिसि मज्झा वायरिंग परिहरेहा न लंघिजा ॥ ७२ ॥ १३
पूर्व । कृ. रो. मृ. आ. पुन. पु. अश्ले./
अग्नि
skiSEKSISEKSI
परिघयंत्रम्
उत्तर धनि. शत. पू-भा. उ-भा. रे. अ. भर.
म, पू-फा. उ-फा. ह. चि. वा. विशा.
दक्षिण
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बायव्य
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१६
। जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः ।
*सूलं पुम्वि सणी सोमो, दाहिणाए दिसा गुरू । पच्छिमाइ रवी सुक्को, उत्तराए कुजो बुहो ॥ ७३ ॥ ईसाणे अ बुहो मंदो, अग्गीई ३अ गुरू रवी । नेरइए ससी सुक्को, भोमो वाए विवजए ॥ ७४ ।। *चंदणं दहि मट्टी अ तिलं पिटुं तहा पुणो । तिल्लं खलं च चंदिज्जा सूराई सूलमुत्तरो॥७५॥ *उदयदिसि भसूलं दो असाढा य जिट्ठा, धणिसवण ६ विसाहा पूव्वभद्दा जमाए । अह वरुणदिसाए रोहिणी पुस्समूलं, सुरगिरिदिसि हत्थो फग्गुणीदो विसाहा ॥७६॥ मीणाइतिसंकंती पच्छिमाइसु उग्गइ । वच्छो गमे पवेसे वि न सुहो पिट्ठिसंमुहो ॥ ७७॥ इगनवगा९इकमा तिहि पुव्वुत्तरअग्गिनेरदाहिणए । पच्छिमवाईसाणे जोइणि सा वामपिट्टि सुहा ॥७८॥ दिणदिसि धुरि चउघडिया परओ पुवुत्तदिसिहि
दिशा | पूर्व | उत्तर | अग्नि | नैर्ऋत्य | दक्षिण पश्चिम | वायव्य ईशान [ योगिनी ] १२ तिथि | १-९ २-१०३-११/४-१२ |५-१३ ६-१४ ७-१५/८-३० (अमास)|
कमसो । तत्कालजोइणी सा वज्जेयव्वा पयत्तेण ॥७९॥ उदयत्थमणा चउ
चउ घडियाइं राहु पुव्वदिसि तत्तो । सिद्धीए दिसि छट्टि गओ सुहो १५ पुट्टिदाहिणओ ॥ ८० ॥ चित्तुत्तरिगदुमासा दिसि विदिसि विसिट्ठि सिवु तओ उदया । सिट्ठि अढाई पणि घडि दिसि विदिसिं पुट्ठिमुट्ठि सुहो ॥८१॥ रवि रत्तिअंतपहराओ पुव्वाइसु दुन्नि दुन्नि पहर कमा । दाहिणवायव्य उत्तर
ईशान वैशाख ज्येष्ठ चैत्र घडी २॥
माघ फाल्गुन घडी ५
घडी ५ पश्चिम शिवचक्र
पोष अषाढ घडी २॥
घडी २॥ श्रावण भाद्रपद आश्विन
अग्नि घडी ५ घडी २॥
कार्तिक मार्गशीर्ष
दक्षिण पुट्टि विहारे वामो पुहि पवेसि सुहो॥ ८२॥ उदयवसा अहवा दिसिदा२७ रभवसओ हवे ससीउदओ। सो अभिमुहो पहाणो गमणे अमिआई वर
नैर्ऋत्य
घडी ५
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। जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः। १७ संतो ॥८३॥ जहिं उग्गइ जहिं दिसि भमइ जहिं च दारभट्ठाइ । तिहुं परिसंमुह सुक्क पुण उदउ जि इक्कु गण्णइ ॥८४॥ सियपडिवयाउ पुव्वाइसु पासु दसदिसिहिं कालु तयभिमुहो । कुज्जा विहारि वामो पासो कालो उ३ दाहिणओ॥८५॥ पुण्णनाडिदिसापायं अग्गे किच्चा सया विऊ। पवेसं गमणं कुज्जा कुणंतो साससंगहं ॥८६॥ इति प्रस्थानम् -- चेइअसुअं धुवमिउकर-पुस्स-धणिट्ठ-सयभिसा-साई । पुस्स-तिउत्तर-रे-रो कर-मिग-सवणे ६ सिलनिवेसो ॥ ८७ ॥ सतभिस-पुस्स-धणिट्ठा-मिगसिर-धुव-मिउ अ एहिं सुहवारे । ससि गुरु-सिए उइए गिहे पवेसिज पडिमाओ॥८८॥ तिपुव्वमूलं-भरणी विसाहा, ऽसेसा-महा-कित्ति अहोमुहाई। रेवस्सिणी हत्थ-पुणा-९ ऽणु-चित्ता, जिट्ठा-मिगं-साइ तिरिच्छगा य॥८९।। तिउत्तर-ऽद्दा-सवणत्तिअं च उड्डेमुहा रोहिणि पुस्सजुत्ता । भूमीहराई गमणागमाई धयावरोवाइ कमेण कुज्जा ॥९०॥ छहमत्तं तह रिक्खजोणी, वग्गट्ठ नाडीगयरिक्ख-१२ भावं । विसोवगा देवगणाइ एवं, सव्वं गणिज्जा पडिमाभिहाणे ॥११॥ विसमा अट्ठमे पीई समाउ अट्ठमे रिऊ । सत्तु छट्ठट्ठमं नामरासिहिं परिवजए ॥ ९२ ॥ बीयबारसंमि वजे नवपंचमगं तहा । सेसेसु पीई १५ निदिट्ठा जइ दुच्चागहमुत्तमा ॥९३॥ आसगेयमेसर्संप्पा संप्पासाणबिंडालमेसमजारा । आँखुद्गगैवीमैहिसी वग्यो महिसी पुगो बग्यो ॥९४ ॥ मिगमिर्गकुक्कर वानर नउलटुंगं वानरो हरितुरंगो । हरिसुकुंजर १४ एए रिक्खाण कमेण जोणीओ ॥ ९५ ॥ गयसीहमऽस्समहिसं कपिमेसं साणहरिणअहिनउलं । गोवग्ध बिडालुंदर वेरं नामेसु वजिज्जा ॥ ९६ ॥ गरुडो बिडालसीहो कुक्कुरसप्पो अ मूसगो हरिणो । मेसो अडवग्गपइ २१ कमेण पुण पंचमे वेरं ॥९७॥ असिणाइतिनाडीए इगनाडिगयं सुहं भवे रिक्खं । गुरुसीसाणं तारा वज्जिज तिपंचसत्तत्था ॥ ९८ ॥ सिद्धसाह-२३
भभरोमदिनपहिचिला विभज्यभरे अधजिए
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१८ | जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः ।
गधुरक्खर aris कमुक्कमिण अट्ठ ( ग ? ) विभत्ते । सेस अद्धकय लब्भविसोअ पच्छिमाउ खलु अग्गगएणं ॥ ९९ ॥ देवस्सिणिपुणपुस्सा करसाइ३ मिगाणुसवणरेवइआ । मणुअ तिपुव्व तिउत्तर रोहिणि भरणी अ अद्दा य ।। १०० ।। *कित्तिअविसाचित्ता धणिजिट्ठाऽसेसतिन्नि दुर्गा रक्खा | सगणे पीई नरसुर मज्झा सेसा पुणो असुहा ॥ १०१ ॥ - इति प्रतिमाधा६ रणागति शिष्यनामकरणं च - गुरू बुहो अ सुक्को अ सुंदरा मज्झिमो रवी । विजारंभे ससी पावो सणी भोमा य दारुणा ।। १०२ ।। मिगसिर - अद्दापुस्सो तिन्नि उ पुव्वा उ मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ताइ तहा दस वुड्डि९ कराई नाणस्स ॥ १०३ ॥ पुणव्वसु अ पुस्सो अ सवणो अ धणिट्ठिया । एएहिं चउहिं रिक्खेहिं लोअकम्माणि कारए ॥ १०४ ॥ कित्तिआहिं विसाहाहिं महाहिं भरणीहि अ । एएहिं चउहिं रिक्खेहिं लोअकम्माणि वज्जए १२ ॥ १०५ ॥ मिग - अणु - पुण-पुस्सा जिट्ठ-रेवऽस्सिणीआ, सवण-करसचित्ता सोहणा कण्णवेहे । कर-सवणऽणुराहा - रेव - पुस्सऽस्सिणीआ, मिग- धणि - धुव - चित्ता दंसणे भूवईणं ॥ १०६ ॥ सूरे जिणं ससी अहं १५ मलिणं सणि धारिअं । भोमे दुक्खावहं होइ वत्थं सेसेहिं सोहणं १०७ मिग-पुस्स स्सिणी हत्थाऽणुराहा चित्त - रेवई । सोमो गुरु अ दो वारा पत्तवावरणे सुहा ॥ १०८ ॥ जामाइमुहा चउ चउ असिणाई काण
1
1
१८ चिबड सज्जंधा । दुसु वत्त जाइ सज्जे अंधे
लब्भइ गयं वत्थु ॥ १०९॥
काणां
अश्विनी
मृगशिर
अश्लेषा
चीडां
भरणी
आर्द्रा
मघा
चित्रा
ज्येष्टा
अभिजित्
पूर्वाभाद्रपद
देखतां
कृत्तिका
पुनर्वसु
पूर्वाफाल्गुनी
स्वाति
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आंधळां
रोहिणी
पुष्य
उत्तरफाल्गुनी
हस्त
अनुराधा
उत्तराषाढा
धनिष्ठा
शतभिषा
उत्तराभाद्रपद
रेवती
वस्तु दक्षिणमां गइ छे वस्तु पश्चिममां गइ छे वस्तु उत्तरमां गइ छे वस्तु पूर्वमां गइ छे.
मूळ
श्रवण
विशाखा
पूर्वाषाढा
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। जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः।
१९
www
रविरिक्खा छब्बाला बारस तरुणा नव परे थेरा । थेरे न जाइ तरुणेहिं जाइ बाले भमइ पासे ।। ११० ॥ विसाहा-कित्तिआऽस्सेसा मूलऽद्दा भरणी महा । एयाहिं अहिणा दट्ठो कटेणावि न जीवइ ॥ १११ ॥३ पुण–पुस्स उ-फा उ-भ रोहिणीहिं रोगोवसम सत्तदिणे । मूलऽस्सिणि कित्ति नवमे सवण-भरणि-चित्त-सयभिसेगदसे ॥ ११२ ॥ धणिकर-विसाहिं पक्खे मह वीसइमे उ-खा मिगे मासे । अणुराह-रेवइ ६ चिरं तिपुव्व जिट्ठऽद्द-ऽस्सेस-साइ-मिइ ॥११३॥ चरलहुमिउमूले रोगनिन्नासहेऊ, हवइ खलु पउत्तं ओसहं वाहिआणं । भिगु-ससि पुणजिट्ठाऽस्सेस–साइ-महाहिं, न य कहवि विहेयं रोगमुत्ते सिणाणं ११४९ नामनक्खत्तमकिंदू एकनाडीगया जया । तया दिणे भवे मञ्चू नन्नहा जिणभासि ॥ ११५ ॥ आई अदा मिगं अंते मज्झे मूलं पइट्ठिअं। रविंदुजम्मनक्खत्तं तिविद्धो न हु जीवई ॥ ११६ ॥ धुवमिस्सुग्गन-१२
आइपुअमरविधवाविसिद्ध
पूरे
क्खत्ता मूलऽद्दा अणुराया । पंचगाई रवी भोमा मयको विवज्जिया १५ ॥ ११७ ॥ दो पणयालमुहुत्ते तीसमुहुत्तेगपुत्तलं काउं । नेरइअ दाहिणाए महापरिट्ठावणं कुजा ॥ ११८ ॥ तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसु रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥ ११९ ॥१८ सयभिस-भरणी साई अस्सेस-जिट्ठऽद्द छच्च नक्खत्ता । पनरसमुहुत्तजोगा तीसमुहुत्ता पुणो सेसा ॥ १२० ॥ मास-दिण-रिक्खसुद्धिं मुणिऊणं सिद्धच्छायधुवलग्गे । बारंगुलम्मि सुद्धे दिक्खपइट्ठाइअं कुज्जा २१ ॥ १२१ ॥ हरिसयण अकम्मण अहिअमास गुरुसुक्कि अस्थि-सिसु-वुड्ढे । ससि नढे न पइट्ठा दिक्खा सुक्कऽत्थि वि न दुट्ठा ॥ १२२ ॥ अवजोगकुलिअभद्दा उक्काई जत्थ तं दिणं वजे । संकति साइदिणतिह गहणे २४ इगु आइ सग पच्छा ॥ १२३ ॥ सुद्धतिही सुहवारे सिद्धाऽमियराजजोगपमुहाइं । जत्थ हवंति सुहाई सुहकजे तं दिणं गिजं ॥ १२४ ॥२९
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२० । जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनक्षुद्धिः । हत्थऽणुराहा-साई सवणुत्तर-मूलरोहिणी पुस्सा । रेवइ-पुणव्वसु इअ दिक्खपइट्टा सुहा रिक्खा ॥ १२५ ॥ अस्सिणि-सयभिस-पू-भा एसु वि ३ दिक्खा सुहा विणिहिट्ठा । मह-मिग-धणि-पइट्टा कुञा वन्जिज सेसाई ॥ १२६ ॥ कारावगस्स जम्मे दसमे सोलसमेऽद्वारसे रिक्खे । तेवीसे पणवीसे न पइट्ठा कह वि कायव्वा ॥ १२७ ॥ संझागयं रविगयं ६ विड्डेरं सग्गहं विलंबं च । राहुहयं गहभिन्नं वजए सत्त नक्खत्ते १२८ अत्थमणे संझागय रविगय जत्थ टिओ अ आइच्चो । विड्डेरमवद्दारिय सग्गह कूरग्गहठिअं तु ॥ १२९ ॥ आइच्च पिट्ठओ ऊ विलंबि राहुहयं ९ जहिं गहणं । मज्झेण गहो जस्स उ गच्छइ तं होइ गह भिन्नं ॥१३०॥ संझागयम्मि कलहो होइ विवाओ विलंबिनक्खत्ते । विड्डेरे परविजओ
आइञ्चगए अनिव्वाणं ॥ १३१ ॥ जं सग्गहम्मि कीरइ नक्खत्ते तत्थ १२ विग्गहो होइ । राहुहयम्मि मरणं गहभिन्ने सोणिउग्गालो ।। १३२ ॥
रविरिक्खाओ हेया उवग्गहा पंचमऽट्ठ-चउदसमा । अट्ठारस उगुणीसा
बावीसा तेवीस चउवीसा ॥ १३३ ॥ सेगविसमजोगद्धं सम अद्ध चउ१५ दसंख सिररिक्खम् । दाउं चउद्दससिलाए ससिरवि इक्कग्गलं वजे १३४
मृगशिर
आर्द्रा
रोहिणी कृत्तिका
भरणी अश्विनी रेवती उत्तरा
पुनर्वसु पुष्य -अश्लेषा
मघा
पूर्वा
उत्तरा -हस्त
चित्रा
शतभिषा धनिष्ठा
श्रवण अभिजित्
उत्तरा
स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा
पूर्वा
मूळ
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। जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः। २१ अस्से म चि अणु सव रे विसमारेहा उ सेसमभिलहिउं । रविरेहस्सिणि गणिए इट्टे रिक्खे विसमि पाउ ॥ १३५ ॥ रविमुक्खा निअरिक्खा बार ट्ठम तिअ तिवीसं छटुं च । पणवीस अडिगवीसं कुणंति लत्ताहयं रिक्खं ३ ॥ १३६ ।। सत्त सिलाए कित्तिअमाई रिक्खे ठवित्तु जोएह । गहवेहमिट्ठरिक्खे उवरि अहो वा पयत्तेण ।। १३७ ॥ पंचसिलाए दो दो रेहा
कृ. रो. मृ. आ. पुन. पुष्य. अश्ले.
-विशाखा
श्र. अभि. उ. पू. मू. ज्ये. अनु. कोणेसु रोहिणीमुक्खा । दिसि धुरि रिक्खा उ कमा वए विलोइज वेहमिहं ॥ १३८ ॥ सिद्धच्छायालग्गं रवि-कुज-बुह-जीव संकुपाय कमा ।७
कृ.रो. मू. आ. पु. पु.अ.
म.
भ.अभि. उ. पू. मू.ज्ये.अनु.
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२२ ।जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे रत्नशेखरीया दिनशुद्धिः । एगारस नव अड सग अद्धट्ठा (नव ) सेसवारेसु ॥१३९॥ तिरिच्छगे धुवे दिक्खा पइट्ठाइ सुहंकरे । उड्डट्ठिए धयारोव-खित्तगाई समायरे १४० ३वीसं सोलस पनरस चउदस तेरस य बार बारेव । रविमाइसु बारंगुलसंकुच्छायंगुला सिद्धा ॥ १४१॥ तिक्खुग्गमिस्सरिक्खाणि चिच्चा भोमसणिच्छरं । पढमं गोअरं नंदी पमुहं सुहमायरे ॥ १४२ ॥ इअ ६ जोगपईवाओ पयडत्थपएहिं विहिअउज्जोआ। मुणिमणभवणपयासं दिण
सुद्धिपईविआ कुणउ ॥ १४३ ॥ सिरिवयरसेणगुरुपट्टनाह-सिरिहेमति८ लयसूरीणं । पायपसाया एसा रयणसिहरसूरिणा विहिआ ॥ १४४ ॥
॥ इति श्रीरत्नशेखरसूरिविरचिता दिनशुद्धिः॥
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मत्रीश्वरश्रीवस्तुपालपूजितश्रीउदयप्रभदेवसूरिविरचिता।
आरम्भसिद्धिः।
ॐ नमः सकलारम्भसिद्धिनिर्विघ्नवेधसे । अर्हणामहंते साक्षादुपलम्भाय शंभवे ॥१॥ दैवज्ञदीपकलिका व्यवहारचर्यामाऽऽरम्भसिद्धिमुद-३ यप्रभदेव एताम् । शास्ति क्रमेण तिथिवारभयोगरॉशिंगोचर्यकार्यगंमवास्तुविलैंग्नमित्रैः ॥२॥ नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा चेति त्रिरन्विता । हीना मध्योत्तमा शुक्ला, कृष्णा तु व्यत्ययात् तिथिः ॥३॥ रिक्ता-४-९-१४६ षष्ठ्यष्टमीद्वादश्यमावास्याः शुभे त्यजेत् । स्वीकुर्यान्नवमी कापि न प्रवेशप्रवासयोः ॥ ४ ॥ त्रीन वारान् स्पृशती त्याज्या त्रिदिनस्पर्शिनी तिथिः । वारे तिथित्रयस्पर्शिन्यवमं मध्यमा च या ॥ ५ ॥ दग्धामर्केण संक्रान्तौ ९ राश्योरोजयुजोस्त्यजेत् ॥ भूतग्युक्तयोः शेषां शोधिते भंगणे तिथिम् ॥६॥ दग्धाऽर्केण धनुर्मीने वृषकुंभेड- | अर्कदग्धा तिथिः| चैन्द्रदग्धा | तिथिः जकर्किणि । द्वन्द्वकन्ये गेन्द्रालौ
कुंभधनुषि
वृषकुंभे ! ४ मेषमिथुने तुलैणे ब्यादियुतिथिः ॥ ७ ॥ मेषकर्के तुलासिंहे त्रिशश्चतुर्णामपि मेषसिंहधन्वा
मिथुनकन्ये ८ मकरमीने ८
| सिंहवृश्चिके । १० वृषकर्के दिकानां क्रमतश्चतस्रः । पूर्णाश्च- तुलामकरे | १२ | वृश्चिककन्ये | १२ तुष्कत्रितयश्च तिस्रस्त्याज्या तिथिः क्रूरयुतस्य राशेः ॥ ८ ॥१६
1 ग्रन्थस्यापरनाम। 2 ग्रहाणां पूर्वपूर्वराशित उत्तरोत्तरराशिसंचरणम् । 3 लनाख्यस्तत्कालोदयाद्राशिः। 4 तिथिपाश्चतुर्मुखविधातृविष्णवो, यमशीतदीधितिविशाखव. ज्रिणः । वसुनागधर्मशिवतिग्मरश्मयो, मदनः कलिस्तदनु विश्व इत्यपि ॥१॥ "तिथौ हि दर्शसंज्ञके पितृनुशन्त्यधीश्वरान् । त्रयोदशीतृतीययोः स्मृतस्तु चित्तपोऽपरैः' ॥२॥ 'वहिर्विरञ्चो गिरिजा गणेशः फणी विशाखो दिनकृन्महेशः। दुर्गाऽन्तको विश्वहरिस्मराश्च शर्वः शशी चेति पुराणदृष्टाः' ॥३॥ 5 उपकार्य वासु विशिष्य सिध्यति । 6 पक्षच्छिद्रसंज्ञवात् । 7 फल्गुरिति हर्षप्रकाशे। 8 एणो मकरः। 9 'कुंभधणे अजमिहुणे तुलसीहे मयरमीण विसकक्के । विच्छियकनासु कमा बीयाई समतिही उ ससिदड्डा' ।
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२४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श तिथिद्वारम् ।
केवलक्रूरग्रहयुतरा• शीनां क्रूरतिथयः
R6
| मेष १-५ | सिंह
वृष २-५ | कन्या मिथुन ३-५ | तुला कर्क ४-५ | वृश्चिक
६-१० | धन ७-१० मकर ८-१० कुंभ ९-१० | मीन
११-१५ १२-१५ १३-१५ १४-१५
करणान्यथ शंकुनिचतुष्पदनागानि क्रमाञ्च किंस्तुघ्नम् । असितचतुर्दश्यर्धात्तिथ्यर्धेषु ध्रुवाणि चत्वारि ॥ ९ ॥ अथ बैवबोलवकौलवतैतिलगेर३ वणिजविष्टयः सप्त । मासेऽष्टशश्चराणि स्युरुज्वलप्रतिपदन्त्यार्धात् ॥१०॥ दशामूनि विविष्टीनि दिष्टान्यखिलकर्मसु । रात्र्यहर्यत्ययाद् भंद्राप्यदुष्टैवेति तद्विदः ।। ११ ॥ रात्रौ चतुर्युकादश्योरष्टमीराकयोर्दिवा । भद्रा शुक्ले
पुच्छदार
६ तिथौ कृष्णे त्वेकैकोने यथाक्रमात् ॥ १२ ॥ बाणद्विदिग्
जैलधिषत्रिकनाडिकासु, वैकं ९गैलो हृदयनाभिकटाश्च पुच्छम्। विष्टेर्विदध्युरिह कार्यवेपुःस्व
बुद्धिप्रेम द्विषां क्षयमिमेऽवयवाः १२ क्रमेण ॥ १३ ॥
सुखधटा५/
भद्रायंत्रकम्
80
1 'इन्द्रो विधिमित्रार्यमभूपश्रीशमनाश्चलेषु करणेषु । कलिवृषफणिमरुतः पुनरीशाः क्रमशः स्थिरेषु स्युः' । शमनो यमः । शकुनिचतुष्पदनागे किंस्तुन्ने कोलवे वणिज्ये च । ऊर्द्ध संक्रमणं गरतैतिलविष्टिसु पुनः सुप्तम् । बवबालवे निविष्टम् , सुभिक्षं चोर्द्धसंक्रमे उपविष्टो रोगकरः सुप्तो दुर्भिक्षकारकः *देवाधिदेवस्य प्रतिष्ठादौ सर्वेऽपि तिथिनक्षत्र. करणक्षणाः शुद्धत्वे सत्युपयोगिनः । 2 'सुरमे वत्सया भद्रा सोमे सौम्ये सिते गुरौ । कल्याणी नाम सा प्रोक्ता सर्वकार्याणि साधयेत्' । खर्गेऽजोक्षणकर्केष्वधः स्त्रीयुग्मध. नुस्तुले । कुम्भमीनालिसिंहेषु विष्टिमर्येषु खेलति । 3 'दशम्यामष्टम्यां प्रथमघटिका. पञ्चकपरं हरिद्यौसप्तम्यां त्रिदशघटिकान्ते विघटिकं । तृतीयायां राकासु च गतविंशैकघटिके, ध्रुवं विष्टेः पुच्छं शिवतिथिचतुर्योश्च विगलत्' ।
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श तिथिवारद्वारे । २५
प्रहरे
ه
م
م
د
می
سعی
و
१०
भद्रावासयंत्रम्
__ दिशि
पूर्व भनि
दक्षिण
नैर्ऋत्य पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान
३
| पल
م
س
س
भद्रेन्द्रोऽष्टाऽश्वतिथ्य ब्धिदशेशीनिमिते तिथौ । दिग्यामाऽष्टकयोर्नेष्टा संमुखी पृष्ठतः शुभा ॥ १४ ॥ * इति तिथिद्वारम्
१ :: वारादिरुदयादूर्ध्व पलैर्मेषादिगे रवौ ।
तुलादिगे त्वधस्त्रिंशत्तद्गुमानान्तरार्धजैः॥१५॥ द्वादशसंक्रान्तिवाद्य
| मासेन वृद्धिहानिपलसर्वाग्रमासावधि प्रतिदिनम्. दिनानां मान मिदम्.
मिदम्. प०-अ० मकर
१-१२ । दिनवृद्धिः ३६ पलवृद्धिः कुंभ
दिनवृद्धिः ८६ पलवृद्धिः मीन
दिनवृद्धिः १०६ पलवृद्धिः
दिनवृद्धिः १०६ पलवृद्धिः वृष
२-५२ दिनवृद्धिः ८६ पलवृद्धिः मिथुन ३३ १२
दिनवृद्धिः ३६ पलवृद्धिः कर्क
१-१२ दिनहानिः ३६ पलहानिः
२-५२ दिनहानिः ८६ पलहानिः कन्या । ३१ । ४६ | ३-३२ दिनहानिः १०६ पलहानिः तुला | ३० . | ३-३२ . दिनहानिः १०६ पलहानिः वृश्चिक २८ | १४ | २-५२ । दिनहानिः ८६ पलहानिः
धन | २६ । ४८ | १-१२ | दिनहानिः ३६ पलहानिः रविचन्द्रमङ्गलबुधा गुरुशुक्रशनैश्चराश्च दिनवाराः। रविकुजशनयः क्रूराः सौम्याश्चान्ये पदोनफलाः ॥ १६ ॥ ____1 वडइ छसु मयराइसु पलाण छत्तीस छलसि छहियसयं । कमउक्कमओ, हायइ तहेव ककाइरासीसु ॥१॥ राम३०रस६०नंद९० बाणा५०वेदा४०अष्टौ८०सप्त७० दशहताः कार्याः । मन्दादीनां दिनतः क्रमेण भोगस्य नाड्यः स्युः॥१॥ अत एव सुप्तः शनिर्भव्यः त्रिंशद्भटीरूपस्य तस्य भोगस्य दिवैव समाप्तत्वेन शने रात्री रविभोगस्यैव समागमनादित्यन्ये । 2 राज्याभिषेकसेवामंत्रशत्रौषधविद्यासंग्रामयानसुवर्णताम्रौर्णिकालंकरणशिल्पपुण्य. कर्मोत्सवादि रवी सिध्यति । रजतगेयभोज्यकृषिवाणिज्यादि सोमे । सर्व क्रूरकर्मरतस्राव
मेष
سے
सिंह
س
س
س
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२६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श वारद्वारम् ।
२॥
و
पूर्व
चन्द्र
م
होराः पुनरर्कसितज्ञ
चन्द्रशनिजीवभूमिपुत्रा३ णाम् । सार्धघटीद्वयमानाः स्ववारतस्तासु पू. र्णफलाः॥१७॥ त्याज्यो
कालहोराचक्र sर्धयामो वेदाद्रिद्विपञ्चाटंत्रिषण्मितः । सूर्यादौ कालवेलाऽर्धयामाङ्कात्सै९ कपञ्चमी ॥ १८॥ कंटकोऽपि दिनाष्टांशे स्ववा- वाराः | अर्धयामाः | मध्यपलानि | आसु दिक्षु रान्मङ्गलावधौ । बृहस्प
रवि १२ त्यवधौ चोपकुलिकस्त्य
वायव्य मंगल
दक्षिण ज्यते परैः ॥ १९॥
ईशान कुलिको द्विघ्नशन्यन्त- गुरु
पश्चिम शुक्र
आग्नेय १५ मिते त्याज्यः स्ववारतः। शनि
उत्तर हेमप्रवालाकरधातुसेनानिवेशादि कुजे। अक्षरशिलाकर्णवेधकाव्यव्यायामतर्कवादकलापठनादि बुधे । सर्वं शुभमाङ्गल्यकर्मदीक्षाविद्यायात्रौषधादि च गुरौ । सर्व बुधगुरूक्तं दीक्षावर्ज शुके। दीक्षागृहप्रवेशनिवेशादि स्थिर क्रूरं च कर्म शनौ ॥ 'उपचयकरस्य कुर्याद्रहस्य वारे खवारविहितं यत् । अपचयकरग्रहदिने कृतमपि सिद्धिं न याति पुनः;' इति लल्लः ।
1 राश्यर्धस्य होरेति वक्ष्यमाणवादेताः कालहोराभिधाः। 2 रूढसंज्ञा सामान्येन घटीचतुष्करूपः। *सोलडदसणदुइगचउचउसठि अद्धपहरमज्झपला । जत्ताइसु अह अहमा पुवाइ छठ छ? दिसि ॥१॥ यात्रादावत्यंतं त्याज्याः। 3 सूर्यादौ कालवेलाऽष्टत्रिषट्क्ष्माऽध्यऽश्वदिग्मिता । इति पाठान्तरम् । कालवेला दिनमानप्रमाणेनार्धयामरूपा । 4 चतुर्घटिकादूनोऽधिकोऽपि दिनमानप्रमाणेन प्रायः।जघन्ये घटी ३ पल १६ अक्षर ३०। उत्कृष्टे तु घटी ४ पल १३ अक्षर ३० । 5 'छिन्नं भिन्नं नष्टं ग्रहजुष्टं पन्नगादिभिर्दष्टम् । नाशमुपयाति नियतं जातं कर्मान्यदपि तत्र' ॥ इति व्यवहारप्रकाशे । तथेदमपि-'सोमे ब्राह्मः कुजे पैत्रः सुराचार्ये च राक्षसः। शुक्रे ब्राह्मः शनौ रौद्रो मुहर्ताः कुलिकोपमाः। ब्राह्म इति ब्रह्मदैवतः। एवं पैश्यादयोऽपि ।ब्राह्मवादिविभागस्तु मुहूर्तानां क्षौराधिकारे वक्ष्यते ।
س
बुध
م
ه س
م
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथम विमर्शे वारभद्वारे । २७ मुहूर्त्तेऽह्नि निशि व्येके भागः पञ्चदशस्तु सः ॥ २० ॥ भानोर्भूर्नयनंर्तर्वैः सितरुचेः शीतांशुंपचाष्टमी, भौमस्याब्धिनगाष्टमीः शशितनूजस्य त्रितकष्टमाः । जीवस्य द्विशरौद्रयो भृगुभुवश्चन्द्रार्धिषष्ठाष्टमः, शौरे स्त्रीषुनगा-३ ष्टमार्श्व दिवसेष्वेतेऽष्टमांशाः शुभाः ।। २१ ।। सिर्द्धच्छाया क्रमादर्कादिषु सिद्धिप्रदा पदैः । रुद्रैसार्धाष्ट८ ।। नन्दीष्टसप्तभिश्चन्द्रवद्द्द्वयोः ॥ २२ ॥
वाराः रवि चन्द्र मंगल बुध गुरु शुक्र | शनि | वारेषु कुवेलाः
दिवा
४
६
८
दिवा
दिवा
दिवा
दिवा
दिवा १४ १२ रात्रौ १३ ११
४
९
अर्धयाम
कालवेला
कंटक
उपकुलिक
१ कुँलिक
२
१
कुलिकमुहूर्त कुलिक मुहूर्त
दिवा ११ ८॥
८
७ ८ ॥
८॥ सिद्धच्छायापद। नि **(* इति वारद्वारम् + चुचेचोलाऽश्विनी ज्ञेया लीलूलेलो भरण्यथ । ६ आईए कृत्तिका तु ओवावीवू च रोहिणी ॥ २३ ॥ वैवोकाकी मृगशिर आर्द्रा कुघङछाः पुनः । केकोहाही पुनर्वस्वोहोडा तु पुष्यभे ॥ २४ ॥ डीडूडेडोभिरश्लेषा ममीमूमे मघा मता । मोटाटीटू फल्गुनी प्राक् टेटोपापीभिरुत्तरा || २५ || हस्तः पुषणठैर्वर्णैश्चित्रा पेपोररिः पुनः । रुरेरोताः १०
1 तादात्विकदिनरात्रिमानयोः पंचदशोंऽशः । जघन्ये घटी १ पल ४४ अक्षर ४८ । उत्कृष्टे घटी २ पल १५ अक्षर १२ । 2 नारचन्द्रमतेनैते दिनाष्टांशाः कुलिक संज्ञाः । 3 तद्वेला च त्रिंशद्गुरुवर्णमात्रेति वृद्धाः । पञ्चदशवर्णोनायां कार्यमारभ्य शेषवर्णेषु समापनेन सिद्धछाया साधिता स्यात् । बहुकालसमाप्ये तु कार्ये त्रिंशद्वर्षमध्ये तत्कार्यं प्रारंभणीयमिति भावः । इयं च छाया पदैरिति भवनात्पदरूपा । सप्ताङ्गुलशङ्को स्त्वङ्गुलरूपा ज्ञेया । द्वादशाङ्गुलशङ्को स्त्वेवम् । 'वीसं सोलस पनरस चउदस तेरस बार बारेव । रविमाइसु बारंगुल संकुच्छायंगुला सिद्धा ॥ १॥ घादयो वर्णा दशखरयुता ज्ञेया । स्वरचक्राभिप्रायेण ऋ ॠ ऌ ॡ इत्येते केवला रिरीलिलीवत् व्यञ्जन गतास्त्वकारांततद्व्यंजनवत् । ब्रह्मदत्तश्रीधरनुवाद्यभिधासु ब. शी. धु रूपमेवाद्याक्षरं गण्यम् । विसर्गबिन्द्वादिकं तु नाक्षरस्य विकारकृत् । बवयोरैक्यम् । जो ङवत् । पूर्वाचार्यानुरोधात् एकाशीतिपदे सर्वतोभद्रचक्रे एतद्वर्णानां ग्रहविद्धत्वे सति तत्तत्पादजानां पीडेति साफल्यसद्भावाच्च ङञणा अभिधादावदृष्ट्ा अप्युक्ताः । यथा सर्वतोभद्रचक्रविवरणे — विध्यन्ते घच्छा रौद्रे षणढा हस्तगे व्यधेः । फढधाः प्रागषाढा यामा हिर्बुध्रे तु शाझथाः ॥
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भाषायां गगीगुण, जूजेजोखा मूल पूर्वापाडा
२८ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंप्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श भद्वारम् । स्मृताः स्वातौ तीतूतेतो विशाखिका ॥२६॥ अनुराधा ननीनूने स्याज्ज्येष्ठा नोययीयुभिः । स्याद्येयोभाभिभिर्मूलं पूर्वाषाढा भुधाफलैः ॥ २७ ॥ ३ भेभोजाज्युत्तराषाढा जूजेजोखाऽभिजिन्मता । श्रवणे स्युः खिखूखेखो धनिष्ठायां गगीगुगे ।। २८ ॥ गोसासीसूः शतभिषक् प्राक् सेसोददि
भद्रपात् । दुशझथोत्तराभद्रा देदोचची तु रेवती ॥ २९ ॥ उत्तराषाढ६ मन्त्यांहिं चतस्रश्च श्रुतेर्घटीः । वदन्त्यऽभिजितो भोगं वेधलत्ताद्यवेक्षणे ३० भेशास्त्वश्वियंमाग्नयः कमलभूश्चन्द्रोऽथ रुद्रोऽदितिर्जीवोऽहिः पितरो
भगोऽयमरवी त्वष्टी समीरस्तथा। शक्राग्नी अथ मित्र इन्द्रनिती वारीणि १० विश्व विधिर्वैकुंठो वसवोऽम्बुपोऽजचरणोऽहिर्बुपूषाभिधौ ॥३१॥ त्रिव्य
भूतेजगदिन्दुकृतत्रित-वेक्षिद्विपंचकुकुवेदयुगाग्निद्रैः । वेदोब्धिराम११ गुणवेदशतंद्विकंद्वि-दन्तैश्च तत्समतिथिर्न शुभा भतारैः ॥ ३२ ॥
1 उत्पातादिचतुष्टयोपयोगैकार्गलादिष्वभिजिद्गण्यते, परं तदोत्तराषाढश्रवणयोः पञ्चदश चतस्रश्च घटीबहिष्कृत्वैव पादचतुष्कं कल्पनीयम् । 2 अन्यत्र नोपयोग इति सामर्थ्यालभ्यते। 3 अश्विनौ दस्राख्यदेवौ । कमलभूब्रह्मा । अदितिर्देवमाता । जीवो गुरुः । अहिः सर्पः। भगो योनिः । अर्यमा सूर्यमेदः । त्वष्टा विश्वकर्मा । समीरो वायुः । शकानी इति विशाखाया आयेऽर्धे इन्द्रोऽपरार्धेऽग्निर्देवता, अत एवास्या द्विदैवतसंज्ञा मिश्रसंज्ञा च । अत एवोक्तं दैवज्ञवल्लभे-"पूर्वार्धे मृदुकर्म चास्य सकलं तीक्ष्णं द्वितीये दले” इति । मित्रः सूर्यभेदः। निर्ऋतिः रक्षसां माता, तजवादाक्षसा अप्यत्र लक्ष्याः, तेन मूलो रक्षोनक्षत्रमित्युच्यते । वारीणि जलं । विश्वे इति विश्वाख्यास्त्रयोदश देवाः, सर्वादित्वाजस इः । नन्वत्र संज्ञावाचिनो विश्वशब्दस्य कथं सर्वादित्वं असंज्ञाया सर्वादिरितिवचनात् ? उच्यतेछान्दसोऽयं प्रयोगस्तेन संज्ञायामपि सर्वादित्वं । विधिर्ब्रह्मा । वैकुंठो विष्णुः । वसवोऽष्टौ, यदुक्तं-"धरो ध्रुवश्च रोमश्च आयश्चैव बलोऽनिलः । प्रत्यूषश्च प्रदोषश्च वसवोऽष्टा प्रकीर्तिताः" ॥१॥ अम्बुपो वरुणः वास्तुशास्त्रप्रसिद्धो हृदयकोष्ठस्थो देवः । रुद्राणामन्य. तमोऽजपादः । अहिर्बुध्रो रुद्रमेदः । यदाहुः-"अजपादोऽथाहिर्बुधः पिनाकिहररैवताः। शंभुः शर्वो मृगव्याधः कपाली त्र्यम्बको भवः" ॥ १॥ इत्येकादश रुद्रनामानि । पूष. रविभेदः । यदाहुः-"धातृ १ अर्यमन् २ मित्र ३ वरुणः ४ अंशु५ भग ६ इन्द्र विषा खन्८ पूषन्९ पर्जन्य १० वष्ट ११ विष्णु१२ संज्ञा द्वादशसूर्या" इति । शेषा यथोक्तसंज्ञा देवभेदाः । प्रयोजनं चैषां तद्देवतानाम्ना नक्षत्रव्यवहारादि ॥ 4 नवरं शतभिषग्युता दशमी, रेवतीयुता द्वितीया त्याज्या । 'दग्धा तद्दिननक्षत्रतारातुल्यातिथिर्भवेत्' इति लल्लः । 'तसरासमैरहोभिर्मासैरब्दैव विष्ण्यफलपाकः' इत्यपि लल्लः ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श भयोगद्वारे । २९
अ भ | कृ रो। मृ आर्द्रा | पुन | पुष्य | अश्ले नक्षत्राणि अश्वी यम | अग्नि कमलभू चन्द्र रुद्र अदिति | जीव अहिः मेशाः ३ ३ ६ ५। ३ । १ । ४ । ३ । ६ तारासंख्या म | पूफा । उफा| ह चि । खा वि अनु ज्ये मू । नक्षत्राणि पितर भग अर्यम रवि त्वष्टा समीर शुक्राग्नी मित्र इन्द्र नक्रति मेशाः
५ २ २ ५ १ १ ४ ४३ ११ तारासंख्या | पूषा | उषा | अभि श्र | ध श | पूभा उभा | रे ! नक्षत्राणि वारीणि विश्वे | विधि वैकुंठ वसवः अम्बुप अजचरण अहिबुध्न पूषा मेशाः | ४ । ४ । ३ । ३ । ४ । १०० २ २ ३२तारासंख्या चरमाहुश्चलं स्वातिरादित्यं श्रवणत्रयम् । लघु क्षिप्रं च हस्तोऽश्विन्यभिजित् पुष्य एव च ॥३३॥ मृदु मैत्रं मृगश्चित्राऽनुराधा चैव रेवती । ध्रुवं स्थिरं च वैरञ्चमुत्तरात्रितयान्वितम् ॥३४॥ दारुणं तीक्ष्णमश्लेषा मूलमामहेन्द्र-३ भम् । क्रूरमुग्रं च भरणी तिस्रः पूर्वा मघान्विताः॥३५॥ मिश्रं साधारणं च द्वे विशाखाकृत्तिकाभिधे । ईदृग्नानोचिते धिष्ण्ये निर्मितं कर्म शर्मणे ॥३६॥ कुर्यात्प्रयाणं लघुभिश्वरैश्च, मृदुध्रुवैः शान्तिकमाजिमुत्रैः । व्याधिप्रतीका-६ रमुशन्ति तीक्ष्णैर्मित्रैश्च मिश्रं विधिमामनन्ति ॥ ३७ ॥ भेषु क्षणान् पञ्चदशैन्द्ररौद्रवायव्यसान्तिकारुणेषु । त्रिघ्नान् विशाखाऽदितिभध्रुवेषु शेषेषु तु त्रिंशतमामनन्ति ॥ ३८ ॥ ॥ इति भद्वारम् ॥ ३ ॥ भानौ भूत्यै करादित्यपौणब्राह्ममृगोत्तराः । पुष्यमूलाश्विवासव्यश्चैकाष्ट__ 1 पुनर्वसु । 2 श्रवणधनिष्ठाशतभिषजः। 3 रोहिणी। 4 ज्येष्ठा। 5 पण्यभूषणकलारतौषधज्ञानविज्ञानवाहनोद्यानिकाधुपालक्ष्यम् । 6 बीजगृहनगराभिषेकारामभूषणवस्त्रगीतमङ्गलमित्रकार्यादि स्थिरकर्म च। 7 वञ्चनाविषघातबंधनोच्छेदनशस्त्राग्निकर्माद्यपि। 8 भूतयक्षमंत्रनिधिसाधनमेदकर्माद्यपि। 9 वाञ्छन्ति। 10 साधारणम् , स्वर्णरजतताम्रलोहाद्यग्निकर्म सर्व तथा वृषोत्सर्गपरिग्रहादि च ॥पस्थिरश्वरस्तथोग्रश्च मिश्रो लघुरथो मृदुः। तीक्ष्णश्च कथिता वाराः प्राच्यैः सूर्यादयःक्रमात् ॥ एते वाराश्चरादिसदृशभसहिताः प्रयाणादौ विशिष्य प्रयोजकाः। 11 ज्येष्ठा। 12 आर्द्रा । 13 स्वातिः। 14 अश्लेषा। 15 भरणी। 16 शतभिषक। 17 पुनर्वसु। 18 एषां किल चिरन्तनज्योतिःशास्त्रेष्वेवं भुक्तिरासीनतु यथाऽधुना सर्वाण्यप्येकदिनभोगानीति श्रीमदावश्यकबृहद्वृत्तिटिप्पनके, एषां नव्योदितचंद्रदर्शनादावु. पयोगः तथाहि-'बृहत् ४५ सुधान्यं कुरुते समर्घ जघन्य १५धिष्ण्येऽभ्युदिते महाघम् । समेषु ३० धिष्ण्येषु समं हिमांशुः शुक्लद्वितीयाभ्युदयी विलोक्यः । इत्यादिविशेषस्त्वस्य ग्रंथस्य हैमहंसीयवार्तिकादवलोक्यः। 19 हस्तः। 20 रेवती। 21 रोहिणी। 22 धनिष्ठा।
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३० जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् । नवमी तिथिः ॥ ३९ ॥ न चार्के वारुणं याम्यं विशाखात्रितयं मघा । तिथिः षट्सप्तरुद्रीकम संख्या तथेष्यते ॥ ४० ॥ सोमे सिद्ध्यै ३ मृगब्राह्ममैत्रीण्यार्यमणं करः । श्रुतिः शतभिषक् पुष्यस्तिथिस्तु द्विनवाभिधा ॥ ४१ ॥ न चन्द्रे वासवाषाढात्रयाश्विद्विदैवतम् । सिद्ध्यै चित्रा
च सप्तम्येकादश्यादित्रयं तथा ॥ ४२ ॥ भौमेऽश्विपौष्णाहिर्बुध्नमूलराधा६ र्यमाग्निभम् । मृगः पुष्यस्तथाऽश्लेषा जया षष्ठी च सिद्धये ॥ ४३ ॥ न भौमे चोत्तराषाढामघार्द्रावासवत्रयम् । प्रतिपदशमीरुद्रप्रमिता च मता तिथिः ॥ ४४ ॥ बुधे मैत्रं श्रुतिज्येष्ठा पुष्यहस्तामिभत्रयम् । पूर्वाषाढार्य९मः च तिथिर्भद्रा च भूतये ॥४५॥ न बुधे वासवाश्लेषारेवतीत्रयवारु
णम् । चित्रा मूलं तिथिश्चेष्टा जयै ३-८-१३केन्द्रनवाङ्किता ॥ ४६ ॥ गुरौ पुष्याश्विनादित्यपूर्वाश्लेषाश्च वासवम् । पौष्णं स्वातित्रयं सिद्ध्यै १२ पूर्णा ५-१०-१५ श्चैकादशी तथा ॥ ४७ ॥ न गुरौ वारुणानेयचतु.
काऽऽर्यमणद्वयम् । ज्येष्ठा भूत्यै तथा भद्रा २-७-१२ तुर्या षष्ठ्यष्टमी तिथिः ॥ ४८ ॥ शुक्रे पौष्णाश्विनाषाढा मैत्रं मार्ग श्रुतिद्वयम् । यौनी१५ दित्ये करो नन्दा १-६-११ त्रयोदश्यौ च सिद्धये ॥ ४९ ॥ न शुक्र
भूतये ब्राह्मं पुष्यं सार्प मघाऽभिजित् । ज्येष्ठा च द्वित्रिसप्तम्यो रिक्ताख्या
४-९-१४ स्तिथयस्तथा ॥ ५० ॥ शनौ ब्राह्मश्रुतिद्वन्द्वाविमरुद्गुरुमि१८ त्रभम् । मघा शतभिषक् सिद्ध्यै रिक्ता ४-९-१४ ष्टम्यौ तिथी तथा
॥५१॥ न शनौ रेवती सिद्ध्यै वैश्वमार्यमणत्रयम् । पूर्वी मृगश्च पूर्णाख्या २०५-१०-१५ तिथिः षष्ठी च सप्तमी ॥५२॥ योगः कुमारनामा शुभः
स
शुक्र
| चंद्र मंगल बुध । हस्त | मृगशिर | अश्विनी | अनुराधा |
ॐ मृत्यदामृतसिद्धि
योगयंत्रम् ॐ
शनि । रेवती | रोहिणी । १०
1 भरणी। 2 अनुराधा । 3 उत्तरफाल्गुनी। 4 श्रवणं। 5 पूर्वोत्तराषाढाभिजितः। 6 विशाखा। 7 उत्तरभद्रपदा। 8 विशाखा। 9 कृत्तिका। 10 अनुराधा, त्रयशब्देन मृगः पृथगुक्तः। 11 पूर्वोत्तरा। 12 पूर्वफल्गुनी। 13 खातिः। 14 पुष्यः। 15 अनुराधा।
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११
१०
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शनि
वार | अमृत- | उत्पातयोग | मृत्युयोग | काणयोग | सिद्धियोग | यमघंट- वज्रमुशलयोग| शत्रुयोग | चरयोग | कर्कयोग | संवर्तकयोग ॐ सिद्धियोग *प्रवासयोग /*मरणयोगव्याधियोग
योग सूर्यादेर्जन्मभैः अस्थिरयोगक्रकचयोग रवि हस्त । विशाखा । अनुराधा | ज्येष्ठा मूल | मघा | भरणी | भरणी उत्तराषाढा तिथि १२/ तिथि ७ चन्द्र मृगशिर | पूर्वाषाढा . उत्तराषाढा | अभिजित् श्रवण विशाखा चित्रा | पुष्य | आो । मंगल अश्विनी धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभाद्रपद उत्तरभाद्रपद आदो | उत्तराषाढा उत्तराषाढा | विशाखा
अनुराधा रेवती | अश्विनी | भरणी | कृत्तिका | मूल | धनिष्ठा | आर्द्रा | रोहिणी गुरु | पुष्य | रोहिणी । मृगशिर आदो | पुनर्वसु कृत्तिका उत्तराफाल्गुनी विशाखा | शतभिषा शुक्र | रेवती । पुष्य | अश्लेषा | मघा | पूर्वाफाल्गुनी रोहिणी ज्येष्ठा । रेवती | मघा रोहिणी उत्तराफाल्गुनी हस्त । चित्रा | खाति | हस्त रेवती शतभिषा, मूल
* एताः संज्ञाः पूर्णभद्रमतेन । । आषाढाद्वयमत्रेति पाकश्रीकृत्। अस्य स्थानेऽश्विनीति लोकप्रियाम् । वाराः वारतिथ्योः सुयोगाः वारतिथ्योः सामान्ययोगाः
वारभयोः सुयोगाः
वारभयोः सामान्ययोगाः रवि | १-८-९ । ६-११-१४ अश्विनी, रोहिणी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्त-शतभिषक
राषाढा, उत्तरभाद्रपद, धनिष्ठा, रेवती. २-९ । १२-१३ रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, अनुराधा, शतभिषा. अश्विनी, आर्द्रा, धनिष्ठा मंगल | ३-६-८-१३ ।
कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, अश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, मूल, रेवती. मघा बुध | २-७-१२ । ८-१३-१४ रोहिणी, मृगशिर, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी,हस्त ज्येष्ठा,पूर्वाषाढा, श्रवण. अश्लेषा
२-४-७-१२ अश्विनी, अश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वभाद्रपद, खाति, शतभिषक्, हस्त, ज्येष्ठा
धनिष्ठा, रेवती. १-६-११-१३ | ४-९-१४ अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, हस्त, अनुराधा, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा. अभिजित् ४-८-९-१४ ५-१०-१५ अश्विनी, पुष्य, मघा, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा.. मृगशिर, पूर्वाफाल्गुनी,
शतभिषक् , उत्तराषाढा
जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्शे योगद्वारम् । ३१
चन्द्र
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३२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् । कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु । अश्याद्यैर्यन्तरितैनन्दादशपञ्चमीतिथिषु ॥ ५३ ॥ राजयोगो भैरण्याथैद्यन्तरैर्भः शुभावहः । भद्रातृतीयाराकासु कुजज्ञभू३गुभानुषु ॥ ५४ ॥ स्थिरयोगः शुभो रोगोच्छेदादौ शनिजीवयोः । त्रयो दश्यष्टरिक्तासु४-९-१४ व्यन्तरैः कृत्तिकादिभैः ॥ ५६ ॥ यमलाख्यो द्विपादः त्रिपाद: त्रिपुष्करः । जीवारशनिवारेषु योगो भद्रातिथौ स्मृतः ॥ ५६ ॥ पञ्चके वासवान्त्यार्धात्तॄणकाष्ठगृहोद्यमान् । याम्यदिग्गमनं शय्यां मृतकार्यं च वर्जयेत् ॥ ५७ ॥ पञ्चकं श्रवणादीनि पञ्च ऋक्षाणि निर्दिशेत् । केचित्पुनर्धनिष्ठादिपञ्चकं पञ्चकं विदुः ॥ ५८ ॥
होनिवृद्ध्यादिकं सर्व योगे स्याद्यमले द्विशः । त्रिशस्त्रिपुष्कराख्ये तु १० पञ्चशः पञ्चकेऽपि च ॥ ५९॥
के एवमेते विरुद्धनामानः सामान्ययोगसुयोगसिद्ध्यमृतसिघ्याख्याश्चेति पञ्चविधयोगा उक्ताः आत्यन्तिकासिद्धिर्यादृच्छिकसिद्धिर्विलम्बितसिद्धिश्चिन्तितसिद्धिश्चिन्तिताधिकसिद्धिश्चेति क्रमादेषां फलानीति त्रिविक्रमः +
1 अश्विनीरोहिणीपुनर्वसुमघाहस्तविशाखामूलश्रवणपूर्वभद्रपदान्यतरमेन । 2 भरणीमृगशिरःपुष्यपूर्वफल्गुनीचित्राऽनुराधापूर्वाषाढाधनिष्ठोत्तरभद्रपदान्यतरभेन । कुमारराजयोगौ विरुद्धयोगोत्पत्तिं वयं ग्राह्यौ। 3 कृत्तिका श्लेषोत्तरफल्गुनीखातिज्येष्ठोत्तराषाढाशततारारेवत्यन्यतरभेन । 'अणसण-खिल-वाहि-रिण-रिउ-रण-दिव्वं जलासए बंधो। कायन्वो थिरजोगे जेसिं करणं पुणो नत्थि । इति पाकत्रियाम् । उपलक्षणवान्मित्रच्छेदस्नेहच्छे दादि च । अयं स्थविरयोगाऽपरनामाऽतिदुर्बलोऽनारंभिवात् , खभावाद निवर्तकश्चोक्तकार्येष्वेव ग्राह्यो नान्येषु। 4 मृगशीर्षचित्राधनिष्ठासु। 5 कृत्तिकापुनर्वसूत्तरफल्गुनीविशाखोत्तरा. षाढापूर्वभद्रपदासु। 6 धनिष्ठा । 7 नारंभणीयं न चाच्छादनीयम् । 8 न कार्या न च व्यापार्या । 'धनिष्ठा धननाशाय प्राणघ्नी शततारका । पूर्वायां दण्डयेद्राजा उत्तरा मरणं ध्रुवम् ॥ १ ॥ अग्निदाहश्च रेवत्यामित्यतत्पञ्चके फलम्' ॥ इति व्यवहारसारे । 'यदि कश्चिदकस्मात्पंचके मृतस्तदा छेदनसहितं करचरणबंधनं तस्य कुर्यादिति लल्लः । तद्दहनविधिस्त्वयं गरुडपुराणे-दर्भमयाश्चत्वारः पुत्तलकाः कृत्वा शवपार्श्वे स्थाप्याः, तेन सहैव च दहनीयाः, अन्यथा पुत्रगोत्रादीनां प्रत्यवायः स्यात् । 9 नारचन्द्रे तु श्रवणरेवत्योः सर्वदिग्गमनमनुमन्यमानेन दक्षिण दिग्यात्राऽप्यनुमेने तथाहि 'सर्वदिग्गमने हस्तः श्रवणं रेवतीद्वयम् । मृगः पुण्यश्च सिद्ध्यै स्युः कालेषु निखिलेष्वपि ॥ 10 एविष्ठं कार्य कार्य न खनिष्टमित्याशयः।
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जैनज्योतिर्धन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्शे योगद्वारम् । ३३
गंडान्तं च त्यजेत् त्रेधा लग्नगंडान्तं
भाग ३
लग्न४-८-१२ तिथ्यु५
१०-१५ डुषु ९-१८२७ त्रिषु । प्रत्येकं त्रित्रिभागान्तरधैकैद्विघटीमि
I
तम् ॥ ६० ॥
२
३ अनुराधा उत्तरात्रिकं
૪
उत्तरा ३
कृत्तिका
शनि
५
५
मघा
४
कर्क सिंह
८ ९
वृश्चिक धन
जै०
१२ १ मीन मेष
अर्ध घटी
५
मघा
०५
वज्रपातयंत्र
स्थापना
कालमुखी स्थापना
तिथिगंडान्त
भाग ३
५
9'3
एका घटी
र्वैज्रपातं त्यजेद् द्वित्रिपञ्चषट्सप्तमे तिथौ । मैत्रे ऽथ ज्युत्तरे पैत्र्ये ब्रह्मे मूलकरै क्रमात् ॥ ६१ ॥ योगो रवेर्भात् कृतँतँर्कनन्दं दिविश्वविंशोडषु
६
१० ११
१५ १
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नक्षत्र गंडान्त
भाग ३
९
अश्लेषा
१६
१८
ज्येष्ठा
२७
रेवती
१०
मघा
| चउ उत्तर, पंच मघा, कत्तिय नवमी, तइय अणुराहा । अट्ठमि रोहिणी सहिया, काल
९
३
८
कृत्तिका ! अनुराधा | रोहिणी | मुहीजोगि मासिछगि मच्च ॥
अबलयोग स्थापना
रोहिणी मृगशिर आर्द्रा
बुध
चन्द्र रवि
२
१
१२
१९
मूल
अश्विनी
* वज्रपातस्य फलं षण्मासैः कार्यकर्तुर्मृत्युरिति हर्ष प्रकाशे १३ चि. स्वा; ७ भ. ९ पुष्य. रोहिणी मूल - हस्त १० अश्वे. अपि नार चन्द्रटि०
६
७
द्वे घट्यो
सर्वसिद्ध्यै । आद्येन्द्रियवैद्विपरुद्रसारीराजोडुषु प्राणहरस्तु यः ।। ६२ ।। ९
|
1 जन्माधानयात्रोद्वाहव्रतगृह निवेश प्रवेशक्षौरादिसर्व कार्येष्वशुभ इति भावः । 2 एयाण फलं कमसो विउलं सुक्खं ४ जयं च सत्तूनं ६ | लाभं च९ कज्जसिद्धी १० पुत्तुप्पत्तीय१३ रजं च२० ॥ शुद्धलग्नवद्रवियोगबलमिति यतिवल्लमे ॥ इक्कस्स भए पंचाणणस्स भजंति गयसयसहस्सा । तह र विजोगपणट्ठा गयणंमि गहा न दीसंति ॥ १॥ रविजोगराजजोगे कुमारजोगे असुद्धदिअवि । जं सुहकज्जं कीरइ तं सव्वं बहुफलं होइ ॥ २ ॥ इति यतिवल्ल मे
कत्तियपभिइ चउरो
सणि बुहि ससि सूरवारजुत्तकमा
पंचमि बिइ एगारसि बारसि अबला हे क
६
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३४ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् ।
गण्यते
नोपग्रहास्तु भूत्यै भूपादिफणीन्द्रतिथिधृतियुगले । रविभात्तथैकविंशादिषु पञ्चसु २१-२२-२३-२४-२५ चरति भेष्विन्दौ ॥ ६३ ॥ उपयोगास्त्व३ विमृगाश्लेषांकरमैत्रेवैश्ववारुणतः । रव्यादिषु तदिनभप्रमिताः क्रमतोsद्वियाङ्केन्द्रभूपै
१ २८ २७ २६ १६ क-त्र्यष्टयुग्वि६ शतिप्रमे । सूर्य
भाच्चन्द्रभे स्यादाडलस्त्याज्यः सदा बुधैः (डलो या. ६ त्रासु रोधकृत् इति पाठां०) ॥ सूर्य- ७ भाद्रणयेन्दोम
आडलोऽयं १२ सप्तभिर्भागमाहर। ८शून्यं द्वौ वा न
अत्राभिजिदपि शेषौ चेदाडलो ९ १५ नास्ति निश्चितम् ॥
अयं च प्रायः सुगि-१० रिदिशि व्याप्रियते १० एतद्गणने च नवमो११
रवियोगो यात्रादौ
नेष्ट इत्यागतम् । १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ २. भिधानफलाः ॥ ६४ ॥ आनन्दः कालदण्डश्चै प्राजापत्यैः सुरोत्तमः ।
सौम्यो ध्वाक्षो ध्वजैश्चैव श्रीवत्सो वज्रमुद्गरौ ॥ ६५ ॥ छत्रं मित्रं मनोज्ञश्च कंपो लुपके एव च । प्रवासी मरणं व्याधिः सिद्धिः शूली
ऽमृतौ तथा ॥६६॥ मुसलो गजेमातङ्गो राक्षसोऽथ चरः स्थिरः । २५ वर्धमानश्चेति नाना स्युरष्टाविंशतिः क्रमात् ॥ ६७ ॥
1 धृत्यतिधृती अष्टादशैकोनविंश्यो च्छन्दोजाती। एषु द्वादशेष्वष्टानां संज्ञा उद्वाहादौ फलं च एवं नारचन्द्र उक्तम्-विद्युन्मुखशूलाऽशनिकेतूत्का वज्रकम्पनिर्घाताः। 6५ ज८ ड१४ द१८ ध१९ फ२२ ब२३ भ२४ संख्ये रविपुरत उपग्रहा धिष्ण्ये ॥ १॥ फलमङ्गज पतिमरणे२ दशमदिनान्तस्तथाशनिपातः३ । सानुजपति४ धननाशो५ दौःशील्यं६ स्थान कुलघातौ८ ॥ २॥ शेषास्तु चखार उपग्रहाः सामान्येनानिष्टफलदाः । एकाशीतिपदाख्ये वेधचक्रादावप्येतदनुसारेणोपग्रहफलं ज्ञेयम् । 2 केचित् प्राजापत्यसुरोत्तममनोज्ञादिषट्कशूलगजानां क्रमेण धूम्रप्रजापतिमानसपद्मलंबकोत्पातमृत्युकाणशुभगदसंज्ञाः प्राहुः। "
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जैनज्योतिर्मन्यसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् । ३५
उषा
तभिा
मघा
उपयोगाः। रवि | सोम | मंगळ | बुध | गुरु | शुक्र | शनि १ आनंद | अश्विनी | मृगशिर| अश्लेषा| हस्त अनुराधा | २ कालदंड | भरणी | आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा । अभि | पूभा ३ प्राजापत्य
पूफा
| श्रवण | उभा ४ सुरोत्तम | रोहिणी पुष्य । उफा विशाखा) पूषा । धनिष्ठा| रेवती ५ सौम्य मृगशिर अश्लेषा हस्त अनुराधा| उषा शतभिषा अश्विनी ६ ध्वाक्ष
आर्द्रा । | चित्रा | ज्येष्ठा | अभि | पूभा | भरणी ७ ध्वज पुनर्वसु पूफा | स्वाति | मूल | श्रवण | उभा | कृत्तिका ८ श्रीवत्स पुष्य
उफा | विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी ९ वज्र अश्लेषा | हस्त अनुराधा| उषा शतभिषा अश्विनी | मृगशिर १० मुद्गर मघा चित्रा | ज्येष्ठा | अभि | पूभा | भरणी | आर्द्रा ११ छत्र पूफा खाति | मूल | श्रवण | उभा | कृत्तिका | पुनर्वसु | १२ मित्र
उफा
विशाखा पूर्वाषाढा | धनिष्ठा| रेवती | रोहिणी | पुष्य १३ मनोज्ञ
अनुराधा | उषा शतभिषा अश्विनी | मृगशिर अश्लेषा १४ कंप चित्रा ज्येष्ठा | अभि | पूभा | भरणी | आर्द्रा | मघा १५ लुंपक खाति
श्रवण | उभा | कृत्तिका पुनर्वसु पूफा १६ प्रवास विशाखा पूषा धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी पुष्य | उफा |१७ मरण अनुराधा उषा शतभिषा अश्विनी मृगशिर अश्लेषा | हस्त |१८ व्याधि ज्येष्ठा | अभि | पूभा | भरणी| आो | मघा चित्रा |१९ सिद्धि
श्रवण | उभा | कृत्तिका | पुनर्वसु | पूफा | खाति २० शूल पूर्वाषाढा| धनिष्ठा | रेवती | रोहिणीपुष्य | उफा
विशाखा २१ अमृत उत्तराषाढा | शतभिषा अश्विनी मृगशिर| अश्लेषा | हस्त अनु २२ मुसल अभिजित् | पूभा | भरणी| आर्द्रा | मघा चित्रा | ज्येष्ठा २३ गज श्रवण | उभा | कृत्तिका पुनर्वसु |
पूफा | खाति २४ मातंग धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी पुष्य । उफा |विशाखा पूषा २५ राक्षस शतभिषक् अश्विनी मृगशिर अश्लेषा | हस्त अनुराधा २६ चर | पूभा | भरणी| आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा | अभि २७ स्थिर | उभा । कृत्तिका पुनर्वसु पूफा | खाति | मूल | श्रवण |२८ वर्धमान | रेवती | रोहिणी | पुष्य | उफा | विशाखा पूर्वाषाढा | धनिष्ठा | यत्प्रातिकूल्यं वाराणां तिथिनक्षत्रसंभवम् । हूणवंगखसेष्वेव तत्त्यजेदिति ।
1 तिथिसंभवं यथा संवर्तककर्कयोगादौ। 2 नक्षत्रसंभवं यथा उत्पातमृत्युकाणो. पयोगादो।
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
| मूल
| उषा
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३६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीया यामारम्भसिद्धी प्रथमविमर्शे योगद्वारम् ।
99
केचन ॥ ६८ ॥ सिद्धियोगः कुयोगश्च जायेतां युगपद्यदि । कुयोगं तत्र निर्जित्य सिद्धियोगो विजृम्भते ॥ ६९ ॥ विष्कंभः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यैः ३ शोभनैस्तथा । अतिगंड: सुकम च धृर्तिः शूलं तथैव च ॥ ७० ॥ ist वृद्धि व्याघातो हर्षणस्तथा । वज्रं सिद्धिर्व्यतीपातौ वरीयान् परिघैः शिवः ॥ ७१ ॥ सिद्धेः साध्यैः शुभैः शुको ब्रह्म चैन्द्रोऽथ ६ वैधृतैः । इति सान्वयनामानो योगाः स्युः सप्तविंशतिः ॥ ७२ ॥ व्यतिपातवैधृताख्यौ सकलौ परिघस्य पूर्वमर्थं च । प्रथमः पादोऽन्येष्वपि विरुद्धसंज्ञेषु हातव्यः ।। ७३ ।। त्यजेद्वा पञ्च विष्कंभे षट् तु गंडातिगं९डयोः । घटिकाः सप्त शूले तु नव व्याघातवज्जयोः ॥ ७४ ॥ एकालः कुंयोगेषु चन्द्रेऽर्केच परस्परात् । गते साभिजिदोजक्षं त्याज्यः पादन्तरो न चेत् ॥ ७५ ॥ तिर्यक् त्रयोदशोकरेखे खर्जूरके त्यजेत् । कुयोगे १२ शीर्षभादर्कचन्द्रावेकार्गलर्क्षगौ ॥ ७६ ॥ खर्जूरकस्य शीर्षक्षैमानमेकार्गले मृगशिर सूर्य रोहिणी - आर्द्रा कृत्तिका- - पुनर्वसु
1
चंद्र
भरणी
अश्विनी
रेवती
उत्तराभाद्रपदपूर्वाभाद्रपद
शतभिषा
धनिष्ठा
श्रवण
अभिजित्उत्तराषाढा
पूर्वाषाढा -
खर्जूरकापरनाम्नः
- पुष्य
- अश्लेषा
-मघा
- पूर्वाफाल्गुनी
- उत्तरा फल्गुनी
- हस्त
- चित्रा
- स्वाती
- विशाखा
-अनुराधा - ज्येष्ठा
एकार्गलस्य स्थापना
संपूर्ण कार्गलस्थापना
चं.
सू.
