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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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सुलभजनधनाला-नं. ८
श्रीपरमात्मने नमः।
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जैनवालबोधक
तृतीय भाग।
जिसको . सर्वसाधारण जैनी वालों के हितार्थ
सुजानगढनिवासी पन्नालालवाकलीवाल दिगंबरीजैनने संग्रह किया ।
और कलकत्तास्य-भारतीयजैनासेद्धांतप्रकाशिनी संस्थाने
अपने विश्वकोपलेनस्थित-जैनसिद्धांतप्रकाशक पवित्र प्रेसमें श्रीलालजैन काव्यतीर्थक प्रयवसे छपाकर .
. प्रकाशित किया। र प्रथमावृत्ति } वी. नि. २४४८ ई मूल्य ॥४, आने ।
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सूचना ।
विदित हो कि मैने जैनवालबोधकके चार भाग बनानेकी इच्छा की थी किन्तु प्रमादसे अमीतक पूर्ति नहिं कर पाया । अर्थात् प्रथम भाग वी. नि. संवत् २४२६ शालमें बनाया था। द्वितीय भाग वीर नि० से २४३३ में और संशोधित द्वितीयभाग १० वर्पवाद चीरनि० सं. २४४३.में प्रकाशित किया इससे ४ वर्ष बाद अब यह तृतीय भाग लिख पाया हूं उम्मेद है कि चतुर्थभाग भी इसी वर्षमें लिख सकूँगा।
इस भाग पाठोंकी सूची देखने वा 'आद्योपति पदनेसे आपको मालुम होगा कि इसके प्रत्येक पाठमें जैनधर्मकी शिक्षा व साधारण नीति. ज्ञान यथाशक्ति भरा गया है । कारण इसका यह है कि-आजकाल प्रारंभ हीमें जैन धर्मकी शिक्षा न मिलने से व पाश्चात्य विद्याकी प्रचुरतासे अंगरेजी पढनेवाले जैनी लड़कों के चित्तौसे जैनधर्मसंबंधी सदाचार और महत्वका अंश क्रमशः निकलता जाता है। जिसका फल यह देखा जाता है-हमारे अनेक जैनी भाई प्रेजुयेट होनेपर जैनधर्मसे सर्वथा अनभिज्ञ होने के कारण जैन धर्मका एक दम लोट फेर करके एक नवीन ही संस्कार कर देनेमें कटिबद्ध हो गये हैं । भविष्यतमें भी यदि प्रारभसे ही जैनधर्मकी शिक्षा नहि मिलैंगी तो सब बालक प्रायः इस 'सनातन पवित्र जैन धर्मसे अन'भिक तैयार होनेटे इस जैनधर्मका शीघ्र ही हांस हो जायगा इस कारण, समस्त जैनी बालकोंको प्रारंभसे ही जैनधर्मकी और सदाचारताको शिक्षा देने के लिये जैनधर्मसंबंधी.पाठोंकी ही बहुलता रक्खी गई है! .. .... :::..(कवरके दूसरे पृष्ठमें देखो):
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निवेदन ।
CFCAS
जैन विद्यालय और पाठशालाओं में सुलभताके साथ वास्तविक शिक्षाका प्रचार हो सके इस लिए सस्थाक जन्मदाता सुप्रसिद्ध अनुभवी लेखक श्रीमान् पं० पन्नालालजी बाकलीवालकृत यह जैन'बालबोधकका तीसरा भाग सुलभजैन ग्रंथमाला में झालरापाटणनिवासी शेठ विनोदीरामजी बालचंदजीकी द्रव्यसे उनके स्वर्गीय सुपुत्र श्रीमान् शेठ दीपचंदजीके स्मरणार्थ ( मकरध्वजपराजय ग्रंथकी आई हुई न्योछावर से ) छपाया जाता है । आशा है; शिक्षा संस्थाओंके अभिभावक इससे लाभ उठावेंगे ।
विनीत---
श्रीलाल जैन ।
मंत्री,
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पाठ और विषयों की सूची। नाम पाठ वा विषय १। श्रीमहावीर प्रार्थना २। भूधरकृत स्तुतिसंग्रह व दर्शन पाठ .३ ' पंचामृत अभिषेक ४॥ सप्तव्यसन ५.सागरदत्त और सोमक . .
६। दुध
७। जितेंद्र गर्भमंगल (कविवर. रूपचंद्रजी कृत)।
। श्रावकोंके नित्य करनेके पट्कर्म . ९। सत्यवादी चोर .
१० । जिनंद जन्ममंगल ( कविवर रूपचंदजी कृत). . .११ । पंचपरमेष्ठीके मूलगुण ( इपछत्तीसी सार्थ) . १२ । दर्शनप्रतिज्ञाकी कहानी। १३ । भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह प्रथम भाग १४ । नित्यनियमपूजा भाषा पूर्ण . . . १५ । चौवीस तीर्थकरों के नाम और चिह्न . . १६ : दृढसूर्य चौरकी कथा १७। शुद्धवायु १८ । आलोचनापाठ १९ । पांच इंद्रिय २० । भूधरजननीत्युपदेशसंग्रह दुसरा भाग २१ । राजा शुभकी कथा
२२ । श्रावकाचार प्रथमभाग ( सम्यग्दर्शन ) . २३ । पृथिवी
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११४
११६.
११८
२४। कडारपिंगलको मृत्यु २५ । शुद्धजल २६॥ श्रावकाचार दुसरा भाग २७। अंजन चौरकी कथा २८। पुदगल परमाणु २९ । भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह तीसरा भाग ३०। अनंतमतीकी कथा ३१ । श्राहार्य पदार्थ ३२ । उद्यायन राजाको कथा ३३ श्रावकाचार तीसराभाग ३४. रेवतीरानीकी कथा ३५ भूधरजननीत्युपदेशसंग्रह चौथा भाग ३६ जिनंद्रभक्तकी कथा ३७ । सुन्दर दृश्य ३८: वारिषेण राजपुत्रकी कथा ३१ श्रावकाचार चोथाभाग (सम्यग्ज्ञान) ४० विमाकुमारमुनिको कथा ४१. शारीरिक परिश्रम ४२ वज्रकुमारकी कथा ४३ श्रावकाचार पंचममाग (सम्यक्चारित्र) ४४ यमपालनामा चंडालकी कथा । ४५ । भूधरजननीत्युपदेशसंग्रह पाचवां भाग ४६ । धनश्रीकी कथा ४७ श्रावकाचार छट्ठाभाग ०८सत्यवादी धनदेवकी कथा
१२२ १२६
१३१
१३६.
१५३
१६ १६७ १७०
१७७.
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09.
(ग) '३६ जूधा निषेध '५० । सत्यघोषकी कथा ५१ । भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह छहाभाग ५२ । तापसी चौरकी कथा '५३१ श्रावकाचार सप्तमभाग । ५४ । वणिक पुत्री नीलीकी कथा ५५ । स्वदेशोन्नति ५६ । श्रावकाचार अष्टमभाग । -५७ । यमदण्ड कोतवालकी कथा
५८। मद्यपान निषेध ( गद्यपद्य । •५६ । जयकुमारकी कथा ६० · भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह सातवां भाग ६१ ॥ श्रावकाचार नवमभाग '६२॥ श्रीषेणराजाकी कथा ६३ । गुरुशिष्य प्रश्नोत्तर (कन्याविक्रयनिषेध । ६४ । श्मश्रुनवनीतकी कथा ६५ सेठकी पुत्री वृषभसेनाकी कथा ६६ । भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह आठवां भाग “६७ । कौंडेशको कथा ६८। श्रावकाचार दशमभाग ( सल्लेखना ) ६६। वसतिकादानमें शूकरकी कथा
७० । श्रावकाचार ग्यारहवा भाग (एकादश प्रतिमा ! '७१। मेढककी कथा .७२ । गुरु अष्टक (वृंदावनकृत)
०१६
૨૨૨ ૨e
२२८ રક २३६ २३७ २३८ २४२ २४३ २४७ २५०
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मुलभनैनप्रथमाला नं ८
श्रीपरमात्मने नमः
जैनबालबोधक तृतीय भाग।
दोहा। पंच परम पद अनमि कर, जिनवानी उरधार। जैन वालवोधक तृतीय, संग्रह करूं विचार ॥१॥
१।श्रीमहावीर प्रार्थना.
(न्यायालंकार पं० मक्खनलालजी कृत) हे सर्वज्ञ वीर जिन देवा, चरण शरण हम आते हैं । मान अनंत गुणाकर तुमको, चरणों शीत नमाते हैं | कथन तुम्हारा सबको प्यारा, कहीं विरोध नहीं पाता। अनुभव वोध अधिक जिनके है, उन पुरुषों के मन माता ।। दर्शन ज्ञान चरित्र स्वरूपी, मारग तुमने दिखलाया । यही मार्ग हितकारी सवका, पूर्व ऋषीगणने गाया ॥३॥
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जैनवालवोधकरत्ननयको भूल न जावें, इसी लिये उपनयन करें। ब्रह्मचर्यको दृढतम पालें, सप्त व्यसनका त्याग करें ॥४॥ नीति मार्ग पर नित्य चलें हम, योग्याहार विहार करें । पाले योग्याचार सदा हम, वर्णाचार विचार करें ॥५॥ धर्म मार्ग अरु वैध मार्ग से, देशोद्धार विचार करें। आर्षे वचन हम दृढतम पाले, सत्सिद्धांत प्रचार करें।॥ ६ ॥ श्री जिन धर्म वटै दिन दुनो, पंच आप्तनुति नित्य करें। सत्संगतिको पाकर स्वामिन्, कर्म फलंक समूल हरें ॥७॥ फलें भाव ये सभी हमारे, यही निवेदन करते हैं । "लाल" वाल मिल भाल वीरके, चरणों में हम घरते हैं।।८॥
२ भूधरकृत स्तुति संग्रह.
आदिनाथ स्तुति । सवैया ३२ मात्रा। ज्ञान जिहाज बैठ गनघरसे, गुणपयोघ जिस नाहि तरे हैं। अमर समूह आन अवनीसौं, घसि २ सीस प्रनाम करे हैं । किधौं माल कुकरमकी रेखा, दूर करनकी बुद्धि धरे हैं । ऐसे आदिनाथके अहनिस, हाथ जोरि हम पांय परे हैं ।
· चंद्रप्रभस्तुति । सवैया मात्रा ३२ । चितवत वदन अमेल चंद्रोपम, तजि चिंता चित होय अकामी। त्रिभुवनचंद पापतपचंदन, नपत चरन चंद्रादिक नामी ॥
१ रात्रि दिन ! • निर्मल चंद्रमाके समान । ३ इच्छारहित । ४ पापंरूपी आतापकेलिये चन्द्रमाके समान ।
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तृतीय भाग। तिहुँ जग छई चंद्रिका कीरति, चिहनचंद्र चिंतत शिवगामी।। चंदौं चतुरंचकोरचन्द्रमा, चंद्रवरन चन्द्रप्रभ स्वामी ॥ २ ॥
शांतिनाथ स्तुति । मत्तगयंद सवैया।। शांतिजिनेश जयौ जगतेश, हरै अघताप निशेशकी नाईं। सेक्तपाय सुरासुरराय, नमै सिरनाय महीतल ताई ।। मौलि लगे मनिनील दिपै, प्रभुके चरनौं मलकै वह माई। सूधन पाय-सरोज-सुगंधि, कियों चलि ये अलिकति आई।।
नमिजिनस्तुति । कवित्त मनहर ३१ वर्ण । शोभित प्रियंग-अंग देखे दुख होय मंग,
लाजत अनंग जों दीप भानुभासते। चालब्रह्मचारी उग्रसेनकी कुमारी जादो,
नार्थ ते निकारी जन्मकोंदौ-दुखरासत ।। भीमभक्काननमें आन न सहाय स्वामी,
अहो नेमिनामी तकि भायो तुम तासतें। जैसे कृपाकंद वनजीवनकी वन्द छोरी,
स्यों ही दासकोखलाम कीजे भव पासते ॥४॥ , ५ चन्द्रमाका है चिह्न जिनके ६ । बुद्धिमान पुरुषरूपी चकोरोंको चंद्रमाके समान । ७ चन्द्रमाके समान ! ८ मुकुटमें। ९ छाया । १० चरंण कमलोंकी सुगंधि । ११ प्रियंगुके (कंगनीके) फलके समान श्यामवर्ण है अंग जिनका । १२ हे जादवनाथ १३ दुःखमयी जन्म मरणरूप कीचसे। २४ मुफ या रहित।
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जैनवालवोधक. पार्श्वनाथस्तुति । छप्पय सिंहावलोकन । जनम-जलधि जलजान, जान जन-हंस-मानसर । सरव इन्द्र मिल पान, प्रान जिस धरहिं सीसपर ॥ पर उपकारी बान, वार्न उत्थपइ कुनय-न । गेन-सरोजयन-भान, भानं मम मोह-तिमिर-धन ।। धन वरन-देह दुखदाह-हर, हरखत हेर मयुर-मन । ' मन्मथ-मतंग-हरि पास जिन, जिन विसरहु छिन जगतजन ।।
. वर्द्धमान जिनस्तुति।
___दोहा । दिढ कर्माचल दलपवि, भाव सरोज रविराय । कंचन छवि कर जोर कवि, नमत वीर जिन-पाय ॥ ६ ॥
___सवैया ३१ मात्रा। रहौ दूर अंतरकी महिमा, वाहिन गुन बानन बल कापै । एक हजार आठ लच्छन तेन, तेन कोटि रविकिरनि उथापै ।।
१ संसार समुद्र तरनेको जहाजके समान । २ भव्य रूपी इसको मान सरोवर । ३ आकरके । ४ माज्ञा । ५ स्वभाव ६ वानी ७ उखाड देती है। ८ खोटे नयोंको नयाभासोंको । ९ गण ( मुनिमंडल) रूपी कमल बनको. प्रफुल्लित करने केलिये १० नाश कीजिये । ११ वादलके समान नील रंग वाला देह । १२ पार्श्वनाथ भगवान । १३ मत भूलो।१४ कर्मरूपी. मजबूत पर्वतको नष्ट करने के लिए वज्रके समान १५ भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्य । १६ वीर भगवानके चरन । १७ बाहिरी गुण क्यान करनेकी शक्ति किसमें है । १८ शरीरका तेज।
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तृतीय भाग। सुरपति सहस-यांख-अंजुलिसौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै । तुम विन कौन सपर्थवीर जिन, अगसौं काढि-मोखमें यापै॥
श्रीसिद्धस्तुति मत्त गयंद। ध्यानडुतासनमें भरि इन्धन, झोंक दियो रिपुं रोक निवारी। शोक हरयो भविलोकनको वर, केवलज्ञान मयूखें उधारी ।। लोक अलोक विलोकि भये शिव, जन्मजरामृत पंक पखारी। सिद्धन थोक वसे शिवलोक, तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी।। तीरयनाथ प्रनाम करें, तिनके गुनवर्ननमें बुधि हारी | . मोम गयो गलि {सममार, रह्यो तह व्योम तदाकतिधारी।। लोक-गहीर-नदीपति नीर, गये विर तीर भये अविकारी। सिद्धनयोक वसे शिवलोक, तिन्हें पगयोक त्रिकाल हमारी।।
___साधुस्तुति । कवित मनहर। शीतरितु-जोरै अंग सवही सको तहां, ___तनको न मोर नदि धोरै धीर जे खरे। जैठकी कोरै जहां अंडा चील छोरै पशु,
१ हजार नेत्ररूपी अंजुलियोंसे। २ तृप्त होता है । ३ ध्यानरूपी • अग्निमें । ४ कमरूपी शत्रुओंकी स्वाक्टको निवारण किया। ५ किरणे. ६ कीचड । ७ पाचांढोक प्रणाम । ८ सांवेमें। आकाशमैं । १० संसाररूपी गंभीर समुद्रके पानीको तिरकर । ११ जोरसे । १२ सकोरते हैं । १३ नहि मोडते। १४ नदी के किनारे पर । १५ जेठ महीनेकी लूवोंनी अकोरें । १६/पील पक्षी गौके मारे अंडा छोड देवी हैं।
१४
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जैनवालवोधकपछी छांह लोरै गिरि कोर तप वे धरे । । घोर घन घोरै घटा चहुं ओर डोरै ज्यौं ज्यौं,
चलत हिलोरै त्यौं त्यौं फोरै वल ये अरे । देह नेह तोरै परमाग्थसौं प्रीति जोरै, . ऐसे गुरु और हम हाथ अंजुली करें ॥ १० ॥
दर्शन पाठ.