आद्येन विध्यते तुर्यो द्वितीयेन तृतीयकः । तृतीयेन द्वितीयस्तु तुर्येण प्रथमस्तथा ॥ पादेन पाद इत्यर्थः
मूल
1 एकान्तिककार्यं विना शेषेष्वपि देशेषु त्याज्या इति भावः । 2 यौगिकनामाश्रयणात्सर्वोऽपि शुभयोगः । 3 विष्कंभगण्डातिगण्डशूलव्याघातवज्रपातेषु । 4 प्रीत्यायुष्मदा दिसु - योगेष्वेकार्गलो न स्यादेवेत्यर्थः । 5 अनंतरितपाद एकान्तेन शुभकार्येषु त्याज्यः । पादान्तरितस्य तु त्यागे कामचार इति भावः । 6 शूले मूर्ध्नि मृगो मघा च परिघे चित्रा पुनर्वैधृते, व्याघाते च पुनर्वसू निगदितौ पुष्यश्च वज्रे स्मृतः । गण्डे मूलमथाश्विनी प्रथमके मैत्रोऽतिगंडे तथा, सार्पश्च व्यतिपात इन्दुतपनावे कार्गलस्थौ यदा ॥ १ ॥ इति लल्लः । प्रथम इति विष्कंभे ।
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् । ३७
मतम् । योगाङ्क सैक ओजोऽन्यः साष्टाविंशतिरर्धितः॥७७॥ वेध ऊर्ध्वतिर:सप्तरेखे पूर्वादितोऽग्निभात् । भस्य रेखाग्रगे खेटे हेयश्चेन्न पदान्तरम् ॥७८॥
कृ रो म आ पुन पुष्य अश्ले
भ-
-
-
उ-षा पूषा
कृ रो
मू मृ
ज्ये पुन
अनु पु
आ
अ
-
___श्र अभि विवाहे पर्ववत्पन्न रेखा द्वे द्वे तु कोणके । लिखित्वाऽ. ग्निभतो भानि वेधं तत्रऽपि चिन्तयेत् ॥ ७९ ॥ लत्ता वर्येष्टभस्याळदीनां साभिजिदीयुषाम् । धृत्याँकृत्युईसप्ताहेतपञ्चांकृ-
श
धM
श्र अभि उषा पूषा मू
ज्ये अनु
1 यंत्रालेखनान्तरं यो यो ग्रहो यत्र यत्र मे स्यात् स तत्र तत्र स्थाप्यः । ततो यदेखायाः प्रान्ते तदिनभं समागतं तस्य द्वितीयप्रांतस्थमे यदि कश्चिद्रहः स्यात्तदा तेन
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३८ जनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श योगद्वारम् । त्यङ्कसंख्यभम् ॥ ८०॥ लैत्तयन्ति भमर्काद्याः स्वक्षतः साभिजिक्रमात् ।
अष्टिग्निविकृत्यङ्गतत्त्वोष्टप्रकृतिप्रमम् ॥ ८१ ॥ अंग्रतो नवमे राहोः ३ सप्तविंशे भृगोस्तु मे । केचिज्ज्योतिर्विदः प्राहुलत्तां तामपि वर्जयेत् ॥८२॥
पातः सूर्यक्षतोऽश्लेषा मघा चित्रानुराधिका । श्रुतिः पौष्णं च यत्र स्युस्त्या५ज्यस्तत्संख्यभेऽश्विभात् ॥ ८३ ॥ पातं शूलस्य गंडस्य हर्षणव्यतिपाग्रहेणेष्टभस्य वेधः स्यात् स हेयः । यतः क्रूरवेधे मृत्युरेव, सौम्यवेधे तु सर्वथा सुखनाशः। 2 इति पूर्णभद्रः। श्रीपतिकेशवाओं तु पादान्तरितमपि क्रूरग्रहवेधं ग्रहीतुं नानुमन्येते। 3 अवधारणे, तेन सप्तरेखवेधः सर्वकार्येषु वीक्ष्यः । विवाहे वयमेव । फलं तु-रवि विहवा, कुजि कुल खय, बुहि वंझा, मिगु अपुत्त, सणि दासी । गुरुवेहेण तविस्सिणि, विलासिणी राहुकेऊहिं ॥१॥ पूर्णभद्रस्तु दीक्षायामप्ययं वीक्ष्य इत्याह च-सूरिपयाइसु सत्तसलायं वयगहणाइसु पंचसलायं कत्तिअमाइ ठविज हु चकं जो अहससिणो तो गहवेहं । 4 आकृतिविंशश्छन्दोजातिः । लता पादप्रहारः प्रायोऽश्वादीनामिव पृष्ठतः स्यात् ।
1 खर्फत इति यद्येन ग्रहेण तदा आक्रान्तं स्यात्ततस्य खर्श ततो येषु येषु मेष्वर्काद्या राहन्ताः स्थिताः स्युस्तेभ्योऽग्रे क्रमाद्वादशादीनि भानि लत्तया प्रन्ति । विकृतिप्रकृती त्रयोविंशैकविंश्यो छन्दोजाती । तत्त्वानि सांख्यमते पञ्चविंशतिः । उत्तरार्धे सुखार्थ पाअन्तरं-"सूर्याष्टंत्रित्रयोविशेषतत्त्वाऽष्टकविंशकम्" । अस्मिंश्च लत्ताद्वैविध्येऽपि नार्थभेदः। तथाहि-इष्टभमश्विनी ततोऽष्टादशे मे ज्येष्ठायां स्थितोऽर्कोऽश्विनी पृष्ठतो लत्तयति । तथाकस्य खक्ष ज्येष्ठा तत्रस्थोऽकः पुरतो द्वादशं भमश्विनी लतयति । एवं सर्वत्र भाव्यं । ननु यदिष्टदिनस्य में तदेवेन्दोभ, तत्रस्थश्चन्दुर्यदि द्वाविंशमष्टमं वा भं लत्तयति तदेष्टभस्य किमागतं ? ततश्चेष्टभस्येन्दुलत्ताविचारणं व्यर्थमेवापद्यते । सत्यं, परमिन्दुः परिपूर्ण एव सन् भं लत्तयति, नान्यथा, यदाह श्रीपतिः-"द्वाविंशं परिपूर्णमूर्तिरुडुपः संतापयेनेतरः"। ततो गतराका यत्र भे समाप्ता स्यात्तदेवेन्दोम कल्पयित्वा ततो विचार्यम् । उक्तं च यतिवल्लभे-"चकार यत्र नक्षत्रे राकान्तं रजनीकरः । ततश्चाष्टमनक्षत्रं स पुरो हन्ति लत्तया" ॥ १॥ 2 अणुजविणासो नासो कजाभावो भयं विहवछेओ गुरुबुहसियससिर• विहयरिरकेसु मरणमनेसु । इति पूर्णभद्रः । वृद्धास्तु सौम्यलत्ता किल खल्पदोषा भस्य दौर्बल्यमात्रकारकाः, क्रूरलत्तास्तु मरणदारिद्यादिनाऽनर्थदाः। 3 त्रिशूलपात इति नामान्तरम् । भावना यथा-यदा सूर्यभं ज्येष्ठा तदा ज्येष्ठातोऽश्लेषा एकोनविंशी, मघा विंशी, चित्रा चतुर्विंशी, अनुराधा सप्तविंशी, श्रुतिः पञ्चमी, पौष्णं दशमं चेत्यतस्तद्दिनेऽश्विनीत एकोनविंशविंशचतुर्विंशसप्तविंशपञ्चमदशमीषु मूलपूर्वाषाढाशतभिषग्रेवतीमृगशिरोमघासु पातः स्यात् । एवमन्यदपि भाव्यम् । पातेऽभिजिन गण्यते। 4 शूलाद्या एते षड्योगा येषु येषु मेषु समाप्यन्ते तेषु तेष्वेते षडपि पाताः क्रमात् स्युः। पवनः पावकश्चैव कालः किंकर एव च । मृत्युकृत् क्षयकृच्चेति पाता नामसहक्फलाः । एताः संज्ञा नरपतिजयचर्यायाम् ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिद्वारम् । ३९ तयोः । साध्यवैधृतयोश्चान्ते धिष्ण्यं यत्तत्र वर्जयेत् ॥ ८४ ॥ ॥ इति योगद्वारम् ॥ ४॥६- इति वार्तिकानुसारेण प्रथमो विमर्शः समाप्तः ॥
॥अथ द्वितीयो विमर्शः ॥२ रोशिरथ तत्र मेषोऽश्विनी च भरणी च कृत्तिकापादः । वृषभस्तु कृत्तिकांत्रियान्विता रोहिणी समार्गार्धा ॥ १ ॥ मिथुनो मृगार्धमा पुनर्वसोश्चांयत्रयः प्रथमे । कर्की च पुनर्वस्वोः पादः पुष्यस्तथाऽश्लेषा ६ ॥२॥ सिंहस्तु मघाः पूर्वाफल्गुन्यः पाद उत्तराणां च । कन्योत्तरात्रिपादी हस्तश्चित्रार्धमाद्यं च ॥ ३॥ तौली चित्रान्त्यार्धं स्वातिः पादत्रयं विशाखायाः । स्याद् वृश्चिको विशाखाचतुर्थपादोऽनुराधिका ज्येष्ठा ॥ ४ ॥९ धन्वी मूलं पूर्वाषाढाऽपि च पाद उत्तराषाढः । स्यान्मकर उत्तराषाढांहित्रितयं श्रुतिर्धनिष्ठार्धम् ॥ ५ ॥ कुंभोऽन्यधनिष्ठाधं शततारा पूर्वभाद्रपात्रिपदी । मीनो भाद्रपदाहिस्तथोत्तरा रेवती चेति ॥ ६ ॥ मेषाच्छो-१२ णार्जुनहरिद्रक्तश्वेतैतमेचकाः। पिंगपिंगलकल्माषकडारमलिना रुचः॥७॥ उद्यद्घोषवतीगदं नृमिथुनं नौस्थाग्निसस्यान्विता, कन्या ना च तुलाधरो १४ ___1 अभिजितोऽगणनात् पादत्रयस्य वर्णा उत्तराषाढाया अन्त्यपादे तदन्त्यपादस्य च वर्णः श्रवणस्याद्यपादे ह्यन्तर्भाव्यः। 2 नवांशविचारणायां तु नवांशानामपि। प्रयोजनं चास्य विशिष्य नवांशेषु तच्चैवम्-धातुमूलजीवरूपं द्रव्यं किल नवांशाज्ज्ञायते । उक्तं च 'अंशकाज्ज्ञायते द्रव्यम्' । ततश्च तस्य धातुमूलार्देस्तुनो हृतनष्टादिप्रश्नऽनेन वर्णज्ञानं स्यात् । 3 तथा च सारङ्गः-"मेषो दैन्यमुपैति, गर्वति वृषो, नानामतिर्मन्मथः, शूरः कर्कटको, धृतिश्च वनपे, कन्या च मायाविनी । सत्यं रज्जुतुलाखलौ मलिनता, चापश्च पापाशयो,मौखयं मकरे, घटे चतुरता, मीने च धीरा मतिः” ॥ १॥ तथा मेषवृषौ दिवा आरण्यौ, निशि प्राम्यौ । मिथुनो ग्राम्यः । कर्कमीनौ जले । सिंहोऽरण्ये । वृश्चिकः प्रवासी । धनुःकुंभौ प्राम्यौ। मकरस्याद्योऽश आरण्योऽन्यो जलचर इत्यादि । प्रयोजनं चास्य हृतनष्टादौ चौरचेष्टास्थानादिज्ञानं । एषु च लग्नेषूचितकर्माण्येवं दैवज्ञवल्लभे-"राज्याभिषेकविरोध. साहसकूटकर्मादि धात्वाकरायं च मेषे लमे सिध्यति १ । विवाहवेश्मप्रवेशकन्यावरणादि. ध्रुवं कर्म क्षेत्रारंभपशुकर्मणी च वृषे २ । वृषोक्तं विद्याशिल्पभूषणादि च मिथुने ३ । सेवाभोगौ मृदुशुभकर्म पौष्टिकं वापीकूपादिजलकर्म च कर्के ४ । मेषोक्तं वाणिज्यनृपसेवारिपुमिलनादि च सिंहे ५ । शिल्पौषधभूषणवाणिज्यादिचरस्थिरं कन्यायाम् ६ । कृषि. सेवायात्रादि कन्योक्तं च तुलायाम् ७ । ध्रुवकर्म नृपसेवाचौर्यादिदारुणोग्रादिकर्म च वृश्चिके ८ । यात्रायुद्धव्रतसत्कर्मादि धनुषि ९ । क्षेत्राश्रयमम्बुयात्रा चरकर्म नीचक्रिया च
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४. जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राविशद्वारम् । धृतधनुर्धन्व्यश्वपश्चार्धकः । एणास्यो मकरः कुटांकितशिराः कुंभो विलोमाननं, मीनो मीनयुगं च नामसदृशाः प्रोक्ताः परे राशयः ॥ ८॥ ३ पूर्वादिदिक्षु मेषाद्याः पतयः स्युः पुनः पुनः । चैरस्थिरद्विस्वभावाः क्रूराऽक्रूरा नरस्त्रियः ॥९॥ षड् निशाबलिनोऽजोक्षयुग्मकर्कधनुर्मगाः। पृष्ठेनोद्यन्त्ययुग्मास्ते शीर्षेणान्ये द्विधा झषः ॥ १० ॥ अर्काद्यच्चान्यवृष६ मृगकन्योकर्कमी वणिजोऽशैः । दिग्दहनाष्टाविंशतितिथीर्घनक्षत्रविंश७ तिभिः ॥ ११ ॥ स्वोच्चतः सप्तमं नीचं त्रिकोणान्यथ भानुतः । मकरे १० । अम्बुयात्रानौसजीकरणबीजोप्तिदंभमेदव्रतादि नीचकर्म च कुंभे ११ । विद्यालङ्कृतिशिल्पपशुकर्मनौयात्राभिषेकादि मङ्गल्यकर्म च सर्व मीने सिध्यति १२।" "एतान्युक्तानि संसिद्धिं यान्ति शुद्धेष्वजादिषु । क्रूराणि क्रूरयुक्तेषु शुभानि सशुमेषु तु" ॥१॥ ___1 आसु जाता यथानामस्वभावाः । 'मेषसिंहवृश्चिकमकरकुंभाः पंचराशयः क्रूराः क्रूरखामिकत्वात् शेषाः सप्त सौम्येशवात्सौम्याः इति रत्नमालायाम् । 'ग्रहयोगेक्षणाभ्यां स्याद्राशेर्भावो ग्रहोद्भवः । राशिः स्वभावमाधत्ते ग्रहयोगेक्षणोज्झितः' इति तु दैवज्ञवल्लमे । 2 प्रयोजनं तु हृतनष्टादौ दिनरात्रिरूपसमयज्ञानम् । बलानुसारेणैव दिने रात्रौ वा यात्रादि शुभं नवितरथा। 3 प्रयोजनं तु यात्रादौ शीर्षोदये लग्ने जयः पृष्ठोदये वैफल्यमित्यादि । 4 लघुबृहज्जातकनारचन्द्रादीनामभिप्रायस्वयम् । मेषेऽर्क उच्चस्तस्यैव दशमे त्रिंशांशे तु परमोच्चः * * * भौमो मकरे उच्चः तस्यैवाष्टाविंशे परमोच्चः' इत्यादि । ताजिके तु नास्ति परमोच्चसंज्ञा किन्तु मेषे आद्यदशभागान्यावत्सूर्य उच्चः। पश्चात्तु तेजः पतित इत्युतम् । एवं वृषादिषु चन्द्रादीनामपि वाच्यम् । 5 जातकादीनामभिप्रायस्त्वत्रापि उच्चवदेव । परमोच्चता परमनीचता च षष्टिलिप्ताप्रमाणस्य तत्तदंशस्य मध्यभागे, कोऽर्थः ? त्रिंशल्लिप्ताभिः क्रमे स्यातामिति तज्ज्ञाः । परमोच्चनीचत्खयोः समयज्ञानोपायश्चायम्--"मासं रविबुधशुक्रौः सार्धं भौमत्रयोदशाचार्यः । त्रिंशन्मन्दोऽष्टादश राहुँश्चन्द्रः सपाददिवस. युगम्" ॥ १॥ इदं तावद्ग्रहाणां राशिस्थितिमानं । तथा च-"त्रिंशांशे ज्ञार्कशुक्राणों दिनं सार्धचतुर्घटि । इन्दोः कुंजे सार्धदिनं मासमेकं शनैश्चरे ॥ १ ॥ अष्टादशदिनी रॉहोत्रयोदशदिनी गुरोः" । इति । ततश्च मेषसंक्रान्तौ नवदिनेभ्योऽनु दिनमेकं परमो. चोऽर्कः १ । वृषे नवघटीभ्योऽनु साध घटीचतुष्कं चन्द्रः परमोच्चः २ । मकरे सार्धचत्वारिंश दिनेभ्योऽनु सार्धमेकं दिनं भौमः परमोच्चः ३ । कन्यायां चतुर्दशदिनेभ्योऽनु. दिनमेकं बुधः परमोच्चः ४ । कर्के द्वापञ्चाशदिनेभ्योऽनु त्रयोदशदिनानि गुरुः परमोचः ५। मीने षड्विंशतिदिनेभ्योऽनु दिनमेकं शुक्रः परमोच्चः ६ । तुलायामेकोनविंशतिमासेभ्योऽनु मासमेकं शनिः परमोच्चः ७ । परमनीचेऽप्येवमेव भावना । इदं च सामान्येनोकं
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिद्वारम् । ४१ सिंहोक्षमेषप्रमर्दा धनुर्धटघटीः क्रमात् ॥ १२ ॥ लग्नाद्भावास्तनु.१ द्रष्टव्यं । यतो भौमाद्याः प्रायो वक्रिता अतिचरिता वा स्युः । न च तदानीमयं परमो. च्चनीचत्वसमयः संवदति, तेन वक्रातिचारवतां ग्रहाणां वक्ष्यमाणकरणेन स्पष्टतां कृता यथोक्तांशेरेव परमोच्चनीचत्वे निर्धायें । सहजगतीनां तु सांप्रतोक्तसमययुक्त्येति । उच्च. नीचप्रयोजनं त्वेवम्-"इक्को जइ उच्चस्थो हवइ गहो उन्नइं परं कुणइ । किं पुण बे तिनि गहा कुणंति को इत्य संदेहो ॥१॥ जन्मनि तत्फलं यथा-"व्युच्चेर्नृपः पञ्चभिरर्धचक्री चक्री षडुच्चैर्मुनिभिस्तथान् ॥ १॥ त्रिभिनींचैर्भवेद्दासस्त्रिभिरुच्चनराधिपः । त्रिभिः खस्थानगैमंत्री त्रिभिरस्तमितैर्जडः ॥ १ ॥ अन्धं दिगम्बरं मूर्ख परपिंडोपजीविनम् । कुर्यातामतिनीचस्थौ पुरुषं चन्द्रभास्करौ" ॥२॥ इत्यादि । त्रिकोणान्यथेति एतानि मूलत्रिकोणान्यप्युच्यन्ते । प्रमदा कन्या । धटस्तुला । घटः कुंभः । प्रयोजनं तु त्रिको णग्रहा उच्चसमं किञ्चिदूनं वा फलं दद्युरिति पाकश्रियाम् । प्रश्नशतकवृत्तौ च त्रिकोणादीनि त्रिंशांशव्यक्त्या एवमूचिरे, तथाहि-"सिंहे विंशतिस्त्रिशांशास्त्रिकोणं शेषा दश गृहं रवेः १। वृषे द्वावंशावुचौ तृतीयः परमोच्चः शेषात्रिकोणमिन्दोः २ । मेषे द्वादशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं कुजस्य ३ । कन्यायां चतुर्दशांशा उच्चाः पञ्चदशः परमोच्चः ततः पञ्चांशास्त्रिकोणं शेषा दश गृहं बुधस्य ४ । धनुषि दशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं गुरोः ५। तुलायां पञ्च दशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं शुक्रस्य ६ । कुंभे विंशतिरंशास्त्रिकोणं शेषा दश गृहं शनेरिति ॥ _1 भाव्यन्ते विचार्यन्ते इति भावाः । पृच्छायां जन्मनि यात्रादौ वा यः कश्चित्तत्काले उदयन् राशिः स लग्नाख्यो द्वादशारचक्राकृतिं न्यस्य संमुखारविवररूपे मुख्यस्थाने देयः, शेषा एकादश राशयोऽप्रदक्षिणमेकादशस्थानेषु च, एवं कुंडलिका स्यात् । तत्स्थापना पृष्ठे ४२ । अत्र लग्नस्य तनुभावसंज्ञा इष्टनरादेस्त नुरेतदनुसारेण विचार्येत्यर्थः । ततोऽप्रदक्षिणमेकादशस्थानेषु द्वितीयादिस्थानस्थराशीनां क्रमाद् द्रव्यभाव २ भ्रातृभाव ३ बन्धुभावा४दिसंज्ञाः । इष्टस्य पुंसो द्रव्यभ्रात्रादिकमेषामनुसारेण विचार्य, तथाहि-“यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा, सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः । पापैरेवं तस्य तस्यास्ति हानिर्निर्देष्टव्या पृच्छतां जन्मतो वा" ॥ १ ॥ नवरं षष्टेऽरिभावे यथा क्रूरा अरिभावं मन्ति तथा सौम्या अपि घ्नन्त्येव, न तु पुष्णन्ति । व्ययाष्टमयोश्च यथा सौम्या व्यय. मृत्यू पुष्णन्ति तथा क्रूरा अपि पुष्णन्त्येव, न तु नन्ति । अत एवोक्तं-"सौम्याः षष्ठे. ऽरिनाः सर्वे नेष्टा व्ययाष्टमगा" इति । यवनेश्वरमते तु-"अष्टमे सौम्या आयुर्वृद्धिकरा इति । भ्रातृभावे च भगिन्योऽपि लक्ष्याः । बन्धवः खजना बन्धुभावे माताऽपि । सुत. भावे शिष्या अपि । स्त्रीति भार्या । अत्र गमागमाद्यपि । अष्टमे रोगाद्यपि । धर्मभावे क्रमागतविद्याऽचुम्बिताविद्याऽचिन्तितधनलाभाद्यपि । दशमे कर्मव्यापारः, अत्र पिता. भाग्यमाश्वर्याद्यपि च । लामे नष्टलाभाद्यपि । व्यये सदसद्ययादि च विचार्याणि(य)। द्वादशेति यथा लमादारभ्य द्वादश भावा उक्तास्तथा चन्द्रादपि ज्ञेयाः, लमचन्द्रयोर्मध्ये यस्तदानीं बलवान् स्यात्तस्माद्दादश भावा विचार्यन्त इत्याम्रायः ॥
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४२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिद्वारम् ।
कके
ग्रहाः | रवि | चन्द्र । मंगळ | बुध गुरु शुक्र । शनि | राहु उच्चानि | मेष | वृष | मकर । कन्या | मीन तुला | मिथुन नीचानि । तुला वृश्चिक | कर्क | मीन | मकर | कन्या | मेष धनु राशिस्थिति मास१ मास२। मास १॥ मास १ मास १३ मास१ मास३०मास १८ परमोच्चपरम- १० । ३ । २८ । १५ ५
२० । नीचानि
अंशमान दिन १ घटी ४॥ दिन १॥ दिन १ दिन १३ दिन १ मास १ . द्रव्यंभ्रातृबन्धुसुतारयः । स्त्रीमृत्युधर्मकर्मायव्ययोश्च द्वादश स्मृताः ॥१३॥ सुहृन्-मन्दिर-पाताल-हिबुका-ऽम्बु-सुखाभिधम् । चतुर्थम् , अष्टमं
१२
धन .
बुधस्वामी
शुक्रवामी भ्रातृ भगिनी सहज
पणफर दुश्चिक्य विक्रम आपोक्लिम उपचय
मंगळवामी तनु मूर्ति
लग्न केन्द्र चतुष्टय
कंटक
बृहस्पतिवामी
शनैश्चर(सदसद्) व्यय/
खामी आपोक्लिम
आय रिष्प
पणफर नष्टलाभादि सर्वतोभद्र
उपचय
चंद्रस्वामी बंधु अंबु सुहृन्मंदिर
केन्द्र चतुष्टय कंटक पाताल हिबुक अम्बु सुख चतुरस्र मातृभवन गृहभवन
लग्नसंज्ञायंत्रम्
शनैश्चरस्वामी कर्म व्यापारभवन केन्द्र चतुष्टय कंटक मध्य मेषूरण व्योम उपचय
\ त्रिकोण
रविस्वामी
बृहस्पतिवामी सुत शिष्य
धर्म भाग्य पणफर शुक्रवामी
आपोक्लिम धीः
स्त्री काम जामित्र धुन गळस्वामी त्रित्रिकोण बुधवामी त्रिकोण
धून अस्त अरि
मृत्यु छिद्र । आपोक्लिम केन्द्र चतुष्टय कंटक
पणफर अनायुः उपचय
विवाह पाप क्षत चतुरस्र ३ छिद्रम् चतुरस्त्रे उभे पुनः ॥१४॥ त्रित्रिकोणं च नवमम् , त्रिकोणे नव
1 क्षतपापपर्यायः । अनायुरित्यप्यस्य संज्ञा ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्शे राशिद्वारम् । ४३
१०
पञ्चमे । सप्तमं काम- जामित्र - युन- यूना - स्तसंज्ञकम् ॥ १५ ॥ स्यातां तृतीये दुश्चिक्यविक्रमे, पञ्चमे तु धीः । मध्यै - मेषूरण व्योमान्याहुर्दशमधामनि १६ उपान्त्यं सर्वतोभद्रमन्त्यं रिष्पमुदीरितम् । वदन्त्युपचयाहाँस्त्रिषड् दशैका - ३ दशान् पुनः ॥ १७ ॥ केन्द्रचतुष्टय कंटकनामानि वपुः सुखास्तदशमानि । स्युः पणफराणि परत २-५-८-११ स्तेभ्योऽप्या पोक्किमानीति ३-६९-१२ ॥ १८ ॥ मेषादीशाः कुजेः शुक्रो बुधैश्वन्द्रो रविर्बुधः । शुक्रः ६ कुजो गुरुर्मन्दो मन्दो जीवें इति क्रमात् ॥ १९ ॥ होराराश्यर्धमोजर्क्षेऽर्केन्द्वोरिन्द्वर्कयोः समे । द्रेष्काणा भे त्रयस्तु स्वपञ्चमत्रित्रिकोणंपाः ।। २० ।। नवांशाः स्युरजादीनामजैणतुलकर्कतः । वर्गोत्तमाचरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ २१ ॥ स्युर्द्वादशांशाः स्वगृहादथेशास्त्रिंशांश - १०
I
1 विवाहपर्यायः जामिं भगिनीं त्रायति त्यजतीति कृत्वा । 2 सर्वोऽपि ग्रहो यस्मिन् राशावुदितस्तत्सप्तमेऽदर्शनं यातीत्यस्वसंज्ञा । 3 इह किल तुर्यस्य पातालाम्बुसंज्ञे दशमस्य मध्यव्योमसंज्ञे च भूगोलकल्पनयेत्यूह्यं, भूगोलमते ह्यर्कः प्राप्तः प्राच्यामुदीय प्रदक्षिणं भ्रमन्मध्याह्ने दशमधामनि व्योममध्यमागत्य सायं सप्तमेऽस्तमेति, तथैव च रात्रावपि भ्रमन्मध्यरात्रे तुर्यधाम्नि पाताले भूत्वा पुनः प्रातः प्राच्यामुदेतीत्याहुः । पातालं च स्वभावादम्बुस्थानमिति प्रतीतमेव ॥ 4 तत्रस्थग्रहस्य सर्वथाऽपि शुभत्वात् । 5 लग्नाश्च्चन्द्राच्च । एषु स्थितः पापग्रहोऽपि शुभफलप्रदः स्यात् । 'कार्यं यदुक्तं तदुपैति सिद्धिं वारे ग्रहे चोपचयर्क्षभाजि । नीचर्क्षसंस्थेऽपचयस्थिते च यत्ने कृते चापि भवत्यसाध्यम् ॥१॥ 6 सर्वासु भावसंज्ञासु दुश्चिक्यहि बुकत्रिकोणद्युनघून त्रित्रिकोणचतुरस्रमेषूरणरिष्पकेन्द्रचतुष्टयकंटकपणफराऽऽपोक्लिमसंज्ञाः, वक्ष्यमाणहोराद्रेष्काणसंज्ञे चान्वर्थरहितत्वाद्यादृच्छिक्यो यवनाचार्यादिमते रूढत्वादुक्ताः । विक्रमसुखवेश्मधीजामित्र छिद्रादिसंज्ञास्तु सान्वर्था;, तेनेष्टपुंसो विक्रमादि तत्तद्गृहाद्विचार्यम् । एवमेव प्रथमादिस्थाने तन्वादि विचार्यम् । 7 राशीनामिति शेषः । सूर्येन्दुहोराजाताः क्रमात्तेजखिनो मृदवश्च स्युः । एवं द्रेष्काणादिजाता अपि तत्तत्स्वामिसदृशाः । सप्तांशकव्यवहारिणां तु मते तेषां नाथा होरामकरन्दे एवमुक्ताः 'स्वर्क्षादोजे युग्मभे द्यूनगेहाद्गण्यास्तज्ज्ञैः सप्तमांशाः क्रमेण' । -8 सर्वस्य राशेः स्वस्वसमाननामा नवांशो वर्गोत्तम इति भावः तज्जातश्च स्वकुले मुख्यः - स्यात् । 'विच पण सत्त नवमा रासीण नवंसया सुहा जम्मे । पढम दु अठ्ठम अहमा, छठी पुण मज्झिमो नेयो' ॥ इति पूर्णभद्रः ॥ 'बलवानुदितांशस्थः शुद्धं स्थानफलं ग्रहः । दद्याद्वर्गोत्तमांशे च, मिश्रं शेषांशसंस्थितः ॥ १ ॥ यतो य एव राशिः स्यात् स एव च नवांशकः । प्रोक्तं स्थानफलं शुद्धमतोऽस्मिन् सोपपत्तिकम्' ॥ २ ॥ इति दैवज्ञवल्लमे वर्गोत्तमनवांशस्थो ग्रहोऽपि वर्गोत्तमः । नवांश स्वामिनस्तेषां राशिस्वामितुल्याः ।
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४४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिद्वारम् ।
१५०
4
في به)
به
.
केष्वोजयुजोस्तु राश्योः । क्रमोक्रमादर्थशैराष्टिशैलेन्द्रियेषु भौमार्किगुरज्ञशुक्राः ॥२२॥ षड्वर्गेऽष्टादशं नवं द्वे सार्धशतानि षष्टिश्च । क्रमशो
राशीनां || गृहेशाः । होराः | द्रेष्काणेशाः नवांशेशाः गृहाणि १ मेष मंगळ र|चं मं २ वृष ३ मिथुन ४ कर्क ५ सिंह ६ कन्या ७ तुला ८ वृश्चिक ९ धन १० मकर ११ कुंभ शनि १२ मीन राशीनां द्वादशांशेशाः
নিয়মীয়া:
द
A
선
बुध
4.4.AA.AA.A44 A.A A.AANA.A4..4 4.
4.6444.644464604 2.4644.60 41.6444
.
A 2626064646464646464600 42.4.44.4.4 44.4.4
서 씨 색
شه که له له
3) FER) 09577) ) 1570)
शुक
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시
4
서 회색
في في له)
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गुरु
गृहाणि
م
१ मेष मंशु बु | चंर बु शुमं गु श श गु५मं|५श ८ गु७बु ५शु २ वृष शु बु | चं र बु शु मं गु श शगु मं ५शु ७ बु ८ गु|५श ५मं ३ मिथुन बुचं र बु शु मं गु शश गुमं शु/५मं ५श ८ गु| ७ बु ५ शु
गु में शु बु ५ शु ७ बु ८ गु/५श ५मं
मं शुबु चं ५मं ५ श ८ गु/७बु ५शु ६कन्या बु शु मंगु शश गु मं शु बु चं र ५शु ७बु। ८ गु५श ५मं ७ तुला |शु मं गु श शगु मं शु बुचं र बु|५मं ५श ८ गु ७७५शु ८ वृश्चिक में गु श शगु मंशु बु | चं र बु शु/५शु ७बु ८ गु/५श५म ९ धन गु श | शगु में शुबु चं|र | बु | शुमं|५|५श८गु|७बु।५शु १० मकर |श शगु मं शुबु चं र बु शु मंगु ५शु बु ८ गु| ५श ५मं ११ कुंभ शगु मं शु बुचं र बु शुमं गु श५मं ५श ८ गु ७ बु|५शु
१२ मीन |गुमं शु बु | चं र बु शु मं! गु श श ५शु ७ बु ८ गु/५श ५मं| ३ गृहहोरादौ लिप्ताः स्युः प्रभुरिह नवांशः ॥ २३ ॥ षण्णां त्र्यादिषु वर्गेषु
1 चन्द्रबलं किल तिथ्यादिबलेभ्यः शतगुणं, ततोऽपि लग्नं सहस्रगुणबलम् , ततोऽपि होरायाः सर्वेऽपि यथोत्तरं पञ्चपञ्चगुणबलाः इति बृहज्जातकवृत्तौ। 2 गृहादिषड्वर्गोऽनतिस्थूलसूक्ष्मत्वात्प्रतिष्ठाविवाहादिसर्वकार्येष्वधिकारी नवांश एवेत्यर्थः । यललः-खार्धे नक्षत्रफलं विध्यर्धे तिथिफलं समादेश्यम् । होरायां वारफलं लमफलं लशंके स्पष्टम् ॥
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जैन ज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीय विमर्शे राशिद्वारम् । ४५
यो ग्रहः स्वेष्ववस्थितः । स स्ववर्गगतो ज्ञेय एवमेवान्यवर्गगः ॥ २४ ॥ अग्नि
ईशान
पूर्व रवि शुक्र
गुरु
ग्रहाः स्युरैन्द्याद्यधिपा दिने - शुक्रोरैराह्नॉर्किश शिज्ञजीवः । पापाः कृशेन्द्वर्कतमोऽसितारास्तैः संयुतो ज्ञश्च, परे सौम्याः तु
॥ २५ ॥
उत्तर
बुध
दिगीश- दक्षिण
ग्रहयन्त्रम् मंगळ
शनि राहु नैर्ऋत्य
चंद्र वायव्य पश्चिम
तथा अहो नवांशस्य प्राधान्यम् तथाहि - लग्ने शुभेऽपि यवंशः क्रूरः स्यान्नेष्टसिद्धिदः । लग्ने क्रूरेऽपि सौम्यांशः शुभदोऽंशो बली यतः ॥ इति दैवज्ञवल्ल मे । तथा क्रूरांशस्थः सौम्य प्रहोऽपि क्रूरः स्यात् सौम्यांशस्थस्तु क्रूरोऽपि सौम्यः स्यादिति लल्लः । तथा क्रूरांशस्थस्य सौम्यग्रहस्यापि दृष्टिर्दुष्टा सौम्यांशस्थस्य च क्रूरस्यापि दृक् शुभा । तथा ग्रहगोचरशुद्धिविचारणावसरे ग्रहो राशिगोचरेणाशुभोऽपि नवांशगोचरेण यदि शुभः स्यात्तर्हि शुभ एवेत्यादि लल्लीपती । 3 षण्णामिति निर्धारणे षष्ठी । व्यादिष्विति अन्यतरेषु त्रिषु चतुर्षुकर्षतः पञ्चसु वा स्वकीयेषु यः स्थितः, न तु कदापि षट्सु संभवति, अर्कैन्द्वोस्त्रिंशांशस्य कुजादीनां होरायाश्चाभावात् स स्ववर्गस्थस्तत एव च सबलः । एवमेवेति यस्तु त्र्यादिषु परकीयेषु स्थितः सोऽन्यवर्गस्थस्तत एव विबलश्च । विशेष यत्र नवांशे षष्णां पञ्चानां चतुर्णां वा गृहाद्यन्यतरेषां सौम्य एव ग्रहस्वामी लभ्यते स नवांशः षड्वर्गस्य पञ्चवर्गस्य चतुर्वर्गस्य वा सौम्यत्वात् प्रतिष्ठादिलग्नेषु विशेषतो ग्राह्यः । स चैवं निर्धारितः तथाहि—“सत्तमनवमा मेसे पंचमतइआ विसे मिहुणि छैठो । पढमतइआ य कँक्के सिंहे छैठो कणी तईओ ॥ १ ॥ अट्ठमनवमा य तुले विच्छियलग्गे चउत्थय नर्वसो । धणुलग्गि छठ्ठसत्तमनवम मयरम्भ पंचमओ ॥ २ ॥ छठ्ठठ्ठमा य कुनै ढो तइओ अ मी लग्ग । चउपणवग्गछत्रग्गो एएसु नवंसएसु सुहो" ॥३॥ अत्र चउपणवग्गत्ति एषु नवांशेषु चतुर्वर्गशुद्धिस्तावदस्त्येव, पञ्चवर्गशुद्धिषड्वर्गशुद्धी तु केषु चिन्नवांशेषु संपूर्णेषु स्तः केषाञ्चित्तु कियत्यपि भागे स्तः, तद्यक्तिश्च ग्रन्थप्रान्त काव्यवृत्तौ लिखिताऽस्ति ततोऽभ्यूह्या । इह च केचित्रिवर्गशुद्ध्याऽप्यन्ये तु नवांशस्यैव प्रभुत्वात्तमेवैकं सौम्यसत्कमादाय शेषवर्गशुद्धिं विनाऽपि लग्नमाद्रियन्ते, तदत्रेदं तत्त्वम् - लग्ने ध्रुवग्राह्यनवांशशुद्धौ सत्यां यथा यथा शुभबहुवर्गलाभस्तथा तथा प्रतिष्ठादौ शुभकार्ये तद्विशिष्य ग्राह्यम् ॥
1 दिग्वाच्या केन्द्रमतैरसंभवे वा वदेद्विलग्नर्क्षात् । चौरादीनामिति शेषः । 2 कृष्णचतुर्दश्यादिदिनत्रयेऽकलः कृशः शशी क्रूरः । 3 प्रयोजनं पापसौम्यग्रह बलिष्ठत्वाज्जातकादेस्ताच्छील्यादि विशेषस्तु रक्तश्यामो भास्करो, गौर इन्दुर्नात्युच्चाङ्गो रक्तगौरव वैकः । दूर्वाश्यामो ज्ञो गुरुर्गौरगात्रोऽश्यामः शुक्रो, भास्करिः कृष्णदेहः ॥ १ ॥ अस्यापि प्रयोजनं बलिनः सदृशी जातकादेर्मूर्त्तिः । यद्वा लग्ने तत्कालं यो नवांश स्वत्स्वामितुल्या तन्मूर्तिरिति ।
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४६ जनज्योंतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिद्वारम् । पृच्छादिष्वपरे केतुं तमसः सप्तमं विदुः। शुक्रेन्दू योषितौ मन्दबुधौ क्लीबो पैरे नराः ॥ २६ ॥ वर्णानां जीवसितौ रविभौमोविन्दुरिन्दुजैश्चैशाः । ३ संकरजानां तु शनिर्जीवसितारेन्दुजाओं वेदानाम् ॥ २७ ॥ ते स्थानबलिनो मित्रस्वगृहोच्चनवांशगाः । स्त्रीराशिष्विन्दुभृगुजौ पुराशिषु पुनः
परे ॥२८॥ लग्नाद्युत्क्रमकेन्द्राख्यदिक्षु प्राच्यादिषूद्वलाः । जीवज्ञौ भास्क६ रक्ष्माजौ शनिः सितसितद्युती ॥२९॥ बलिनोऽह्नि गुरुसितार्काः, सदा
बुधो, निशि तु चन्द्रकुजमन्दाः, । स्वदिनादिषु च, सितासितपक्षद्वितयेषु शुभक्रूराः ॥ ३० ॥ रविचन्द्रावुदगयने विपुलस्निग्धाश्च वक्रगाश्चाऽन्ये । ९ बलिनो युधि चोत्तरगा व्यर्केन्दुयुताश्च चेष्टाभिः ॥ ३१ ॥ सौम्यैईग्ब___ 1 अनेन जातके ग्रहगोचरे प्रतिष्ठादिलग्नेषु च केतुर्न तथोपयोगीत्यसूचि । 2 'राहुच्छाया स्मृताः केतुर्यत्र राशौ भवेदयम् । तस्मात्सप्तमके केतू राहुः स्याद्यन्नवांशके ॥ तस्मादंशे सप्तमे स्यात् केतुरंशो नवांशकः'। 3 स्त्रियावित्येके । 4 परे रविकुजगुरवः । प्रयोजनं जन्मनि चिन्तायां हृतनष्टादौ वा बलवन्तः स्ववर्गमेव ज्ञापयन्तीति। 5 मूर्धावसिक्तादिरथकारान्ता निघंटूक्तत्रयोदशमेदा यथा तथा जातिद्वयजाताः । प्रयोजनं तु जीवादीनामुदयास्तादौ तत्तज्जातीनां तत्तद्वेदवतां च सुखदुःखादि । 6 गृहस्योपलक्षणवामूलत्रिकोणेऽपि । मित्र ५ वर्ल १० त्रिकोणो १५ चैः २० फलं दत्तेऽह्रिवृद्धितः । इति त्रैलोक्यप्रकाशे। 7 लग्नं प्राची, दशमं दक्षिणा, सप्तमं पश्चिमा, तुर्यमुत्तरा । अन्तरालस्थितव्यया १२ऽऽया ११ऽऽदि गृहद्वयद्वयरूपमाग्नेयादिविदिक्चतुष्कं तु मात् पूर्वादिचतुर्दिक्समफलमेव विदिशां दिगनुगामित्वात् । 8 खदिनववर्षखमासस्वकालहोरासु तत्तदधिपग्रहा बलिनस्ते चैवम्-'यस्य वारस्य मध्ये स्याच्छुक्लप्रतिपदो मुखम् । तन्मासेशः स विज्ञेयश्चैत्रे वर्षाधिपः पुनः' ॥ 'चैत्रादिमेषसंक्रान्तिकर्कसंक्रान्तिवासराः । प्रतिवर्ष क्रमाज्ज्ञेया राजानो मंत्रिसस्यपाः' इति व्यवहारसारे । दिनेशसस्तद्दिनवार एव । 'वर्षमासाहोरेशैर्वृद्धिः पञ्चोत्तरा फले' इति मुहूर्तसारे । 9 नतु बाला वृद्धा अस्तमिता वा । 'बाल्ये वार्द्धके च सर्वे ग्रहाः सप्ताहं निर्बलाः' इति सप्तर्षयः प्राहुः । 10 अर्काद्दरतरस्थत्वेन खे लक्ष्यमाणाः। 11 वक्रगत्वे किल सर्वग्रहाणां मूलत्रिकोणतुल्यं बलमिति पाकश्रियाम् । 12 रवीन्द्वोर्वक्रगत्यभावात्पञ्चान्ये। भौमादिग्रहाणां गतयश्चैवम्-'सूर्यमुक्ता उदीयन्ते शीघ्रा अर्के द्वितीयगे । समं तृतीयगे यान्ति मन्दा भानौ चतुर्थगे ॥ १॥ वक्राः पञ्चमषष्ठेऽर्के तेऽतिवका नगाष्टगे । नवमे दशमे मार्गाः सरला लाभरिष्पगे' ॥ २ ॥ अत्र पञ्चमषष्ठेऽर्के इति शनिकुजगुरूनपेक्ष्योक्तम् , बुधशुक्रौ वर्कस्यासन्नस्थावेव वक्री स्याताम् । एवं मार्गेऽपि वाच्यमिति प्रश्नशतकवृत्तौ । 13 जयित्वात् । 'सर्वे बलिन उदक्स्था दक्षिणदिक्स्थो बली
शुक्रः' इति तु वराहसंहितायाम्। 14 खे एकस्मिनक्षत्रपादे मिथस्ताराग्रहाणां योगो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धी द्वितीय विमर्शे राशिद्वारम् । ४७
१०
लिनो दृष्टा, बले नैसर्गिके पुनः । मन्दारज्ञेज्यशुक्रेन्दुभास्कराः स्युर्बलो - त्तराः ॥ ३२॥ पश्यन्ति पादतो वृद्ध्या भ्रातृव्योम्नी, त्रिकोणके, ५-९ ॥ चतुरस्रे, ४–८ स्त्रियम्, स्त्रीवन्मतेनायदिमांवपि ॥ ३३ ॥ पश्येत्पूर्णं ३ शनिर्भ्रातृव्योम्नी, धर्मधियौ गुरुः । चतुरस्रे ४ -८ कुजो, ऽर्केन्दुबुधशुक्रास्तु सप्तमम् ॥३४॥ रवेः शुक्रशनी शत्रू, ज्ञः समः, सुहृदः परे । चन्द्रस्याबुधौ मित्रे, कुजगुर्वादयः समाः ॥ ३५ ॥ कुजस्य ज्ञो रिपुर्मध्यौ शनि - ६ शुक्र परेऽन्यथा । बुधस्य मित्रे शुक्रार्कौ शत्रुरिन्दुः समाः परे ॥ ३६ ॥ जीवस्यार्कात्रयो मित्राण्यार्किर्मध्यः परावरी । कवेरमित्रौ मित्रेन्दू मित्रे ज्ञार्की समावुभौ ॥ ३७ ॥ मन्दस्य ज्ञसितौ मित्रे गुरुर्मध्यः परेऽरयः । ९
ग्रहाणां रवि शव: शुक्र - शनि मित्राणि चं-मं-गु
चन्द्र मंगल
बुध
र-चं-गु शु श मं-गु-श
र- शु
२ 3
०
र-बु मध्यस्थाः बु मं. गु शु श
बुध
चन्द्र
गुरु शुक्र शनि बु-शु र-चं र-चं-मं र-चं-मं| बु-श
बु-शु
श मं-गु गु
१०
तत्कालसुहृदो द्वित्रिसुर्खेलाभन्त्ये कर्मगाः ॥ ३८ ॥ मित्रमध्यारयो येऽत्र निसर्गेणोदिताः क्रमात् । अधिमित्रसुहृन्मध्यास्ते स्युस्तत्कालमैत्रयतः ११ युद्धमुच्यते । 15 अर्कवियुताः सन्त इन्दुना एकराशिस्थाः । 16 उपलक्षणत्वान्मित्रैश्च पादार्धपादोनपूर्णाभिर्हग्भिर्दृष्टाः क्रमात्तावत्तावद्विशोपान् बलिनः ।
1 यदा ग्रहयोर्ग्रहाणां वाऽन्यबलसाम्यं स्यात्तदा स्वाभाविकबलेनैव सबलाबलवं विभाव्यते । राहुस्त्वर्कादपि बलिष्ठः । 2 पञ्चभिः पञ्चभिर्विशोपकैः । 3 केषांचिन्मतेन । 4 शनेः पाददृक्, गुरोरर्द्धदृक्, कुजस्य पादोनदृग्नास्तीत्यागतमनेन ग्रन्थेन । ज्योतिषसारे तु सर्वग्रहाणां द्विर्द्वादशयोर्न दृक्, षडष्टमयोः पाददृक्, त्र्येकादशयोरर्धदृक्, नवपञ्चमयोः पादोनदृक्, केन्द्रेषु तु चतुर्षु पूर्णा दृगित्युक्तम् । ताजिके तु द्विर्द्वादशषडष्टमेषु मूलतोऽपि नेष्टा । 5 तत्कालेत्यादि जन्मनि पृच्छादिलने वा यत्र स्थाने कश्चिदेको ग्रहोऽस्ति तस्माद्द्वितीयादिस्थाने योऽन्यो ग्रहः स्यात्स तत्काले द्वित्र्यादिस्थान स्थिति कालावधीत्यर्थः तस्य मैत्री स्यात् । इयं तात्कालिकी मैत्रीत्युच्यते ॥ 6 अधिकं मित्रमधिमित्रं, अर्थादेव च मित्रस्थानेभ्योऽन्यानि प्रथमपश्ञ्चमषष्ठ सप्तमाष्टमनवमस्थानानि तत्कालवैरस्थानानि । तत्फलं चैवं—“येऽत्रारिमध्यमित्राणि निसर्गेणोदिताः क्रमात् । अधिशत्रुद्विषन्मध्यास्ते स्युस्तः त्कालर्वैरतः” ॥ १ ॥ भुवनदीपके तु ग्रहाणां मित्रशत्रुस्वरूपं पक्षद्वयमेवोक्तं, तथाहि" रवीन्दूमौ मगुरवो ज्ञशुक्रशनिराहवः । खस्मिन् मित्राणि चत्वारि परस्मिन् शत्रवः
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४८ जैन ज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्शे राशिद्वारम् ।
॥ ३९ ॥ स्याद्गोचरेणात्र शुभोऽपि विद्धः खेटोऽन्यखेटैरशुभः क्रमेण । दुष्टोऽपि चेष्टश्च स वामवेधान्मिथो न वेधः पितृपुत्रयोस्तु ॥ ४० ॥ ३ वेध त्रिषंग गर्नला भगतस्य भानोः, खेटैः क्रमेण नवमान्य सुखात्मजै
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स्थैः । इन्दोस्तनौ त्रिरिपुंमन्मथखायस्य धीर्धर्मरिष्पधनबन्धुर्मृतौ स्थितैश्च ॥ ४१ ॥ स्यान्मङ्गलस्य सहजद्विर्षदायस्य सौरेस्तथा व्येय तपः सुखगैश्च ६ वेधः । चान्द्रेः स्वर्षैन्धुरिपुमृत्युर्खेला भंगस्य पुत्रत्रिर्धर्मतनुर्निर्व्यथनाऽन्त्यगैश्च ॥४२॥ वाचस्पतेः स्वेतनयास्तन वायगस्य वेधस्तथान्यसुख विक्रमखाष्ट८ गैश्च । शुक्रस्य षट्खमदनान्यजुषो १-२-३-४-५-८-९-११-१२ सप्ता
स्मृताः” ॥ १ ॥ राहुरव्योः परं वैरं गुरुभार्गवयोरपि । हिमांशबुधयोर्वैरं विवस्वन्मन्दयोरपि ॥ २ ॥ अतिमैत्री राहुशन्योरिन्दुगुर्वोः कुजार्कयोः । सितज्ञयोः” इति एवं च प्रहाणां मित्रात्मगृहाण्युच्चानि विशेषाद्धर्षदीप्तिस्थानानि, यथा रवेर्मेषः सुहृद् गृहमुचं च, बुधस्य कन्यागृहमुचं चेत्यादि । अरिगृहाणि तच्चान्यपि प्रभादायी नि स्युः परं नान्तःसुखदानि, यथा शुक्रस्य मीनः । नीचान्यपि च सुहृदगृहाणि किञ्चित्प्रभादायीनि यथेन्दोवृश्चिकः । रिपुगृहाणि तु नीचानि नानाऽनर्थान् प्रभाहानिं च कुर्युरिति भुवनदीपकवृत्तौ ॥
1 गोचरेण शुभोऽपि ग्रहो वक्ष्यमाणक्रमेणान्यग्रहैर्विद्धः सन्नशुभः स्यात् । दुष्टोऽ. पीत्यादि अपिचेत्यखंडमव्यय समुदायः क्रमेणेत्येतदत्रापि योज्यं गोचरेण दुष्टोऽपि च ग्रहः क्रमेण वामवेधादिष्टः स्यात् । इह किल तृतीयादिस्थानस्थस्य रवेर्नवमादिस्थानस्थप्रहैर्यो वक्ष्यते स वेधः । यस्तु नवमादिस्थान स्थार्कस्य तृतीयादिस्थानस्थग्रहैः स्यात् स वामवेधः । कोऽर्थः ? तृतीयादिस्थानस्थोऽर्कः शुभः चेन्नवमादिस्थानस्थैरन्यग्रहैर्न विध्येत । नवमादिस्थानस्थश्चाशुभोऽप्यर्कः शुभो यदि तृतीयादिस्थानस्थैः परैर्विध्येत । एवमन्येऽपि भाव्याः । उक्तं च यतिवल्लभे – “एभिर्वधैर्विद्धा विफलाः स्युर्गोचरे ग्रहाः सर्वे । विपरीतवेधविद्धाः पापा अपि सौम्यतां यान्ति” ॥ १ ॥ " यत्रस्थेन ग्रहेणेष्टग्रहो विध्यते तंत्रस्थस्यैव स्वस्य फलं शुभमशुभं वा स ददातीति तत्त्वम्” इति रत्नभाष्ये । ये तु गोचरफलमेव प्रमाणयन्तो वेधविधौ माध्यस्थ्यमाद्रियन्ते तन्मतं न बहुसंमतम् । यदाह सारङ्गः—— - "यत्र गोचरफलप्रमाणता, तत्र वेधफलमिष्यते न वा । प्रायशो न बहुसंमतं विद, स्थूलमार्ग फलदो हि गोचरः " ॥ १ ॥ यतिवल्लभेऽप्युक्तम् – “अज्ञात्वा वेधविधिं ग्रहगोचरपाकजात गुणदोषम् । ये निर्दिशन्ति मूढास्तेषां विफलाः सदादेशाः " ॥ १ ॥ वैधौ च वामोऽवामश्च जन्मराशित एव गण्यौ । मिथो न वेध इति रविशनी चन्द्रबुधौ च पितापुत्रौ । अत्र पितृपुत्रयोरिति पाठश्चिन्त्यः, ऋत आत्वभवनात् तेन "मिथो न पित्राङ्गजयोस्तु वेधः” इति पाठोऽस्तु ॥ 2 निर्व्यथनं छिद्रमष्टममित्यर्थः । 3 षट्खेत्यादि षष्ठदशम सप्तम वर्जन वस्थानजुषः ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श राशिगोचरद्वारौ । ४९
द्याकांशधर्मतनयायतृतीयषष्ठैः ॥ ४३ ॥
प्रहाणां वेधस्थापनायत्रम् । गुरोः । शुक्रस्य । रवेः ॥ चन्द्रस्य भौमशन्योः|| बुधस्य ।।
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*६॥ इत्युकं सप्रसङ्ग राशिद्वारम् ॥
श्रेयान् गोचरतोऽशुमानुपचये३-६-१०-११ चन्द्रस्तु साद्याने३-६-१०११-१-७, वक्राळ त्रिषडायगावथ बुधस्त्वन्त्यान्ययुग्लाभगः२-४-६-३ ८-१०-११ । जीवः स्त्रीधनधर्मलीभसुतगः शुक्रोऽरिखास्तान्यगो१-२३-४-५-८-९-११-१२, जन्मेन्दोग्रहणे तमोऽप्युपचये३-६-१०-११ऽन्येषां त्वनायेन्दुवत्३-६-७-१०-११ ॥ ४४ ॥
___1 लक्षणया गवां चरणभूमिरिव ग्रहाणामपि चरणभूमिगोचरः। 2 पूर्णभद्रेण वष्टममपि वर्जितम् । 3 जन्मेन्दोरारभ्य सर्वग्रहाणां गोचरो गण्यते। 4 अर्केन्द्वोर्ग्रहणदिनादन्यत्र राहुगोचरो न गण्यते । नक्षत्रगोचरमाश्रित्यान्यदापि गण्यते इति ज्योतिषसारे। 5 मते। 6 राहुः । विशेषस्तु जन्मलग्नादप्येषु स्थानेष्वेवैते शुभा इति रत्नभाष्ये । 'गहणे तमरासीओ नियरासी तिचउअछिगार सुहा । पणनवदहन्त मज्झिम, छसत्तइगदुन्नि अइअहमा' ॥ इति ज्योतिषसारे ॥ 'यादृशेन शशांकेन संक्रान्तिर्जायते रवेः । तन्मासि तादृशं प्राहुः शुभाशुभफलं नृणाम्' ॥ एतेनार्को द्वादशाष्टमाद्यशुभस्थानस्थोऽपि गोचरेण ताराबलेन शुभावस्थादिना च शुमे चन्द्रबले सति जातसङ्क्रमः शुभ एवेति रत्नभाष्ये । 'यादृशेन प्रहेणेन्दोयुतिः सात्तादृशो हि सः ॥ अशुभोऽपि शुभश्चन्द्रः सौम्यमित्रगृहांशके । स्थितोऽथवाऽधिमित्रेण बलिष्ठेन विलोकितः ॥ इति दैवज्ञवल्लभे ॥ सर्वग्रहसाधारणं तु दैवज्ञवल्लमे-'असत्फलोऽपि यः सौम्यैदृष्टो यः सत्फलोऽपि वा । क्रूरेण दृष्टोऽरिणा वा सन किंचित्फलप्रदः' ॥१॥ 'नीचेऽस्तेऽरिगृहे वापि निष्फलो ग्रहगोचरः' इति लल्लः । विशेषस्तु वार्तिकेऽवलोक्यः ।
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५. जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् ।
जन्मादिद्वादशगृहगतगोचरफलयंत्रं वराहसंहितानुसारेण २ | ३ | ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२
सिद्धिः धन
। व्यय
क्षय
सरुग
चन्द्र तुष्टिः आधिः धन आजिः
भीतिः| सुख
धन
| क्षय
अतिः
विविध शुग लाभ
दुःख
महा
सोख्य अर्थ
वित्त नाश
श्रीदः अप्रीति लाभ हृदुःख
वस्त्र असुख आय लाभ
शनि अस्थान
___वृद्धिः | नाश | भर पड। म अतिः श्रीः दुःख | चन्द्रो जन्मत्रिषट्सप्तदशैकादशगः शुभः । द्विपञ्चनवमोऽप्येवं
शुक्लपक्षे बली यदि ॥ ४५ ॥ हीनमध्योच्चबलता तिथिवत्तुहिनद्युतेः । ३ बलहानाविदं त्वस्य ग्राह्यं ताराबलं बुधैः ॥ ४६ ॥ जनिभानव.
1 'चन्द्रे च शुभे सति शेषग्रहाः शुभफलदा एवं प्रायो न लशुभफलदाः' इति व्यव. हारप्रकाशे । हर्षप्रकाशे 'चदस्सेव बलाबलमासज्ज गहा कुणंति सुहमसुह' । विशेषस्तु 'यात्रायुद्धविवाहेषु जन्मेन्दौ रोगसंभवे । क्रमेण तस्करा भङ्गो वैधव्यं मरणं भवेत् । इति नारचन्द्रटिप्पण्याम् । 2 घ्यादिगगुरुरिव शुभद इति रत्नभाष्ये। 3 सौम्यग्रहैदृष्टस्विन्दुः सदापि बलवानित्यपि जातके । अन्ये तु कृष्णाष्टम्यर्धादनु शुक्लाष्टम्यधं यावच्चन्द्रः क्षीणः शेषं पक्षं पुष्टश्चत्याहुः । 'उदिते च तथा चन्द्रे शुभयोगे शुभे तिथौ । कृष्णस्य दशमी यावत् सर्वकार्याणि साधयेदिति नक्षत्रसमुच्चयग्रन्थे ॥ शुक्ल द्वितीयायां दिवा उदितोऽपी. न्दुर्न ग्राह्यः ॥ 'उदेति चायं प्रतिपत्समाप्ती कृशोऽपि वर्धिष्णुतया प्रशस्तः । द्वीपान्तरस्थो विफलस्तु तावद्यावन्न पृथ्वीनयनाध्वनीनः' इति विवाहवृन्दावने। 4 वक्ष्यमाणम् । 'कृष्णस्याष्टम्यर्धादनन्तर तारकाबलं योज्यम् । प्रतिपत्प्रान्तोत्पन्नं सन्ध्याकालोदयं यावदिति व्यवहारप्रकाशे ॥ 'ताराबले शशिबलं शशिबलसंयुतसंक्रमादलं भानोः । सूर्यबले सति सर्वेऽप्यशुभा अपि खेचराः शुभदाः' इति लल्लः। 5 चन्द्राद्बलवती तारा कृष्णपक्षे तु भर्तरि । विकले प्रोषिते च स्त्री कार्य कर्तुं यतोऽर्हति ॥ १॥ 6 तदपरिज्ञाने नाममात् ।
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् । ५१ केषु त्रिषु जनिर्माधीनसंज्ञिताः प्रथमाः । ताभ्यस्त्रि३-१२-२१ पंच ५-१४-२३ सप्तम७-१६-२५ ताराः स्युन हि शुभाः कचन ॥ ४७ ॥ जन्म १ संपत् २ विपत् ३ क्षेमा ४ यमा ५ साधना ६ निधना ७ मैत्री ८|परममैत्री कर्म १० संपत्११ विपत् १२ क्षेमा १३यमा१४ साध० १५/निध०१६ मै०१७ परम० १८ आधान १९)संपत्२० विपत्२१क्षेमा२२ यमा२३|साध० २४ निध०२५मै०२६)परम० २७ जन्माधानान्वितास्तिस्रस्तास्त्यजेत्क्षौरयात्रयोः । शुक्लेऽप्यासूत्थिते रोगे। दीर्घक्लेशोऽथवा मृतिः ॥ ४८ ॥ चन्द्रावस्था प्रोषितंहृतमृतजयंहासे हर्षरतिनिद्राः । मुक्तिंजभियसुखिती राश्यंशा द्वादश यथार्थाः ॥४९॥ मन्दर्भतः प्रथमवेदेषर्डब्धिबाणत्रिव्येकचन्द्रमितभेषु यथाक्रमेण । पीडा ६
1 प्रत्यरा इति पर्याया ॥ 'ऋक्षं न्यूनं तिथियूना क्षपानाथोऽपि चाष्टमः । तत्सर्व शमयेत्तारा षट्चतुर्थनवस्थिता,' इति लल्लः ॥ आद्या द्वितीया अष्टम्यश्च मध्यमाः। 2 यात्रायुद्धविवाहेषु जन्मतारा न शोभना । शुभाऽन्यशुभकार्येषु प्रवेशे च विशेषतः॥१॥ जन्मङ्क्षवदाधानं कर्मसु शस्तेषु शस्तमेव स्यात् । यच्च न जन्मनि कार्य विवर्जनीयं तदाधाने ॥२॥ इति लल्लः। 3 यद्यपि स्याद्बली चन्द्रस्तारा तथाप्यनिष्टदा । जन्माधाने तृतीया च पंचमी सप्तमी तथा ॥ १॥ शेषासु तु तारासु व्याधिः साध्यो नृणां भवति जातः । व्याधिवदवबोद्धव्याः सर्वारंभाश्च तारासु ॥२॥ इति लल्लः। 4 ग्रहान्तरप्रातिकूल्याभावे । 5 यदा यावद्घटीमानश्चन्द्रस्येष्टराशिभोगः स्यात्तदा तावान् टिप्पन विलोक्य निर्णयः । यथा सामान्येन पञ्चत्रिंशदधिकशत १३५ मितस्येन्दो राशिभोगस्य द्वादशभिर्भागे एकादश घट्यः पञ्चदश पलानि च स्युः । इष्टसमये च पञ्चत्रिंशदधि. कशतमध्ये यावत्यो घट्यो भुक्ताः स्युस्तासां सपादैरेकादशभिर्भागे यल्लब्धं ता भुक्काः, शेषाङ्केन भुज्यमानद्वादशांशा ज्ञेयाः । अत्र च सामान्योकेऽप्ययं भावः-राशौ राशौ द्वादशां. शरीत्या इन्दु‘दशावस्था भुङ्क्ते । उक्तं च यतिवल्लमे-"राशौ राशौ द्वादशामू ते - वस्थाश्च चन्द्रमाः । द्वादशांशक्रमात्साहिल्यहेनाख्यासक्फलाः" ॥१॥ ततोऽयमर्थ:मेषे स्थितस्येन्दोः प्रोषितात आरभ्य द्वादशावस्था गण्याः । वृषस्थस्य तु हृतातः, मिथुन. स्थस्य मृतात इत्यादि यावन्मीनस्थस्य सुखितात इति लोकव्यवहारोक्तं रत्नमालाभाष्ये । यथार्था इति खखसंज्ञासदृक्फलदा इति भावः । तेन प्रोषित १ हृत २ मृत ३ निद्रा ४ जरा ५ भया ६ ख्याः षडवस्थास्त्याज्या इति नारचन्द्रटिप्पण्याम् । अत एव दिनशुद्धावप्युक्तम्-“पइरासि बारसंसा असुहाओ चए जओ सुहो वि ससी । एआहिं होइ असुहो सुहाहिं असुहो वि होइ सुहो" ॥१॥ 6 शन्याकान्तभात्खजन्मभं यावद्दण्यम् । अभिभूतिः पराभवः।
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५२ जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीया यामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्शे गोचरद्वारम् ।
3 विमूर्तिपथैबन्धेनैधर्मलाभ पूजाऽभिभूर्यैपमृतीः फलमूचुरुचैः ॥ ५० ॥
शनिनरः
अत्र चानुक्तोऽपि शनिर्नराकारोऽभ्यूह्यः । यदुक्तं यतिवल्लभे
मुखे १ पीडा दक्षिणकरे ४ लक्ष्मी
पादद्वये
६ पंथाः
वामकरे
उदरे मस्त के
नेत्रद्वये
गुदे
बंधनं
५ धर्मः
गु पादयोः
लाभ:
पूजा
मृत्युः
चन्द्रपुरुषः १
नेत्रयोः | ३ | सुखं दक्षिणक ३ | लाभः वामकरे ३ लाभः मुखे हृदये ७ सुखं
४ मरणं भ्रमणं
३ | अतिपीडा
भीमपुरुषः २
मुखे ३ | रोग: नेत्रयोः ३ लाभः मस्तके ३ यशः वामकरे २ रोगः दक्षिणकरे २ शोकः
कंठे
२ हिकादि हृदये ५ लाभः गुह्ये ३ परस्त्रीरतं पादयोः ४ भ्रमणं
" यस्मिन् शनिश्चरति वक्त्रगतं तदृक्षं, चत्वारि दक्षिणकरेऽहियुगे च षट्कम् । चत्वारि वामकरगाण्युदरे च पञ्च, मूर्ध्नि त्रयं नयनयोर्द्वितयं गुदे च ॥ १ ॥ नवरमत्र द्वितयमिति यदा नराकारः पट्टिका दौ क्वचिदा लिख्यते तदा गुदगुह्ययोरैक्यमेव दृश्यत इति कृत्वा गुद एव द्वयं विवक्षितम्, सूत्रकृता तु तयोः पार्थक्यविवक्षया स्थानद्वयेऽप्येकैकं नक्षत्रमूचे ।
'रुद्रयामले तु नवग्रहाणामपि नराकारस्थापना नक्षत्रगोचरफलान्यूचिरे' तत्र रविनरं सूत्रकृदेव जातकाधिकारे वक्ष्यति, शेषग्रहमरास्त्वेवम् ।
दृग् ३ बाहुयुग्म ६वक्त्रेषु ३ भानां प्रत्येकतस्त्रिकम् १२ । हृदि सप्त१९ तथा गुह्ये चतुष्कं २३ पञ्चकं पदोः २८ ॥१॥ वक्त्रे पीडां भृशं चक्षुर्हृदयेषु शुभं सुखम् । बाह्वोर्लाभं मृतिं गुह्ये भ्रमं दत्ते पदोः शशी ॥ २ ॥
त्रयं त्रयं त्रिर्मुखदृक् छिरस्सु ३-९, द्वयानि वामे२ तरबाहुर कंठे २-१५ पञ्चोरसि स्यु२० स्त्रितयं च गुह्ये२३, चत्वारि चांहयोः २७ कुजचक्रमेतत् ॥ १ ॥ कीर्ति शिरसि हृन्नेत्रे लाभं चरणयोर्भ्रमम् । गुह्येऽन्यस्त्रीरतिं दते कुजः शेषेषु चाशुभम् ॥ २ ॥
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् । ५३
बुधपुरुषः ३
ज्ञानं
राज्यं
कंठे हृदये
| वक्त्र५ नेत्र५ गलो५ रस्सु५ पादयोः५ पञ्च पञ्च च२५। बाहु१ युग्मे तथा गुह्ये १ त्रीण्यमूनि भवन्ति च२८॥ वक्त्रहृवाहुषु ज्ञप्तिं गुह्यपादेषु संक्षयम् । गले सुखरतां दत्त नेत्रे राज्यं बुधो ग्रहः ॥ २ ॥
सुस्वरता
ज्ञानं पादयोः क्षयः वामकरे १ ज्ञानं दक्षिणकरे , ज्ञानं
१/ क्षयः गुरुपुरुषः ४ ।
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गुह्य
मस्तके ४ राज्यं । | दक्षिणकरे ४ लक्ष्मीः कंठे १ धनं
५ प्रीतिः | पादद्वये ६ असुखं । | वामकरे |४|मृत्युः नेत्रयोः |३| लाभः |
शुक्रपुरुषः ५
शीर्षे चत्वारि राज्यं युगपरिगणिता सव्यहस्ते च लक्ष्मीरेकं कंठे विभूति मदनशरमिते वक्षसि प्रीतिलाभम् । षद्भिः पीडांह्रियुग्मे जलधिपरिमिते वामहस्ते च मृत्यु. दृग्युग्मे त्रीणि कुर्युपतिसमसुखं वाक्पतेश्चक्रमेतत् ॥
हृदये
मस्तके | ४ | सौम्यता मुखे | २ मरणं हृदये | ४ सौम्यता हस्तद्वये १० पूजा गुह्ये ३ दुःखं जानुद्वये २ दुःखं पादद्वये | २ दुःखं
राहुपुरुषः ६
युगं शीर्षे द्वयं वक्त्रे चतुष्कं हृदयेऽपि च । दश बाह्वोस्त्रयं गुह्ये जान्वंह्रिषु द्वयं द्वयम् ॥१॥ जानुमुष्ककपादेषु दुःखं बाह्वोर्गेपार्हणाम् । हृच्छीर्षे सौम्यतां वक्त्रे मरणं कुरुते सितः ॥ २॥
मुखे | जयः दक्षिणकरे ४ लक्ष्मीः पादयोः ६ भ्रमणं वामकरे ४ क्लेशः हृदये ३ लाभ:
१/क्लेशः
|३| राज्यं नेत्रयोः |२| सौभाग्यं | | गुह्ये २ मरणं ।
| वक्त्रे त्रीणि जयाय दक्षिणकरे चत्वारि लक्ष्म्यै पदोः, । | षड् भ्रान्त्यै न सुखाय वामककरे चत्वारि हृत्स्थं त्रयम् ।
लब्ध्यै कंठगमेकमामयकरं शीर्षे त्रयं राज्यदं, | सौभाग्यं युगलेऽक्षिगे मृतिरथो गुह्यद्वये राहुभात् ॥१॥
'तमरिक्र्खामुहि १ तिफुल्लिअ ४ चउफलिअ ८ तिअहल ११ तिझडिय १४ गुदिकं १५ । तिअरायस १८ तिअ तामस २१ चउसुह २५ तिअ असुहं २८ तमचकं ॥१॥ फुल्लिअफलिए लाहं अपाणिलच्छी सुहं च मुहरिरके । मुह अहलझडियरायस तामस असुहेअ असुहतम' ॥२॥ इति ज्योतिषसारे। अत्रापि राहाकान्तभात्खभं यावद्गण्यम् ।
मस्तके
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५४ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् ।
केतुपुरुषः ७
मुखे २/भयं मस्तके ५ जयः फणे ५ महाभयं हस्तद्वये ४ जयः पादद्वये ५ सुखं हृदये २ शोकः | कंठे ४ पीडा
वक्त्र द्वे भयदे जयाय शिरसि स्यात् पञ्चकं पञ्चक, भीत्यै तत्फणगं जयाय करयोमुग्मे चतुष्कं स्थितम् । अंहयोः पञ्च सुखाय हृत्स्थयुगलं शोकाय कंठे व्यथा भीत्यै स्याच चतुष्टयं फलमिदं केतौ तदाक्रान्तभात् ॥
गोचरेण ग्रेहाणां चेदानुकूल्यं न दृश्यते । जन्मलग्नग्रहेभ्योऽष्टवर्गेणालोक
येत्तदा ॥ ५१ ॥ अर्कः स्वमन्दभौमेभ्यो नवव्यायाष्टकेन्द्रगः९-२-११३८-१-४-७-१० । त्रिकोणायोरिगोजीवाच्छुकादन्यौरिकामगः ॥ ५२ ॥
चन्द्रादुपचयस्थो ३-६-१०-११ ज्ञाद्धीधर्मोपचयान्त्यगः ५-९-३-६-१०११-१२ । पातालोपचयान्त्येषु ४-३-६-१०-११-१२ लग्नाच्च तरणिः ६ शुभः ॥ ५३ ॥ ॥ इति रव्यष्टकवर्गः ॥ १४ चन्द्रश्चोपचये ३-६१०-११ लग्ना-द्भानोः साष्टस्मरे स्थितः ३-६-१०११-८-७ । वात्सादि
सप्तमे ३-६-१०-११-१-७वारात्सद्रव्यनवमात्मजे ३-६-१०-११-२९९-५ ॥ ५४ ॥ छिद्रत्रिलाभात्मजकेन्द्रगो ८-३-११-५-१-४-७-१०
बुधाद्गुरोस्तु रिष्याष्टमलाभकेन्द्रगः१२-८-११-१-४-७-१० । शुक्रात्रिपञ्चास्तनवायखांबुगः३-५-७-९-११-१०-४, शुभः शनेः षट्विसुता१२ यगः६-३-५-११ शशी ॥५५॥ ॥ इति चन्द्राष्टकवर्गः ॥२-९
कुज इन्दोरुपचयभे३-६-१०-११ साये३-६-१०-११-१लग्नात्स
पञ्चमे ३-६-१०-११-५ सूर्यात् । व्यायाष्टकेन्द्रगः २-११-८-११६४-७-१० वात्सौम्यात्रिसुतारिलाभस्थः३-५-६-११ ॥ ५६ ॥ जीवा
त्खान्यायारिषु१०-१२-११-६ शुक्राच्छिद्रान्त्यलाभशत्रुगतः ८
__ 1 सामान्योक्तेऽपि रवीन्दुजीवानामानुकूल्याभावे इति ज्ञेयम् । यदुक्तं नारचन्द्रे 'रवि. शशिजीवैः सबलैः शुभदः स्याद्गोचरोऽथ तदभावे । ग्राह्याष्टवर्गशुद्धिर्जननविलमग्रहेभ्यस्तु ॥ १॥ 2 जन्मनि यल्लग्नं ये च ग्रहास्तेभ्यः। 3 अष्टवर्गेणेति; अयमर्थः-प्रहस्य
राशौ संचरतः षड्भ्योऽपरग्रहस्थानेभ्यः खस्थानालमाच विचारणयाऽष्टकवर्ग उच्यते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् । ५५ १२-११-६। मन्दालाभनवाष्टमकेन्द्रस्थः११-९-८-१-४-७-१०शोभनो भौमः॥ ५७॥8॥ इति भौमाष्टवर्गः ॥३8* बुधोऽर्कतोऽन्त्यायनवारिधीषु१२-११-९-६-५, स्थितः स्वतः सत्रिदशादिमेषु १२-११-९-६-३ ५-३-१०-१ । द्विषड्दशायाष्टसुखेषु२-६-१०-११-८-४ चन्द्रा-लग्नात्तु तेष्वाद्ययुतेषु२-६-१०-११-८-४-१शस्तः ॥ ५८ ॥ कुजशनितो व्यन्यारिषु१-२-३-४-५-७-८-९-१०-११ जीवादरिनिधनलाभरिष्य-६ स्थः ६-८-११-१२ । शुक्रादापुत्राष्टमनवमायस्थो १-२-३-४-५-८-९११ बुधः शुभदः ॥ ५९॥ *॥ इति बुधाष्टवर्गः ॥ ४) गुरुः केन्द्रस्वरन्ध्राये १-४-७-१०-२-८-११ ध्वारात्स्वात्सत्रिषूत्तमः१-९ ४-७-१०-२-८-११-३ । अर्कोत्सत्रिनववि १-४-७-१०-२-८११-३-९ न्दोः स्वधीकामनवायगः२-५-७-९-११ ॥ ६० ॥ स्वादिखायसुखधीतपोऽरिषु२-१-१०-११-४-५-९-६, ज्ञाद्गुरुः स्मरयुतेषु १२ २-१-१०-११-४-५-९-६-७ लग्नतः । स्वत्रिकोणरिपुखायगः२-९-५-६१०-११ सितात्, त्र्यन्त्यधीरिपुषु ३-१२-५--६ मन्दतः शुभः ॥६१॥
॥ इति गुर्वष्टवर्गः ॥ ५१ शुक्रो लग्नादासुतधर्मायाष्टसु १-२-३-४-१५ ५-९-११-८मतः खतः साभ्रः १-२-३-४-५-९-११-८-१० । शशिनः सान्यः१-२-३-४.५-९-११-८-१२ शनितः खायतपत्रिसुखधीमृतिषु १०-११-९-३-४-५-८ ॥ ६२ ॥ आयव्ययाष्टगोऽर्का ११-१२-८ १८
बुधात्रिकोणायषद्विगः ९-५-११-६-३ शुभदः । ध्यापोक्लिमाप्तिषु ५-३-६-९-१२-११ कुजाद्गुरोत्रिकोणाष्टखायगः ९-५-८-१०११ शुक्रः ॥ ६३ ॥ ॥ इति शुक्राष्टवर्गः ॥ ६K शनिः स्वाध्याय.२१ पुत्रारि ३-११-५-६ ध्वारात्सव्ययकर्मसु ३-११-५-६-१२-१० । केन्द्राष्टायार्थगः१-४-७-१०-८-११-२ सूर्याचन्द्रात् षव्यायगो ६-३-११ मतः ॥ ६४ ॥ आद्याम्बूपचये लग्नात् १-४-३-६-२४ १०-११ कवेरायव्ययारिषु११-१२-६ । गुरोः सधीषु११-१२६-५साभ्राष्ट-धर्मेषु११-१२-६-१०-८-९ज्ञाच्छनिर्मतः ॥ ६५ ॥२६
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५६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्शे गोचरद्वारम् । १→→ ॥ इति शन्यष्टवर्गः ॥ ७१555 सर्वत्रेन्दुः कुजः संख्ये बोधे
555 एषां चतुर्दशवृत्तानां ५२-६५ पिंडार्थोऽयं - आद्यवृत्तेऽर्क इति यदा यात्रादिकार्यचिकीर्षाऽस्ति तस्मिन् काले यः स तात्कालिकोऽर्कः । खमन्देत्यादि खशब्देने ह जन्मकालिकोऽर्को ग्राह्यः । एवं मन्दभौमादयोऽपि जन्मकालिका एव ततस्तात्कालिक र्काद्या जन्मसत्कार्कमन्दादिभ्यश्चेन्नवद्व्यादीनामन्यतरस्थाने स्युस्तदा शुभाः । ते सर्वेऽपि रेखां ददतीति परिभाषा । ततश्च यावद्भ्यो लग्नग्रहेभ्य उक्तान्यतरस्थाने तात्कालिका अर्काद्याः प्राप्यन्ते तावत्यो रेखा देयाः, यावद्भ्यश्च न प्राप्यन्ते तावन्ति शून्यानि देयानि एवमेकैकग्रहस्याष्टाष्ट रेखाः संभवेयुः, तासां मध्ये यदि चतस्रो हीना अधिका वा रेखाः स्युस्तदा मध्या अधमाः श्रेष्ठाश्च क्रमात् । एवं च यस्य ग्रहस्य रेखाबाहुल्यं स गोचरेणाशुभोऽपि शुभः, शून्यबाहुल्ये तु गोचरेण शुभोऽप्यशुभः । केऽप्याहुः - कार्य कालेऽष्टकवर्गरेखा न मील्यन्ते, किंतु यदा तदा वा जन्मकुंडलिकामेव सप्तशः संस्थाप्य आद्यकुंडलिकायां यत्र स्थानेऽर्कोऽस्ति तस्मान्नवमादिष्वष्टस्थानेष्वष्टौ रेखा देयाः । एवं मन्दभौमाभ्यामपि प्रत्येकमष्टाष्ट, गुरुतश्चतस्रः, शुक्रात्तिस्रः, बुधात्सप्त, लग्नात् षट्, एवं तस्यामर्काष्टवर्गकुंडलिकायां सर्वरेखा रवेरष्टचत्वारिंशत् । एवमेव द्वितीयादिषु चन्द्राद्यष्टकवर्गकुंडलिकासु क्रमात् सर्वरेखाः, एवं चन्द्रस्यैकोनपञ्चाशत् भौमस्य चत्वारिंशत्, बुधस्याष्टपञ्चाशत्, गुरोः षट्पञ्चाशत्, शुक्रस्य द्वापञ्चाशत्, शनेरेकोनचत्वारिंशश्चेति । उक्तं च - " वसुवेदौ १ नन्दवेदौ २ खवेदौ ३ वसुसायकौ ४ । षड्बाणौ ५ द्विशरौ ६ नन्दवही ७ रेखा इनादिजाः " ॥ १ ॥ एवं चैकैकग्रहाष्टवर्गकुंडलिकायां द्वादशस्वपि राशिस्थानेषु प्रत्येकं यावत्संभवं रेखा देयाः, शेषाणि शून्यानि च । उत्कर्षतश्चैवमेकत्र स्थाने यथायोगमष्टौ रेखाः संभवेयुः । ततः कार्यकाले यो ग्रहो यत्र राशौ स्यात्तत्स्थानं वीक्ष्यते, तत्र स्थाने रेखाधिक्ये संग्रहः शस्तः, शून्याधिक्ये त्वशुभ इति द्विधाऽपि चैकमेव तत्त्वं । अथासामुपयोग एवं - " चतूरेखे मध्यफलं हीने हीनं ततोऽधिके श्रेष्ठम् । विफलं गोचरगणितं त्वष्टकवर्गेण निर्दिष्टम् " श्रित्येदमुक्तं । तात्कालिकीनां सर्वग्रहरेखाणां मीलने तु षोडशमध्ये सप्तदशभ्य आरभ्योत्कृष्टाः षट्पञ्चाशतं यावत्तु स्युः । तत्र षड्विंशतिं यावदशुभा एव सप्तविंशत्या समता, अष्टाविंशत्यादयस्तु षट्पञ्चाशतं यावद्यथाबहुत्वं शुभशुभतरशुभतमाः । “रेखाधिक्यं शस्तं शून्याधिक्यं तथाऽधमं कथितम् । एतत्संयोगे स्युः षट्पञ्चा शन्न जातु अधिकास्ताः " ॥ १ ॥ अत्र षट्पञ्चाशदिति रव्यादिसप्तकस्य प्रत्येकमष्टाष्टरेखासंभवे षट्पञ्चाशत् एव तासां मेलनादिति भावः । विशेषस्तु - " चतूरेखं मध्यफलं ” इति यद्यप्युक्तं, तथापि यस्य ग्रहस्याष्टकवर्गशुद्धिस्तदानीं विलोक्यमानाऽस्ति तस्य शुद्धिपतेर्ग्रहस्य स्वतः समुत्था रेखा यदि संपद्यते तदा चतूरेखमपि श्रेष्ठम्, तदभावे षड्विधादिबलालङ्कृतस्य तन्मित्रग्रहस्य स्वतः समुत्था रेखा यदि संपद्यते तदापि चतूरेखं प्रशस्यम् । तस्या अप्यभावे स एव शुद्धिपतिर्ब्रहो यदि वामवेधेन शुभः स्यात्तदाऽपि
॥ १ ॥ एकग्रहमा - कदापि न स्यात्
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्श गोचरद्वारम् । ५७ ज्ञः स्थापने गुरुः । याने शुक्रः शनिौण्ड्ये बली भानुर्नुपेक्षणे ॥६६॥ ज्ञोऽखिले फलदो राशावादावादित्यमंगलौ । मध्ये सुरासुराचार्यों प्रान्ते २ चतूरेखं शुभं । प्रकारत्रयस्याप्यभावे त्वधिकरेखोऽपि ग्रहो न शुभ इति व्यवहारप्रकाशे । तथा षट्पञ्चाशदिति रेखासर्वाग्रं यदुक्तं तदाहोः सर्वथा रेखा न सन्तीति मतेन । केचित्तु राहोरपि रेखाः प्राहुः । तथाहि-"केन्द्राष्टद्वित्रिगः १-४-७-१०-८-२-३ सूर्याद्राहू रेखाप्रदः स्मृतः । इन्दोस्तनुत्रिधीच्यष्ट धर्मकर्मव्यये १-३-५ ७-८.९.१०.१२ स्थितः ॥१॥ भौमात्तनुत्रिधीरिष्ये १-३-५-१२ स्वाम्बुख्यष्टान्तिमे २.४-७-८.१२ बुधात् । जीवात्सप्रथमे २.४.७.८-१२.१ शुक्रादरियूनायरिष्यगः ६-७-११-१२॥ २॥ शनेस्त्रि. धीवधूलामे ३.५-७.११ लग्नादाहुस्तु शोभनः । त्रिपञ्चसप्तनवमान्यैषु ३-५-७-९-१२ रेखाऽस्य न खतः॥३॥ त्रिचत्वारिंशदेवं स्यू रेखा राहृष्टवर्गगाः।" ___ * सर्वकार्येषु कार्यकर्तुश्चन्द्रो गोचरादिबली विलोक्यत इति शेषः । यदुक्तं-"एग १ चउ २ अठ्ठ ३ सोलस ४ बत्तीसा ५ सठि ६ सयगुण ७ फलाई । तिहि १ रिरुख २ वार ३ करण ४ जोगो ५ तारा ६ ससंकबलं ७" ॥१॥ अत एवोक्तं-“कर्तुरनु. कूलयोगिनि शुभेक्षिते शशिनि वर्धमाने च । तारायोगेऽभीष्टे सर्वेऽर्थाः सिद्धिमुपयान्ति" ॥१॥ तत्र चायं विभाग:-"ग्रामे नृपतिसेवायां संग्रामव्यवहारयोः । चतुर्यु नामभं योज्यं शेषं जन्मनि योजयेत् ॥१॥" इदं नरपतिजयचर्यायाम् । तात्कालिकलग्नेऽपि च सर्वकार्येषु चन्द्रबलं नियमेन प्रकल्पयेत् यत्सारंगः-"लग्नं देहः षट्कवर्गोऽजकानि, प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचरेन्द्राः। प्राणे नष्टे देहधालगनाशो, यत्नेनातश्चन्द्रवीर्य प्रकल्प्यम्" ॥१॥ संख्यं युद्धं । बोधो विद्या । स्थापनं पदप्रतिष्टाविवाहादि । यानं प्रस्थानं । मौज्यं दीक्षा । नृपेक्षणे इति यो यस्य खामी स तस्य नृपः तस्य दर्शने । अयं भावःयदैतानि कार्याणि लग्नबलात् क्रियन्ते तदैषां ग्रहाणामुदितत्वेन वा लग्नस्थत्वेन वा लग्नाधिकृतषड्वगोधिपखेन वा केन्द्रोपचयस्थत्वेन वा षड्विधादिबलालङ्कृत्वेन वा सबलवं लग्ने कार्य, कार्यकर्तुश्चैषां गोचरबलं ग्राह्यम् । यदा तु मुहूर्तमात्रबलात् क्रियन्ते तदैषां गोचरबलं वारहोरादि च प्राह्यम् ॥
1 फलद इति शुभगोचरस्थः शुभं फलं दत्ते, अशुभगोचरस्वशुभमिति भावः । राशाविति यखन खयमाक्रान्तोऽस्ति तस्मिन् । आदाविति आद्यद्रेष्काणे । मध्ये इति द्वितीयद्रेष्काणे। प्रान्ते इति तृतीयद्रेष्काणे । इदं च सहजगतौ वर्तमानानां ग्रहाणामुक्तं । यदा तु वक्रेणाविचारेण वा ग्रहा राश्यन्तरं गताः स्युस्तदैवम्-"पक्षं १ दशाहं २ मासं ३ च दशाहं ४ मासपञ्चकम् ५। वक्रेऽतिचारे भौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः॥१॥ इति लल्लः । अत्र पूर्वराशीति वके सत्यग्रेतनराशेः,अविचरितास्तु पाश्चात्यराशेः फलं ददतीत्यर्थः । प्रश्नप्रकाशकरस्वाह-"वक्रेऽतिचारे भौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः।जीवः शनिश्च यत्रस्थौ तस्य राशेः फलप्रदौ ॥१॥" विशेषस्तु-"राश्यन्तगतः खेटः परभावफलं ददाति पृच्छासु। भन्यघटी यावदसावासीनफलं विवाहादौ ॥१॥भत्र राश्यन्तोऽन्यत्रिंशांशरूपः ॥
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५८ जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ द्वितीयविमर्शे गोचरद्वारम् । विन्दुशनैश्चरौ ॥६७॥ अर्कारयोईस्य गुरोः सितेन्द्वोर्मन्दस्य राहूरगयोश्च
तुष्ट्यै । सदा वहेद्विद्रुमहेममुक्तारूप्याणि लोहं च विराटंजं च ॥ ६८ ॥ ३ पूंषादितोषाय च पद्मरागमुक्तीप्रवालानि सगारुडानि । सपुष्परागं कुर्लिंशं च नीलँगोमेदवैडूर्यमणीन् वहेत ॥ ६९ ॥ ऐलाशिलापद्मकयष्ट्युशीरसुराहकश्मीरजशोणपुष्पैः । अर्के विधौ कैरवपञ्चगव्यैः, सशंखशुक्ति६ स्फटिकेभदानैः ॥ ७० ॥ भौमे बलाहिंगुलबिल्वकेसरैर्मास्या फलिन्याऽरुणपुष्पचन्दनैः । सुवर्णमुक्तामधुगोमयाक्षतैः, सरोचनामूलफलैबुधे
पुनः ॥ ७१ ॥ जीवे सजातिकुसुमैः सितसर्षपयष्टिमल्लिकापत्रैः । ९ मूलफलकुंकुमैलामनःशिलाभिस्तु दैत्यगुरौ ॥ ७२ ॥ कृष्णतिलाञ्जनलाजैः
शतपुष्पीरोध्रमुस्तकबलाभिः । तरणितनये च गोचरविरुद्धराशिस्थिते ११ स्नायात् ॥७३॥ * ॥ इति गोचरद्वारम् ॥ ६ *- इति वार्तिकानुसारेण द्वितीयो
विमर्शः समाप्तः । __ 1 विद्रुमादीनां षण्णां पूर्वार्धस्थैरारयोरित्यादिपदैर्यथासंख्यं योगः । उरगः केतुः । विराटजो राजावर्तमणिः । ननु सप्तानां ग्रहाणां सर्वदा विचार्य गोचरफलमुक्तं, दिनमासवर्षहोराधिपत्यमप्येषामेव, तत्कथं राहुकेखोर्ग्रहवं कथं वा तयोः प्रतिकूलगोचरत्वं, यच्छान्त्यर्थं विराटजादिवहनं क्रियते ? उच्यते-तयोदिनाधिपत्याद्यभावोऽस्तु, ग्रहत्वं वस्त्येव, राश्यादिचारस्यान्यथाऽनुपपत्तेः । राहुगोचरश्च ग्रहणदिने विचार्यः इत्युक्तं, ततस्तदा तत्प्रतिकूलत्वे तच्छान्तिकमुपयुज्यते । केतुरपि यदोदितः स्यात्तदा तदुत्थारिष्टशान्तये तच्छान्तिकस्योपयोगः ॥ 2 स्पष्टा ॥ 3 शिला मनःशिला । यष्टिर्यष्टीमधुराहो देवदारुः । शोणेति रक्तकणवीरपुष्पैरिति । स्नायादितिपदेन त्रिसप्ततितमवृत्तस्थेन सह योजनीयमिदम्। भावश्चायं-एतानि जलमध्ये प्रक्षिप्य मन्त्रपूर्व स्नानं कार्य रविवारे । एवमग्रेऽपि तत्तद्रहस्य वारोऽनुक्तोऽप्यूह्यः । पञ्चगव्यं चैवं पराशरोक्तम्- "कृष्णाया गोमयं मूत्रं नीलायाः कपिलाघृतम् । सुरमेर्दधि शुक्लायास्ताम्रायाः क्षीरमाहरेत्" ॥१॥ इभानां दानं मदवारि ॥ 4 बलेति बलधान्यं । बिल्वेति बिल्वफलं । केसरो बकुलनुः । मांसी मुरमांसिनाम्नी । फलिनी प्रियंगुः । अरुणपुष्पं जपाकुसुमं । चन्दनं रक्तचन्दनं । मूलफलैरिति नारंगस्थति वसिष्ठः ॥ 5 मल्लिकेति विचकिलपत्रैः । मूलफलेति बीजपूर्या इति वसिष्ठः ॥ 6 अञ्जनं सौवीराजनं लाजा व्रीहिधानाः । शतपुष्पीति सोआ नाम । भास्करस्विदमप्याह"रोध्रगर्भतिलपत्रकमुस्ताहस्तिदानमृगनाभिपयोभिः । स्नानमेतदपरोधति राहोः, साजमूत्रमिदमेव च केतोः" ॥ १॥ पीडामिति शेषः “सप्रियंगुरजनीद्वयमांसीकुष्टलाजसितसर्षपचन्द्रैः । वारिभिः सह वचैः सह रो]ः, स्नानमत्ति निखिलग्रहपीडाम्" ॥२॥ स्नानं च नृपादीनामेवोचितं । अन्यो जनस्तु-"रत्तं १ सेयं २ रत्तं ३ नीलं ४ पीअं५ सिअं६ तिसु अ किन्हं ९। पूअं बलिं च कुज्जा सूराईणं विरुद्धाणं" ॥ १॥ इति हर्षप्रकाशे ॥
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ५९
॥ तृतीयो विमर्शः ॥३ कार्य वितारेन्दुबलेऽपि पुष्ये, दीक्षां विवाहं च विना विध्यात् । पुष्यः परेषां हि बलं हिनस्ति, बलं तु पुष्यस्य न हन्युरन्ये ॥ १ ॥३ अधोमुखानि पूर्वाः स्युर्मूलाश्लेषामघास्तथा । भरणीकृत्तिकाराधाः सिद्ध्यै खातादिकर्मणाम् ॥ २ ॥ तिर्यमुखानि चादित्यं मैत्रं ज्येष्ठा करत्रयम् । अश्विनीचान्द्रपौष्णानि कृषियात्रादिसिद्धये ॥ ३ ॥ ऊर्ध्वास्यान्युत्तराः ६ पुष्यो रोहिणी श्रवणत्रयम् । आर्द्रा च स्युजच्छत्राभिषेकतरुकर्मसु ॥४॥ ऋत्वाद्याचतुष्टयवर्जी विषमासु रात्रिषु न योषाम् । सेवेत पुत्रकामः पौष्णमघामूलभेष्वपि च ॥ ५ ॥ सीमन्तः स्यानृवारेषु मासि षष्ठेऽष्ट-१ मेऽपि वा । हस्तमूलमृगादित्यपुष्यश्रुतिषु योषिताम् ॥६॥ विषकौमारजन्म स्याद् द्वितीयाशनिसार्पभैः । सप्तम्यारशत:श्च द्वादश्याग्निभैस्तथा ७११
___ 1 प्रस्तावात् सौम्यम् । 2 गोचरेणाष्टकवर्गेण वा विरुद्ध चन्द्रे जन्मप्रत्यरानैधनादितारासु चेत्यर्थः । सतारेन्दुबले तु विशिष्येति भावः । अपिशब्दात् पुष्यः पञ्चरेखे सप्तरेखे वा चक्रे दुष्टग्रहेण विद्धो यदि स्यात् , पापग्रहेणाक्रान्तो वा भुक्तो वा भोग्यो वा पश्चिमायां दक्षिणस्यां वा गमनेऽन्तरा परिघदण्डपातेन तद्दिग्विपरीतो वा, तदापि पुष्ये चन्द्रयुक्त सति पुष्यस्योदयसमये पुष्यसत्के मुहूर्ते वा प्रतिष्ठायात्राक्षौरानप्राशनोपनयनविद्यारंभश्वेत. वनपरिधानादि सर्वं शुभकार्य कुर्यादिति रत्नमालाभाष्ये । 3 कुतिथिकुवारकुयोगादीनाम् 4 वारतिथ्यादयः पुष्यस्य बलमिव पुष्यस्य ग्रहवेधविरुद्धतारादिखरूपं दोषमपि न हन्युः । पुण्यस्तु खयमेव खदोषं हन्तीति भावः । अत एवाहुः-'सिंहो यथा सर्वचतुष्पदानां तथैव पुष्यो बलवानुडूनाम्' । 5 आदिपदाद्वापीकूपतटाकपरिखादिखनन निधानोद्धारक्षेपातविवरप्रवेशधातुकर्मनृपविग्रहगणितारंभादीनि । 6 आदेरश्वगजगवादितिर्यग्दमनवाणिज्यनृपसन्धिप्रवहणनौकर्मशकटरथयंत्रप्रवाहादीनि । 7 बहुवचनार्दुर्गप्राकारतोरणोच्छ्रयारामविधिपट्टाभिषेकादिष्वपि। 8 'गर्भाधाने मघा वा रेवत्यपि यतोऽनयोः। पुत्रजन्मदिने मूलाश्लेषे स्तस्ते च दुःखदे' ॥१॥ अत्र मूलाश्लेषे स्त इति आधानाद्दशमे जन्मेति वचनात् । 'रत्नानीव प्रशस्तेऽह्नि जाताः स्युः सूनवः शुभाः। अतो मूलमपि त्याज्यं गर्भाधाने शुभार्थिभिः' ॥२॥9 रविकुजजीवेषु । 10 एते 'नक्षत्राः। विशेषस्तु 'अर्वाविवाहकालाच पितृचन्द्रबलं सदा । स्त्रीणां सीमन्त उद्वाहे ग्राह्यमन्यत्र तत्पतेः ॥ इति व्यवहारप्रकाशे 11 'विषकन्याख्या प्रथमं पित्रोवंशक्षयंकरी । हन्ति पश्चात्पति श्वश्रू श्वशुरं देवरं तथा' ॥ विशेषस्तु अभिजिति कृतं सर्व कार्य शुभं स्यात् , जातमपत्यं तु प्रायो न जीवतीति व्यवहारप्रकाशे।
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६० जेनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धी तृतीयविमर्शे कार्यद्वारम् ।
मूलस्यांह्निचतुष्के पितृमार्तृद्रव्यनाशं सौख्यानं । बालस्य जन्मनि स्युः क्रमतः सार्पस्य तूत्क्रमतः ॥ ८ ॥ मूर्धास्यैस्कन्धं बाकरेहृदर्यकैटी३ गुजार्नुक्रमेषु, स्युर्घटयः पञ्च पञ्चोरगकरटिकराष्टद्विदितर्कतर्काः । बालश्छत्री पितृघ्नो ऽंसलदृढबलवान् राक्षसो ब्रह्मघाती, राज नाशस्व५ सौख्यावर्ह इह चपलो नर्श्वरंश्वासु जातः ॥ ९ ॥ त्यजेन्न वीक्षेत समा
9
८८
1 सौख्यानीति, वराहस्तु मूलतुर्यपादफलमेवमाह - " क्षेत्राधिपसंदृष्टे राशिनि नृपस्तत्सुहृद्भिरर्थपतिः । द्रेष्काणांशकपैर्वा प्रायः सौम्यैः शुभं नान्यैः ” ॥ १ ॥ इदं तात्कालिकजन्मलग्ने विचार्यम् । अत्र क्षेत्राधिपेति तदानीं यत्र राशौ चन्द्रोऽस्ति तद्राशीशो यदीन्दुं पश्येत्तदा मूलतुर्यपादजो नृपः स्यात्, तद्राशीशस्य सुहृदः पश्येयुस्तदाऽर्थंपतिः स्यात्, चन्द्राक्रान्तस्य द्रेष्काणस्य नवांशस्य वा स्वामी यदि सौम्यश्चन्द्रं पश्येत्तदा शुभं क्रूरेण त्वशुभमिति । बालस्येति, केऽप्याहुः – “मूलस्यां हिचतुष्के क्रमेण पशुनाशिनी १ सुखकरी २ च । पितृपक्षमथ क्षपयति ३ मातुलपक्षं च ४ जाता स्त्री ॥१॥ मूले जातोऽधमः स्यान्ना स्त्री तु पुण्यवती भवेत् । ज्येष्ठा मघा विपरीताऽश्लेषा तदुभयेऽधमा ॥ २ ॥ तृतीया दशमी कृष्णा शनिभौमज्ञसंयुता । शुक्लचतुर्दशी मूलजातः संहरते कुलम् ॥ ३ ॥ सार्पस्य तूत्क्रमत इति । यदुक्तम् - " सार्यांशे प्रथमे राजा द्वितीयांशे धनक्षयः । तृतीये जननीं हन्ति चतुर्थे पितृघातकः " ॥ १ ॥ 2 स्कन्धादिद्विकेषु समं विभज्य घट्यः स्थाप्याः । 3 विवेकविलासादौ तु मूलाश्लेषयोर्मुहूत्तैः फलमूचे, तथाहि - " आद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः । अष्टादशश्च मूलस्य मुहूर्ता दुःखदा जनौ ॥ १ ॥ त्रयोविंशपञ्चविंशौ द्वाविंशोऽष्टत्रयोदशौ । एकोनत्रिंशत्रिंशौ च सार्पे स्युरशुभाः क्षणाः ॥ २ ॥” कुत इदमेवमिति चेदुच्यते-एषां मुहूर्तानां क्रूरखामिकत्वोक्तः, तथाहि - " राक्षसो १ यातुधानश्च २ सोमः ३ शक्रः ४ फणीश्वरः ५ । पितृ ६ मातृ ७ यमाः ८ कालो ९ वैश्वदेवो १० महेश्वरः ११ ॥ १ ॥ साध्यदेवः १२ कुबेरश्च १३ शुक्रो १४ मेघो १५ दिवाकरः १६ । गन्धर्वो १७ यमदेवश्च १८ ब्रह्मविष्णुमयस्ततः १९ ॥ २ ॥ ईश्वरो २० विष्णु २१ रिन्द्राणी २२ पवनो २३ मुनय २४ स्तथा । षण्मुखो २५ भृंगिरीटी २६ च गौरी २७ मातृ २८ सरखती २९ ॥ ३ ॥ प्रजापतिश्च ३० मूलस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तनायकाः । विपरीताः पुनर्ज्ञेया अश्लेषाजातबालके ॥ ४ ॥ 4 त्यजेदिति स्वगृहादिति शेषः । समा वर्षाणि । शतौषधीति मूलशत मृत्तिका सप्तकयुततीर्थोदकपञ्चरलैः साहचर्यात् पञ्चगव्यदन्तिमदसबीजकषायपश्चक सर्वौषधियुतेः सौवर्णमूलनक्षत्रेण राक्षसरूपेण सह शतच्छिद्र कुम्भमध्यक्षिप्तैस्तज्ज्ञोक्तविधिना हवनपूर्वम् । सशिशुप्रसूक इति मूलजातशिशुना तज्जनन्या च सह स्नायात् । अश्लेषाजातेऽप्येवमेव नवरं तत्र सौवर्णसर्परूपेण सहेति ज्ञेयम् । एतच्च मूलाश्लेषाविधानं सविस्तरं गृहस्थधर्मसमुच्चयादिग्रन्थेषूक्तमपि बहुसावद्यत्वान्नेह प्रतन्यते । बहुसावद्यारंभपातकभीरुणा तु मूलाश्वेषाजाते बालके सति सर्वनक्षत्र भोक्तृनवप्रहसतत
P
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जैनज्योतिर्मन्यसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ६१
मस्तके
स्कन्धयोः बाह्वोः हस्तयोः हृदये कट्यां
५ । राजा
पितृहन्ता स्कन्धिलः दैत्यः ब्रह्मनः राज्यधरः अल्पायुः सुखी चपलः अल्पायुः
--मूलपुरुषस्थापना __ केऽप्याहुः-'ब्रह्महत्याकरः पाणौ यद्वा मातुलघातकः । गुह्यजातो धनं हन्याद् वृद्धत्वे च सुखी भवेत् ॥ १॥ न जीवेद्वामजवायां पान्थो वा जायते नरः।दक्षिणस्यां तु जङ्घायां जातकः स्यान्महाधनी ॥ २ ॥ कृच्छ्राज्जीवति वामेही दक्षिणे धनपुण्यवान्' । इति ।
गुह्ये
जान्वोः पादयोः
स्थुडे
खचि शाखायां पत्रे
मूलपातः अर्थहानिः भ्रातृनाशः मातृनाशः
। १०
-मूलवृक्षस्थापना ___ अन्ये मूलवृक्षखरूपमेवमाहुः ।-पात्स्लैम्बछैलिशाखादलकुसुमले स्युः शिखायां च घट्यो, मूलद्रोवर्धिसप्ताऽष्टकदशकनवेरुद्रप्रमाणाः । मूलार्थभ्रातृमातृन् क्षपयति पंतति प्रौढंमत्री नॅपश्च, स्यादेतासु प्रसूतः श्रयति कृशतरं चार्युरेतच्छिंखायाम् ॥१॥ केचिच्छिखायां परमायुराहुः।
म्रियते
पुष्पे
फले दिखायां
मंत्री स्यात् । राज्याप्तिः खल्पायुः
पादयोः
मरणं
गुदे
सुखं
राज्यं
बाहोः
-अश्लेषानरस्थापना जान्वोः भ्रमणं
शास्त्रान्तरे तु मूलनराद्विपरीतोश्लेषानरोऽ.
• प्येवमूचे । तथाहि-अश्लेषापटिकाषष्टिरेवं नाभौ
व्याधिः स्थाप्या नराकृतिः।आदौ पादद्वये पञ्च जान्वोः हृदये
पञ्च गुदेऽष्ट च ॥ १॥ नाभावष्टौ हृदि द्वौ च हस्तयोः
हत्याकृत् पाण्योरष्टौ द्वयं भुजे । स्कन्धयोर्दशकं वक्त्रे
दैत्यः षट् शीर्षे षडिति क्रमात् ॥ २॥ मृतिभ्रमः स्कन्धयोः १० स्कंधिलः सुखं व्याधी राज्यं हत्या च दैत्यता। स्कन्धिलः
पितृनः पितृहा नेती फलं ज्ञेयं यथाक्रमात् ॥ ३ ॥ मस्तके | ६ | राजा सेव्यमानपादपीठस्य श्रीमदर्हतो विशिष्य च मूलनक्षत्रजातस्य श्रीसुविधिजिनस्याष्टोत्तरशतीयविधिना शास्त्रोकेन समहोत्सवं नात्रं कार्यम् । एवमपि सकलक्षुद्रोपद्रवोपशमस्य सर्वत्र साक्षाद्दर्शनात् । अत्र केऽप्याहु:-"विष्कंभादिकुयोगेषु कुलिके सत्रिपुष्करे। संक्रान्तौ दुर्दिने वियै मूला ठेवाजबालके ॥ १॥ गणकैनैव कर्तव्यं पौष्टिकं मूलसार्पयोः।" इति.॥
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६२ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् ।
अश्लेषावक्षस्थापना शिखायां ४ | खल्पायुः ॥ एवं मूलवृक्षाद्विपरीतोऽ- शाखायां ९ । मातृनाशः फले । ७ राज्याप्तिः । श्लेषावृक्षः शास्त्रान्तरीय- त्वचि । ५ भ्रातृनाशः पुष्पे । ८ मंत्री स्यात् स्तत्रापि घटीक्रमोऽ| स्थुडे | ६ | अर्थहानिः पत्रे | १० | मृत्युः ॥ भ्यूह्यः मूलवृक्षवदेव | मूले | ११ | मूलनाशः ष्टकं वा, बालं पिता मूलविकारशान्त्यै । शतौषधीमूलमृदम्बुरत्नैः, स्नायाच्च हुत्वा सशिशुप्रसूकः ॥ १० ॥ कुलभान्यश्विनी पुष्यो मघा मूलोत्तरा३ त्रयम् । द्विदैवतं मृगश्चित्राकृत्तिकावासवानि च ॥ ११ ॥ उपकुल्यानि भरणी ब्राह्मं पूर्वात्रयं करः। ऐन्द्रमादित्यमश्लेषा वायव्यं पौष्णवैष्णवे १२ पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थायिनां जयः । अन्येषु त्वऽन्यसेवार्ता ६ यायिनां च सदा जयः ॥ १३ ॥ कुलोपकुलभान्याऽभिजिन्मैत्राणि वारुणम् । फलन्त्येतानि पूर्वोक्तद्वयसाधारणं फलम् ॥ १४ ॥ गुर्वर्कार्कीन्दवः कुल्या उपकुल्यः कुजः सितः । तमश्वाथ बुधो मिश्रस्तत्र ९ नक्षत्रवत्फलम् ॥१५॥ * * * मूर्धास्यासंभुजोकरोरउदधिोभागंजार्नुक्रमेध्वनित्रिद्वियमद्विपञ्चकुकुदृक्तर्केषु भेष्वर्कभात् । भूपैः स्वाद्वशनोऽसलोऽधिकबलश्चौरो धनी शीलवान जारः स्यात्पथिकचे भिक्षुरपि चोत्पन्नः क्रमाद् १२ बालकः ॥ १६ ॥ स्याज्जातकर्म चरलघुमृदुध्रुवर्भेष्वमीषु नामापि । तच्चा
1 श्रवणम् । 2 उपकुल्येषु । 3 जाता इति शेषः। 4 तमो राहुः । अयं वारवाभावेऽपि ग्रहप्रसङ्गादूचे। मिश्रः कुलोपकुलः । केचित्तिथिवारवेलाराशियोगेन कुल्यसमाहुः, तथाहि-"सूर्योदये कुजस्याह्नि नन्दा वृश्चिकमेषयोः१ । कुलीरयुग्मकन्यानां भद्रायामे बुधाहनि२ ॥१॥" अत्र यामे इति प्रहरदिनचटनसमये इत्यर्थः । “चापसिंहघटानां च मध्याह्ने वाक्पती जया३ । वणिग्वृषभयो रिका त्रियामान्ते भृगोर्दिने ४ ॥२॥" त्रियामान्ते इति तृतीयप्रहरप्रान्ते । “सूर्यास्ते शनिवारे तु पूर्णा स्यानक्रमीनयोः५ । कुलजास्तिथयो वारे वेलायां राशिषु क्रमात् ॥ ३ ॥” एभिर्योगैर्जाताः कुल्यास्तत एव चोत्तमाः स्युरित्याशयः॥ 5 जातकर्म षष्ठीजागरादि । चरेत्यादि एषु चन्द्रयुक्तेषु वा एषामुदयसमये वा एतत्संबन्धिषु मुहूर्तेषु वा कार्यम् । अस्मिन् प्रकारत्रयेऽपि पूर्वपूर्वस्यालामे उत्तरोत्तरः प्रकार आदरणीयो न वन्यथा । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे-"धिष्ण्यानां मौहर्तिकमुदयात् शितरश्मियोगाच अधिकबलं यथोत्तरमिति” । यदि च तदेव दिनभं क्षणेऽपि च तस्यैव कार्य क्रियते तदा शुभतरं यच्छौनकः-"नक्षत्रवत्क्षणानां बलमुक्तं द्विगुणितं वनक्षत्रे" । इति । एवं सर्वकार्ये मेषु वाच्यं । अमीष्विति नामाप्येषु स्थाप्यं । उभयोरिति प्रस्तावाद्दम्पत्योः गुरुशिष्ययोः खामिभृत्ययोश्चेत्यायुधम् ॥
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ६३
___ *
*
*
मस्तके
Ww
गुह्ये जान्वोः पादयोः
-रविनरस्थापना षोडशछंदवर्णिता मुखे
मिष्टाशी
___ अर्काक्रान्तभं रविनरस्य मूर्ध्नि दला क्रमास्कन्धयोः स्कन्धिलः बाह्वोः
ज्जातकस्य जन्मभं यावद्गण्यम् । बाहुद्वये स्थानबलवान्
भ्रष्टः स्यादित्यपि कचित् । विशेषस्तु 'शतं हस्तयोः
चौर्यरतः हृदये
मूर्ध्नि मुखे स्कन्धे चाशीतिर्भुजहस्तयोः। सप्त
धनवान् नाभी
सुशीलः
सप्तति वर्षाणि हृन्नाभ्योरष्टषष्टिका ॥१॥
गुह्ये षष्टिस्तथा जान्वोरष्ट षट्पादयोस्तथा। परदाररतः
रविचक्रे क्रमेणैवमायुर्जेयं विचक्षणैः ॥ २॥ विदेशगमनः
६ । भिक्षाचरः विरुद्धमुभयोर्योनीगणराशितारोवगैः ॥ १७॥ उडूनां योन्योऽश्वद्विपंपभुजङ्गाँहिशुनौत्वाँमार्जारांखुद्वय १०-११वृषेमहव्यामहिषाः तथा व्याघेणणश्वकपिनकुलद्वन्द्व२१-२२कपयो, हरिर्वाजी दन्तावलरिपु-३ (हविरिपु )रजः कुञ्जर इति ॥ १८ ॥ श्वैणं हरीभमहिबभ्रु पशुप्लवङ्गं गोव्याघ्रमश्वमहमोतुकमूषकं च । लोकात्तथाऽन्यदपि दम्पतिभर्तृभृत्ययोगेषु वैरमिह वय॑मुदाहरन्ति ॥ १९ ॥ दिव्यो गणः किल पुनर्वसुपुष्य-६ हस्तस्वात्यश्विनीश्रवणपौष्णमृगानुराधाः । स्यान्मानुषस्तु भरणीकमलासनक्षपूर्वोत्तरात्रितयशंकरदैवतानि ॥ २० ॥ रक्षोगणः पितृभराक्षसवासवे..
98
1 योन्य इति उत्पत्तिस्थानानि, एताश्च गुरुशिष्यदम्पत्यादियोगार्थ पूर्वाचायः कल्पिता एव, न तु पारमार्थिक्य इति रत्नमालाभाष्ये । पशुरऽजः । ओतुर्मार्जारः । द्वयेति मघापूर्वफल्गुन्योराखुः । एवमग्रेऽपि ॥ 2 व्याघेणम् । श्वमार्जारमित्याद्यपि। 3 उपलक्षणवाद्गुरुशिष्यादियोगेऽपि । विशेषस्तु 'विहाय जन्मभं कार्ये नामभं न प्रमाणयेत् । जन्मभस्यापरिज्ञाने नामभस्य प्रमाणता ॥ १॥ द्वयोर्जन्मभयोर्मेलो द्वयोर्नामभयोस्तथा । जन्मनामभयोर्मेलो न कर्तव्यः कदाचन' ॥ २ ॥ एवमेव गणराश्यादिसर्वप्रकारेषु ज्ञेयम् । एतौ व्यवहारप्रकाशे। 4 रोहिणी। 5 पूर्वाणामुत्तराणां च त्रितयम् । 6 अभिजिद्विद्याधरगणे इति क्वचित् । विशेषस्तु मुख्यस्य वरादे रक्षोगणो गौणस्य च कन्यादेनुंगणस्तदाप्युभयोः सदाशिकूटत्वे १ तत्वामिमैव्ये२ योनिशुद्धौ३ नाडीवेधशुद्धौ च सत्यां सुयोग एव । यद्र्गः-रक्षोगणो यदा पुंसः कुमारी नृगणा भवेत् । सद्भकूटं१ खगप्रीतिः२ योनिशुद्धस्वदा शुभम् ॥ १॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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६४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । न्द्रचित्राद्विदैववरुणाग्निभुजंगभानि । प्रीतिः स्वयोरति नरामरयोस्तु मध्या वैरं पलादसुरयोतिरेन्त्ययोस्तु ॥ २१ ॥राशेरोजान्मृतिः षष्ठे सर्वाः ३ स्युः संपदोऽष्टमे । राशौ द्विादशे नैःस्व्यं स्वामिमैत्र्ये पुनः श्रियः ॥२२॥
प्रीति
कर्क
कन्या
मेष
হান্তু
यत्र द्वयो राशी मिथः षष्ठाष्टमौ स्याताम् , ६ । ८ धनुः तयोः षडष्टमकाभ्यां राशिकूटम् , एवं मेष वृश्चिक कुंभ द्विद्वादशनवपञ्चमादिष्वपि भाव्यम् । मिथुन मकर
मृतिरिति यत्रौजान्मेषमिथुनादितः|| सिंह मीन वृश्चिक | मिथुन || सकाशात् षष्ठो राशिः स्यात्तत्किल तुला | वृष
मकर | सिंह शत्रुषडष्टमकम् , राशीनां मिथो वैर-|| धनुः । ॥ मीन | तुला सद्भावात् । यस्याष्टमो राशिस्तस्य || कुंभ । कन्या मृत्युः स्यादिति रत्नमालाभाष्ये । संपद' इति ओजादेव सकाशादष्टमे राशौ सति यत्स्यात्त. प्रीतिषडष्टमकम् , राशीशानां मिथः प्रीतिसद्भावात् । तदयं भावः-मकरवृषमीनकन्यावृश्चिककर्काष्टमे रिपुत्वं स्यात् । अजमिथुनधन्विहरिघटतुलाष्टमे मित्रताऽवश्यम् ॥ १॥
कक
__1 नृरक्षसोः। 2 ननु वैरमैत्र्यादिद्वयोर्जन्मलग्नयोर्विचारयितुमुचितं, तस्यैव सर्वत्र बलवत्त्वात् , तत्किं जन्मराश्योरिहोक्तम् ? उच्यते-“जन्मलममिदमङ्गमङ्गिना, मेनिरे मन इतीन्दुमन्दिरम् । सौहृदं च मनसोर्न देहयोर्मेलकस्तदयमिन्दुगेहयोः ॥ १॥ ननु यद्येवं तदाऽस्तु राशिमैत्र्यादिविचारः, परं स्थूलमानं ह्यदस्ततो जन्मराशिस्थनवांशयोस्तद्विचारो युक्तः "प्रभुरिह नवांश" इत्युक्तेः, मैवम् , स्थूलस्यैवात्र पूर्वाचार्यैः प्रमाणीकरणात् , नो चेत्कर्कस्थे मकरांशेऽपि गतोऽर्कः किं नोत्तरायणीत्युच्यते ? तथा यथोकदैवसिकनक्षत्रविरहेऽपि तदुदये तन्मुहूर्तेषु वा जातकर्मक्षौरादिकार्याणीव करप्रहोऽपि किमिति नानुमन्यते ? अतः स्थूलस्यैवात्र प्रामाण्यम् । नापि सूक्ष्मत्वमप्रमाणमेव । यतः-"भिन्नभिन्नफलभाग्भुवि भूयानेकधिष्ण्यदिनजोऽपि जनोऽयम् । सूक्ष्मतापि ननु तेन गरिष्ठा, किंतु मूलमनुरुध्य विधेया ॥ २॥" अत्र धिष्ण्यदिनेत्युपलक्षणम् , तेनैकलमजोऽपीत्यपि ज्ञेयम् । तदयमाशयः-लग्ने किल नवांशद्वादशांशत्रिंशांशकलाविकलादीनि यथोत्तर सूक्ष्माणि सन्ति ततः-"अत्यन्तसूक्ष्मः स कलैकदेशो येनाखिलानां भिदुरा फलर्द्धिः । नास्मादृशां दृग्विषयः स तस्मान्मूलानुकूला व्यवहारसिद्धिः ॥ ३॥" इदं विवाहवृन्दा. बने । अत्र मूलानुकूलेति पूर्वाचार्यत्र यत्प्रमाणीकृतं तत्तत्र मूलम् , ततो जन्मादिलमेषु कलादिकं यावद्विचार्यते, इह तु राशेरेव मैत्री विचार्या, तथैव पूर्वाचार्यैः प्रमाणीकरणात्, इत्यलं प्रसङ्गेन।
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ६५
| तुला
१२ मेष मीन
| मैन्युपलक्षणलादेक- कन्या सिंह
स्वामिलमपि ग्राह्यम् । इदमपि शुभम् | मिथुन वृष सिंह कर्क
सारङ्गस्तु प्रीतिरायु
वृश्चिक
मिथो मैत्र्यां सुखं स्यात् तुला कन्या
मकर सममित्रयोः । द्वयोः
धनुः धनुः वृश्चिक
मीन | कुंभ कुंभ
समवे न स्नेहो न सुखं मकर
वृष । मेष एतानि षड् द्विदशानि श्रेष्ठानि समवैरिणोः ॥ इत्याह |
एतान्यशुभानि कर्क | मिथुन
| इदमशुभतरम् श्रेयोमैच्यात् परे त्वाहुः कैलिकृन्नवपञ्चमम् । एकऋक्षे च भिन्नांशे श्रेयः । ____1 अत्रायेषु पञ्चसु राशीशग्रहयोर्मियो मैत्री, षष्ठे एकखामिकत्वं, सप्तमे त्वेकस्य माध्यस्थ्यमितरस्य मैत्री, तेनैतानि सप्त प्रीतिद्विद्वादशानि । शेषे खाद्यचतुष्के स्वामिनोमिथो माध्यस्थ्यं, पञ्चमे त्वेकस्य माध्यस्थ्यमन्यस्य वैरं "हिमांशुबुधयोर्वैरं" इति मते मिथो वैरं वा, तेनैतानि पञ्च शत्रुद्विद्वादशानि । त्रिविक्रमोऽप्याह-"सिंहवर्जविषमराशितो द्वितीयत्वे सति यानि द्विद्वादशानि स्युस्तान्यशुभानि, यानि तु समात्सिंहाच द्वितीयत्वे सति स्युस्तानि शुभान्येवेति" । केचिन्नाड्यादिचतुष्कानुकूल्ये सति मिथो माध्यस्थ्यमपि शुभमाहुः । यत्सारंगः-"नाडी १ योनि २ र्गण ३ स्वारा ४ चतुष्क शुभदं यदि । तदौदास्येऽपि नाथानां भकूटं शुभदं मतम् ॥ १॥" अत्रौदास्यमुदासीनता माध्यस्थ्यमिति यावत् । नाडीताराखरूपं खग्रे वक्ष्यते । सिंहद्विद्वादशं मुक्ता शेषाणि सर्वाणि द्विद्वादशान्यशुभानीति तु व्यवहारप्रकाशे ॥ 2 कलिकृदिति नवपञ्चमं खभावात् कलहहेतुः । विवाहे लपत्यहानिकरमिति व्यवहारसारे । श्रेयोमैत्र्यादिति अन्ये बाहुः-राशीशयोमियो मैत्र्यां तु सत्यां श्रेष्ठमेव । यत्र त्वेकस्य मैत्री अन्यस्य तु माध्यस्थ्य तन्मध्यमम् । स्थापना पृष्ठ ६७-विशेषस्तु-प्रीतिनवपञ्चमात् प्रीतिद्विद्वादशकमुत्तमं ततोऽपि प्रीतिषडष्टमकम् । तथा-"आसन्नस्तु वरो ग्राह्यो नासन्ना कन्यका पुनः। मृतै. कमातापितरं संग्राह्य नवपञ्चकम् ॥ १॥" अस्यार्थः-यदि कन्याया राशितो गणने वरस्य राशिरासन्नो वरराशितश्च गणने कन्याया राशिदूंरः एवं सति नवपञ्चमादीनि सर्वाणि शुभानि । मृतैकेति वरकन्ययोर्मध्ये एकस्य मातापितरौ मृतौ तदा नवपञ्चमं शुभमेवेति नारचन्द्रटिप्पण्याम् । एकऋक्षे चेति ऋक्षशब्दोऽत्र राश्यर्थे ततो द्वयोरपि यद्येक एव जन्मराशिस्तदा नवांशभेदाच्छुभमेव, द्वयोरप्येकं यदि जन्मभं तदा तु न शुभम् । यत्रिविक्रमः-"एकलं जायते यत्र विवाहे वरकन्ययोः । मूलवेधस्तु स प्रोक्तो महादुष्टफलप्रदः ॥ १॥" लल्लोऽप्याह-"एकनक्षत्रजातानां परेषां प्रीतिरुत्तमा । दम्पत्योस्तु मृतिः पुत्रा भ्रातरो वाऽर्थनाशकाः ॥ १॥" अपि च ऋक्षशब्दो नक्षत्रार्थेऽप्यस्ति,
जै० ९
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६६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्शी कार्यद्वारम् । १ शेषेषु च द्वयोः ॥ २३ ॥ चक्रे त्रिनाडिके धिष्ण्यमेकनाडिगतं शुभम् ।
तेनैकनक्षत्रेऽपि पादभेदाच्छुभमेव, एकपादत्वे तु न शुभम् । यदुक्तम्-"नक्षत्रमेकं यदि भिनराश्योरभिन्नराश्योरपि भिन्नमृक्षम् । प्रीतिस्तदानीं निबिडा नृनार्योश्चेत्कृत्तिकारोहिणिवन्न नाडिः ॥१॥" अत्र कृत्तिकारोहिणिवदिति यथा कृत्तिकारोहिण्योमिथो नाडीवेधोऽस्ति तथा नाडीवेधो यदि स्यादित्यर्थः । तथा-"नाग्निदहत्यात्मतनुं यथा वा, द्रष्टा खदृष्टेन हि दर्शनीयः । एकांशकत्वे समतैव तद्वन्न भर्तृभार्याव्यवहारसिद्धिः ॥२॥ एकपादत्वेऽपि शुभमेवेत्यन्ये । यदुक्तम्-"पराशरः माह नवांशभेदादेकक्षराश्योरपि सौमनस्यम् । एकांशकत्वेऽपि वशिष्ठशिष्यो नैकत्र पिंडे किल नाडिवेधः ॥ ३ ॥" शेषेषु च द्वयोरिति शेषेषूभयसप्तम १ दशमचतुर्थ २ तृतीयैकादशेषु ३ द्वयोरपि संबन्धिनोः श्रेय एव राश्योरेवात्र मैत्रीत्यतो न तदीशयोमैत्री विचार्या । यद्गदाधरः--राशिकूटे शुमे लब्धे ग्रहमैत्रीं न चिन्तयेत् । अलामे राशिकूटस्य ग्रहमैत्री तु चिन्तयेत् ॥ १॥" तत्रापि खामिमैत्र्ये एकखामिकत्वे च श्रेष्ठतरमेव । सर्वेषामेषां क्रमात् स्थापना पृष्ठ ६७-अत्रो. भयसप्तमेषु तृतीयैकादशेषु च खामिमैत्र्यचिन्ता नास्त्येव । दशमचतुर्थेषु खाये चतुष्टये मैत्री अन्त्यद्वयोरेकेशवं, तेनैतानि षट् श्रेष्ठतराण्युक्तानि, शेषाणि षट् स्वभावादेव श्रेष्ठानि । विशेषस्तु-आदौ तावद्भयोन्यादिशुद्धिर्बलिनी, ततोऽपि राश्योर्वश्यत्वं वक्ष्यमाणं, ततोऽपि राशीशग्रहयोमैत्री, ततोऽपि राश्योः खभावमैत्री बलिनी । यदुक्तम्"खभावमैत्री १ सखिता खपत्यो २ र्वशिख ३ मन्योऽन्यभयोनिशुद्धिः ४ । परः परः पूर्वगमे गवेष्यो, हस्ते त्रिवर्गी युगपद्युतिश्चेत् ॥ १॥ परं तारामैत्री नाडीवेधशुद्धिश्च सर्वत्र विलोक्ये एवेति। ग्रामधारणागति केऽप्येवमाहुः-"जन्मराशिस्थितो ग्रामनिषष्ठः सप्तमोऽपि वा । खकीयो द्रव्यनाशाय आपदा च पदे पदे ॥१॥ चतुर्थोऽष्टमको ग्रामो द्वादशो यदि वा भवेत् । यत्रैवोत्पद्यते अर्थस्तत्रैवार्थो विलीयते ॥ २॥ पञ्चमो नवमो ग्रामो द्वितीयो यदि वा भवेत् । दशमैकादशश्चैव शुभदः स फलप्रदः ॥ ३ ॥ ___ 1 जन्मनोऽभिधानस्य वा । विशेषस्तु-सुतसुहृदादीनां नाडीवेधसद्भावे विरुद्धयोनिकभयोगोऽपि न दुष्यति । दम्पत्योर्नाडीवेधे तु फलमेवम्-"हृन्नाडीवेधतो भर्तुमध्यनाडीव्यधे द्वयोः।पृष्ठनाडीव्यधे नार्या मृत्युः स्यान्नात्र संशयः॥१॥आद्यनक्षत्रसंगता या सा हृन्नाडी। "समासन्ने व्यधे शीघ्रं दूरवेधे चिरेण वा । वेधान्तरभमानेऽत्र वर्षे दुष्टं प्रजायते ॥२॥" अपि च यदि नक्षत्रवेधस्त्यक्तुं न शक्यते तदाऽपि पादवेधस्त्याज्य एव । उक्तं च नरपतिजयचर्यायाम्-"एतच्चक्र समालिख्य अश्विन्यायह्रिपङ्कितः । वेधो द्वादशनाडीभिः कर्तव्यः पतिकन्ययोः ॥ १॥ एवं निरन्तरो येषां दम्पतीनां भवेझ्यधः । तेषां मृत्यु संदेहः सान्तरस्वल्पदुःखदः ॥२॥” तथा तत्रैव ग्रन्थे दम्पतिवद्देवतामंत्रयोर्गुरुशिष्ययोगे च नाडीवेधो दुष्ट इत्युक्तम् । तथाहि-“एकनाडीस्थिता यत्र गुरुमंत्रश्च देवता । तत्र द्वेषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् ॥१॥" सर्वेषां चैषां मैत्रीप्रकाराणां नाडीवेधो बलिष्ठः। यदुक्तम्-"सदा नाशयत्येकनाडीसमाजो, भकूटादिकान् सर्वभेदान् प्रशस्तान्" ॥
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ६७
मिथुन
वृष
कर्क
मेष सिंह
कन्या मिथुन तुला सिंह धनुः तुला वृश्चिक । मीन धनुः । मेष मकर । वृष श्रेष्ठानि नवपंचमानि
कुंभ | मीन कर्क वृश्चिक कन्या मकर एतानि मध्यमानि
तुला
३ । ११
| सिंह वृष
वृश्चिक कन्या शुभ मिथुन
धन तुला कक वृष
मकर वृश्चिक सिंह मिथुन
धन कन्या कर्क
मीन | मकर उभयसप्तमं | दशमचतुर्थश्रेष्ठतरं || दशमचतुर्थश्रेष्ठं
१०४ १० तुला वृष कुंभ मेष | मकर वृष वृश्चिक कर्क मेष मिथुन मीन मिथुन धन वृश्चिक सिंह सिंह वृष कर्क मकर
मेष
तुला तुला सिंह कुंभ कन्या मिथुन धनुः कन्या कन्या । मीन । मीन धन || कुंभ | वृश्चिक गुरुशिष्यवयस्यादेने वधूवरयोः पुनः ॥ २४ ॥ द्वयेषु गुरुशिष्यादेः
मेष
।
कर्क
त्रिनाडीचक्रस्थापना
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६८ जनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । प्रीतिहेतोः परस्परम् । त्रिपञ्चसप्तमी तारां सर्वत्र परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥ चत्वारोऽकचटा वर्गाः क्रमात्तपयशास्तथा । यत्नतो वर्जनीया स्युरितरे३ तरपञ्चमाः ॥ २६ ॥ नामादिवर्गाङ्कमथैकवर्गे, वर्णाङ्कमेव क्रमतोऽ
1 पूर्वोक्तेन ताराणां नवकत्रयकल्पनविधिना गुरुशिष्यादितारासु त्रिपञ्चसप्तमत्वं भाव्यम् , विशिष्य च गुरुवरप्रभुप्रभृतीनां तारा त्रिपञ्चसप्तमी न विलोक्यते । यदुक्तं भीरुपादचल७ पञ्च५ तृतीया३ शोकवैरिविपदे वरताराः'। सर्वत्रेति सर्वेषु द्वयेषु। 'पुंस्त्रीराशीशयोमैत्र्यामेकेशवे च वश्यमे । षडष्टमादिष्वपि स्यात्तारामैत्र्या करग्रहः' इति दैवज्ञवल्लमेऽपि ताराप्राधान्यमुक्तम् । 2 वैनतेयौतु सिंहश्वाऽहिमूषकमृगोरणाः । क्रमादकचटादीनां खामिनोऽमी स्मृता बुधैरिति हर्षप्रकाशे । वृकसजातीयत्वाच्छुन उरणेन मेषेण सह वैरम् । विशेषस्तु योनि १ गण२ राशि३ ताराशुद्धि४ नाडिवेधा५जन्मभे परिज्ञायमाने जन्मभेनैव विलोक्याः अन्यथा तु नाममेनैव । वर्गमैत्री१ लभ्यदेयज्ञानेर तु प्रसिद्धनाम्नैव विलोक्ये। 3 लभ्यं च स्तोकं वर्यम् , दातुं लातुं च सुशकत्वादिति नारचन्द्र टिप्पण्याम् । राशि१ ग्रहमैत्रीर गण३ योनी ४ तारै५ कनाथता६ वश्यम् । स्त्रीदूरनाडी८ युति ९ वर्ग१० लभ्य ११ वर्ण १२ युजयो १३ द्वयेषूह्याः' इति गर्गोक्तः संग्रहश्लोकः । वधूराशिर्वरराशितो दूरगः शुभः । वरराशिस्तु वधूराशित आसन्नः शुभः । 'मीनाद्याश्चत्वारस्त्रिर्द्विजादिवा' इति सारावल्याम् । यत्र वर्णाधिका नारी तत्र भर्ता न जीवति । यदि जीवति भर्ता स्यात्तदा पुत्रो न जीवति । इति महादेवः । युजिः प्रागुक्ता "पूर्वार्धयोगिषूढस्त्रीणामतिवल्लभो भवेद्भर्ता" इत्यादिना । विशेषस्तु-मुनीनां किल जिनबिम्बकारयितुस्तद्धारणागतिज्ञाने शैक्षस्य नामकरणे च भयोन्यादिभिर्विशिष्योपयोगः, तत्र शैक्षस्य नाम्नि नाडीवेधो वर्यः, जिनस्य तु नाग्नि त्याज्य एव । ताराविरोधश्च जिनबिम्बाधिकारे प्रायो न विचार्यः । यदुक्तम्-“योनि १ गण२ राशिभेदा३लभ्यं४ वर्गश्च५ नाडिवेधश्च६ । नूतनबिम्बविधाने षड्विधमेतद्विलोक्यं ज्ञैः ॥ १॥" तत्र यस्य धनिकस्य जिनस्येव जन्मभं ज्ञायते तस्य जन्मभेन योनिगणरा. शयो नाडीवेधश्च विलोक्यः, न तु वर्गलभ्ये, यतो वर्गयोर्मिथः पञ्चमवं मिथो लभ्यदेयं च जिनस्येव तस्यापि प्रसिद्धेनैव नाम्ना विलोक्येते, सर्वत्रापीयं रीतिः । जन्मभापरिज्ञाने तु तस्य योन्याद्यपि सर्व प्रसिद्धनामभेनैव विलोक्यम् । तत्र पूर्व तावजिनधनिकयो>निगणवर्गाणां मिथो वैरं त्याज्यमेव । वैरसद्भावेऽपि वा धनिकसत्का योन्यादयो देवसत्केभ्यस्तेभ्यश्चेद्वलिष्ठाः स्युस्तदा ग्राह्या अपि । अयं भावः-अल्पबलेन बलिष्ठो नाभिभूयते इत्यभिप्रायेण धनिकस्य ओखादिर्बलिष्ठो देवस्य चोन्दुरादिरल्पबल इत्येतावता न दोषः । जातिवैराभावे च धनिकयोनिवर्गयोरबलवेऽपि न विशिष्य दोषः, शास्त्रे योनिवर्गयोर्जातिवरस्यैव वर्जनात् , लोकेऽपि च तथैवादरणात् । तथा यत्र देवराशितो धनिकराशिरासन्नो धनिकाशितस्तु देवराशिदूरे तत्प्रीतिषडष्टमकादि ग्राह्यम् , इतरत्तु न । तथा तादृक्शुद्धापरालामे तु तदपि क्वचिद्राह्यम् । देवराक्षसरूपं गणवैरमप्येवमेव, यतो लोके वरकन्या
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ६९ क्रमाच्च । न्यस्योभयोरष्टहृतावशिष्टेऽर्धिते विशोपाः प्रथमेन देयाः॥२७॥ कर्णवेधोऽह्नि सौम्यस्य मार्गे मैत्र्ये श्रुतिद्वये । हस्तचित्रोत्तरापौष्णाश्विनादित्यद्वये शुभः ॥ २८ ॥ आद्याटनं प्राथमकल्पिकस्य, मृदुध्रुवक्षिप्रचरेषु३ भेषु । पूर्वाशनं मासि शिशोश्च षष्ठे, भं वारुणं स्वातिमिर्तश्च मुक्त्वा ॥२९॥ पात्रभोगोऽश्विनीचित्राऽनुराधारेवतीमृगे । हस्ते पुष्ये च गुर्विन्दुवारयोश्च प्रशस्यते ॥ ३०॥ क्षौरं शुभस्याहनि तारकाबले तिथौ च रिक्ताष्टमिषष्ठ्य-६ देरपि शुद्धापरलामे देवराक्षसरूपं गणवैरमप्याद्रियमाणा दृश्यन्ते । शिष्यनामकरणे तु गुरुशिष्ययोर्मिथस्ताराविरोधः शत्रुषडष्टमकादीनि च सर्वाणि त्याज्यानि । योनिविरोधोऽ. प्येवमेव । नाडीवेधसद्भावे बसौ न दुष्टः । उक्तं च हर्षप्रकाशे-"दुब्बारस नवपंचम छक्कठ्ठग ति पण सत्तमी तारा । अन्नुन्नं गुरुसीसाणं नामकरणे विवजिना ॥ १ ॥ गुरुसीसाण करिजा नामं न विरुद्धजोणिए रिस्खे । जइ हुज न तं रिख्खं आरूढं एगनाडीए ॥२॥" गणवर्गविरोधौ तु त्याच्यावेव । लभ्यदेयं च मिथो विलोक्यम् , मिथो राशिमैत्र्याद्यभावे राशीनां वश्यत्वं च ग्राह्यं, तद्भावे शत्रुषडष्टमकादीनामपि विशिष्टतरदौष्ट्या. संभवात् । पुत्रादिनामखपि सर्व प्रायः शैक्षनामवज्ज्ञेयम् । एवं च सति-"जीवेन्दर्केषु बलिषु त्रिषु गोचरशुद्धितः । नामप्रथमवर्णस्य नृणां नाम विधीयते ॥ १ ॥” इति पूर्णभद्रः । अस्य श्लोकस्यान्वय एवं-नामाद्यवर्णस्य गोचरशुद्ध्या जीवेन्दर्केषु बलिषु सत्सु नृणां नाम विधीयते । अयं भावः-नामकर्तुराचार्यादेर्ये केऽपि वर्णा मैत्रीभाजः सन्ति तेषां वर्णानां मध्ये यस्य वर्णस्य जीवेन्दर्कगोचरशुद्ध्या बलिष्ठाः स्युरिष्टदिने तं वर्णमादौ न्यस्य शिष्यादीनां नाम देयम् ॥