पुलकंत नयन-चकोर पक्षी, हंसत उर-इन्दीवरो । दुर्बुद्धि चकवी विलखि विछुरी, निविड मिथ्यातम हरयो ।
आनंद-अंधुधि उमगि उछरयो, अखिल आतप निरदले । जिन वदनपूरनचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥१॥
मुझ भाज आतम भयो पावन, आज विधन विनाशियो । संसार सागर नीर निवरयो, अखिल तत्व प्रकाशियो ।। अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये । . दुख जरयो दुर्गति वास निवरयो, आज नव मंगल भये ।।
१ चाहते वा देखते हैं । २ पर्वतके सिखरोंपर । ३ गरजते हैं। ४ डोले ढोलते हैं । ५ झंझा पवनके झोके । ६ प्रकाश करते हैं । ७ हर्षित हुवा । ८ नेत्ररूपी चकोर पक्षी । ९ हृदयरूपी नील कमल । १० कुमति रूपी बकवी । ११ घनघोर । १२ आनंदरूपी समुद्र । १३. समस्त । १४ नए होगये । १५ भगवानका मुखरूपी चंद्रमा। १६ लक्ष्मी । १७ दासी
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तृतीय भाग ।
३
मन हरन मूरति हेरि * प्रभुकी, कौन उपमा लाइये । मम सकल तनके रोम हुलसे, हरष ओरं न पाइये || कल्यान काल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जो सुरनर वने । तिर्हि समयकी आनंद महिमा, कहत क्यों मुखसौं बने ॥
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४
भरनयन निरखे नाथ तुमको, अवर बांछा ना रही । मन भर मनोरथ भये पूरन, रंक मानों निधि लई || अब होहु भव भव भक्ति तुमरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास ' विनवै यही वर मोहि दीजिये ॥ ब्रह्मचारी ज्ञानानंदजीकृत दर्शन |
ܓ
अति पुराय उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया | व तक तुमको विन जाने, दुख पाये निजगुण हाने || पाये अनन्ते दुःख अवतक जगतको निज जानकर । सर्वज्ञभाषित जगत हितकर, धर्म नहि पहिचानकर || भवबन्धकारक सुखप्रहारक, विषयमें सुख मानकर । निजपर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधिसुधा नहि पानकर ॥१॥ तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये । निज ज्ञान कला उर जागी । रुचि पूर्ण स्वहितमें लागी ॥
* देख ।
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जैनवालवोधकरुचिं लगी हितमें आत्मके, सतसंगमें अव मन लगा। मनमें हुई अव भावना, तब भक्तिमें जाऊं रँगा। प्रियंवचनकी हो टेव गुणि गुण गानमें ही चित पगै । शुभशास्त्रका निल हो मनन, मन दोषवादनतें भगै ॥२॥ कब समता उरमें लाकर । द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममतामय भूत भगाकर । मुनिव्रत धारूं वन जाकर ॥ धरकर दिगम्बर रूप कव, अठवीसगुण पालन करूं । दो बीस परिषद सह सदा, शुभधर्म दश धारन करूं ।। तप तपूं द्वादश विध सुखद नित, बन्ध आस्रव परिहरूं । अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कमेरिपुको निजरूं ॥३॥ कब धन्य सुअवसर पाऊं । जवनिजमें ही रम जाऊं। कर्चादिक भेद मिटाऊं । रागादिक दूर भगाऊ ।। कर दूर रागादिक निरन्तर, आत्मको निर्मल करूं । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल लह, चरित क्षायिक प्राचलं ।। आनंद कंद जिनंद्र वन, उपदेशको नित उच्चरूं । आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखदभवसागर तरूं ।
३ पंचामृत अभिषेक।
दोहा।
श्री जिनवर चौवीस वर, कुनय ध्वांतहर मान । अमित वीर्य ग बोध सुख,-युत तिष्ठो इह थान
१॥
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W.
तृतीय भाग ।
नाराच छंद ।
गिरीश सीस पांडुप, सचीश ईस थापियो । महोत्सव अनंदकंदको सबै तहां कियो || हमै सो शक्ति नाहि, व्यक्त देख हेतु प्रापना | यहां करें जिनेंद्रचन्द्रकी, सुबिंब थापना ॥ २ ॥ { पुष्पांनाले क्षेपण करके श्रीवर्णपर जिनबिंवको स्थापना करना ) सुन्दरी छंद ।
कनक मणिमय कुंभ सुहावने, हरि सुछीर भरे प्रति पावने । हम सुवासित नीर यहां भरें । जगत पावन पाय तरें घरें ॥३॥ ( पुष्पांजलि क्षेपण करके वेदीके कोने में चार जल भरे कलश स्थापन करना )
हरिगीता छंद । शुद्धोपयोग समान भ्रमहर, परम सौरभ पावनो । आकृष्ट भँग समूह गंग-समुद्भवो अति भावनो || मणिकनक कुंभ निसुभ किल्विष, विमल शीतल भरि धरौं । श्रम खेद मल निरवार जिन, त्रय धार दे पांयनि परौं ॥४॥ ( शुद्धजलकी तीन धारा जिनर्विवपर छोडना )
अति मधुर जिनधुनि सम सुप्राणित, प्राणिवर्ग स्वभावसौं । बुध चित्त सम हरि चित्त नित्च, सुमिष्ट इष्ट उछावसौं ॥ तत्काल इक्षु सत्य प्राशुक, रत्नकुंभ विषै भरौं । यम त्रास ताप निवार जिन, त्रयधार दे पांयन परौं ॥ ५ ॥
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जनवालवोधक
( इक्षुरसकी धारा देना।) निष्टत क्षिप्त सुवर्णमढ़ दमनीय ज्यौं विधि जैनकी । आयुप्रदा बल बुद्धिदा रक्षा, सु.यों जिय-सैनकी । ततकाल मंथित, क्षीर उत्थित, प्राज्यमणिकारी भरौं । दीजे अतुलवल मोहि जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ॥६॥
(घृतामृतकी धारा देना) शरदन शुभ्र सुहाटक धुति, सुरभि पाचन सोहनो। क्लीवत्वहर बलधरन पूरन, पयसकल मनमोहनो ॥ कृत उष्ण गोथनतें समाहृत, मणि जडित घटमें भरौं । दुर्बल दशा मो मेट जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ॥७॥
(दुग्धकी धारा देना) वर विशद जैनाचार्य ज्यों, मधुराम्ल कर्कशता धरै । शुचिकर रसिक मंथन विमंथन, नेह दोनों अनुसरें। गोदधि सुमणि शृंगार पूरन, लायकर आगे धरौं । दुखदोष कोष निवार जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ।॥ ८॥
( दही रसकी धारा देना)
दोहा। सौषधी मिलाय करि, भरि कंचन भृगार। यजों चरन त्रयधार दे, भवरुज वाधा टार ॥१॥
( सवाषधिकी धारा देना)
इति पंचामृत अभिषेक समाप्त। १ । इक्षुरसके अभावमें पवित्र बूरे या मिश्रीके शर्वतसे धारा देना.
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तृतीय भाग ।
४. सप्त व्यसन ।
व्यसन नाम किसी विषय में अहोरात्र मन ( लवलीन ) रहने का है । मन भी ऐसा रहै जिसका दूसरे विषयोंकी तरफ ध्यान ही न रहै | इस प्रकारसे यदि खोटे कार्यों में मग्न रहै तौ उन्हें कुम्पसन कहते हैं । परंतु अच्छे कार्यों में आजकल बहुत कम लवलीन होते हैं इस कारण प्रचलित भाषामें कुव्यसनको व्यसन शब्दसेही उच्चारण करते वा समझते हैं । ऐसे कुव्यसन सात हैं । जैसे, जुआ खेलना १, मांस खाना २, मदिरा पान करना ३, शिकार खेलना ४, वेश्या गपन ५, परस्त्री सेवन ६, और चोरी करना ७, ये सात व्यसन ( कुव्यसन ) है |
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१ | रुपये पैसे और कौडियों वगैरह से मूठ खेलना तथा हार जीत पर दृष्टि रखते हुये शर्च लगाकर कोई भी काम करना अफीम नीलाम के प्रांक पर सर्च लगाना व रुपये रखना सो जूआ कहलाता है। जुआ खेलनेवालेको जुवारी कहते हैं । जुवारी लोगोंका कोई विश्वास नहिंकरता क्योंकि जूएमें हार होनेसे चोरी बेईमानी करनी पडती है । जुनारीका सब जगह अपमान होता है । जातिके लोग उसकी निंदा करते हैं और राजा दंड देता है । तासगंजफा खेलना भी जूएमें समझना चाहिये ।
२ | जंगम [ त्रस ] जीवोंको मारकर अथवा मरे हुये :
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१२ ।
जैनवालबोधक'जीवोंका कलेवर खाना सो मांसखाना कहलाता है। मांस खानेवाले हिंसक निर्दयी कहलाते हैं।
३। शराब [ पदिग] भंग, चरस, चा, गांजा, बगेरह नशेवाली चीजोंका सेवन करना सो मदिरापान कहाता है। इनके सेवन करनेवाले शरात्री मंगडी गंजेडी नसेवाज कहलाते हैं । शराब पीनेवालेको धर्म कर्म वा भले बुरेका कुछ भी विचार नहिं रहता । उनका ज्ञान नष्ट होजाता है और तो क्या घरके लोगोंतकका उनपर विश्वास नहिं होता।
४ । जंगलके रीछ, वाघ, सिंह, सूअर हिरन वगेरह स्वछंद विचरनेवाले तया उडते हुये छोटे बडे समस्त प्रकारके पक्षियों तथा और जीवोंको बंदुक वीर वगेरहसे मारना सो शिकार खेलना कहाता है । इस बुरे काम करनेवालेको महान् पापका बंध होता है। इन पापियोंके हाथसें बंदूक तीर कमान देखतेही जंगलके जानवर भयभीत होजाते हैं।
५ वेश्या (बाजारी औरत ) से स्मना उसके घर जाना उसका नृत्य देखना वा किसी प्रकारका संबंध रखना -सो वेश्यागमन है। वैश्यालंपटी मनुष्यका कोई विश्वास नहिं करता, सब कोई उसे रंडीवाज वगेरह कहते हैं।
६ । अपनी स्त्री अर्थात् जिसके साथ धर्मानुकूल 'विवाह किया है उसके सिवाय अन्यस्त्रियोंके साथ व्यभि. चार सेवना करना सो परस्त्रीगमन व्यसन है। अपनी स्त्रीके सिवाय अन्य छोटी स्त्री तो बेटीके समान, वरावरकी बहन
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तृतीय भाग। के समान, पडी माताके समान होती है। जिसने अपनी स्त्रीके. सिवाय अन्यस्त्रीके साथ विषय सेवन किया उसने मा, बेटी, वहनके साथ व्यभिचार किया समझा जाता है।
७। प्रमाद या लोभ के वशीभूत हो बिना दी हुई, किसीकी गिरी हुई, पढी हुई, रखी हुई चीजको उठालेना मथवा उठाकर दुमरेको दे देना सो चोरी है। जिसकी चीज चौरीमें चली जाती है उसको बड़ा कष्ट होता है उसके प्राण पीडे जाते हैं। जो चौरी करता है उसके प्राण भी बडे मलीन होते हैं, भयभीत रहता है, राजाको खवर हो जाती है तो वह वडा भारी दंड देता है, चोरको सब कोई घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। इसलिये
... दोहा। जुआ खेल अरु मांस मद, वेश्या विसन शिकार । चौरी पररमनीरमन, सातों विसन निवार ।।
५। सागरदत्त और सोमक। किसी समय कौशांबी नगरीमें जयपाल नामके राजा हो गये हैं। उसी नगरमें एक समुद्रदत्त सेठ था उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता और पुत्रका नाम सागरदत्त था। वह बहुत ही सुंदर था। उसकी उपर चार वर्षकी थी । उसे देखकर सवका चिच उसे खिलानेके लिये व्यग्र हो उठताः
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जैनवालबोधकथा । समुद्र दत्तका एक गोपायन नामका पड़ोसी था। और पूर्व जन्मके पापसे वह दरिद्र था। उसकी स्त्रीका नाम सोमा और पुत्रका नाम सोमक था। सोमक धीरे २ बढकर अपनी तोतली वोलीसे माता पिताको आनंदित करने लगा और वह तीन वर्षका होगया था। ___ एक दिन गोपायनके घर पर सागरदच और सोमक अपना वालसुलभ खेल खेल रहे थे। सागरदत्तको उसकी मूर्ख माताने बहुकीमती गहने पहरा दिये थे सो वह गहने पहिरे ही गोपायनके घर खेलनेको चला गया था। बालकों के खेलते समय गोपायन घरमें आया । सागरदत्तको गहने पहिरे देख उसके मनमें पापका वाप लोम जाग उठा । उसने घरका सदर दरवाजा बंद करके एक कमरेमें सागरदत्तको बुलाया, उसके साथ २ सोमक भी चला गया था। कमरेके भीतर आ जाने पर गोपायनने सागरदचको वडी निर्दयता के साथ छुरीसे गला काट कर उसके सब गहने उतार कर एक गठेमें गाड़ दिया। ___ कई दिनों तक बराबर कोशिश करने पर भी जब सागरदचके माता पिताको अपने बच्चेका कुछ भी पता न मिला तो उन्होंने जान लिया-किसी पापीने गहनों के लोमसे उसे मार डाला है। उन्हें अपने प्रिय बच्चेकी मृत्युसे जो कुछ दुःख
और बालकको गहने पहरानेकी भूलका पश्चाताप हुआ उसे वे ही लोग अनुभव कर सकते हैं जिनको कभी ऐसा देवी
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तृतीय भाग। प्रसंग आया हो । आखिर वेचारे. अपना मन मसोस कर अपनी भूलपर पश्चात्ताप करते हुए रह गए। इसके सिवाय और करते भी क्या ?
कुछ दिन बीत जाने पर एक दिन बालक सोमक समुद्रदत्तके घरके आंगनमें खेल रहा था । तव समुद्रदत्वाके मन में न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई सो उसने सोमकको बडे प्यार से अपने पास बुलाकर पूछा-मैया! वतला तौ, तेरा साथी सागरदच कहां गया है ? तूने उसे देखा है ?
सोमक वालक था और साथ ही बाल स्वभावके अनुसार पवित्रहदयी था, इसलिये उसने झटसे कह दिया कि वह तो मेरे घरमें एक गढ़ेमें गडा हुआ है । बेचारी समुद्रदत्ता अपने बच्चेकी दुर्दशा सुनते ही धडामसे पृथिवी पर गिर पडी।इतनेमें समुद्रदत्त भी वहीं आ पहुंचा । उसने उसे होशमें लाकर उसके मूर्छित हो जानेका कारण पूछा । समुद्रदत्ताने सोमकका कहा हुवा हाल उसे सुना दिया । समुद्रदत्तने उसी समय दोडते हुये जाकर यह खवर पुलिसको दी। पुलिसने आकर मृत वच्चेकी सही हुई लाससहित गोपायनको गिरफतार किया। मुकद्दमा राजाके पास पहुंचने पर राजाने गोपायनके पापानुपार उसे फांसीकी सजा दी। • पापी लोग कितना ही छुपकर पाप क्यों न करें परन्तु वह छुपता नहीं, कभी न कमी प्रगट हो ही जाता है और उसका फल इसलोक और परलोकमें अनंत दुःख भोगने
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जैनवालवोधकपडते हैं। इसलिए सुख चाहने वाले पुरुषोंको क्रोध मान पाया लोभादि प्रमादोंके वशीभूत हो हिंसा, चोरी-मूठ, कुशील आदि पापोंको छोडकर अहिंसादि पांच अणुव्रत धारण करना चाहिये।
इस कहानीसे बालकोंको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि जवतक कि वे अपने प्राय गहनों की रक्षा करने में समर्थन हो जांय तबतक उन्हें कोई भी गहना नई पहाना चाहिये । वालकोंका रात दिन मन लगाकर विद्या पढना ही उत्तम गहना है।
६ दूध.
जन्मसे लेकर वरस डेढ वर्ष तक वालकोंको एक मात्र दूध हीका सहारा होता है । दूध न मिले तो उनका जीना कठिन हो जाय । सबसे बढकर माताजा दूध होता है । यदि माताके कमजोर होने पर माताका दूध न मिले तो गाय या वकरीका दूध भी पिलाया जाता है । वडे होने पर भैंस का दूध भी पिया जाता है परन्तु गायके दूधकी बराबर निदोष गुणकारक दूध भैसका नहिं होता।
ताजा दूध सबसे अच्छा भोजन है और देर तक रक्खे रहनेसे अर्थात् एक मुहूर्तके (४८ मिनिटके ) पश्चात वह बिगड जाता है उसमें चलते फिरते त्रसजीव पैदा हो जाते हैं ऐसा दूध गरम करके पीने पर भी शरीरको रोगी
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तृतीय भाग ।
बनाता है इस कारण दोहे पीछे या तो उसी वक्त गरम गरम ताजा दूध मिश्री या बुरा डालकर छानके पी लेना चाहिये या फिर तुरन्त ही ( ४८ मिनटके भीतर २) गर्म कर लेना चाहिये ! गरम दूध भी देश्तक रक्खा रहने पर ठंडा होकर बिगड़ जाता है । बहुत देरतक दूध रखना हो तो सिगडी में कोयलेकी मंद २ आंच पर रख देना चाहिए । 'परन्तु याद रहे कि बहुत देर ओटानेसे दूध गाढ़ा हो जाता है ! गाढा होने से वह दूध देरमें पचता है, कब्ज करता है । कमजोर बालक या वृद्धको वह दूध प्रायः नहीं पचता इस . कारण जहांतक वने ताजा दूध ही दो चार उफानदेकर पिया बावे |
गाय साफ सुथरी जंगहमें बांधी जानी चाहिये । जंगलमें छोड़कर घास चराना चाहिये । दूध दुहते समय भी सफाई रखना चाहिए। दुहने से पहिले गायके थनोंको साफ पानी से घोलेना चाहिये. जहां ऐसी सफाई न हो वहांका दुध विना Beta sarfi नहीं पीना चाहिये ।
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मोलका (बाजारका ) दूध कदापि नहि पीना चाहिये वह बहुत ही हानिकारक होता है । बहुत देरका पडा हुआ
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खराब दूध होता है । दूधमें ग्वाले लोग वा हलवाई लोग
अपवित्र वेछाना पानी पिलानेके सिवाय आरारूट वगेरह 1. पदार्थ मिलाकर गाढा करके वेचते हैं ऐसा दूध कदापि स्वास्थ्यकर नहि होता । जहां तक बने समस्त गृहस्थोंको
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जैनवालयोधक-... और सब खर्च घगकर कमसे कम एक एक गाव -अपने घरमें ही पाल कर उसके दूध दही मठेसे - स्वास्थ्यकर स्वादिष्ट भोजन बनाकर खाना चाहिये। . .