1 बुधस्य । गुरावपीति व्यवहारसारे। 2 हिण्डनं गोचरचर्याभ्रमणं च । 3 बालस्य, शैक्षस्य । वारेऽनुक्तेऽपि कुजशनी सर्वत्र त्याज्यौ । अरिक्ततिथाविति च सर्वत्राभ्यूह्यम् । 4 बोटणाख्यम् । 5 पुंसः षष्ठे मासि पुत्र्यास्तु पञ्चमे मासीति भोजः । मासनियमो न पुच्या इति हरिः। 'शशिशुक्रे च मन्दाग्निः, शनिभौमे बलक्षयः। बुधार्कगुरुवारेषु प्राशनं तु हितावहम्'। 6 पूर्वोकनक्षत्रेभ्यः शतभिषक्खाती त्यक्त्वा, चो भिन्न क्रमवात् खातिं चेत्येवं योज्यः। 7 क्षौरमिति बालानां प्रथमं यस्य मुंडन मिति नाम । शैक्षाणां तु प्रथमलोचः, शेषक्षौराणि तु वारभमात्रशुद्ध्यादिनाऽपि स्युः। शुभस्येति अक्रूरवारे । यतः- "क्षौरे मासं दुनोत्यर्को भौमोऽष्टौ सप्त सूर्यजः। षद प्रीणातीन्दुरष्टौ ज्ञो गुनव भृगुर्दश ॥१॥" इति व्यवहारसारे । तारकेति, उक्तं हि-"जन्माधानेत्यादि । ताराबलं च क्षौरेऽवश्यं ग्राह्य, यतः-"तारासुद्धं खउरं" इति हर्षप्रकाशे । चन्द्रबलमप्यवश्यं ग्राह्यमिति व्यवहारप्रकाशे । अष्टमीति "ड्यापो बहुलं नाम्नि" इति हखः। अमा अमावास्या। चर खात्यादि। ऐन्दवं मृगशिरः । तुल्यपताविति-यद्युक्तभानि नाप्यन्ते क्षौरं चावश्यं कार्य तदोक्त. भानां यः पतिः स एव यस्य क्षणस्य पतिः स्यात्तस्मिन् क्षणे क्षौरं कार्य, क्षणश्च मुहूर्ता
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७० जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भ सिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् ।
ख्योऽहो रात्री पञ्चदशोऽशः । तदीशास्तावदेवम्-"शिव१ भुजगर मित्र३ पितृ४ वसु५ जल६ विश्व विरञ्चि८ पङ्कजप्रभवाः९ । इन्द्रा १० नीन्द्र ११ निशाचर१२ वरुणा१३ र्यम१४ योनय१५ श्चाह्नि ॥१॥ रुद्रा१ जा२ हिर्बुधाः३ पूषा४ दस्रा५ न्तका६ नि धातारः८ । इन्द्व९ दिति १० गुरु११ हरि १२ रवि १३ त्वष्ट्र १४ नलाख्याः१५ क्षणाधिपा रात्रौ ॥ २ ॥" क्षणनामानि पुनरेवम्-"आर्द्रा १ श्लेषा२ नुराधा३ च मघा४ चैव धनि. ष्ठिका५ । पूर्वाषाढो६ तराषाढे७ अभिजिट द्रोहिणी९ तथा ॥ ३ ॥ ज्येष्ठा विशाखिका ११ मूलं १२ नक्षत्रं शततारकम् १३ । उत्तर १४ पूर्वे फल्गुन्यौ १५ क्षणास्तिथिसमा दिने ॥४॥" एषां मध्ये च-"दक्खिणदिसि मुत्तु गमं दिक्खपइठ्ठागमागमाइकयं । जं तं सव्वं सुहयं अभिजिमुहुत्तंमि अठ्ठमए ॥५॥" यतः-"उप्पाय-विहि-वइवाय-दड्डतिहि-पावगह विहिअदोसे । मज्झण्हगओ सूरो सव्वे ववणीय सुख्खकरो ॥ ६ ॥" इति हर्षप्रकाशे । पूर्णभद्रोऽप्याह- "ग्रसते ग्रहचक्रमसौ रविरुदये यावदेव यामयुगम् । उद्वमति वमनका. ले वान्तं तद्विह्वलीभवति ॥ १॥ विह्वलतामुपगतवति तस्मिन् विजयाह्वयो भवति योगः। यस्मिन् विहितं कार्य न चलति कथमपि युगान्तेऽपि ॥ २ ॥" लल्लोऽप्याह-"रवौ गगनमध्यस्थे मुहूर्तेऽभिजिदाह्वये । छिनत्ति सकलान् दोषांश्चक्रमादाय माधवः ॥ १॥" केचित्तु-“दुपहरघडिआ ऊणे दुपहर घडिएग अहिअ मज्झण्हे । विजयं नाम मुहुत्तं पसाहगं सव्वकजाणं ॥१॥" इत्याहुः । सायं सन्ध्यायामपि विजययोगो हर्षप्रकाशे उक्तः । तथाहि-"ईसि संझामइकतो किंचि उभिन्नतारओ। विजओ नाम जोगोऽयं सव्वकज्जप्पसाहओ ॥१॥" लल्लेन प्रातस्त्यसन्ध्यायामपि यात्रेष्टा, तथाहि-"आव. श्यके तथा याने सौम्येऽस्ते निधनेऽपि वा । व्रजेदोंदये वाऽपि मध्याह्ने वाऽविशङ्कितः ॥१॥" अत्र सौम्येऽस्ते इति यद्यर्कोदयसमये मध्याह्ने वा तात्कालिकलग्नकुंडलिकायां सप्तमेऽष्टमे वा भवने सौम्यग्रहः स्यात्तदा निःशंकं प्रयाणं कुयोदिति । प्रातस्त्यसन्ध्याया उषात्रितारसंज्ञे अपि । यत्पूर्णभद्रः-"उषाभिधानं वरयोगमेवं त्रितारमाहुमुनिवृन्दवन्द्याः" इति । तथा-"उषां प्रशंसयेद्गर्ग इति"। एवं च सन्ध्यास्तिस्रोऽपि शस्ता इति तात्पर्यम् । तथा-"रात्रावार्दा १ तथैवाष्टौ पूर्वभद्रपदादयः ९ (क्रमात् ) । आदित्य १० पुष्य ११ श्रुतयो १२ हस्ताद्याश्च त्रयः १५ क्रमात् ॥१॥ यस्मिन् धिष्ण्ये यच्च कर्मोपदिष्ठं, तदैवज्ञैस्तन्मुहूर्तेऽपि कार्यम् । दिक्शूलाद्यं चिन्तनीयं समस्तं, तद्वद्दण्डः पारिश्च क्षणे. षु ॥ २॥" अत्र दिक्शूलाद्यमिति नक्षत्रदिक्शूलकीलादिकं वक्ष्यमाणस्वरूपं मुहूर्तेष्वपि नक्षत्रवद्विचार्य, यस्यां दिशि च तदुत्पद्यमानं स्यात् सा दिक् प्रयाणादौ त्याज्या । तथा चरस्थिरादयः सप्त धिष्ण्यमेदा धिष्ण्यसंबन्धिक्षणेष्वपि इष्टकार्यानुरूपतामपेक्ष्य विचार्याः । पारिघश्चति वक्ष्यमाणपरिघदण्डं मुहूर्तेष्वपि नक्षत्रवद्विचार्य यात्राद्यं कुर्यादिति रत्नभाष्ये । पौराणिकक्षणास्त्वेवम्-"रौद्रः १ श्वेतो २ मैत्र ३ श्चारभटः ४ पञ्चमस्तु सावित्रः ५। वैराजो ६ गान्धर्व ७ स्तथाऽभिजि ८ द्रोहिण ९ बलौ १० च ॥ १॥ विजयो ११ ऽथ नैर्ऋताख्यो १२ माहेन्द्रो १३ वारुणो १४ भग १५ श्चैव । एते पुराणकथिता दिवसShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीया यामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्शे कार्यद्वारम् । ७१ मोज्झिते । चित्राचरैन्द्राश्विनपुष्यरेवतीहस्तैन्दवैस्तुल्यपतौ क्षणेऽथवा ॥ ३१ ॥ अभ्यक्तस्नाताशितभूषितयात्रारणोन्मुखैः क्षौरम् | विद्याऽऽदिनिशासन्ध्यापर्वसु नैवमेऽह्नि च न कार्यम् ॥ ३२ ॥ षट्कृत्तिकोऽष्टवैरंच स्त्रिमैत्रचतुरुत्तरः । पञ्चपैत्रः सकृन्मूलः क्षौरी वर्षं न जीवति ॥ ३३ ॥ श्मश्रुकर्म नरेन्द्राणां पञ्चमे पञ्चमेऽहनि । क्षौरभेषु नखोल्लेखो व्यर्के, क्रूरे विशेषतः ॥ ३४ ॥ विद्यां सुराध्यापकराजपुत्रसितार्कवारेषु समारभेत । पूर्वाश्वि- ६ नीमूलकरत्रयेषु श्रुतित्रये वा मृगपञ्चके वा ॥ ३५ ॥ निर्यमालोचनायो - गतपोनन्द्यादि कारयेत् । मुक्त्वा तीक्ष्णोग्रमिश्राणि वारौ चाऽऽरशनैश्चरौ ८
मुहूर्त्तास्तथाऽभिजित्कुतुपः ॥ २ ॥ एषु - अभिजि १ द्विजयो २ मैत्रः ३ सावित्रो ४ बलवान् ५ सितः ६ । विराज ७ श्चेति सप्त स्युः क्षणाः सर्वार्थसाधकाः ॥ ३ ॥ रौद्रो १ गन्धर्वो २ ऽर्थप ३ श्चारणाख्यो ४, वायु ५ वह्नी ६ राक्षसो ७ धातृ ८ सौम्यौ ९ । ब्रह्मा १० जीवः ११ पौष्ण १२ विष्णू १३ समीरो १४, रात्रावेते नैर्ऋताख्यः १५ क्षणोऽन्यः ॥ ४ ॥” इत्युक्तो बहूपयोगित्वात्सप्रसङ्गः क्षणविचारः ॥
1 प्रारंभः। 2 तिस्रः । 3 दीपोत्सवादिः । 4 पूर्वक्षौर दिनात् । गृहप्रवेशादिष्वपि नवमदिवसो निषिद्धः । यल्लल्लः - 'निर्गमान्नव मे चाहि प्रवेशं परिवर्जयेत् । शुमे नक्षत्रयोगेऽपि प्रवेशाद्वाऽपि निर्गमम् ॥ अमङ्गल्यक्षौराणि तु नवमेऽप्यह्नि स्युः । निरासनानामपि क्षौरं न कार्यमिति लल्लः । 5 यः षट् क्षौराणि संलग्नानि कृत्तिकायामेव कारयत् स षट्कृत्तिकः । एवमन्येऽपि । गणिविद्यायां तु कृत्तिकाविशाखामघाभरणीष्वेव लोचकर्म निषिद्धं । विशेषस्तु–“सर्वदाऽपि शुभं क्षौरं राजाज्ञामृतिसूतके । बन्धमोक्षे मखे दार • कर्मतीर्थव्रतादिषु ॥ १ ॥ सर्वदापीति सर्वेषु वारनक्षत्रेष्वित्यर्थः । दारकर्मेति कुलाचारोऽयं केषाञ्चित् । तथा च दुर्गसिंह :- " मुण्डयितारः श्राविष्ठायिनो भवन्ति वधूमूढाम्” । इति ॥ 6 क्षौरभेष्वित्यस्योभयतोऽपि योजनादयमर्थः - क्षौरमेषु त्रिपञ्चसप्तमताराद्यभावे क्रूरवारेष्वपि च शुभग्रहस्य कालहोरायां पञ्चमे पञ्चमे दिने श्मश्रुकर्म कार्यम्, नखोल्लेखोऽप्येवमेव परं व्यर्के इत्युक्तेस्तत्र रविवारस्त्याज्यः, कुजशनी तयोर्होरा च विशिष्य ग्राह्याः ॥ 7 गुरुः । 8 बुधः । विद्यारम्भे नृणां वाराः कुर्वते भास्करादयः । आयु १र्जाड्यं २ मृतिं३ लक्ष्मीं४ बुद्धिं५ सिद्धिं६च पञ्चताम्७ ॥ इति व्यवहारसारे । 9 कैश्चिच्छुतिरेव केवलोचे । 10 नियमाः सम्यक्त्वद्वादशत्रताद्याश्रिताः, आलोचना धर्मगुरूणामग्रे प्रायश्चित्तमार्गणाय स्वपापप्रकाशनं, योगाः श्रुताराधनतपोविधि विशेषाः तपः सिद्धान्तोक्त श्रेण्यादि षड्वेदम्, तेषां नन्दिः प्रतिपत्तिसमय क्रियमाणो विधिविशेषो जैनर्षिप्रसिद्धः । आदेरन्यदपि धर्ममयोत्सवकार्यं गृह्यते । विशेषस्तु – “शान्तिकं पौष्टिकं कार्यं ज्ञेज्यशुक्रार्कवासरे । कन्याविवाहनक्षत्रे पुष्याश्विश्रवणे तथा ॥ १ ॥” इति त्रिविक्रमः ॥
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७२ जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ॥३६॥ मौञ्जीबन्धोऽष्टमे गर्भाजन्मतो वाऽग्रजन्मनाम् । राज्ञामेकादशे च स्थाद्वत्सरे द्वादशे विशाम् ॥३७॥ शाखाधिपे बलोपेते केन्द्रस्थेऽह्नि च तस्य ३ वा । बले सूर्येन्दुजीवानां वर्णनाथे बलीयसि ॥ ३८ ॥ माघादौ पञ्चके मासां पौष्णाश्विन्योः करत्रये । श्रुतिद्वये मृगादित्यपुष्येषूपनयः श्रिये ॥३९॥ युग्मम् ॥ पराजितेऽरिवेश्मस्थे नीचस्थेऽस्तंगते गुरौ । सितेऽपि चोपनीतः ६ स्यात् श्रुतिस्मृतिबहिष्कृतः ॥ ४० ॥ क्रमादेशेषु सूर्यादेः क्रूरो मन्दोऽतिपातकी । पर्युर्यज्वा च यज्वा च मूर्खश्चोपनयाद्भवेत् ॥ ४१ ॥ चतुष्टयेऽ
र्कादिषु राजसेवी, स्याद्वैश्यवृत्तिः क्रमतोऽस्त्रवृत्तिः । अध्यापकः कर्मसु ९षद्सु विद्वान , विद्यार्थयुक्तोऽन्त्यजसेवकश्च ॥ ४२ ॥ लग्ने गुरौ त्रिकोणे सिते सितांशे विधौ च वेदज्ञः । भवति यमांशे गुरुसितलनेषु जडो विशीलश्च ॥ ४३ ॥ विधुगुरुशुक्रैः सार्धनगुणहीनः कुजान्वितैः क्रूरः । १२ सबुधैर्बुधः सशौरैः स्यादुपनीतोऽलसो विगुणः ॥ ४४ ॥ चन्द्रे षष्ठाष्टमे
मृत्युर्मूर्खत्वमथवा बटोः । व्रतमोक्षेऽथ केशान्ते चौले चैवंविधो विधिः
॥ ४५ ॥ वह्नः परिग्रहं प्राहुः कृत्तिकारोहिणीमृगैः । उत्तरात्रितयज्येष्ठा१५ पुष्यपौष्णद्विदैवतैः ॥ ४६॥ केन्द्रोपचयधीधर्मेष्वन्दुं ज्ञसुरार्चितैः ।
शेषैत्रिषड्दशायस्थैरादध्याजातवेदसम् ॥ ४७ ॥ उदयेऽथ नवांशे वा
राशीनां जलचारिणाम् । उदयस्थे च शीतांशौ वह्निरगाय शाम्यति ॥४८॥ १८ क्रूराः कुर्युर्धने निःस्वमाढ्यं सन्तोऽन्नदं विधुः । हन्युश्छिद्रे ग्रहाः सर्वे
लग्ने च ज्ञयमौ द्विजम् ॥ ४९ ॥ जितैरस्तमितैर्नीचशत्रुक्षेत्रगतैरपि । सोमभौमसुराचार्यैराहिताग्निर्न नन्दति ॥ ५० ॥ चन्द्रेऽर्के वा त्रिशत्रुस्थे
लग्ने धनुषि वा गुरौ । मेषस्थेशास्तंगे वारे यज्वा स्यादात्तपावकः ॥५१॥ २२ नववाससः प्रधानं वासवपौष्णाश्विनादितिद्वितये । करपञ्चकध्रुवेषु च ___ 1 नववाससः परिधानं प्रधानं स्यादिति योगः । वासवेत्यादिः यदुक्तम्- "नष्टप्राप्ति १ स्तदनु मरणं२ वह्निदाहो३ऽर्थसिद्धि४-श्वाखोभीति५म॒तिदरथ धनप्राप्तिांगमश्च८ । शोको ९ मृत्यु १०नरपतिभयं ११ संपदः १२ कर्मसिद्धि १३-विद्यावाप्तिः १४ सदशन १५ मथो वल्लभवं जनानाम् १६ ॥१॥ मित्राप्ति १७रम्बरहृतिः १८ सलिलप्लुतिश्च १९, रोगो २०ऽतिमिष्टमशनं २१ नयनामयश्च २२ । धान्यं २३ विषोद्भवभयं २४ जलभी२५र्धनं च २६, रत्नाप्ति२७रम्बरधृतेः फलमश्विभात् स्यात् ॥ २॥" न च केवलं श्वेतस्यैव
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मनुज
जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहै उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ७३ बुधगुरुशुक्रेषु परिधानम् ॥५२॥ योषिद्भजेत करपञ्चकवासवाश्विपौष्णेषु वक्रगुरुशुक्रदिनेशवारे । मुक्ताप्रवालमणिशङ्खसुवर्णदन्तरक्ताम्बराण्यविधवात्वमतिः सती चेत् ॥ ५३ ॥ वासः प्राप्तं विवाहादौ राज्ञा ३ दत्तं च यन्मुदा । विरुद्धेऽपि हि वारः तव॑सीताविशङ्कितः ॥५४॥ कृतनवभागे वाससि कोणेषु सुरास्तथान्तयोर्म- | देव । असुर | देव नुजाः । असुरास्तु मध्ययोः स्युर्मध्यतमो
राक्षस | मनुज राक्षसो भागः ॥५५॥ सुरंनरदनुजपलादीः श्रेष्ठतमश्रेष्ठहीनहीनताः । अन्ताः सर्वेऽप्य. | देव | असुर देव शुभा एवं शयनासनाद्येऽपि ॥ ५६ ॥ क्षिते दग्धेऽथ लिप्तेऽस्मिन् ९ गोमयाञ्जनकर्दमैः । अभुक्ते भूरि, भुक्तेऽल्पं फलमेतच्छुभाशुभम् ॥ ५७ ॥ सुलभं खं भवेन्न्यस्तं निखातं दत्तमेव वा । मृदुश्रुतित्र-११ यद्रक्तस्यापि वस्त्रस्य भोगे एतान्येव भानि शुभानीति व्यवहारप्रकाशे । रक्तवस्त्रभोगे पुंसामपि तान्येव भानि शुभानि यानि योषितो वक्ष्यन्ते, इमानि तु श्वेतवस्त्रमेवाश्रित्योक्तानीति तु व्यवहारसारे । बुधेत्यादि, यदुक्तम्-'नवाम्बरपरीभोगे कुर्वन्त्यर्कादिवासराः । जीर्ण १ जलाई २ शोकं ३ च धनं ४ ज्ञानं ५ सुखं ६ मलम् ७ ॥१॥" कम्बलभोगे रविरपि शुभः तत्र तस्योकलात् । केऽप्याहु:-'व्यापार्यते रवी पीतं बुधे नीलं शनौ शिति । गुरुभार्गवयोः श्वेतं रक्तं मङ्गलवासरे ॥१॥ ___1 विशिष्य च-'पुष्यं पुनर्वसुं चैव रोहिणी चोत्तरात्रयम् । कौसुम्मे वर्जयेद्वस्त्रे भर्तृघातो भवेद्यतः ॥ १ ॥ उपलक्षणवात्प्रवालरक्तांबरहेमशङ्खादिष्वपि पुष्यादिभानि त्याज्यानि । 2 उपलक्षणखाचन्द्रादिप्रातिकूल्येऽपि । 3 परिदधीत 4 रुग्राक्षसांशेष्वथवापि मृत्युः पुंजन्मवेजश्च मनुष्यभागे । भागेऽमराणामथ भोगवृद्धिः, प्रांतेषु सर्वत्र भवत्यनिष्टम् ॥१॥ अत्र राक्षसशब्देन असुरा अपि संगृहीताः, अत एव रुगथवा मृत्युरित्युक्तम् । असुरांशे रुग्, राक्षसांशे तु मृत्युरित्यर्थः । श्रीकल्पाख्यछेदग्रंथवृत्तौ तु श्रीगुरुगच्छयोग्यवस्त्रैषणार्थनिर्गतसाधूनामादौ ताहग्वस्त्रलामे एवमेव नवभागकल्पनया निमित्तज्ञानमुक्कं तथाहि देवेसु उत्तमो लाभो माणुसेसु अमज्झिमो। असुरेसु अगेलन्नं मरणं जाण रक्खसे । 5 शय्यादिष्वपि नवभागैरेवमेव फलमूह्यमित्यर्थः। 6 बहु । विशेषस्तु 'छेदाकृतिः श्रिये स्पाच्छत्रादिसमागताऽपि रक्षोंऽशे। काकोलूकादिसमा न देवभागाश्रिताऽपि पुनः'। 7 न्यस्तं स्थापनिकायां वाणिज्यव्यवसायादौ वा मुक्तम्, निखातं भूम्यादौ, दत्तं व्याजेनार्पितम् , नष्टमज्ञानाद्तं तदपि वाशब्देन संगृहीतम् । शुमेऽहनीति कुजशनिवर्जवारे। विशेषस्तु-"ऋणदानमथादानं क्षिप्रधिष्ण्यैर्विधीयते" । तथा-"निधिलब्धिधनविवर्ध. नमादित्याद्राह्मणः करात् पौष्णात् । द्वितये श्रवणत्रितयोत्तरासु मित्राधिदेवे च ॥ १॥"
जै० १०
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७४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीया यामारम्भसिद्धी तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् ।
यादित्यलघुभेषु शुभेऽहनि ॥ ५८ ॥ नष्टं चतुर्भिरन्धाद्यैर्गच्छेत् पूर्वादिषु क्रमात् । तच्चाप्यते सुखाद् यत्रोत्तद्वातैव न साऽपि च ।। ५९ ।। रेवत्या
दिशा फल
अष्टाविंशतिनक्षत्रनामानि
उत्तरा
फाल्गु
नी
काणां अश्विनी मृगशिर अश्लेषा हस्त
चिल्लां भरणी आर्द्रा
देखतां कृत्तिका पुनर्वसु
३ दिचतुष्केषु नामानि प्रतिभं जगुः । अन्धे माकेकर' चिल्लं सुलोचनेमिति क्रमात् ॥ ६० ॥ न प्रेतकर्म कुर्वीत यमले सँत्रिपुष्करे । क्रूरमिश्रध्रुवार्द्रासु तथा मूलानुराधयोः ॥ ६१ ॥ मृते साधौ पञ्चदशमुहूर्तेनैव ६ पुत्रकः । एकत्रिंशन्मुहूर्त्तस्तु क्षेप्यः शेषैस्तु भैरुभौ ॥ ६२ ॥ सर्पदष्टः सुपर्णेन रक्षितोऽपि न जीवति । मूलार्द्राभरणीयुग्ममघाश्लेषाद्विदैवतैः ॥ ६३ ॥ जातरोगस्य पूर्वार्द्रास्वातिज्येष्ठाहिभैर्मृतिः । भवेन्नीरोगता रेवत्यनुराधासु ९ कष्टतः ॥ ६४ ॥ मासान्मृगोत्तराषाढे विंशत्यह्नां मघासु च । पक्षेण तु
आंधला रेवती रोहिणी पुष्य
मघा
पूर्वाफाल्गुनी
विशा - पूर्वा
खा षाढा
अनु- उत्तरा- शत- दक्षिण यत्नथीमले राधाषाढा भिषक्
चित्रा ज्येष्ठा
धनिष्टा पूर्व शीघ्रमले
अभि- पूर्वाजित् भाद्रपद
स्वाति मूल श्रवण
उत्तरा
भाद्रपद
पश्चिम खबर मिले
उत्तर
खबर पण
न मले
1 काणम् । 2 चिप्पटाक्षम् अत्र दिनशुद्धेर्गाभा ११० विलोक्या । 3 पंचके तु तद्वर्जन प्रागप्यूचे, रविकुजवारौ चात्र त्याज्याविति दिनशुद्धौ 'पुष्याश्विनी स्वातिहस्ता ज्येष्ठा श्रवणरेवती । एषु प्रेतक्रिया कार्या रविवारं विना बुधैः' । 4 अभिजित्यपि न कार्यः पुत्रकः 'अवद्दृअभिई न कायव्वो' इत्युक्तेः । 5 न जीवतीति शेषेषु जीवतीत्यर्थः । मूलेत्यादि, विवेकविलासे त्वेवम्—“मूलाश्लेषामघाः पूर्वात्रयं भरणिकाश्विनी । कृत्तिकार्द्रा विशाखा च रोहिणी दष्टमृत्युदाः ॥ १ ॥ " तथा - "तिथयः पञ्चमी षष्ठ्यष्टमी नवमिका तथा । चतुर्दश्यप्यमावास्याऽहिना दष्टस्य मृत्युदाः ॥ २ ॥ दष्टस्य मृतये वारा भानुभौमशनैश्वराः । प्रातःसन्ध्यास्तसन्ध्या च संक्रान्तिसमयस्तथा ॥ ३ ॥ " इत्यादि ॥ 6 अभिजिजातरोगस्य मासद्वयेन मृत्युरारोग्यं चेति वृद्धाः ।
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जैनज्योतिर्मन्यसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीयविमर्श कार्यद्वारम् । ७५ द्विदैवत्ये धनिष्ठाहस्तयोस्तथा ॥ ६५ ॥ भरणीवारुणश्रोत्रचित्राखेकादशाहतः । अश्विनीकृत्तिकारक्षोनक्षत्रेषु नवाहतः ॥ ६६ ॥ आदित्यपुष्याहिर्बुध्नरोहिण्यार्यमणेषु तु । सप्ताहादिह तारीया यदि स्यादनुकूलता ॥६॥
भुजङ्गस्थापना
ဝင်ဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝ
- 1 ताराया इति “शुक्लेऽप्यासूत्थिते रोगे" इत्युक्तः ॥ अत्र प्रसङ्गान्मृत्युज्ञानं लिख्यते-"आइच्चाइ धरे विभु अंगह, पनरहमाहि ठवे विणु अंगह । बारह बाहिरितस्स य दिज्जइ, जीवियमरण फुडं जाणिवह ॥१॥" रव्याक्रान्तभमादौ दत्त्वा भुजङ्गस्थापना कार्या तत्र ये ये ग्रहा येषु येषु मेषु स्युस्ते ते तेषु तेषु मेषु देयाः, ततोऽर्कभाद्रोगिनामभं यावद्गण्यते, यद्याद्यनाडीमध्ये प्रथमं १ नवमं ९ त्रयोदशं १३ एकविंशं २१ पञ्चविंशं २५ वा स्यात्तदा मरणं । यदि द्वितीयनाडीमध्ये द्वितीयं २ अष्टमं ८ चतुर्दशं १४ विशं २० षड्विंशं २६ वा स्यात्तदा बहुक्लेशः । यदि तु तृतीयनाडीमध्ये तृतीयं ३ सप्तमं ७ पञ्चदशं १५ एकोनविंशं १९ सप्तविंशं २७ वा स्यात्तदाऽल्पक्लेशः । शेषद्वादशभेषु आरोग्यम् । शुभाशुभप्रहवेधाच विशिष्य शुभाशुभं वाच्यम् । यतिवल्लमे त्वेवमेव चक्रमाामादौ दत्त्वा स्थाप्यमूचे-"आर्द्राद्यैः पञ्चदशभिस्त्रीणि त्रीण्यन्तरा त्यजन् । त्रिनाडिचके चन्द्रा १ क २ जन्म ३ वेधे न जीवति ॥१॥" त्रिनाडिकचक्रस्थापना यथा-(समीपस्थपत्रे विलोक्या) चन्द्रार्कजन्मेति, अयं भावः'सूर्येन्दोभं रोगिणश्चैकनाड्यां चेत्स्यान्मृत्यू रोगकाले नरस्य" इति । दिनशुद्धिग्रन्थे तु त्रयत्रयत्यागं विनाऽप्यादिचक्रस्थापनं फलं चैवमूचे, तथाहि-"आई अहा मिगं अंते मज्झे मूलं पइट्ठिअं । रविंदूजम्मनक्खत्तं तिविद्धो न ह जीवई ॥१॥" एतत्सूचितत्रिनाडिकचक्रस्थापना (समीपस्थपत्रे विलोक्या) ततश्च-"रविंदजम्मनक्खतं एकनाडीगया जया । तया दिणे भवे मचू ननहा जिणभासि ॥२॥" केऽप्यत्रैवमप्याहुः-"रोगिणो जन्मऋक्षस्य एकनाड्यां यदा रविः । यावदृक्षं रवे ग्यं तावत्कष्टपरंपरा ॥ १॥ रोगिणो जन्मऋक्षस्य एकनाड्यां यदा शशी । तदा पीडां विजानीयादष्टप्राहरिकी ध्रुवम् ॥ २॥ क्रूरग्रहास्तदाऽन्ये तु यदि तत्रैव संस्थिताः । तदाऽकाले भवेन्मृत्युः सत्यमीशानभाषितम् ॥ ३॥ एतैरन्यैश्व प्रकारैर्विभाव्य क्रूरग्रहदशेन्दुप्राति. कूल्यतिथ्यादिच्छेदादिभिर्यथाम्नायं रोगिणो मृत्युसमयो निर्णेयः ॥
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७६ जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ तृतीय विमर्शे कार्यद्वारम् ।
यतिवल्लभे त्रिनाडीचक्र स्थापना
ओ अमपूउ ह चिस्वावि अज्येम्पू उ श्रध
दिनशुद्धौ त्रिनाडीचक्र स्थापना
चिवा
भैषज्यमिष्टं मृगवारुणानुराधाधनिष्ठाश्रुतिरेवतीषु । पुष्याश्विनीराक्षसहस्तचित्रापुनर्वसुस्वातिषु देहपुष्यै ॥ ६८ ॥ स्नानमुल्लाघनस्येष्टं वारयोर्तेन्दु३ शुक्रयोः । ब्राह्मपौष्णोत्तर | श्लेषादित्यस्वातिमघासु च ॥ ६९ ॥ अभ्यंग - मर्ककुजजीवसितेषु पर्वसंक्रान्तिविष्टिषु विवर्जितयोगयुँग्मे । कुर्याद् द्विर्षैड्भुजर्ग दितिथिं शैर्ऋविश्वसंख्ये तिथौ च न कदाचन भूतिकामः ॥ ७० ॥ ६ भुञ्जीतान्नं नवं दत्त्वा शुभेऽह्नि ध्रुवचान्द्रभे । पुनर्वसुकर श्रोत्ररेवतीनां द्वयेषु च ॥ ७१ ॥ राजावलोकनं कुर्यान्मृदुक्षिप्रध्रुवोडुभिः । वासवनवणाभ्यां च सुधीः सर्वार्थसिद्धये ॥ ७२ ॥ गंज- वाजिकर्म नेष्टं रौद्रे पूर्वोत्तराँ विशाखासु । भरणित्रितयाश्लेषाद्वितयज्येष्ठाद्वयेषु तथा ॥ ७३ ॥ १० गंवां स्थानं च यानं च प्रवेशश्च न शस्यते । तिथौ भूताष्टदर्शाख्ये श्रोत्र
1
1 भैषज्यं रसायनादि । वारविशेषेऽनुक्तेऽपि सर्वत्र सौम्यवारा ग्राह्याः, इह त्वर्कोऽपि, भैषज्यस्य तत्रोक्तेः । एवं हय १ गर्जकर्म २ पशुविधि ३ नाटक ४ वापी ५ कूपा ६ ssरामा ७ बालनामस्थापन ८ वेश्मकरण ९ हयवाहन १० बीजोप्ति ११ नगरादितोरणोच्छ्रय १२ सुरपूजादि १३ सर्वमांगल्यकर्मखपि विशेषानुक्ते सौम्यवारा रविवारश्च ग्राह्या इत्यूह्यम् । 2 नीरुजीकरणस्य । पौर्णभद्रे बुधगुरू हर्ष प्रकाशे शनिश्च त्याज्या उक्ताः । 3 स्वास्थ्ये सति । 4 व्यतिपातवैधृत्योः । व्रणमुक्तस्य तु व्यतिपात विष्टयोरपि न स्नाननिषेधः उक्तं च ‘रविमन्दारवारेषु विष्टौ वा व्यतिपातके, स्नातव्यं व्रणमुक्तेन शशिन्यशुभतारके' । 5 एवमष्टौ भानि । 6 यो यस्य स्वामी । 7 शान्तिकदन्तकर्तनादि । 8 शान्तिकनीराजनादि । सामान्योक्तेऽपि चायं विशेषो दृश्यः । अश्विनी - पुनर्वसु-पुष्य - हस्तत्रयेषु गजानाम्, तथाऽश्विनी मृग पुनर्वसु पुष्यहस्त स्वातिधनिष्ठाशतभिषग्रेवतीष्वश्वानां च कर्म कार्यमिति । १ पशूनां । 10 बन्धनार्थं । 11 गोचरादौ । 12 गृहादौ । 13 चतुर्दशी ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवी या यामारम्भसिद्वौ तृतीयविमर्शे कार्यद्वारम् । ७७ चित्राधुवे च मे ॥ ७४ ॥ क्रयविक्रयौ न हि गवां हस्तज्येष्ठाश्विनीधनिष्ठाभ्यः । अन्यत्र पौष्णवारुणराधादित्यद्वयेभ्यश्च ।। ७५ ।। हलस्य वाहनारंभं न हि कुर्वीत कर्हिचित् । पूर्वासु कृत्तिकासार्पज्येष्ठार्द्राभरणीषु च ३ ॥ ७६ ॥ हलचक्रेऽर्कमुक्ताद्भात्रयं नेष्टं शुभं त्रयम् । त्यजेन्नव शुभाय स्युः कृषौ भानि त्रयोदश ॥ ७७ ॥ बीजोप्तौ प्रतिषिद्धानि पूर्वाभरणीशध श्र लक्ष्मीः T│
दंडिका, गवां हानिः
अ
भ
कृ
रे उपू स्वामिनो भयम्
| अश्विनीं भुक्तभं प्रकल्प्य
कल्पनया हल
र रो मृ आ
लांगल स्वामिनो भयम्
पु पु अ
उदर
लक्ष्मी अउपूमूज्ये
भरणीस्थार्क
चक्र स्थापना
यूप लक्ष्मी
द्वयम् । सार्पादित्यश्रुतिज्येष्ठाविशाखावारुणान्यपि ॥ ७८ ॥
मुख
गलुं
पुच्छ
ध्याँर्थदुःखेकृत्क्रमशः ॥ ७९ ॥ जलाशयं न कुर्वीताश्विनीभरणिमिश्रभैः । आजपादश्रुतिस्वाति भाग्यदारुणभैस्तथा ॥ ८० ॥
आअ म् पूउ ह चिस्वावि अमूपु उ श्र
त्रिनाडी कसर्पस्थापना
कृषिरूचे सूर्यर्क्षादिषु कुरसेन्द्वेग्निर्भूरसेन्दु- | मुखे युगैः । असुखंसुर्खमध्यँला भारतिरैतिम- पादद्वये
वामकरे उदरे
मस्तके
नेत्रद्वये
गुदे
गुह्ये
दंडिका
मपूउहचि कि
लक्ष्मी योत्र
कृषिपुरुषः
असुखं
दक्षिणकरे १ सुखं
मध्यमं
लाभः
३ अरतिः
१ | रतिः
६ मध्यमं
१ लक्ष्मीः ४ दुःखं
配管
1 ' तीक्ष्णेषु पशुं दमयेत् दारु (र) ण्यं न ध्रुवेषु संग्राह्यम् । पशुपोषणं विधेयं चरेषु दीक्षा रतं मृदुषु' । इति लल्लः । 2 पूर्व भद्रपदा । 3 भगदैवतं फल्गुनी । 4 आश्लेषादीनि ।
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७८ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । न वृक्षरोपणं कुर्यात्क्रूराऽदित्यवह्निभैः । अश्लेषामारुतज्येष्ठाधनिष्ठाश्रवणैरपि ॥ ८१ ॥ नृत्तं मैत्रे स्याद्धनिष्ठाद्वये वा, हस्तज्येष्ठापुष्यपौष्णो. ३ त्तरे वा । संधानाचं नाचरेकिं च मुक्त्वा, धिष्ण्यं क्रूरं दारुणं वारुणं
वा ॥ ८२ ॥ इति कार्यद्वारम् ॥ ७॥ इति वार्तिकानुसारेण तृतीयो विमर्शः समाप्तः।
॥ चतुर्थो विमर्शः॥४। प्रस्थानमन्तरिह कार्मुकपञ्चशत्याः, प्राहुर्धनुर्दशकतः परतश्च भूत्यै । सामान्यमांडलिकेभूमिभुजौं क्रमेण, स्यात् पञ्च सप्त दश चात्र दिनानि
सीमा ॥ १ ॥ श्रुतौ तदहरन्येार्धनिष्ठापुष्यपौष्णभे । तृतीये मैत्रमृगयो१० हस्ते तुर्येऽहनि व्रजेत् ॥ २ ॥ यात्री दिनतिथिताराबलशुद्धौ मृगकरानु__1 पुनर्वसु । 2 खाति । 3 नाटकं कर्तुं 'शिक्षितुं' वा प्रारभ्यते। 4 मदिरादिकं । 5 न कार्यम् ॥ 'रित्ततिहि असुइजोगे कूरविलग्गाइकूरवारे अ।आयरह कसिणपक्खे असुहे अन्नत्थ विवरीअं' ॥१॥ इति पूर्णभद्रोक्तः शुभाशुभकार्यसंक्षेपः, न चैतेषु कश्चिल्लमस्याग्रहः 'लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते' इति वक्ष्यमाणत्वात् । एतेष्वपि लग्नादरवतां किञ्चित्प्रदर्यते । 'सौम्यैर्दशमोपगतैर्लग्ने चन्द्रात्मजे गुरौ वापि । विद्याशिल्पारम्भौ जीवे. न्दुजवर्गगे चन्द्रे' ॥ 'बुधे विलग्ने शशिनि, ज्ञराशौ गुरुवीक्षिते । हिबुकस्थैः शुभैनित्यं काव्यं चारभ्यते बुधैः ॥' 'शीतांशी बुधराविस्थे शुमेषूदयवर्तिषु । मंत्रादिग्रहणं कार्य हित्वा पापग्रहोदयम् ॥ पित्र्येशयाम्यमूलेन्दुमेषु शुद्धेऽष्टमेऽपि च । वेतालसिद्धिः पाताले भृगौ से कुंभलग्नगे' ॥ 'हिबुकेऽर्के गुरौ लग्ने धर्मारंभो रवेर्दिने । गुरुशलमवर्ग वा शुभारंभास्तयोबले' ॥ धर्मारंभनन्द्यादिकाः । 'मोक्षार्थिनां च दीक्षा स्थिरोदये कर्मगे त्रिदशपूज्ये । पापैर्धर्मप्राप्तैर्बलहीनः प्रव्रजितयोगे॥' अत्र प्रवजितेति चतुरादिभिर्घहै रेकस्थानस्थैः प्रव्रज्यायोगः। तथा जन्मनि यत्र राशौ चन्द्रस्तद्राशीशोऽन्यग्रहैरदृष्टः सन् शनिं पश्येत्तदा प्रव्रज्यायोगः । यदि वा तद्राशीशं तथाविधं शनिः पश्येत्तदाऽपि प्रव्रज्यायोगः ॥ 'व्ययनैधनसंशुद्धौ सदृष्टोपचयोदये । सर्वारमेषु संसिद्धिश्चन्द्रे चोपचयस्थिते ॥' "इटपुंसो जन्मलम्माजन्मराशेर्वोपचयस्था ये राशयस्तेषु लग्नस्थेषु' 'प्रायः शुभा न शुभदा निधनव्ययस्था धर्मान्त्य. धीनिधनकेन्द्रगताश्च पापाः। सर्वार्थसिद्धिषु शशी न शुभो विलग्ने सौम्यान्वितोऽपि निधनं न शिवाय लग्नम्" इष्टपुंसो जन्मलग्नाजन्मराशितो वाऽष्टमं लग्नं कापि कार्ये न प्राह्यमित्यर्थः । विस्तरस्तु वार्तिकादवलोक्यः। 6 संसाध्यैकां यात्रा वीर्यादवहीयते प्रहः सर्वः' अत एकेन प्रस्थानेन एकैव यात्रा कार्या। 7 दिनेति "रयछन्न १ मन्भच्छन्नं २ पयंडपवणं ३ तहा सनिग्घायं ४ । सुरधणु ५ परिवेस ६ दिसादाहाइ ७ जुअं दिणं दुटुं॥१॥" इति हर्षप्रकाशे । अत्र दुटुंमिति प्रावृषं विनेति सर्वत्राभ्यूज़, एतद्रहितत्वे
दिनशुद्धिः स्यात् सौम्यवारेण वा । यदुक्तं-"गमनेऽर्कादयो वाराः क्रमशः कुर्वते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवी या यामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे गमद्वारम् । ७९ राधासु । आश्विनपौष्णधनिष्ठाश्रुत्यादित्यद्वये श्रेष्ठा ॥ ३ ॥ मध्या तु ध्रुवपूर्वाज्येष्ठाद्वयवारुणेषु यात्रा स्यात् । निन्द्यार्द्राभरणीद्वयचित्रात्रयसार्प - पैत्रेषु ॥ ४ ॥ नै दिवाद्ये ध्रुवमित्रैस्तीक्ष्णैर्मध्येऽथ लघुभिरन्त्येऽशे ॥ ३ अंशेष्विति रात्रेरपि मैत्रोचरैर्न भैर्यात्रा ॥ ५ ॥ सर्वदिग्द्वारकौ पुष्यहस्तौ मैत्राश्विनी युतौ । तावेव सर्वकालीनौ मृगश्रुतिसमन्वितौ ॥ ६॥ सप्त सप्त गमने वसुऋक्षादुतराप्रभृति दिक्षु शुभानि । वह्निवायुपरिघोऽत्र ६
3
फलम् । नैः स्व्यं १ धनं २ रुजं ३ द्रव्यं ४ जयं ५ चैव श्रियं ६ वधम् ७ ॥ १ ॥” इति व्यवहारसारे । राजादीनां तु रविवारोऽपि शुभ इति व्यवहारप्रकाशे । तथा-" पडिवइनवमठ्ठमिचउदसीसु गमणं करे न बुहवारे" इति हर्ष प्रक्राशे । यद्वा - " चैत्राद्या द्विगुणा मासा वर्तमानदिनैर्युताः । सप्तभिस्तु हरेद्भागं यच्छेषं तद्दिनं भवेत् ॥ १ ॥ श्रीदिन १ कलह २ श्चैव नन्दनः ३ कालकार्णिका ४ । धर्मः ५ क्षयो ६ जयश्चेति ७ दिना नामसदृक्फलाः ॥ २ ॥” इति यतिवल्लमे । तिथीति पक्षच्छिद्रावमफल्गुदग्धक्रूराख्यतिथीनां त्यागात्तिथिशुद्धिः पूर्णिमाऽपि च त्याज्या । यतः - ' :- " पूर्णिमायां न गन्तव्यं यदि कार्यशतं भवेत्” इति व्यवहारसारे । तारेति, यदुक्तं – “जन्माधानान्विता” इत्यादि । ताराबलं च यात्रायामवश्यं प्राह्यं । श्रेष्ठेति अभिजित्यपि यात्रा श्रेष्ठैव । यल्लल्लः- “अभिजिति कृतप्रयाणः सर्वार्थान् साधयेन्नियतम्" । विशेषस्तु - " दसमि तेरसि पंचमि बीअगो, भिगुसुओं गमणेऽतिसुहावहो । गुरु पुणव्वसु पुस्सविसेसओ, सयभिसा अणुराह बुहे तहा ॥ १ ॥” इति दिनशुद्धौ । तथा चन्द्रसत्कगोचरादेः शिवभुजगेत्याद्युक्तदिनरात्रिमुहूर्ताना लग्नस्यापि च बलं संभवे ग्राह्यमेव । यदुक्तं - "पहि कुसल लग्गि, तिहि कज्जसिद्धि, लाभं मुहुत्तओ होइ । रिक्खेणं आरुग्गं, चंदेणं सुक्खसंपत्ती ॥ १ ॥” इति दिन शुद्धौ । तथा - ' -"तिथ्यादिगुणाः सर्वे शुमेन लभ्यन्ते” इति लल्लः ॥
I
1 कृतप्रयाणोऽष्टाखेषु कदाचिन्न निवर्त्तते' इति व्यवहारसारे । नारचन्द्रे तु ज्येष्ठा' मूलयोः श्रेष्ठा, चित्राखातिश्रवणधनिष्ठासु मध्या, उत्तरात्रये तु निन्द्या यात्रा' इत्युक्तम्, विशेषस्तु 'अशु मे मे शुमे घत्रे दिवा यात्रादि साधयेत् । शुभे मे त्वशुमे घसे रात्रौ यात्रादिसाधयेत् ॥’ यतः ‘नक्षत्रं बलवद्रात्रौ दिने बलवती तिथि:' इति लल्लः । 2 धनहानिर्मृत्युर्वा नियतो भङ्गः पराजयश्चैव । यस्मादेभिः कालैः प्रायेण विवर्जयेत्तस्मात्' इति लल्लः । 3 एषु परिघो भदिक्शूलं च न स्यादित्यर्थः । 'श्रवणरेवत्यावपि सर्वदिग्द्वारके' इति नारचन्द्रे | 4 एषु 'नदिवाद्ये -' इत्यादि न प्रयोज्यम् । दिनशुद्धिकारस्तु 'सव्वदिसि सव्वकालं रिद्धिनिमित्तं विहारसमयम्मि । पुस्सस्सिणि मिगहत्थारेवइसवणा मुणेयव्वा' ॥ इत्याह । 5 विदिग्यात्रा तु 'यायात् पूर्वद्वारभैरभिकाष्ठां प्रादक्षिण्येनैवमांशा विपूर्वाः' इति दैवज्ञ - बल्लमे । आशा विपूर्वा इति विदिश इत्यर्थः । विशेषस्तु 'स्वामिनः सप्त भौमायाः क्रमतः
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८० जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविम शैं गमद्वारम् ।
न लंघ्यो, मध्यमानि तु मिथः स्वदिशो स्युः ॥ ७ ॥ उल्लंध्यः परिघोऽपि कुरो मृआपुपुअ
पूर्व
धश पूउरे अभ
उत्तर
वायव्य,
طا
दक्षिण
मपूउ ह चिस्वावि
kkah hak
लग्नबलतः शूलं तु भानां सदा, हेयं तच्च पुनः सुरेश्वरदिशि ज्येष्ठाम्बुविश्वोडुभिः, । राधावैष्णववासवाजपदभैर्याम्यां, प्रतीच्यां पुनर्ब्राह्वया मूल४ युजा, तथोत्तरदिशि स्यादर्यमर्क्षेण च ॥ ८ ॥
कृत्तिकादिषु । प्राच्यादौ तत्सनाथेषु तेषु यात्रा महाफला 'प्राच्यादिषु चरन् भानुः सप्तके कृत्तिकादिके । वितनोति दिशामस्तं यात्रा तासु कृता श्रिये ॥ द्वावपि पूर्णभद्रस्य ।
1 उल्लंघ्य इति एकान्तिकेषु कार्येषु परचक्रागमादिषु शुद्धे यातव्यदिङ्मुखे ग्रहबलोपेते यात्रालग्ने सति परिघलंघनं न दोषायेत्यर्थः । सदेति शूलनक्षत्रेषु सत्सु लग्नशुद्धावपि न गच्छेत्, यतो भशूलदोषः शुद्धलग्नेनापि न टलति । उक्तं च- - "त्यजेल्लनेऽपि शूलक्षं शूलर्क्षे नास्ति निर्वृतिः" इति व्यवहारप्रकाशे । सुरेश्वरदिशा पूर्वा अंबुविश्वोडुनी पूर्वोत्तराषाढे, यामी दक्षिणा । " पुव्वाइ जिउसाढा, धणिठपुव्वभद्द दाहिण दिसाए । रोहिणिमूलवराए, विसाह पुव्वफग्गुणुत्तरओ ॥ १ ॥” इति तु पूर्णभद्रः । पुष्ये प्रतीच्यां हस्त उदीच्यां च भशूलमिति तु नारचन्द्रे । यतिवल्लमे तु नक्षत्रकीला उक्ताः । तथाहि—“ज्येष्ठा १ भद्रपदा पूर्वा २ रोहिण्यु ३ तरफल्गुनी ४ । पूर्वादिषु क्रमात् कीला गतस्यैतेषु नागतिः ॥ १ ॥ औत्सुक्याद्यपि पूर्वोक्तदंडलंघन वर्जने । असमर्थ - स्तदाऽवश्यं दिक्कीलान् वर्जयेदिमान् ॥ २ ॥ लोके स्वेवमपि - " उत्तर हत्था, दखिण चित्ता, पुव्वा रोहिणि, सुणिरे पुत्ता । पच्छिम सवणा म करसि गमणा, हरिहरबंभ - पुरंदरमरणा ॥ १ ॥”
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ८१ शूलं सोमे शनौ च प्राग् , गुरौ दिक्शूल कोष्टक - विदिक्शूल कोष्टक दक्षिणतस्त्यजेत् । रवौ शुक्रे च | पूर्व । सोमशनि | अग्नि रवि गुरु वारुण्यामुत्तरेण कुजज्ञयोः॥९॥ | दक्षिण | गुरु | नैर्ऋत्य सोम शुक्र ३ आग्नेय्यादिविदिक्शूलं क्रमादा- पश्चिम रवि शुक्र | वायव्य मंगल शनि दित्यजीवयोः । शीतांशुशुक्रयोभौं- | उत्तर मंगल बुध ईशान बुध ममन्दयो य च त्यजेत् ॥ १० ॥ दिक्शूलध्वंसि बन्देत चन्दैनं दधि । मृत्तिकाम् । तैलं पिष्टं च सर्पिश्च खलं वा(चा)र्कादिषु क्रमात् ॥ ११ ॥ स्यांद्योगिनी शक्रंकु- | योगिन्याः कोष्टकम् || मतान्तरे योगिन्याः कोष्टकम् बेरेवह्निरक्षोऽन्त- | दिशा | तिथि || दिशा कृष्णपक्षनीतिथी शुक्लपक्षनी ९ काँप्प्यत्यनिलेशदि. | पूर्व । १-९ ॥ पूर्व । १-६-११ १-६-११ क्षु । यातुर्न भव्या उत्तर २-१० दक्षिण | २-७-१२
२-७-१२ प्रतिपन्नवम्यादितो | अग्नि । ३-११ | पश्चिम | ३-८-१३ ३-८-१३/१२ विना पश्चिमवाम- | नैर्ऋत्य
उत्तर भागौ॥१२॥ पाशो | दक्षिण अधोदिशि १० ५-१५ मासस्येष्टस्तिथिरष्ट- | पश्चिम | ६-१४ । ऊर्ध्व दिशि ५-१५ १० ], हृतावशिष्ट ऐन्या- | वायव्य । ७-१५ दौ । तत्संमुखस्तु | ईशान | ८-३०
|४-१२
| ४-९-१४
४-९-१४
। ५-१३
१७
1 विदिशोऽपि ग्राह्याः । 2 तिलकं कुर्यात् । 3 यदा च यदिशि योगिनी तदा दक्षिणपार्श्वस्थविदिशिकरे कत्रिका वामपार्श्वस्थ विदिशिकरे तु कर्परं, तास्तिस्रोऽपि च दिशो युद्धादौ पृष्ठत एव शुभा इत्याहुः । उक्तं च व्यवहारप्रकाशे-“योगिनि(नी) देवी पृष्ठे दक्षिणवामे स्थिता विजयदात्री । संमुखसंस्था युद्धे पराजयं नाशमादत्ते ॥१॥" विशेषस्तु-अवश्यकर्तव्ये गमनेऽस्या दृगेव संमुखी त्याज्या, सा चैवं-"ऊर्च तिथि १५ मितनाच्यो दश चाधो १० वाम १० दक्षिणे पार्श्व । घटिकाः पञ्चदशापि च १५ योगिन्याः संमुखी दृष्टिः ॥ १॥" इति नारचन्द्रे । तथा तत्कालयोगिन्यवश्यं त्याज्या, सा चैवम्-"दिणदिसि धुरि चउ घडिआ पुरओ पुव्वुत्तदिसिसु अणुकमसो। तत्काल जोइणी सा वजेअव्वा पयत्तेणं ॥ १॥” इति दिनशुद्धौ । अत्र दिणदिसि धुरि त्ति यदा यद्वर्तमानदिनं तस्य या या दिक् प्रोक्ता तस्यां तस्यां दिशि धुरि प्रभाते योगिनी वसति, तदनु यथाक्रमोक्तासु शेषदिक्षु भ्रमति, ततोऽयं भावः-प्रतिपदि प्राच्यां प्रथमं यामाध वसति शेषा
जै० ११
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८२ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंप्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । कालः स तु दक्षिण एव सौख्याय ॥ १३ ॥
पाशस्थापना
११
ऊर्व
पूर्व आग्नेयी दक्षिण | नैर्ऋत्य पश्चिम वायव्य | उत्तर ईशान
| १० शु.१ । २ ११ । १२ । १३ । | १४ | १५ | कृ. १
कालस्थापना पश्चिम वायव्य | उत्तर ईशान पूर्व आग्नेयी दक्षिण नैर्ऋत अधः कृ. ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ | १३
शु. १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० । ११ । १२ । १३ | १४ | १५ | कृ. १| २ |
* राहुचार स्थापना अहोरात्रे द्विरावृत्तिः राहुरईसंमुखवामोऽष्टसु यामार्धे
ईशान ४ । पूर्व १ आमेयी ६ ३ध्वहर्निशं (मुखात् । क्रमशः
उत्तर ७ अर्धप्रहर । दक्षिण ३ षष्ठ्यां षष्ठ्यामिष्टः प्राच्यादिषु प्रचरन् ॥ १४ ॥
| वायव्य । पश्चिम नैऋत्य
२
१ * जामद्धे राहुगई पू १ वा २ दा ३ ई ४ प ५ आ ६ उ ७ नै ८ दिसासु सूत्तरामेय्यादियथोक्तं क्रमाच्छेषाणि यामार्धानि । एवं द्वितीयायां प्रथमं यामार्धमुत्तरस्यां, शेषाण्याग्नेय्यादिप्राच्यन्तसप्तदिक्षु इत्यादि । एवं चाहोरात्रेण दिगष्टकेऽस्या द्विरावृत्तिः ॥
1 कालः। 2 पाशस्तु वामे । 'कुन्जा विहारि वामो पासो कालो अ दाहिणओ' इति दिनशुद्धौ । वास्तुविद्याविदस्वाहुः-"शुक्ल प्रतिपदादितिथिचतुष्के पूर्वाग्नेय्यादिदिक्चतुष्के पाशः, पञ्चम्यामूर्ध्वम् । ततः षष्ठ्यादितिथिचतुष्के पश्चिमवायव्यादिचतुर्दिक्षु पाशः, दशम्यां बधः । पुनरेकादश्यादितिथिचतुष्के पूर्वाग्नेय्यादिचतुर्दिक्षु राकायां तूर्ध्वम् । पुनः कृष्णप्रतिपदादितिथिचतुष्के पश्चिमवायव्यादिचतुर्दिक्षु पाशः, पञ्चम्यां वधः । एवमेव तृतीयाऽप्यावृत्तिर्वाच्या । तत्संमुखश्च सदापि काल इति अत एव पूर्णातिथिषु प्रासादादेः खातध्वजारोपादि तैर्नेष्यते, अध ऊर्च वाऽप्यस्य कालस्य वाऽवश्यसंभवादिति” । तथा"दिणवार पुव्वाईकमेण संहारि जत्थ ठाणि सणी । कालं तत्थ वि माणसु तस्समुहु पास भणइ इगे ॥१॥" इति ज्योतिषसारे । अत्रेशानवर्ज गणनीयं, ईशगृहत्वेन तत्र कालस्य प्रवेशाभवनादिति ते प्राहुः । एषां मते वारप्रतिबद्धावेव कालपाशौ, न तिथिप्रतिबद्धौ ॥ 3 यातां पृष्ठतो दक्षिणतश्च । 4 प्रभातात् ।
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ८१
मेष सिंह धन
पूर्व
चन्द्रश्चरति पूर्वादौ क्रमात्रिर्दिक | चतुष्टये । मेषादिष्वेव यात्रायां | संमुखस्त्वैतिशोभनः ॥ १५ ॥
कर्क वृश्चिक मीन
उत्तर
चन्द्रचार यंत्र
दक्षिण
वृषभ कन्या मकर
रविद्वौं द्वौ तु पूर्वादौ यामौ राज्यन्ययामतः । यात्रास्मिन् दक्षिणे वामे ४
1 दिनशुद्धौ बस्य शुक्रवत्रिविधमपि संमुखत्वं ग्राह्यमुक्तं यथा 'उदयवसा १ अहवा दिसि २ दारभवसओ ३ हवइ ससी समुहो । सो अभिमुहो पहाणो गमणे अमियाई परिसंतो ॥' 2 उक्तं च नारचन्द्रे 'जयाय दक्षिणो राहुर्योगिनी वामतः स्थिता । पृष्ठतो द्वयमप्येतचन्द्रमाः संमुखः पुनः' अतिशब्दाद्दक्षिणोऽपीन्दुः शुभः यथा नारचन्द्रटिप्पनके 'संमुखीनोऽर्थलाभाय दक्षिणः सर्वसंपदे । पश्चिमः कुरुते मृत्यु वामश्चन्द्रो धनक्षयम् ॥ 3 राम्यन्त्येति रात्रेरन्त्यं दिनस्य प्रथमं यामं चार्कः प्राच्यां तिष्ठति, दिनमध्यमयामौ तु दक्षिणस्याम्, दिनान्त्ययाम राव्याद्ययामं चापरस्याम्, रात्रेमध्यमयामौ तूदीच्याम् । नारचन्द्रे तु सर्वग्रहाणामुदयसमयादारभ्य भ्रमणवशादष्टदिक्स्पर्शनमूचे । तथाहि"खस्योदयस्य समयात्पूर्वयामादितः क्रमात् । संचरन्ति ग्रहाः सर्वे सर्वकालं दिगष्टके ॥१॥" यात्रेति दक्षिणेऽर्के यात्रा कृता शुभा । यल्लल्लः-"न तस्याहारको विष्टिर्न शनैश्वर भयम् । व्यतीपातो न दुष्येच यस्यार्को दक्षिणस्थितः ॥ १॥" नक्षत्रसमुच्चयेऽप्यत एवोक्तम्-"पूर्वाह्न चोत्तरां गच्छेत् प्राच्या मध्यंदिने तथा । दक्षिणामपराह्ने तु पश्चिमामर्धरात्रके ॥१॥" एवं गमनेऽर्को दक्षिण एव स्यादिति भावः । लल्लः पुनरपि चन्द्रार्कवारानुकूल्यमेवमाह-"रविशशिकरप्रदीपां मकरादावुत्तरां च पूर्वा च । यायाच कर्कटादौ याम्यामाशां प्रतीची च ॥ १॥ अयनानुकूलयानं हि तमन्द्वोर्द्वयोरसंपत्तौ । धुनिशं प्रगृह्य यायाद्विपर्यये क्लेशवधबन्धाः॥२॥" अनयोरर्थः-यदाऽन्दू मकारादिषट्के उत्तरायणे स्वः तदा पूर्वामुत्तरां च सर्वदा गच्छेत् । यदा च ती कर्कादिषट्के दक्षिणायने खस्तदा दक्षिणां पश्चिमां च सर्वदा गच्छेत् । सर्वदेवि कोऽर्थः ? दिवा रात्रौ चेति । अर्केन्द्वोरेकायनासंभवे तु यथासंख्यं दिवानिशं गच्छेत् । अयमर्थःयदाऽर्को मकरादौ तदा दिने उत्तरां पूर्वा च गच्छेत् , यदा कर्कादौ तदा दिने दक्षिणां पश्चिमां च गच्छेत् । एवं चन्दे मकरादिस्थे रात्रावुत्तरां पूर्वा च गच्छेत् , कर्कादिस्थे तु रात्रौ दक्षिणां पश्चिमां च गच्छेदिति । विपर्यये लशुभं कोऽर्थः ? रवीन्द्रोर्मकरादि
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८४ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गंमद्वारम् । प्रवेशः पृष्ठगे द्वयम् ॥ १६ ॥ 'हंसेऽन्तरा विशति दक्षिणतोऽथ पृष्ठे,
कृत्वा रविं प्रवहनाडिपदं पुरश्च । सिद्ध्यै बजेदथ विजेतुमना विपक्ष३ पक्षं स्वतस्तु विदधीत विना न पक्षम् ॥ १७ ॥ शुक्रस्तु यत्रोदयति
स्थयोदक्षिणापश्चिमे यदि गच्छेत् कर्कादिस्थयोश्चोत्तरापूर्वे यदि गच्छेत् , तदा सूर्ये मकरादिस्थे दिवा दक्षिणापश्चिमे यदि गच्छेद्, चन्द्रे वा कर्कादिस्थे रात्रावुत्तरापूर्वे यदि गच्छेत्तदा यातुधबन्धादिदोषाः ॥ ___ 1 अध्यात्मशास्त्ररीत्या हंसः प्राणवायुस्तस्मिन् विशति सति न तु निःसरति सति । यदाहुराध्यात्मिका:-"षट्शताभ्यधिकान्याहुः सहस्राण्येकविंशतिम् । अहोरात्रे नरे वस्थे प्राणवायोगेमागमः ॥१॥" प्रवहा प्रविशत्पवना पूर्णा नाडी नासारन्ध्ररूपा यस्य स्यात्तत्पदं वामं दक्षिणं वाऽहिं पुरः कृत्वा च सिद्धयै कार्यस्येति शेषः । उक्तं च विवेकविलासे-"दक्षिणे यदि वा वामे यत्र वायुर्निरन्तरः । तं पादमग्रतः कृत्वा निःसरेन्निजमन्दिरात् ॥१॥ न हानिकलहोद्वेगाः कंटकैर्नापि भिद्यते । निवर्तते सुखेनैव क्षुद्रोपद्रववर्जितः ॥ २ ॥ दूरदेशे विधातव्यं गमनं तुहिनद्युतौ । अभ्यर्णदेशे दीप्ते तु तरणाविति केचन ॥ ३ ॥" अत्र तुहिनेति वामदक्षिणनाज्योः क्रमाचन्द्रसूर्यसंज्ञेयम् । विशेषस्तु-"दक्षिणनाड्यां पूर्णायां विषमपदैः १-३-५-७-९ गन्तव्यम् , प्रतीचीदक्षिणयोश्च न गन्तव्यम् । वामायां तु पूर्णायां समपदैः २-४-६-८-१० गन्तव्यम् , पूर्वोत्तरयोश्च न गन्तव्यमिति" खरोदयविदः । व्रजेदिति प्रस्तुतहंसचारादिशुद्धौ सत्यां जिनं प्रदक्षिणीकृत्य व्रजतो विशिष्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् । उक्तं च यतिवल्लमे"प्राणप्रवेशे वहनाडिपादं, कृत्वा पुरो दक्षिणमर्कबिम्बम् । प्रदक्षिणीकृत्य जिनं च याने, विनाप्यहःशुद्धिमुशन्ति सिद्धिम् ॥ १॥" उपलक्षणवाच्च प्रवेशेऽप्ययमेव विधिः । यदुक्तं दिनशुद्धौ-"पुन्ननाडिदिसापायं अग्गे किच्चा सया विऊ । पवेसं गमणं कुज्जा कुणंतो साससंगहं ॥ १॥" अथ विजेतुमना इति अरिं जिगीषुः सन् अर्थात्तमेव खतः सकाशात् आनो वायुस्तस्य पक्षं पार्श्व विना, एतावता शून्यपाधं कुर्यात् । केचित् वितानपक्षे इति पेठस्तत्र वितानशब्दः शून्यार्थः । कोऽर्थः ? रिक्तेऽङ्गे रिपुः कार्यों, न तु पूणे, यथा सुखाजीयते अर्थाच्चेष्टवर्गः पूर्णाङ्गे कार्यः । उक्तं च विवेकविलासे"अरिचौराधमर्णाद्या अन्येऽप्युत्पातविग्रहाः । कर्तव्याः खलु रिक्ताङ्गे जयलाभसुखार्थिभिः ॥ १॥ गुरुबन्धुनृपामात्या अन्येऽपीप्सितदायिनः । पूर्णाङ्गे खलु कर्तव्याः कार्यसिद्धिमभीप्सता ॥ २ ॥” दक्षिणतोऽथ पृष्ठे कृत्वा रविमित्येतदत्रापि योज्यम् । यदुक्तं यतिवल्लभे-“वहनाडिगतो वाच्यो दक्षिणेऽर्केऽर्थलब्धये । रिक्तनाडीगतः शत्रुर्जीयते पृष्ठगे रवौ ॥१॥" 2 शुक्रो यत्रेति यस्यां दिशि प्राच्या प्रतीच्यां वोदेति तद्दिशि यातां संमुखः स्यादित्यग्रे योज्यम् । भ्रमन् वेति यथा रवेर्धमणवशाच्चतुर्दिक्स्पर्शनमूचे तथा शुक्रोऽपि भ्रमन् यस्याः प्राच्यादिदिशो यां दिशं याति यदा मेषाद्याश्चत्वारश्चत्वारः पूर्वाद्या.
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ८५
भ्रमन् वा, यां याति यद्द्वारकमेति भं वा । इत्थं त्रिधा तदिशि संमुखः स्वात्त्याज्यस्तु तत्रोदयसंमुखीनः ॥ १८ ॥ प्रतिशुक्रं त्यजन्त्येके यात्रायां त्रिविधं बुधाः । तस्मात्प्रतिकुजं कष्टं ततोऽपि प्रतिसोमजम् ॥ १९ ॥३
श्चतस्रश्चतस्रो दिश इति तेषु भ्रमन् प्राप्त इत्यर्थः । यद्वारकमिति परिघचक्रोक्तरीत्या यदिग्द्वारकं भं समेतीति त्रिधा संमुखत्वभवनेऽपि शुक्रस्योदयदिगेव प्राची प्रतीची वा संमुखी त्याच्या । विशेषस्तु-दक्षिणोऽपि शुक्रस्त्याज्यः । यदुक्तं नारचन्द्रे-"अप्रतो लोचनं हन्ति दक्षिणो ह्यशुभप्रदः । पृष्ठतो वामनश्चैव शुक्रः सर्वसुखावहः ॥१॥" केचित्-"पोष्णाश्विनीपादमेकं यदा वहति चन्द्रमाः । तदा शुक्रे(को) भवदन्धः संमुखं गमनं शुभम् ॥१॥" इत्याहुः। अस्य पूर्वार्ध-'अश्विन्या वह्निपादान्तं यावच्चरति चन्द्रमाः" इत्येके पठन्ति । तथा "काश्यपेषु वशिष्टेषु भृग्वव्याङ्गिरसेषु च । भारद्वाजेषु वात्स्येषु प्रतिशुक्रं न विद्यते ॥ १॥ एकग्रामे पुरे वापि दुर्भिक्षे राष्ट्रविभ्रमे । विवाहे तीर्थयात्रायां वत्सशुक्रौ न चिन्तयेत् ॥ २ ॥ स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विभ्रमे तथोद्वाहे । नववध्वागमने च प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ॥ ३ ॥” इति लल्लः । अत्र खभवनेति स्वभावेन गृहप्रवेशमात्रे, न तु नव्यगृहप्रवेशोऽत्र ग्राह्यः, तत्र प्रतिशुक्रं त्याज्यमिति वक्ष्यमाणखात् । तथा शुक्रस्य बाल्यवार्धकवनीचत्खास्तमितत्ववक्रगामित्वग्रहपराजितवादिष्वपि सत्सु यात्रा दुष्टा, "याने शुक्रः सबलोऽन्वेष्य' इत्युक्तः । तथा च रत्नमालायाम्-"नीचगे ग्रहजितेऽथ विलोमे, भार्गवे कलुषितेऽस्तमिते वा । प्रस्थितो नरपतिः सबलोऽपि, क्षिप्रमेव वशमेति रिपूणाम् ॥ १॥" शुक्रस्योदयास्त दिनसंख्या चौत्सर्गिक्येवं नारचन्द्रटिप्पनके"प्राच्यां भृगुर्जलधितत्त्व २५४ दिनानि तिष्ठेत् , तत्रास्तगस्तु नयनाद्रि ७२ दिनान्यदृश्यः । तिष्ठेच्च षोडशकृति २५६ दिवसान् प्रतीच्यामस्तंगतस्विह स यक्ष १३ दिनान्यदृश्यः॥१॥" तथा खजन्मनक्षत्रनाथेऽप्यस्तमिते यात्रा दुष्टेति दैवज्ञवल्लभे ॥
1 संमुखोऽप्यनिष्टवात् प्रतिकूलशुक्रः प्रतिशुक्रः, एवमग्रेऽपि । त्रिविधमिति इदमपि मतं ग्रन्थकृतः संमतं, तेन यत्प्रागुक्तं त्याज्यस्तु तत्रोदयसंमुखीन इति तदैकान्तिककार्यविषयं सौस्थ्ये तु यथाशक्ति त्रिविधमपि संमुखत्वं त्याज्यमिति द्रष्टव्यम् । तथा चोकं दैवज्ञवल्लभे-"धनिष्ठादिकमश्लेषापर्यन्तं भगणं भृगुः । यदा चरति नोदीची न प्राची च तदा व्रजेत् ॥ १॥ मघादिश्रवणान्तानि भानि शुक्रो यदा चरेत् । नापाची न प्रतीची च तदा गच्छेजिजीविषुः ॥ २॥" तस्मात् प्रतिकुजमिति शुक्रादपि भौमः संमुखः कष्टदत्त्वात्कष्टः, तमपि त्रिविधं त्यजन्तीति योगः । तस्मादपि सोमजो बुधः संमुखः कष्टः । उक्तं च दैवज्ञवल्लमे-"प्रतिशुक्रेऽपि निर्गच्छेदनुकूलो बुधो यदि । गतः प्रतिबुधेनान्यैः शक्यते रक्षितुं ग्रहैः ॥१॥" शुक्रवद्भौमबुधयोरपि संमुखत्वं दक्षिणभुजस्थत्वं च त्याज्यमिति त्रिविक्रमः । बुधः संमुख एव त्याज्य इति तु रनमालाभाष्ये ॥
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८६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । वत्सः प्राच्यादिषूदेति कन्यादित्रित्रिगे रवौ । प्रवासवास्तुद्वारा प्रवेशाः २ संमुखेऽत्र न ॥२०॥'संमुखोऽयं हरेदायुः पृष्ठे स्याद्धननाशनः । वाम
१०।१५ ३० १५ | १० 12 कन्या तुल वृश्चिक
उत्तर
१०१५/३०/१५/१०
वत्सचार तथा
वत्सनी
स्थितिनुं चक्र
नमकर कुभ १०/१५/३०/१५/१०
दक्षिण
3
876
-
ARIA ___ 1 प्रवासो दूरदेशयात्रा, वास्तु गृहादि, तस्य द्वारं न निवेश्यते, अर्च्यते इत्यर्चा जिनादिप्रतिमा तस्याः प्रवेशो धनिकगृहानयनम् । अत्रेति वत्से । नारचन्द्रटिप्पनके वत्सरूपमेवं प्रोचे-"वपुरस्य शतं हस्ताः शृङ्गयुगं षष्टिसंयुता त्रिशती । पन्नाभिपुच्छ. शिरसां भूप १६ नव ९ त्रि ३ शर ५ करमानम् ॥१॥" स्थापना पृ०८७ । विशेषस्तु"पञ्च १ दिक् २ तिथि ३ सत्रिंश ४ तिथि ५ दिक् ६ शरवासरान् ७ । वत्सस्थितिर्दिक्चतुष्के प्रत्येक सप्तभाजिते ॥१॥" तथैव स्थापनाऽस्मिन्पृष्ठे, इदं ज्योतिषसारे। केचिद्वत्सस्य वास्तुसंज्ञामाहुः ॥ 2 इह प्रसङ्गात् शिवचक्रं लिख्यते यथा-मेषेऽर्कादुत्तरादौ दिशि विदिशि शिवो मासमेकं तथा द्वौ, संहत्या संस्थितो द्विभ्रमति भृशमहोरात्रमध्ये तु सृष्ट्या। अध्यर्धे नाडिके द्वे दिशि विदिशि घटीपञ्चके चैष तिष्ठन् , चन्द्रादेः प्रातिकूल्यं हरति किरति शं दक्षिणः पृष्ठगोऽसौ ॥१॥ अत्र चन्द्रादेरित्यादिशब्दात्ताराणामवस्थानां चेत्यूह्यम् । शिवचारस्थापना पृ० ८७ । इयं च स्थापना स्थूलमानेन । सूक्ष्मेक्षिका पुनरेवम्"संक्रान्तेराद्यघस्रे खदिशि शर ५ पलान्येष भुक्त्वा भ्रमाभ्यां, पश्चात्सृष्ट्या तटस्थां दिशमटति दशैवं पलान्यन्य घने । वृद्धिः पञ्चोत्तरैवं प्रतिदिवसमहो तावदेतस्य यावत् , संक्रान्तेरन्त्यघस्ने स्थितिरधिककुभं सार्धनाडीद्वयं स्यात् ॥ २ ॥" अत्र भ्रमाभ्यामिति अहोरात्रेण तावत् शिवो द्विर्धमति । तत्र प्रथमभ्रमणे सार्धपलद्वयं खदिशि तिष्ठति, द्वितीयंभ्रमणेऽपि पुनरपरं सार्धपलद्वयं, एवं पलपञ्चकं संक्रान्तेः प्रथमदिने भ्रमणद्वयेन खदिशि शिवः स्थित्वा ततः सृष्ट्याऽन्यदिशि याति, एवं द्वितीयदिनेऽपर पलपश्चकमिति दश
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जैमण्योतिर्मन्यसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ८७
पूर्व
हस्ताः १०० | ३६० | १६ । ९ । ३ । ५ ।
देहः । भंगे | पदाः नाभिः पुच्छं शीर्ष । दक्षिणयोः किंतु वत्सो वाञ्छितदायकः ॥ २१ ॥ उत्सवमशनं स्नानं १ रविचार चक्र
राहुचार चक्र अन्येऽर्कादिसर्वग्रहाणां मीन मेष वष7 वत्सवद्गृहाण्येवमाहुः
न मकरकुंभ 'मीनादित्रयमादित्यो
वत्सः कन्यादिकत्रये h धन्वादित्रितये राहुःE
शेषाः सिंहादिकत्रये'। ARBIDDIN अत्र पूर्वा दिदिक्षु वसH
न्तीति शेषः ।
उत्तर धन मकरकुंभ
कन्यातुला वृश्चिक
मीनमेषवषः
दक्षिण
ईशान घडी२॥
सनी
पव
चन्द्र मंगळ बुध गुरु शुक्र शनिचार चक्र
पूर्व सिंह कन्यातुला
अग्नि | घडी २॥
अग्नि घडी २॥
मकरेऽर्कः घडी २॥
ईशान घडी २॥
उत्तर
वृषमिथुन कर्क/
वृश्चिक धनमकर/
दक्षिण
उत्तर मेषेऽर्कः घडी २॥
शिवचार चक्र
घडी २॥ तुलार्कः दक्षिण
घडी २॥ वायव्य
नैर्ऋत्य घडी २॥
मा
कर्केऽर्कः घडी २॥ पश्चिम
नैर्मत्य
वायव्य घडी २॥
घडी २॥
पलानि स्थितिः। एवमेव तृतीयदिने पञ्चदश पलानि । एवं प्रत्यहं पञ्च पञ्च पलानि तावद्वर्धनीयानि यावत्संक्रान्तेश्वरमे त्रिंशे दिने सार्धशतपलैः साधं घटीद्वयं पूर्ण शिवस्य खदिशि स्थितिः स्यात् । तदनु पुनः संहारेण द्वितीयदिश्यप्यागतस्यायमेव क्रमो ज्ञेयः । “विवादे शत्रुहनने रणे झगटके तथा । द्यूते चैव प्रवासे वा पृष्ठे मुष्टौ शिवे जयः॥३॥ स्वराश्च शकुना दुष्टा भद्रा ग्रहबलं तथा। दिग्दोषा योगिनीमुख्या अभयाः स्युः शुमे शिवे ॥४॥" तथा-"सूर्यराश्यादितः सव्ये लग्नं तत्कालसंभवम् । पृष्ठदक्षिणगं कृत्वा जयेद्युद्धे न संशयः ॥१॥ अस्यार्थः-यत्र राशावर्कोऽस्ति तत्पूर्वस्यां दत्त्वा तत आरभ्य सृष्ट्या गण्यते, ततश्च तदानीं यद्वर्तमानं लमं स्यात्तत् पृष्ठतो दक्षिणतो वा कृला युद्धादि कुर्वन् जयी स्यात् ॥
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८८ जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । प्रेगुणं चोपेक्ष्य मङ्गलमशेषम् असमापिते च सूतकयुगेऽङ्गनत्तौ च नो यायात् ॥ २२ ॥ अवमन्य माननीयान्निर्भर्त्य स्त्री च कमपि संताड्य । ३ बालमपि रोदयित्वा जिजीविषु व निर्गच्छेत् ॥ २३ ॥ क्षुतगृहकलहज्वलनौतुयुद्धदुर्वचनवसनसङ्गाद्यम् । अशुभं यात्रावसरे शुभमपि शकुनागमाद्विन्द्यात् ॥ २४ ॥ आकालिकीषु विद्युद्गर्जितवर्षासु वसुमतीनाथः । ६ उत्पातेषु च भौमान्तरिक्षदिव्येषु न प्रसवेत् ॥ २५ ॥
लग्नस्य दिग्मुखचक्रम्
पूर्व यातव्यं दिग्मुखे लग्ने सिद्ध्यै शीर्षोदये मेष सिंह धन
तथा। एतद्विलोमयोर्जातु यात्रा यातुन ९ सिद्धये ॥२६॥ जन्मलग्ने शुभा यात्रा
जन्मराश्युदये तु न । तयोश्वोपच"यस्थेषु राशिष्विष्टा परेषु न॥२७॥
उत्तर
कर्क वृश्विक मीन
वृष कन्या मकर
दक्षिण
1 प्रगुणलं सर्वेषु योज्यम् । उत्सवः कौमुद्यादिः । स्नानमुल्लाघनस्य सामान्येन वा । मगलं विवाहपुत्रान्नप्राशनादि । सूतकयुगं जातमृतसूतकभेदात् ॥ 2 अत्रैतदपि लल्लोक्तं लक्ष्यम्-"प्रमत्तो व्याधितो भीतः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः । अध्वानं न प्रपद्येत क्लीबवेषस्तथैव च ॥१॥ रात्रौ तु मैथुनं कृत्वा प्रभाते योऽभिगच्छति । यात्राकालेऽथवा प्राप्ते मैथुनं यो निषेवते ॥ २॥ यो वा प्रस्थानके गत्वा पुनर्ग्रहमुपागतः । इत्येवमादिचेष्टाभिः सिद्धिर्नास्त्यभिगच्छतः ॥ ३ ॥" 3 आकालिक्योऽकालजाः गर्भ वर्षाकालं वा विना संजाता इत्यर्थः । वसुमतीनाथ इति उपलक्षणवात्सामन्तादेराचार्यादीनां च ग्रहणम् । उत्पातेषु चेति चकारदाहुयोगिन्यावपि चिन्तयेदिति रत्नभाष्ये । भौमेत्यादि भौमो भूमिकम्पधडहडादिः । यच्च चराणां स्थिरत्वं स्थिराणां वा चरवं पुष्पफलादिवैकृतं वा स सर्वोऽपि भौम उत्पातः । आन्तरिक्षा उल्कानिर्घातपवनगन्धर्वपुरशकचापरोहितैरावत. परिवेषदंडपरिघादयः । दिव्याश्चन्द्रार्कोपरागादिग्रहःवैकृतकेतुदर्शनादयः । लालाटं धनुरैन्द्रं न शुभकृदन्यत्र शस्तफलमिति तु लल्लः । न प्रवसेदिति आ सप्ताहादिति दैवज्ञ. वल्लमे । एकाहं तु त्याज्यमेवेति सारंगः । दृष्टः केतुः षोडशाहं विवर्ण्यश्चैत्रे वैशाखे च दृष्टः शुभोऽसौ इति तु वराहः ॥ 4 यात्रायां लग्नं प्रायश्चरमेव ग्राह्यम् । 5 'अनिष्टदं दिक्प्रतिलोमलमं पृष्ठोदये वाञ्छितकार्यनाशः।' इति लल्लः। 6 जन्मलमे इति यात्राकर्तु.
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे गमद्वारम् । ८९
पापैरस्ताम्बुगैईष्टे युते वा जन्मलग्नभे । सौम्यग्रहैस्तु नैवं चेत्तदा यातुः पराभवः ॥२८॥ अष्टमं खेन्दुलनाभ्यां ताभ्यां षष्ठमथ द्विषः । तद्राशिनाथयुक्तं वा लग्नं यातुरनर्थकृत् ॥ २९॥ कर्कवृश्चिकमीनानामुदयेशे च न व्रजेत् । मूर्तिस्थेऽहर्बले रात्रौ रात्रिवीर्येऽह्नि च ग्रहे ॥३०॥ सिद्ध्यै सौम्येश-४
नृपादेर्यजन्मलग्नं तस्मिन् लग्ने यात्रा शुभा, एवमग्रेऽपि भाव्यम् । अनेन चेदं सूचयतिआदौ तावज्जनुर्लग्ने ज्ञाते सति यात्रालग्नं देयं, नान्यथा, यतो जन्मलग्ने ज्ञाते सति दशायुर्ग्रहबलान्यवलोक्य दत्तं यात्रादिमुहूर्त फलदं स्यात् । “अज्ञातजन्मनोऽप्यन्यैर्यानं योज्यमिति स्मृतम् । प्रश्नलग्न निमित्ताद्यैर्विज्ञाते सदसत्फले ॥ १॥" इति रत्नमालायाम् । अत्र यानं योज्यमिति यात्रालग्नं देयमित्यर्थः । जन्मराशीति जन्मनि योन्दुः स जन्मराशिः स एवोदयो लनं तत्र यात्रा न शुभा । रत्नमालायां तु जन्मराशिलग्नेऽपि शुभा यात्रेत्युक्तम् । तयोरिति जन्मलग्नजन्मराश्योरपेक्षया ये उपचयस्थास्त्रिषड्दशैकादशा राशयः परेषु द्वयोरप्यनुपचयस्थराशिषु यात्रा नेष्टा । विशेषस्तु-राशेर्जन्मराशिर्जन्मलग्नं वा तदधिपो वा तत्काललग्नाच्चतुर्थे सप्तमे वा स्थानके भवतस्तदाऽपि यात्राकर्तुर्जयः । यदि च शत्रुसत्कजन्मराशिजन्मलमयोरुपचयगृहाणि चतुर्थे सप्तमे वा स्युस्तदापि जय एवेति रत्नमालायाम् ॥
1 यात्रालग्नकुण्डल्याम् । विशेषस्तु यात्रासमये जन्मकुण्डलिकसंबधिनी अष्टमषष्ठभवने क्रूरसौम्यग्रहाधिष्ठिते अशुभे । यदुक्तं दैवज्ञवल्लमे 'वधः प्रयातुस्त्वरिभिः प्रसूतौ रन्ध्रादिमे क्रूरशुभान्विते चेत्' । 2 षष्ठमस्यापि । 3 नवांशे । आद्ययोःकीटत्वेन यात्रायामक्षमतादर्जनम् । मीने तु प्रस्थितो वक्रेण पथा भ्रान्वा भ्रान्वाऽसिद्धकार्यः समेति । 4 यात्रालग्नस्थे। 5 सिद्ध्यै इति कार्येष्विति शेषः । नौयानमिति जलचरलग्ने, उपलक्षणखाजलचरनवांशे वा नौयात्रासिद्धिः। प्रवहणपूरणे च निर्विघ्नतालाभौ स्यातां । वश्यतामिति, उक्तं हि दैवज्ञवल्लमे-"चतुष्पदा द्वयंहिवशा विसिंहाः, सरीसृपश्चाम्बुचरास्तु भक्ष्याः । सिंहस्य वश्या विसरीसृपाः स्युरूह्यं जनोकव्यवहारतोऽन्यत् ॥ १॥ स्थलाम्बुसंभूतसरीसृपाख्या, भवन्ति वश्या बलिना खकानाम् । समा द्युसंस्था विषमान् भजन्ते, वश्या रजन्यां विषमाः समानाम् ॥ २॥" अनयोरर्थः-अजवृषसिंहा धनुरपराध मकराद्याधं च चतुष्पदाः, मिथुनकन्यातुलाकुंभा धनुराद्याधं च मनुष्याः, कर्कमीनौ मकरपश्चाधं च जलचराः, सरीसृपो वृश्चिक इति । ततश्च सिंहं विनाऽन्ये मेषवृषवृश्चिककुंभा मानुषाणां वश्याः, जलचराः कर्कमकरमीना मनुष्याणां भक्ष्याः, सिंहस्य वृश्चिकं विना सर्वे वश्याः। अन्यदिति वृश्चिकस्य सिंहोऽपि वश्यः। सर्वे पुराशयः कन्याया वश्याः, धनुषः सर्वोऽपि वश्य इत्यादि । स्थलाम्बुसंभूतेति यदि द्वावपि राशी स्थलजौ जलजौ सरीसृपौ वा तदा द्वयोर्मध्ये यो बलिष्ठस्तस्यैतरो वश्यः,यथा वृषस्य मेषो वश्यः, मकरस्य मीनकौं वश्यौ, वृश्चिकस्यापरो वृश्चिको बलहीनत्वे सति वश्यः स्यात् , मेषद्वयवृषद्वयादीनां संभवेऽपि च
जै० १२
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९० जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । लग्नानि नौयानं जलभेष्वपि । जानीयाल्लोकतश्चात्र राशीनां वश्यतां मिथः
॥३१॥ जन्मकाले शुभैर्युक्ता द्वितीयास्तरणेश्च ये । निष्क्रूरा निर्विकाराश्च ३ ते लग्ने राशयः शुभाः॥३२॥ यच्च वश्यं स्वलग्नेन्द्वोर्न च वश्यं द्विषस्तयोः। शत्रोरेवाष्टमं ताभ्यां लग्नं यातुर्जयावहम् ॥३३॥ विमुक्ताक्रान्तभोग्यानि राश्यर्धान्युष्णरश्मिना । ऊर्ध्वतिर्यगधोमुख्यो होराः स्युरुदयावधि ॥३४॥ जयंमूर्ध्वमुखी होरा विपदस्तिर्यगानना । अधोमुखी रणे यातुर्भङ्गं दिशति ७ लग्नगा ॥ ३५ ॥ द्रेष्काणः फलरत्नाढ्यः शुभनाथः शुभेक्षितः । शुभोऽ
वृश्चिकवदेव बलाधिक्यं विचार्य वश्यता भावनीया । समा द्युसंस्था इति इष्टलग्नं किल दिवा स्यादात्री वा, तत्र दिवा समराशयो विषमराशीनां वश्याः, रात्रौ तु विषमराशयः समराशीनां वश्या इति । अस्य प्रयोजनं तु “यच्च वश्यं खलग्नेन्द्रोः" इति ( ३३ छंदसि ) वक्ष्यति ॥
1 सूर्याद्वितीयमृक्षं वेशिः' इति जातके संज्ञा । 2 क्रूरभुक्तराशिः सविकारः, चन्द्रेण भुक्तस्तु निर्विकारः। 3 यात्रालग्नम् । 4 या होराऽर्केण भुक्ता मुक्ता सा ऊर्ध्वमुखी, भुज्यमाना तिर्यमुखी, भोक्ष्यमाणा बधोमुखी, पुनस्तदनेतन्यस्तिस्रः क्रमादूर्वतिर्यगधोमुख्यः पुनस्तथैव तिस्रः क्रमादूर्वादिमुख्यः, एवं पुनः पुनरुदयावधीति सूर्योदयं यावत् । यद्वा उदयो लग्नं तत्राधिकृता होरेत्यर्थः, तं यावत् एवं त्रिविधा होराः कल्प्याः । एवं चाहोरात्रे चतुर्विंशतिहोरात्मके त्रिविधहोराणामष्टाष्टावृत्तयः स्युः ॥ 5 जयमिति एवं कल्प्यमाने सत्यभीष्टा लग्नहोरा ययूर्ध्वमुखी स्यात्तदा जयदा ॥ 6 राशौ राशौ यत्रयभावात् षत्रिंशद्रेष्काणाः स्युः, तेषु यः फलेन रत्नैरुपलक्षणखात्पुष्पै डैर्वाऽऽन्यः सौम्यस्वामिकः सौम्येन पूर्णदृशा दृष्ट एवं सौम्याकारो वा यः स्यात्स यात्रालग्ने शुभः । अशुभस्विति यस्तु शस्त्रसग्निभिर्युतः, केचित् पावकस्थाने पाशकं पठन्ति, तेन पाशैबन्धनैर्वा युतः, तथा क्रूरदृष्टः उपलक्षणत्वात् क्रूरयुतः क्रूरेशः क्रूराकारो वा सोऽशुभः । उक्तं च-"द्रेष्काणाकारचेष्टागुणसदृशफलं योजयेवृद्धिहेतोर्टेष्काणे सौम्यरूपे कुसुमफलयुते रत्नभाण्डान्विते च । सौम्यैदृष्टे जयः स्यात्प्रहरणसहिते पापदृष्टे च भङ्गः, सानो दाहोऽथ बन्धः सभुजगनिगडे पापयुक्तेऽपि वाऽश्रीः ॥ १॥" तेषां रूपाणि चैवं बृहजातके-मेषे प्रथमद्रेष्काणो नरोऽभ्युद्यतपशुहस्तः कृष्णो रक्ताक्षो रौद्रः १ । अयं द्रेष्काणो मनुष्य एव, विशेषानभिधानात् , एवं येषु विशेषो न वक्ष्यते ते मनुष्या एव क्षेयाः। द्वितीयः स्त्री शोणाम्बराऽश्वास्या दीर्घमुखोरुपादी (पदी) एकेनांहिणोपलक्षिता, चतुष्पदोऽयं, तत्तुल्यास्यत्वात् , एवमग्रेऽपि यथायोगं भाव्यम् २। तृतीयो नरः क्रूरः कपिलो रक्ताम्बरोऽभ्युद्यतदंडहस्तः ३ ॥१॥ वृषे आयः स्त्री कुञ्चितलूनकेशी स्थूलोदराऽग्निदग्धवस्त्रा भूषणानीच्छति १ । द्वितीयो नरोऽजास्यो धान्यक्षेत्रवास्तुहलशकटकर्मणि दक्षश्चतुष्पदोऽ. यम् २। तृतीयो नरो बृहत्कायपादः ३ ॥२॥ मिथुने आद्यः स्त्री सुरूपा दीनप्रजा उच्छ्रित
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ९१ शुभस्तु सावाहिपावकः पापवीक्षितः ॥ ३६ ॥ शैन्यकेंन्दुकुजाँस्त्यक्त्वा १
___ अत्र वृषे द्वितीयस्य कन्याद्रेष्काणस्य खामी
बुधः सौम्यस्तस्य मीनमूर्तिस्थयोः शुक्रजीवयोश्च पूर्णा दृष्टिः, एवं पापखामिकत्वं पापदृष्टत्वं च भाव्यं । एवं वक्ष्यमाणे उदयास्त. शुद्ध्यादौ नवांशादीनामपि सौम्यक्रूरदृष्टत्वं च भाव्यम् ॥
शु
भुजा ऋतुमत्याभरणार्थे सादरा १ । द्वितीयो नरो गरुडास्य उद्यानस्थो बाणकवचधनुष्मान् खगोऽयम् २ । तृतीयो नरो रत्नमंडितःपंडितो बद्धतूणकवचो धनुष्मान् ३ ॥३॥ कर्के आयो नरो हस्तिसमाङ्गोऽश्वकंठः सूकरास्यः पत्रमूलभृत् चतुष्पदोऽयम् १। द्वितीयः स्त्री यौवनस्था ससी वनस्था २ । तृतीयो नरः सर्पवेष्टितो नौस्थः वर्णाभरणान्वितः ३ ॥४॥ सिंहे आद्यः शाल्मलिवृक्षोपरि गृध्रः शृगालः श्वा नरश्च मलिनवासाः अयं नरः खगश्चतुष्पदश्च १। द्वितीयो नरोऽश्वाकृतिः कृष्णाजिनकम्बलभृत् दुघर्षों धनुष्मान्नतामनासः चतुष्पदोऽयम् २ । तृतीय ऋक्षास्यो वानरचेष्टो नरः कूर्ची कुश्चितकेशो दंडफलामिषहस्तः चतुष्पदोऽयम् ३॥५॥ कन्यायामाद्यः स्त्री पुष्पपूर्णघटयुता मलिनाम्बरा गुरोः कुलं वाञ्छति १ । द्वितीयो नरो लेखिनीहस्तः श्यामो लोमशो वस्त्राङ्कितशिरा विस्तीर्णधन्वपाणिः २ । तृतीयः स्त्री गौरोच्चा सुधौतापदुकूलाच्छादिता कुंभकडुच्छुकहस्ता देवालयं प्रवृत्ता ३॥६॥ तुलायामाद्यो नरस्तुला. हस्तश्चतुष्पथस्थो मानोन्मानचतुरो भांडं विचिन्तयति १। द्वितीयो नरो गृध्रास्यो घटान्वितः क्षुधितस्तृषितः खगोऽयम् २ । तृतीयो नरः फलामिषधरो हैमतूणवर्मभृद्वानररूपो रत्नचित्रितो धनुर्हस्तो वने मृगान् भीषयते चतुष्पदोऽयम् ३॥७॥ वृश्चिके आद्यः स्त्री नग्ना स्थानच्युता सर्पनिबद्धपादा मनोरमाब्धितः कूलमायाति १। द्वितीयः स्त्री भर्तृकृते सर्पावृताङ्गी कूर्मकुंभाकृतिः स्थानसुखानि वाञ्छति २। तृतीयो नरः सिंहरूपश्चिपिटकूर्मतुल्यास्यः अयं कूर्मश्चतुष्पदश्च ३॥८॥ धनुषि आद्यो नर आयतधन्वपाणिमुखोऽश्वकायः चतुष्पदोऽ. यम् १ । द्वितीयः स्त्री सुरूपाऽब्धिरत्नानि विघयन्ती गौरागी २ । तृतीयो नरो गौरो निषण्णो दण्डहस्तः कूची कौशेयकचर्मवाही ३ ॥९॥ मकरे आद्यो नरो रोमशः सूकराकृतिः स्थूलदंष्ट्रो बन्धनभृत् रौद्रास्यः चतुष्पदोऽयम् १। द्वितीयः स्त्री श्यामा सालङ्कारा लोहा. भरणभूषितकर्णी २ । तृतीयो नरः किन्नराङ्गस्तूणी कवची धनुष्मान् सकम्बलः स्कन्धे रत्न. चित्रितं कुंभं वहति ३॥१०॥ कुंमे आद्यो नरश्चर्मभृद्गृध्रास्यः सकम्बलः खगोऽयम् १ । द्वितीयः स्त्री मलिनाम्बरा शीर्षे भांडवाहिनी अग्निना दग्धे शकटे लोहानि गृह्णाति २ । तृतीयो नरः सिंहरूपश्च श्यामः सरोमकर्णः किरीटी लपत्रनिर्यासफलभृत् ३॥११॥ मीने आद्यो नरः स्रग्मौक्तिकशंखपाणिः साभरणो नौस्थोऽब्धि तरति १। द्वितीयः स्त्री गौरागी नौस्थाऽन्धितः कूलं याति २ । तृतीयो नरो नग्नो भीरुश्चौराग्निभ्यां व्याकुलितः सर्पावतागो गान्तिकस्थः अयं व्याकुलद्रेष्काणः ३ । इति १२ । एषां चिन्तानष्टादिप्रश्न प्रयो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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९२ जैन ज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहै उदयप्रभदेवीया यामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे गमद्वारम् ।
शुभोऽन्येषां नवांशकः । लग्नवद्वादशांशस्तु त्रिंशांशस्तु नवांशवत् ॥ ३७॥
१
3
७
१०.
१२
1
जन्मकुंडलिकायां शुभाः ।
तनुः कोशो भटो यानं मंत्रोऽरिवर्त्मजीवितम् । मनेः कर्मार्जनी मंत्री भावाः ३ स्युरुदयादयः ॥ ३८॥ ह॑न्ति योधाऽऽयकैर्माऽन्यानऽसौम्यः, कर्म चासितः । सौम्योऽप्यरिम्, सितोऽध्वानम्, चन्द्रश्च तनुजीविते ॥ ३९ ॥ जन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि न लग्नस्थः शुभो ग्रहः । तत्रेष्टदस्तु पापोऽपि यात्रालग्नस्थितः शुभः ॥ ४० ॥ पापोऽप्यभीष्टदो जन्मलग्नर्क्षस्वामिनोः सुहृद् । मूर्तिस्थितः | सौम्योऽपि यो जन्मसमये मृत्युव्ययभवनस्थत्वादिना अशुभः स यात्रालग्ने मूर्ती न शुभः । तत्रेष्टद इति यस्तु क्रूरोऽपि रिपु ६ लाभ ११ स्थत्वादिना जन्मनीष्टदः स यात्रालग्ने मूर्ती शुभ एव । जन्मशुभाशुभग्रहाश्व विस्तरतो जातकाज्ज्ञेयाः । समासेन त्वेवम् - " क्रूरास्त्रिषडायस्थाः सितेन्दुगुरवोऽन्तिमाष्टरिपुवजः । ध्यष्टान्तिमरिपुवर्जी बुधः प्रशस्यो जननममये ॥ १॥"
शुभोऽपि स्यादशुभोऽरातिरेतयोः ॥ ४१ ॥ सुहृद्दशापतेः सद्यः सफलो
७
रवि
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
३-६-११
१-२-३-४-५-७-९-१०-११
३-६-११
Ε
१-२-३-४-७-९-१०-११ १-२-३-४-५-७-९-१०-११ १-२-३-४-५-७-९-१०-११
३-६-११
राहु ३-६-११
जनं “द्रेष्काणैस्तस्कराः स्मृता” इति । रोगिप्रश्ने “ गृध्रकोलोरगत्र्यं शैरुदितै रोगिणो मृतिरिति” । बन्धमोक्षप्रश्न “धृतोरगे त्र्यंशे सशृंखलापाशो बन्धः" इत्यादि । यात्रायां तु यथोपयोगस्तथोक्तमेव । शुभनाथ इति द्रेष्काणेशाः प्रागुक्ता एव । शुमेक्षित इति यो द्रेष्काणो लग्नेऽधिकृतोऽस्ति तन्नामा राशिर्यात्राकुंडलिकायां यत्र तत्र स्थितो यदि शुभग्रहैर्दृश्येत तदा स द्रेष्काणः शुभैर्दृष्ट इत्युच्यते ।
* ‘लग्नेऽर्कस्य नवांशे वाहननाशः कुजस्य वह्निभयम् । इन्दोः प्रतापहानिः शनैर्नवांशे मरणमेव' इति दैवज्ञवल्लभे ।
1 ख १० स्थशनिवर्जमुपचयगाः क्रूराः सर्वगाः शुभाः सौम्याः । हित्वाऽस्ते सितमष्टमलग्नगशशिनं च यात्रायाम् । 2 यात्राकाले यस्य ग्रहस्य दशाऽस्ति स दशापतिस्तस्य सुहृन्मित्रम् | विशेषस्तु - दशापतिरपि यात्रा समये सबलो विलोक्यते । यल्ललः – “ यात्रा नैव दशापत|वुपहते नैवास्तगे नाबले, नीचस्थे न च नैव वऋिणि नृणां देया कदाचिदूबुधैः ।” इति । दशाक्रमतत्प्रमाणत द्विभागादिखरूपं च जातकादिभ्यो ज्ञेयम्, इह त्वप्रस्तुतत्वादतिविस्तरत्वाच्च न प्रतन्यते, स्थानाशून्यार्थं तु वार्षिकं दिनदशाप्रमाणं स्थूलं दर्श्यते, तथाहि —- " निजनामराशितः प्रभृति गण्यते वर्तमानसंक्रान्तेः । गतदिवसावध्येवं दिवस
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ९३ जनने बली । रोऽपि विविधो भद्रस्तनौ सौम्योऽपि नेतरः ॥ ४२ ॥ जन्मकाले विधोर्यद्वाऽन्योऽन्येनोपचयस्थिताः । तानाख्याः सौम्यवत्क्रूरा
ये ग्रहाः खः खोचे खत्रिकोणे वा स्थिताः३ ६ > ४ गु.चं. २
केन्द्रेषु स्युस्ते सर्वेऽप्यन्योन्यं कारकसंज्ञाः, तेषां मध्ये दशमकेन्द्रस्थो ग्रहः शेषग्रहाणं विशिष्य कारकः, सर्वेषां चैतेषां चन्द्रयुतिष्ट्या बलवत्त्वम्, यथा कर्के लग्ने तस्थे चन्द्रेडभैरगुरुमन्दाः खखोचस्थाः सन्तो मिथः कार
काः स्युः। जातकोक्ताश्च कारकाः ॥ ४३ ॥ जन्मलग्नेशयोस्तानः कारको वाऽपि दशाः स्युः क्रमादेताः ॥१॥ रवी १न्दु २ भौम ३ ज्ञ ४ शनी ५ ज्य ६ राहु ७ सकेतु ८ शुक्रेषु ९ नखाः २० खबाणाः ५० । अष्टाश्वि २८ षड्बाण ५६ रसाग्नि ३६ देव ३३ देवा ३३ तिशीत्य ३४ भ्रहया ७० दशाहाः ॥२॥" सर्वे दिनाः षष्ट्यधिका त्रिशती ३६० । “हानिं १ धनं २ रुजं ३ लक्ष्मी ४ दैन्यं ५ लक्ष्मी ६ च बन्धनम् । भयं ८ श्रियं ९ चार्कादीनां दद्युदिनदशाः क्रमात् ॥ ३॥" अत्रायमानायः-खनामराशौ. यदिनेऽर्कः संक्रान्तस्तद्दिनादारभ्य वर्तमानदिनं यावद्दिना गण्यन्ते इयन्तो दिना गता इति, तत्राद्या विंशतिर्दिना रवेर्दिनदशा, अग्रे पश्चाशद्दिना इन्दोरित्यादि, एवं गणने यस्य ग्रहस्य दिनदशा तदानीं समेति स दशापतिरिति । सद्यः सफल इति यस्तदानीं गोचरेण प्रतिकूलवेधेन वा शुभः स सद्यः सफलः, यस्तु गोचरेणानुकूलवेधेन वाऽशुभः स सद्योऽफलः । तथा जन्मपत्रिकायां यो बली, रूपवानित्यादिवदतिशायने मत्वर्थीयोऽयम्, ततो यः सर्वोत्कृष्टबल इत्यर्थः । इतर इति यो वर्तमानदशेशस्यारिः, यो वा तदानीमफलः, यो वा जन्मकाले निर्बल इति । ननु यदि जनने बलीत्युक्तं तदा जन्मनि सर्वोत्कृष्टबलोऽपि यो मृत्युस्थलादिनाऽनिष्टदस्तस्यापि मूतौ ग्राह्यलप्रसङ्गः । मैवम् , "जन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि" इत्यनेनैव तस्य निषेधभवनात् ॥ __ 1 तथा लग्नस्थग्रहस्य दशमतुर्यस्थो ग्रहः सर्वोऽपि खगृहखोच्चखत्रिकोणेष्वस्थितोऽपि कारकाख्यः स्यात् । तथा लग्नं केन्द्रं वा विनाऽपि स्थितस्य ग्रहस्य यदि कश्चिद्ग्रहो दशमस्थाने खर्वोचत्रिकोणानामन्यतमस्थो निसर्गमैत्र्या तात्कालिकमैत्र्या च संपन्नः स्यात्तदा सोऽपि तस्य कारकाख्यः स्यात् । उक्तं च-"खर्कोच्च (क्षतुं)गमूलत्रिकोणगाः; कंटकेषु यावन्त आश्रिताः । सर्व एव तेऽन्योऽन्यकारकाः, कर्मगस्तु तेषां विशेषतः॥१॥" अत्रोदाहरणम्-"कर्कटोदयगते यथोडुपे,खोच्चगाः कुजयमार्कसूरयः।कारका निगदिताः परस्परं १, लग्नगस्य सकलोऽम्बराम्बुगः २॥ २ ॥" अत्र सकल इति खगृहोचत्रिको. गेष्वस्थितोऽपीति भावः । "खर्शकोणोच्चगः खेटः खेटस्य यदि कर्मगः । सुहृत्तद्गुणसंपन्नः कारकश्चापि संस्मृतः ॥३॥" 2 नायकाः स्युः प्रसूतौ ये रक्षका ये च वर्धकाः । वे क्रूरा अपि यात्रायां लग्नस्थाः शुभदा ग्रहाः' इति दैवज्ञवल्लमे, खरूपं चैषां बृहज्जातके।
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९४ जैनज्योतिर्ब्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे गमद्वारम् ।
लग्नगः । असौम्योऽपि शुभाय स्याद्व्यस्तः सौम्योऽपि चान्यथा ॥ ४४ ॥ art केन्द्रेऽथ तद्वर्गो लभे यातुर्जयापहः । गतिप्रमाणवर्णैर्वा विकृतश्च ३ नभश्वरः ।। ४५ ।। उत्तरान्तश्चरो भानोः शुभो नान्यस्तनौ ग्रहः । फलेन
1 अर्कैन्द्वोर्वक्रासंभवाद्भौमाद्यन्यतरो यो ग्रहस्तदानीं वक्रगोऽस्ति स एकोऽपि यात्रालग्ने केन्द्रस्थो जयं हन्ति, किं पुनर्द्वित्राः ? अथेति तस्यैव वक्रिणो ग्रहस्य वर्गों होराया असंभवाद् गृहद्रेष्काणनवांशादिरूपश्वेल्लनेऽस्ति तदा सोऽप्यशुभः । वक्रमार्गदिन संख्या चेयं ज्योतिषसारे – “पणसट्ठि ६५ इक्कवीसा २१ बारस अहियं सयं च ११२ बावन्ना ५२ । चउतीस सयं च १३४ कमा वक्कदिणा मंगलाईणं ॥ १ ॥ सग सय पणाल ७४५ बिणवइ ९२ चुआलसय १४४ पंचसयचउव्वीसा ५२४ । दो अ सया चालीसा २४० मंगलमाईण मग्गदिणा ॥ २ ॥ " गतीत्यादि गत्याद्यैर्विकृतोऽपि ग्रहो यात्रालग्ने मूर्ती न शुभः, अतिचरितो ग्रहो गतिविकृतः । अतिचारस्वरूपं चैवं लल्लोक्तम् – “पक्षं १ दशाहं २ त्रिपक्षी ३ दशाहं ४ मासषदतयी ५ । अतिचारः कुजादीनामेष चारस्त्वितोऽपरः ॥ १ ॥ " प्रमाणेति पूर्वप्रमाणात् ह्रस्वो महान् वा खे लक्ष्यमाणः प्रमाणविकृतः, एवं वर्णविकृतोऽपि भाव्यः । लल्लस्वाह - " यस्य ग्रहस्य जन्मक्षं क्रूर ग्रहोल्काद्यैः पीडितं स्यात्सोऽपि ग्रहो यात्रालग्ने मूर्ती न शुभः । ग्रहजन्मक्षणि चैवं - " विशाखा १ कृत्तिका २ प्यानि ३ श्रवणो ४ भाग्य ५ मिज्यभम् ६ । रेवती ७ याम्य ८ मश्लेषा ९ जन्मक्षण्य • र्कतः क्रमात् ॥ १ ॥" 2 इष्टेऽह्नि यत्रार्कौदयास्ते स्यातां तत्स्थानं सम्यग्निर्णीय चिह्न - यितव्यं, यत्र च विवक्षितग्रहस्योदयास्ते स्यातां तदपि । एवं च योऽर्कादुदीच्या मुदेत्यस्तमेति च स उत्तरचरः । यश्चार्कस्थान एवोदेत्यस्तमेति च सोऽन्तश्चरः । एतौ यात्रालग्ने मूर्ती शुभौ । अन्य इति अर्काद्दक्षिणचरस्त्वशुभः । इदं च मूर्तिग्रहस्वरूपमिह यद्यपि यात्रामुद्दिश्योक्तम्, तथापि विवाहादिसर्वकार्यलग्नेष्वपि योज्यम् । विशेष— "लग्नेऽर्कारौ शनेर्धानि शुभावन्यत्र भङ्गदौ । शीतांशुरुदयप्राप्तः सर्वकार्येषु नाशदः ॥ १ ॥ जीवशुक्रशनिस्थाने स्थितो लग्ने जयार्थदः । स्थानेष्वर्केन्दुभौमानां शशिसूनुरनर्थदः ॥ २ ॥ मन्दारबुधसूर्याणां स्थानेषु शुभदो गुरुः । शुक्रेन्दुस्थानगो लग्ने धनयोधविनाशकः ॥ ३ ॥ सौम्यस्थाने शितः शस्तो लग्नस्थोऽन्यत्र नेष्टदः । छायापुत्रो रविस्थाने प्रीतिदोऽन्यत्र नाशदः ॥ ४ ॥ स्वस्थाने न शुभो मन्दो लग्नेऽन्यत्र शुभावहः । यात्रायां चन्द्रमाः शस्तो दिग्बलेन विवर्जितः ॥ ५ ॥” इति दैवज्ञवल्लभे । इत्युक्ता सार्धषट् श्लोकैर्मूर्तिस्थग्रहव्यवस्था । अथ यात्रालग्ने षड्वर्गं वारं च नियमयति- फलेनेति वर्गः षड्वर्गा यात्रादिने वारश्च तनुगो मूर्तिस्थो यो व्योमगो ग्रहस्तत्तुल्यफलो ज्ञेयः । अयं भावः - जन्मन्यनिष्ट इत्यत आरभ्यैतच्छ्लोक पूर्वार्धं यावदुक्तया रीत्या यादृशो ग्रहो मूत्तौं शुभोऽशुभो वा निर्धारितस्तादृशस्यैव ग्रहस्य षड्वर्गो ग्रहहोरादिमूत्तौ शुभोऽशुभो वा ज्ञेयः । यात्रादिने वारोऽप्येवमेव निर्धार्यः । विशेषस्तु – “ उपचयकरस्य वर्गः क्रूरस्यापि प्रशस्यते लग्ने । चन्द्रो वा तद्युक्तो न तु विपरीतस्य सौम्यस्य ॥ १ ॥ उपचयकरग्रहृदिने सिद्धिः
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ९५ . वर्गों वारश्च तनुगव्योमगोपमः ॥ ४६॥ केन्द्रेषु ग्रहशून्येषु लग्ने वीर्येण । क्रूरेऽपि यायिनां भवति । सौम्येऽप्यनुपचयकरे न भवति यात्रा शुभा यातुः ॥२॥" इंति लल्लः । तथा-"सौम्योऽपि न शुभं दत्ते रिपोर्वारे विलग्नपः । वारे मित्रस्य पापोऽपि भवेच्छुभफलप्रदः ॥ १॥ इति दैवज्ञवल्लमे । तथा येषां वारः शुभोऽशुभो वा तेषां कालहोराऽपि तथैव । तत्फलं चैवम्- "रूपं ग्रहस्य वर्गे स्खदिने द्विगुणं खकालहोरायाम् । त्रिगुणमरिवर्गयोगे फलस्य प्रात्यस्तृतीयांशः” ॥ १॥ इति शौनकः । तथा-"बलिनः कंटकसंस्था वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः । द्विगुणशुभाशुभफलदा यथोत्तरं ते परिज्ञेयाः ॥१॥” इति लल्लः ॥ __ 1 ग्रहशून्येष्विति प्रथमं तावदेकस्मिन्नपि केन्द्रे यदि कश्चित्सौम्यग्रहः स्यात्तदैव यात्रायामन्यकार्येषु च शुभं, न बन्यथा । सौम्यग्रहाभावे यद्येकमपि केन्द्रमुपचयकरेण क्रूरेणाप्यधिष्ठितं स्यात्तदापि शुभम् । सर्वकेन्द्राणां शून्यलं तु सर्वथाऽनिष्टम् । यदुक्तम्"पापोऽपि कामं बलवान्नियोज्यः, केन्द्रेषु शून्यं न शिवाय केन्द्रम् ।' इति रत्नमालायाम् । विशेषस्तु-सौम्यग्रहाश्वेत्केन्द्रेषु पापग्रहयुताः स्युस्तदा महता कष्टेन यात्रा सिध्येत् । यल्लल्लः- “सौम्यैश्च पापैश्च चतुष्टयस्थैः, कृच्छ्रेण संसिद्धिमुपैति यात्रा ।" वीर्येणेति खामिसौम्यग्रहयुतिदृष्ट्यभावेन क्रूराणां तत्सद्भावेन च लग्नं निर्वीर्यं स्यात् । बलहीनैरिति अष्टादशधा किल प्रहाणामबलता भुवनदीपकवृत्तावुक्ता, तथाहि-"ख १ मित्रनीचगो२ वक्रः ३ खराश्यस्ता ४ ऽरिवर्गगः ५ । लग्नाद्वादशगः ६ षष्ठः ७ क्रूरैयुक्तोऽथ वीक्षितः ९ ॥१॥ याम्यो १० राहास्य ११ पुच्छस्थो १२ बालो १३ वृद्धो १४ऽस्तगो १५ जितः १६ । मुथुशिले १७ मूशरिफे पापै १८ रित्यबलो प्रहः ॥२॥" अत्र नीचगा इति नीचगृहस्थो नीचांशस्थोऽपि च प्राह्यः । वक्र इति वक्राभिमुखोऽपि वक्रवत् । खराश्यस्तेति स्वगृहराशेः सप्तमराशिस्थः । अरिवर्गगः शत्रोरधिशत्रोर्वा प्रहस्य गृहहोरादिषट्कस्थः । याम्यः कर्कादिषट्करूपदक्षिणायनवर्ती । राहास्यपुच्छेति “यत्र ऋक्षे स्थितो राहुर्वदनं तद्विनिर्दिशेत् । मुखात्पञ्चदशे ऋक्षे तस्य पुच्छं व्यवस्थितम् ॥ १॥" बालः खल्पदिनोदितः। वृद्धोऽस्ताभिमुखः । अनेन ह्रस्वरूक्षबिम्बो निर्दीप्तिकश्चेत्याद्यपि संगृहीतम् । अस्तगः रविरश्मिषु प्रवेशादस्तमितः । जितो यो ग्रहयुद्धे दक्षिणगामी, शुक्रस्तूत्तरगामी सन् जितः स्यादिति वराहः । मुथुशिले इत्यादि शीघ्रो ग्रहो मन्दगतिप्रहस्यैकांशे यदा मिलितोऽद्यापि पश्चात्स्थो वा तदा मुथुशिल इथिशालाऽपराख्यो योगः। यदा तु शीघ्रो ग्रहो मन्दगतिग्रहस्यैकांशे मिलिखा तमंशमतिक्रम्याग्रतो याति तदा मूशरिफयोगो राश्यन्तं यावत् । यथा कल्पनया तृतीये त्रिंशांशे मन्दगतिर्गुरुरखि तत्रागतो रव्यादिः क्रूरग्रहो यावत्तमंशमतिक्रम्य न याति तावन्मुथुशिलः, यदा तु चतुर्थाशे गतस्तदा मूशरिफस्तावद्यावद्राश्यन्ते यातीति, एतौ च योगौ शीघ्रो ग्रहो यदि क्रूर आगत्य कुरुते तदा मन्दगतिग्रहो निर्बलः स्यादिति । प्रश्नप्रकाशे तु नवधैव निर्बलवमुक्तं तथाहि-"पापः शीघ्रः १ शुभो वक्री २ बालो ३ वृद्धा ४ऽरिभा ५ खगः ६ ।
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९६ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे गमद्वारम् । : वर्जिते । बलहीनैश्च सौम्यैः स्यादभिषेणयतो भयम् ॥ ४७ ॥ दिगीशः
केन्द्रगः श्रेयान् दिग्बली भालगंस्तु न । बलिनौ जन्मलग्नेशौ केन्द्रोपच३ यगौ शुभौ ॥ ४८ ॥ सितेज्योविन्दुरार्किज्ञतमोऽन्त्याः सूर्यमङ्गलौ ।
ईशान्या
अग्नि
पत्र
रवि
उत्तर
यात्रालग्ने ललाटस्थग्रहचक्रस्थापना
मंगल दक्षिण
चंद्र
पश्चिम
वायव्य
नऋत्य सामादिसाधकाः केन्द्रोपचयेषु बलोत्कटाः ॥ ४९ ॥ पौरौं ज्ञजीवमन्दाः स्युरपरे यायिनो ग्रहाः । सफला यायिभिर्यात्रा बलिभिः स्थितिरन्यथा ६॥ ५० ॥ चौराणां शंकुनैर्यात्रा नक्षत्रैश्च द्विजन्मनाम् । मुहूत्तैः सिद्धयेऽनीचः ७ पापान्तरे ८ ऽष्टस्थ ९ इत्युक्तो बलवर्जितः ॥ १॥ एवमन्यत्रापि यथासंभवं दौर्बल्यं भाव्यम् । अभिषेणयत इति सेनयाऽभिमुखं प्रस्तावाद्वैरिणो विजयाय गच्छतः॥
1 दिगीश्वरो ललाटस्थो यदि वा दिग्बलान्वितः । वधबन्धप्रदो यातुः केन्द्रगस्तु शुभावहः' इति दैवज्ञवल्लभे। 2 ललाटग्रहफलं चैवम्-“शस्त्राग्निभयं १ व्याधि २ र्धनक्षयो ३ बन्धनं ४ मृति ५ र्व्याधिः ६ । हारिः ७ सैन्य विमर्दो ८ भालगदिगधिपफलं क्रमशः॥१॥" विशेषस्तु केतुरुदितः सन् यातव्यदिक्संमुखनतानो यात्रायां शुभः । तथा उपचयकरस्य प्रहस्य दिशं गच्छेत् न वपचयकरस्येति लल्लः । बलिनौ जन्मलग्नेशाविति जन्मेशलग्नेश. योगडान्तस्थल १ गोचरादिप्रातिकूल्य २ गतिप्रमाणवर्णवैकृत्य ३ सूर्यतो दक्षिणचारिख ४ प्रागुकाष्टादशविधदुर्बलखाना ५ मभावेन षड्विधबलसंपन्नखविजितरिपुवादीनां भावेन च बलिष्ठवं भावनीयम् । केन्द्रति सामान्योक्तावपि सप्तमवर्जे एव केन्द्र लग्नेशःशुभ इति ज्ञेयम्। विशेषस्तु-"क्रूरावपि जन्मलग्नेशौ सौम्यवदेव व्यवहर्तव्यौ सर्वकार्येषु सबलखविधानेन" इति लल्लः ॥ 3 भाग्ये मैत्रे शीतरश्मौ सपुष्ये द्वादश्यां वा शुक्रदृष्टे च लग्ने । अष्टम्यां वा तैतिलाख्ये प्रदिष्टा पूर्वाचार्यैरत्र संधानसिद्धिः' इति रत्नमालायाम् । 4 स्थायिनः । 5 शान्तप्रदीप्तदिग्विभागानुरूपफलैर्मरुदेशीयवृद्धानामनुभवसिदैरागन्तुकशकुनैः। 6 तेषा गुणैः। 7 शिवभुजगादिभिः शुद्धद्विघटिकारूपैः ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमद्वारम् । ९७ न्येषां राज्ञां योगैश्च ते त्वमी ॥ ५१॥ अर्कार्किशशिनः सिद्ध्यै राज्ञां लग्नारिमध्यगाः (१) । सितेज्यमन्दज्ञाराश्च लग्नास्तत्रिसुखारिंगाः (२) ॥५२॥ शुक्रज्ञार्काश्च लग्नस्वभ्रातृषु क्रमशः श्रिये (३)। लग्ना-३ रिंगौ च जीवार्की जयदौ व्यष्टमे विधौ (४) ॥ ५३ ॥ मन्दारौ त्र्यायषट्सु ज्ञसितेज्याश्चोत्कटाः श्रिये (५)। केन्द्रे च बलिनौ ज्ञेज्याविन्दौ त्वापोक्लिमेऽबले (६)॥ ५४॥ श्रिये विधुः सुखेऽस्ते तु ६ सितज्ञौ (७) व्यत्ययेन वा (८)। याने त्रिकोणकेन्द्रस्थाः सौम्याः षट् आयगाः परे (९)॥ ५५ ॥ जयाय मूर्ती मार्तण्डः सौम्यः स्खे सप्तमो विधुः (१०)। बृहस्पतिर्वा केन्द्रस्थः शेषेषु स्वायवर्तिषु (११) ९ ॥ ५६ ॥ यांतुः प्राग्दक्षिणयोर्जसितान्तर्जयकरः सुखे चेन्दुः (१२)। गुरुरेकान्तर आर्के (१३) ज्ञों वा शुक्राच (१४) भौमावा (१५) ॥ ५७ ॥ गुरुर्जयाय लग्नस्थः क्रूरैर्लाभ भोगतैः (१६) । तथा चन्द्रे-१२ ऽष्टमे षष्ठे शुक्रे लग्नगतो गुरुः (१७) ॥ ५८ ॥ सिद्ध्यै धीधर्मकेन्द्रेषु बुधवाक्पतिभार्गवैः । योगोऽधियोगो योगाधियोगैश्चैकैद्वितंत्रिकैः ॥५९॥ शुक्र व्यायाम्बुगं पश्यन् जीवो यात्रासु केन्द्रगः । राज्ञां दत्ते जयं क्रूरैः १५ ___ 1 वैश्यशूदकार्वादीनाम् । तिथिवारभलग्नादिशुद्धिनिरपेक्षमपि । 2 अर्धद्वयेऽपि यथासंख्यं योजना ॥ 3 क्रमश इत्युत्तरार्धेऽपि योज्यम् । व्यष्टमे इति यदीन्दुरष्टमगृहे न स्यात् ॥ 4 उत्कटा इति यत्रतत्रस्था अपि बलिन इत्यर्थः । चन्द्रे आपोक्लिमस्थे निर्बले च सति ॥ 5 सितज्ञौ सुखे, चन्द्रोऽस्ते इति व्यत्ययः । याने इति यात्रायां श्रिये स्युरिति योगः । परे क्रूराः ॥ 6 खं द्वितीयं । शेषेषु क्रूरसौम्येषु सर्वेषु । एवं योगा एकादश ॥ 7 प्राच्या दक्षिणस्यां वा चेद्यात्रा तदा ज्ञशुक्रयोर्मध्येऽन्तराले तिष्ठन्निन्दुः शुभः । परं यदि सुखे-तुर्यस्थाने स्यात्तदैव शुभः, नान्यथा । प्रतीच्युदीच्योस्तु यात्रायामयं योगो नापेक्ष्यः । तथा गुरुरेकान्तर इति शनितो गुरुरेकान्तरगृहे स्थित इसको योगः । ज्ञो वेति शुक्राद् बुध एकान्तरगृहे स्थित इति द्वितीयः। भौमाद् बुध एकान्तरगृहे स्थित इति तृतीयः । दैवज्ञवल्लभेऽप्युक्तम्-"भृगुजादथवा महीसुताद् बुध एकान्तरमे स्थितो यदा । रविजादथवा गुरुस्तदा, व्रजतो यान्त्यरयः क्षयं रणे ॥१॥" तदेवमत्र श्लोके योगाश्चत्वारः। 8 एते सर्वे प्रत्येकयोगाः सप्तदश ॥ 9 योगेन यो याति नृपोऽ. रिदेशं सुखेन सोऽभ्येत्यऽधियोगयाता । प्राप्नोति कीर्ति विजयं धनं च, योगाधियोगेन महीमशेषाम् ॥ इति दैवज्ञवल्लभे । विशेषाम्नायस्तु सुधीशृङ्गारवार्तिकेऽवलोक्यः ।
जै० १३
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९८ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श गमवास्तुद्वारे। कलत्रादित्रायन्यगैः ॥ ६० ॥ बुधो वपुःसुर्खद्वेषिव्योमस्थो वीक्षितः शुभैः । जयाय राज्ञां पापेषु लग्नास्तव्ययवर्जिषु ॥ ६१ ॥ इति सप्तरूप३ कार्धेः सकलश्लोकत्रयेण चोक्तेषु । योगेषु, राजयोगेष्वपि शुभदा भूभुजां यात्रा ॥ ६२ ॥ सँकलेष्वपि कार्येषु यात्रायां च विशेषतः । निमित्तान्यप्यतिक्रम्य चित्तोत्साहः प्रगल्भते ॥ ६३ ॥ ऐन्यादिदिक्षु मातङ्गरथी६ श्वनरवाहनैः । व्रजेत्क्रमेण भूपालो दिकपालोल्लासिमानसः ॥ ६४ ॥
॥ इति गमद्वारम् ॥ ८९९ वास्तु नव्यं विभूत्यायुःकीर्तिकामो निवेशयेत्। ज्ञात्वाऽऽयव्ययाशास्तु चन्द्रेताराबले अपि ॥ ६५ ॥ ध्वजोधूमो९ हरिःश्वागौःखरोहस्तीद्विकः क्रमात् । पूर्वादिबलिनोऽष्टाया विषमास्तेषु "वृष सिंह गज चैव खटकबटकाट्याः । द्विपः काकः ८ | ध्वजः १ धूम्नः २ पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च ॥१॥ मृगेन्द्र
| ईशान | पूर्व । अग्नि मासने दद्याच्छयनेषु गजं पुनः । वृषं भोजनपात्रेषु च्छत्रादिषु पुनर्ध्वजम् ॥ २ ॥ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वहयुपजीविनाम् । धूमं नियोजयेत् किंचि. च्छ्वानं म्लेच्छादिजातिषु ॥ ३ ॥ खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वांक्षः शेषकुटीषु च । वृषः सिंहो गजश्चापि
वायव्य
| पश्चिम | नैर्ऋत्य प्रासादपुरवेश्मसु ॥ ४ ॥' इत्यादि विवेकविलासे खरः ६ | वृषः ५ | वा ४ ___ 1 वृत्ताद्वैः । 2 बृहज्जातकोक्तमेषामतिविस्तृतखरूपं वार्त्तिकादवसेयम् । 3 यद्यपि निमित्तं किल दैहिकं वामदक्षिणाङ्गस्फुरणादि । उक्तं हि दैवज्ञवल्लभे-"स्यन्दनं दक्षिणे पार्श्वे विपृष्ठहृदये हितम् । वामपार्श्व तु नारीणां मनसश्चानुकूलता ॥ १॥" अगस्पर्शादि विङ्गितम् , दुर्गादिश्च शकुनः, लग्नादि तु ज्योतिषम् , तथाप्यत्राभेदकल्पनया सर्वेषां निमित्तत्वमेवोचे। चित्तोत्साह इति “अङ्गिरा मनोत्साहं" इत्युक्तेः प्रागविसंवादितयाऽनुभूतं प्रातिभज्ञानं लग्नादिभ्योऽपि बलवदित्यर्थः ॥ 4 इन्द्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवायुकुबेरेशाना दिक्पतयः । 'ध्यायन्नाशाधीश्वरं हृष्टचेताः क्षोणीपालो निर्विलम्ब प्रयायात्' इति रत्नमाला. याम् । 5 वास्तु गृहहट्टप्रासादादि । विभूतीत्यादि अनेनेदमसूचि-'कार्यसिद्धिसुखायूंषि निमित्तशकुनादिभिः । ज्ञात्वा प्रष्टुहारमे कीर्तयेत् समयं सुधीः ॥१॥" अत्रादिशब्दादङ्गस्पर्शादि गृह्यते । ननु कथमङ्गस्पर्शनेन निर्णयः ? उच्यते-“शीर्ष १ मुख २ बाहु ३ हृदयो ४ दराणि ५ कटि ६ बस्ति ७ गुह्य ८ संज्ञानि । ऊरू ९ जानु १० जंघे ११ चरणा १२ विति राशयोऽजाद्याः ॥१॥" इति लघुजातके । अत्राजाद्या इत्युक्तं तथापि यत्तात्कालिकं लग्नं तदेव शिरः, ततोऽन्यांगानि । ततश्च-"कालपुंसो यदङ्गं तत्स्प्र(प्र)
या स्पृशति चेच्छुभैः। युक्तं विलोकितं वापि सद्मनिर्माणमादिशेत् ॥१॥” इति दैवज्ञवल्लमे॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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गजः ७
उत्तर
दक्षिण सिंहः ३
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे वास्तुद्वारम् । ९९ शोभनाः ॥ ६६ ॥ ध्वजः पदे तु सिंहस्य तौ गजस्य वृषस्य ते । एवं निवेशमर्हन्ति स्वतोऽन्यत्र वृषस्तु न ॥ ६७ ॥ आयो दैान्ययोर्घातः फलमष्टहृतेऽधिकः । फलमष्टगुणं भाप्ते भं तत्राष्टहृते व्ययः ॥६८॥ फैले ३ व्ययेन वेश्माख्याक्षरैश्चान्ये त्रिभाजिते । अंशाः शक्रान्तकक्ष्मापास्तेषु स्यादधमो यमः ॥ ६९ ॥ ध्रुवं धन्य जयं नन्दं खरं कान्तं मनोरमम् । सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं सुपक्षं धनदं क्षयम् ॥ ७० ॥ आक्रन्दं विपुलं ६ ___1 यव ६ अंगुल=१ । २४ अंगुल हाथ १। चारहाथ दंड १। “न हस्तमानेन गुणान्वितं स्याद्यदा तदा तद्गणितोक्तयुक्त्या । प्रदाय हिला यदि वाङ्गुलानि, प्रसाधयेत्क्षेत्रफलं शुभायम् ॥ १॥" अत्र शुभायमित्युपलक्षणं, तेन नक्षत्राद्यपि यथा तस्मिन् गृहेऽनुकूलमुत्पद्यते तथा क्षेत्रफलं साध्यम् । नक्षत्रानुकूल्यप्रकारश्चाग्रे वक्ष्यते-"प्रारब्धं संमुखे चन्द्रे" (७१ पृष्ठे) इत्यादिना । विशेषस्तु-"गृहेषु कर्मिकहस्तेन मानं खामिकरण वा। देवतानां तु धिष्ण्येषु कर्मिहस्तेन केवलम् ॥१॥" अत्र कर्मिहस्तः कांबिक (कार्मिक)हस्त इत्यर्थः । तथा देवगृहे भित्तिबाहुल्यं क्षेत्रफलमध्ये गण्यते, अन्यत्र तु भित्तयः क्षेत्रफलात् पृथग्गण्याः । उक्तं च-"क्षेत्रफलान्तभित्तीर्देवगृहेऽपि प्रकारयेद्विद्वान् । आक्रम्य बाह्यभूमि क्षेत्राद्भित्तीर्नृणां गेहे ॥१॥” इति व्यवहारप्रकाशे । इत्युक्का आयाः । अथ जन्मभम्-तत्र सामान्येन वास्तुनस्तावजन्मभं कृत्तिका । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे-“भाद्रपदतृतीयायां शनिदिवसे कृत्तिकाप्रथमपादे । व्यतिपाते रात्र्यादौ विष्ट्यां वास्तोः समुत्पत्तिः ॥ १॥" इष्टवास्तुनस्तु जन्मभानयनमेवम्-फलमष्टगुणमिति अधिकशब्दोऽप्रे सर्वत्र संबध्यते, फलाकोऽष्टगुणो भाप्ते इति भैः सप्तविंशत्या भागे यदधिक शेषं तिष्ठत्तदिष्टवास्तुनो जन्मभम् । अस्मादेव भात् गृहाणां खामिना सह षडष्टमकादि चिन्त्यते । तत्राष्टेति । तस्मिन् भाङ्केऽष्टभिर्भके शेषाङ्केन व्ययः स्यात्, अष्टभिर्भागाप्राप्तौ तु भाङ्क एव व्ययाङ्कः, व्ययश्च त्रेधा-पैशाच १ यक्ष २ राक्षस ३ भेदात् । यत्सारंग:"पैशाचस्तु समायः स्याद्राक्षसश्चाधिके व्यये । आयात्तनतरो यक्षो व्ययः श्रेष्ठोऽष्टधा लयम् ॥ २ ॥ शान्तः १ क्रूरः २ प्रद्योतश्च ३ श्रेयान ४ थ मनोरमः ५ । श्रीवत्सो ६ विभवश्चैव ७ चिन्तात्मको ८ व्ययोऽष्टमः ॥ २॥" अत्रैकशेषे शान्तो व्ययः, द्विशेषे क्रूरः यावत् शून्यशेषे चिन्तात्मक इति भावना ॥ 2 क्षेत्रफलाङ्के व्ययाङ्के तद्गृहनामाक्षरसंख्यां च क्षित्वा त्रिभिर्भागे यच्छेषं सोऽशः । तथाहि-एकशेषे इन्द्रांशः द्विशेषे यमांशः शून्यशेषे राजांशः ॥ 3 एताः किल ध्रुवादिसंज्ञाः सान्वर्थाः, तेन खर १ दुर्मुख २ क्रूर ३ क्षया ४ क्रन्दा ५ ख्यानि गृहाणि अशुभानि । तदुक्तं वास्तुशास्त्रे- "स्थैर्य १ धनं २ जयः ३ पुत्रा ४ दारिद्यं ५ सर्वसंपदः ६ । मनोह्लादः ७ श्रियो ८ युद्धं ९ वैषम्यं १० बान्धवा ११ धनम् १२ ॥१॥ क्षयश्च १३ मृत्यु १४ रारोग्यं १५ सर्वसंपदि १६ ति क्रमात् । ध्रुवादीनां फलं ज्ञेयं" इति। केचित्सुपक्षस्थाने विपक्षनामाहुः । पस्त्यानि गृहाणि ॥
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१०० जैन ज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे वास्तुद्वारम् ।
१६
चैव विजयं चेति षोडश । संप्रत्यमीषां पस्त्यानां प्रस्तारः प्रतिपाद्यते ७१ युग्मम् ॥ गुरोरधो लघुं न्यस्येत् पृष्ठे त्वस्य पुनर्गुरून् । अग्रतस्तूर्ध्ववद्देयाद्यावत्सर्वलघुर्भवेत् ॥ ७२ ॥ पूर्वादितो गृहद्वाराद्दिक्ष्व लिन्दैर्लघूदितैः ।
प्रस्तारस्थापना
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* प्रदक्षिणस्थैर्वेश्मानि स्युर्भुवादीनि षोडश ॥ ७३ ॥ प्रारब्धं
संमुखे चन्द्रे
1 यस्यां दिशि गृहद्वारम् । 'पूर्वादिदिग्विनिर्देश्या गृहद्वारव्यपेक्षया । भास्करोदय - दिक्पूर्वा न विज्ञेया यथा क्षुते' इति विवेकविलासे । 'गृहस्य मुखतः प्राचीं प्रकल्प्य तत्प्रदक्षिणम् । पर्यटद्भिरलिन्दैः स्युः प्रस्ताराद्वेश्मनां भिदा' इति दैवज्ञवल्लभे । 2 परिघचक्रवत् कृत्तिकादीनि सप्त सप्त भानि चतुर्दिक्षु न्यस्य यद्धं गृहस्योत्पद्यमानमस्ति तद्विचार्यते, यदि तद्धं गृहस्य द्वारदिशि समेति तदा तस्य गृहस्य संमुखश्चन्द्रः स्यात्, स चाशुभः, यतोऽग्रतःस्थे चन्द्रे कर्तुस्तत्र न निवासः । यदि तु पाश्चात्यभित्तिदिशि समेति तदेन्दुः पृष्ठस्थः स्यात् सोऽप्यशुभः । यतः पृष्ठस्थेन्दौ चौरकृतानि खात्राणि बहुशः पतन्ति । यदि तूभयपार्श्वभित्तिदिशोः समेति तदा भव्यम् । प्रासादेषु तु संमुखेन्दुः शुभाय । उक्तं च वास्तुशास्त्रे - प्रासादनृपसौध श्रीगृहेषु पुरतः शशी ” । अत एवात्र गृहीत्युक्तम् । इति चन्द्रबलम् । प्रीतिषडष्टमकादिकं राशिबलमपि तत्त्वतश्चन्द्रबलमेव । ताराबलं पृथग् त्विह नोक्तं, परं नक्षत्रकथने तदपि सुज्ञातत्वात्सूचितं ज्ञेयम् । तथाहि - गुरुशिष्यादिवदत्रापि त्रिपञ्चसप्तमी तारा त्याज्या, केवलं तत्र मिथो गण्यते, इह तु गृहेशभाद् गृहभं यावद्गण्यं गृहेशस्यैव प्रीतेरिष्टत्वात् । आह च सारंग : - " गणयेत् स्वामिनक्षत्राद्यावद्धिष्ण्यं गृहस्य च । नवभिस्तु हरेद्भागं शेषं तारा प्रकीर्तिता ॥ १ ॥ शान्ता १ मनोरमा २ क्रूरा ३ विजया ४ कलहोद्भवा ५ । पद्मिनी ६ राक्षसी ७ वीरा ८ आनन्दा ९ चेति तारकाः ॥ २ ॥ अथायाद्या उदाहियन्ते यथा कस्यचिद् गृहस्य दैर्घ्यं सप्त हस्ता नवाङ्गुलानि च = हस्त ७ अंगुल ९ । विस्तारश्च पञ्च हस्ताः सप्ताङ्गुलानि == हस्त ५ अं. ७ । द्वावपि हस्ताङ्कौ चतुर्विंशत्या संगुण्याङ्गुलानि मध्ये योज्यन्ते, जातो दैर्ध्याङ्कः सप्तसप्तत्यधिकं शतमङ्गुलानि १७७ । विस्ताराङ्कस्तु सप्तविंशं शतं १२७ । द्वयोरप्यङ्कयोर्मिथो घाते जातं द्वाविंशतिसहस्राः चतुःशत्ये कोनाशीतिश्च २२४७९, इदं क्षेत्रफलम् । अस्याष्टभिर्भागे शेषं सप्त ७ । सप्तमो गजायस्तस्य गृहस्येत्यागतम् १ । अथ भं— क्षेत्रफल २२४७९ मष्टभिर्गुणितं जातं लक्षमेकोनाशीतिसहस्रा अष्टशती द्वात्रिंशच १७९८३२ । अस्य सप्तविंशत्या २७ भागे शेषं द्वादश १२ । अश्विनीतो द्वादश भमुत्तर
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१२ ।।ऽ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे वास्तुद्वारम् । १०१
ध्रुव १
धन्य २
जय ३
नन्द ४
5555
ISSS
. IISS
SISS 7
खर ५
कान्त ६
मनोरम ७
सुमुख ८
।
। SSIS
ISIS
SIIS
lllS
सुपक्ष
दुर्मुख ९
क्रूर १०
विपक्ष ११
धनद १२
SSSI
| ISSI
SISI
क्षय १३
आक्रन्द १४
विपुल १५
विजय १६
1511
|SSI|
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न वस्तुं वास्तु कल्प्यते । पृष्ठस्थे खात(त्र) पाताय द्वयोस्तेन त्यजेद् गृही ॥ ७४ ॥ वैशाखे श्रावणे मार्गे पौषे फाल्गुन एव च । कुर्वीत फल्गुनी तस्य गृहस्येत्यागतम् । तच्च गृहं कल्पनया पूर्वाभिमुखं, तेनोत्तरफल्गुनी भं दक्षिणभित्तौ समागतवाद्भव्यम् २ । अथ व्ययः-भाको द्वादश, तस्याष्टभिर्भागे शेषं चत्वारः ४, चतुर्थः श्रेयान् व्ययः३ । अथांशः-तस्य गृहस्य कल्पनया ध्रुवसंज्ञा, तद्वर्णाङ्को द्वौ, व्ययाङ्कश्च चलारः, आभ्यां योजितं क्षेत्रफलं जातं २२४८५ । अस्य त्रिभिर्भागे शून्यशेषत्वाद्राजांशस्तद्गृहस्य ४ । चन्द्रबलं नक्षत्रोक्त्यवसरे उक्तम् ५। राशिबलं वग्रे वक्ष्यते । ताराबलं त्वेवम्-गृहेशस्य जन्मभं कल्पनया धनिष्ठा, ततो गणने उत्तरफल्गुन्यष्टमी तारा ६ ॥
1 वास्तुप्रारंभमिति सूत्रपातखातादिकर्मकरणेनेत्यर्थः । न विति, यदुक्कं-"शोकं १ धान्यं २ मृत्युदं ३ पञ्चतां च ४, खाप्तिं ५ नैःस्व्यं ६ संगरं ७ वित्तनाशम् ८ । खं ९ श्रीप्राप्तिं १० वह्निभीतिं ११ च लक्ष्मी १२, कुर्युश्चैत्राद्या गृहारंभकाले ॥ १॥” इति दैवज्ञवल्लमे । नवरमेते शुक्ल प्रतिपदाद्याश्चान्द्रमासा एव ग्राह्याः ॥
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१०२ जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्श वास्तुद्वारम् । वास्तुप्रारंभं न तु शेषेषु सप्तसु ॥ ७५ ॥ धामारभेन्नोत्तरदक्षिणास्यं, तुलालिमेषर्षभभाजि भानौ । प्राक्पश्चिमास्यं मृगकुंभकर्कसिंहस्थिते द्यंगगते न किश्चित् ॥ ७६ ॥ भाद्रादित्रित्रिमासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् । भवे४ द्वास्तोः शिरः पृष्ठं पुच्छं कुक्षिरिति क्रमात् ॥ ७७ ।। समाधिकव्ययं
1 तुलालीत्याद्युक्तेऽपि पूर्वोक्तचान्द्रमासपञ्चके एव, न शेषमासेष्विति खयं ज्ञेयम् । द्वषंगा द्विस्वभावा राशयः। न किञ्चिदिति चतुर्दिग्मुखमपि नारमेतेत्यर्थः । 'मेषधनसिंहस्थेऽर्के पूर्वामुखे गेहे कृते राजभयं । वृषकन्यामकरस्थेऽर्के दक्षिणामुखे गेहे कृते पुत्रादिमृत्युः । मिथुनतुलाकुंभस्थेऽके पश्चिमामुखे गेहे कृते संतापादि । कर्कवृश्चिकमीनस्थेऽर्के उत्तरामुखे गेहे कृते कुलक्षय" इति तु नारचन्द्रटिप्पनके ॥ 2 अत्र वास्तुनो दक्षिणपार्थोपपीडं सुप्तस्य नागस्याकारेण स्थापना, ततो भाद्रपदादिमासत्रिके प्राच्यां वास्तोः शिरः, दक्षिणस्यां पृष्ठं, पश्चिमायां पुच्छं, उत्तरस्यां कुक्षिः। मार्गादिमासत्रिके दक्षिणादिचतुदिक्षु शीर्षादीनि, फाल्गुनात्रिके पश्चिमादिचतुर्दिक्षु, ज्येष्ठादिमासत्रिके तूत्तरादिचतुर्दिक्षु । अयं भावः-कुक्षावेव प्रथमं खननारंभः कार्यः, नान्यदिक्षु । यदुक्तं-"शिरः खनेन्मातृपितृन्निहन्यात् , खनेच्च पृष्ठे भयरोगपीडाः । पुच्छं खनेत्स्त्रीशुभगोत्रहानिः, स्त्रीपुत्ररत्नानवसूनि कुक्षौ ॥१॥" इति दैवज्ञवल्लभे। केचिद्वास्तोर्वत्सनामाहुः । अनेन च वास्तोरङ्गादिकथनेन खातादौ दिग्नियम उक्तः। विदिग्नियमः पुनरेवम्-"ईशानादिषु कोणेषु वृषादीनां त्रिके त्रिके । शेषाहेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥१॥" अस्यार्थःसंहारेण शेषस्त्रिभित्रिभिर्मास4मति, ततो यदा मासत्रयं तन्मुखमीशाने तदा आग्नेये मासत्रयं नाभिः, नैर्ऋते मासत्रयं पुच्छं, वायव्यं मुत्कलं, श्रेयः । यदा वायव्ये मुखं तदेशाने नाभिः, आग्नेये पुच्छं, नैऋतं मुत्कलं, एवं संहारेण शेषो भ्रमति । वृषादित्रिके। ईशाने मुखम् , सिंहादित्रिके वायव्ये, वृश्चिकादित्रिके नैर्ऋते, कुंभादित्रिके खानेये मुखम् एवं च-“विदिक्त्रयं स्पृशस्तिष्ठेत् खवक्त्र १ नाभि २ पुच्छकैः ३ । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा भूखातकार्यमाचरेत् ॥ १ ॥ नाभौ च म्रियते भार्या धनं पुच्छे मुखे पतिः । इति मत्वा शिलान्यासे भूखाते तत्रयं त्यजेत् ॥ २ ॥” इति वास्तुशास्त्रे ॥ 3 यत्रायेन समोऽधिको वा व्ययस्तद्गृहं त्याज्यमिति सर्वत्र भाव्यम् । एतेन व्ययादधिक आयः श्रेष्ठः, सोऽपि विषमोऽतिश्रेष्ठः स्थिरत्वात् । यल्लल्ल:-"कुर्यात् स्थिराधिकायं खयोनिभं शुद्धतारांशम्" । इति । यस्य गृहस्य नाम कर्तुर्नाम्ना समम् । यत्र यमांशोत्पत्तिः । यस्य राशिना सह खामिराशेः शत्रुषडष्टमकं द्विद्वादशादिकमुत्पद्यते । यस्य च तारा स्वामितारातस्त्रिपञ्चसप्तमी स्यात् । चकाराद्यस्य भं रक्षोगणे स्वामिभयोन्या सह विरुद्धबलिष्ठयोनिकं वा, तद्गृहं त्याज्यम् । यल्लल्लः- "आयविरुद्ध भवने न सुखं षडष्टके स्थिते मरणम् । न धनं द्विद्वादशके नवपञ्चमके खपत्यमृतिः ॥ १॥ निधनं सप्तमतारे पञ्चम. तारे च तेजसो हानिः । विपदस्तृतीयतारे यमांशके गृहपतेर्मृत्युः ॥२॥" नाडीवेधस्तत्र
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविमर्शे वास्तुद्वारम् । १०३ कर्तुः समनामयमांशकम् । विरुद्धराशितारं च विनाऽन्यद्वेश्म शोभनम् ॥ ७८ ॥ क्रमाद्विप्रादिवर्णानां विषमायैर्ध्वजादिभिः । धीमद्भिर्धाम निर्दिष्टं प्रतीच्यादिमुखं क्रमात् ॥ ७९ ॥ ये गृहेऽलिन्दनियूहनिर्गमाद्या-३ श्चतुर्दिशम् । न तेष्वायादिकं योज्यं बाह्यभूषासु वास्तुनः ॥ ८० ॥ सूत्रस्य सिद्धिर्वसुनाथहस्तमैत्रस्थिरस्वातिशतर्भपुष्यैः । न्यासः शिलायाः करपुष्यमार्गपौष्णध्रुवेषु श्रवणे च शस्तः ॥ ८१ ॥ चरादन्यत्र लग्नेन्द्वोः ६ शुभैः संयुक्तदृष्टयोः । कर्मस्थितेषु सौम्येषु गेहारंभः शुभावहः ॥ ८२॥ केन्द्रत्रिकोणगैः सौम्यैः क्रूरैः शत्रुत्रिलाभगैः । शुभाय भवनारंभोऽष्टमः । श्रेष्ठ एव, तद्भावे योनिविरोधादिदोषाणामप्यदुष्टवसंभवात् । नन्वस्त्वेवं, परं यत्र गृहे द्विपादं त्रिपादं वा भं स्यात्तत्र कथं गृहस्य राशिः कल्प्यते, तत्कल्पनां च विना कथं षडष्टमकादिर्विचार्यते ? उच्यते-तदा भपाद आनीयते । तथाहि-"क्षेत्रफले रद ३२ गुणिते भक्त वखभ्रभूमिभिः १०८ शेषात् । व्येकानवभिः शेषं पादो लब्धं वृषाद्भगणः ॥१॥” इति व्यवहारप्रकाशे । उदाहृतगृहस्य भमुत्तराफल्गुनीति त्रिपादं, ततस्तत्रैवा. स्यार्थो भाव्यते-प्रागानीतं क्षेत्रफलं २२४७९, इदं द्वात्रिंशता गुणितं जातं सप्तलक्षा एकोनविंशतिसहस्रास्त्रिशत्यष्टाविंशतिश्च ७१९३२८ । एषामष्टशतेन भागे शेषमष्टचवारिंशत् ४८ । व्येकं ४७ । तस्य नवभिर्भागे लब्धं पञ्च । वृषात् पञ्चमो राशिः कन्या । शेषं च द्वौ । उत्तरफल्गुनीभस्य द्वितीयः पादः तस्य गृहस्येत्यागतम् । ततश्च धनिकस्य धनिष्ठोत्तरार्धजन्वा जन्मराशिः कुंभः, स च विषमः तस्मादष्टमस्य कन्याराशेः प्रीतिषडटमकं "ओजात्स्यादष्टमे प्रीतिः" इत्युक्तेः ॥ ___1 धनिष्ठा । तिथिवारशुद्धिस्तु रिकादिवर्जनात्स्फुटैव। रविवारस्त्विष्टः। 2 स्थिरे द्विखभावे वा लग्ने । चन्द्रेऽपि च स्थिरद्विखभाकराशिस्थे । 3 मृत्यवे इति गृहखामिन इति शेषः । विशेषस्तु-"गुरुर्लग्ने जले शुक्रः स्मरे ज्ञः सहजे कुजः । रिपौ भानुर्यदा वर्षशतायुः स्याद्गृहं तदा ॥१॥ सितो लग्ने गुरुः केन्द्रे खे बुधो रविरायगः । निवेशे यस्य तस्यायुर्वेश्मनः शरदां शतम् ॥ २॥ त्रिशत्रुसुतलग्नस्थैः सूर्यारेज्यसितैर्भवेत् । प्रारंभः सद्मनो यस्य तस्यायुट्टै समाशते ॥ ३ ॥ व्योनि चन्द्रः सुखे जीवो लामे भौमशनैश्चरौ । यस्य धानः समाशीति स्थितिस्तस्य श्रिया युता ॥ ४ ॥ खोच्चस्थे लग्नगे शुके १ हिबुकस्थेऽथवा गुरौ २ । खोचे मन्देऽथवा लामे ३ धाम्नः सश्रीः स्थितिश्विरम् ॥५॥" चिरमिति अमितायुरित्यर्थः । येऽमी गृहारंभलग्ने विशेषा उच्यमानाः सन्ति ते जिनालयादिप्रारंभलनेष्वपि योज्याः। तथा-"खः चन्द्रे विलग्नस्थ जीवे कंटकवर्तिनि । भवेलक्ष्मीयुते धानि भूरिकालमवस्थितिः ॥ ६॥ खमित्रोच्चगृहांशस्थैस्तद्वंश्याश्चिरमासते । खगैरन्यगतैरन्ये नीचगैश्चापि निर्धनाः ॥ ७ ॥ अनस्तगैः सितेज्येन्दुजन्मराशिविलग्नपैः । खोच.