दूधसे अनेक तरहकी खानेकी चीजें बनती है । दधको उबालकर मलाई रवड़ी खोथा बनाते हैं। चावल डालकर खीर बनाते हैं । खोएसे बरफी पेडा कलाकंद वगेरह अनेक प्रकारकी मिठाइये वनायी जाती हैं। श्रोताये दूधमें पीने लायक ठंडा हो जाने पर दही छाछ वगेरहकी खटाई [जामन ] डालकर दही और दहीमें पानी मिलाकर रईसे विलोकर मक्खन निकालकर पी बनाते हैं। मक्खन निकालने पर दहीका मठा बन जाता है । मक्खन निकाला हुआ मठा या छाछ सवेरेके भोजनके पश्चात् नित्य पीनेसे बडा ही पाचक वा गुणकारी होता है। दूध दिनके अंतमें पीना विशेष लाभदायक है।
७. जिनेंद्र गर्भमंगल. पणविवि पंचपरम गुरु, गुरु जिनसासनो । सकल सिद्धिदातार सुविधन विनाशनो ॥ सारद अरु गुरु गौतम, सुमति प्रकासनो।
मंगलकर चउसंघहि, पाप पणासनो ॥ १ नमस्कार करता हूं २ महान् ३ मुनि, अजिंका, श्रावक, श्राविकाका समूह।
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तृतीय भाग । .
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पाप प्राणसन गुगाहि गरेवा, दोष अष्टादश रह्यो । . घरि ध्यान कर्म विनाश केवल शन अविचल जिन लो || प्रभु पंच कल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावही । त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावही ॥ १ ॥ जाके गर्भ कल्याणके, धनपति भाइयो । अवधि ज्ञानपरवान, सुइंद्र पैठाइयो । रचिनव वारह जोजन, नयैरि सुहावनी । कनक रण मणिमंडित, मंदिर अति बनी ॥ अति वनी पौरि पगार परिखा, सुवन उपवन सोहए । नर नारि सुंदर चतुर भेखसु, देख जन मन मोहए || तह जनक गृह छह मास पयमहि, रतनधारा वरसियो । पुनि रुचिंक वासिनि जैन नि सेवा, करहिं सर्वविधि हरसियो | सुर कुंजर पम कुंजर, धवल धुरंधरो । केहरि केसर शोभित, नखसिख सुंदरी ॥ कमला कलशन्दवन, दुइ दाम सुहावनी । रवि शशि मंडलमधुर मीनजुग पावनी ||
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पावनी कनकघट जुगम पूग्न, कमल कलित सरोवरो । कल्लोलमालाकुलित सागर, सिंघ पीठ मनोहरो !!
१ गुणोंसे भारी २ कुवेर ३ अवधि ज्ञान के द्वारा ४ इंद्रका भेजा हुवा ५ नगरी ६ रत्न ७ कोट प्राकार ८ साई ९ रुचिक पर्वतपर रहने वाली देवियां १० माताकी सेवा 1
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जैनबालबोधकरमणीक अमर विमान फणिपति, भुगन भुवि छवि छाजई। रुचि रत्नरासि दिपंत दहनसु, तेज पुंज विराजई ॥ ३ ॥
ये सखि सोरह सुपने सूती सयनही । देखे माय मनोहर, पच्छिम रयनही ।। उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधिःप्रकासियो । त्रिभुवन पति सुत होसी, फल तिहँ भासियो ।। भासियो फल तिहिं चिचदंपति, परम आनंदित भये । छह मासपरि नवमास बीते, रयण दिन सुखसों गये ।। गर्भावतार महँत महिमा, सुनत सब सुख पावही । मणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावही ॥४॥
, सारार्थ-जिस समय तीर्थकर भगवान अपनी माताके गर्भ में आते हैं उससे छह महीने पहिले ही प्रथमस्वर्गका इंद्र कुवेरको भेजता है कुवेर भगवान के जन्म होनेवाली नगरीमें आकर उस नगरीको स्त्रमय मंदिर, वन उपवन वगेरेहकी शोमासे सुंदर रचना कर देता, जिसको देखकर सवको पानंद होता है। उसी समयसे नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगती है और रुचिक पर्वतपर रहनेवाली देवियां माताको नाना प्रकारसे सेवा करने लगती हैं। छह महीने बाद माताको रात्रिके पिछले भाग १६ स्वप्न दिखाई देते हैं । माता सवेरे ही उठकर अपने स्वामीको सब सुपनों को सुनाकर फल पूछती है तब स्वामी उनका फल कहते हैं-तेरे गर्भसे तीन लोकके स्वामी
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तृतीय भाग ।। तीर्थंकर भगवान जन्म लेंगे। यह बात जानकर माता पिता दोनो ही हर्षायमान होते हैं . और भगवानके जन्म समय: पर्यंत बडे आनंदसे समय व्यतीत करते हैं। . .
श्रावकोंके नित्य करनेके षट् कर्म । देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने दिने ॥
अर्थ-प्रतिदिन जिनेन्द्र देवकी पूजा करना, गुरुकी उपासना करना, स्वाध्याय करना, यथाशक्ति कुछ न कुछ संयम पालना, कुछ न कुछ तप धारण करना और चार प्रकारके दानोंमेंसे कोई न कोई दान करना ये गृहस्थियों के 'ष्ट कर्म हैं ।। १ ॥
देवपूजा-प्रतिदिन मंदिरजीमें जाकर अष्टद्रव्यसे पूजा, करना । यदि विद्यार्थियोंको पढने के कारण विशेष समय नहि मिले तो, अक्षत, लौंग वगेरह कोई भी एक द्रव्य लेकर ही नित्य नियम पूजा बोलकर आठों द्रव्योंकी जगह वह एक द्रव्य ही चढाकर पूजा कर लेना अथवा एक दो चार पांच अर्घही चढा देना. अथवा कमसे कप पाठों द्रव्योंमें से कोई एक द्रव्य लेकर उस द्रव्यको चढानेका पद्य व मंत्र बोलकर. एकही द्रव्य चढा देना, तथा भगवानकी कोई भी स्तुति बोल देना सो देवपूना है।
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जैनवालवोधकगुरूपास्ति-निग्रंथ गुरुकी उपासना कहिये सेवा पूजा संगति करना परन्तु निग्रंथगुरुंकी प्राप्ति इस पंचम काल में होना कठिन साध्य है इसलिये सम्यग्दृष्टि ज्ञानवान विद्वान अहलक तुल्लक वा ब्रह्मचारी त्यागीको प्रणाम वन्दना करके उनके पास बैठना उनका उपदेश सुनना । यदि अंहलक वगेरहकी प्राप्ति न हो तो शास्त्र यांचनेवाले विशेष ज्ञानी पंडितकी सेवामें बैठना तथा कोई भी उपदेश सुनना । तथा गुरुयोंकी स्तुति स्तोत्रोंका पाठ करना सो भी गुरूपास्ति कहानी है। - स्वाध्यायफरना-कोई भी शास्त्रजी लेकर चौकीपर विरानमान करके विनयके साथ समझ समझकर वांचना । तथा बांचना नहिं आवै तौ कोई अन्य भाई स्वाध्याय करते हों उनके पास बैठकर सुनना तथा प्रश्नोत्तर चर्चा करना, दूसंरोके प्रश्नोत्तर चर्चा सुनना सो स्वाध्याय है। तथा विद्याथियोंको यदि पृथक शास्त्रके स्वाध्याय करनेको समय नहि मिल तो अपने पड़े हुये धर्मशास्त्र के पाठोंको फेरना या उनका अर्थ विचार करना यह भी नित्य स्वाध्यायमें गिना जा सकता है। - संयम करना-पांच इन्द्रियों और मनको वामें करके पंचेंद्रियोंके विषय सेवनमें उदासीनता धारण करना संयम है। तथा सब नहिं बने तो किसी एक दो विषयमें नित्य उदासीनता रखना भी संयम है । जैसे-सामायिकके बाद
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तृतीय भाग ! .. २६ नियम करले कि भोजन पान वस्त्राभूषणादिक मोंग उपभागों में विलासिता । चाह ) नहिं करना। .
तप-शरीर और कषायों को कुश करनेके लिये जो क्रिया की जाय उसको तप कहते हैं। जैसे आज मैं एक ही वार भोजन करूंगा, अथवा एक या दो अथवा अमुक ही रस खाऊंगा, या उपबाम करूंगा । अथवा आज मैं भूख से प्राधा या चौथाई भोजन कम करूंगा या सापायिकके सपय कामोत्सर्ग करूंगा या वियों वा गुरु जनोंकी इतनी देर तक सेवा करूंगा इत्यादि रोज नियम करनासो तप है।
दान-अभयदान, माहार दान, विद्या दान, वा औषधि दान ये ४ प्रकारके दान है। मुनि, अहलक तुलक, ब्रह्मचारी आदि त्यागी पात्रोंको नवधा भक्ति भादि प्रादरपूर्वक आहार या औषधि या शास्त्रोंका दान करना । यदि इनकी नित्य प्राप्ति न हो तो किसी भी धर्मात्मा जैनी भाईको भा. दरपूर्वक प्रत्युपकारकी वांछा नहिं रखके जिमाकर भोजन करना अथवा करुणा करके गरीव भिखारियोंको कुछ भी खानेको देकर भोजन करना अथवा कमसे कम भोजन करनेसे पहिले वा पीछे कुछ भोजन अलग कर देना चा छोड देना जो कि कुत्ते गाय बैलोंको दिया जा सके। इसीप्रकार औषधिका सबको या दो चार जनोंको नित्य दान, करना । वा किसी असमय विद्यार्थीको पुस्तक देना या.! किसीको दया करके रोज रोज अढा देना, तथा कोई।
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जैनवालवोधकमनुष्य पशु पक्षी भयभीत हो जानसे मारे जाते हों तौ तन मन धनसे उनके प्राण बचा देना वा निर्भय · कर देना तथा आजकल जगह २ सेवा समितिये स्थापन हुई हैं उनमें सभासद होकर गरीब रोगी असमर्थ असहाय जीवोंको तन मनसे.सहायता करना इत्यादि अनेक काम अभयदानके हैं सो इन चारों प्रकारों के दानोंमेंसे कुछ न कुछ नित्य प्रति दान करना सो गृहस्थीका नित्य दान कर्म है।
९ सत्यवादी चौर. बहुत प्राचीन समयमें उज्जैन नगरके निकटवर्ती बनमें एक समय मुनि महाराज पधारे । उनकी प्रशंसा सुन का नगरके मायः सभी लोग दर्शनार्थ पाये, उन सवको मुनि महाराजने धर्मोपदेश देकर अनेकोंको गृहस्थ धर्म अनेकोंको मुनिधर्म ग्रहण कराया। अनेकोंने हिंसा चोरी झूठ कुशील आदि पापोंसे बचे रहनेकी प्रतिज्ञायें ली । किसीने सप्तव्यसन व मद्य मांस मधु आदिका.त्याग किया। जब सत्र जने मुनि महाराजका धर्मोपदेश सुनकर यथोचित त्याग प्रहण करके चले गये तब एकांत पाकर एक चोर भी मुनि
. .. १ प्राचीन कालसे इसमें उच्च प्रकृतिके जैन लोग ही रहते वा राजा होते आये हैं इसी कारण इसका नाम उत्+जैन = उज्जैन पडा है भाजकल इसे उज्जैनी-उज्जयनी उजीण कहते हैं यह ग्वालियर राज्यके मालवा प्रांतमें ऐतिहसिक नगर है। .
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तृतीय भाग। महाराजके पास हाथ जोड. नमस्कार करके कहने लगा कि महाराज श्रापने सबको धर्मोपदेश देकर सबको कल्याणकारक त्याग-ग्रहण कराया सो मुझे भी कोई उपदेश दीजिये अथवा कोई प्रतिज्ञा दीजिये कि जिससे मेरा भी कल्याण हो। .
. मुनि महाराजने कहा कि तू कौन है। तेरी आजीविका (धंदा ) क्या है ? चौरंने कहा कि महाराज ! मैं चोर हूं चोरी करना ही मेरी आजीविका है। तब मुनि महाराजने कहा कि-अच्छा हम चौरी छोडनेको (जो कि महा अ. कल्याणकारी है ) तौ नहिं कहते परन्तु तुम झूठ बोलने का त्याग कर दो। . . . यह सुनकर चौरने कहा कि-महाराज यह व्रत तो में पाल सकता हूं सो चाहे जो हो जाय में आजसे कभी झूठ नहिं वोलूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा करकें मुनि महाराजको नमस्कार, करके चला गया। संध्या होने पर वह चौर अंधेरी रातमें राजाकी घडशालामेंसे एक घोड़ा चुरानेकी इच्छासे गया । वहां दरवाजे पर जाते ही द्वारपालने पूछा कि तू कौन है ? चौरने झूठ बोलना छोड दिया था अतः लाचार होकर कहना पड़ा कि " मैं चोर हूं " । द्वारपालने ठहा समझ कुछ नहिं कहा, आगे जाने दिया । भागे जाने पर किसीने फिर पूछा कि तू कौन है ? तब चौरने भी कह दिया कि 'में चोर हूं' पूछनेवालेने. समझा कि यहींका
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जैनपालबोधककोई भादमी है सो ठट्ठा से वोलता है इस कारण कुछ भी किसीने शक नहीं किया। जब घुटशालामें जाकर एक लाल घोडेको खोलने लगा तो फिर किसीने पूछा किकौन है ? तब चौरने फिर वही उत्तर दिया कि “ मैं चौर हूं" उसने फिर पूछा कि तू क्या करता है ? चोरने कहा कि घोडा चुरा कर ले जाता हूं। पूछनेवालेने समझा कि चरवादार (सहीस ) होगा इसलिये कुछ विशेष ध्यान नहिं दिया। फिर वह चौर घोडेपर चहकर चला तौ दरवाजे पर तथा रास्तेमें कई जनोंने पूछा कि “कौन है" तौ सवका उत्तर यही देता गया कि "मैं चौर हूं" कहा जाता है पूछा उसे कहता गया कि घोडा चुराकर लेजाता हूं इसी प्रकार शहरमें कई जनोंने पूछा परन्तु किसीने भी चौरका संदेह नहिं किया कि यह सचमुच चौर ही है। क्योंकि सक्ने यही समझा कि-नदी पर पानी पिलानेको लेजाता है।
चौरने जब देखा कि आज तो सच बोलनेसे बडा ही लाभ हुवा कि मुझे किसीने भी चोर नहीं समझा-चाहे. जो कुछ हो जाय कदापि झूठ नहिं बोलूंगा इसमकार प्रतिज्ञा को फिर भी दृढतासे धारण करके घोडेको एक निर्जन वनमें ले जाकर छिपाकर वांध दिया और आप रास्ते पर एक बड़के पेडके नीचे सोगया । इधर थोडी देरके वाद सहीस दाना देनेको लाया तौ घुडशालमें घोडा नहि देखा इधर उघर पूछताछ करने पर मालूम हुवा कि वह वास्तव में चौर
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तृतीय माग। हो या और राजाके चढनेका बहुमूल्य घोडा चुराकर ले नया। ___- कोतवालको खबर करने पर कोतवालने उसी वक्त कई घुडसवार चारों तरफ दोडाये । कई घुडसवारोंने उसी बड़तले उस चौरको सोया देख जगाकर इसमकार पूछा
राजपुरुष-अरे उठ, तू कौन है ? चौर- ( इडवडाकर उठा और वोला) में चौर । राजपुरुष-तूने क्या चौरी की ? चौर-आज तो एक घोडाचुराया है। राजपुरुष-किसका घोडा चुराया ? चौर-यहांके गजाका। राजपुरुष-घोडाका रंग कैसा है ? चौर-लाल है। राजपुरुष-वह बोड़ा अब कहां है ?
चौर- यहां दक्दनकी तरफ एक कोश पर आमका पुराना पेड है उसीसे बंधा है।
यह सुनकर कई घुड सवार दौडे और घोडा खोलकर ले पाये परन्तु उसे देखकर सबही जने आश्चर्य में हो गये क्योंकि उस घोडेका रंग उस समय नीला या। . .