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१०४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ चतुर्थविम वास्तुद्वारम् ।
क्रूरस्तु मृत्यवे ॥ ८३ ॥ वर्णेशो दुर्बलः कुर्यादावर्षादन्यहस्तगम् । एकोऽपि यूनकर्मस्थ: पेरांशे स्याद्यदि ग्रहः ॥ ८४ ॥ गृहप्रवेशं सुविनीतवेषः, ३ सौम्येऽयने वासरपूर्वभागे कुर्याद्विधायालयदेवतार्चा, कल्याणधीभूतबलिक्रियां च ॥ ८५ ॥ विशेद्वेश्म वारेषु हित्वार्कक्षितिनन्दनौ । भैच पुष्यध्रुवस्वातिधनिष्ठामृदुवारुणैः ॥ ८६ ॥ विधाय वामतः सूर्यं पूर्णकुंभ६ पुरस्सरः । गृहं यद्दिङ्मुखं तद्दिद्वारधिष्ण्ये विशेषतः ॥ ८७ ॥ जन्मराशिविलग्नाभ्यां प्रथमोपचयस्थितम् । लग्नं स्थिरं तदंशाश्च प्रवेशे ८ सद्भिरिष्यते ॥ ८८ ॥ ५ ॥ इति वास्तुद्वारम् ॥ ९9 इति वार्त्तिकानुसारेण चतुर्थो विमर्शः समाप्तः ।
स्वक्षेत्रभागस्थैर्भवेच्छ्रीसौख्यदं गृहम् ॥ ८ ॥ गृहिणीन्दौ गृहस्थोऽर्के गुरौ सौख्यं सि धनम् । विबले नाशमायाति नीचगेऽस्तंगतेऽपि च ॥ ९ ॥” इति दैवज्ञवल्लभे । तथा"गृहेषु यो विधिः कार्यो निवेशनप्रवेशयोः । स एव विदुषा कार्यों देवतायतनेष्वपि ॥ १ ॥” इति व्यवहार प्रकाशै ।
I
1 परकीयनवांशे । 2 उत्तरायने । 3 चन्द्रे गोचराष्टकवर्ग विधिनाऽनुकूलेऽरक्त तिथौ विष्कंभादियोगाभावे चेति स्वयमूह्यम् । 4 रोग रक्तप्रकोपकारित्वात् । 5 "विशाखासु राज्ञी - सुतो दारुणेषु, प्रणाशं प्रयात्युग्रभेषु क्षितीशः । गृहं दह्यते वह्निना वह्निधिष्ण्ये, चरैः क्षिप्रधिष्ण्यैश्च भूयोऽपि यात्रा ॥१॥” इति दैवज्ञवल्लभे । 6 पूर्णकुंमेति जलकलशानग्रतः कृत्वेत्यर्थः । गृहं यद्दिग्मुखमिति अयं भावः- पूर्वाभिमुखे गृहे पूर्वद्वारकेषु कृत्तिकादि सप्तमेषु प्रवेष्टुमधिकारः, तेन पूर्वोक्तगुणयुतमपि प्रवेशभं यदि गृहाभिमुखदिग्द्वारकं स्यात्तदाऽतीव शुभं । विशेषस्तु - " सर्वग्रहैर्विमुक्तं प्रवेशभं शस्यते प्रयत्नेन । कैश्चित्सौम्यसमेतं शुभप्रदं कीर्तितं मुनिभिः ॥ १ ॥” इति लल्लः । तथा नव्यगृहप्रवेशे शुक्रः संमुखस्त्याज्यः । यत् त्रिविक्रमः—“त्यजेत् कुतारां प्रस्थाने शुक्रज्ञौ गृहवेशके । यात्रासु च नवोढस्त्रीवर्ज संमुखदक्षिणी ॥ १ ॥ " अत्र गृहवेश के इति नव्यगृहप्रवेशे ॥ 7 प्रथमं जन्मराशिजन्मलग्नरूपमेव लग्नं प्रवेशे श्रेयः । यललः - "खनक्षत्रे स्वलग्ने वा खमुहूर्ते व तिथौ । गृहप्रवेशमङ्गल्यं सर्वमेतत्तु कारयेत् ॥ १ ॥” क्षुरकर्म विवादं च यात्रां चैव न कारयेत् ।” ताभ्यामुपचयस्थोऽपि राशिर्लग्ने शस्तः । यल्लल:-' - " आरोग्यदो १ धनहरो २ धनदः ३ सुखनः ४, पुत्रान्तको ५ ऽरिगणहा ६ ऽथ नितम्बिनीम्नः ७ । प्राणान्तकृत् ८ पिटकदो ९ ऽर्थ १० धनौघ ११ भीदो १२, जन्मर्क्षतस्तदुदयाच्च विलग्नराशिः ॥ १ ॥” स्थिरमिति सामान्योक्तेऽपि ग्राम्यं स्थिरं ग्राह्यं, न त्वारण्यम् । अनेन वृषकुंभयोरन्यतरे लग्ने तन्नवांशे च प्रवेशः श्रेष्ठः, तयोरेव ग्राम्यत्वादिति भावः । तदंशश्चेति चकाराद्विखभावावपि लग्नांशौ प्रवेशे दुष्टौ न । चराणामेव लग्नांशानां दोषोक्तेः, तथाहि - " पुनः प्रयाणं मेषे स्यान्मृत्युः कर्के तुले रुजः । धान्यनाशो मृगे लग्नैरंशैश्च फलमीदृशम् ॥ १॥
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जैनज्योतिर्ब्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्शे लमद्वारम् । १०५
दीक्षा शुक्रास्तेऽपि न दुष्टेति दिक्शुद्धिग्रंथे
ग्रहसंस्थेयं गृहनिवेश प्रवेशयोः
चतुर्थ विमर्शो ज्योतिषसारोक्ता
उत्तम
बुध
गुरु
शुक्र
शनि | ३-६-११ राहु ३-६-११
मध्यम
रवि ३-६-११
९-५
चन्द्र |१-४-७-१०-९-५ -३ - ११ | ८-२-६-१२
मंगल | ३-६-११
९-५
१-४-७-१०-९-५-३-११ | ८-२-६-१२ १-४-७-१०-९-५-३-११ | ८-२-६-१२ १-४-७-१०-१-५-३-११ ८-२-६-१२
९-५
९-५
--
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अधम
८-१-४-७-१०-१२-२
●
८-१-४-७-१०-१२-२
८-१-४-७-१०-१२-२ ८-१-४-७-१०-१२-२
॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ५
लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते । रवौ मकरकुंभस्थे मेषादित्रयगेऽपि च ॥ १ ॥ माघफाल्गुनयो राधज्येष्ठयोश्चापि मासयोः | ३
1 उपस्थापनायामपि । 2 जिनबिम्ब प्रासादादीनाम् । 3 राज्याभिषेकसूरिपदाभिषेकयोरपि । 4 अवश्यादरणीयतया बहुमन्यते । तथा 'पाकस्वामिनि लग्नगे सुहृदि वा वर्गस्य सौम्येऽपि वा प्रारब्धा शुभदा दशा त्रिदशषड्डामेषु वा पाकपे । मित्रोच्चोपचयत्रिकोणमदने पाकेश्वरस्य स्थितश्चन्द्रः सत्फलबोधनानि कुरुते पापानि चातोऽन्यथा' ॥ अत्र पाकस्वामिनीति दशापतौ । अपि च प्राणिनां जन्मलग्नमशुभमपि तत्कालविवाहादि लग्नबलाच्छुभम् । 5 राधो वैशाखः । एते शुक्ल प्रतिपद्याश्चान्द्रमासा एव ग्राह्याः । ज्येष्ठयोरिति, ननु ज्येष्ठे तावन्मिथुनसंक्रान्तिः स्यात् सा च प्रागपि ग्राह्योक्ता, ततः किमिति पुनर्ज्येष्ठोपन्यासः ? उच्यते-आषाढमासे मिथुनसंक्रान्त्यामपि सत्यां सर्वथा निषेधार्थम् । कैश्चिन्मिथुनसंक्रान्तौ सत्यामाषाढस्य शुक्लदशमीं यावदाद्यस्त्रिभाग आदृतोऽपि । तथा च त्रिविक्रमः - "कैश्चिदिष्टत्र्यंशः शुचेरपीति”। कार्तिकेति कार्तिकमार्गशीर्षयोर्मध्यमत्वात् हीनजातिविवाहः स्यादिति भावः, परं कार्तिकशुक्लैकादश्यनन्तरमेवेत्यूह्यम् । यदुक्तम् – “ कार्तिकमासे शुद्धिर्गुरोर्विलोक्या रवेश्च चन्द्रबलम् । अक्रूरयुते धिष्ण्ये देवोत्थानाद्दशाहं स्यात् ॥ १ ॥” इति व्यवहार प्रकाशे । एतेन शेषेषु षट्सु चान्द्रमासेषु लग्नं न ग्राह्यमेवेत्यर्थः । पाकश्रीकारस्त्वाह“चतुर्षु कार्तिकादिमा सत्रिकेषु क्रमाच्चत्वारि स्थिरराशिलग्नान्य मृतस्वभावानि, तथा हि-कार्ति कादिमासत्रये वृषलग्नं शुभम् माघादिमासत्रये सिंहलग्नम्, वैशाखादित्रये वृश्चिकलग्नम्, श्रावणादित्रिके कुंभलग्नं च । एषां वर्गोत्तमस्य मध्यमांशस्योदये सर्वकार्यसिद्धिः ॥
जै० १४
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१०६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श लममिश्रद्वारे। लग्नं श्रेयः परे त्वाहुस्तद्वत्कार्तिकमार्गयोः ॥२॥ जीवे सिंहस्थे धन्वमीनस्थितेऽर्के विष्णौ निद्राणे चाधिमासे च लग्नम् । नीचेऽस्तं वाप्ते लग्नना३थेऽशपे वा, जीवे शुक्रे वास्तंगते वापि नेष्टम् ॥ ३ ॥ जीर्णः शुक्रोऽहानि पञ्च प्रतीच्यां प्राच्यां बालखीण्यहानीह हेयः । त्रिनान्येवं तानि दिग्वैपरीये, पक्षं जीवोऽन्ये तु सप्ताहमाहुः ॥ ४ ॥ ॥ इति लमद्वा६ रम् ॥ १. लग्ने गुरोर्वरस्याथ ग्राह्यं चान्द्रबलं बुधैः । शिष्यस्थापक
1 बहवोऽप्येवं जगदुः सिंहारूढोऽपि वृत्रशत्रुगुरुः । समतिक्रान्तमघों न विरुद्धः सर्वकार्येषु ॥ सिंहस्थज्यानुसिंहाशाजाह्नवीतीरयोर्द्वयोः । न दुष्टो गंगयोर्मध्यदेशेषु तु स दुःखदः ॥ भागीरथ्युत्तरे तीरे गोदावर्याश्च दक्षिणे । विवाहो व्रतबंधो वा सिंहस्थज्ये न दुष्यति ॥ सिंहट्ठियजीवो महभुत्तं होइ अह रवि मेसे । ता कुणह निव्विसंकं पाणिगहणाई कल्लाणं । प्रतिष्ठादीक्षादिशेषकार्येष्वप्येवमेव ॥ झषो न निद्यो यदि फाल्गुने स्यादजस्तु वैशाखगतो न निंद्यः । मध्वाश्रितौ द्वावपि वर्जनीयौ, मृगस्तु पौषेऽपि गतो न निंद्यः" केचिदत्र अजस्तु चैत्रेऽपि गतो न निन्द्यः इत्याहुः । 'असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात् द्विसंक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात् ततो वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात् । रविकिरणमध्यवर्ती चरति सदा सवितृमंडले शशिजः । तस्मान्न दोषकृत् स्यात् सोऽस्तं यातोऽपि भांशपतिः ॥ छस्सयसह ३६. छतीसा ३६ तिन्निबहुत्तर ३७२ दुएगपन्नासा २५१ तिनिबयाला ३४६ अंगारयमाई उदयदिवस कमा ॥ सुनरवि १२० सोल १६ दसणा ३२ नंद' ९ बयालीस ४२ पच्छिमत्थदिना । भोमाई तह पुग्वे बुह सिय बत्तीस ३६ सगसयरी ७७ ॥ 2 गुरुरपि त्र्यहं बाल पञ्चाहं वृद्ध इत्येके । 3 सप्ताद्या उभयोरपि गुरुशुक्रयोरुभयोरपि दिशोरुदयेऽस्ते च बाल्यं वार्द्धकं च सप्ताहमेवाहुः । अरिगय नीए वक्के अत्थमिए लग्गरासि निसिनाहे । अबले रविगुरुसुक्के सामिअदिटुं चयह लग्गं ॥ 4 लग्ने इति लग्नसमये । गुरोरिति दीक्षाप्रतिष्ठालग्नयोर्गुरोः विवाहलग्ने तु वरस्य । चान्द्रबलमिति प्रागुक्तविधिना राशिगोचर १ नवांशगोचरा २ऽष्टवर्गशुद्धि ३ शुभतारा ४ शुभावस्था ५ वामवेध ६ शुक्लेतरपक्षप्रारंभ मित्राधिमित्रगृहस्थिति ८ सौम्यगृह स्थिति ९ मित्राधिमित्रांशस्थिति १० सौम्यांशस्थिति ११ मित्राधिमित्रग्रहयुति १२ सौम्यग्रहयुति १३ मित्राधिमित्रग्रहदृष्टि १४ सौम्यग्रहदृष्टि १५ प्रकाराणामन्यतमेनापि प्रकारेण चन्द्रानुकूल्यबलं ग्राह्यमेव । यदुक्तं-"सर्वत्रामृतरश्मेर्बलं प्रकल्प्यान्यखेटजं पश्चात् । चिन्त्यं यतः शशांके बलिनि समस्ता ग्रहाः सबलाः ॥१॥" शिष्येति-शिष्यो दीक्षणीयः पदे स्थाप्यमानो वा, स्थापको यः श्राद्धादिव्यं व्ययति । जीवेन्द्वति एतान्यवश्यग्राह्याणि । यदुक्तं-"रविशशिजीवैः सबलैः शुभदः स्याद्गोचर" इति । ग्रहाणां बलतारतम्यादिविभागश्चैवम्-“पूर्ण २० खेटाष्टकबलमूनं पादेन १५ गोचरं प्रोक्तम् । वेधोत्थमर्धमानं १० पादबलं ५ दृष्टितः खचरे
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १०७
कन्यानां जीवेन्द्वर्कबलानि च ॥ ५ ॥ ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे मासि स्यात्पाणिपीडनम् । न पुनस्रयमप्येतन्मासाहर्भेषु जन्मनः ॥ ६॥ सादिम ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदग्रतः । त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाचापि संक्रमात् ॥ ७ ॥ भद्रार्धयामगण्डान्तकुलिकोत्पातदूषितम् । दिनं तपसि ४ ॥१॥" इदं सामान्येन सर्वग्रहानाश्रित्योक्तम् । चन्द्रस्य तु विशिष्याह-"एणांके गोचरबल १ मष्टक २ तारोत्थ ३ वेध ४ पक्षभवम् ५ । क्रमशस्तारा १ वेधज २ पक्षभवानी ३ ह गौणानि ॥ २ ॥” क्रमश इति एतानि बलानि यथोत्तरं न्यून १ न्यूनतर २ न्यूनतमानि ३ । आयबलयोस्तु खरूपमाह--"ग्रहगोचरा १ ष्टवर्गो २ तुल्यबलौ शुद्धिकारणादनयोः। एकेनापि बलेन प्राप्तेन भवेत्सुशुद्धिरिह ॥ ३ ॥ चेन्गोचरान्न हि भवेत्तदाऽष्टवर्गाद्विलोक्यते शुद्धिः । गोचरतोऽष्टकवर्गो बलवानुद्वाहदीक्षादौ ॥ ४ ॥ तस्मादष्टकशुद्धिमुरोर्विलोक्या रवेश्च चन्द्रस्य । निधना ८ न्या १२ऽम्बु ४ गतेष्वपि रेखाधिक्यात्सुशुद्धिः स्यात् ॥ ५॥ समशुद्धिरपि श्रेष्ठा शुद्धिपतेर्यदि भवेच्छुभा रेखा । शुद्धीशस्य न रेखा यदा तदा षड्विधादिवीर्यवतः ॥ ६ ॥ मित्रग्रहस्य रेखा समरेखां शुद्धिमुत्तमां कुरुते । तामन्तरेण मुनिभिर्न ह्यधिकाऽपि प्रशस्यते रेखा ॥ ७॥ समशुध्यामष्टकतः शुद्धिपते रेखिकामृते वेधात् । शुभदे ग्रहे सति शुभा शुद्धिः स्यात् प्रोच्यते विबुधैः ॥ ८॥ तथा-नवमद्विपञ्चमगतः समरेखोऽप्यधिकशुभफलः सूर्यः । संक्रमकालेन्दुबलात् समोऽपि सर्वत्र शुभदोऽर्कः ॥ ९ ॥ तथा-दशमादूचं केवललग्नबलेन स्त्रिया विवाहः स्यात् । शुद्धि वालोक्या रवीज्ययोः पूजयोद्वाहः ॥ १० ॥" अत्र दशमादिति वर्षादिति शेषः । इतीदं सर्व व्यवहारप्रकाशे । “जन्मद्विपश्चनवमधुनगः खरांशुः, पूजा च वाञ्छति न चाष्टचतुर्व्ययस्थः । जीवस्त्रिजन्मदशमारिगतस्तु पूजामिच्छेत्कदाचिदपि नाष्टचतुर्व्ययस्थः ॥ १॥” इति तु व्यवहारसारे । अत्र न चेति यत्रस्थः पूजां नेच्छति तत्रात्यन्तमशुभवात् पूजयाऽप्यनुकूलो न स्यादिति भावः । गर्गस्वाह-"गोचरविरुद्ध जीवे वैधव्यमेव, पूजा खप्रमाणम् ॥
1 दीक्षाप्रतिष्ठोद्वाहरूपम् । 2 जन्ममासिविपरीतपक्षयोर्व्यत्यये दिननिशोर्जनुस्थितौ । जन्ममेऽपि किल राशिमेदतः पाणिपीडनविधिन दुष्यति । जन्मतिथेराक्तिथिग्रहणेऽपि न दोषः । नो जन्मभं च कार्य बलिनि शुभं केन्द्रगे सौम्ये ॥ 3 त्रयोदशीतो दशाह सूर्येन्दुग्रहणे त्यजेदिति केचित् । सर्वप्रस्तेषु सप्ताहं पंचाहं स्याइलाहे । त्रिद्वकार्धाङ्गुल मासे दिनत्रयं विवर्जयेत् । राही दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकं । त्यक्त्वा वेतालसंसिद्धिं पापदम्भमयं तथा। 4 एकान्तिककार्ये तु दिनत्रयस्य त्यक्तुमशक्यत्वे प्राक् पश्चात् षोडशावश्यं त्याज्या नाड्योऽकसंक्रमात इत्यपि बहूनां मतम् । 5 न तु प्रतिष्ठायाम् । तेजखिनी १ क्षेमकृद् २ अमिदाहविधायिनी ३ स्याद्वरदा ४ दृढा ५ च । आनन्दकृत् ६ कल्पनिवासिनी च ७ सूर्यादिवारेषु भवेत् प्रतिष्ठा । एषां लग्ने षड्वर्गेऽप्ययमेव फलम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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१०८ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । राकां च स्थापने च कुजं त्यजेत् ॥ ८॥ उद्वाहे मृगपैत्रः प्रतिष्ठायां तु ते उभे । आदित्यपुष्यश्रवणधनिष्ठाभिः समं शुभे ॥ ९॥ दीक्षायां ३ त्वाश्विनादित्यवारुणश्रुतयः शुभाः । त्रिषु मैत्रंकरः स्वातिर्मूलः पौष्णध्रुवाणि च ॥ १० ॥ स्त्रियः प्रियत्वमुद्वाहे मूलाहिर्बुधवैश्वभैः । पौष्ण
जैनप्रतिष्ठायां | रो म| पु | पु म | उ.फा | ह स्वा | दीक्षायां अश्वि रो पुन | उ.फा | ह | खा | अनु | मू | विवाहे रोम म उ.फा| ह | खा | अनु | मू जैनप्रतिष्ठायां | अनु | मू । उ.षा | श्र दीक्षायां उ.षा| श्र | श | उ.
विवाहे उ.षा | उ.भा | रे । ब्राह्ममृगैः पुंसां मिथः शेषैस्तु पञ्चभिः ॥ ११ ॥ वर्णकाद्यं विवाहः ६ कुमार्या वरणं पुनः । स्वातिपूर्वानुराधाभिर्वैश्वत्रयहुताशभैः ॥ १२ ॥
लग्नादर्वान कुर्वीत त्रिषष्ठनवमे दिने । कुसुंभमण्डपारंभवेदीवर्णयवारकान् ॥ १३ ॥ नान्ये प्रतिष्ठां जन्मः दशमे षोडशे च भे । अष्टादशे
1 दीक्षोद्वाहराज्याभिषेकादिष्वपि त्याज्यः। 2 प्रस्तावाजैननिम्बादेः। 3 एषामेवैकादशभानां वैवाहिकत्वाच्छेषभानां न परिगणनम् । 4 जन्मः इति प्रतिष्ठाप्यस्य प्रतिष्ठाकारयितुश्च जन्मभे, तदपरिज्ञाने नाममे वा, तस्माद्दशमादिषु च मेषु प्रतिष्ठा न कार्या । श्रीहरिभद्रसूरिभिस्वेवमूचे-“कारावयस्स जम्मण रिरकं दस सोलसं तहहारं । तेवीस पंचवीस बिंबपइट्ठाइ वजिज्जा ॥१॥" विशेषतस्तु एषां भानां संज्ञा इमा:-"जन्माचं दशमं कर्म संघातं षोडशं पुनः। अष्टादशं समुदयं त्रयोविंशं विनाशभम् ॥१॥ मानसं पञ्चविंशं भमिति षड्भोऽखिलः पुमान् । जातिदेशाभिषेकैश्च नव धिष्ण्यानि भूपतेः॥२॥" तत्र जातिधिष्ण्यान्येवम्-"विप्राणां कृत्तिकापूर्वी ३ राज्ञां पुष्यस्तथोत्तराः ३ । सेवकानां धनिष्कैन्द्रचित्रामृगशिरांसि च ॥१॥ उग्राणां भानि वायव्यमूलार्दाशततारकाः। कर्षकाणां मघाः पौष्णमनुराधाविरचिभम् ॥ २॥ वणिजामश्विनी हस्तोऽभिजितादित्यमेव च । चण्डालानां श्रुतिः सार्प यमदेवं द्विदैवतम् ॥३॥" देशभानि तु यथा पद्मचके । राज्याभिषेकभं खभिषेकक्षम् । ननु जन्मादीनां त्यागः कस्मात् क्रियते ? उच्यते-प्रायो भानि क्रूरग्रहाद्यैः पीड्यन्ते, यदि चेष्टपुंसो जन्मादीनि प्रतिष्ठादिष्वधिक्रियन्ते तदा तेषु क्रूरग्रहाद्यैः पीडितेषु सत्सु तस्य पुंसोऽनिष्टं स्यात्, यदि तु नाधिक्रियन्ते तदा तानि पीडितान्यपि नानिष्टफलं दातुमलम् । कथमेवमिति चेदुच्यते यथा-"विलमस्थोऽष्टमो राशिर्जन्मलग्नात् सजन्मभात् । न शुभः सर्वकार्येषु लग्नाचन्द्रस्तथाऽष्टमः ॥१॥" इत्यादि दैवज्ञवल्लमे । एवंविधाश्च लग्नादियोगा बहुशोऽपि मिलन्ति, न च किमप्यनिष्टफलं दद्युः।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्शे मिश्रद्वारम् । १०९ त्रयोविंशे पञ्चविंशे च मन्वते ॥ १४ ॥ क्रूरेण मुक्तमाक्रान्तं भोग्यं १
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यदि तु यात्रादिष्वधिक्रियन्ते तदाऽनिष्टफलदाः प्रायः स्युरेव तथाऽत्रापि जन्मर्क्षादीनां पीडा तत्फलं चैवम् — "केवर्कार्किभिराक्रान्तं भौमवक्रभिदाहतम् । उल्का ग्रहणदग्धं च नवधाऽपि न भं शुभम् ॥ १ ॥ ततश्च – देहविनाशो जन्मर्क्षपीडने कर्मणश्च कर्म । उत्सवबान्धवनाशौ समुदयसंघातयोर्हतयोः ॥ २ ॥ स्वतनुविनाशो वैनाशिके हते मानसे मनस्तापः । कुलदेशस्त्रीनाशो जातिभदेशाभिषेकेषु ॥ ३ ॥ राज्याभिषेकदिवसेऽभिषेकधिष्ण्यं च देशनक्षत्रम् । पद्मविभागे ज्ञेयं प्रादक्षिण्येन भूमध्यात् ॥ ४ ॥” पद्मचक्रस्थापना चैवम्—
“कर्णिकाष्टदलैराढ्ये च । प्राच्यादिस्थेषु त्र्यादितः ॥ ५ ॥ " “त्रितयैराग्नेयाद्यैः मेण नृपाः। पाञ्चालो
कालिंगश्च ३ क्षयं वन्त्यो ४ थान सिन्धुसौवीरः ६ ।
मद्रेशो ८ ऽन्यश्च अत्र क्षयं यान्तीति
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पद्मे नाभौ दलेषु भानीह न्यस्याग्निभतथाहि- - ततश्वक्रूरग्रहपीडितैः क्र१ मागधिकः २
यान्ति ॥ ६ ॥ आ५ मृत्युं चायाति राजा च हारहूरो ७ कौणिन्दः ९॥७॥” एषां देशानां कर्ण
कायां पूर्वाग्नेय्याद्यष्टदिक्पत्रेषु च स्थितत्वादिति भावः । दिङ्मात्रं चेदं देशेशानां नामपरिगणनं, तेन नवखंडकल्पितोर्व्यां यत्र खंडे ये ये देशाः स्थिताः स्युस्ते ते देशास्तत्तद्भेषु पीडितेषु पीड्यन्ते इत्यूह्यम् । नरपतिजयचर्यायां तु पद्मस्थाने कूर्मस्थापनयाऽयमेवार्थो वर्णितः । अन्ये जन्मभवदेकोनविंशमा धानभमपि क्रूरग्रहपीडितत्वे सति प्रवासदायित्वाद्वर्जयन्ति । सर्वमिदं लल्लकृते रत्नकोशे ॥
1 क्रूरेणेति क्रूरत्वमत्र खाभाविकं प्राह्यम्, न लौपाधिकम्, यथा क्षीणत्वेनेन्दोः पापयुतत्वेन बुधस्य चेति । ततोऽयमर्थः - यद् भं क्रूरेण रविकुजशनिराह्वन्यतरेण भुक्ला मुक्तम्, आक्रान्तं तेनैव भुज्यमानम्, भोग्यं तु तदनन्तरमेव भोक्ष्यमाणम् । एषां फलानि त्वेवम् — “क्रूराश्रितक्रूरविमुक्तक्रूरगन्तव्यधिष्ण्येषु कुमारिकाणाम् । वदन्ति पाणिग्रहणे मुनीन्द्रा, वैधव्यमब्दैस्त्रिभिर त्रिमुख्याः ॥ १ ॥” इति सारंगः । अन्ये त्वाहुः - " भुक्तं भोग्यं च नो त्याज्यं सर्वकर्मसु सिद्धिदम् । यत्नात्त्याज्यं तु सत्कार्ये नक्षत्रं राहुसंयुतम् ॥१॥" ग्रहणभमिति यत्र दिनभेऽर्केन्द्वोर्ग्रहणं जातम् । ग्रहोदयेति यत्र दिनमे ग्रहा उदयमस्तमयं वाऽकार्षुः । आगमे च वक्रिग्रहाक्रान्तमपि भं त्याज्यमूचे, तथाहि - "विड्डेरमवद्दारिअ” अत्रापद्वारितं वक्रिग्रहृाक्रान्तमित्यर्थः । ग्रहैर्भिन्नमिति भौमाद्याः पञ्च ताराग्रहा यस्य
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११० जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । ग्रहणमं तथा । दुष्टं ग्रहोदयास्ताभ्यां ग्रहैभिन्नं च भं त्यजेत् ॥ १५ ॥
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कृत्तिकारोहिण्यादेमध्येन भित्त्वा ययुखद्रहभिन्नम् । उकं च लमशुद्धौ-"मज्झेण गहो जस्स उ गच्छद तं होइ गहभिन्नं।" नारचन्द्रटिप्पनके खेवम्-यत्र प्रहाणां वामदक्षिणा दृक् पते. तगृहभिन्नं । हग्ज्ञानायात्र सप्तरेखचक्रवत्कृत्तिकादिसप्तसप्तभानां चतुर्दिा स्थापना यथात्र पृष्ठे ततश्च-“यस्मिन् धिष्ण्ये स्थितः खेटखतो वेधत्रयं भवेत् । ग्रहदृष्टिप्रभावेण वामदक्षिणसंमुखम् ॥ १॥ वक्रगे दक्षिणा दृष्टिमिदृष्टिश्च शीघ्रगे । भौमादिपञ्चकस्य स्यान्मध्यदृष्टिश्च मध्यमे ॥ २॥ राहुकेतू सदा वक्रौ सदा शीघ्रौ विधूष्णगू । क्रूरा वका महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभाः ॥३॥ वेधद्वयं भजति धिष्ण्यमिभारिदंष्ट्रासंस्थानदिग्द्वयगतोडुगतग्रहाभ्याम् । एक तथाऽभिमुखसंस्थितमध्यनासापर्यन्तभागधृतधिष्ण्यगतग्रहेण ॥ ४ ॥” इति नरपतिजयचर्यायाम् । उदाहरणं यथा-मृगशीर्षे कार्यचिकीर्षा, चित्रायां च कश्चिद्भौमादिसप्तकान्यतमो वक्री प्रहः स्यात्तदा तस्य वक्रगतित्वेन दक्षिणा दृग्मृगशीर्षे पतिता। रेवत्यां चार्कादिसप्तकान्यतमः कश्चिदतिचारी प्रहः स्यात्तदा तस्य शीघ्रगतित्वेन वामा दृगित्युभ. यतो ग्रहदृक्पानात्तदा मृगशीर्ष प्रहभिन्नं स्यात् । उत्तराषाढायां च भौमादिपञ्चानां मध्ये कश्चिन्मध्यगविग्रहः स्यात्तदा सम्मुखडशा तृतीयस्तद्वेधोऽपि । एवमन्यत्रापि भाव्यम् । परमेष तृतीयो वेधो वेधेनैकार्गलेल्यस्मिन् श्लोकेऽधिकरिष्यते, शेषाभ्यां खत्राधिकारः॥
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १११ धिष्ण्यं कार्याय पर्याप्तं चन्द्रभोगाद्हाहतम् । शुद्धं षड्भिर्भवेन्मासैरुपरागपराहतम् ॥ १६ ॥ वेधेनैकार्गलोत्पातपातलत्तामिधैरपि । दोषैरुपग्रहा-२
1 पर्याप्तमिति योग्यं भवेदिति संटंकः । प्रहाहतमिति क्रूरग्रहेण विमुक्ताक्रान्तभो. ग्यत्वेन प्रहैरुदयास्तकरणेन वक्रिग्रहाक्रान्तबादिना वा दूषितम् । चन्द्रभोगादिति ग्रहकृतदोषापगमादनु यदि चन्द्रेण भुक्तं स्यात्तदाऽऽदरणीयमित्यर्थः । यदाह वराहः-“दोषैर्मुक्तं यदा धिष्ण्यं पश्चाचन्द्रेण संयुतम् । ततः पश्चाद्विशुद्धं स्यान्नान्यथा शुभदं भवेत् ॥१॥" लल्लस्वाह-"तत्सूर्येन्द्रो गात्कर्मण्यत्वं प्रयाति भूयोऽपि । धिष्ण्यं कर्मसु शुद्धं तापनिषेकात्सुवर्णमिव ॥ १॥" अत्र सूर्येन्द्वोर्नोगादिति सूर्येण ताप्यते पश्चाच्चन्द्रेण निर्वाप्यते इत्यर्थः । उपरागोऽर्केन्द्वोर्ग्रहणं(तेन) पराहतं दूषितं ग्रहणभमित्यर्थः, तत् षण्मासाँस्त्याज्यम्। यावन्नार्को भुंक्त तावत्त्याज्यमित्यन्ये । विशेषस्तु-"पक्षान्तरेण ग्रहणद्वयं स्याद्यदा तदाद्यग्रहणोपगं भम् । पक्षाद्विशुद्धं भवति द्वितीयग्रहोपगं शुध्यति मासषट्कात् ॥१॥” इति सप्तर्षयः । यत्र मे केतोरुदयः स्यात्तत्रैव षण्मासान् केतुरिति तदपि षण्मासाँस्त्याज्यम् । यस्मिन् दिनमे ताराग्रहयोभीमादिपञ्चकान्तरयोमिथो भेदनं स्यात्तदपि भं षण्मासाँस्त्याज्यम् । उकं च विवाहवृन्दावने-“यस्मिन् धिष्ण्ये वीक्षितौ राहुकेतू, भेदस्ताराखेटयोर्यत्र च स्यात् । आषण्मासाँस्तत्र लग्नेन्दुभाजि, भ्राजिष्णु स्यान्नो शुभं कर्म किञ्चित् ॥ १॥" यत्र दिनमेऽर्केन्द्रोग्रहणं स्यात्तत्र राहुवीक्षित इत्युच्यते, यत्र मे केतोरुदयः स्यात्तत्र केतुर्वीक्षितः कथ्यते । ननु कथं केतूदयभं ज्ञायते इति चेदुच्यते-"मेषेऽर्के सति रेवत्यां यदि याति विधुन्तुदः। भाद्रमासोत्तरार्ध स्यात् पुष्ये केतूदयस्तदा ॥१॥ सूर्ये वृषस्थितेऽश्विन्यां यदि याति विधुन्तुदः । आश्विनस्योत्तरार्धे तद्रोहिण्यां केतुरीक्ष्यते ॥ २ ॥ भरणीमिथुनस्थेऽर्के यदि याति विधुन्तुदः । कार्तिकस्योत्तरार्धे तदा या केतुदर्शनम् ॥३॥ कर्कस्थेऽर्के कृत्तिकायां यदि याति विधुन्तुदः । मार्गशीर्षापरार्धे तत्केतूदयः पुनर्वसौ ॥४॥ सिंहेऽर्के सति रोहिण्यां यदि याति विधुन्तुदः।पौषमासापरार्धे तदश्लेषायां निखीक्ष्यते ॥५॥ कन्यास्थेऽर्के मृगशीर्ष यदि याति विधुन्तुदः । माघमासोत्तरार्धे तच्चित्रायां दृश्यते शिखी ॥६॥ तुलार्के सति आद्रोंयां यदि याति विधुन्तुदः । फाल्गुनस्योत्तरार्धे स्यान्मूले केतूदयस्तदा ॥७॥ वृश्चिकेऽर्के पुनर्वखोर्यदि याति विधुन्तुदः । चैत्रमासोत्तरार्धे स्यात् खातो केतूदयस्वदा ॥८॥ धनुःस्थिते रवी पुष्यं यदि याति विधुन्तुदः।वैशाखस्योत्तरार्धे स्यान्मूले केतूदयस्तदा ॥९॥अश्लेषां मकरस्थेऽर्के यदि याति विधुन्तुदः।ज्येष्ठमासोत्तरार्धे तज्येष्ठायां दृश्यते शिखी ॥१०॥ कुंभस्थेऽर्के मघा धिष्ण्यं यदि याति विधुन्तुदः। आषाढमासोत्तरार्धे श्रुतौ केतूदयस्तदा ॥११॥ मीनेऽर्केऽपरफल्गुन्यां यदि याति विधुन्तुदः। श्रावणस्योत्तरार्धे तद्वारुणे दृश्यते शिखी ॥ १२ ॥ इदं त्रिविक्रमशतकटीकायाम् । उल्कापातपरिवेषहतमपि भं षण्मासाँस्त्याज्यमित्येके ॥ 2 वेधेन सप्तरेखपञ्चरेखचक्राभ्यां वर्णितेन । उत्पाता भौमाद्यास्ते यस्मिन् दिनमेऽऽभूवस्तद्भमुत्पातदूषितम् । अपिशब्दाद्ग्रहयुद्धाद्यैरपि एत. दोषदुष्टान्यपि च भानि तदोषापगमादनु चन्द्रभुक्त्या शुद्धानि स्युरिति रत्नभाष्ये ॥
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११२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १ द्यैश्च नक्षत्रं दुष्टमुत्सृजेत् ॥ १७ ॥ अर्केन्द्वोर्भुक्तांशकराशियुतौ क्रान्ति
____1 स्फुटार्केन्द्वोः सायनयोर्भुक्तराश्यंशमिलने राश्यंकस्थाने षवं द्वादशकं वा यदि स्यात्तदा क्रान्तिसाम्यसंभवः, तद्वेला च त्याज्या । स च क्रान्तिसाम्यनामा दोषो यदि चक्रदले चक्रार्धे षड्ररूपे स्यात्तदास्य व्यतीपात इत्याहा, यदि च चके द्वादशरूपे स्यात्तदास्य पात इति वैधृत इति चाह्वाद्वयम् । अस्य वेलायास्तादाविकं करणकुतूहलाद्युक्तविधेर्निर्धायम् ॥ स्युर्वेधः १ पात २ लत्ते ३ ग्रहमलिनमुडु ४ क्रूरवारा ५ ग्रहाणां, जन्मलं ६ विष्टि ७ रर्धप्रहरक ८ कुलिको ९ पग्रह १० क्रान्त्य ११ वस्थाः १२ । कर्कोत्पातादि १३ घंटो १४ विगतबलशशी १५ दुष्टयोगार्गलाख्या १६ गंडान्तो १७ दग्धरिकाप्रमुखतिथि १८ रथो नामतोऽष्टादशैते ॥ एते दोषाः शुद्धनक्षत्रबलेन छायालग्नादौ यदा प्रतिष्ठादीक्षादिकार्य क्रियन्ते तदाप्यवश्यं त्याज्या एव, घटिकालग्नेषु च किं वाच्यम् । एषु च केषांचिद्दोषाणां भंगविधिः पूर्वाचार्येरेवमूचे, तथाहि "लग्ने गुरुः सौम्ययुतेक्षितो वा, लग्नाधिपो लग्नगतस्तथा वा । कालाख्यहोरा च यदा शुभा स्याद्भवेधदोषस्य तदा हि भंगः ॥ १॥" इति वशिष्ठः । अत्र भवेधेति नक्षत्रवेधस्यैव भंगो न तु तत्पादवेधस्येति भावः । व्यवहारप्रकाशे वनया रीत्या वेधः प्रत्युत शुभोऽप्युक्तः, तथाहि-"सौम्यैश्चरणान्तरितः शुभः शुभैः केन्द्रगैर्वेधः" । इति वेधदोषभंग: १। “एकागलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयादिदोषाः । लग्नेर्कचन्द्रज्यबले विनश्यन्त्यर्कोदये यद्वदहो तमांसि ॥१॥" इति सप्तर्षयः । तथा-"अंगेषु वंगेषु वदन्ति पातं, सौराष्ट्रयाम्ये खचरस्य लत्ताम् । उपग्रहं मालवसैन्धवेषु गण्डान्तयुक्तिं सकले पृथिव्याम् ॥१॥” इति केचित् । वामदेवस्वाह-"लत्तां बंगालदेशे च पातं कौशलिके त्यजेत् । उपग्रहं गौडदेशे वेधं सर्वत्र वर्जयेत् ॥ १॥" इति पातलत्तौपग्रहैकार्गलानां भंग: ५। "होराः क्रूराः सौम्यवर्गाधिके स्युर्लग्ने मोघाः सौम्यवारे च रात्र्याम् । पापारिष्टं निष्फलं शक्तिभाजां, स्यात् षड्वर्गे लग्नगे सगृहाणाम् ॥ १॥" त्रिविक्रमोऽप्याह-"क्रूरस्य कालहोरां च क्रूरवारे दिवा त्यजेत्" इति, अस्यार्थ:-यदि क्रूरो दिनवारो दिवा च कार्य तदा क्रूरहोरां त्यजेत् , किं तु सौम्यया कालहोरया क्रूरवारदोषस्थापगमात्सा ग्राह्या, सौम्यवारे तु दिवा रात्रौ वा होरया नास्त्यधिकार इत्यर्थः । इति सूर्येन्दुग्रहणवर्जग्रहमलिनोडु १ क्रूरवारहोरा २ दोषयोभंगः ७ । जन्मलंदोषभंगस्तु वक्ष्यमाणकर्कादिभंगसम एव ८ । विष्टेस्तु नास्ति भंगः, अस्ति वा "विष्टिपुच्छे ध्रुवं जय" इत्यादि ९ । अवस्थादोषभंगस्तु वक्ष्यमाणविगतबलेन्दुदोषभंगवच्छिवचक्रबलेन कार्यः १० । कर्कोत्पातादीति-"अयोगास्तिथिवारक्षजाता येऽमी प्रकीर्तिताः । लग्ने ग्रहबलोपेते प्रभवन्ति न ते क्वचित् ॥ १॥ यत्र लग्नं विना कर्म क्रियते शुभसंज्ञकम् । तत्रैतेषां हि योगाना प्रभावाज्जायते फलम् ॥ २॥" इति व्यव. हारसारे । इति कर्कोत्पातादिदोषभंग: ११ । घंट इति अस्य दुष्टघट्य एवं-"पनरस १ तेर २ ठारस ३ एगा ४ सग ५ सत ६ अ ७ घडिआओ । जमघटस्स उ दुट्ठा
रविमाइसु सत्तवारेसु.॥१॥" इदमर्थतः श्रीहरिभद्रफलग्रन्थे। अन्ये खाहुः-"तिथि १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । ११३
साम्यनामायम् । चक्रदले व्यतिपातः पातश्चक्रे च वैधृतस्त्याज्यः ॥१८॥ लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् । व्यंगं स्थिरं च भूयोभिर्गुणैराढ्यं चरं तथा ॥ १९ ॥ अंशास्तु मिथुनः कन्या धन्वाद्याधं च ३ रस ६ रुद्रा ११ म्बरगुण ३० सार्घहया ७ ॥ भर्तु ६० खगुण ३० मितघटिकाः । त्याज्या घंटे रव्यादिष्वाद्या उत्तरास्तु शनिबुधयोः ॥ १ ॥" शेषघव्यस्वदुष्टा एवेति यमघंटदोषभंगः १२ । विगतबलशशिदोषस्तु "लग्ने गुरोर्वरस्येति" श्लोकोक्तपञ्चदशान्यतरस्यापि चन्द्रानुकूल्यप्रकारस्य सर्वथाऽप्यलामे शिवचक्रबलेन हन्यते, चन्द्रादेः प्रातिकूल्यं हरतीत्युक्तेः १३ । दुष्टयोगानां तु विष्कंभादीनां दुष्टघट्य एवावश्यं हेयाः, शेषाणां त्यागे तु कामचार इत्युक्तः स्फुट एव दोषभंगः १४ । गंडान्तस्य तु लग्नतिथ्युडूनां त्रित्रिभागान्तरे जायमानस्य नास्ति भंगः । यस्तु सर्वतिथिभयोगानां सन्धिषु सन्धिनामा दोष उतस्तद्धंग एवम्-"धिष्ण्यस्यादावन्ते त्यजेचतस्रो घटीः करग्रहणे । यदि शुद्ध द्वे धिष्ण्ये विवाहयोग्ये तदा श्रेष्ठे ॥ १॥" इति व्यवहारप्रकाशे । तथा-"गुरु गुवों केन्द्र वा त्रिकोणे वा यदा भवेत् । भसन्धिस्तिथिसरिधश्च योगसन्धिर्न दोषदः ॥ १ ॥ येऽन्ये सन्धिकृता दोषास्ते सर्वे विलयं ययुः । इति प्रोक्तं तु गर्गेण वशिष्ठात्रिपराशरैः ॥२॥” इति भतिथियोगादिसन्धिदोषभंगः १५ । तिथिदोषस्तु "तिथिरेकगुणा प्रोका" इतिवचनात्सुभञ्ज एव, यद्वा “दिने बलवती तिथिः" इति "तिथ्यधै तिथिफलं समादेश्यं" इति वा १६ । अपि च-"सर्वेषां तु कुयोगानां वर्जयेद् घटिकाद्वयम् । उत्पातमृत्युकामानां सप्त षट् पञ्च नाडिकाः ॥१॥" इति नारचन्द्रटिप्पनके । केचिन्मृत्युयोगे द्वादश घव्यस्त्याज्या इत्याहुः । तथा-"यमघंटे नवाष्टौ च कालमुख्यां विवर्जयेत् । दग्धे तियो कुवारे च नाडिकानां चतुष्टयम् ॥ १॥" इत्यप्यन्ये । तथा-"कुतिहि कुवारकुजोगा विट्ठी वि अ जम्मरिक्ख दबृतिही । मज्झण्हदिणाओ परं सव्वं पि सुभं भवेs. वसं ॥१॥" इति हर्षप्रकाशे । लल्लोऽप्याह-"विष्ट्यामङ्गारके चैव व्यतीपातेऽथ वैधृते । प्रत्यरे जन्मनक्षत्रे मध्याह्नात् परतः शुभम् ॥ १॥" अत्र प्रत्यरे इति सप्तमतारायाम् । उपलक्षणं चेदं तृतीयपञ्चमाधानताराणाम् , तेन तास्वपि मध्याह्नातू परतः शुभमेव इति सामान्येन प्रतिष्ठायां बहुदोषभंगः ॥
1 धन्वाद्यामिति धनुरंशस्य प्रथमा तल्लमस्याष्टादशांशरूपं । मध्यमा इति देवस्य सुपूज्यलभवनेऽपि कर्तृस्थापकादीनां हानिकरखात् । सामोच्चेदं लभ्यते शेषा मेषकर्कवृश्चिकमकरकुंभांशा धनुरेशान्त्या चाधमान्येव । उक्तं च नारचन्द्रटिप्पनके-"मेषांशे स्थापितो देवो वह्निदाहभयावहः १। वृषांशे म्रियते कर्ता स्थापकश्च ऋतुत्रये २ । मिथुनांशः शुभो नित्यं भोगदः सर्वसिद्धिदः ३ ॥१॥षट्पदी ॥ कुमारं तु हन्ति कर्कः कुलनाश ऋतुत्रये । विनश्यति ततो देवः षड्भिरब्दैन संशयः ४ ॥ २॥ सिंहांशे शोकसन्तापः कर्तृस्थापकशिल्पिनाम् । संजायते पुनः ख्याता लोकेऽर्चा सदैव हि ५ ॥३॥ भोगः सदैव कन्यांशे देवदेवस्य जायते । धनधान्ययुतः कर्ता मोदते सुचिरं
जै० १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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K२०
क्रूरतदान
११४ जनज्योतिर्मन्थसंप्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । श्रीजिनेश्वरप्रतिष्ठा- | ३ | ६ | ९ | १२ | उत्तम । द्विख० | लग्नस्थापना १९ | २ | ५ | ८ | ११ | मध्यम | स्थिर छन्दगता
१ | ४ | ७ | १० | अधम । चर शोभनाः । प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो वणिग्मीनश्च मध्यमाः ॥ २० ॥
बेताय राशयो ब्यंगाः स्थिराश्चापि वृषं विना । मकरश्च प्रशस्याः स्युल३ मांशादिषु नेतरे ॥ २१ ॥ विवाहे नाग्रहः कोऽपि लग्नानामिह केवलम् ।
नवांशा धनुराधार्धयुग्मकन्यातुलाः शुभाः ॥२२॥ त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थी, ५शुक्रक्रूराश्रितधुनौ । नेष्टौ लग्नविधू, केन्द्रस्थितसौम्यौ तु तौ मतौ ॥२३॥ २/ १२ श/
ना लग्नस्येन्दोश्च द्वयोरपि पार्श्वयोर्द्वितीयद्वादश| गृहयोः क्रूरग्रहसत्त्वे द्विधेयं क्रूरकर्तरी त्रिधायदा धनस्थः क्रूरग्रहो वक्री व्ययस्थस्तु मध्यगतिः क्रूरस्तदोभयतः संघटमानात्क्रूरकर्तर्यतिदुष्टा । यदा तु व्ययस्था क्रूरोऽतिचरितस्तदा विशिष्याति
दुष्टा शीघ्रमेव संघटमानसात् १ । यदा धनव्ययोरपि मध्यगती क्रूरौ, यद्वा द्वयोरपि तयोर्वक्रगती क्रूरौ तदा मध्यदुष्टा सा, एकत एव संघटमानत्वात् २। यदा तु धने मध्यगतिः क्रूरो, व्यये च वक्री, तदाल्पदुष्टा, कर्तर्या उभयतोऽपि विघटमानखात् । भुवि ६॥४॥ उच्चाटनं भवेत्कर्तुर्वधश्चैव सदा भवेत् । स्थापकस्य भवेन्मृत्युस्तुलांशे वत्सरद्वये ७ ॥५॥ वृश्चिके च महाकोपं राजपीडासमुद्भवम् । अग्निदाहं महाघोरं दिनत्रये विनिर्दिशेत् ८ ॥ ६ ॥ धन्वांशे धनवृद्धिः स्यात् सद्भोगं च सदा सुरैः । प्रतिछापककर्तारौ नन्दतः सुचिरं भुवि ९॥७॥ मकरांशे भवेन्मृत्युः कर्तृस्थापकशिल्पिनाम् । वज्राच्छनाद्वा विनाशस्त्रिभिरब्दैन संशयः १०॥ ८॥ घटांशे भिद्यते देवो जलपातेन वत्सरात् । जलोदरेण कर्ता च त्रिभिरब्दैविनश्यति ११॥ ९॥ मीनांशे वर्च्यते देवो पासवाद्यैः सुरासुरैः । मनुष्यैश्च सदा पूज्यो विना कारापकेन तु १२ ॥ १० ॥" रनमालायां तु भौमवर्जसर्वग्रहाणां षड्वर्गाः प्रतिष्ठायामनुज्ञाताः ॥
1 मृगोरुदयवारांशभवनेक्षणपंचके ५। चन्द्रांशोदयवारे च दर्शने ४ च न दीक्षयेत् इति नारचन्द्रे । उदयो लग्नम् जीवमन्दबुधार्काणां षड्वर्गों वारदर्शने । शुभावहानि दीक्षायां न शेषाणां कदाचन । हर्षप्रकाशे तु वृषांशः शुक्रसत्कोऽपि वर्गोत्तमत्वादनुज्ञातः तथाहि 'मेसविसाणं मुत्तूण सेसरासीण पंचमे अंसे। नय दिक्खिन जओ सो विणसइ तहतह पओगाओ। 2 क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेन्मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगः । शुभैर्धनुःस्थैरथवान्यगे गुरौ, न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः । त्रिकोणकेन्द्रगो गुरुस्त्रिलाभगो रविर्यदा । तदा न कर्तरी, भवेजगाद बादरायणः । अपि चान्यलमाभावेन यदि क्रूरकर्तरी त्यक्तुं न शक्यते, तदा
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । ११५ गुरुर्बुधश्च शीतांशुसप्तमक्रूरदोषहृत् । पुष्टयेन्दुं दृशा पश्यन् लग्नखाँ
बुंत्रिकोणेगैः ॥ २४ ॥ दीक्षायां कुरुते चन्द्रः क्रमाद्भौमादिभिर्युतः। कलिं भियं मृतिं नैःव्यं विपदं भूमिभृद्भयम् ॥२५॥ विवाहदी-१ क्षयोर्लने यूनेन्दू ग्रहवर्जितौ । शुभौ केचित्तु जीवज्ञयुक्तमिन्दुं शुभं विदुः ॥ २६ ॥ पञ्चपञ्चाशमेवांशं जामित्रं परमं परे । अंशादुन्झन्ति लग्नेन्द्रो-५
लग्नस्योभयपार्श्वयोः प्रत्येकं पंचदशानां त्रिंशाशानां मध्ये यदि क्रूरप्रहौ स्यातां तदा सा क्रूरकर्तर्यवश्यं त्याज्या । एवं चन्द्रस्यापि ॥ सुकं १ गारय २ मंदाण ३ सत्तमे ससहरे गहिअदिक्खो। पीडिजए अवस्सं सत्थकुसीलत्तवाहीहि । 3 चतुर्वपि केन्द्रेषु सौम्यप्रहाश्वेत् स्युस्तदा तदा कचिदादरणीयमपीत्यर्थः।
1 कलिमिति भौमादारभ्याकं यावत्क्रमेणामूनि फलानि । विशेषस्तु नीचेऽस्तं वास्ते इत्यत्र ये प्रहाणामस्तमयविषये कालांशा उक्ताः सन्ति तेषामर्धविभागे यदि ग्रहाणां योगः स्यात्तदा सा युतिर्दृष्टा । यदि तु कालार्धविभागप्राप्ता अतीता वा स्युर्ग्रहास्तदा यथोक्तदोषा उत्पद्यन्ते परं निवर्तन्ते । यच्छौनकः-"योगा यथोक्तफलदाः कालार्धविभागसंश्रितानां तु । अप्राप्तातीतानामिच्छामानं फलं तेषाम् ॥ १॥" 2 ग्रहवर्जिताविति सप्तमं गृहं ग्रहशून्यं शुभम् , यदाहुः सप्तर्षयः- "वैधव्यं १ सापत्न्यं २ वन्ध्यावं ३ निष्प्रजवं ४ दौर्भाग्यम् ५। वेश्यावं ६ गर्भच्युति ७ रौद्या लग्नतोऽस्तगाः कुर्युः ॥१॥" चन्द्रश्चैकाकिस्थितः शुभः । केचिदिति ते हीन्दोर्बुधगुरुवर्जग्रहयुतेः फलमेवमाहुः, तथाहि-"रविणा १ सणि २ भोमेहिं ३ सुक्क ४ केऊहिं ५ राहुणा ६ । एगरासिगए चंदे जुइदोसो पवुच्चइ ॥ १॥ दरिद्दा १ समणी २ चेव मरए ३ ससवत्तिआ ४॥ कवालिणी अ५ दुस्सीला ६ कमा नारी विवाहिआ ॥ २ ॥" शुक्रेन्द्वोर्युतिर्विवाहे सर्वथा त्याज्येति व्यवहारसारे । सत्यसूरिस्वाह- "अन्यर्वेऽन्यगृहे वा कुजबुधगुरुशुक्रशौरिभिः सार्धम् । न भवति दोषाय शशी प्रदक्षिणं याति यदि चैषाम् ॥ १ ॥" विशेषस्तु"च्यायैः क्रूरैर्युते चन्द्रे व्यसुः प्रवजितः शुभैः।" इति दैवज्ञवल्लमे ॥ 3 अंशादिति लमेन्दोः सत्कादधिकृतादंशात् पञ्चपञ्चाशमेवांशम् । गर्हितग्रहदूषितं सन्तं तत एव हेतोः परमजामित्राख्यं तं दोषं परे उज्झन्तीत्यन्वयः । भावना त्वेवम्-यत्संख्यो नवांशो लग्ने ऽधिकृतस्तत्संख्यः सप्तमस्थानस्थराश्यंशः पञ्चपञ्चाशः स्यात् , इन्दुरपि राशौ यत्संख्येऽ. शेऽस्ति तत्सप्तमराशेस्तावत्संख्योंऽशश्चन्द्राक्रान्तादंशात् पञ्चपञ्चाशः स्यात् , ततो लग्नां. शाचन्द्रांशाद्वा पञ्चपञ्चाशेऽशे चेत्कूरग्रहोऽस्ति शुक्रो वा तदा परमं जामित्रम् । यथा-मेषस्थाद्यांशे लमं चन्द्रो वा तुलायाश्चाद्येऽशे क्रूरग्रहः शुक्रो वेति, मेषस्य द्वितीये चेत्तदा तुलाया अपि द्वितीये, एवं द्वयोरपि तृतीये तुर्ये चेत्यादि । एतत्त्याज्यमेव । यदुक्तम्"लमेन्दुसंयुतादंशात् पञ्चपञ्चाशदंशके । ग्रहोऽन्यो यद्यसौ दोषो न गुणैरपि हन्यते ॥१॥"
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११६ जैनज्योतिर्भन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्शे मिश्रद्वारम् ।
गर्हितग्रहदूषितम् ॥ २७ ॥ स्थापने स्युर्विधौ युक्ते दृष्टे वाऽऽरादिभिः क्रमात् । अग्निंभीऋद्धिसिद्धा च श्री पञ्चत्वाऽभिभीतयः ॥ २८ ॥ जन्मराशिं जनेर्लग्नं ताभ्यामन्त्यं तथाष्टमम् । लग्नलग्नांशयोवेशौ लग्नात् षष्ठीष्टमौ ४ त्यजेत् ॥ २९ ॥ इन्दुक्रूरयुतं लग्नं तथा लैग्नोदितांशकान् । अधिकांशग्रहं
इति दैवज्ञवलमे । यदि तु पञ्चपञ्चाशाच्यूनोऽधिको वा स्यात्तदा स जामित्राख्य एव दोषो न तु परमजा मित्राख्यः । यथा मेषस्य तृतीयेऽंशे लग्नमिन्दुर्वा तुलायाश्चाये द्वितीये वा क्रूरग्रहः शुक्रो वा स्थितस्तदा सोऽंशस्त्रिपञ्चाशश्चतुःपञ्चाशो वा स्यात् । यदा च मेषस्याद्येऽशे लग्नमिन्दुर्वा तुलायाश्च द्वितीये तृतीये तुर्ये वांशे क्रूरग्रहः शुक्रो वा तदा स तस्मात् षट्पञ्चाशः सप्तपञ्चाशोऽष्टपञ्चाशो वा स्यादित्यादि । अयं च दोषो नातिदुष्ट इति तन्मतं । बहुमतम् चैतत् ॥
1 पुष्ट्या दृष्ट्या । 2 प्रतिमा साधिष्ठायिका, सर्वपूजिता च स्यात् । 3 इदं नारचन्द्रे न वर्जितम् ॥ 4 केचित्तुर्यमपि । तथा जन्मगृह जन्मभाभ्यामष्टमभवनं मृतिप्रदं लग्ने । व्ययहिबुककेन्द्रसंस्थैः शुभग्रहैः शोभनं बलिभिः । 5 चकाराद्रेष्काणस्यापि लग्नात् षष्ठाष्टमौ त्यजेदिति । ‘लग्नस्थेऽपि गुरौ दुष्टः षष्ठस्थो लग्ननायकः । इति लल्लः । 'विलग्नाधिपतौ षष्ठे वैधव्यं स्यात्तथांशपे । द्रेष्काणाधिपतौ मृत्युर्विलग्ने बलवत्यपि' इति लक्ष्मीधरः । लग्नेशोऽष्टमो यदि लग्नद्रेष्काणाद् द्वाविंशे द्रेष्काणे स्यात्तदा भृशमशुभः । यदि च लग्नपतिमृत्युपती एकद्रेष्काणस्थौ स्यातां तदा भृशतरमशुभम् । 'वर्षमासदिनैर्गेहद्रेष्काणनवमांशपाः । राशिमानेन दास्यंति फलमित्याह शौनकः' । 6 अनयोरपवादस्तु 'न वृश्चिकं हन्ति कुजोऽजवर्ती, वृषं न शुकोsपि तुलाधरस्थः । तथैव कुंभं रविजो न हंति, मृगस्थितो वा तनुगं व्ययस्थः ' । एकस्वामिकत्वात् । अनयैव युक्तया मेषे तुलायां वा जन्मलग्ने सति जन्मराशौ वा सवि ताभ्यामष्टमावपि वृश्चिकवृषौ लग्नत्वेन गृह्यमाणौ न दोषाय । उपलक्षणत्वाद्वादशोऽपि लग्नेशो न शुभः । 7 'सौम्यग्रहयुक्तमपि प्रायः शशिनं विवर्जयेल्लने । क्रूरग्रहं न लग्ने कुर्यान्नवपञ्चमधने वा' ॥ इति लल्लः । 'लग्नस्थे तपने व्यालो १ रसातलमुखः कुजे २ क्षयो मन्दे ३ तमो राहौ ४ केतावन्तकसंज्ञितः ५ ॥ १॥ ‘योगेष्वेषु कृतं कार्यं मृत्युदारिद्र्यशोकदम्' । इति दैवज्ञबल्लमे । 8 लग्नकथितकन्यादिनवांश कानपीन्दुक्रूरग्रहयुतान् त्यजेत् । इन्दुयुतादावर्षाद्वैधव्यं क्रूर प्रहयुतात्पंचमेऽब्दे निःसंशयं मृत्युरिति गदाधरः । 9 यावतिथोऽंशो लग्नसत्कः कार्ये वर्तमानतयाऽधिकृतस्तावतिथ एवांशो द्वादशस्खपि भावेषु वर्तमानतयोह्यते । एवं च सति यत्र तत्रापि भावे यो ग्रहो वर्तमानमंश मुलंध्य स्थितः सोऽग्रेतनभावस्थ एव ज्ञेयः । ततश्च दूष्यगृहादर्वागपि त्यजेदित्यस्यायं भावः । अनयाऽपि रीत्याऽप्रेतनभावस्थोऽसौ ग्रहो यदि त्याज्यत्वेनोक्तः स्यात्तदा तादृशं लग्नं न ग्राह्यम् । यथा प्रविष्ठायां कन्याल ने षष्ठे मिथुनांशे गृत्यमाणे सति कुंभराशौ यदि सप्तमाद्यंशेषु कुजः स्यात्तदा
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जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्शे मिश्रद्वारम् । ११७ दूष्यगृहादर्वागपि त्यजेत् ॥ ३० ॥ भवेज्जन्मनि जन्मर्क्षान्मृत्युधामनि यो ग्रहः । शुभोऽपि लग्नवर्त्येष सर्वकार्येषु नो शुभः ॥ ३१ ॥ शनिस्त्रिकोणकेन्द्रस्थो बलीयान् सुहृदीक्षितः । कुजः केन्द्रान्त्यधर्माष्टस्थितो वा३ भद्रभञ्जनः ॥ ३२ ॥ रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः । हन्ति स्थापककर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥ ३३ ॥ लोम्बुस्मरंगो राहुः सर्वकार्येषु वर्जितः । त्रिषडेकादशः शस्तो मध्यमः शेषराशिषु ६ भावरीत्या मीनस्थत्वात् सप्तम एवेत्यतस्तल्लग्नमपि त्याज्यमेव । तत्स्थापना यथा
१०
६ अंश ६
१२
५
४
एवमन्यत्रापि भाव्यम् । ननु यद्येवं दूष्यगृहं त्याज्यमूचे तदाऽनयैव रीत्या यद्गृहं प्रहेण भूष्यमाणं स्यात्तस्यादरणीयतयाऽपि भविष्यति, मैवम् ईदृग्गुणानामाहार्यत्वेनानादरणीयत्वस्यैबार्हत्वात् । उक्तं च—– - " नाङ्गीकारो भावजानां गुणानां तद्दोषाणां तत्त्वतस्त्याग एव । भाव
>
.
मं११ अं ७
,
व्यक्तावष्टमत्वं गतोऽपि त्याज्यो लग्नात्सप्तमः सप्तसप्तिः ॥ १ ॥" तथा "सप्तमस्थो यदा चन्द्रो भवेद्भावफलाष्टमः । न तदा दीयते लमं शुभैः सर्वप्रहैरपि ॥ १ ॥” तथा— “प्रत्याख्येयः पाक्षिकोऽपीह दोषः सम्यग्व्यापी यो गुणः सोऽनुगम्यः । यस्मादंशैर्देहभावादिकः सन्न स्याद्भूत्यै भार्गवः पञ्चमोऽपि ॥ १ ॥ इदं विवाहमाश्रित्य विवाहवृन्दावनादौ ॥
,
1 ऋक्षो राशिर्लग्नश्च, 'जन्मर्क्षजन्मलग्नाभ्यां यौ रन्ध्रेशावथाष्टमे । लग्ने तांश्च तदंशांश्च तद्राशीनपि त्यजेत् ।' इति भास्करः । 2 इदं कुजेऽपि योज्यम् । 3 'लग्नागौमेऽष्टमगे दम्पत्योर्वहिना मृतिः समकम् । जन्मनि यो वाऽष्टमगस्तस्मिँल्लग्नं गते वापि ' ॥ १ ॥ 4 सान्वर्थेयं संज्ञा । 5 कर्ता प्रतिष्ठाया गुर्वादिः । अयं श्लोकः प्रतिष्ठामा - श्रित्य ज्ञेयः ॥ 6 सर्वकार्येष्विति दीक्षा प्रतिष्ठादिषु । केतुस्तु जन्मसप्तमस्थः शशियुतश्च त्याज्यः, त्रिषडेकादशो ग्राह्यः, शेषस्थानेषु मध्यम इति नारचन्द्रोक्तिः । अनया च राहुर्नवभद्वादशोऽपि श्रेष्ठ इत्यागतम् । अन्यथा केतो विषष्ठत्व संपत्यसंभवात् । इत्युक्ताः सामान्येन घटिकालभेषु त्याज्या दोषाः ॥ अथ सर्वकार्येषु घटिकालभेषु साधारणी भङ्गदा प्रहसंस्था तावदेवम् - शनिरवीन्दुभीमा लग्नस्थाः, चन्द्रभौमबुधगुरुशुका अष्टमस्थाः, चन्द्रशुक्रलग्नेश शेशाः षष्ठगाः सर्वे सप्तमगाश्चाशुभाः । यत्रिविक्रमः " त्याज्या लभेSब्धयो ४ मन्दात् षष्ठे शुक्रेन्दुलमपाः । रन्ध्रे ८ चन्द्रादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽब्जगुरू समौ ॥ १ ॥” अत्र मन्दादिति राहुरपि मन्दवज्ज्ञेयः । समाविति सर्वेऽप्यस्तेऽशुभाः. केषाञ्चिन्मते तु चन्द्रगुरू सप्तमे उदासीनावित्यर्थः । सर्वकार्येषु शुभग्रहसंस्था त्वेवम्"लमादुपचयस्थे ३-६-११ ऽर्केऽन्त्या १२ स्व ७ कर्मा १० य ११ मे विधौ । क्षोणी
?