राजपुरुषोंने चौरसे कहा कि- क्यों वे ! तू तो लाक रंगका घोडा बताता था यह नौ नीले रंगका घोडा है ? चौर ने कहा कि महाराज मैंने भान ही मुनि महाराज पाम झूठ
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जैनबालबोधक
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चोलना छोड दिया इसलिये में सच २ कहता हूं कि मैं राजाकी घुडशालामेंसे लाल रंगका घोड़ा ही चुराकर लाया था' । इतने ही में चौर पर फूलोंकी वर्षा होने लगी और आकाशवाणी (देववाणी हुई कि " वेशक व सच्चा है धन्य है तेरे सत्य व्रतको जो तुने अपने ऊपर मद्दा विपद आने पर भी रंचमात्र असत्य भाषण नहिं किया | घोडेका रंग तो हमने पलट दिया हूँ" ।
इस प्रकारकी आकाशवाणी सुनकर राजपुरुष चोरको राजाके पास ले गये और प्राकाशवाणीका सव हाल कह सुनाया तो राजाने उसके सत्य व्रत पर प्रसन्न होकर वह अपराध क्षमा कर दिया और कई लाख रुपयोंक ग्रामादि देकर अपनी पुत्रीके साय विवाह करलेने को भी कहा । चोरने कहा कि " महाराज आपने ये सब इनाम तो दिये परंतु में अभी ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि जिस व्रतक प्रभावसे एकही दिनमें ऐसा ऐश्वर्य मिला तो सबसे पहिले उन मुनि महाराजके पास जाकर और भी कोई व्रत ग्रहण करूंगा" इस प्रकार कहकर वह मुनि महाराजके पास गया और उनके धर्मोपदेशसे हिंसा चौरी फूड कुशील व परिवह इन पांचों पापोंका सर्वेया त्याग करके पांच महाव्रत धारण कर मुनि होगया और महा तपस्या करके स्वर्गको गया ।
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तृतीय भाग १०. जिनेंद्र जन्म मंगल. मतिसुत अवधि विराजित, जिन जव जनमियो। तिहूं लोक भयो लोमित, सुरगन भरमियो॥ कल्पवासिघर घंट अनाहद, वजियो। .
ज्योतिष घर हरि नाद सहस-गल गजियो। गजियो सहजहि संख भावन-भुवन शब्द सुहावने । वितरनिलय पटपटह वजहि, कहत महिमा क्यों बने । कंपित सुरासन अवधिरल, जिनजन्म निहचै जानियो। धनराज तव गजराज मायामयी निर्मय आनियो ॥१॥
जोजन लाख गयंद वदन सौ निरयये । • वदन वदन बसु दंत दंत सर संठये ॥
सर सर सौपण वीस कमलिनी छाजही। कमलिनी कमलिनी कमल पचीस विरानही ।। राजही कमलिनी कमल अठोचर सौ मनोहर दल बने । दल दलहि अपछर नहि नवरस हाव भाव सुहावने ॥ तहँ कनक किंकणि वर विचिच सु अमर मंडप सोहए। घनघंटचमर धुजा पनाका, देख त्रिभुवन मोहए ॥२॥ तिह करि हरि, चढि पायउ सुर पर वारियो । पुरहि प्रदच्छणदेतसु जिन जयकारियो । गुप्त जाय जिन जननिहि, सुखनिद्रा रची। मायापई शिशु राखि तौ जिन भान्यो सची ॥
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जनवालवोधकधान्यो सची जिनरूप.निरखत नयन त्रिपति न हूजिये। तब परम हरषित हृदय हरिने, सहस लोचन पूजिये । पुनि करि प्रणाम सु प्रथम इंद्र उछंग धरि प्रभु लीनऊ। ईशान इंद्र सुचंद्र छवि सिर छन प्रभुके दीनऊ ॥३॥
सनत कुमार महेंद्र, चमर दुइ दारहीं। शेष शक्र जयकार, सवद उच्चारहीं। उच्छव सहित चतुरविध, सुर हरषित भये ।
जोजन सहस निन्यानवे, गगन उलंघि गये ।। लंघि गये सुर गिरि जहाँ पांडक, वन विचित्र विराजहीं। 'पांडक शिला तहँ अर्द्ध चंद्र, समान मणि छवि छानहीं। जोजन पचास विशाल दुगुणी याम वसु ऊंची गनी। वर अष्ट मंगल कनक लसनी, सिंह पीठ सुहावनी ॥४॥
रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो। थाप्यो पूरब मुख तह, प्रभु कमलासनो। वाजहिं तालमृदंग, वेणु वीणा बने ।
दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु वाजने । बाजने वाजहिं सचीव मिलि, धवल मंगल गावहीं। पुनि काहि नृत्य सुरांगा सव, देव कौतुक धावहीं ॥ भरि छीर सागर जल जुहायहि हाथ सुश गिरि ल्यावहीं। सौधर्म अरु ईसान इन्द्रसु, फलत ले प्रभु न्हावहीं ॥५॥ बदन-उदर-अवगाह, कलसगत जानिये । एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ॥
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तृतीय भाग। सहस अठोतर कलशा प्रभुके शिर ढरे। पुनि सिंगार प्रमुख आचार सर्व करे ।। करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव आनि पुनि मातहि दयो। धनपतिहि-सेवा राखि सुरपति आप सुरलोकहिंगयो । जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भनि 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर जगतमंगल गावहीं ॥६॥
भावार्थ-जिससमयं मतिज्ञान तबान और अवधिजातसहित श्रीतीर्थकर भगवानका जन्म होता है उससमय तीनों लोकों में आनंदमय क्षोभ हो जाता है उस समय प्रथम स्वर्गके इंद्रका शासन कंपायमान होता है जिससे वह जान लेता है कि भगवानका जन्म हुवा. उसी समय भवनवासी व्यतर ज्योतिषियों के घरोंपर भी घंटा वाजे वगेरहका शब्द हो जानेसे उन सबको भी मालुम हो जाता है कि भगवानका जन्म हुवा है। उसी समय कुवेर लाख योजनका मायामयी हाथी बनाकर लाता है उस हाथीपर इंद्र अपने परिवार सहित चढकर समात देवोंके साथ जय जय शन्द करते हुये नगरकी प्रदक्षिणा देता है । इंद्राणी प्रति घरमें जा कर भगवानकी माताको नो मायामयी निद्रासे सुला देती है और वहां पर 'दूसरा मायाश्यी वालक रख कर भगवान् को बाहर ले आती है। इंद्रजव भगवानका रूप देखते देखते तम नहिं होता
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जैनवालबोधकहै नौ क्रमसे एक हजार नेत्र बना लेता है। पहिले स्वर्गका सौधर्म इंद्र नौ भगवानको प्रणाम करके गोदमें लेलेता है और दूसरे स्वर्गका ईशान इंद्र भगवानपर छत्र लगादेता है तीसरे चौथे स्वर्गके दो इंद्र दोनों तरफसे चवर ढोलते हैं। और शेष के समस्त इंद्र जय जय शन्द करते हैं। इसप्रकार चारोंपकारके देव परम हर्षित होकर भगवानको उस ऐरावत हाथीपर विराजमान करके सुमेरु पर्वतपर ले जाते हैं वहां की अद्ध चंद्राकार पांडुक शिलापर रक्खे हुये रत्नमयी सिंहासनपर विराजमान करते हैं उस समय अनेकप्रकारके बाजे बजाते हैं इंद्राणियां मंगल गाती हैं देवांगनायें नृत्य करती हैं । देवगण हाथोंहाय क्षीर समुद्रसे एक हजार पाठ कलश भर कर लाते हैं और सौधर्म और ईशान दोनों इंद्र भगवानका अभिषेक करते हैं । पश्चात् इंद्राणी भगवानको वस्त्राभूषण पहनाती है और फिर उसी प्रकार महोत्सव करते हुये लोटते हैं। घर आकर भगवानको माताके हायमें सौंप देते हैं और तांडव नृत्य करते हैं. फिर माताकी सेवामें कुवेरको छोडकर सव देव अपने २ स्थानको चले जाते हैं।
११. पंचपरमेष्ठीके मूल गुण ।
परमेष्ठी उसे कहते हैं जो परम पदमें स्थित हो। परमेष्ठी पांच हैं-१ अरहंत २ सिद्ध ३ प्राचार्य ४ उपाध्याय और ५ सर्व साधु ..
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तृतीय भाग।
अरहंतपरमेष्ठीके गुण । अरहंत उन्हे कहते हैं जिन्होंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अंतराय ये चार वातिया कर्म नष्ट होगये हों मौर जिनमें नीचे लिखे ४६ गुण हों और अठारह दोष न हों।
दोहा। चौतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनंत चतुष्टय गुण:सहित, ये छियालीसों पाठ॥१॥
अर्थात ३४ अतिशय ८ प्रतिहार्य और ४ अनंत चतुध्य ये सब ४६ गुण होते हैं । चौतीस अतिशयोंमेंसे दश अतिशय तौ जन्मके होते हैं, दश केवलज्ञान होने पर होते हैं और चौदह अतिशय भी केवलज्ञान हुये बाद होते हैं परंतु देवोंके द्वारा किये हुये होते हैं। .
नन्मके दश भतिशय । अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पसेव निहार । प्रिय हित वचन अतुल्य वल, रुधिर श्वेत आकार ।। लच्छन सहस रु पाठ तन , समचतुष्क संठान । वज्र वृषम नाराच जुत, ये जन्मत दश जान ॥३॥
अत्यंत सुन्दर शरीर.१, अत्यन्त सुगन्धमय शरीर २, • पसेवरहित शरीर ३, मलमूत्ररहित शरीर ४, हित मित प्रिय
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३४
जैनपालवोधकवचन बोलना ५, अतुल्य बल ६, धके समान सफेद रुधिर ७, शरीरमें एक हजार आठ लक्षण ८,समचतुरस्र संस्थान ९, और वज्र वृषभनाराच संहनन ये दश अतिशय अरहन्त भग. बानके जन्मसे ही होते हैं।
केवलज्ञानके दश अतिशय । जोजन शत इकमें सुमिख, गगनगमन मुख चार । नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाही कवलाहार ॥४॥ सब विद्या ईसरपनों, नाहि वढे नखकेश । अनमिष दृग छायारहित, दश केवल के वेश ॥ ५॥
एकसौ योजनमें सुमितता अर्थात् जिस स्थानमें केवली रहैं या जांय उनके चारों तरफ सौ योजनमें सुमित होगा अकाल नहिं होगा १ आकाशमें गमन होना २ भगवानके चारों ओरमुख दीखना३ अदयाका सौ योजनमें (हिंसाका) अभाव ४ किसीको उपसर्ग होनेका अभाव होना ५ भगपानके कवल (ग्रास लेकर ) आहारका न होना ६ समस्त विद्याओंका ईश्वरपना७ नख केशों का न बढना नेत्रोंकी पलकें न लगना है और शरीरकी छायान पडना १० ये दश अतिशय केवलज्ञान होनेके पीछे होते हैं ।
देवकृत चौदह अतिशय । देव रचित हैं चार दश, अर्द्ध मागधी भाष। . . आपस मांही मित्रता, निर्मल दिक्ष आकाश॥६॥
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तृतीय.भाग। होत फूल फल ऋतु सवै, पृथ्वी काच समान । चरन कमल तल कमल है, नमते जय जय वान ||७|| मंद सुगंध वयार पुनि, गंधोदककी दृष्टि। भूमि विष कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ॥८॥ धर्म चक्र भागें रहै, पुनि वसु मंगल सार।
अतिशय श्री अरहंतके, ये चौतीस प्रकार ॥१॥ भगवानकी अर्द्धमागधी (जिसको सब जीच समझ लें) भाषाका होना १ समस्त जीवोंमें परस्पर मित्रताका होना २ दिशाओंका निर्मल होना ३ आकाशका निर्मल होना ४ सव ऋतुओंके फल फूल धान्यादिकका एकही समय फलना ५ एक योजन तककी पृथ्वीका दर्पणकी तरह निर्मल होना ६, चलते समय भगवानके चरण कमलोंके तले सोनेके कमलोंका होना ७, आकाशमें जय जय ध्वनिका होना ८, मंद सुगंधित पवनका चलना ९, सुगंधमय जलकी दृष्टि होना १०, पवन कुमार देवोंके द्वारा भूमिका कंटकरहित होना ११, समस्त जीवोंका आनंदमय होना १२, भगवानके आगे धर्म चक्रका चलना १३, छत्र चमर धुजा, घंटा आदि पाठ मंगल द्रव्योंका साथ रहना १४, इसप्रकार देवकृत चौदह अतिशय मिलानेसे समस्त अतिशय चौंतीस प्रकार होते हैं।
अष्ट प्रातिहार्य द्रव्य ... तर अशोकके निकटमें, सिंहासन छविदार। तीन छा सिर पर लसे, भामण्डल पिछार॥१०॥
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રૂઠ્ઠું
जैनवालबोधक
दिव्य ध्वनि मुख खिरै, पुष्प दृष्टि सुर होय । ढोरे चौसठ चमर जख, वाजे दुंदुभि जोय ॥ ११ ॥
अशोक वृक्षका होना, रत्नमय सिंहासन, शिरपर तीन छत्र, पीठ पीछे मामंडल, दिव्य ध्वनिका होना, देवोंके द्वारा फूलोंकी वर्षा होना, यक्ष देवोंके द्वारा चौसठ चमरों का डुलना और दुंदुभि वाजों का वजना ये आठ प्रातिहार्य दें || अनंत चतुष्टय |
ज्ञान अनन्त अनन्त सुख,दर्श अनंत प्रमान । वल अनंत अरहंत सो, इष्ट देव पहिचान ॥ १२ ॥
भगवानके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त बल होता है । इन्हें धनन्त चतुष्टय कहते हैं । इसप्रकार ३४ अतिशय ८ प्रातिहार्य और ४ अनन्त चतुष्टय मिटाकर अरहन्त भगवानके कुल ४६ गुण होते हैं ॥ १२ ॥ अठारह दोष ।
जन्म जरा तिरखा छुधा, विस्मय मरु रति खेद 1 रोग शोक पद मोह भय, निद्रा चिता स्वेद ॥ १३ ॥ राग द्वेष अरु मरन जुत, ये श्रष्टादश दोष । नाहि होत अरहन्तके, सो छवि लायक मोख ॥१४॥
अरहन्त भगवानके इस दोहेमें लिखे हुये १८ दोष नहीं होते- इसी कारण भगवानको व्रीतराग निर्दोष कहते हैं ॥१३-१४॥
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तृतीय भाग।
सिद्ध परमेष्ठीके गुण । सिद्ध उन्हें कहते हैं जो आठो कोका नाश करके संसारके दुःखोंसे हमेशहके लिये मुक्त हो गये हैं उनके नीचे लिखे आठ गुण होते हैं।
सोरठा। समकित दर्शन ज्ञान, अगुरु लघू अवगाहना । सूछम वीरज बान, निराबाघ गुण सिद्धके ॥ १५ ॥
सभ्यत्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनन्त वीर्य, और अव्यावायत्व ये आठ सिद्धोंके गुण होते हैं। इनका अर्थ इस पुस्तक पढनेवाले विद्यार्थियोंकी समझमें आना कठिन है इस कारण नहि लिखा। विद्यार्थियों को इन आठ गुणोंके नाममात्र याद कर लेने चाहिये ॥ १५ ॥ . .