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११८ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् ।
॥ ३४ ॥ दीक्षायां तरणिर्धनंत्रितनयोरिस्थः शशी द्वित्रिषईं, व्योमस्थः पुत्रेऽर्कपुत्रे च दुश्चिक्य ३ रिपु ६ लाभ ११ गे ॥१॥ त्यक्तरिष्पा १२ ष्टमे ८ सौम्ये जीवेऽष्टा ८ रि६ व्ययो १२ ज्झिते । सर्वकार्याणि सिध्यन्ति त्यतषट्सप्तमे सिते॥२॥" इति दैवज्ञवल्लमे । एतत्प्रकारद्धयोत्तीर्णा तु मध्यमा ग्रहसंस्था। त्रिविधानामप्यासां स्थापनाउत्तमा
__ मध्यमा
अधमा रविः ३-६-१०-११
२-४-५-८-९-१२ | १-७ चन्द्रः १२-७-१०-११
३-२-४-५-९ ३-८-१ मंगल:३-६-११
२-४-५-९-१०-१२ १-७-८ बुधः १-२-३-४-५-६-७-९-१०-११ १२ गुरुः १-२-३-४-५-६-७-९-१०-११ । ६-१२ शुक्रः १-२-३-४-५-८-९-१०-११-१२ शनिः |३-६-११
२-४-५-८-९-१०-१२ १-७ राहुः ३-६-११
२-५-८-९-१०-१२ । १-४-७ | केतुः ३-६-११
२-५-८-९-१०-१२ / १-४-७ 1 एते यथोक्तस्थानस्था दीक्षालग्ने श्रेष्ठलादेखाप्रदाः । हर्षप्रकाशादिषु तु प्रहाणामुतमादित्रिभंग्येवमूचे-“दु पण छ रवि दु छ ससी कुज ति छ दह बुह ति छ पण दसमो। किंद तिकोणे य गुरू सुक्को ति अ छ नव बारसमो॥१॥ मंदो दु पण छ अडमो सुक्क विणा सविगारसहा सुहया। चंदाउ कूर सत्तम अइअसुहा दिक्खसमयम्मि ॥२॥ रवि ति ३ ससि सत्त दसमो बुहेग चउ सत्त नव गुरू ति छ दो । सुक्को दु पंच सणि तिअ मज्झिम सेसा असुह सव्वे ॥ ३ ॥" स्थापनाउत्तमा
मध्यमा
अधमा रविः | २-५-६-११
१-४-७-८-९-१०-१२ चन्द्रः | २-३-६-११
७-१० १-४-५-८-९-१२ मंगल: | ३-६-१०-११
१-२-४-५-७-८-९-१२ बुधः ३-२-६-५-१०-११ | १-४-७-९ ८-१२ गुरुः १-४-७-१०-९-५-११, ३-६-२ ८-१२ शुक्रः ३-६-९-१२
१-७-४-८-१०-११ शनिः २-५-६-८-११
| १-४-७-९-१०-१२ राहु-केतू ३-६-११ २ -५-८-९-१०-१२ १-४-७ इदमिह तत्त्वम्-"अहवा वि मज्झिमबलं काऊण सणिं गुरुं च बलवंतं । अवलं सुकं लग्गे तो दिक्खं दिज्ज सीसस्स ॥१॥" इति श्रीहरिभद्रसूरिवचः । एते च क्रमान्मध्यमोत्कृष्टहीनबला एवमेव स्युः, तथाहि-शनिर्द्विपश्चाष्टैकादशः पणफरस्थत्वान्मध्यमबलः । षष्ठस्तु आपोक्लिमस्थत्वेऽपि दिग्बलाढ्यवान्मध्यमबलः । गुरुस्तु केन्द्रत्रिकोणेषु बलिष्ठ इति स्फुटमेव । एकादशं तु गुरोहर्षस्थानं वक्ष्यते तेन तत्रापि बलिष्ठः । शुक्रस्तु त्रिषड्नवद्वादशेष्वापोक्लिमस्थवाद्धीनबलः । उकं च त्रैलोक्यप्रकाशे-"रूपा २०धै १० पाद
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जैनज्योतिम्रन्थसंप्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । ११९
क्षितिभूखिषड्दशमगो ज्ञेज्यौ व्ययाष्टोज्झितौ । १-२-३-४-५-६-७-९१०-११ शुक्रोऽन्त्यौरिसुतंत्रिधर्मधनगो मन्दो धनंभ्रातॄषद्, पुत्रच्छिद्रंगतश्च शोभनतमः सर्वे च लाभस्थिताः ॥ ३५ ॥ विवाहे त्वर्कार्की निरि-३ एनिधींयेषु शुभदौ, विधुः खंत्र्यायेषु क्षितितनय आर्यत्रिरिपुंगः । बुधेज्यौ सप्ताष्टव्ययविरहितावास्फुजिदरि-स्मरीष्टीन्योन्मुक्त्वा वितनुसुबँकामेध्वथ तमः ॥ ३६ ॥ विवाहे नाष्टमाः श्रेष्ठाः पञ्च सूर्यशनी ६ विना । षष्ठौ चेन्दुसितौ तद्वदन्येऽन्य इति केचन ॥ ३७ ॥ चन्द्रे च
विवाहकुण्डलीग्रहसंस्था उत्तमा
मध्यमा
अधमा रविः ३-६-6-११
२-४-५-९-१०-१२ १-७ चन्द्रः २-३-११
४-५-७-९-१०-१२/ १-६-८ ३-६-११
२-४-५-९-१०-१२/ १-७-८ बुधः १-२-३-४-५-६-९-१०-११ १२
७-८ गुरुः १-२-३-४-५-६-९-१०-११ ७-१२ शुक्रः । १-२-३-४-५-९-१०-११ । १२
६-७-८ शनिः । ३-६-८-११
| २-४-५-९-१०-१२ १-७ | | रा० के० २-३-५-६-८-९-१०-११ १२
। १-४-७|| लग्ने च चरेऽङ्गनाग्रहै!ष्टे च, केन्द्रे बलिमिः श्रित चरैः१ । युग्मळेगे वाऽथ विधौ विलोकिते पापग्रहैः२ स्थायुवतेः पतिद्वयम् ॥३८॥ रविचन्द्रकुजै-९ र्नीचै १ लग्नेशे शत्रुराशिगेर । निर्वीर्ये चापि जामित्रे३ युवत्या निरपत्यता ॥३९॥जामिनेशः पतिः स्त्रीणां श्वशुरौ भृगुभास्करौ । तैरुच्चादिस्थितैस्तेषां "
मंगलः
५ वीर्याः स्युः केन्द्रादिस्था नभश्वराः" । तेनैते उत्तमभङ्गे न्यस्ताः । शेषप्रहास्तु तत्रस्थाः सर्वसम्मतत्वेन रेखाप्रदास्तेऽप्युत्तमभङ्गे । येषां तु रेखाप्रदवे प्रन्थान्तरविसंवादखे मध्यमभङ्गे । चन्द्रस्तु सप्तमः प्रस्तुतगाथानुसरणार्थमेव मध्यमभङ्गेऽलेखि । एतद्भगद्वयोत्तीर्णास्वधमभङ्गे । शुक्रस्त्वेकादशः, सूत्रे रेखाप्रदखेनोकोऽपि नारचन्द्रलमशुद्ध्यादिषु निषिद्धलादधमभङ्गेऽलेखि ॥ __1 केतुः। 2 एकस्मिनपि किं पुनर्द्वित्रिषु । 3 यायिसंज्ञैः। 4 खामिसौम्यप्रहयुतिदृष्ट्यभावक्रूरतद्भावादिना नियित्वम् । 5 श्वशुराविति भृगुः श्वश्रूः, रविः श्वशुरः, एकशेषे श्वशुरौ । तैरिति जामिनेशाद्यैः । उच्चादीति खोचे दीप्तः १ । खः खस्थः २ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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१२० जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । श्रेयः स्यादन्यदन्यथा॥४०॥ लैग्नोदितांशः वेशेन युतो दृष्टोऽथवा नृणाम् । तद्वजामित्रगः स्त्रीणामिष्टोऽनिष्टो विपर्यये ॥४१॥ लाभेऽर्कारौ शुभा ३धर्मे श्रीवत्सो यईरौ रविः१ । अर्धेन्दुर्विक्रमे मन्दो रवि भे रिपौ कुजः२
॥४२॥ शंखः शुभग्रहैबन्धुधर्मकर्मस्थितैर्भवेत्३ । ध्वजः सौम्यैर्विलग्नस्थैः क्रूरैश्च निधनाश्रितैः४ ॥ ४३ ॥ गुरुधर्मे व्यये शुक्रो लग्ने इश्चेत्तदा ६ गजः५ । कन्यालमेऽलिगे चन्द्रे हर्षः शुक्रेज्ययोर्मंगे६॥४४॥धनुरष्टमगैः सौम्यैः पापैर्व्ययगतैर्भवेत् ७ । कुठारो भार्गवे षष्ठे धर्मस्थेऽर्के शनौ व्यये ८ ॥४५॥ मुशलो(लं) बन्धुगे भौमे शनावन्येऽष्टमे विधौ९ । चक्रं च प्राचि
सुहृद्गृहे मुदितः ३ । खवर्गगः शान्तः ४ । स्फुटकिरणभृत् शकः ५। खं नीचमतिकान्तः खोच्चाभिमुखः प्रवृद्धवीर्यः ६ । खांशस्थः सौम्यैदृष्टोऽधिवीर्यः ७ । सूर्यहतो विकलः ८ । शत्रुगृहे खलः ९ । प्रहविजितः पीडितः १० । नीचर्खे दीनः ११ । इति लल्लोक्ताखेकादशसु ग्रहावस्थासु शुभावस्थैः । तेषां पत्यादीनाम् । अन्यदन्यथेति आखेवावस्थाखशुभावस्थैर्जामिनेशशुक्राकैः क्रमात्तेषां पत्यादीनामश्रेयः॥
1 अयं भावः-एकः किलोदयास्तशुद्धिप्रकारोऽयम् । यदुक्तं यतिवल्लमे-"लग्नोविते तत्प्रभुणा नवांशे, दृष्टे युते वोदयशुद्धिरुता । तत्सप्तमाशे तु कलत्रभाजि, खखामिनैवं कथिताऽस्तशुद्धिः ॥१॥" अत्र तत्सप्तमांशे खिति कोऽर्थः ? लगे यावतिथोऽश उदितः सप्तमभावस्य कलत्राख्यस्य तावतिथोऽशो लग्नोदितांशाद्गणनया सप्तम एव स्यात् , इत्येकोऽयमुदयास्तशुद्ध्योः प्रकारः । अन्यश्चाग्रे वक्ष्यते । उभावपि चोदयास्तशुद्धिप्रकारौ विवाहलग्नेष्ववश्यं ग्राह्यौ । भास्करस्तु पञ्चमगृहे तावतिथं पुत्रनवांशकमपि खेशयुतदृष्ट. मिच्छति । आह च-"नाथायुक्तक्षिता लग्नभार्यापुत्रनवांशकाः। कमात् पुंस्त्रीसुतान् नन्ति न घ्नन्ति युतवीक्षिताः ॥१॥" 2 यद्यराविति ये ये प्रहाः स्थानेषु नियमितास्ते ते तथा विलोक्यन्ते, शेषास्तु यथेच्छम् । एवं सर्वयोगेषु यथासंभवं ज्ञेयम् ॥ 3 कन्येति हर्षयोगे कन्यालग्नं नियमयन् ज्ञापयति अपरयोगेषु लग्ननियमः कोऽपि नास्तीति । हर्षयोगस्थापना
4 प्राचि चक्राधै इति लग्नस्य यावन्तोऽशा ||
चंट उदिता दशमस्य तावद्भयोऽशेभ्योऽग्रे प्रदक्षिणं गमने तुर्यस्य तावदंशान् यावच्चक्रस्य प्राच्यमधू तत्र धुरि चन्द्रस्तस्मादेकान्तरं गृहेषु पापः शुभ-शुक्ष श्चेति प्रहसंस्थायां चक्रयोगः । स्थापना १२१पृष्ठे
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १२१ चक्रार्धे चन्द्रात् पापशुभैः क्रमात् ॥ ४६ ॥ कूर्मः पुत्रार्थरन्ध्र(न्त्येवा
चक्रयोगस्थापना सौ २ ०३०१) ( ४ सौ चं१०
रमन्देन्दुभास्करैः । वापी पापैस्तु केन्द्रस्थैर्योगाः स्युादशेत्यमी ॥४७॥ एभ्यः श्रीवत्सपूर्वाः षट् पूर्व सर्वेषु कर्मसु । श्रेयस्तमा धनुर्मुख्यास्त्वन्यथा ३ स्युः षडुत्तरे ॥४८॥ आनन्दजीवनन्दनँजीमूर्तजयेचिराऽमृता योगाः ज्ञगुरुसितैः प्रत्येकं द्विकत्रिकैश्चापि लग्नगतैः ॥४९॥ योगा यथार्थनामानः सर्वेषूत्तमकर्मसु । ऐश्वर्यराज्यसाम्राज्यविधातारः क्रमादमी॥५०॥ प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरुपचये३-६-१०-११ शीतकिरणः, स्वधर्मात्ये तत्र ७
1 कूर्मयोगे स्थानानां प्रहाणां च यथासंख्यं ज्ञेयम् । रत्नमालायां तु गजादिचतुष्क. लक्षणमेवमूचे-"तनुनवभवगैः क्रमेण योगो, बुधविबुधार्चितपङ्गुभिर्गजः स्यात् ।" "अत्र भवेत्येकादश रुद्रा इत्ये कादशं गृहं लक्ष्यते । व्ययरिपुहिबुकेषु वक्रशुक्रद्युमणिसुतैः क्रमशः कुठार एषः ॥ १॥ रविकविरविजेन्दुभिः क्रमेण, व्ययधनषनिधनेषु कर्म एषः । व्ययनिधनतनूषु मन्दचन्द्रारुण किरणैर्मुशलं जगुर्मुनीन्द्राः ॥२॥" 2 श्रीवसपूर्वा इति श्रीवत्साद्याः षट् पूर्वे प्रथमाः । अन्यथेति अत्यन्तमशुभाः विशेषस्तु"उदयट्ठमंगे मम्मं १ नवपंचमि कूरकंटयं भणियं २। दसमचउत्थे सलं ३ कुरा उदयत्थितं छिदं ४ ॥ १॥ मम्मदोसेण मरणं कंटयदोसेण कुलक्खओ होइ ॥२॥" सल्लेण रायसत्तू छिद्दे पुत्तं विणासेइ ॥ २॥” इति पौ (पूर्णभद्रः ॥ 3 लग्ने स्थितैः प्रत्येक ज्ञाद्यैः क्रमेणानन्दादि त्रयम् ३, ज्ञगुरुभ्यां जीमूतः ४, ज्ञशुक्राभ्यां जयः ५, गुरुशुक्राभ्यां स्थिरः ६, त्रिभिरपि लग्नस्थैरमृतः ७ । द्विकत्रिकैश्चेति द्विका द्वयरूपाः, त्रिकास्त्रयरूपाः॥ 4 साम्राज्येति "सम्राट् तु शास्ति यो नृपान्" । अमी इति क्रमात्रियकमिता एककद्विकत्रिकयोगाः एवमेते सर्वयोगात्रयोविंशतिः ॥ 5 लममृत्युसुतास्तेषु पापा रन्ध्रे शुभाः स्थिताः । त्याज्या देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी । एते भंगदास्त्रिविक्रमोक्ताः । एकस्मिन्नपि भंगदस्थानस्थे प्रहे सति रेखाधिकेऽपि ग्रहे प्रतिष्ठा न कार्या, भंगदुत्वं विना केषुचिदिष्टेषु केषुचिदनिष्टेषु च सत्खपि रेखाधिके लमे प्रतिष्ठा
जै० १६
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१२२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धी पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । २-३-६-९-१०-११ क्षितिजरविजौ व्यायरिपुगौ३-११-६ । बुधवाचार्यों व्ययनिधनवौ १-२-३-४-५-६-७-९-१०-११भृगुसुतः, सुतं ३ यावल्लमान्नवमदशमायेष्वपि तथा१-२-३-४-५-९-१०-११ ॥ ५१ ॥
कार्या, यस्तु कैश्चित् षष्ठशशी प्रतिष्ठायां रेखाप्रद इत्युकं तद्योगवशादेव नापरथेत्यूह्यमिति त्रिविक्रमशतकटीकायाम् । पूर्णभद्रस्तु ग्रहसंस्थाफलान्येवमाह-"प्रासादभंग १ हानी २ धनं ३ खजन ४ पुत्रपीड ५ रिपुघाताः ६ । स्त्रीमृति ७ मृति ८ धर्मगमा ९ सुख १० दि ११ शोका १२ स्तनोः प्रभृति सूर्यात् ॥१॥ कर्तृविनाश १ धनागम २ सौभाग्य ३ द्वन्द्व ४ दैन्य ५ रिपुविजयाः ६ । शशिनोऽसुख ७ मृति ८ विघ्ना ९ नृपपूजा १. विषय ११ वसुहानी १२ ॥२॥ दहनं १ सुरगृहभंगो २ भूलाभो ३ रोग ४ पुत्रशस्त्रमृती ५ । रिपु ६ नारी ७ खजन ८ गुणभ्रंशा ९ रोगा १० र्थ ११ हानयो १२ भौमात् ॥३॥ चिरमहिम १ धन २ रिपुक्षय ३ सुख ४ सुत ५ परिपन्थिमरण ६ वरकन्याः ७ । शशिजेन सूरिमृत्यु ८ वसु ९ कर्मा १० भरण ११ रैनाशाः १२ ॥ ४ ॥ कीर्ति १ वृद्धिः २ सौख्यं ३ रिपुनाशः ४ सुतसुखं ५ खजनशोकः ६ । स्त्रीसुख ७ गुरुमृति ८ धन ९ लाभ १० ऋद्धयो ११ हानि १२ रमरगुरोः ॥५॥ सिद्धि १ धन २ मान ३ तेजः ४ स्त्रीमुख ५ दुष्कीर्तयः ६ सुताप्तियुता । चैत्यादि सर्वहानि ७ श्चासुख ८ मितरेषु ९-१०-११-१२ पूज्यता शुक्रात् ॥ ६ ॥ पूजा १ कर्तृविघात २ भूरिविभव ३ प्रासादबन्धुक्षयाः ४, पुत्राक्षेम ५ विपक्षरोगविलय ६ ज्ञातप्रियाव्यापदः ७ । गोत्रप्राणि विपत्ति ८ पातकपरिष्वंगौ च ९ कार्यक्षतिः १०, कान्ताकाश्चनरत्नजीवितधनं ११ मन्देन मान्द्योदयः १२ ॥ ७॥ "सकलकुंडलिकासु विधुतुदः, शनिसमानफलो हि विचार्यताम् ।" लल्लस्त्वाह-"बलवति सूर्यस्य सुते बलहीनेऽङ्गारके बुधे चैव । मेषवृषस्थे सूर्ये क्षपाकरेऽर्चाहती स्थाप्या ॥१॥" "मेषमृगस्थे सूर्ये" इति केचित् पठन्ति । "बलहीने त्रिदशगुरौ बलवति भौमे त्रिकोणसंस्थे वा। असुरगुरौ चायस्थ महेश्वरार्चा प्रतिष्ठाप्या ॥२॥ बलहीने बसुरगुरौ बलवति चन्द्रात्मजे विलग्ने वा । त्रिदशगुरावायस्थे स्थाप्या ब्राह्मी तथा प्रतिमा ॥३॥शुक्रोदये नवम्यां बलवति चन्द्रे कुजे गगनसंस्थे। त्रिदशगुरौ बलयुक्त देवीनां स्थापयेदाम् ॥४॥ बुधलग्ने जीवे वा चतुष्टयस्थे भृगौ हिबुकसंस्थे । वासवकुमारयक्षेन्दुभास्कराणां प्रतिष्ठा स्यात् ॥ ५॥ यस्य ग्रहस्य यो वर्गस्तेन युक्त निशाकरे । प्रतिष्ठा तस्य कर्तव्या खखवर्गोदयेऽपि वा ॥ ६ ॥ अस्मारकालाद्दष्टास्ते कारकसूत्रधारकर्तृणाम् । क्षयमरणबन्धनामयिवादशोकादिकर्तारः ॥ ७ ॥" विशेषस्तु सर्वग्रहै रेखाप्रदैः सर्वकार्येषु विंशविविशोपकं लग्नं स्यात् । तथाहि-"अद्भुट्ठ विसा रविणो पण ससिणो विन्नि हंति तह गुरुणो। दो दो बुहसुकाणं सड्डा सणिभोमराहूणं ॥१॥" एवं मीलने विंशतिविंशोपाः ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १२३
६-७-९
प्रतिष्ठायां गृहसंस्थेयम् उत्तमा
मध्यमा रविः | ३-६-११
१० चन्द्रः | २-३-११
१-४-६-७-९-१० मंगलः|३-६-११ बुधः | १-२-३-४-५-१०-११ । गुरुः १-२-४-५-९-७-१०-११ शुक्रः | १-४-५-९-१०-१३
२-३ शनिः |३-६-११ रा. के. ३-६-११
| १-४-५-८-९-१०-१२। विमध्यमा | अधमा रविः
१-२-४-७-४-९-१२ चन्द्रः
८-१२ मंगल:
१-२-४-७-८-९-१०-१२ बुधः
८-१२ गुरुः
८-१२ शुक्रः -७-१. शनिः
१-२-४-७-८-९-१२ रा. के. बेलहीनाः प्रतिष्ठायां रवीन्दुगुरुभार्गवाः। गृहेशंगृहिणीसौख्यैस्वान हन्युयथाक्रमम् ॥ ५२ ॥ तर्नुबन्धुसुतैयू धर्मेषु तिमिरान्तकः । सकर्मसु कुजार्की च संहरन्ति सुरालयम् ॥ ५३ ॥ सौम्यवाक्पतिशुक्राणां य ३
___ 1 बलहीना इति अष्टादशधा नवधा वाऽबलता प्रागुक्का यद्वा नीचः क्रूरयुतोऽस्तमितो वा प्रहो विबल एव ॥ 2 बलोत्कट इति ग्रहे किल बलं विंशतिधा, तथाहि-"ख १ मित्र २ौं ३ च४ मार्गस्थ ५ ख ६ मित्रवर्गगो ७ दितः ८।जयी ९ चोतरचारी च १० सुहृत् ११ सौम्यावलोकितः १२ ॥१॥ त्रिकोणा १३ यगतो लग्नात् १४ हर्षी १७ वर्गोत्तमांशगः १८ । मुथुचिलं १९ मूरिफं २० यदि सौम्यैर्ग्रहैः सह ॥ २॥ सर्वयोगे भवेदेवं बलानां विंशतिर्महे । यावदलयुताः खेटास्तावदिशोपकाः फलम् ॥३॥" हर्षीति कोऽर्थः ? ग्रहाणां तावचतुर्धा हर्षस्थानं, तथाहि-"गो ९ व्य ३ है ६ का १ य ११ धी ५ रिष्प १२ स्थानानि भास्करादिषु । हर्षस्थानमिदं पूर्व १ सर्वेषु खोचभं परम् ॥१॥ निशि सायं १ दिने २ योषित् १ पुंप्रहैश्च २ पर क्रमात् ३ । तुर्य व्योम्नस्तनुं यावत्तुर्याद्यावच्च सप्तमम् ॥ २ ॥ पुंग्रहेषु तनोर्यावत्तुर्य सप्तमतो नभः । स्त्रीग्रहेषु मुदा स्थानं ४ फलं तदनुमानतः ॥३॥" एषूच्चं प्रागुक्तत्वान गणितमिति त्रिधा हर्षिलम् । पूर्वोक्तैकादशावस्थासु शुभावस्थः षड्विधादिबलयुको वा बली । एवमन्यत्रापि सबलता
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१२४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । एकोऽपि बलोत्कटः । क्रूरैरयुक्तः केन्द्रस्थः सद्योऽरिष्टं पिनष्टि सः ॥५४॥ बलिष्ठः स्वोच्चगो दोषानशीतिं शीतरश्मिजः । वाक्पतिस्तु शतं हन्ति ३ सहस्रं चासुरार्चितः ॥ ५५ ॥ बुंधो विनार्केण चतुष्टयेषु, स्थितः शतं
भाव्या । सद्यो रिष्टमिति तात्कालिक रिष्टयोगम् । कोऽर्थः ? तत्काले यानि लग्नतिथिवारादीनि स्युस्तेषां योगेनोत्पन्नो रिष्टयोगो मधुसर्पिषोः समसमायोगेन विषयोगवत् तम् । स चैवम्-"उदयाद्गतलग्नमिति(ति)संक्रान्ते क्तदिवसमिति युक्ताम् । सैकां च विधाय बुधः पृथक पृथक् पञ्चधा न्यस्येत् ॥ १॥क्षिप्त्वा तत्र क्रमशः तिथि १५ रवि १२ दश १० वसु ८ मुनीन् ७ भजेन्नवभिः । शेषाङ्कः शरसंख्यो यदि भवति तदा वदेनिपुणः ॥२॥ कलह १ कृशानुभीति २ भूपभयं ३ चौरविद्रवो ४ मृत्युः । क्रमशो भवेत् प्रतिष्ठा परिणयनादौ तदा रिष्टम् ॥ ३ ॥ इति ज्योतिषसारादौ । यद्वा-"तिथिवारमलनाङ्कान् संमील्य न्यस्य पञ्चशः। रसा ६ रामा ३ मही १ नागा ८ वेदा ४ स्तेषु क्रमाद् ध्रुवाः ॥ १॥ क्षेप्यास्ततो ग्रहै ९ र्भागे पञ्चशेष फलं क्रमात् । रुजा १ मि २ क्षितिमृ. ३ चौरभयं ४ मृत्युभयं ५ तथा ॥२॥राशिपञ्चकशेषाणां योगे तु नवभिहते। पञ्चशेषे भवेन्नागभीतिर्लग्ने निशागते ॥ ३ ॥ इति बुधपञ्चकदोषः । पिनष्टीति जातकवृत्तावप्येवमुक्तम्, यदुत बुधगुरुशुक्राणां बलोत्कट्येन योगकर्तृग्रहोपरि तेषां पुष्टदृष्टया च सर्वेषां रिष्टयोगानां निर्बलखमितीहापि तथैवोचे ॥
1 पादगतवेधक्रान्तिसाम्याचसाध्यदोषवर्जानिति खयमूह्यम् । 2 विनाणेति त्रिष्वपि योज्यम् । विमनोभवेष्विति सप्तमवर्जकेन्द्रेषु । सर्वत्रेति चतुर्वपि केन्द्रेषु । रत्नमालाभाष्ये तु विमनोभवेष्विति त्रिष्वपि योजितम् । तच्च विवाहदीने अधिकृत्यात्रापि सम्यग्योज्यम् "विवाहदीक्षयोलग्ने छूनेन्दुपहवर्जितौ" इत्युतः । लक्षमिति उक्तं च"तिथिवासरनक्षत्रयोगलनक्षणादिजान् । सबलान् हरतो दोषान् गुरुशुक्रौ विलग्नगौ ॥१॥ त्रिकोणकेन्द्रगा वाऽपि भङ्गं दोषस्य कुर्वते । वक्रनीचारिगा वाऽपि ज्ञजीवभृगवः शुभाः ॥ २॥ शुभाः इत्यस्यायं भावः- "वकारिनीचराशिस्थः शुभकृत्प्रोच्यते गुरुः । खोच्चांशस्थः खवर्गस्थो भृगुणा शेन वा युतः ॥ १ ॥ इति व्यवहारप्रकाशे । विशेषस्तु-दोषाः किल द्विधा-एकाकिनोऽप्येके लग्नमुपनन्ति, केचित्तु द्वित्रा मिलि. वैव नन्ति, न खेकाकिनः । ते चैवम्-दीक्षायां पूर्णिमा तिथिः १ । प्रतिष्ठायां मंगलवारः २ । प्रतिष्ठादौ गुरोश्चन्द्रबलं न ३ । शिष्यस्थापकयोस्तु जीवेन्द्वबलानि समुदितानि विलोक्यन्ते तानि न सन्ति ४ । विवाहे वरस्य चन्द्रबलं न ५। कन्यायास्तु जीवेन्द्रर्कबलानि समुदितानि विलोक्यन्ते तानि न स्युः ६ । बिष्यस्थापकवरकन्याना जन्मराशिलमानि १०, जन्मलमलमानि १४, ताभ्यामेवाष्टमानि २२, द्वादशानि च लग्नानि ३० । तेषामेव शिष्यादीनां जन्मराशितो ३४ जन्मलमाद्वाऽष्टमस्थग्रहाणां तात्कालिकलने मूर्ताववस्थानम् ३८ । तेषामेव जन्मभानि ४२ । प्रतिष्ठादिसर्वकार्यलग्नेषु
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १२५ हन्ति विलग्नदोषान् । शुक्रः सहस्रं विमनोभवेषु, सर्वत्र गीर्वाणगुरुस्तु लक्षम् ।। ५६ ॥ लेग्नजातानवांशोत्थान् क्रूरदृष्टिकृतानपि । हन्याजीव-२ च क्रूरैर्मुक्त ४३ भोग्या ४४ क्रान्तमानि ४५ । ग्रहविद्धं वा ४६, प्रहभिन्नं वा ४७, प्रहरुदया ४८ स्तकरणेन दूषितं वा ४९, वक्रमहाक्रान्तं वा ५०, उल्काद्युत्पातदूषितं वा भं ५१ । लग्न ५२ तिथि ५३ नक्षत्रगंडान्ताः ५४ । एकार्गल ५५ विष्टि ५६ व्यतिपात ५७ वैधृत ५८ क्रान्तिसाम्यानि ५९ । संक्रान्तेरुभयपार्श्वयोः षोडश षोडश घट्यः ६० । अर्धयाम ६१ कुलिको ६२ । ग्रहणभं ६३ । प्रहणदूषितदिनाः ६४ । लग्नाद्वा ६५ चन्द्राद्वा ६६ उभाभ्यां वा परमजामित्रस्थः क्रूरग्रहः ६७, शुक्रो वा ७०। अशुमे वारहोरे युगपत् ७१ । अशुभस्थानेषु ग्रहाः ७२ । भावरीत्यापि निषिद्धस्थानेध्वापतन्तो ग्रहाः ७३ । लग्नस्य ७४ चन्द्रस्य ७५ उभयोरपि वा प्रत्येकमुभयतः पञ्चद. शत्रिंशांशमध्ये क्रूरमहाविति क्रूरकर्तर्यः ७६ । लग्नेशः ७७ अंशेशः ७८ उभावपि भावषष्ठी ७९, तथैव भावाष्टमो वा ८२ । अनुक्तो नवांशः ८३ । चन्द्रेण ८४ कुरेण वाऽऽश्रितलेनाशुद्धं लग्नं ८५, नवांशो वा ८७ । उदया ८८ स्तयोरशुद्धि ८९ श्वेति ॥ "एषां मध्यादेकेनापि हि दोषेण दूष्यते लग्नम् । द्वित्रदोषर्मिलितैयन शुभं तानथो वक्ष्ये ॥१॥ चन्द्रस्य मृतावस्था १ यमाहिरक्षोऽग्निपः क्षणो यत्र ॥२॥ अवमं त्रिदिनस्पृश्वा ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥२॥ पापग्रहलत्ता १ चेदुपप्रहः २ स्याद्वरायुधः पातः ३ । ज्ञावं त्रिभिरेतैर्भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ३ ॥ द्विव्ययगाश्चेत् क्रूराः १ सौम्यानां केन्द्रे संस्थिति भवेत् २ । लग्नपतिर्दुष्टयुतो ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ४ ॥ शुभग्हीनं लग्नं १ प्रसूतिभं नो शुभैर्युतं दृष्टम् २ । केन्द्रस्थाश्वेन शुभा ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ५॥" अत्र प्रसूतिभमिति शिष्यस्थापककन्यायन्यतरस्य जन्मराशि: शुभैर्युतदृष्टो न स्यादित्यर्थः ॥ "रविजीवौ समरेखो शुद्ध्या १ लग्नेऽपि मध्यभावफलौ २ । केन्द्रगतो नो सौम्यौ ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ६ ॥ व्ययगः सौरो १ नवमे पाप. खगः सद्ग्रहै विंयुक्तः स्यात् २ । भृगुसुतयुक्तश्चन्द्रो ३ भवेत्तदा लममशुभाय ॥ ७ ॥" प्रतिष्ठायां शुक्रन्दुयुतिः श्रेष्ठा । तेन विवाहादावयं योगो योज्यः । “अन्त्यचतुर्थ लग्नं जन्मतिथि २ स एव जन्माख्यः ३ । फाल्गुनमीनार्कयुतिर्भवेतदा लग्नमशुभाय ॥८॥" इत्येते समुदायिनो दोषा बुधगुरुशुक्रैः केन्द्रादिस्थैर्हन्यन्ते, यदुक्तं व्यवहार• प्रकाशे-"हन्ति शतं दोषाणां शशिजः समुदायिनां हि केन्द्रस्थः । शुक्रो हन्ति सहसं बली गुरुलक्षमेकं हि ॥ १॥ अथ ये एकाकिनो दोषास्ते द्विधा-साध्या असाध्याश्च । तत्र गंडान्तविष्टिपरमजामित्रवेधादयो साध्याः, तेषु पत्सु सर्वग्रहबलादिनानागुणसद्भावेऽपि लग्नं न प्राह्यम् । यदुक्तं-"एकोऽपि दूषयेद्दोषः प्रवृद्धं गुणसंचयम् । संपूर्ण पञ्चगव्येन मद्यबिन्दुर्घटं यथा ॥१॥
1 तथा सति दर्शने यदि स्वादशकमध्यगः क्रूरः । इन्दोलनस्य तथा न शुभः सर्वेषु कार्येषु । अस्यार्थः-लग्नं चन्द्रोऽन्येऽपि च प्रहाः खखत्रिंशांशकस्थास्तात्कालिकाः स्पष्टी
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१२६ जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । स्तनौ दोषान् व्याधीन धन्वन्तरिर्यथा ॥ ५७ ॥ लग्नात् क्रूरो न दोषाय निन्द्यस्थानस्थितोऽपि सन् । दृष्टः केन्द्र त्रिकोणस्थैः सौम्यजीवसितैर्यदि ३॥ ५८ ।। त्रिकोणकेन्द्रायगतैः शुभग्रहैर्विसप्तमेनाऽसुरपूजितेन च । स्युः
क्रूरचन्द्र रिऍविक्रमायगैः, कर्तुः श्रियः सन्निहिताश्च देवताः ॥ ५९ ॥ ५पैश्यन्नंशाधिपो लग्नं भवेदुदयशुद्धये । अंशास्तेशस्तु लग्नास्तमस्तशुद्ध्यै कार्याः । ततो यैर्ग्रहैलग्नेन्दू दृश्येते तेषां लग्नेन्द्रोश्च भुक्तत्रिंशांशानां विश्लेषे कृते चेत् द्वादश यावदुद्धरति तावत् क्रूरग्रहो न शुभः सौम्यग्रहस्तु शुभः । यथा शनिवांशस्थो लग्नं चन्द्रं वाऽष्टमस्थं पश्यति अंतरे कृते द्वादश, एवमेकादशदशादयोऽपि वा द्वादशभ्योऽशेभ्य उपरिस्थस्य तु क्रूरस्य दृष्टिर्न दुष्टेति भावः । 2 क्रूरयुतिकृतानपीयर्थः ।
1 पुष्ट्या दृष्टयेत्यर्थः । यदि च तस्य क्रूरस्य सौम्यजीवसितैः सह मंत्री नैसर्गिकी तात्का. लिकी वा स्यात्तदा दृष्टेरधिकतरो विशेषः । 2 खोचगवादिना बलिष्ठतरैरिति भावः । कूरा हवंति सोमा सोमा दुगुणं फलं पयच्छन्ति । जइ पासह किंदठिओ तिकोणपरिसंठिओवि गुरू॥१॥ 3 सप्तमवजेकेन्द्रेषु त्रिकोणे वा स्थितः शुक्रः । क्रूरचंद्वैरिति क्रूराश्चन्द्रश्चेति स क्रूरप्रहाः प्रतिष्ठितादिलग्ने त्रिषडायगता एव शुभा इत्यत्रापवादोऽयम्-"पापोऽपि कर्तृजन्मेशः केन्द्रस्थः शस्यते ग्रहः । अशून्यानि च केन्द्राणि मूर्ती जीवज्ञभार्गवाः ॥१॥" अस्यार्थः-कर्तुः प्रतिष्ठाकारयितुः श्रावकस्य दीक्षणीयस्य दीक्षादातुर्गुरोर्वा जन्मनि नाग्नि वा यो राशिस्तत्वामी पापोऽपि केन्द्रस्थोऽपि शस्यते, केन्द्राणि च शुभग्रहै रेवाधिष्ठितानि श्रेयांसि न तु शून्यानीति भावः । सन्निहिताश्चेति देवताप्रतिमायामवतिष्ठते इत्यत एवंरूपे लग्ने प्रतिष्ठा कार्येति भावः। इह प्रतिष्ठोद्देशेनोक्तं परमीशी ग्रह संस्था सर्वकार्येषु सिद्धिदेति ज्ञेयम् ॥ 4 अंशाधिप इति अंशशब्देनात्र सर्वत्र नवांश एव प्रायः, तत्रैव ह्युदयास्तशुद्धी अन्वेष्ये, "प्रभुरिह नवांश" इत्युक्तेः, न तु द्वादशांशत्रिंशांशेषु । उदयशुद्धये इत्यत्र तादर्थं चतुर्थी, एवमग्रेऽपि, तत उदयिनवांशेशः खस्थानस्थो लग्नं पश्येत्तदोदयशुद्धिः स्यात्, लनवीक्षणे तत्स्थस्य नवांशस्यापि तदपृथग्भूतत्वेन वीक्षणभवनादित्यर्थः । अंशाधिप इत्युपलक्षणम् , तेन पृच्छादिलग्नेषु लग्नेश एव लग्नं पश्यन्विलोक्यते, शिरःशून्य तदा लग्नं यदा खामी न पश्यति" इत्युक्तेः । अंशास्तेश इति अस्तं सप्तमं ततो लग्ने यद्राशिनामा नवांशस्तस्माद्राशितो यदस्तं सप्तमं स्थानं तदीशश्चलनापेक्षयाऽस्तं सप्तमं गृहं पश्येत्तदाऽस्तशुद्धिः । इयमत्र भावना-किल कलग्नस्य तृतीये कन्यानवांशे गृह्यमाणे चेनवांशराशिकन्यास्थानात्सप्तमस्थानस्थस्य मीनराशेः खामी गुरुर्मेषवृश्चिकवृषकन्यातुलमिथुनकळणामन्यतमस्थः कर्कलमात्सप्तममकरराशिं पश्येत्तदा कर्कलग्ने कन्यानवांशेऽस्तशुद्धिः । एवमन्यत्रापि भाव्यम् । अन्ये बाहुः-"लग्ननवांशसमनामा राशियेत्र. तत्रस्थः खेशदृष्टः स्यात्तदोदयशुद्धिः स्यात्"। श्रीहरिभद्रसूरयोऽप्याहुः-"उदयत्थसुद्धिमिहि भणामि उदओ नवंसगो इत्थ। तम्मि अ लग्गविइण्णे सनाहदिटे उदयसुद्धी॥१॥" भस्योदाहरणं यथा-मिथुनलग्ने मीननवांशे गृह्यमाणे तदीशजीवेन मीनराशौ दृष्टे
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १२७ विलोकयन् ॥ ६० ॥ विवाहेषु द्वयोमा॑ह्या विशुद्धिरुदयास्तयोः । प्रतिष्ठा
४ मं / र.बु.२ ।
अंश६ शुक्र३
कुंडलिकेयं ६० तमछन्दःसंबन्धिनी
दीक्षयोस्तावानस्तशुद्धौ तु नाग्रहः ॥ ६१ ॥ मध्ये मेषझषौ पैलैभनयनै२२७र्मातंगतत्त्वै२५८वृषः, कुंभो वा मिथुनः पुनर्मकरवत्तर्काभ्रधूमध्वजैः-३ ३०६ । कर्की धन्विवदम्बराम्बुधिगुणै३४०रभ्राब्धिरामैरलिः३४०, सिंहश्वाथ कनीघटौ ग्रहरदै३२९रुद्यन्त्यमी राशयः ॥ ६२ ॥५
| मेष २७८ मीन ||| मेष २२७ मीन
वृष २९९ कुंभ वृष २५८ कुंभ लङ्कायां लग्न-1 मिथुन ३२३ मकर | मिथुन ३०६ मकर | मध्यदेशे लग्नमानस्थापना | कर्क ३२३ धन कर्क ३४० धन मानस्थापना
सिंह २९९ वृश्चिक सिंह ३४० वृश्चिक
कन्या २७८ तुला कन्या ३२९ तुला | सत्युदयशुद्धिः, सर्वत्र । स्थापना यथात्रैव पृष्ठे । व्यवहारप्रकाशे त्वेतत्प्रकारद्वयमपि बहु मेने । तथाहि-'अंशाधिपतेदृष्टिर्यदांशकेऽशास्तपस्य भागास्ते १ । भागपतेर्लग्ने वाऽप्यंशास्तपतेविलग्नास्ते २ ॥ २ ॥ उदयास्तस्य च यदि दृष्टेः शुद्धिर्भवेद्विलग्नेऽत्र । कान्ताया मजल्यान्यतनूनि तनौ प्रजायन्ते ॥२॥" यतिवल्लमे त्वेवमप्यस्ति-"उदयाखांशतुल्याख्यराश्योरपि विलोकने । योगेऽथवा परे प्राहुरुदयास्तविशुद्धताम् ॥ १॥" विलोकने इति खखामिभ्यामिति शेषः । योगे इति उदयास्तांशाख्यराश्योः खखाम्यधिष्ठितयोः सतोरित्यर्थः । इह चोदयास्तशुद्ध्यधिकारे दृष्टिमात्रेणेव कार्यम् , तेन पुष्टाऽपुष्टा वा दृष्टिरिति विशेषो नान्वेष्यः॥
1 हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यमित्यादिनिघण्टूके मध्यदेशे। 2 देवः श्रीसर्वज्ञो विश्वश्रीशः सिद्धिनीकान्तः, कामद्वद्रोहानिर्मायादोषाभाखानीरागः। चन्द्रश्वेतश्लोकः स्याद्वादारामाब्दो लोकार्यों वीतापायः शान्तो लोकेभ्योऽसंख्यं सौख्यं देयात् ॥ १॥ कामक्रीडाछन्दः । मध्यमगत्या पठमानस्य ईदृशस्य पलप्रमाणवृत्तस्य षष्टिवारान् पठने घटी स्यात् । सूक्ष्मेक्षिकया तु संगीतशास्त्रप्रसिद्धस्य पंचमातृकातालस्याविच्छेदेन चतुर्विंशतिवारान् हस्तमुखाभ्यां सम्यगुद्घट्टने सर्वथाप्यसंवादि जलपलमेकं स्यात् । तालस्य खरूपं तदुट्टनविधिश्व संगीतशास्त्रवेदिनां मुखाज्ज्ञेयः । चरखण्डाद्यानयनरीतिस्तु करणकुतूहलादिभ्यो ज्ञेया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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cacakaa 4
| लमाना मानं होराणां मान द्रेष्काणानां मान) नवाशानां मान द्वादशांशानां मान त्रिंशा० मान || स्थापना| घटी पल पलं-अक्षरे पलं-अक्षरं पलं अक्षरं व्यक्षरे पलं अक्षरं | पलं अक्षरं || रे ९६ मिष ३-४५/११२-३० ७५ | २५ । १८-४५
उ १०२ वृष ४-१६ १२८ ८ ५-२० २८-२६-४० २१-२०
पू १०८ ८-३२
श ११५ मिथुन ५-५ १५२-३० | १०१-४० ३३-५३-२० २५-२५ १०-१०
घ १२० कर्क ५४१ १७०-३० ११३-४० | ३७-५३-२० २८-२५ ११-२२
श्र १३४ सिंह ५ ४२ १७१ ११४
२८-३० ११-२४ उ १४८ कन्या ५ ३१ १६५-३० ११०-२० ३६-४६-४० | २७-३५ ११-२
पू १५१ तुला ५ ३१/१६५-३० | ११०-२० ३६-४६-४० २७-३५ ११-२ मू १५३ वृश्चिक ५ ४२/१७१ । ११४ |३८ । २८-३० ११-२४ ज्ये १५२ धन ५ ४१/१७०-३० ११३-४० ३७-५३-२० २८-२५ ११-२२ अ १५३ मकर ५-५/१५२-३० १.१-४० |३३-५३-२० २५-२५ १०-१०
वि १४८ उ कुंभ ४ १६/ १२८ । ८५-२०
२१-२०
८-३२
खा १४७ ह मीन ३ ४५/११२-३०७५
१४६ चि १८-४५
७-३०
अभिजित् २४८ ___ 1 विशेषस्तु-"रेवत्युदयाद व्यादीन्युद्गच्छन्ति जलपलैः क्रमशः । चित्रान्तान्यूतुनन्दै ९६ विखरूपै १०२ रष्टखावनिभिः १०८ ॥ १॥ शरकुकुभिः ११५ खद्विकुभि १२० युगगुणरूपै १३४ र्वसूदधिमृगांकः १४८ । शशिपञ्चकुभि १५१ स्त्रिशरक्ष्माभिः १५३ करविषयवसुधाभिः १५२ ॥ २ ॥ त्रीषुकुभि १५३ रष्टयुगकुभि १४८ रगचतुरेकैः १४७ षडब्धिकुभि १४६ रेवम् । हस्तादेः प्रतिलोमं खात्याद्युदये कमान्मानम् ॥ ३ ॥ “अभिजिच्च वसुजिनै २४८ रिति ऋक्षाणामुदयपलसंस्था ।" एष्वभिजिवर्ज सपादभद्वयमानमीलने यथोकं राशिमानं स्यात् ॥
५३३१स्तुलावदुदयं यान्तीति मेषादयः॥ ६३ ॥ | कन्या ३३१ तुला दलिवत्सिंहो द्विवेदत्रिकैः३४२कन्येन्दुत्रिदशैमार्गाननो वा पलैः। कर्की क्ष्मातिशयै३४१र्धनुर्वघटौ, षट्तत्त्वैः२५६शरखाग्निभिश्च३०५मिथुनो श्रीमद्गौर्जरपत्तने त्वजझषौ तत्त्वाक्षिभि२२५\- | मेष २२५ मीन
| वृष | सिंह ३४२ वृश्चिक
कर्क ३४१ | मिथुन ३०५ मकर २५६ कुंभ
धन
KA
१२८ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम्।
२८-२६-४०
| २५
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कन्या
१८९७ १८८८
१८६२ कन्या
१८२७ तुला १७९३ वृश्चिक १७६९
धन
जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धो पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १२९ द्वादेशराशि गणो राशिस्तु त्रिंशता भवति भागैः । भागे षष्टिर्लिप्ता लिप्ता षष्ट्या विलिप्ताभिः ॥ ६४ ॥
मेष १८५७ वृष संक्रान्यन्तरनाडिका अथ धृतिर्मेषादितो- | वृष_ १८८५ मिथुन ऽश्वेषुभि-भूतेभैर्मुनिगोभिरष्टवसुभिर्नेत्रर्तु
सिंह . भिर्भस्तथा । अत्यष्टि समन्विता त्रिन
सिंह
तुला वभिः खेटर्तुभिः खर्तुभिः, सप्तांगैर्निधि
वृश्चिक ६ कुञ्जरैरथ धृतिश्चन्द्रेक्षणैश्चै क्रमात् ॥६५॥
धन १७६० मकर स्फुटोऽथ भानुगतनाडिकाभ्यः, संक्रा
मकर १७६७ कुंभ न्तितः खज्वलनहिताभ्यः । भागादिभिः कुंभ १७८९ मीन स्वान्तरभुक्तिलब्ध, राश्यादिकं स्याद्गत
मीन १८२१ मेष राशियुक्तैः ॥ ६६ ॥ गणितविदुपदेशात्तत्र दत्त्वाऽयनांशान्, पुनरपि भगाँधं रात्रिलग्ने तु दद्यात् । अथ हत उदयस्त्रिर्मुक्तशेषैर्लवाद्यै-१२ रुपरि च खगुणांप्तः स्यात्पलात्माकंभोग्यम् ॥ ६७ ॥ इष्टाद्भुक्तनवांशकैदशगुणैस्च्याप्तैलवाद्यं फलं, लग्नं सायनमूर्ध्वराशिसहितं सैकप्रवृत्त्यंशकम् । तद्भुक्तेन लवादिना तदुदयः क्षुण्णो हृतस्त्रिंशता, भास्वद्भोग्यवदान्तरोदय- १५ युतः कालः पलात्मा भवेत् ॥ ६८ ॥ संक्रान्तिराशेर्गतनाडिकाने, माने दिवा निश्यथ सप्तमस्य । संक्रान्तिभोगेन हृते तदीयव्यंशान्विते शेषमिहार्कभोग्यम् ॥ ६९ ॥ भुक्तेऽथ लग्नस्य तदंशकाच, दद्यात्रिभागावुदय-१८ प्रवृत्त्योः । तल्लमभुक्तं च तथाकंभोग्यं, कालोऽन्तरालोदययुक् पलात्मा ॥ ७० ॥ त्यक्त्वाऽर्कभोग्यं च पलात्मकालाद्भागादिभोग्यं तरणौ निद-२०
___1 भागस्य त्रिंशांश इति नामान्तरम् । तन्मानं चैवम्-“लमानां सर्वदेशेषु यन्मानं घटिकादिकम् । तच्च द्विघ्नं पलायं स्यान्मानं त्रिंशांशकस्य हि ॥१॥" लिप्ताविलिप्तयोः कलाविकलेति नामान्तरम् । विशेषस्तु-विलिप्तायां षष्टिः परमविकलास्तासामक्षरे. त्याख्यान्तरम् । अक्षरेऽपि षष्टिय॑क्षराणि स्युस्तानि चातिसूक्ष्मवादसंव्यवहार्याणि । 2 इतः परं वृत्त ७२ यावत् विस्तरार्थो हेमहंसगणिकृतसुधीराङ्गारवार्तिकादेवावलोक्यः । अतिविस्तरखाद्विशिष्टगुरुगम्यसाचात्र न सङ्गृहीतः।
जै० १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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१३० जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । ध्यात् । क्रमेण शेषानुदयान् विशोध्य, राशीन्न्यसेत्तत्प्रमिताँश्च भानौ॥७१॥ शेषादथ खगुणगुणादविशुद्धोदयहृतादवाप्तेन । भागादिना सनाथो दिननाथो निरयनांशको लग्नम् ॥ ७२ ॥ सैन्ध्यालग्नमपि श्रेयो गोखुरोत्खात४ धूलिभिः । गोपानां हीनवर्णानां प्राचां च स्यात्करग्रहे ॥ ७३ ॥ शीत
1 सूर्यस्यास्तसमयेऽर्धबिम्बभवनादनु गोखुरोत्खातधूलयो यावन्न शाम्यन्ति तावद्गोधूलिकलग्नसमयः, अत एव धूलि भिरित्युक्तं यावत्तारा नेक्ष्यन्ते तावदिति भावः । अभ्रच्छन्ने खर्के प्रपुनाटपत्रमीलनशकुनिकुलकोलाहलकुलायौत्सुक्यादिलिनेनिर्णयम् । श्रेय इति लोकरूढ्योक्तम् । हीनवर्णानामिति सामान्येनोक्तम् , यद्गदाधरः- "घटिकालमाभावेऽजी. कायें गोरजोऽपि विप्रैश्च" इति ॥ 2 षष्ठमिति लग्नात् षष्ठाष्टमेन्दुः कन्यामृत्युदः,भौमोऽपि मूर्त्यष्टमगः पत्युम॒न्युदत्वात्त्याज्य एवेति सारंगः । अर्धयामौ कुलिकं चेति अनेन गोधूलिके गुरुशनिवारी त्याज्यौ तदिनयोस्तदानीं क्रमेणार्धयामकुलिकोत्पत्तरित्यसूचि । केशवार्कस्वाह-"सार्क शनौ चिरविचित्रशिखंडिसूनौ, तत्केवलं कुलिकयामदलोपलंभात्।" अत्र सार्कमिति शनी सूर्ये सति गोधूलिकं कार्य, पश्चात् कुलिकभवनात् । गुरौ तु सूर्यास्तादनु कार्य,प्रथममर्धयामसद्भावादिति । खगा ग्रहाः। विनाऽपीत्युक्तेऽपि च किल क्रान्तिसाम्यादयो बृहद्दोषास्त्याज्या एव । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे-"क्रूरैर्युतनक्षत्रं व्यतिपातं वैधृति च संक्रान्तिम् । क्षीणं चन्द्र ग्रहणभशनिगुरुदिनक्रान्तिसाम्यानि ॥१॥ दम्पत्योरष्टमभं लग्नात् षष्ठाष्टमं च शीतांशुम् । रविजीवयोरशुद्धि विवयं गोधूलिकं शुभदम् ॥ २॥ गोधूलिकपरिणयने येषां केन्द्रोपगःशुभो न मृतौ। भौमो नोदयनिधने तेषां सौख्यानि नान्येषाम् ॥३॥ प्राग्रहरमिति दोषान्तरैरजय्यत्वात् प्रधानम् । यत्सारंग:-"जामित्रं न विचिन्तयेगृहयुतं लग्नाच्छशाङ्कात्तथा, नो वेधं न कुवासरं न च गतं नागामि भं पाप्मभिः। नो होरा न नवांशकं न च खगान्मूर्त्यादिभावस्थितान् , हित्वा चन्द्रमसं षडष्टमगतं गोधूलिकं शस्यते॥१॥" अत्र यद्यपि षष्ठाष्टमेन्दुत्याग एवापेक्ष्यते, न वन्यत् किमपीत्युक्तं, तथापीदं ज्ञेयम्गोधूलिकलग्नेऽपि वैवाहिकमेव भम् , तच्छुद्धिवर्षमासपक्ष दिनशुद्वय श्वावश्यं गवेष्यन्त एवेति । अत्राह परः-यदि दोषान्तराजयत्वाद्गोधूलिकस्य प्राधान्यं तदा पूर्वोक्तलग्नादिफलानामप्राधान्यापातः, सत्यं, अनुलंध्यकुलदेशधर्मानुसारात्तेषां कचिदप्राधान्यापातोऽपि नानिष्टः। यदुक्तं-"न शास्त्रदृष्ट्या विदुषां कदाचिदुल्लंघनीयाः कुलदेशधर्माः। देशे गतोऽ. प्येकविलोचनानां निमील्य नेत्रं निवसेन्मनीषी ॥१॥" एवं यथोक्तकुलदेशेषु गोधूलि कस्यैव प्राधान्यं, न तु लग्नादिफलानामिति न कश्चिद्दोषः । अपि च न केवलं गोधूलिकविषया एव ग्रहगोचरादिविषया अपि कुलदेशधर्माः सन्ति । तथाहि-विवाहे नागराणां षडष्टमकाद्यगणनं । भार्गवेषु भाद्रपदसितदशम्यामेव विवाहः। एते कुलधर्माः। देशधर्मा यथा-गौडदेशीयाः सूर्य गोचरेण श्रेष्ठमपेक्षन्ते, गुरुं लटकवर्गेण । दाक्षिणात्या गुरुं गोचरेण श्रेष्ठमिच्छन्ति, सूर्य बष्टकवर्गेण । लाटदेशीया रविगुरिष्टकवर्ग गोचर चेच्छन्ति।मालवीयानां गोचरो न प्रमाणं, किं त्वष्टकवर्ग एव प्रमाणम् । शेषेषु देशेषु गोचरोऽष्टकवर्गध प्रमाणम् ॥
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । १३१ घुतिं षष्ठमथाष्टमं च, भद्रार्धयामौ कुलिकं च हित्वा । विनापि लग्नांशखगानुकूल्यं, गोधूलिकं प्राग्रहरं वदन्ति ॥ ७४ ॥ स्युर्दीक्षास्थापनादीनि ध्रुवचक्रे तिरःस्थिते । ऊर्खे खातध्वजोच्छ्रायप्रायाणि प्रायशः श्रिये ॥७५।।३ अभिषिक्तो महीपालः श्रुतिज्येष्ठालघुध्रुवैः । मृगानुराधापौष्णैश्च चिरं शास्ति वसुंधराम् ॥ ७६ ॥ सबलत्वे जन्मदशा लग्नेशानां कुजार्कयोरपि च । राज्ञां शुभोऽभिषेकः सितगुरुशशिनां च वैपुल्ये ॥ ७७ ॥ भूत्यै ६ स्वस्वत्रिकोणोच्चगृहमित्रागैर्ग्रहैः । अभिषेको न नीचारिक्षेत्रगास्तमितैः पुनः ॥ ७८ ॥ ताराबले शशिबले शुद्धौ तिथिवारधिष्ण्ययोगानाम् ।। ___ 1 स्थापना प्रतिष्ठा, आदिशब्दादन्यदपि स्थिरकर्म । तिर इति तिर्यक् । ऊर्ध्व इति ऊर्वस्थिते ध्रुवस्य परितः स्थितं शृंखलकं ह्यप्रदक्षिण कं भ्राम्यदहोरात्रे द्विस्तिर्यक् स्यात् द्विश्चोर्ध्वम् । ततश्च-"तिर्यगूष स्थिते चक्रे तत्प्रान्तगततारके । समसूत्रे यदा स्याता ध्रवलग्नं भवेत्तदा ॥१॥" तत्समयश्वातिसूक्ष्मप्राहिण्या खदृशा ध्रुवभ्रमयंत्रेण वा निर्णेयः । स्थूरवृत्त्या त्वेवं पूर्वाचायनितोऽस्ति । तथाहि-"उदए महाधणिट्ठाण उ8 अणुराहकित्ति धुअ तिरिओ" त्ति । परमुदयमानवं भस्य तथा स्पष्टं दृग्गोचरीकर्तु न पार्यते, तेन शिरःस्थनक्षत्रापेक्षया ध्रुवलग्नखरूपं कथ्यते, तथाहि-अश्लेषायां श्रवणे च मस्तकादुत्तरति सति ध्रुवस्तिरश्चीनः स्यात् । भरण्यां विशाखायां च मस्तकादुत्तरन्त्यां ध्रव ऊर्ध्वः स्यादिति तथा-"स्यादूओं मृगकर्के तु समस्तिर्यक् तुलाजयोः । यथा तथा तु शेषेषु लगेषु स्याद्रुवं ध्रुवः ॥ १॥" तद्वेला च तादात्विकोदयलग्ननवांशमात्रीत्येके । तस्यापि मध्यमत्रिभागमात्रीति बन्ये । रात्रिजमेव तिर्यगूवं ध्रुवलग्नमुच्यते, न तु दिनजं, रविकरलुप्तत्वात् । प्रायाणीति प्रायशब्दाद्यात्रादिग्रहणम् । यदुक्तं-"पृष्ठतो वा रविं कृत्वा गच्छेद्दक्षिणगं तथा । उत्तानपादपुत्रस्य शेखरे चोर्ध्वसंस्थिते ॥ १ ॥" अत्रोत्तानपादपुत्रो ध्रुवः । हर्षप्रकाशेऽपि ध्रुवलनमूचे, तथाहि-"जइ पुण तुरिअं कजं हविज्ज लग्गं न लब्भए सुद्धं । ता छायाधुवलग्गं गहिअव्वं सयलकजेसु ॥१॥" 2 एवमभिषेकभानि त्रयोदश ॥ 3 जन्मनि यत्रेन्दुस्तद्राशीशो जन्मेशः । अभिषेक. समये यस्य ग्रहस्य दशाऽस्ति स दशेशः । जन्मलग्नपतिर्लमेशः। वैपुल्यं बहदिनोदितखेन विशालबिम्बवं सत्किरणलं च ॥ 4 खखेति पदं त्रिकोणादिचतुष्केऽपि योज्यम् । एतैरीदृशैरेवाभिषेकः श्रेष्ठः । यतः-"सुहृत्रिकोणखगृहोच्चसंस्थाः, श्रियं च कीर्ति च दिशान्ति खेटाः । अस्तंगताः शत्रुभनीचगा वा, भयाय शोकाय भवन्ति राज्ञाम् ॥१॥" ग्रहैरिति सामान्योक्तेऽपि विशिष्य गुर्विन्दुशुकैर्जन्मदशालग्नेशदिनवारैश्च । यल्लल्ला"विशेषाजन्मलग्नेशदशेश दिनभर्तृषु । यस्मात्तस्मात् प्रयत्नेन सौस्थ्यमेषां प्रकल्पयेत् ॥१॥" 5 तारेन्द्वोर्द्वयोरपि बलं राज्याभिषेकेऽवश्यं ग्राह्यम् , तेन शुक्लकृष्णपक्षापेक्षयोभयोर्बलमिति न व्याख्येयम् । तिथेः शुद्धिर्दग्धरिकादित्यागात् । वारशुद्धिः सौम्यवारैः ।
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१३२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ पञ्चमविमर्श मिश्रद्वारम् । त्रिषडायस्थैः पापैः सौम्यैस्त्र्यायत्रिकोणकेन्द्रगतैः ॥ ७९ ॥ जन्मदुिपपचयभे स्थिरेऽथ शीर्षोदयेऽथवा भवने । सौम्यर्विलोकितयुते न तु पापै३ भूपमभिषिञ्चेत् ॥ ८० ॥ यमार्कयोस्त्यायगयोर्गुरौ तु, सुखाम्बरस्थे
नृपतिस्थिरश्रीः । यद्वा त्रिकोणो९-५दयगे सुरेज्ये, शुक्रे नमःस्थे क्षितिजे रिपुस्थे ॥ ८१॥ अभिषिक्तो बलीयोभिग्रहै: केन्द्रत्रिकोणगैः॥ क्रूरः पापैः ६ शुभैः सौम्यो मित्रैः साधारणो भवेत् ॥ ८२ ॥ चन्द्रे सौम्येऽपि वाऽन्यस्मिन् रिपुरन्ध्रस्थिते ग्रहैः। क्रूरैर्विलोकिते मृत्युरभिषिक्तस्य निश्चितः ॥८३॥रोगी तनुस्थैरधनो धनान्त्यगैर्दुःखी च पापैर्नृपतिस्त्रिकोणगैः५-९। पदच्युतोऽस्ताम्बुंगतैर्मृतिस्थितैरल्पायुराकासँगतैस्त्वकर्मकृत् ॥ ८४ ॥ १० ईंति वक्तव्यता येयं भूपालस्याभिषेचने । आचार्यस्याभिषेकेऽपि सा
धिष्ण्यशुद्धिः क्रूराक्रान्तादित्यागात् । योगशुद्धिर्दुष्टयोगोपयोगवर्जनात् । व्यायेति उपलक्षणवाद्धनभवनेऽपि सौम्यग्रहै रेव सहिते । सामर्थ्याच्चेदमपि लभ्यते । अष्टमद्वादशगृहे शून्ये एव भव्य, तत्रस्थानां शुभानामशुभानां च प्रहाणामनिष्टदत्त्वात् ॥ ___ 1 अभिषिच्यमानस्य पुंसो जन्मराशित उपचयमे लग्नस्थ सति, यद्वा स्थिरे लग्ने, अथवा शीर्षोदयिनि । न तु पापैरिति क्रूरग्रहैरदृष्टेऽयुते वेत्यर्थः ॥ 2 यमः शनिः ॥ 3 यदि केन्द्रत्रिकोणगा बलिनो प्रहाः सर्वे क्रूरास्तदा नृपः क्रूरः स्यात् । सर्वे शुभाश्चेत्तदा सौम्यः । यदि मिश्राः, कोऽर्थः ? केचित् क्रूराः केचिच सौम्या इति तदा साधारणो नातिक्रूरो नातिसौम्यश्च । अपि च “विधुगुरुशुकैः साकैः" इति यः श्लोक उपनयाधिकारे प्रोक्तः सोऽत्रापि योज्यः॥ 4 विलोकिते इति पुष्टदृष्ट्या ॥ 5 अकर्मकृदिति अकिञ्चित्करो निरुद्यम इत्यर्थः ॥ 6 अपिशब्दादन्यत्रापि पदस्थापने । तदेवं राज्याभिषेकसूरिपदादौ कुंडलिकेयं सिद्धा।
उत्तमा
मध्यमा
रविः | ३-११
|१-२-४-५-६-७-८-९-१०-१२ चन्द्रः १-२-३-४-५-७-९-१०-११६ -८-१२ मंगलः| ३-६-११
१-२-४-५-६-७-८-९-१०-१२ बुधः | १-२-३-४-५-७-९-१०-११६-८-१२ गुरुः । १-२-३-४-५-७-९-१०-११।६-८-१२ शुक्रः । १-२-३-४-५-७-९-१०-११ ६-८-१२ शनिः | ३-११
१-२-४-५-६-७-८-९-१०-१२ राहुः । ३-६-११
१-२-४-५-६-७-८-१-१०-१२
तथाहि-विशेषस्तु-"राजयोगाः खयोगाश्च चन्द्रयोगास्तथायुषः । सर्वेऽप्यत्र विकल्प्याः
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जैनज्योतिम्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ सकलप्रन्थार्थसमर्थनम् । १३३ सर्वाप्यनुवर्तते ॥ ८५ ॥ --* ॥ इत्येकादशं मिश्रद्वारम् ॥ ११* ...
अथ सकलग्रन्थार्थ समर्थयतिइत्युक्तखेटबलशालिनि दोषमुक्ते, लग्ने शुभैश्च शकुनैः शशिनः प्रवाहे ।। कार्याणि भूमिजलतत्त्वगतौ कृतानि, निर्दभमाभ्युदयिकी प्रथयन्ति लक्ष्मीम् ॥ ८६ ॥ 8॥ इति प्रशस्तिः ॥
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स्युर्वास्तुलनगुणाश्च ये ॥ १॥" इति दैवज्ञवल्लमे । अस्यार्थः-राजयोगाः प्रागुक्ताः । खयोगा नाभसंयोगाः । चन्द्रस्यान्यप्रहैः संयोगाः चन्द्रयोगाः । आयुषो योगा इति कोऽर्थः ? येऽरिष्टयोगा उक्तास्तेषां भन्नका ये योगास्ते आयुषो हितत्वादायुषो योगा इत्युच्यन्ते । एषां सर्वेषां खरूपं जातकाज्ज्ञेयम् । अत्रेति अभिषेकलग्ने विकल्प्या विचार्याः। वास्तुलग्नगुणाः प्रागुक्ताः । अपि च सर्वप्रहबलालकृतलग्नालामे सर्वेष्वपि कार्येष्वेवं ज्ञेयम्-“पञ्चभिः शस्यते लग्नं प्रहैर्बलसमन्वितैः । चतुर्भिरपि चेत्केन्द्र त्रिकोणे वा गुरुभृगुः ॥१॥" अत्र पञ्चभिरित्युक्तेऽप्ययं विशेषो ज्ञेयः-गुर्वन्दुमध्यादेकस्यापि बलाभावेऽन्यैः पञ्चभिः सबलैरपि लग्नं नाद्रियते इति रत्नमालाभाष्ये । केऽप्याहुः"त्रयः सौम्यग्रहा यत्र लमे स्युर्बलवत्तराः । बलवत्तदपि ज्ञेयं शेषहीनबलैरपि ॥ १॥"
1 खेऽटन्तीत्यचि तत्पुरुषे कृतीति सप्तम्यलुपि खेटा प्रहाः तेषां बलम् , अनेन तिथ्यादिबलमपि लक्ष्यते । दोषमुक्के इति बृहद्दोषरहिते इति भावः । सर्वथा निर्दोषस्य लग्नस्याखल्पदिनैरप्यलाभात् , अतः खल्पदोषं महागुणं च लग्नमादाय कार्याणि कार्याणि, न तु सर्वथा निर्दोषलग्नापेक्षया बहुतरविलम्बः कार्यः, धनयौवनजीवितानां स्थैर्याभावादित्याशयः । उक्तं च-“यस्मादशेषगुणसंपदहोभिरल्पोराविदाऽपि गणकेन न लभ्य. तेऽत्र । तस्मादनल्पगुणसंयुतमल्पदोषं, लग्नं नियोज्यमखिलेष्वपि मालेषु ॥ १॥ खल्पो नानर्थकद्दोषो लग्ने बहुगुणे भवेत् । तोयबिन्दुरिव क्षिप्तः समिद्धे कृष्णवर्मनि ॥२॥" शकुनैरिति शकुना जांघिकादयः । प्रधानं च शकुनिकाः । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे"नक्षत्रस्य मुहूर्तस्य तिथेश्च करणस्य च । चतुर्णामपि चैतेषां शकुनो दंडनायकः॥१॥" अत्राङ्गस्फुरणमनःप्रसत्त्यादिनिमित्तमपि लक्ष्यम् । एभिः शकुनादिभिः शुभैर्लनशुद्धौ निणीतायां तल्लमादरणे कार्यकर्तुर्जयः स्यात् । लल्लोऽप्याह-"अपि सर्वगुणोपेतं न ग्राह्य शकुनं विना । लनं यस्मानिमित्तानां शकुनो दंडनायकः ॥ १ ॥" सशिनः प्रवाहे इति अध्यात्मशास्त्रे किल वामदक्षिणनासे चन्द्रसूर्यसंज्ञे । ततश्च-“साधं घटी. द्वयं नाडिरेकैकार्कोदयाद्वहेत् । अरघट्टघटीभ्रान्तिन्यायानाड्योः पुनः पुनः ॥ १ ॥ शतानि तत्र जायन्ते निःश्वासोच्छ्रासयोनव । खखषटकुकरैः २१६०० संख्याऽहो. रात्रे सकले पुनः ॥२॥ षत्रिंशद्गुरुवर्णानां या वेला भणने भवेत् । सा वेला मरुतो नाड्या नाड्यां संचरतो लगेत् ॥ ३॥" तत्र वामनासायां प्रविशत्पवनापूर्णायां सर्व शुभकार्य कार्यम् । यदुक्तं-"लामे दानेऽध्ययने गुरुदेवाभ्यर्चने विषविनाशे ।
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१३४ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयाया मारम्भसिद्धौ सकलग्रन्थार्थ समर्थनम् ।
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पुरमन्दिर प्रवेशे गमागमादौ शुभा वामा ॥ १ ॥” तथा—' - " पूजाद्रव्यार्जनोद्वाहे दुर्गासिरिदाक्रमे । गमागमे जीविते च गृहक्षेत्रादिसंग्रहे ॥ १ ॥ क्रये विक्रयणे दृष्टौ सेवायां विद्विषो जये । विद्यापट्टाभिषेकादौ शुभेऽर्थे च शुभः शशी ॥ २ ॥ " भूमिजलतत्त्वगताविति । उक्तं हि " वायोर्वहेरपां पृथ्व्या व्योम्नस्तत्त्वं वहेत् क्रमात् । वहन्त्योरुभयोनज्योर्ज्ञातव्योऽयं क्रमः सदा ॥ १ ॥ एष प्रवाहा एवम् – “ऊर्ध्वं वह्निरधस्तोयं तिरश्वीनः समीरणः । पृथ्वीमध्यपुटे व्योम सर्वगं वहते पुनः ॥ १ ॥" प्रमाणं तु"पृथ्व्याः पलानि पञ्चाशत् ५० चत्वारिंशत् ४० तथाऽम्भसः । अग्नेस्त्रिंशत् ३० तथा वायोविंशति २० र्नभसो दश १० ॥ १ ॥ एवं सार्धशतं १५० पलान्येकैकनाडीप्रमाणम् । एवं च वामनाच्यामपि यदा पृथ्वीजलतत्त्वे स्यातां तदा शुभकार्यं कार्यं न तु वह्निवायुव्योमतत्त्वेषु । यतः - - " तत्त्वाभ्यां भूजलाभ्यां स्याच्छान्ते कार्ये फलोन्नतिः । दीप्तास्थिरादिके कृत्ये तेजोवाय्वम्बरैः शुभम् ॥ १ ॥ पृथ्यप्तेजोमरुयो मतत्त्वानां चिह्नमुच्यते । आद्ये स्थैर्यं खचित्तस्य शैत्यकामक्षयौ परे ॥ २ ॥ तृतीये कोपसन्तापी तुर्ये चञ्चलता पुनः । पञ्चमे शून्यतैव स्यादथवा धर्मवासना ॥ ३ ॥ " तथा "श्रुत्योरङ्गुष्ठको मध्याङ्गुल्यो नासापुटद्वये । सृक्वणोः प्रान्त्यकोपान्त्याङ्गुली शेषे दृगन्तयोः ॥१॥ न्यस्यान्तस्तु पृथिव्यादितत्त्वज्ञानं भवेत् क्रमात् । पीत १ श्वेता २ऽरुण ३ श्यामै ४ र्बिन्दुर्भिनिरुपाधि खम् ५ ॥ २ ॥ पीतः कार्यस्य संसिद्धिं बिन्दुः श्वेतः सुखं पुनः । भयं सन्ध्यारुणो ब्रूते हानिं भृङ्गसमद्युतिः ॥ ३ ॥ जीवितव्ये जये लामे सस्योत्पत्तौ च कर्षणे । पुत्रार्थे युद्धप्रश्ने च गमनागमने तथा ॥ ४ ॥ पृथ्व्यप्तत्त्वे शुभे स्यातां वह्निवातौ चनो शुभौ । अर्थसिद्धिः स्थिरोर्व्या तु शीघ्रमम्भसि निर्दिशेत् ॥ ५ ॥ अपि चषोडशाङ्गुलिका पृथ्वी १ जलं तु द्वादशाङ्गुलम् २ | तेजश्वाष्टाङ्गुलं ३ वायुश्चतुरङ्गुलको मतः ४ ॥ १ ॥ नैकमप्यङ्गुलं व्योम ५ वहतीति विनिर्णयः ।" अत्र षोडशाङ्गुलिकेति यंदा वायुर्वहन् षोडशाङ्गुलमाकाशं व्याप्नोति तदा पृथ्वीतत्त्वमित्यादि ज्ञेयम् । यद्वा वाक्यमिदमन्यथा व्याख्यायते, तथाहि - दोषमुक्ते लग्ने भूमिजलतत्वगताविति संबन्धनीयम् । भावश्चायम्-शुद्धलग्नेऽपि यदा भूजलतत्त्वे स्यातां तदा शुभं कार्यं कार्यं, न त्वग्निवायुव्योमतत्त्वेषु । यदुक्तम् — “पृथ्वी राज्यं १ जलं वित्तं २ वह्निर्द्वानिं ३ समीरणः । उद्वेगं ४ गगनं दत्ते पञ्चतां ५ सर्वलग्नतः ॥ १ ॥” तदुत्पादप्रकार श्चायम् — “त्रिंशांशं पञ्चधा हन्याद्दशा १० ष्ट ८ षड् ६ युगा ४ श्वि २ भिः । भू १ जला २ म्य ३ऽनिल ४व्योम्नां ५ समर्क्षे जायते मितिः ॥ १ ॥ द्व्य २ ब्ध्य ४ ङ्ग ६ वसु ८ दशभि १० स्तद्वत्रिंशांश'काहतिः । खा १ निला २ मि ३ जले ४ लाना ५ मोजराशौ मितिः स्मृता ॥ २ ॥” अनयोरर्थः - लग्नानां पलरूपाणां त्रिंशांशं त्रिंशो भागः । यथा मेषलग्नस्य पञ्चविंशत्यधिकद्विशती २२५ पलमानस्य त्रिंशांशः पलसप्तकत्रिंशदक्षररूपः ७-३० । इमं पञ्चवारावयस्य विषमराशौ द्व्यब्ध्यादिभिर्गुणयेत् क्रमाद्वधोमादितत्त्वानां मानमेति । समराशौ तु दशाष्टादिभिर्गुणयेत् क्रमात् पृथ्व्यादितत्त्वानां मानं स्यात् । यद्वा यस्य लग्नस्य यत्पलमानं तस्य पञ्चदशभिर्भागे यल्लभ्यते तत्क्रमादेकद्वित्रिचतुष्पञ्चभिर्गुणितमोजराशौ व्योमादित
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ सकलपन्थार्थसमर्थनम् । १३५
त्त्वानां मानं स्यात् । समराशौ तु पञ्चचतुस्त्रियेवगुणितक्रमात् पृथ्व्यादितत्त्वानां मानं स्यात् । एवं च यजायते तस्य स्थापनाव्यक्तिरेवम्१ मेषमान पल २२५ २ वृषमान पल २५६ ३ मिथुन मान पल ३०५ त्रिंशोऽशः पल ७ अक्षर ३० त्रिंशोऽशः पल ८ अक्षर ३२ त्रिंशोऽशः प.१० अक्षर१० व्योमतत्त्वं पल १५ पृथ्वीतत्त्वंघटी१पल२५१२० व्योम प. २० अ. २० पवनतत्त्वं पल ३० | अपतत्त्वं घ. १ प. ८ अ. १६/पवन प. ४० अ. ४० तेजतत्त्वं पल ४५ तेजस्तत्त्वं प. ५१ अ. १२ तेज घटी १ प. १ जलतत्त्वं घटी १ वायु प. ३४ अ. ८ अप् घटी १५.२१ अ.२० पृथ्वीतत्त्वं घटी १ पल १५ व्योम प. १७ अ. ४ पृथ्वी घटी १५.४१अ.४० ४ कर्कमान पल ३४१ ५ सिंहमान पल ३४२६ कन्या मान पल ३३१ त्रिंशोऽशः पल ११ अक्षर २२ त्रिंशोऽशः पल ११ अक्षर २४ त्रिंशोऽशः पल ११ अ. १ पृथ्वी घटी १५.५३ अ.४० गगन पल २२ अ. ४८ पृथ्वी घटी १५.५०अ.२० अप घटी १ प.३० अ.५६ पवन पल ४५ अ. ३६ अप् घटी १५. २८ अ.१६ तेज घटी १ प. ८ अ. १२ तेज घटी १ प. ८ . २४ तेज घटी १५.६ अ. १२ पवन पल ४५ अ. २८ अप् घटी १ प. ३१अ. १२ पवन पल ४४ अ. ८ गगन पल २२ अ. ४४ पृथ्वी घटी १ प. ५४ गगन पल २२ अ. ४
७ तुला मान पल ३३१ ८ वृश्चिक मान पल ३४२ ९ धनुमान पल ३४१ त्रिंशोऽशः पल-११अक्षर २ त्रिंशोऽशः पल ११ प. २४ त्रिंशोऽशः पल ११ अ.२१ गगन पल २२ अ. ४ पृथ्वी घटी १ प. ५४ गगन पल २२ अ. ४४ पवन पल ४४ अ.८ अप घटी १ प. ३१ अ. १२/ पवन पल ४५ अ. २८ तेज घटी १ प. ६ अ. १२ तेज घटी १ प. ८ अ. २४ तेज घटी १५.८ अ. १३ अप् घटी १५. २८ अ. १६ पवन पल ४५ अ. ३६ अप् घटी ११.३० अ.५६ पृथ्वी घटी १५.५० अ. २० | गगन पल २२ अ. ४८ पृथ्वी घटी १ प.५३८.४१ १० मकर मानं पल ३०५ ११ कुंभ मान पल २५६ १२ मीन मान पल २२५ त्रिंशोऽशः पल १० अक्षर१० त्रिंशोऽशः पल ८ अ. ३२ त्रिंशोऽशः पल ७ अ. ३१ पृथ्वी घटी १५.४१ अ. ४० गगन पल १७ अ.४ पृथ्वी घटी १ प. १५ अप घटी १ प. २१ अ. २० पवन पल ३४ अ.८ अप् घटी १ तेज घटी १ प. १ तेज पल ५१ अ. १२ तेज पल ४५ पवन पल ४० अ. ४० अप घटी १ प. ८ अ. १६ पवन पल ३० गगन पल २० अ. २० पृथ्वी घटी १५.२५ अ.२० गगन पल १५
एवं लग्ने लमे पश्च तत्त्वानि क्रमोत्क्रमेण स्युः । विशेषस्तु भूजलतत्त्वाशितान्यपि पलानि यदि षड्वर्गशुद्धानि पञ्चवर्गशुद्धानि वा स्युस्तदाऽत्यन्तं शुभानि । तानि चेत्थम्,
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१३६ जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे उदयप्रभदेवीयायामारम्भसिद्धौ सकलग्रन्थार्थसमर्थनम् ।
यथा-मेषलग्ने सप्तमस्य तुलांशस्यायेष्वष्टादश १८ पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा मेषलग्ने नवमे धनुरंशेऽन्त्येष्वष्टादश १८ पलेषु पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च १ वृषलग्ने तृतीये मीनाशे आयेषु सप्त ७ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा वृषलग्ने पञ्चमस्य वृषांशस्यायेषु चतुर्दश १४ पलेषु षड्वर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च २। मिथुनलग्ने षष्ठस्य मीनांशस्यायेष्वष्ट ८ पलेषु षड्वर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च । पञ्चवर्गशुद्धिस्तु संपूर्णेऽपि नवांशेऽस्ति द्वादशांशाशुद्धः ३। कर्कलग्ने आये कर्काशे आयेष्वष्टाविं. शति २८ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा कर्कलग्ने तृतीये कन्यांशे संपूर्ण षड्वगेशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ४। सिंहलग्ने षष्ठे कन्यांशे दशपलेभ्योऽन्वष्टाविंशति २० प्रलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च ५। कन्यालग्ने तृतीये मीनांशे नवपलेभ्योऽनु सप्तविंशति २७ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ६। तुलालग्नेऽष्टमे वृषांशे आयेष्वष्टा. दश १८ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा तुलालग्ने नवमे मिथुनांशेऽन्त्येषु सप्तविंशति २७ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ७ । वृश्चिकलने तुर्ये तुलांशे आयेष्वटाविंशति २८ पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च ८ । धनुर्लग्ने षष्ठे कन्यांशे संपूर्णेऽपि पञ्चवर्गशुद्धिर्देष्काणाशुद्धर्जलतत्त्वं च । तथा धनुर्लग्ने सप्तमे तुलांशेऽन्त्येषु नव १ पलेषु द्वादशांशाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा धनुर्लग्ने नवमे धनुरेशे आयेषु नव ९ पलेषु द्वादशांशाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ९ । मकरलग्ने पञ्चमे वृषांशे आयेषु षोडश १६ पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च १० । कुंभलने षष्ठस्य वृषांशस्यान्त्येषु विंशति २० पलेषु लमाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च । तथा कुंभलग्नेऽष्टमस्य वृषांशस्यान्यानि चतुर्दश १४ पलानि नवमस्य च मिथुनांशस्यायानि सप्ते ७ येकविंशति २१ पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च १२ । मीनलग्ने आये काशे आयेष्वष्टादश १८ पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा मीनलग्ने तृतीये कन्यांशे संपूर्ण पञ्चविंशति २५ पलरूपे षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं चेति १२ । कृतानीति । अत्र वृद्धाः प्राहुः-दीक्षा-प्रतिष्ठा-तीर्थयात्रा-पदारोपादिकार्येषु यत्र कार्ये यन्नक्षत्रं यो वारो या तिथिश्वाधिकृतानि तानि शुद्धानि सम्यग्विलोक्य रवियोगसिद्धियोगादियुता पूर्व दिनशुद्धिस्ततो लग्नशुद्धिर्नवांशशुद्धिश्च विलोक्ये । सर्वथापि शुद्धलग्नालामे कार्यस्यावश्यकर्तव्यत्वे च शुभदिनशुद्धौ छायालग्ने ध्रुवलग्ने विजयमुहूर्ते शुभचतुर्घटिके वा कार्य कार्यमिति सकलप्रन्थरहस्यम् । प्रथयन्तीति एवं कृतानि कार्याणि सर्वाङ्गीणमभ्युदयं प्रथयन्ति ।
इति श्रीज्योतिर्वित्प्रभुश्रीहेमहंसगणिकृत-सुधीङ्गारवार्तिकाद्युद्धृतटिप्पनिकायंत्रादियुतारम्भसिद्धिः समाप्ता. उद्धृतेयं न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरिविष्य-चारित्रनिधिश्रीमच्चारित्रविजयशिष्य-शासनप्रभावकश्रीमदमीविजयचरणोपजीविना, कर्मसिद्धान्तनिष्णातश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराज्ञावर्तिनोपाध्यायक्षमाविजयेन ।
आश्विनशुक्ल प्रतिपदा वीरसंवत् २४६३.
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विश्वहितबोधिदायक श्री अमीविजयगुरुभ्यो नमः ज्योतिर्विद्भूषणश्रीनरचन्द्राचार्यविरचितः श्रीनारचन्द्रः ।
श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीअर्हन्तं जिनं नत्वा नरचन्द्रेण धीमता । सारमुद्रियते किंचित् ज्योतिषः क्षीरनीरधेः ॥ १ ॥ तिथिवारधिष्ण्ययोगा राशिः शशितारकाबलं भद्रा । कुलिकोपकुलिक कण्टकार्ध प्रहराः कालवेला च ॥ २॥ स्थविरशुभाशुभरव्युपकु- ३ मारराजादियोगगण्डान्ताः । पञ्चकचन्द्रावस्थास्त्रिपुष्करं यमलकरणानि ॥ ३ ॥ इति सामान्यदिनशुद्धिः ॥ प्रस्थानक्रमदिग्धिष्ण्यशूल की लाश्च योगिनी राहुः । हंसर विपाशकालावत्सशुक्रगतिरिति गमने ॥४॥ स्नानाभिधान विद्याक्षौरां बरपात्र नष्टरुग्विगमाः । ६ पैतृकगेहारम्भप्रकीर्णकान्यत्र वक्ष्यन्ते ॥ ५ ॥ इति द्वाराणि ॥ नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च नामतः क्रमशः । तिथयः प्रतिपत्षष्ठ्येकादश्याद्याः स्वनामफलाः ॥ ६ ॥ अमावास्याष्टमी षष्ठी द्वादशी शुभकर्मसु । त्र्यहस्पृगवमे रिक्ता दग्धाः क्रूराश्च वर्ज - ९ येत् ॥ ७ ॥ वारत्रयं स्पृशन्ती तु त्रिदिनस्पृक् तिथिर्भवेत् । वारे तिथित्रयस्पर्शिन्यवमं मध्यमा तिथिः ॥ ८ ॥ चापझषे २ वृषकुम्भे ४ कक्कजे ६ मृगतुले १२ मिथुनकन्ये । ८ हरिवृश्चिके १० ऽर्कदग्धा द्विचतुःषदद्वादशाष्टदशमदिनाः ॥ ९ ॥ १२ मेषादिकानां क्रमशश्चतस्रः पूर्णाश्चतुर्णामपि पञ्चमी स्यात् । परा परेषां परतस्तथैव सक्रूरराशेरशुभा तिथिः स्यात् ॥ १० ॥ तिथिः ॥ आदित्य सोममङ्गलबुधगुरुशुकाः शनिश्चर इति । वाराः सौम्याः शशिबुधगुरवः शुक्रश्च तथा परे क्रूराः ॥ ११ ॥ १५ सार्द्धघटी द्वयमाद्या दिनवारस्याथ षष्ठषष्ठस्य । होराः स्युः पूर्णफलाः पादोन फलस्तु दिनवारः ॥ १२ ॥ वारः ॥ अश्विनी १ भरणी २ कृत्तिका ३ रोहिणी ४ मृगशिर ५ आर्द्रा ६ पुनर्वसु ७ पुष्य ८ अश्लेषा ९ मा १० पूर्वाफाल्गुनि ११ उत्तराफाल्गुनि १२ १८ हस्त १३ चित्रा १४ स्वाति १५ विशाखा १६ अनुराधा १७ ज्येष्ठा १८ मूल १९ पूर्वाषाढा २० उत्तराषाढा २१ अभिजित् २२ श्रवण २३ धनिष्ठा २४ शतभिषक् २५ पूर्व भद्रपद २६ उत्तरभद्रपद २७ रेवति २८ इति नक्षत्रनामानि ॥ त्रि ३ त्रि ३२१ षट् ६ पञ्चक ५ त्र्ये ३ क १ चतु ४ खि ३ रस ६ पञ्चकाः ५ । द्वि २ द्विः २ पञ्च ५ तथैकै १ क १ चतुरं ४ बुधय ४ स्त्रयः ३ ॥ १३ ॥ एकादश ११ चतुर्वेद ४ त्रि ३ त्रि ३ वेदाः ४ शतं १०० द्विकम् २ | द्वि २ द्वत्रिंश ३२ दिमास्तारास्तरसङ्ख्यां २४ वर्जयेत्तिथिम् ॥ १४ ॥ अश्व १ यम २ दहन ३ कमलज ४ शशि ५ शूलभृद ६ ऽदिति ७ जीव ८ फणि ९ पितरः १० | योन्य ११ र्यमा १२ दिनकू १३ ध्वाष्टु १४२६ ने०
० १८
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जेनज्योतिर्ब्रन्थसंग्रहे श्रीनर चन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः
I
पवन १५ शक्राग्नि १६ मिश्राश्च १७ ॥ १५ ॥ शक्रो १८ निर्ऋति १९ स्तोयं २० विश्वो २१ ब्रह्मा २२ हरि २३ र्वसुः । २४ वरुणः २५ । अजपादो २६ हिर्बुनः २७ ३ पूषा २८ चेतीश्वरा भानाम् ॥ १६ ॥ श्रवणघटिका चतुष्टयमाद्यं चरमोंहिरौत्तराषाढा अभिजिोगो वेधैकार्गललत्तोपयोगादौ ॥ १७ ॥ चरं चलं स्मृतं स्वातिः पुनर्वसुः श्रुतित्रयम् । क्रूरमुग्रं मघा पूर्वात्रितयं भरणी तथा ॥ १८ ॥ ध्रुवं स्थिरं विनिर्दिष्टं ६ रोहिणी चोत्तरात्रयम् । तीक्ष्णं दारुणमश्लेषा ज्येष्ठार्द्रामूलसंज्ञकम् ॥ १९ ॥ लघु क्षिप्रं स्मृतं पुष्यो हस्तोऽश्विन्यभिजित्तथा । मृदु मैत्रं स्मृतं चित्राऽनुराधा रेवती मृगः ॥ २० ॥ मिश्रं साधारणं प्रोक्तं विशाखा कृत्तिका तथा । नक्षत्रेष्वेषु कर्माणि ९ नामतुल्यानि कारयेत् ॥ २१ ॥ प्रस्थानं चरलघुभिः शान्तिर्घुत्र मृदुभिरुप्रभैर्युद्धम् । तीक्ष्णैर्व्याधिविच्छेदो मिश्रर्मिंश्रक्रिया कार्या ॥ २२ ॥ इति धिष्ण्यम् ॥ विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनस्तथा । अतिगण्ड: सुकर्मा च धृतिः शूलं तथैव १२ च ॥२३॥ गण्डो वृद्धिर्ध्रुवश्चैव व्याघातो हर्षणस्तथा । वज्रं सिद्धिर्व्यतीपातो वरीयान् परिघः शिवः ॥ २४ ॥ सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मा चैन्द्रोऽथ वैधृतिः । परिघार्द्ध व्यतीपातवैधृती सकलौ त्यजेत् ॥ २५ ॥ विष्कम्भे घटिकाः पञ्च शूले १५ सप्त प्रकीर्तिताः । षट् गण्डे चातिगण्डे च नव व्याघातवज्रयोः ॥ २६ ॥ इति योगाः ॥ मेषवृष मिथुन कर्कसिंह कन्या तुलवृश्चिकधनुः मकरकुम्भमीन ॥ अश्विनीभरणी कृत्तिकापादे मेषः । कृत्तिकाणां त्रयः पादा रोहिणीमृगशिरोद्धुं वृषः ॥ १८ मृगशिरोद्धुं आर्द्रापुनर्वसुपादत्रयं मिथुनः ॥ पुनर्वसुपादमेकं पुष्य अश्लेषान्तं 'कर्कः ॥ मघापूर्वाफाल्गुनी उत्तरापादे सिंहः ॥ उत्तराफाल्गुनी पादत्रयं हस्तचित्राद्धं कन्या ॥ चित्रार्द्धं स्वाति विशाखा पादत्रयं तुला || विशाखापादमेकं अनुराधाज्ये ष्टान्तं २१ वृश्चिकः ॥ मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा पादे धनुः ॥ उत्तराणां त्रयः पादाः श्रवणधनिष्ठां मकरः ॥ धनिष्ठार्द्ध शतभिषक् पूर्व भद्रपदपादत्रयं कुम्भः ॥ पूर्वभद्रपदपादमेकं उत्तरारेवत्यन्तं मीनः ॥ चूचेचोलाऽश्विती, लिलुलेको भरणी, अईऊ ए २४ कृत्तिका, उवविवु रोहिणी, वेवोका कि मृगशिरः, कुवङछ आर्द्रा, केको हहि पुनर्वसुः, हुहोडा पुण्यः, डिदुडेडो अश्लेषा, ममिमुमे मघा, मोटटिटु पूर्वाफाल्गुनी, टेटोपपि उत्तराफाल्गुनी, पुषणठ हस्तः, पेपोररि चित्रा, रुरेरोता स्वातिः, तितुतेतो विशाखा, २७ ननिनुनेऽनुराधा, नोययियु ज्येष्ठा, येयोभभि मूलम्, भुधकढ पूर्वाषाढा, भेभोजजि उत्तराषाढा, जुजेजोखाऽभिजित् खिखुखेखो श्रवणः, गगिगुगे धनिष्ठा, गोससिसु शतभिषक्, सेसोददि पूर्व भद्रपद, दुशझथ उत्तराभद्रपद, देदोचचि रेवतिः ॥ ३० चुचेचोललिलुलेलोभ मेषः, इउएभवविवुवेवो वृषः, ककि कुधड छकेकोह मिथुनः, हि हो डडडडेडो कर्कः, ममिमुमेमोटटिटुटे सिंहः, टोपपिपुषणठपेपो कन्या, ररिरुरेततितुते तुला, तोननिनुनेनोययियु वृश्चिकः, येयोभाभिभुधफढभे धनुः, ३१ भोजजिज्जुजेजो खखिखु खेखोगगि मकरः, गुगेगोस सिसुसेसोद कुंभः, दिदुशझथदेदो
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जैनज्योतिम्रन्थसंप्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः १३९ चचि मीनः । इति राशिः ॥ जन्मत्रिषष्ठसप्तमदशमैकादशगतः सदा शुभदः । शुक्ले द्विपञ्चनवमस्थितोपि निजराशितश्चन्द्रः ॥ चन्द्रः ॥ यत्र चन्द्रयुते जन्म यस्य तत्तस्य जन्मभम् । ततश्च दशमं कर्म स्यादाधानं ततोऽपि यत् ॥ २८ ॥ त्रिरेभ्यो नव ३ ताराः स्युस्त्यजेत्पञ्चत्रिसप्तमीः । शुभाः शेषाः कृशे चन्द्रे ग्राह्यमासां बलं बुधैः ॥ २९ ॥ जन्मक्षं गणयेदादौ चन्द्रक्षं तु यावतः । नवभिस्तु हरेदागं शेषास्तारा विनिर्दिशेत् ॥ ३० ॥ आधानजन्मसप्तत्रिपञ्चम्यो न गमे शुभाः । एतासु ६ वदिते रोगे चिरक्लेशोऽथवा मृतिः ॥ ३१ ॥ इति ताराबलम् ॥ कृष्णे च त्रिदशा रात्री दिवा सप्तचतुर्दशी । एकैकतिथिवृद्या तु शुक्ले विष्टिः प्रकीर्तिता ॥ ३२ ॥ मनु १४ वसु ८ मुनि ७ तिथि १५ युग ४ दश १० शिव ११ गुण ३ सङ्ख्यासु ९ तिथिषु पूर्वादौ । तद्वत्प्रहरेश्वष्टसु पृष्ठे शुभदा पुरोऽशुभा विष्टिः ॥ ३३ ॥ विष्टेमुंखे कलाः पञ्च कंठे द्वे हृदये दश । नाभौ पञ्च कटौ पञ्च पुच्छे तिस्रः कलाः स्मृताः॥३४॥ विष्टिरङ्गेषु षट्स्वेषु करोत्येवं मुखादिषु । कार्यहानिं मृति नैस्व्यं बुद्धिहानि कलिं १२ जयम् ॥३५॥ रात्रिभद्रा यदाह्नि स्यादहर्भद्रा यदा निशि । न तत्र भद्रादोषः स्यात्सकार्याणि साधयेत् ॥ ३६ ॥ भद्रा ॥ मन्व १४ के १२ दिग् १० वसु ८ ऋतु ६ वेद ४ पक्ष २ रकान्मुहूतैः कुलिका भवन्ति । दिवा निरेकैरथ यामिनीषु ते गर्हिताः १५ कर्मसु शोभनेषु ॥ ३७ ॥ कुलिकोपकुलिककण्टकनामानः शौरिजीवभौमान्ताः । दोषाः स्युः प्रतिवारं वाः प्रहराई मिह विबुधैः ॥ ३८ ॥ कुलिकोपकुलिककण्टकाः ॥ सदाचप्रहरास्त्याज्या वारेश्वर्कादिषु क्रमात् । चतुःसप्तद्विपञ्चाष्टत्रिषष्ठाः शुभ-१८ कर्मसु ॥३९॥ अर्द्धप्रहराः॥ आद्या बुधे सूर्यसुते द्वितीया सोमे तृतीया च गुरौ चतुर्थी। षष्ठी कुजे सप्तमिका च शुक्र सूर्येऽष्टमी कालकला विवा ॥४०॥ कालवेला ॥ त्रयोदश्यष्टमी रिक्ता स्थविरे स्याद्गुरु शनिः । कृत्तिकादिद्यन्तराणि रोगोच्छेदादिकं २१ शुभम् ॥ ४१ ॥ स्थविरयोगः ॥ हस्खोत्तरात्रयं मूलधनिष्ठे रेवतीद्वयम् । पुष्यः प्रतिपदष्टम्यौ नवमी च शुभा रवौ ॥ ४२ ॥ द्वितीया नवमी पुष्यः श्रवणं रोहिणी मृगः । अनुराधा शुभाय स्याद्दिने कुमुदिनीपतेः ॥ ४३ ॥ रेवती मूलमश्लेषा उत्तर-२४ भद्राऽश्विनी मृगः । त्रयोदश्यष्टमी षष्ठी तृतीयाऽभिमता कुजे ॥ ४४ ॥ श्रवणं रोहिणी पुष्योऽनुराधा मृगकृत्तिके । द्वितीया द्वादशी सप्तम्यपि सिद्धिप्रदा बुधे ॥ ४५ ॥ पुनर्वसुविशाखाया रेवत्या द्वितयं करः । पूर्वफाल्गुनिका पूर्णैकादशी २७ च गुरौ शुभा ॥ ४६ ॥ पुनर्वसुः करश्चोत्तराषाढा रेवतीद्वयम् । शुभा त्रयोदशी नन्दानुराधा पूर्वमा भृगौ ॥४७॥ पूर्वाफाल्गुनीरोहिण्यौ स्वातिः शतभिषक् मघा । श्रवणं चाष्टमी रिक्ता तिथि: स्यात्सिद्धये शनौ ॥ ४० ॥ शुभयोगाः ॥ आदित्यहस्ते गुरुपुष्ययोगे बुधानुराधा शनिरोहिणी च । सोमेन सौम्यं भृगुरेवती च भौमाश्विनी ३१
१ भारम्भसिद्धौ तु नाभौ ४ कट्यां ६ षटिकाः प्रोक्ताः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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१४० जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः चाऽमृतसिद्धियोगः ॥४९॥ भरणी भास्करे हेया विशाखात्रितयं मघा । षष्ठयेकादशी सप्तमी द्वादशी च चतुर्दशी ॥ ५० ॥ आषाढाद्वितयं चित्रा विशाखा न शुभा ३ भवेत् । सप्तम्येकादशी सोमे द्वादशी च त्रयोदशी ॥ ५१ ॥ वर्जयेदुत्तराषाढां धनिष्ठात्रितयं कुजे । आद्रा प्रतिपदं किञ्चैकादशी दशमी तथा ॥ ५२ ॥ न शुभाय बुधे मूलधनिष्ठे रेवतीत्रयम् । तिथयः सचतुर्दश्यः प्रतिपन्नवमी जया ॥ ५३ ॥ ६ कृत्तिकोत्तरफाल्गुन्यौ रोहिणीत्रयमष्टमी । षष्ठी शतभिषग्भद्रा चतुर्थी चाशुभा गुरौ ॥ ५४ ॥ पुष्यादित्रितयं ज्येष्ठारोहिणी शुक्रवासरे । द्वितीया सप्तमी रिक्ता तृतीया नेष्यते बुधैः ॥ ५५ ॥ रेवतीमुत्तराषाढामुत्तराफाल्गुनीत्रयम् । सप्तमी ९षष्ठिका पूर्णा शनिवारे विवर्जयेत् ॥ ५६ ॥ हस्तमूले-मघारोहिण्यनुराधोत्तरात्रयम् ।
वज्रपातः क्रमात्सप्त-पञ्चर्तुद्वित्रिके तिथौ ॥ ५७ ॥ चतुर्थषष्ठनवमे दशमे च त्रयोदशे। विंशे दिनेशभाद्धिष्ण्ये रवियोगाः शुभा मताः ॥ ५८ ॥ अश्विनी मृगशीर्ष च आश्लेषा १२ हस्त एव च । अनुराधोत्तराषाढा शतभिषक् च रवेः क्रमात् ॥ ५९ ॥ एतनक्षत्रतो वर्तमानवारःसङ्ख्यया । आनन्दाद्युपयोगाः स्युः स्वस्वनामसहक्फलाः ॥ ६ ॥
आनन्दः कालदण्डश्च प्राजापत्यः शुभस्तथा । सौम्यो ध्वाजो ध्वजश्चैव श्रीवस्सो १५ वज्रमुद्रौ ॥६१ ॥ छत्रं मैत्रो मनोज्ञश्च कम्पो लुम्पक एव च । प्रवासो मरणं व्याधिः सिद्धिः शूलामृतौ तथा॥६२॥ मुशलो गजमातङ्गौ क्षयः क्षिप्रा स्थिरस्तथा । वर्द्धमान
श्चेति नाम्ना स्युरष्टाविंशतिः क्रमात् ॥ ६३ ॥ उपयोगाः ॥ नन्दायां पञ्चम्यां शुभो १८ दशम्यां कुजज्ञशशिभृगुभिः । ब्यन्तरिताश्विन्यादिभिरुडुभिर्योगः कुमाराख्यः॥ ६४ ॥
कुमारयोगः ॥ पूर्णिमा तृतीया भद्रा भृगुभौमार्कसोमजाः । राजयोगः शुभाय
स्यात् भरण्यायैर्द्विकान्तरैः ॥ ६५ ॥ राजयोगः ॥ गण्डान्तस्त्रिविधस्त्याज्यो नक्षत्र. २१ तिथिलग्नगः । नवपञ्चचतुर्थान्ते येकार्द्धघटिकामितः ॥ ६६ ॥ धनिष्ठापञ्चके वाः
तृणकाष्ठादिसङ्ग्रहाः । शय्या दक्षिणदिग्यात्रा मृतकार्यगृहोद्यमाः ॥ ६७॥पञ्चकम् ॥
प्रवासो नष्टमरणे जयो हास्यं रतिस्तथा । क्रीडा निद्राथ भुक्तिश्च जरा कम्पोऽथ २४ सुस्थिता ॥ ६८ ॥ राशिभोगद्वादशांशविभागा द्वादशाप्यमूः । भुङ्क्तेऽवस्थाः शशी
तासां स्वनामसदृशं फलम् ॥ ६९ ॥ चन्द्रावस्थाः ॥ रैविभौममन्दवारे भद्रातिथिषु
त्रिपादके धिष्ण्ये । योगस्त्रिपुष्कराख्यो द्विपादके यमलनामा स्यात् ॥ ७० ॥ पञ्चके २७ पञ्चगुणितं त्रिगुणं च त्रिपुष्करे । यमले द्विगुणं सर्व हानिवृयादिकं मतम् ॥ ७ ॥ त्रिपुष्करयमलौ ॥ कृष्णचतुर्दश्यर्द्धात् ध्रुवाणि शकुनिः चतुष्पदं नागम् । किंस्तुन्नमपि प्रतिपत् तिथ्य दथ बवादीनि ॥ ७२ ॥ बवबालवकौलवतैतिलाख्य३. गरवणिजविष्टिसंज्ञानि । सप्त चराणि पुनःपुनरिह तिथ्यर्द्धप्रमाणानि ॥ ७३ ॥ शकुनि.
प्रमुखचतुर्णामीशाः कलिवृषभसर्पपवनाख्याः। सप्तानां स्विन्द्राब्जे मित्रार्यमभूश्रियः
सयमाः ॥ ४ ॥ विष्टिं विना बवाग्रेषु करणेषु दशस्वपि । चतुर्वर्णाश्रिताः सर्वाः कर. ३३ णीयाः शुभाः क्रियाः ॥७५॥ करणानि ॥ * इति सामान्यदिन शुद्धिः ॥
१ आरम्भसिद्धौ तु जीवारशनिवारेण्वित्युक्तम् ।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्दः १४१ प्रस्थानमूर्द्धमुदितं दशकाद्धनुषामधिनुः शतकपञ्चकतः शुभाय । तत्रैव मण्डलिकभूपतिशेषलोकैः स्थेयं च सप्तदशपञ्चदिनाः क्रमेण ॥ ७६ ॥ बुधेन्दुशुक्रजीवानां दिने प्रस्थानमुत्तमम् । पूर्णिमायाममावास्यां चतुर्दश्यां च नेष्यते ॥ ७७ ॥ अश्विनी ३ पुष्यरेवत्योमृगे मूलं पुनर्वसुः। हस्त ज्येष्ठानुराधाः स्युर्यात्रायै तारकाबले ॥७८॥ रोहिणी त्रीणि पूर्वाणि स्वातिश्चित्रा च वारुणी । श्रवणस्तथा धनिष्ठा च प्रस्थाने मध्यमाः स्मृताः ॥ ७९ ॥ विशाखा चोत्तरास्तिस्त्रस्तथा भरणी मघा । अश्लेषा कृत्तिकाश्चैव ६ मृत्य वेऽन्ये तु मध्यमाः॥८॥ध्रुवैर्मित्रैर्न पूर्वाह्ने रैर्मध्यंदिने न भैः। अपराहे न च क्षिप्रैः प्रदोषे मृदुभिर्न च ॥८१॥ निशीथकाले नो तीक्ष्णैर्निशान्ते च चरैर्न हि । दिने शुभे दिवा यात्रा यात्रा निशि तु भे शुभे ॥ ८२ ॥ प्राच्यादिदिक्चतुष्केषु क्रमाच्छु-९ भोऽम्यादिसप्तकचतुष्कः । प्रागुत्तरयोःप्रत्यग्याम्योर्मध्ये मिथोऽन्यथा परिधः ॥ ८३ ॥ सर्वदिग्गमने हस्तः श्रवणं रेवतीद्वयम् । मृगः पुष्यश्च सिधै स्युः कालेषु निखिलेस्वपि ॥ ८३ ॥ न गुरौ दक्षिणां गच्छेन्न पूर्वा शनिसोमयोः । शुक्रायोः प्रतीची ११ न चोत्तरां बुधभौमयोः । मङ्गले मारुते शूलमीशाने बुधमन्दयोः । नैऋते शुक्र. सूर्याभ्यामाग्नेये गुरुसोमयोः ॥ ८५ ॥ श्रीखण्डं दधि मृत्सर्पिः पिष्टतैलखलाः क्रमात् । वारेऽर्कादौ सदा विन्द्या दिक्शूलाऽशुभभे दिने ॥ ८७ ॥ दिकशूलम् ॥१५ पूर्वस्यामाषाढा, श्रवणधनिष्ठाविशाखिका याम्याम् । पुष्यो मूलमपच्यां हस्त उदीच्या च धिष्ण्यशूलानि ॥ ८८ ॥ इति नक्षत्रशूलानि ॥ ज्येष्ठा भद्रपदा पूर्वा रोहिण्युत्तरफाल्गुनी । पूर्वादिषु क्रमाकीला गतस्यैतेषु नागतिः ॥ ८९ ॥ कीला ॥ पूर्वोत्तरा-१८ ग्निनैतयमवरुणसमीरशङ्करककुप्सु । प्रतिपदमादौ कृत्वा नवमीं च भवन्ति योगिन्यः ॥९०॥ योगिनीचक्रम् । राहुः प्राच्यां ततो वायौ दक्षिणेशानपश्चिमे । आग्नेयोत्तरनैर्ऋत्यां प्रहराद्धं च तिष्ठति ॥९१॥ राहुः ॥ जयाय दक्षिणो राहुयोगिनी २१ वामतस्तथा । पृष्ठतो द्वयमप्येतञ्चन्द्रमाः सन्मुखः पुनः॥९२॥ प्राणप्रवेशे वहनाडिपादं कृत्वा पुरो दक्षिणमर्कबिम्बम् । गच्छेच्छुभायाऽरिवधे तु सूर्य पृष्ठे रिपुं शून्यगतं च कुर्यात् ॥ १३ ॥ शशिप्रवाहे गमनादि शस्तं सूर्यप्रवाहे नहि किञ्चनापि । प्रष्टुर्जयः २१ स्याद्वहमानभागे रिक्ते च भागे विफलं समस्तम् ॥ ९४ ॥ हंसः॥ यामयुग्मेषु राश्यन्तयामात्पूर्वादिगो रविः । यात्रास्मिन् दक्षिणे वामे प्रवेशः पृष्ठगे द्वयम् ॥१५॥ रविचारः॥प्रतिदिनमेकैकस्यां दिशि पाशः संमुखोऽस्य कालः स्यात् । प्राच्यां शुक्ल-२७ प्रतिपदमारभ्य ततः क्रमान्मासम् ॥९६॥ पाशकालौ॥ कन्यात्रये स्थितेऽके प्राच्या धनुषत्रये तु याम्याम् । मीनत्रये परस्यां मिथुनत्रये च कौबेर्याम् ॥ ९७ ॥ वरसोभ्यु. देति यस्मिन्न सन्मुखे शस्यते प्रवासविधिः । चैत्यादीनां द्वारं नार्चादीनां प्रवेशश्च ॥९८॥३० भग्रतो हरते आयुः पृष्ठतो हरते धनम् । वामदक्षिणतो वत्सः सदा सर्वसुखप्रदः ॥९९॥ वत्सः॥ उदयति दिशि यस्यां याति यत्र भ्रमाद्वा विचरति च भचके येषु दिग्द्वारभेषु । त्रिविधमिह सितस्य प्रोच्यते सन्मुखत्वं मुनिभिरुदय एव त्यज्यते वत्र यवान् ॥ १०॥ शुक्रगतिः । न वानं रोगमुक्त्यर्थ कार्य शुक्रन्दुवासरे ।
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१४२ जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः मघाश्लेषाध्रुवस्वातिपुनर्वसुषु पौष्णभे ॥ १०१॥ अश्वेभाजफणिद्वयंश्ववृषभुक् मेषौतु कामूषकश्चाखुर्गौः क्रमशस्ततोऽपि महिषी व्याघ्रः पुनः सैरिभी । व्याघेणैर्मुगमण्डले ३ कपिरथो बभ्रुद्वयं वानरः सिंहोऽश्वो मृगराद पशुश्च करटी योनिस्तु भानामियम् ॥१०२॥ गोव्याघ्रं गजसिंहमश्वमहिषं श्वैणं च बभ्रूरगं वैरं वानरमेषकं च सुमहत्तद्वविडालोन्दु. रम् । लोकानां व्यवहारतोऽन्यदपि च ज्ञात्वा प्रयत्नादिदं दम्पत्योर्नृपभृत्ययोरपि सदा ६ वज्यं गुरुक्षुलयोः ॥१०३॥ अकचटतपयशवर्गेष्वष्टसु गरुडो बिडालसिंहाख्यौ। कुक्कर. सपने मूषकहिरणो मेषोऽधिपाः क्रमशः ॥ १०४ ॥ पूर्ववद्वैरं चिन्त्यं नृपभृत्याबाचाक्षरवर्गाकस्य । क्रमोत्क्रमगतस्य अष्टाभिरपहतस्योद्धरिताकार्द्ध विंशोपकाः ९ स्युः ॥ १०५ ॥ ते चोत्तराङ्कविभुना लभ्याः प्राच्यादथैकवर्गेषु । पूर्वोत्तराक्षराङ्क: स्थाप्यः स्याच्छेष आद्यविधिः ॥८६॥ हस्तस्वात्यनुराधाश्रवणपुनर्वसुमृगाश्विनीपुष्याः।
रेवत्यपि देवगणः पूर्वोत्तरयोः त्रये भरण्या ॥१०६॥ रोहिण्यपि मर्त्यगणो ज्येष्ठा१२ मूलं द्वयं धनिष्ठायाः । अश्लेषाकृत्तिकाचित्राविशाखामघा पलादगणः ॥ १०७ ॥
स्वकुले परमा प्रीतिर्मध्यमा देवमानुषी । देवराक्षसयोर्वैरं मरणं मर्त्यरक्षसोः ॥१०॥
मकरवृषमीनकन्यावृश्चिककाष्टमे रिपुत्वं स्यात् । अजमिथुनधन्विहरिघटतुलाष्टमे १५ मित्रतावश्यम् ॥१०९॥ शत्रुषडष्टके मृत्युः कलहो नवपञ्चमे । द्विद्वादशे तु दारिद्रयं
शेषेषु प्रीतिरुत्तमा ॥११०॥ त्रिपञ्चसप्तमी तारा चान्योन्यं गुरुशिष्ययोः । वर्जनीया
शुभाय स्यादेकनाडिगतं शुभम् ॥ १११ ॥ नामकरणम् ॥ विद्यारम्भे गुरुः श्रेष्ठो १८ मध्यमौ भृगुभास्करौ । मरणं मन्दभौमाभ्यां न विद्या बुधसोमयोः ॥ ११२॥ विद्या
रम्भोऽश्विनीमूलपूर्वासु मृगपञ्चके । हस्ते शतभिषक्स्वातिचित्रासु श्रवणद्वये ॥११३॥ विद्यारम्भः ॥ अार्किभौमषदतुर्यनवाष्टान्त्यतिथिद्वये । नेष्टं क्षौरं निशाविद्या२२ यात्रादौ न च पर्वसु । ११४ ॥ हस्तत्रये मृगज्येष्ठे पौष्णादित्यश्रुतिद्वये । क्षुरकर्म
शुभं प्रोक्तं कायौत्सुक्ये तु सर्वदा ॥११५॥ क्षौरम् ॥ हस्तादिपञ्चकध्रुवरेवत्यश्विनी
पुनर्वसुधनिष्ठाः । पुष्यशुक्रगुरुज्ञाः शुभदा वस्त्रस्य परिधाने ॥ ११॥ वस्त्रपरि२४धानम् ॥ मृगः पुष्योऽश्विनीचित्राऽनुराधा रेवती करः । शशी बृहस्पतिः पात्रव्यापारे
शुभदायकाः ॥ ११७ ॥ पात्रभोगः ॥ रोहिण्यादिचतुष्केषु प्रतिभं चाभिधा इमाः।
अन्धरक्केकराख्यं च चिप्पटाख्यं च दिव्यदृक् ॥११८॥ न्यस्तं नष्टं हृतं द्रव्यं दागन्धैर्य२७ बतः परैः । लभ्यते चिप्पटैर्वार्ता दिव्याख्यैः सापि नाप्यते ॥ ११९ ॥ तद्यात्यन्धैर्दिशं पूर्वा केकरैर्दक्षिणां पुनः । पश्चिमां चिप्पटैर्धिष्ण्यैर्दिव्यचक्षुभिरुत्तराम् ॥ १२० ॥ दत्वं
प्रयुक्तं विन्यस्तं निक्षिप्तं नष्टमप्यथ । धनं न लभ्यते कापि मिश्रोग्रध्रुवदारुणैः ॥१२१॥ ३० नष्टम् । न जीवत्यहिना दष्टः सुपर्णेनापि रक्षितः । मघाश्लेषाविशाखा मूलेषु
भरणीद्वये ॥ १२२॥ स्वातिपूर्वात्रयाश्लेषाज्येष्ठा रोगिणो मृतिः । रेवत्यामगुराधायां कष्टात् नीरोगता भवेत् ॥ १.३ ॥ मासात् मृगोत्तराषाढे मघासु दिनविंशतिः ।
विशाखाभरणीहस्तधनिष्ठासु च पक्षतः ॥ १२४ ॥ एकादशाहाचित्रायां श्रुतौ शत. 10 भिषज्यपि । अश्विनी कृत्तिकामूले नैरुज्यं नवनिर्दिनैः ॥ १२५॥ पुज्योत्तराभाद्रपदा
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जैन ज्योतिर्मन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः
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फाल्गुनीरोहिणीषु च । पुनर्वस्वोश्च सप्ताहात्तारा चेदानुकूल्यभाक् ॥ १२६ ॥ चरेषु मृदुषु क्षिप्रवर्गे मूले च भेषजम् । रोगनाशि वयःस्थायि देहबृंहणमिष्यते ॥ १२७ ॥ नीरोगता ॥ प्रेतक्रिया न कर्तव्या यमले च त्रिपुष्करे । आर्द्रामूलानुराधासु मिश्र - ३ क्रूर ध्रुवेषु च ॥ १२८ ॥ पूर्वांश्रयाश्विनीमूलकृत्तिकासु श्रुतिद्वये । हस्तचित्रामघापुष्यानुराधारेवतीमृगे ॥ १२९ ॥ मृते साधौ भवेदेकपुत्रको द्वौ पुनर्भुवे । पुनर्वस्वोर्विशाखायामपि नान्येषु किञ्चन ॥ १३० ॥ प्रेतक्रिया ॥ ध्रुवमृदुपुष्यधनिष्ठा स्वातिकरे ६ वारुणे च सूत्रविधिः । पौष्ण्यब्राह्वययुगश्रुतिपुष्ययुत्तरे शिलान्यासः ॥ १३१ ॥ पुष्ये मृदुधुवर्क्षेषु धनिष्ठाद्वितयानिले । शुक्रे चन्द्रे गुरौ गेहप्रवेशोऽभ्युदिते शुभः ॥ १३२ ॥ गेहारम्भः ॥ मृदुध्रुवचरक्षित्रैवारे भौमशनिं विना । आद्याटनतपोनन्द्यालोचनादिषु ९ भं शुभम् ॥ १३३ ॥ अलिसिंहे धनुर्वक्रः शूलाभः कन्यका तुले । दक्षिणाभ्युन्नतो मीनमेषे कुम्भे वृषे समः ॥ १३४ ॥ मिथुने मकरे चोत्तरोन्नतोऽथ हलोपमः । धनुःकर्के रवौ श्लाघ्यो नवेन्दुरशुभोऽन्यथा ॥ १३५ ॥ विदुरं स्यात्समे चन्द्रे सुभिक्षं १२ चोत्तरोन्नते । अतिराजभयं शूले दुर्भिक्षं दक्षिणोन्नते ॥ १३६ ॥ चन्द्रोदयः ॥ निजराशेर्ग्रहणदिने त्रिषइ दशैकादशः शुभो राहुः । अपरे राहुं प्राहुर्जन्मस्थ विवर्जितं शशिवत् ॥ १३७ ॥ इति ग्रहणराहुफलम् ॥
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राशिप्रभेद १ संज्ञा २ ग्रहभेदा ३ गोचरा ४ ऽष्टवर्गों च ५। संवत्सरः ६ मास ७ दिन ८ शुद्धयः ९ क्रान्तिसाम्यं च १० ॥ १ ॥ बलं ११ मानं च लग्नस्य १२ षड्वर्गो १३ दयशोधनम् १४ । प्रतिष्ठायां १५ व्रते चापि ग्रहाः १६ तद्दोषतद्गुणाः ॥ २ ॥ १८ ध्रुव १७ छायाविलग्ने च १८ द्वाराण्यष्टादश क्रमात् । अथैतानि प्रवक्ष्यन्ते लग्नशुद्धिविधित्सया ॥ ३ ॥ कुम्भः कुम्भशिरास्तुला धृततुलो धन्व्यश्वपश्वार्द्धको बिभ्रच्चापममी नरा नृमिथुनं वीणागदाभृत्करम् । मीनो मीनयुगं विपर्ययमुखं सस्याग्नियुक्कन्यका २१ नौस्थासौ हरिणाननस्तु मकरो नामानुरूगः परे ॥ ४ ॥ पुं १ स्त्री २ क्रूरा १ क्रूरा २ श्वर १ स्थिर २ द्विस्वभावसंज्ञाश्च ३ । अजवृष मिथुनकुलीराः पञ्चमनवमैः सहैन्द्याद्याः ॥ ५ ॥ मेषाद्याश्चत्वारः सधन्विमकराः क्षपाबला ज्ञेयाः । पृष्ठोदया विमिथुनास्त एव मीनो २४ ह्युभयलग्नम् ॥ ६ ॥ अज १ वृष २ मृगा ३ ऽङ्गना ४ कर्क ५ मीन ६ वणिजां ७ शकेष्विनाधुच्चाः । दश १० शिख्य ३ ऽष्टाविंशति २८ तिथ १५ द्विय ५ त्रिवन २७ विंशेषु ॥ २० ॥ ७ ॥ उच्चान्नींचं सप्तममर्कादीनां त्रिकोणसंज्ञानि । सिंह १ वृषा २ ज २७ ३ प्रमदा ४ कार्मुकट ५ त्तोलि ६ कुम्भधराः ॥ ७ ॥ ८ ॥ राशिप्रभेदः ॥ १ ॥ तनु १ धन २ सहज ३ सुहृत् ४ सुत ५ रिपु ६ जाया ७ मृत्यु ८ धर्म ९ कर्मा १० ऽऽयाः ११ । व्यय १२ इति लग्नाद्भावाश्चतुरस्त्रेऽष्टमचतुर्थे च ॥ ९ ॥ पातालहि - ३० बुकसुखवेश्मबन्धुसंज्ञं तथाम्बु च चतुर्थम् । नवपञ्चमं त्रिकोणं नवमर्क्ष त्रित्रिकोणं न्च ॥ १० ॥ सप्तमकं जामित्रं द्यूनं चुनमस्तमष्टमं छिद्रम् । धीः पञ्चमं तृतीयं दुश्चिक्यं विक्रमं चापि ॥ ११ ॥ मध्यं मेषूरणमम्बरं च दशमं तथान्तिमं रिष्पम् । एकादशं तु ३३
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१४४ जैनज्योतिर्मन्यसंग्रहे श्रीमरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रा कथयन्ति सूरयः सर्वतोभद्रम् ॥१२॥ केन्द्रं चतुष्टयं कण्टकं च लग्ना १ स्त ७ दश १० चतुर्थानाम् ४ । संज्ञाः परतः पणफर २१५८११ मापोक्लिम ३।६।९।१२। मस्य ३ यत्परतः ॥ १३ ॥ त्रिषडेकादशदशमान्युपचयभवनाऽन्यतोऽन्यथाऽन्यानि । वर्गोत्तमा नवांशाश्वरादिषु ३ प्रथम १ मध्या ५ त्याः ९॥ १४ ॥ प्राच्यादीशा रवि १ सित २ कुज ३ राहु ४ यमे ५ न्दु ६ सौम्य ७ वाक्पतयः । क्षीणेन्द्वयमाराः पापास्तैः ६ संयुतः सौम्यः ॥ १५ ॥ सप्तमगृहगो ज्ञेयो विधुन्तुदाक्रान्तवेश्मनः केतुः । क्लीबस्त्रीपुरुषाणां बुधशौरी शशिसितौ परे च नराः ॥ १६ ॥ बलवान्मित्रस्वगृहोच्चनवां
शेष्वीक्षितः शुभैश्चापि। चन्द्रसितौ स्त्रीक्षेत्रे पुरुषक्षेत्रोपगाः शेषाः ॥१७॥ संज्ञा॥२॥ ९प्राच्याद्रौ जीवबुधौ १ सूर्यारौ २ भास्करिः ३ शशाङ्कसितौ ४ । उदगयने शशि. सूयौं वक्रेऽन्ये स्निग्धविपुलाश्च ॥ १८ ॥ ग्रहयुद्धे चोत्तरगाश्चन्द्रेण समागताश्चरविव
य॑म् । चेष्टाबलिनो ज्ञेयाः कालबलं वक्ष्यते त्वधुना ॥ १९ ॥ अहनि सितार्कसुरे. १२ ज्या धुनिशं ज्ञो नक्तमिन्दुकुजशौराः । स्वदिनादिष्वशुभशुभा बहुलेतरपक्षयोबलि.
नः ॥ २० ॥ मन्दारसौम्यवाक्पतिसितचन्द्राको यथोत्तरं बलिनः । नैसर्गिकबलमेतबलसाम्ये स्यादधिकचिन्ता ॥ २१ ॥ दशमतृतीये ५ नवपञ्चमे १० चतुर्थाष्टमे १५ १५ कलत्रं च २० । पश्यन्ति पादवृद्ध्या मतेन पूर्ण निजाश्रयो १ पान्त्ये ११ ॥ २२ ॥
पूर्ण पश्यति रविजस्तृतीयदशमे त्रिकोणमपि जीवः । चतुरस्र भूमिसुतः सितार्कबु
धहिमकराः कलत्रं च ॥ २३ ॥ शत्रू मन्दसितौ समश्च शशिजो मित्राणि शेषा रवेः। १. तीक्ष्णांशुर्हिमरश्मिजश्व सुहृदो शेषाः ४ समाः शीतगोः । जीवेन्दूष्णकराः कुजस्य सुहृदो ज्ञोऽरिः सिताक्यौँ समौ मित्रे सूर्यसितौ बुधस्य हिमगुः शत्रुः समाश्चापरे ३
॥ २४ ॥ सूरेः सौम्यसितावरी रविसुतो मध्योऽपरे ३ त्वऽन्यथा, सौम्याऊ सुहृदौ २१ समौ कुजगुरू शुक्रस्य शेषावरी । शुक्रज्ञौ सुहृदौ समः सुरगुरुः शौरस्य चान्ये ३ ऽरयस्तरकाले च दशा १० ऽऽय ११ बन्धु ४ सहज ३ स्वां २ तेषु १२ मित्रं स्थिताः
॥२५॥ मित्र १ मुदासीनो २ ऽरि ३ ाख्याता ये निसर्गभावेन । तेऽधिसुह ' २४न्मित्र रसमा ३ स्तत्कालमुपस्थिताश्चिन्त्याः॥२६॥ग्रहमेदाः ३ स्थापयितुः शिष्यस्य
च गोचरशुद्धौ गुरोस्तु चन्द्रबले। स्थापनदीक्षे कार्ये जन्मेन्दुगृहात्तु सा माझा ॥२७॥
सूर्यः षत्रिदशस्थित त्रिदशषट्सप्ताद्यगश्चन्द्रमा जीवः सप्तनवद्विपञ्चमगतो वक्रार्कजौ २७ षनिगौ । सौम्यः षद्विचतुर्दशाष्टमगतः सर्वेऽप्युपान्त्ये शुभाः ११ । शुक्रः सप्तम.
षट्दशःरहितः शार्दूलवित्रासकृत् ॥ २८ ॥ धन २ सुत ५ धर्मेषु ९ रविर्मध्यः
शुभदः शशी तु सितपक्षे । ग्राह्यं ताराबलमपि शशिनि क्षीणे च विबले च ॥ २९ ॥ ३. गोचरशुद्धिः ४॥ रविशशिजीवैः सबलैः शुभदः स्याद्गोचरोऽथ तदभावे ।
प्राशाऽष्टवर्गशुद्धिर्जन्मविलग्नप्रहेभ्यस्तु ॥ ३० ॥ केन्द्रायाष्टद्विनवस्वर्कः स्वादार्किभौ• मयोश्च ११४१७४१०11१1८।२।९। शुभः । षट्सप्तान्त्येषु सितात् ६।७।१२। षडायची.
धर्मगो जीवात् ६।११।५।९ ॥ ३१ ॥ उपचयगोऽर्कश्चन्द्रा ३।६।१०।११। दुपवयन३५वमान्यधीयुतः सौम्यात् ३३६।१०।१११९।१२।५। लग्नादपचयबन्धुव्यये ३।६।१०।
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जैनज्योतिर्ग्रन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः
१४५ २ स्थितः शोभनः प्रोक्तः ॥ ३२ ॥ रवेरष्टवर्गरेखाः ४८ ॥ शश्युपचयेषु लग्ना २६।१०।११। साद्यमुनिः स्वात् ३३६।१०।११।११७ कुजात्सस्वनवधीस्थः ३॥ ६।१०।११।२।९।५।सूर्यात्साष्टमरग ३।६।१०।११३८७ स्त्रिषडायसुतेषु सूर्यसुतात् ।३ ३।११११५॥३३॥ ज्ञात्केन्द्र त्रिसुतायाष्टगो।४।७।१०।३।५।१११८ गुरोर्व्ययायमृत्युकेन्द्रेषु१२।११।१।४।७।१०। त्रिचतुःसुतनवदशसप्तमायगश्चन्द्रमाः शुक्रात् ३।४।५।९। १०७॥११॥३४॥ सोमाष्टकवर्गरेखाः ४९ ॥ भौमः स्वादायस्वाष्टकेन्द्रग ११८१६ ४७।१०। रूयायषटसुतेषु बुधात् ३।११६।५। जीवाद्दशायशत्रुयये १०।११।६।१२ विनादुपचयसुतेषु ३।६।१०।१११५ ॥ ३५ ॥ उदयादुपचयतनुषु ३।६।१०।११।१ त्रिषडायेविन्दुतः सदशमेषु ३।६।११।१०। भृगुतोऽन्त्यषडष्टाये १२।६।८।१११९ वऽसिताकेन्द्रायनववसुषु १।४।१०।११।९।८॥३६ ॥ भौमाष्टकवर्गरेखाः ४० ॥ सौम्योऽन्त्यरिपुनवायारमजे १२।६।९।१५। विनात् स्वाचितनुदशयुतेषु १२॥६॥ ९।११।५।३।१।१० चन्द्राविरिपुदशायाष्टसुखगत: २।६।१०।११।८।४। सादिषु विल-१२ मात् ११२।६।१०।११।४।४ ॥३७॥ प्रथमसुखायद्विनिधनधर्मेषु सितात् त्रिधीसमेतेषु १४।११।२।८।९।३।५। सदशमरेषु शौरारयो १।४।११।२।०९।३।५।१०।७। य॑यायाऽरिवसुषु गुरोः १२।११६।८॥ ३८ ॥ बुधाष्टकवर्गरेखाः ५८ ॥ जीवो १५ भौमावयायाऽष्टकेन्द्रगो २।११।८।१।४।१० ऽर्कात् सधर्मसहजेषु २।११।८।१।४। ७।१०।९।३। स्वारसत्रिकेषु २।११।८।१।१७।१०।३ शुक्रान्नवदशलाभस्वधीरिपुषु ९। १०।११।५।६ ॥ ३९ ॥ शशिनः स्मरत्रिकोणार्थलाभग ७।९।५।२।११। स्विरिपुषी-१४ व्ययेषु यमात् ३१६।५।१२। नवदिसुखायधीस्वायशत्रुषु ज्ञात् ९।१०।४।१५।२।११॥ ६।सकामगो लग्नात् ९।१०।४।१।५।२।११।६।७ ॥ ४०॥ गुरोरष्टकवर्गरेखाः ५६ ॥ शुक्रो लग्नादासुतनवाष्टलाभेषु १।२।३।४।५।१८।११। सव्ययश्चन्द्रात् ११२।३।४।५।२१ ९।८।११।१२। स्वात्सदिग ११२।३।४।५।९।८।११।१० ऽसितात्रिसुखात्मजाष्टदिग्धर्मलामेषु ३।४।५।८।१०।९।११॥४१॥ वस्वन्यायेष्वऽक्की ८।१२।११ नवदिक्लाभाs. ष्टघीस्थितो जीवात् ।९।१०।११३८1५/ ज्ञात्रिसुतनवायारि ३।५।९।११।६ वायसुता.२४ पोक्लिमेषु कुजात् ११।५।३।६।९।१२॥४२॥ शुक्राष्टवर्गरेखाः ५२ । स्वास्सौरिस्त्रिसुता' यारिगः ३।५।११।६। कुजादन्त्यकर्मसहितेषु ३।५।११।६।१२।१० स्वायाष्टकेन्द्रगोऽर्कात् २।११।८।१।४।७।१०। शुक्रात् षष्ठान्त्यलाभेषु ।६।१२।११॥४३॥ त्रिषडायगः२७ शशाङ्का ३।६।११। दुदयारससुखाद्यकर्मगो ३।६।११।४।१।१० ऽथ गुरोः । सुतषद व्ययायगो ५।६।१२।११। ज्ञाध्ययायरिपुदिग्नवाष्टस्थः १२।११।६।१०।९।८ ॥ ४ ॥ शन्यष्टकवर्गरेखाः ३९॥ स्थानेष्वेतेषु हिताः शेषेष्वहिता भवन्ति तेऽष्टानाम् । अशुभ-३० शुभविशेषफलं ग्रहाः प्रयच्छन्ति चारगताः ॥ ४५ ॥ अष्टकवर्गशद्धिः॥५॥ रविक्षेत्रगते जीवे जीवक्षेत्रगते रवी । दीक्षामुपस्थापनं चापि प्रतिष्ठां च न कारयेत् ॥४५॥ वर्षशुद्धिः ॥६॥ हरिशयनेऽधिकमासे गुरुशुकाते न लग्नमन्वेष्यम् ।३३ जै० १९
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१४६ जनज्योतिम्रन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः लग्नेशांशाधिपयोनींचास्तमने च न शुभं स्यात् ॥ ४६ ॥ मासशुद्धिः॥७॥ कुलिकार्द्धयामभद्रागण्डान्तोत्पातमुख्यदोषयुतम् । त्याज्यं सदा दिन कुजवारोऽपि ३ पुनः प्रतिष्ठायाम् ॥ ४७ ॥ येकद्वितीयपञ्चमदिनानि पक्षद्वयेऽपि शस्तानि । शुक्ले.
तिमत्रयोदशदशमान्यपि च प्रतिष्ठायाम् ॥४८॥ पक्षद्वितये च तुर्याष्टमषष्ठद्वादशा. न्त्यनवमदिनाः । त्याज्याश्चतुर्दशोऽपि च दीक्षायामुत्तमास्त्वन्ये ॥ ४९ ॥ पक्षं ६ च पञ्चदिवसान् १५।५ भृगुजःप्रवृद्धस्त्रीन् बालकस्तु दश चापि पुरः १ प्रतीच्याम् २। सर्वत्र सूरिरुदयेऽस्तमये च पक्षमन्यै स्त्विमौ दिवससप्तकमेव वज्यौं ॥ ५० ॥ ग्रहणस्य दिनं तदादिमं दिनमागामिदिनानि सप्त च । त्यज सक्रमवासरं पुनः सह ९ पूर्वेण च पश्चिमेन च ॥५१॥ दिनशुद्धिः॥८॥ दीक्षायां स्थापनायां च शस्त्रं
मूलं पुनर्वसु । स्वातिमैत्रं करः श्रोत्रं पोष्णं ब्राहृयोत्तरात्रयम् ॥ ५२ ॥ प्रतिष्ठायां
धनिष्ठा च पुष्यः सौम्यं मघापि च । दीक्षायां शस्यते सद्भिरश्विनी वारुणं १२ तथा ॥५३॥ जन्मः दशमे चैव षोडशेऽष्टादशे तथा । पञ्चविंशे प्रयोविंशे
प्रतिष्ठां नैव कारयेत् ॥ ५४ ॥ ग्रहणस्थं ग्रहैभित्रमुदिताऽस्तमितग्रहम् । ऋरमुक्ता
ग्रगाकान्तं नक्षत्रं परिवर्जयेत् ॥ ५५ ॥ वेधै १ कार्गललत्ता ३ पातो ४ पग्रह ५ १५युतं च भं त्याज्यम् । वेधैकार्गलदोषौ पादान्तरितौ न दोषकरौ ॥५६ ॥ सप्तोई
सप्त तिर्यक् च रेखाः कार्यास्तदग्रतः । पूर्वादौ कृत्तिकादीनि सप्त सप्त चतुदिशम् ॥ ५७ ॥ एवमिष्टभरेखायां ग्रहो यदि तदा व्यधः । ग्रहराहुहते शुद्धिश्चन्द्र१८ भुक्त्यर्द्धवर्षयोः ॥ ५८ ॥ वेधः ॥ त्रयोदशतिरोरेखा एकोज़ मस्तके ततः । न्यखे
योगोक्तनक्षत्रे भवेदेकार्गलस्तदा ॥ ५९ ॥ शूले मूर्ध्नि मृगो मघा च परिघे चित्रा
तथा वैधतौ, व्याघाते च पुनर्वसू निगदितौ पुष्यश्च वज्रे स्मृतः। गण्डे मूलमथाश्विनी २१ प्रथमके मैत्रोऽतिगण्डे तथा सार्पिश्च व्यतिपात इन्दुतपनावेकार्गलस्थौ यदा ॥ ६ ॥
एकार्गलः ॥ सूर्या १२ ऽष्ट ८ त्रि ३ त्रिविंश २३ ६ पञ्चविंशा २५ ऽष्ट .
सङ्ख्यभे । सूर्यादीनां क्रमाल्लत्तैकविंशे २१ तमसोऽग्रतः ॥ ६१ ॥ अग्रतो नवमे २४ राहोः सप्तविंशे भृगोस्तु भे । केचिज्योतिर्विदः प्राहुलत्तां तामपि वर्जयेत् ॥ २ ॥
लत्ता ॥३॥ सार्पिपितृदेवचित्रामैत्रश्रुतिपौष्णभानि सूर्यात् । यस्सङ्ख्यान्यश्विन्या
स्तत्सङ्ख्या भवेत्पातः ॥६३॥ पातः॥ विद्युन्मुख १ शूला २ शनि ३ केतू ४ ल्का २७५ वज्र ६ कम्प ७ निर्घाताः ८ ड ५ ज ८ढ १४ द १८ ध १९ फ २२ ब २३
भ २४ सङ्ख्ये रविपुरत उपग्रहा धिष्ण्ये ॥६४ ॥उपग्रहाः॥ नक्षत्रशुद्धिः॥९॥ रवीन्दुभुक्तराशीनां योगे षद द्वादशाऽथवा । यदि स्युः स्यात्तदा हेयः क्रान्ति३० साम्यस्य सम्भवः ॥६५॥ क्रान्तिसाम्यम् ॥ १०॥ द्विस्वभावं प्रतिष्ठासु स्थिर
वा लग्नमुत्तमम् । तदभावे चरं ग्राह्यमुद्दामगुणभूषितम् ॥ ६६ ॥ मिथुनधनुराद्यभागप्रमदांशाः स्युः शुभाः प्रतिष्ठायाम् । मीनतुलाधरकेसरिनवांशका मध्यमा
ज्ञेयाः ॥ ६७ ॥ वृश्चिकमिथुनधनुर्धरकुम्भेषु शुभाय दीक्षणं भवति । पञ्चमके तु ३४ नवांशे वृषाऽजयो न्यराशीनाम् ॥ ६८ ॥ लग्नेन्द्वोरस्तगः क्रूरो दुरवस्थास्थितः
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जैनज्योतिर्ग्रन्यसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः १४७ शशी । वर्गोत्तमं विना चान्त्यो नवांशोऽपि न गृह्यते ॥ ६९ ॥ न जन्मराशी नो जन्मराशिलग्नान्तिमाष्टमे । न लग्नांशाधिपे लग्ने षष्ठाष्टमगते विदुः ॥ ७० ॥ जन्मराशिविलग्नाभ्यां रन्ध्रेशौ रन्ध्रसंस्थितौ । त्याज्यो कान्तरस्थौ च लग्नपीयूषरो-३ चिषौ ॥ ७१ ॥ सति दर्शने यदि स्यादंशद्वादशकमध्यगः क्रूरः । इन्दोर्लग्नस्य तथा न शुभो राहुस्तु सप्तमगः ॥ ७२ ॥ त्रयः सौम्यग्रहा यत्र लग्ने स्युर्बलवत्तराः। बलवत्तदपि विज्ञेयं शेषीनबलैरपि ॥ ७३ ॥ लग्नबलम् ॥ ११॥ मेषस्तत्त्वयमै ६ २२५ रसेषुयमलै राशिवृषाभः २५६ पलैः पञ्चव्योमहुताशनैश्च मिथुनः ३०५ कर्कः ३४१ कुवेदाग्निभिः । सिंहः ३४२ पाणिपयोधिपावकमितैः कन्या ३३१ कुलोकत्रिकरेते व्युत्क्रमतस्तुलादय इह स्युगुजरे मण्डले ॥ ७४ ॥ यथा तुला ३३१९ वृश्चिकः ३४२ धनुः ३४१ मकरः ३०५ कुम्भः २५६ मीनः २२५॥ सूर्याध्यासितराशेर्माने रविभुक्तनाडिकाभिहते । सङ्क्रान्तिभोगमुक्त लब्धं यत्सूर्यभुक्तं तत् ॥ ७५॥ तस्मिादयत्रिंशे दत्ते शेषं रवेर्भवेदोग्यम् । इति दिनलग्ने कार्य निशिलग्ने सप्तमस्या- १२ र्कात् ॥ ७६ ॥ वान्छितलग्नस्याप्यथ भुक्ते न्यस्येत तदुदयव्यंशम् । दत्तनवांशपलानां ऽयंशं दद्यात्प्रवृत्तेश्च ॥ ७७ ॥ इत्थं संस्कृतमखिलं वाञ्छितलग्नस्य भुक्तमिनभोग्यम् । युतमान्तरोदयैरपि षष्टिहतं नाडिकापलानि यत् ॥ ७० ॥ एवमधिवासितांशे स्थापन-१५ दत्तान्तरांशपलमिलिते । षष्टिहते घटिकाः स्युः पलानि शेषं प्रतिष्ठायाः ॥ ७९ ॥ इति लग्नमानम् ॥१२॥ कुज १ शुक्र २ जे ३ व ४ ऽर्क ५ ज्ञ ६ शुक्र ७ कुज ८ जीव ९ शौरि १० यम ११ गुरवः १२ ॥ भेशा नवांशकानामज १ मकर २ तुला १८ ३ कुलीराधाः ॥ ८०॥ स्वगृहावादशभागा द्रेष्काणाः प्रथमपञ्चनवपानाम् । होरा विषमेऽन्द्वोः समराशौ चन्द्रतीक्ष्णांश्वोः ॥८१॥ कुज १ यम २ जीव ३ ज्ञ४ सिताः पंचेन्द्रिय ५ वसु ६ मुनी ७ न्द्रियां ८ शानाम् । विषमेषु समःपूरक्रमेण त्रिंशांशकाः २१ करप्याः ॥ ८२॥ लिप्ताऽष्टादशनवषद्विसार्द्धशतषष्टिमानपरिगणिताः। गृह १ होरा २ द्रेष्काणा ३ नवभागा ४ द्वादशांश ५ त्रिंशांशाः ॥६॥८३ ॥ इत्यनेनानुमानेन नवांशस्यानुसारतः । कार्या षड्वर्गसंशुद्धिः स्थापनादीक्षयोः शुभाः ॥ ८४ ॥ यथा २४ पथा शोभनवर्गलाभस्तथा तथा स्थापनमुत्तमं स्यात् । नवांशकस्तावदवश्यमत्र सौम्यप्रहस्यैव विलोकनीयः॥४५॥ भृगोरुदयवारांशभवनेक्षणपञ्चके । चन्द्रांशोदयवारे च दर्शने च न दीक्षयेत् ॥ ८६ ॥ षड्वर्गसंशुद्धिः॥१३॥ अंशकजामित्रपतौ पश्यति २७ लग्नास्तमस्तशुद्धिः स्यात् । अंशकपतिस्तु लग्नं यदि पश्यत्युदयशुद्धिः स्यात् ॥८७॥प्रति. ष्ठादीक्षयोाद्या विशुद्धिरुदयास्तयोः। अथवोदयसंशुद्धिः केवलैव निरीक्ष्यते ॥४॥ उदयास्तशुद्धिः॥१४॥ सौराक्षितिसूनवस्त्रिरिपुगा द्वित्रिस्थितश्चन्द्रमाः, एकद्वि-३० त्रिखपञ्चबन्धुषु बुधः शस्तः प्रतिष्ठाविधौ । जीवः केन्द्रनवस्वधीषु भृगुजो व्योमत्रिकोणे तथा । पातालोदययोः सराहुशिखिनः सर्वेऽप्युपान्त्ये शुभाः॥ ८९ ॥ खेऽर्कः केन्द्रनवारिगः शशधरः सौम्यो नवास्तारिगः । षष्ठो देवगुरुः सितस्विधनगो मध्याः प्रतिष्ठाक्षणे । भन्दुक्षितिजाः सुते सहजगो, जीवो व्ययास्तारिगः शुक्रो व्योमसुते ३५
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जैनज्योतिर्प्रन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः
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विमध्यमफलः शौरिश्व सद्भिर्मतः ॥ ९० ॥ सर्वे परत्र वर्ज्या जन्मस्मरगः शिखी शशियुतश्च । शुभदस्त्रिशत्रुसंस्थो परत्र मध्यो विधुंतुदस्तद्वत् ॥ ९१ ॥ भौमेनार्केण ३ वा युक्ते दृष्टे वाऽग्निभयं भवेत् । पञ्चत्वं शनिना युक्ते समृद्धिस्विन्दु जन्मना ॥ ९२ ॥ सिद्धार्चितत्वं जायेत गुरुणा युतवीक्षिते । शुक्रयुक्तेक्षिते चन्द्रे प्रतिष्ठायां समृद्धयः ॥ ९३ ॥ सूर्ये विबले गृहपो गृहिणी मृगलान्छने धनं भृगुजे । वाचस्पतौ तु सौख्यं ६ नियमानाशं समुपयाति ॥ ९४ ॥ उदयनभस्तलहि बुकेष्वस्तमयेऽथ त्रिकोणसंज्ञे च । सूर्यशनैश्चरवक्राः प्रासादविनाशनं प्रकुर्वन्ति ॥ ९५ ॥ क्रूरग्रहसंयुक्ते दृष्टे वा शशि नि सूर्य लुप्तकरे । मृत्युं करोति कर्त्तुः कृता प्रतिष्ठाऽयने याम्ये ॥ ९६ ॥ अङ्गारक: शनि९ श्चैव राहुभास्करकेतवः । भृगुपुत्रसमायुक्ताः सप्तमस्थास्त्रिकापहाः ॥ ९७ ॥ स्थाप्यस्थापककर्तॄणां सद्यः प्राणवियोजकाः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सप्तमस्थान् विवर्जयेत् ॥ ९८ ॥ बलीयसि सुहृद्दृष्टे केन्द्रस्थे रविनन्दने । त्रिकोणगे च नेष्यन्ते शुभारम्भा १२ मनीषिभिः ॥ ९९ ॥ निधनव्ययधर्मस्थः केन्द्रगो वा धरासुतः । अपि सौख्यसहस्राणि विनाशयति पुष्टिमान् ॥ १०० ॥ गुणशतमपि दोषः कश्चिदेकोऽपि वृद्धः स्थगयति यदि नान्यस्तद्विरोधी गुणोऽस्ति । घटमिव परिपूर्ण पञ्चगव्यस्य पूतं मलिन१५ यति सुराया बिन्दुरेकोऽपि सर्वम् ॥ १०१ ॥ बलवति सूर्यस्य सुते बलहीनेऽङ्गारके बुधे चैव । मेषवृषस्थे सूर्ये क्षपाकरे चाहती स्थाप्या ॥ १०२ ॥ न तिथिर्न च नक्षत्रं न वारो न च चन्द्रमाः । लग्नमेकं प्रशंसन्ति त्रिषडेकादशे रवौ ॥ १०३ ॥ हिबुकोदय नवमाम्बर१८ पञ्चमगृहगः सितोऽथवा जीवः । लघु हन्ति लग्नदोषांस्तदरुहमिव निम्नगावेगः ॥ १०४॥ त्रिषडेकादश संस्थाः क्षितिसुतरविचन्द्रसूर्यसुतशिखिनः । सान्निध्यं देवानां निवेशकाले प्रकुर्वन्ति ॥ १०५ ॥ बुध भार्गवजीवानामेकोऽपि हि केन्द्रमाश्रितो बलवान् । २१ यद्यक्रूरसहायः सद्योऽरिष्टस्य नाशाय ॥ १०६ ॥ लग्नं दोषशतेन दूषितमसौ चन्द्रात्मजो लग्नगः केन्द्रे वा विमलीकरोति सुचिरं यद्यईबिम्बाच्युतः । शुक्रस्तद्विगुणं सुनिर्मलवपुर्लभ स्थितो नाशयेद्दोषाणामथ लक्षमप्यऽपहरेल्लग्न स्थितो वाक्पतिः १०७ ॥ ये २४ लग्नदोषाः कुनवांशदोषाः पापैः कृता दृष्टिनिपातदोषाः । लग्ने गुरुस्तान् विमलीकरोति फलं यथाम्भः कतकद्रुमस्य ॥ १०८ ॥ अनिष्टस्थान संस्थोऽपि लग्नात्क्रूरो न दोषकृत् । बुधभार्गवजीवैस्तु दृष्टः केन्द्र त्रिकोणगैः ॥ १०९ ॥ सुतहिबुक वियद्विलग्नधर्मेष्वऽमरगु२७ रुर्यदि दानवार्चितो वा । यदशुभमुपयाति तच्छुभत्वं शुभमपि वृद्धिमुपैति तत्प्रभावात् ॥ ११० ॥ कार्यमात्यन्तिकं चेत्स्यात् तदा बहुगुणान्वितम् । स्वल्पदोषं समाश्रित्य लग्नं तत्सर्वमाचरेत् ॥ १११ ॥ प्रतिष्ठाग्रहबलग्रहदोषगुणाः ॥ १५॥ षद्वये३० कादश पञ्चमो दिनकरस्त्रिव्यायषष्ठः शशी लग्नात्सौम्यकुजौ शुभावुपचये केन्द्रत्रिकोणे गुरुः । शुक्रः षट् त्रिनवान्त्यगोऽष्टम सुतद्वयेकादशो मन्दगो लग्नांशादिगुरुज्ञचण्डमहसां शौरेश्च दीक्षाविधौ ॥ ११२ ॥ रविस्तृतीयो दशमः शशाङ्को जीवेन्दुजाव न्तिमन्त३३. शवज्यौं । केन्द्रष्टवज्य भृगुजस्त्रिशत्रुसंस्थः शनिः प्रत्रजने मतोऽन्यैः ॥ ११३ ॥
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जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे श्रीनरचन्द्राचार्यविरचितो नारचन्द्रः
शुक्राङ्गारकमन्दानां नाभीष्टः सप्तमः शशी । तमः केतू तु दीक्षायां प्रतिष्ठावच्छुभाशुभौ ॥ ११४ ॥ कलह १ भय २ जीवनाशन ३ धनहानि ४ विपत्ति ५ नृपतिभीति ६ करः । प्रव्रज्यायां नेष्टो भौमादियुतः क्षपानाथः ॥ ११५ ॥ दीक्षाग्रहबलम् ॥ १६॥ ३ ध्रुवचक्रे स्थिते तिर्यक् प्रतिष्ठादीक्षणादिकम् । स्थिते ध्वजारोपखातप्रमुख• माचरेत् ॥ ११६ ॥ इति ध्रुवलग्नम् ॥ १७ ॥ शनौ शुक्रे च सोमे च सार्द्धान्यष्टपदानि च । ज्ञेऽष्टौ कुजे नव गुरौ सप्तैकादश भास्करे ॥ ११७ ॥ पदानि सिद्धछायाः ६ स्वस्तासु कार्याणि साधयेत् । तिथिवारर्क्षशीतांशुविष्ट्यादि न विलोकयेत् ॥ ११८ ॥ छायालग्नम् ॥ १८॥ इत्येवं खेचरेन्द्रप्रबलबलयुते दोषमुक्ते च लभे, शास्त्रो देशानुसारि स्फुटशकुनबलेऽत्युज्वले जागरूके । पीयूषांशुप्रवाहे क्षितिसलिलगते कार्य - ९ माचर्यते यैस्तेषामक्षीणलक्ष्मीपरिचयरुचिरा वासराः संभवन्ति ॥ ११९ ॥ इति प्रतिष्ठादीक्षाकुण्डलिका ॥ देवानन्द मुनीश्वरपदपङ्कजसे वनै कषट् चरणः । ज्योतिःशास्त्रमकार्षीन्नरचन्द्राख्यः सुधीप्रवरः ॥ १२० ॥ इत्याचार्यनरचन्द्रविरचितो नारचन्द्रः समाप्तः ॥
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जैनज्योतिर्ग्रन्थगता ग्रन्थाः सकर्तृकाः।
कर्तृनाम
पृष्ठसंख्या
ग्रंथनाम लमशुद्धिः दिनशुद्धिः आरंभसिद्धिः नारचन्द्रः
श्रीहरिभद्रसूरिः श्रीरत्नशेखरसूरिः श्रीउदयप्रभदेवसूरिः श्रीनरचन्द्रसूरिः
९-२२ २३-१३६ १३७-१४९
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