आचार्य परमेष्ठीके गुग। प्राचार्य उन्हें कहते हैं जो कि मुनियोंके संघके अपिल पति हों, और संघके मुनियोंको दीक्षा ( शिक्षा ) प्रायश्चित्त (दण्ड ) वगेरह देते रहते हैं इनके आगे लिखे ३६ गुण होते हैं,-- द्वादशतप दश धर्म जुत, पालहिं पंचाचार । षट् आवशिक त्रिगुप्ति गुन, प्राचारज पद सार ।। १६ ।।
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जैनवालवोधक ___तप १२, धर्म १०, पांचार ५, आवश्यक ६, गुप्ति ३, कुल ३६ गुण आचार्यमें होते हैं।। .. .. वारह तपोंके नाम । अनसन ऊनोदर करै, व्रत संख्या रस छोर । विविक्त शयन आसन धरै काय कलेश सुठोर ॥ १७॥ प्रायश्चित घर विनय जुत, वैयात स्वाध्याय । पुनि उत्सर्ग विचारकै, धरै ध्यान मन लाय ॥ १८ ॥
अनसन तप ( भोजनका त्याग ) १, जनोदर तपं (भूखसे कम खाना) २, व्रतपरिसंख्यान ( भोजनको. नाते समय घर वगेरहके नियम करना)३, रसपरित्याग (छहों रस या एक दो चार रसका त्यागना) ४, विविक्त शय्यासन ( एकांतमें सोना बैठना) ५, काय क्लेश (शरीरको कष्ट देना) ६ प्रायश्चित्त [दोषोंका दंड लेना] ७, स्नत्रय व रत्नत्रयधारियों का विनय करना ८, वैयावृत (रोगी या वृद्ध मुनियोंकी सेवा करना ) ९,स्वाध्याय करना १०, व्युत्सर्ग (शरीरसे ममत्व छोडना) ११, और ध्यान करना ये १२ तप हैं। इनमें से पहिलेके दै वाह्यतप हैं पीछेके ६ अभ्यंतर तप हैं ।। १७-१८ ॥
दश धर्मके नाम। छिमा मारदव पारनव, मत्य वचन चित पाग। . संयम तप त्यागी सरव, आकिंचन तिय त्याग ॥ १६ ॥
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तृतीय भाग ।
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उत्तम क्षमा १, उत्तम मार्दव ( मान न करना ) २, उत्तम आर्जव (कपट न करना ) ३ उत्तम शौच ( लोभ न करना अंतःकरणको शुद्ध रखना ) ४, उत्तम सत्य ५, उत्तम संयम ( छह कायके जीवोंकी रक्षा करना व इन्द्रिय मनको वशमें रखना ) ६, उत्तम तप ७, उत्तम त्याग (दान करना ) ८, उत्तम आकिंचन (२४ परिग्रहका त्याग करना ) ९, और उत्तम ब्रह्मचर्य पालना १० ये दश उत्तम धर्म हैं ।
छह आवश्यक |
समता घरि वंदन करें, नाना थुती वनाय । प्रतिक्रमण स्वाध्याय जुत, कायोत्सर्गे लगाय ॥ २० ॥
सब जीवोंसे समता रखना १, वंदना ( हाथ जोड मस्त कसे लगाकर नमस्कार करना ) २, परमेष्ठोकी स्तुति करना ३, प्रतिक्रमण करना (लंगे हुये दोषों पर पश्चाताप करना ) ४, स्वाध्याय करना ५, कायोत्सर्ग ध्यान करना ६ ये षट् आवश्यक हैं || २० ॥
पांच आचार और तीन गुप्ति । दर्शन ज्ञान चरित्र तप, वीरज पंचाचार ।
गोपै मन चच कायको, गिन छतीस गुनसार ॥ २१ ॥
दर्शनाचार १, ज्ञानाचार २, चारित्राचार ३, तपाचार ४, और वीर्याचार ये ५ तो आचार हैं और मनोगुप्ति, (मनको वशमें रखना, ) वचनगुप्ति ( वचनको वशमें रखना )
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जैनवालबांधक
२, और काय गुप्ति ( शरीरको वशमें रखना) ये तीन गुप्ति | इन सबको मिलानेसे आचार्य परमेष्ठी के ३६ गुण हो जाते हैं ॥ २१ ॥
उपाध्याय परमेष्ठीके २५ मूल गुण ।
उपाध्याय उन्हें कहते हैं जो ग्यारह अंग चौदह पूर्वके पाठी हों । ये स्वयं पढते वा अन्य मुनियोंको पढाते हैं। इनके ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका पढना ही २५ मूलगुण हैं |
ग्यारह अंगों के नाम |
प्रथमहि श्राचारांग गनि, दूजो सूत्रकृतांग | ठाण अंग तीजो सुभग, चौथो समवायांग ॥ २१ ॥ व्याख्या पराणति पांचमो, ज्ञातु कथा घट आन । नि उपासकाध्ययन है, अंतःकृत दश ठान ॥ २२ ॥ अनुत्तरण उत्पाद दश, सूत्र विपाक पिछान | बहुरि प्रश्न व्याकरण जुत, ग्यारह अंग प्रमान ॥ २३ ॥
आचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग ५, ज्ञातृकयांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अंतःकृत दशांग ८, अनुत्तरोत्पादक दशांग ९, प्रश्न व्याकरणांग १० और विपाक सूत्रांग ११ ये ग्यारह अंग हैं ॥ २३ ॥ चौदह पूर्वोके नाम |
उत्पाद पूर्व ग्रायणी, तीजो वीरज वाद |
अस्ति नास्ति प्रवाद पुनि, पंचप ज्ञान प्रवाद ॥ २४ ॥
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तृतीय भाग !
छो कर्म प्रवाद है, सत्मवाद पहिचान | अष्टपथास मवादपुनि, नत्रमो प्रत्यारूपान ॥ २५ ॥ विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्व कल्याण महन्त । प्राणवाद किरिया बहुल, लोक बिंदु है अन्त ॥ २६ ॥
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उत्पाद पूर्व १, अग्रायणी पूर्व २ वर्षानुवाद पूर्व ३, अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व ४, ज्ञान प्रवाद पूर्व ४, कर्म प्रवाद पूर्व ६, सन्यवाद पूर्व ७, थात्मप्रवाद पूर्व ८, प्रत्याख्यान पूर्व ६, विद्यानुवाद पूर्व ११, कल्याणानुवाद १२, प्राणावाद पूर्व १३, लोकविंदु पूर्व १४ ये चौदह पूर्व हैं ||
सर्व साधुओंके २८ मूल गुण ।
साधु उन्हें कहते हैं जिनमें नीचे लिखे हुये २८ मूलगुण हों वे सूनि तपस्वी कहलाते हैं । उनके पास कुछ भी परिग्रह नहीं होता और न वे प्रारंभ करते हैं। वे सदा ज्ञान ध्यान तपमें लवलीन रहते हैं ।
पांच महाव्रत |
हिंसा वृत तसकरी, अब्रह्म परिग्रह पाय । मन वच तन त्यागवो, पंच महाव्रत थाय ॥ २७ ॥ वैं
after etad १ सत्य पात्रत २ अचौर्य महान ३ ब्रह्मचर्य मात्र ४ परिग्रह त्याग महाव्रत ५ ॥
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पांच समिति । ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण अादान । प्रतिष्ठापना जुत क्रिया, पांचों समिति विधान ॥ २८ ॥
ईर्या समिति ( आलस्य रहित चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना) १, भाषा समिति (हित मित प्रिय वचन बोलना)२, एषणा समिति (दिनमें एकवार शुद्ध निर्दोष आहार लेना ) ३, आदाननिक्षेपण समिति ( अपने पास के शास्त्र, पीछी, कमंडलु आदिको भूमि देखकर सावधानीसे धरना वा उठाना)४, प्रतिष्ठापनसमिति ( जीव जन्तुरहित साफ जमीन देखकरमल मूत्रादि क्षेपण करना) ५, ये पांच समिति हैं ॥ २८ ॥
शेष गुण दोहा। सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत्रका रोध । पट भावशि मंजन तजन, शयन भूमिका शोध ॥ २९ ॥ वस्त्र त्याग कच लुच अरु लघु भोजन इक बार। दाँतप्प मुखमें ना करें, ठाडे लेहि अहार ॥ ३०॥
स्पर्श १, रसना २, घ्राण ३ चक्षु४, श्रोत्र५,इन पांचों इंद्रियोंको वशमें काना, समता ६, वंदना ७, सुति ८, प्रतिक्रमण ९, स्वाध्याय १०, कायोत्सर्ग ११, स्नानका स्याग १२, स्वच्छ भूमि पर सोना १३, वस्त्र त्याग १४, केश लोच करना १५, एक बार बडे भोजन करना १६,
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तृतीय भाग। दांतन न करना १७, खडे आहार लेना १८, इस प्रकारसे ये १८ मूल गुण सर्व सामान्य मुनियोंके अर्याद आचार्य उपाध्यायादि समस्त साधुओंके होते हैं। मुनिजन इनका पालन करते हैं ॥ ३० ॥
१२. दर्शन प्रतिज्ञाकी कहानी।
किसी समय एक नगरमें एक प्रमादी शेठ रहता था। उस शहर में रहनेवाले पंडितों व त्यागी महात्माओंने कितनी ही दार उपदेश दिया कि तुम भगवानके नित्य दर्शन करनेकी आखडी ले लो परन्तु उसने आखडी नहीं ली. वह कहता कि मैंने आखडो ले ली और कोई दिन दर्शन करना भूलगया या मंदिर दूर है किसी दिन प्रमाद भा गया तो दर्शन नहि करनेसे आखडी भंग हो जायगो पाखी भंगका वडा पाप है इसलिये आखडी तो मैं किसी भी तरह की लेता नहीं, हां ! आपकी आज्ञाका जहांतक बना पालन करूंगा परंतु वह सेठ दो चार दिन तो मंदिरजी जाता फिर प्रमाद कर जाता । अर्थात दर्शन करना छोड देता ।
एक दिन एक ब्रह्मचारीजी महाराज आये सबकी देखा देखी सेठने भी उनको निमंत्रण दे दिया और ब्रह्मचारीजी को अपने घर पर नीमनेको ले तो गये परंतु उन ब्रह्मचारी जी महाराजका नियम था कि वे निमंत्रण करनेवाले गृह
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जैनवालबोधकस्थीको भोजनसे पहिले कुछ न कुछ आखड़ी विना दिये 'जीमते ही नहीं थे सो शेठजीको भी उन्होंने कहा कि पहिले कोई प्रतिज्ञा ले लो तो हम जीमनेको बैठे नहिं गेहम कदापि जीमेंगे नहीं, यह हमारा नियम है। सो जो कुछ भी हो एक भाखडी ग्रहण करना चाहिये। सेठजी बडे चक्करमें पड गये, विना पाखडी लिये साधुको फिरा देते हैं तो शहरमें निंदा होनी है। लाचार सेठने कहा कि मुझे कितने ही स्यागी महात्मा पंडितोंने आखडी देनेका अाग्रह किया परंतु मैंने आजतक कोई आग्बडी वा प्रतिज्ञा ग्रहण नहीं की। ब्रह्मचारीजीने पूछा क्या भगगनके नित्य दर्शन करनेकी भी आखडी नहीं ली ? सेठने कहा कि- हमारे घर या दुकान से मंदिरजी बहुत दूर है दर्शन करके आनेमें आधा घंटा लग जाता है। दुकान पर काम बहुत है सो ऐसी पाखंडी मेरेसे कदापि नहीं पल सकती । तब ब्रह्मचारीजीने कहा कि तुमारी दुकानके सामने क्या है ? सेठने कहा कि एक कुमारका घर है वह सवेरेसे वरतन बनाया करता है। ब्रह्मचारीजीने कहा कि अच्छा उस कुमारको तो रोज देखते हो यही आखडी ले लो कि- कुमारका मुह देखे विना कभी अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा। तब शेठने कहा कि यह ग्राखडी तो मैं ले सकता हूं। परंतु इससे लाभ क्या होगा । ब्रह्मचारीजीने कहा-इससे भी बहुत कुछ लाभ होगा तुम प्रतिज्ञा तो ले लो इस प्रतिज्ञासे लाभ होगा तो फिर भगवान के नित्य
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तृतीय भाग। दर्शन पूजन करनेकी भी प्रतिज्ञा लेलोगे। शेठजीने कुमारके. दर्शनकी प्रतिज्ञा लेली । और ब्रह्मचारीजी उनके यहां जीम कर चले गये।
तीन चार महीने तक तो दुकान खोलते ही सेठजी उस कुमारको नित्य देख लिया करते थे कोई विघ्न नहिं पडा परंतु देव योगसे एक दिन कुमार सेठजीकी दुकान खुलनेसे पहिले ही गांव वाहर मिट्टी लेनेको चला गया। उसने जिप्त खंदकसे मिट्टी खोदना प्रारम्भ किया दैवयोगसे पुराने जपानेका किसी धनान्यका गढा हुवा मोहरोंसे भरा हुवा. एककलस निकला उसको ढक्कन उघाड कर देखा तो विचारमें पड़ गया।
इधर सेठजीको आज जल्दी ही भोजन करके जाना. था परंतु दुकान पर जाकर देखा तो कुमारके दर्शन नहिं हुये । कुमारीसे पूछने पर मालम हुवा वह मिट्टी लाने को गया है, शेठजी अपने नित्य नियमका लिहाज रखनेके लिये खंदकके पास उसी समय पहुंचे कि जिस समय कुमार मोहरें. पाकर इधर उधर देखता या कि- कोई देखता तो नहीं है। उसकी दृष्टिम शेठ ही पडे.तो वह डरा और विचार किया कि सेठको सामिल करनेसे ही यह वन. पचैगा ऐसा विचार . शेठको हाथके इशारेसे अपने पास बुलाने लगा। परन्तु शेठ को जल्दी जानेका काम या सो वह बोला कि 'देख लिया देख लिया' अर्यात तेरा मुह मैंने देख लिया अब जरूरत
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जैनबालवोधक:नहीं तेरे पास आनेकी, परंतु कुमारने समझा कि-मोहरोंसे भरा कलशा देख लिया । सो अब यह छिप नहीं सकता । सो वह कलसा वोरेमें भरकर उठा लाया और शेठजीके घर पर जाकर शेठजीके पावोंमें कलशा रखकर प्रार्थना करने लगा कि-यह कलशा आपकी सेवामें है। खंदक खोदते समय मिला है आपने देख लिया था वैसा ही यह हाजिर है आपहीका है इस दासको जो इच्छा हो सो इसमेंसे देदें। सव हाल समझकर १०० मोहरें उसको देकर बाकी सब रखली । कुमार भी खुश होकर चला गया।
शेठने मनमें विचारा कि यह सब कुमारके मुंह देखने की प्रतिज्ञाका ही फल है। यदि इसी प्रकार भगवानके नित्य दर्शन पूजन करनेकी प्रतिज्ञा लेता तो न मालूम आज तक कितना लाभ वा पुण्य होता ऐसा समझकर उसी दिनसे नित्य दर्शनकी प्रतिज्ञा कर ली उसी दिनसे शेठके यहां धन और सुख शांतिकी दिन दूनी रात चौगुणी वृद्धि होने लगी। ___ इस कहानीका मतलब यही है कि विना दृढ प्रतिज्ञा किये कोई भी कार्य फलदायक नहिं होता इसलिये प्रतिक्षाबद्ध होकर सब कार्य करना चाहिये ।
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१३. भूधर जैन नीत्युपदेशसंग्रह प्रथम भाग.
जिनवाणी और मिथ्यावाणा में फेर ।
कवित्त मनहर। कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अंतर घनेर है । पीरी होत रीरी न रीस करै कंचन की, कहां कागवानी कहां कोयलकी टेर है ॥ कहां भान भारो कहां ग्रागिया विचारो कहां, पूनौको उजारो कहां मावेस अधेर है। पच्छ छोरि पारखी निहार देख नीके करि, जैन चैन और वैन इतनौ ही फेर. है ॥१॥
वैराग्य भावना। कब गृह वाससौं उदास होय वन सेऊ, "ऊं निजरूप गति रोकू पने करोकी । रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग, सहिहौं परीसा शीतधाम मेघ झरीकी ॥ सारंगसपार्ज खाज कवधौं खुजै है आनि, ध्यान दलजोर जीतूं सेनामोह अरीकी ।
, "धाक दुध सुरहीको ऐसा भी पाठ है । २ पीतल । ३ हिर्सबराबरी , ४ सद्योत पटवीजना ! ५अमावस्याका अधेरा । ६ “ निहारो नेक नीके कर " ऐसा भी पाठ है । ७ अन्य धर्म वालोंके वचनोंमें । जानू-अनुभवू । ९ मनरूपी हाथोकी । १० हिरनोंके समूह | ११ खुजली।
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जैनघालबोधकएकल विहारी जथाजीत लिंग धारी कब, होऊ इच्छाचारी वलिहारी हों वा घरीकी ॥ २ ॥
राग और वैराग्यका अंतर । राग उदै भोगभाव लागत सुहावनेसे, विनाराग ऐसे ला- जैसे नाग कारे हैं। राग ही सौं पाग रहै तनमें सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं ।।: रागसौं जगतरीति झूठी सब सांची जान, राग मिटे सुझत असार. खेल सारे हैं। रागी विनरागीके विचारमें बडौई भेद, जैसे "भटी पच काहू काहूको वयारे" हैं ॥३॥
भोग निषेध ।
मत्तगयंद सवैया । तू नित चाहत भोग नये नर, पूरव पुन्य विना किप पै है। कर्म संजोग मिलै कहि जोग, गहै तब रोग न भोग सकै है ।। जो दिन चारको न्योत बन्यौ कहूं, तौ परि दुर्गतिमैं पछते हैं। यौं हित यार सलाह यही कि, "गई कर जाहु" निवाह न है हैं ।।
. देहका स्वरूप । माता पिता रज वीरजसौं, उपजी सव सात धात भरी है माखिनके पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ धरी है ॥
. १ नग्न मुद्राका धारक । २ भटा अर्थात् वैगन किसी २ को तो पथ्य' होते हैं और किसी २ को वादी करनेवाले हानिकर होते हैं । ३ मक्खियों के 'परकी समान पतले चमडेके वेष्टनसे. ढकी हुई ।
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- तृतीय भाग। नाहिं तौ पाय लगै अब ही, बैंक वायस जीव बचै नघरी है। देह दशा यह दीखत भ्रात, पिनात नहीं किन बुद्धि हरी है ।। संसारका स्वरूप और समयकी बहुमूल्यता ।
कवित्त मनहर। काहूंघर पुत्र जायो काहूके वियोग आयो, काहू राग रंग काहू रोआरोई करी है । जहां भान ऊगत उछाह गीत देखे जात, सांजसमें ताही थान हाय हाय परी है । ऐसी जगरीतिको न देख भयभीत होय, हाहा नर मृद तेरी मति कौन हरी है । मानुप जनम पाय सोक्त विहाय जाय, खो. वत करोरनकी एक एक घरी है ॥ ६॥
सोरठा । कर कर जिनगुन पाठ, जात प्रकारय रे जिया। आठ पहरमें साठ, घरी घनेरे मोलकी ॥ ७॥ कानी कोडी काज, कोरनको लिख देत खत। ऐसे मृरखराज, जगवासी जिय देखिये ॥ ८ ॥
दोहा । कानी कौडी विषय सुख, भवदुख करत अपार ।
विना दिये नहिं छूटि है, लेश दाम उधार ॥९॥ . २ बगुले। ३ कौवे । ४ फूटी कौडीके लिये जैसे कोई.करोड़ों रुपयोंका, । ५ तमसुक (चिठी ) लिख देवें । ६ लेशमात्र भी ।.
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जैनघालवोधक
शिक्षा । छप्पय । दर्श दिन विषय विनोद, फेर बहु विपति परंपर। अशुचि गेह यह देह, नेह जानत न आप जरै ॥ मित्र वधु-सनमंध और, परिजन जे अंगी।
अरे अंघ सब धंध, जानि स्वारयके संगी। परहित अकाज आपनौ न करि, मूढराज अब समुझ उर। वजि लोक लाज निज काज करि, आज दाव है कहत गुर।।
कवित मनहर। जोलौं देह तेरी काहू रोगों न धेरी जोलौं, जरा नाहि नेरी जासौं पराधीन परि है । जोलौं जम नामा बैरी, देय न दमामा जोलौं, माने कान रामी बुद्धि जाय न विगरि है । तौलौं मित्र मेरे निज कारज सँवार लेरे, पौरुष यकेंगे, फेर पीछे कहा करि है | अहो भाग पायें जर झोपरी जरन लागी, कुमाके सुदायें तब कौन काज सरिहै ॥ ११ ॥ सौ बरस भायु ताका लेखा करि देखा सव, आधी तो अकारय ही सौवत विहाय रे। आधीमें अनेक रोग बाल वृद्ध दशा मोग, और हु संजोग माहि केती बीत जाय रे ।। बाकी श्रव कहा रही ताहि तू विचार सही, कारजकी बात
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दिन-ट्य' ऐसा भी पाठ है । २ जढ भवेतन । ३ पुत्र वा नाते. दार । मौका-अवसर । ५ जपतक यमनामा वैरी नगारे पर चोर देकर सचेत न करे। ६ भाझा । स्त्री।
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तृतीय भाग। यही नीके मन लाव रे । खातिरमैं आवै तो सलासी कर डॉल नहिं काल-चाल पर है अचानक ही आय रे ॥१२॥
१४ । नित्य नियम पूजा भाषा।
अडिक। प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धांत जू ।
गुरु निम्रय महंत मुकंतिपुर पंथ जू ।। तीन रतन जग माहिं सो ये मवि ध्याइये। तिनकी भक्तिप्रसाद, परम पद पाइये ॥ १॥
दोहा। । , पूजू पद आईतके, पू गुरुपद सार ।
पूजू देवी सरसुती, नित प्रति अष्टप्रकार ॥२॥ ओं ही देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र अवतर भवतर । संवैाष्ट । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ सिष्ठ । ठः ठः। ही देवशास्त्रगुरुसमूह ! अब मम संनिहितो मवमव वार ।
___ गीता। सुरपति उरग नरनाथ तिनकर वंदनीक सुपदप्रया। अति शोभनीक सुवर्ण इजल, देख छवि मोहित सभा ॥ : १ यदि यह वात तेरी समझमें भा नावें तो । २ सुधारक। ३ हालही. इसी चक1-४ यमराजका भाक्रमण वा डांका। ..
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जैनवालबोधक- '
वर नीर छीर समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहुविधि नचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत, गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचुं ॥ १ ॥ मलिन वस्तु हर लेत सच, जलस्वभाव मलछीन । जासों पूजों परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
जे त्रिजग उदरमकार प्राणी, तपत प्रति दुद्धर खरे । तिन अहितहरन सु वचन जिनके, परमशीतलता भरे || तस भ्रमर लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घसि सचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ, नित पूजा रचूं ॥ २ ॥ चर्दन शीतलता करै, तपतवस्तु परवीन । जासों पूजौं परम पद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति
स्वाहा ॥ २ ॥
यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि उई । अति दृढ परम पावन जयारथ, भक्तिवर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि तंदुळ, पुंज घरि त्रय गुण जचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ३ ॥ तंदुल सालि सुगंध यति, परम अखंडित वीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन | ३ | ॐहीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा (यहां पर अक्षतोंके तीन पुंन ही करने चाहिये अधिक नहीं )
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तृतीय भाग ।
ने विनयवंत सुमव्य उर अंबुज प्रकाशन मान है। जे एक मुख चारित्र भाषहि, त्रिजगमांहि प्रधान है ॥ कहि कुंद कमळादिक पहुप भवभव कुवेदनसौं बच् । अरहन्त श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचुं ॥ ४ ॥ विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास प्राधीन । जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणाविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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अति सबलमदकंदर्प जाको, हुधा उरग अमान है। दुसह भयानक तास नाशनकौं सुगरुढ समान है ॥ उत्तम छहों रसयुक्त नित नैवेद्यकरि घृतमें पलूं । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निश्अंध नितपूजा रचूं ॥ ५॥ नानाविध संयुक्तरस, व्यंजनसरस नवीन | जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति
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स्वाहा ॥ ५ ॥
जे त्रिजग उद्यम नाश कीने, मोहतिमिरपहावली । तिहि कर्म घाती ज्ञान दीप प्रकाश जोति प्रभावली ॥ इह भाँति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें पच । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ६ ॥ स्वपर प्रकाशक ज्योति अति, दीपक तम करि होल । जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ६ ॥
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जैन बालवोधक
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोघकारविनाशनाय दीपं निर्व
पामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जो कर्म - ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसैं ।
बरधूप तासु सुगंधता करि, सकल परिमलता हँसें ॥ इह भांति धूप चढाय नित, भवज्वलन माहि नहीं पचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ७ ॥ अग्निमांहि परिमलदहन, चन्दनादि गुण लीन | जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ७ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीतिः
स्वाहा ॥ ७ ॥
लोचन सुरसना घ्रान डर, उत्साहके करतार 1 घोषै न उपमा जाय वरणी, सकलफल गुणसार हैं || सो फल चढावत अर्थपूरण, सकल अम्रतरस सचूं । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ८ ॥ जो प्रधान फल फळविषै, पंचकरण रस लीन । जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन | ८ || ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति
स्वाहा ॥ ८ ॥
जल परम उज्जल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूं । वरधूप निर्मल फल विविध, वहु जनमके पातक हरूं ॥ यह भांति अर्घ चढाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूं । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ९॥
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तृतीय भाग। वसुविध अर्घ संजोयक, अति उछाह मन कीन ।
जासौं पूजौं परमपद , देवशास्त्र.गुरु तीन ॥ ९॥ ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
अथ जयमाला।
देव शास्त्र गुरु स्तन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न २ कहुं भारती, अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥ चउ कर्मकीत्रेसठि प्रकृति नाश । जीते अष्टादश दोष राशि जे परम सुगुण हैं नन्त धीर। कहवतके छयालिस गुण गंभीर ।। शुभ समवसरन शोभा अपार । शत इंद्र नमत कर शीस धार। देवाधिदेव परहंत देव । बन्दौं मन वच तन कर सुसेव ॥३॥ जिनकी धुनि है ओंकार रूप। निर अक्षरमय महिमा अनुप। . दश अष्ट महाभाषा समेत । लघुभाषा सात शतक सुचेत ।। सो स्यादवादमय सप्त भंग । गण धर गूथे बारह सुअंग । रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति लाय गुरु प्राचारज उवझाय साध, तन नगन रतनत्रय निधि अगाघ । संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि त शिव पद निहार ॥ गुण छत्तिस पचिस आठ चीस, भवतारन तरन जिहान ईश गुरुकी महिमा बरनीन जाय । गुरु नाम जपो मनवचन काय
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नयालदोघक
सोता।
कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरचा धरै । 'यानत' सरयावान, अजर अपर पद भोगवै ॥ ८॥
2999CCCE
विंशति विद्यमान तीर्थकरोंका अर्घ ।
SOONEEEE उदकचंदनतंदुलपुरकैदरुसुदीपसुधृपफलाकैः । घवलमंगलगानरवाकले जिनगृहे जिनराजमहं यजे॥
ही सीमवरयुगमंघरवाहुलबाहुसंजातस्वयंप्रमवृषभाननअनन्तवीर्यसूरप्रमविशालकीर्तिजघरचन्द्राननचन्द्रबाहुभुजगमईश्वरनेमिप्रभवीरसेनमहामदेवयशमजितवीर्येति विशतिविद्यमानतीर्थनरेभ्योऽयं निर्वपानीति स्वाहा ॥ १ ॥
__ अकृत्रिम चैत्यालयोंका अर्थ | कृत्याकृत्रिपचारुचैत्यनिलयान्नित्यं त्रिलोकींगतान । वंदे भावनव्यंतरद्युतिघरस्वगामरावासगान् ।। सद्गंधाक्षतपुष्पदापचरुकैः सहोपधूपैः फलैर् । द्रन्यैीरमुखैर्यजामि सततं दुष्कर्मणां शांतये ॥२॥ __ओं ही कृत्रिमाकृत्रिमत्याल्यसंबंधिजिनविवेभ्योज्य निर्वः पामीति स्वाहा ॥२॥
१ इस इलोकत्रा जोपाठ बाराची प्राचीन प्रति मिल है वही हमने उगाया है हमारी रमझमें यही पाठ शुद्ध प्रतीत हुवा है !
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तृतीय भाग।
सिद्धनका बर्ष। गंघाढयं सुफ्यो मधुवतगणैः संग बरं चंदनं __ पुष्पौध विमलं सदक्षतचर्य रम्यं चल दीपकं । धूप गंधयुतं ददामि विविध श्रेष्ठं फलं लव्वये
सिद्धानां युगपरक्रमाय विमलं सेनोचरं वांछित ॥ __ओं ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनपदप्राप्तये अप निर्वपामीति स्वाहा।
सोलह कारणचा अर्थ उदकचंदनतदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्यक। घालमंगलगानरवाकुले जिनगृह जिनहेतुमाई यजे।
ओं ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशनारणेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
दशलक्षण धर्मका अर्ध । उदकचंदन दुलपुष्पकैश्वरसुदीपसुधूपफलार्यकः । घवलमंगलगानश्वाकुले जिनगृहं जिनधर्ममई यजे ॥५॥ ___ओं हों अहन्मुखकमलसमुद्भवोत्तमनमामार्दवावनौवसत्यसंयमतप. स्त्यागाञ्चिन्यब्रह्मवर्यदशलक्षणिश्चमेन्योऽयं निपानीति स्वाहा । उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्वरसुदीपसुधृपफलापकः । घवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनरत्नमहं यजे ॥ ॥ __ओं ही अयंगसम्यग्दर्शनात्र अष्टविवमन्यज्ञानाय त्रयोदशप्रचारसन्यक् चारित्राय अर्घ निर्वपानीति स्वाहा ।
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जैनघालवोधक
शांतिपाठ विसर्जन । शांतिनाथमुख शशि उनहारी, शील गुणवत संयपधारी। लखन एकसौ आठ विराज, निरखत नयन कमलदल लाज।। पंचम चक्रवर्ती पदधारी, सोलम तीर्थकर सुखकारी । इंद्र नरेंद्र पूज्य जिननायक, नमों शांति हित शांति विधायक। दिव्य विटप पहुपनकी वरसा, दुंदुभि आसन वाणी सरसा छत्र चपर भामंडल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ॥३॥ शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगन पूज्य पूजौं शिरनाई । परम शांति दीजे हम सबको, पढ़ें तिन्हैं पुनि चार संघको ।।
वसंततिलका। पूजें जिन्हे मुकुटहार किरीट लाके ।
इंद्रादि देव अरु पूज्य पदान जाके । सो शांतिनाथ वर वंश जगत्प्रदीप । मेरे लिये करहिं शांति सदा अनुप ॥५॥
इंद्रवज्रा। संपूजकों को प्रतिपालकोंको। ___ यतीनको औ यतिनायकोंको ॥ राजा प्रजा राष्ट्र सुवेशको ले ।
कीजे सुखी हे जिन शांतिको दे ॥६॥
- संपरा ! होवै सारी प्रजाको सुखवलयुत हो, धर्मधारी नरेशा। होवे वर्षासमै पै तिलभर न रहै, व्याधियोंका अंदेशा ॥
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तृतीय भाग। होवै चौरी न जारी सुसमय वरते, हो न दुष्काल भारी । सारे ही देश घारें जिनवर वृषको, जो सदा सौख्यकारी॥७॥
— दोहा। घाति कर्म जिन नाशंकरि, पायो केवलराज। शांति करें ते जगतमें, वृषभादिक महाराज ॥ ८॥
. मंदाक्रांता। शास्त्रोंका हो पठन सुखदा, लाभ सत्संगतीका ।
सवृत्तोंका सुजस कहके, दोष ढाकू-सभीका ॥ बोलू प्यारे वचनं हितके, आपका रूप ध्याऊं।। तौलों सेऊ चरन जिनके, मोक्ष जोलौं न पाऊं।
आ। तब पद मेरे हियमें, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में । तबलौं लीन रहो प्रभु, जन तक पाया. न मुक्तिपद मैंने १० अक्षर पद मात्रासे, दूषित जो कछु कहा गया मुझसे । क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणा करि पुनि छुडाउ भवदुखसे हे जगबंधु जिनेश्वर, पांऊ तव चरण.शरण वलिहारी। मरणसमाधि सुदुर्लभ, कर्मोका क्षय सुवोध सुखकारी ।।
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।। . .. — विसर्जन पाठ । दोहा। . विन.जाने वा जानके, रही टूट जो कोय। . तुव प्रसादतः परम गुरु, सो सब पूरन होय ॥१॥
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जैनबालबोधकपूजन विधि जान्यो नहीं, नहिं जान्यो माहान। .
और विसर्जन हूँ नहीं, क्षमा करो भगवान ॥२॥ मंत्रहीन धनहीन हूँ, क्रियाहीन जिनदेव ! क्षमा करहु राखहु मुझे, देहु चरणको सेव ॥ ३ ॥ आये जो जो देव गन, पूजे भक्ति भमान । सो अब जावहु कृपाकर, अपने अपने यान ॥ ४ ॥ इति जिनपूजा शांति पाठ विसर्जन समाप्त ।
9093EECe १५. चौबीस तीर्थकरोंके नाम और चिन्ह.
चौपाई। वृषभ नायका 'वृषभ' जुजान | अजित नायके 'हाथी' मान सम्भव जिनके 'घोडा' कहा । अभिनन्दन पद 'बन्दर लहा सुमति नाथके 'चकवा' होय । पप प्रभके 'कमल' जु जोय जिन सुपार्श्वके 'साथिया' कहा । चन्द्र प्रभ पद 'चन्द्र' जु लहा पुष्पदंत पद 'मगर' पिछान। 'कल्पवृक्ष शीतल पद मान श्रीश्रियांसपद गेंडा' होय । वासुपूज्यकै 'भैसा' जोय विमलनाथ पद 'मूकर' मान । अनन्तनाथके 'सेही जान 'धर्मनाथके 'वज्र' कहाय । शांतिनाथ पद 'हिरन लहाय कुन्थुनाथके पद'ज' चीन। 'भर' जिनके पद चिह्न जु'मीन' मल्लिनाथ पद 'कलसा' कहा । मुनि सुव्रतके 'कछुआ लहा लाल कमल नमि जिनके जोय । नेमिनाथ पद 'शंख' जु होय पार्श्वनाथके 'सर्प जु कहा । वर्द्धमान पद 'सिंह' हि लहा।।
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तृतीय भाग। १६. दृढसूर्य चौरकी कथा ।
उज्जयनी नगरीमें राजा धनपाल राज्य करता था। उसकी रानीका नाम धनमती या । बसंवके उत्सवमें वसन्तसेनानामकी एक वेश्याने रानीके गले में एक अत्यन्त दिव्य सुंदर हार देख कर विचारा कि-"ऐसे हारके पाये विना मेरा जीवन व्यर्थ है। " और वह इसी चिंतामें अपने घर आकर पथ्यापर पड़ रही । एक दृढसूर्य नामका चौर उसका यार था। उसने रात्रिको आकर इस चिंतामें पड़ी हुई देखकर पूछा-निये क्या मुझपर नाराज हो गई हो जो इस प्रकार निरुत्साह देख पडती हो । वेश्याने कहा"नहीं प्यारे ! मैं तुम पर रुष्ट नहीं हूं। किंतु आज मैंने रानीके गलेमें एक सुंदर हार देखा था। उसके पहरे विना मेरा जीवन नहीं । चौरने कहा कुछ चिंता मत करो, मैं अभी ला देता हूं । इसप्रकार कहकर वह चौर किसी न किसी प्रकार राजमहलमें जाकर रानीके गलेसे हार उतार ले आया परन्तु उस हारकी प्रभा देखकर कोटपालने उस चौरको पकड लिया और राजाके पास ले जाने पर राजाज्ञा. से शुली पर चढा दिया । उस समय धनदच नामके. .शेठ चैत्यालयकी बन्दनाके लिये वहांसे निकले तो उन्हे.
देखकर चौरने गिडगिडा कर कहा कि-शेठ तुम बडे दयाल, ... जान पडते हो, मैं बहुत प्यासा ई, कपा करके मुझे पानी.
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जैनवालबोधक
काकर पिलावो तो आपको वडा पुराय होगा । शेठको चौर पर दया आ गई और वोला कि -- मेरे गुरुने एक विद्या साधनेको एक मन्त्र जपने दिया है सो मैं हर समय उसका जाप करता हूं । यदि तुम उस मंत्रको याद रक्खो और मुझे पानी लाये वाद मुझे सुनाकर याद करा देवो तौ मैं पानी ला दूं । तव चौरने उसे स्वीकार किया उसने पंचमस्कार मन्त्ररूपी महाविद्या चौरको बतला दी और पानी लानेको चल दिया। इधर दृढसूर्यको नमस्कार मन्त्रका उच्चारण करते करते शूली पर चढ़ा दिया सो मन्त्र के प्रभाव से मर कर वह सौधर्मस्वर्ग में जाकर देव हुवा |
चौके मर जाने पर चौकीदारोंने राजासे जाकर कहा कि हे देव ! धनदत्त शेठने चौरके पास जाकर कुछ धीरे २ सलाहकी थी । इस पर राजाने यह अनुमान करके कि शेठके साथ चौरकी जरूर साजिस होगी और शेठके घर में चौरीका गुप्त घन भी अवश्य होगा इसलिये शेठको पकढनेके लिये सिपाही भेजे । परन्तु शेटके दरवाजे पर बैठे हुये पहरेदारने उन्हे घरके भीतर जाने नहीं दिया और जब ये जवरदस्ती जाने लगे तो पहरेदारने लाठीसे उनकी खूब ही खबर ली। यहां तक कि वे वेहोश होगये । राजाने इस बातकी खबर पाकर क्रोधित होकर और भी बहुतसे नोकर भेजे परन्तु पहरेदारने उनको भी मार पीटकर वेहोश कर दिया - आखिर राजा बहुतसी फौज लेकर प्राया परन्तु
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तुतीय माग पहरेदारका वाल भी बांका नहिं कर सका उसने सब सेना को क्षण भरमें मार पीट कर सुला दिया। यह देखकर राजा भयके मारे भागने लगा परन्तु उसने भागने नहिं । दिया और कहा कि हे राजा ! यदि तू शेठकी शरण ले तौ तुझे बचाता है नहीं तौ तेरी रक्षा नहीं है तब राजा घरमें गया और शेठके पास जाकरं बोला-शेठनी ! मुझे बचाओ बचाओ, राजाको इस हालतमें लाचार देखकर शेठको अचम्भा हुआ । उसने पहरेदारसे पूछा कि--तू कौन है ?
और महाराजकी यह दशा .तुने किस प्रकार की ? पहरेदारने नमस्कार करके कहा कि शेठजी ! मैं दृढसूर्य नामका चौर हूं। आपके मन्त्र प्रभावके कारण मैं सौधर्मस्वर्गमें देव हुवा हूं । इस समय आपकी रक्षाकेलिये मैंने यह सब कौतुक किया है। राजाकी सेनाके ये सव लोग पडे हैं सो मरे नहीं है मैंने बेहोश कर दिये हैं। ... __यह पहरेदार वही चौर था जिपको धनदचने सूलीपर चढते समय मन्त्र दिया था। उसीके प्रभावसे यह देव हुआ
और अवधिज्ञानसे अपनी पहिली हालत विचार कर अपने उपकारी शेठको विपत्तिमें फंसा हुवा जानकर और आप मायासे पहरेदार बनकर शेठकी रक्षा की।
देखो विद्यार्थियो ! मरते समय एक चौर विना विचारे ही नमस्कार मन्त्रका उच्चारण करनेसे देवपदको प्राप्त हुआ तो अन्य सदाचारी पुरुष शुद्ध मनसे इस मन्त्रका पाठ वा
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जैनबालबोधकजाप करें तो क्यों न स्वर्गादिक सुखोंको प्राप्त होवें ? इस. लिये तुमको भी नमस्कार मंत्रको हर कामके पूर्व सातबार पढ लेना चाहिये और साम सवेरे मन्दिरजीमें समय मिले तो एक माला नमस्कारमन्त्रकी फेर लेना चाहिये।
. १७. शुद्ध वायु।
आहार और पानीके विना हम कई दिन तक जी सकते है परंतु वायुके विना क्षणमात्र भी जीना नहिं हो सकता क्योंकि हमलोग पैदा होते ही सबसे पहिले श्वास द्वारा वायु ग्रहण करते और फिर उसको निवास द्वारा (उच्छवास द्वारा) बाहर करदेते हैं सो जन्मसे मृत्युपर्यंत सोते वैठते उठते निरंतर श्वासोच्छवास लेते रहते हैं। श्वासोच्छ्वासको लिये विना कोई भी नहिं जी सकता इस कारण जीवनधारण करनेके लिये वायुकी सर्वापेक्षा अधिक आवश्यकता है क्योंकि वायु का स्वाभाविक गुण ही यह है कि मनुष्यकी देहका सदैव शुष्ट करना परंतु वायु अनेक कारणोंसे दूषित हो जानी है। जिस स्थानपर जल होता है वहांपर जलके संयोगसे सदैव अनेक प्रकारके द्रव्य गलते मरते रहते हैं और जिसस्थान • पर हवा भलेपकार नहिं चल सकती तथा जिस स्थानपर मैला वा दुर्गधित ( गले सडे ) पदार्थ पड़े रहते हैं उस स्थानकी वायु अवश्य दृषित ( मैली ) हो जाती है। ..
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दूषित वाहप (वाम
हवाको स्वासोर मिल जाती है,
तृतीय भाग। जगतमें जितने पदार्थ हैं वे सूर्यकी गर्मीसे सदैव जलते रहते हैं और उन सब पदार्थोंसे उष्ण हुई दूषित वाष्प (वाफभाप) हवाके साथ मिल जाती है, सो जब हम ऐसी मैली हवाको स्वासोच्छवास के द्वारा ग्रहण करते हैं तब हमारे शरीरमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इस कारण पर बनवाना हो तो उत्तम स्थान देखकर वनवाना चाहिये तथा जिस घरमें हवा भले प्रकार चलती फिरती रहै ऐसे मकानमें ही रहना चाहिये। जहांकी हवा अच्छी नहीं वहां पर रहना वा घर बनवाना अपने आप मृत्युको बुलाना है।
जिस घरमें पूर्णतया प्रकाश ( उजाला) हो वहांपर इवाका संचार (आना जाना) अच्छी तरहसे होता है। इसकारण जिस घरमें प्रकाश हो, अधेरा नही हो ऐसे घरमें रहना वा ऐसा प्रबंध करना चाहिये। .
रहनेके स्थानका वायु निर्मल ( साफ) रखने के लिये दो बातें अवश्य करनी चाहिये । एक तो मैला साफ करनेका उपाय और दूसरा नालिय वनाना। क्योंकि हमको (गृहस्थियोंको) निरंतर ही जलका काम पडला है । जलके बिना मनुष्यों का जीवन निर्वाह कदापि नहिं हो सकता . किंतु बहुत सावधानतासे रहने पर भी थोडा बहुत जल इधर उघर' अवश्य ही विखर (फैल : जाता है। वह जल जहां तहां पडनेसे वहीं पर जम जाता है और उससे मकान भी हमेशह सीलारहता है । इसकारण नालिय बनवाना उचित है जिससे
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जैनघालवोधककि वह जल घरमें वा घरके आसपास न जमने पावै । जिस घरमें सदैव सील रहा करती है वहांपर हवा कदापि निर्मल नहिं रह सकती । इसके सिवाय वहांपर असंख्य विषेले कीडा उत्पन्न होकर श्वासके द्वारा पेटमें जाते हैं और वे महामारी अदि अनेक रोगोंको उत्पन्न कर देते हैं। - जिस प्रकार हमको जलसे हमेशह काम पडनेके कारण हमारे घर सीले रहते हैं, उसप्रकार हमारे घरमें वा घरके चारों ओर मैला भी पडा रहता है क्योंकि गृहस्यके यहां साग तरकारी फल अन्न वगेरह जो जो पदार्थ प्राते हैं उनमेंसे कुछ न कुछ भाग अप्रयोजनीय समझकर फेंक दिया जाता है । वह यदि हमेशह घरमें या घरके इधर उधर पहा रहै तौ घरकी हवा कदापि शुद्ध नहि रह सकती । यद्यपि शहरों में तो कूडा करकट इकट्ठा करके घरके वाहर डालदेनेसे म्युनिस्पिल्टोके भंगी सरकारी गाडियोंमें उठाकर ले जाते हैं परंतु छोटे २ गावोंमें वह वहीं पड़ा रहता है इसलिये घरसे बाहर ही कूडा कर्कट फेंक देना उचित नहीं है किंतु गांवसे बाहर बहुत दूर फेकना चाहिये क्योंकि इम मैलेसे हवा जितनी बिगडती है उतनी किसीसे भी नहिं विगडती । इसकारण घर सदैव साफ सुथरा रहै ऐसे उपाय हमेशह करते रहना चाहिये । वस इन दोनों उपायोंके करनेसे वायु बहुधा शुद्ध रहेगी और शुद्ध वायुके सेवनसे शरीरमें किसी प्रकारका रोग नहिं होने पावेगा।
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तृतीय भाग ।
१८. आलोचना पाठ.
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99996ece
बंद पांचों परम गुरु, चौवीसौं जिनराज । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करनके काज ॥ १ ॥
चाल छंद ।
सुनिये. जिन अरज हमारी। हम दोष किये अति भारी । तिनकी व निवृत्ति काज । तुम सरन लही जिनराज ॥ २॥ इक वे ते चउ इंद्री वा । मनरहित सहित जे जीवा । तिनकी नहि करुणाधारी । निरदय है घात विचारी ॥ ३ ॥ - समरंभ समारंभ आरंभ । मन वच तन कीने प्रारंभ | कृत कारित मोदन करिकैं । क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ ४ ॥ शत घाट जु इन भेदनतें । अघ कीने पर छेदनतें । तिनकी कद्दू कोलों कहानी। तुम जानत केवलज्ञानी ॥ ५ ॥ विपरीत इकांत विनयके । संशय अज्ञान कुनयके । -वश होय घोर अघ कीने । बचतें नहिं जात होने ॥ ६ ॥ -कुगुरुनकी सेवा कीनी | केवल अदया कर भीनी । याविध मिथ्यात भ्रमायो । चहुँ गति मधि दोष उपायो ॥७॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी | परवनितासों हग जोरी । प्रारंभ परिग्रह - भीनो । पुन पाप जु या विध कीनो ॥ ८ ॥ सपरस रसना घ्राननको । चख कान विषय सेवनको । -बहु कर्म किये मन मानी । कछु न्याय अन्याय न जानी ॥!:
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जैनवालवोधकफल पंच उदम्बर खाये । मधु मांस मद्य चित चाहे । नहिं अष्ट मूलगुणधारी । विसनन सेये दुखकारी ।।१०।। दुई बीस अभख जिन गाये । सो भी निशदिन भुंजाये। कछु भेदाभेद न पायो । ज्यों त्यों कर उदर भरायो ॥१॥ अनंतान जु बंधी जानो । प्रत्याख्यान अपत्याख्यानो। संज्वलन चौकरी गुनिये । सव भेद जु पोडश मुनिये ॥१२॥ परिहास अरति रति शोग । मय ग्लानि तिवह संजोग । पन वीस जु भेद भये इम । इनके वश पाप किये हम ॥१३॥ निद्रावश शयन कराई । सुपने मधि दोष लगाई। फिर जाग विषय वन घायो । नाना विध विपफल खायो ।। किय अहार निहार विहारा । इनमें नहिं जतन विचारा । विन देखी घरी उठाई । विन शोधी भोजन खाई ।। १५ ।। तवही परमाद सतायो । बहुविध विकलप उपजायो। कछु सुधिबुधि नाहि रही है । मिथ्या मति छाय गई है। मरजादा तुम लिंग लीनी । ताहूमें दोष जु कीनी । भिनभिन अव कैसे कहिये । तुम ज्ञानविष सब पइये ॥१७॥ हा हा मैं दुठ अपराधी । स जीवनराशि विराधी । थावश्की जतन न कीनी । उरमें करुणानहिं लीनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई । महलादिक जागां चिनाई । पन विन गारयो जल ढोल्यो । पंखात पवन विलोल्यो १९ हा हा मैं प्रदयाचारी । बहुं हरितकाय जु विदारी। या मधि जीवनके खंदा । हम खाये धरि भानंदा ॥२०॥
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तृतीय भाग हा में परमाद साई। विन देखे अगनि जलाई। .. तामधि जे जीव जु आये। तेह परलोक सिवाये ॥२१॥ चीभ्यो अन गति पिपायो । ईवन विन शोध जनायो। माह ले जागां बुहारी । चीटि आदिक जीव विहारी ॥२२॥ जल छानि जिवानी कीनी । सोह पुनि डारि जुदीनी। नहिं जलयाना पहुंचाई । किरिया विन पाप उपाई ॥२३॥ जल मल मोरिन गिरवायो । कृमिचल बढुवात करायो। नदियन मघि चीर घुलाये । कोसनक जीव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोष कराई । तामें जु जीव निसराई। तिनका नहि जतन कराया । गलियारे वृष डराया ॥२५॥ पुनि इन्य कुमावन काज बहु भारंप हिंसा सान। कीये तिसना वश पारी 1 कल्गा नहि व विचारी ॥२॥ इत्यादिक पाप अनन्ता । दम कीन श्रीमगवन्ता । संतति चिरकाल उपाई [वानीत कहिय न जाई ॥ २७ ॥ -ताको जु उदय जब आयो । नानाविध मोहि सतायो। फल झुंजन जिय दुख पावै । वचतें कैसे करि गावै ॥२८॥ तुम जानत केवनानी 1 दुख दूर करा शिव यानी । हम तो तुम शरन लही है । जिन्तारन दिरद सही है ।। २६ !! जो गांव पती इक हो । सो मी दुखिया दुम्नु खो। तुप नीन भुवनके स्वामी । दुख मेटो अंतरयामी ॥३०॥ द्रोदिको चीर बहायो । सीताप्रति कमल रचायो। अंजनसे किये अकामी । दुख मेटा अन्वरजापी ।। ३१ ।।
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जैनवालबोधकमेरे अवगुन न चितारो । प्रभु अपनो विरद निहारो। सबदोषरहित कर स्वामी। दुख मेटहु अन्तरजामी ॥ ३२ ॥ इन्द्रादिक पदवी'न चाहूं। विषयनिमें नाहि लुभाऊं। रागादिक दोष हरीजे। परमातम निज पद दीजे ॥३३॥
दोहा। दोषरहित जिनदेवजी, निजपद दीज्यो मोहि । सव जीवनके सुख वढे, आनंद मंगल होय ।। ३४ ।। अनुभव माणिक पारखी, जौहरी श्राप जिनन्द । ये ही वर मोहि दीजियो, चरन शरन आनन्द ॥३॥
१९. पांच इंद्रियें।
स्पर्शन ( त्वक ) रसना (जिहा) वाणा (नासिका) चक्षु ( नेत्र ) श्रोत्र (कर्ण) ये पांच इंद्रिय हैं । इन इंद्रियों के द्वारा ही हमको सर्व प्रकारका ज्ञान होता है इस कारण इनको ज्ञानेंद्रिय भी कहते हैं। हमारे शरीरमें ये इंद्रिय नहि होती तो हम किसी भी विषयको नहिं जान सकते इस कारण ये इन्द्रिये हमको बहुत उपकारी हैं।
स्पर्शन- स्पर्शन शरीरके चमडेको कहते हैं इस इन्द्रिय का विषय स्पर्श करना (छूना ) है अर्थात् स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा शीत, उष्ण, हलका, भारी, चिकना, रूखा,
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तृतीय भाग ।
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कोमल, कठोर इन आठ प्रकारके स्पर्शका ज्ञान होता है इसी कारण इसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं । अन्धकारमें जब चतु इन्द्रियसे ज्ञान नहिं होता तब स्पर्शन इन्द्रियकी सहायता से ही काम लेते हैं। जिसमें भी हाथ वा अंगुलियोंका चमडा सबसे अधिक काम देता है । हाथसे छूकर हम अनेक पदाafat भले प्रकार जान सकते हैं ।
रसना - अर्थात् जिहा इन्द्रियका विषय रस (स्वाद) लेना है। रस पांच प्रकारका है । मिष्ट अम्ल कटु तिक्क लवण ये पांच प्रकारके रस हैं। गुड शक्कर मिश्री आदिके Forest मिष्ट रस (मीठा ) कहते हैं । इमली अमचूर नींबू ers ass fफटकरी यादिके स्वादको अम्लरस कहते हैं । नीम करेले कुटकी यादिके स्वादको कटुरस कहते हैं । सोंठ मिरच पीपल आदिके स्वादको तिक्त वा चरपरा रस कहते हैं। नमक सेंधा नोन जवाखार आदिके स्वादको लवण रस कहते हैं । इन पांच प्रकारके रसोंका ज्ञान रसना इन्द्रियसे ही होता है अर्थात रसना इन्द्रियके ( जिह्वा के ) द्वारा ही हम इन रसोंको जानते हैं । जो रस अपने मनको प्यारा लगे उसको सुरस वा सुस्वादु कहते हैं और जो रस अपने मनको बुरा लगे उसे विरस वा वेस्वाद कहते हैं । हम लोग जो बोलते हैं. उस बोलने में भी रसना इन्द्रियकी बहुत सहायता होती है । जिह्वा न होय तौ हमारे बहुतसे काम अटक जांय जिसके जिहा नहिं होती उसको मूक ( गूंगा ) कहते हैं ।
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जैनवालबोधक
घ्राण-प्राण इन्द्रियका विषय गंध है । गंध दो प्रकार की है । एक सुगन्ध, एक दुर्गंध । इन सुगन्ध दुर्गंध का ज्ञान नासिका इन्द्रिय से ही होता है । जिस वस्तु में जैसी गन्ध होती है उसके सूक्ष्म परमाणु हवा के साथ उड़कर हमारी नासिका इन्द्रियमें प्रवेश करते हैं तब हमे सुगन्ध दुर्गधका ज्ञान होता है । नासिका इन्द्रिय न हो तो कौनसा पदार्थ सड गया है कौनसा ताजा व अच्छा है इत्यादि ज्ञान कदापि नहीं हो
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सकता ।
चक्षु - इन्द्रियका विषय वर्ण ( रूप-रंग ) जानना है । वर्ण पांच प्रकारके हैं । स्वेत, पीत, कृष्ण, नील, लाल । इन वर्णोंको दो दो तीन तीन न्यूनाधिक मिलानेसे हरे, बैंगनी, जंगाल आदि अनेक प्रकारके रंग बन जाते हैं । इन सर्व प्रकारके वर्णों को हम चक्षु (नेत्रों ) द्वारा ही जान सकते हैं चक्षुको दर्शनेन्द्रिय, नेत्र व नयन भी कहते हैं। जहां पर अंबकार नहिं होता वहीं पर चक्षु इन्द्रियसे जान सकते हैं । प्रकाशकी सहायता के विना चक्षु इन्द्रियसे ज्ञान होना वडा कठिन है । दिनमें तौ सूर्यका प्रकाश रहता है और गत्रिमें चंद्रमा तारोंका तथा दीपका प्रकाश रहता है जब चन्द्रमा तारे वहलोंसे ढक जाते अथवा घरोंमें चांद तारोंका प्रकाश नहि पहुंचता तब दीपक ( चिराग ) दिया सलाई वगेरह के प्रका शसे काम लेते हैं जिससे निकटवर्ती आवश्यकीय पदार्थोंको भले प्रकार देख सकते हैं । चतु इन्द्रिय : जिनकी नष्ट हो
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तृतीय भाग।
७३ जाती है उनको अंधे कहते हैं । अंघोंके दुःखोंकी हद्द ही नहिं होती इस कारण चक्षु इन्द्रियकी दर्शन शक्ति किसी प्रकार भी नहिं विगडे ऐसे उपाय हमेशह करते रहना चाहिये।
श्रोत्र- इन्द्रियको कर्ण वा कान कहते हैं। श्रोत्र इंद्रिय का विषय शब्द है । परस्पर दो वस्तुओंके भिड़नेसे शब्द उत्पन्न होकर हवाके साथ हमारे कानमें प्रवेश करता है तब हमें सुनाई पाती है । श्रोत्रके द्वारा जो ज्ञान हो उसको श्रवण ज्ञान कहते हैं । इस कारण इस श्रोत्र वा कर्णको श्रवणेंद्रिय भी कहते हैं । शब्द और कानोंके वोचमें भीत बगेरह द्वारा हवा मानेका रास्ता बन्द हो तो वह शब्द कदापि सुनाई नहिं देगा । श्रवणेंद्रिय जिसकी विगड जाप अर्थात् श्रवण करनेकी शक्ति जिसकी नष्ट हो जाती है उसको बधिर (बहरा ) कहते हैं।
इन पांचों इंद्रियोंको अपने अपने विषयमें लगानेवाला मन है। मनकी प्रेरणाकै विना इन्द्रियें कुछ भी नहिं कर सकती । जब हमारा मन चाहता है तब ही हम देखते सुनते वा सुगन्धादिक अनुभव करते हैं। मन नहि चाहै और किसी अन्य विचारमें या ध्यानमें लगा हो तो आंखसे दीखता नही, कानसे सुनते नहीं, नासिकासे घ्राण नहिं आती जिहासे स्वाद नहिं पाता, स्पर्शका ज्ञान भी नहिं होता । मन हमारे हृदय स्थानमें आठ पांखुडीके कमलके आकारका
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जैनघालवोधकएक गल पिंड है यह प्रगठरूप देखने में नहिं आता। इस कारण इसको भनिद्रिय भी कहते हैं। कमलाकार मनको तौ द्रव्य मन कहते हैं और उसके द्वारा जो विचार होता रहता है उसे भाव मन कहते हैं।
२०. भूधर जैननीत्युपदेशसंग्रह दूसराभाग।
वुढापेका वर्णन।
कवित्त मनहर। बालपनै वाल रह्यो पीछे गृहभार भयो, लोकलाजकाज वांध्यौँ पापनको ढेर है । अपनौ अकाज कीनो लोकनमें जस लीनो, परभो विसार दीनो विषैवसजेर है | ऐसेही गई विहाय अलपसी रही भाय नरपरजाय चर आंधेकी वटेर है । आये सतभैया अब काल है अवैया अहो, जानी रे सयाने तेरे बुजौं हूँ अंधेर है।। ॥१॥
मत्तगयंद सवैण। बालपनै न सँभार सक्यो कछु, जानत नाहि हिताहितही को यौवनस बसी वनिता उर, के नित रागरह्यो लछपीको ।
१ विषयरूपी विषमें फसा हुवा ।२ आयु-उमर । ३ सफेद वाला ४ अव भी ५ युवाअवस्थामें।।
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तृतीय भाग। यौँ पैन दोइ विगोइ दयो नर, डारत क्यों नरकै निज जीको । पाये हैं सेत अनौं शठ चेत, 'गई सोगई अव राखि रहीको' ॥२॥
कवित्त मनहर। सारनर देह सब कारजको जोग येह, यह तौ विख्यात वात वेदनमें बचे है । तामें तरुणाई धर्मसेवनको समै भाई, सेये तब विषै जैसे माखी मधु रचै है ।। मोहमंदभोये धनरामा हितरोज रोये, योही दिन खोये खाय को दौं जिममचै है। .अरे सुन चौरे अब आये शील धोरे अजौं, सावधान होरे नर नरकसौं वर्षे है ॥३॥
मच गयंद सवैया। वायलगी कि वलाय लगी, मदमत्त भयौ नर भूलत त्यौही । बुद्ध भये न भजे भगवान, विषविषखात अपात न क्योंही ।। सीस भयो बगुलाप्सम सेत' रह्यो उर अंतर श्याम अनौही मानुषभो मुक्ताफलहार, गवार तगाँहित तौरत योंही ॥४॥ दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि, वक भई मति लेक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयो पत्यिक लई है ।।
६ वालकपन और जवानीपन ये दो अवस्थायें । ७ नरकमें । ८ मोहरूपी मदमें मन हुये । ९ कोदों धान जिसप्रकार खेतमें वडकर सघन हो जाता है उसीप्रकार मदोन्मत्त हो जाता है । १० सफेदवाला । ११ वात-. जन्य पागलपन । १२ भूतप्रेतकी वाधा । १३ सूतके धागेके लिये।
१ वांको-कहीं परपर रखै कहीं पर पड़ता है २ कमर । ३ झुक गई है: वा टेडी पड गई है । ४ व्याही हुई घरवाली । ५ पलंग-चारपाई...
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जैन बालबोधक
कापत नार वह मुख लार, महामति संगति छांरि गई हैं । - अंग उपंग पुराने परे, तिसनी उर और नवीन भई है ॥ ५ ॥
कवित्त मनहर |
रूपको न खोज रह्यो तरुज्यों तुषार. दह्यो, भयो पतकार किधौं रही डार सूनीसी | कूबरी भई है कठि दूबरी भई देह, ऊर्वरी इतेक आयु सेरमाहि पूँनीसी || जोबनने विदा· लीनी जरानै जुहार कीनी, हीनी भई सुधिबुधि सर्वैवात उनी-सी ॥ तेज घट्यो तात्र घट्यो जीतवको चाव घट्यो, और सव. घट्यो एक तिस्ना दिन दूनीसी || ६ || अहो इन थापने प्रभाग उदै नाहि जानी, वीतराग वानीसार दयारस-भीनी
| जोवनके जोर थिरंजंगम अनेक जीव, जानि जे सताये कछु करुना न कीनी है ॥ तेई अव जीवरास थाये परलोक पास, लेंगे चैर देंगे दुख भई ना नवीनी है। उनहीके भयको भरोसी जान कांपत है, याही टर डोकराने लाठी हाथ लीनी है ॥ ७ ॥
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जाको इंद्र चाहें अहमिंद्र से उपाहें जासौं, जासौं जीवमुक्ति माहि जाय भौमल बहाये हैं। ऐसो नरजन्मपाय विषैविष खायखोयो, जैसे कांच सीटे मूढ मानक गमावै है || माया
६ गर्दन | ७ बुद्धि छोडके चली गई । ८ गात्राणि शिथिलायंते तृष्णैका - तरुणायते । ९ शेष रही है । १० सेरभर रुईमेंसे एक पूनीकी वरावर - ११ कमतीसी । १२ स्थावर एकेंद्रिय जीव । १३ वुड्ढेने । १४ वदलेमें
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तृतीय भाग ।
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नदी वैडि मोजा कायाबलतेज छीजा, या पन तीजा अब कहा बनिया है । तातें निज सीस ढोलें नीचे नैन किये डोलै, कहा वढि बोलें वृद्ध वंदन दुवै है ॥ ८ ॥ मत्तगयंद सवैया |
देखहु जोर जरा भटको, जमराजमहीपतिको अगवानी । उज्जलकेम निसान धेरै, बहुरोगनकी संग फौज पलानी || काय पुरी तजि भाजि चल्यो जिहि, आवत जोवनभूर गुमानी । लुट लई नगरी सगरी दिन दोयमें, खोय है नाम निसानी ॥९॥ दोहा | सुमतिदि तजि जीवनसमय, संवड़ विषय विकार । खलेंसांटे नहि खोईये, जन्मजवाहिर सार ॥ १० ॥
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२१. राजा शुभकी कथा ।
मैथिल देशमें मिथिला नामका नगर है उसके राजाका नाम शुभ था। उसकी रानीका नाम मनोरमा और उसके पुत्र का नाम देवरति या । देवरति गुणवान और बुद्धिमान था कोई प्रकारका दोष या विसन उसे छू तक नहिं गया था । .
१५ दूवकर । १६ तीसरापन बुढापा । १७ सिर हिलाता है । १८ मुह छिपाता है । १९ सारी । २० खलके बदले में ।
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जनपालवोधकएक दिन देवगुरु नापके अवधिज्ञानी मुनिराज मिथि'लामें आये । शुभराजा बहुतसे भव्य जनोंके साथ मुनि बंदनाके लिये गया। मुनिकी सेवा पूजा करके उसने धर्मोपदेश सुना । अंतमें उसने अपने भविष्यके संम्बन्धमें प्रश्न कियायोगीराज! कृपा करके वतलाइये कि आगेको मेरा जन्म कहां होगा । उत्तरमें मुनि महाराजने कहा कि- राजन् तुमारा भविष्य अच्छा नहिं है । प्रथम तौ शहरमें घुसते ही तुमारे मुखमें विष्टाका प्रवेश होगा फिर तुमारा छत्रभंग होगा और आजसे सातवें दिन विजली गिरनेसे तुमारी मृत्यु होगी सो मरकर अपने ही पाखानेमें एक पांच रंगके बडे कीडेकी देह प्राप्त होगी। सच है, पापके उदयसे सभी कुछ होता है।
मुनिका शुभके सम्बन्धका भविष्य कथन सच होने लगा। दूसरे ही दिन बाहरसे लोटकर जब वह शहर में घुसने लगा तौ घोडेके पावोंकी ठोकरखे:उड कर थोड़ा सा विष्ठा का अंश राजाके मुहमें आ गिरा और यहांसे वे थोडा ही आगे और बढे होंगे कि एक जोरकी आंधी आई, उसने उनके छत्रको तोड डाला, घर जाकर अपने पुत्र देवरतिको "बुलाकर कहा-बेटा ! मेरे कोई ऐसा ही पाप कर्मका उदय
आवेगा जिससे मरकर मैं अपने पाखाने में पांच रंगका एक कीडा होऊंगा सो तुम उस समय मुझे मार डालना। इस लिये कि मैं फिर कोई. दूसरी अच्छी गतिः प्राप्त कर सकुं । विष्टा और छत्र मंगकी बातें देखनेसे. राजा. शुभको:
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निश्चय हो गया था कि- मुनिकी कही हुई सभी बातें सच होगी परन्तु तौ भी उन्हे कुछ संदेह या इसलिये उन्होंने विजली गिरनेके भयसे रक्षा पानेकी इच्छासे एक लोहेका संदूक बनवाया और विजली गिरनेका जो समय मुनिराजने बताया था उससे कुछ पहिले उस संदूक में बैठकर नोकरों को आज्ञा दी कि गंगाके गहरे जल में छोड़ देना और प्राध घंटा बाद निकाल लेना | उसे आशा थी कि मैं इस उपाय सेवच जाऊंगा क्योंकि जल में विजलीका असर कुछ नहि होगा | परन्तु उसकी यह आशा करना वेसमझी थी क्यों कि प्रत्यक्ष ज्ञानियोंकी बातें कभी झूठ नहिं होंती, थोडी ही देर में विजली चमकने लगी और एक बडे भारी मगर ने संदुकको ऐसे जोरसे उछला दिया कि संदूक जलके बाहर दो हाथ ऊंचे तक उछल आया और सन्दूकका बाहर. होना था कि उसी समय बडे जोरसे कडक कर बिजली और वह भस्म हो गया | पाखानेमें पांच रंगका कीडा
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उस सन्दूक पर गिर पडी जिससे राजा मरकर अपने उत्पन्न हो गया ।
पिता के कहे माफक शुभ राजाके पुत्र देवर तिने अपने पाखानेमें जाकर देखा तो उसे वहां पांच रंगका कीटा. दीख पडा और उसने अपने पिताकी आज्ञानुसार मारनेके लिये उसे उठाना चाहा तो वह तुरन्त ही विष्ठा ढेरमें घुस गया । देवरात को इससे बडा प्राश्चर्य हुवा, बहुत उपाय
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जैनवालवांधककिया परन्तु उस कीडेको वह मार नहि सका । उसने जि! जिस मनुष्यको इस घटनाका हाल कहा, वह सब संसारकी भयंकर विचित्र लीलाको सुनकर बडा भय करने लगे और संसारका वन्धन काटने के लिये सबने ही जैन धर्म का आश्रय लिया। कितने हीने तो संसारकी समस्त माया ममता छोडकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली और कितने हीने अभ्यास वढानेकेलिये श्रावकोंके व्रत ग्रहण किये।
देवरतिको इस घटनासे बड़ा अचम्भा हो ही रहा था सो एक दिन उन ही देवगुरु नामक अवधिज्ञानी मुनि महा. राजसे इसका कारण पूछा कि-भगवन् क्यों नौ पिताने मुझसे कहा कि- में विष्टामें कीडा होऊगा सो तु मुझे मार डालना, और क्यों जब कि मैं उस कीडाको मारने जाता हूं तब वह विष्टाके भीतर ही भीतर घुसने लगता है।
मुनि महागजने इसके उत्तरमें देवरतिसे कहा कि भाई ! यह संसारी जीव गतिसुखी होता है फिर चाहे वह कितनी ही बुरीसे बुरी जगह क्यों न पैदा हो, वह उसी जगह अपने को सुखी मानता है । वहांसे कभी मरना पसन्द नहिं करता यही कारण है कि-- जवतक तुमारे पिता जीते थे तबतक उन्हे मनुष्य जीवनसे प्रेम था और उन्होंने न मरने केलिए उपाय भी किया परन्तु उन्हे सफलता न मिली और ऐसे उच्च मनुष्य गतिसे मरकर-'कीडा होंगे सोभी विष्टामें इसका उन्हे बहुत ही दुःख था इस कारण ही उन्होंने तुमको उस
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अवस्था में मार डालने के लिये कहा था । परन्तु व उन्हें बड़ी जगह अत्यन्त प्रिय है । वे मरना पसन्द नहि करते इसलिये जव तुम उनको मारने जाते हो तब वह भी भीतर घुस जाते हैं इसमें आश्चर्य और खेद करनेकी कोई बात नहीं है । संसारकी स्थिति ही ऐसी है । मुनिराज द्वारा यह धार्मिक उपदेश सुनकर देवरतिको वडा भारी वैराग्य हो गया और संसार में कुछ भी सुख नहीं है ऐसा समझ कर उन्ही के पास मुनिदीक्षा लेकर आत्मकल्याण करने लगा ।
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२२. श्रावकाचार प्रथमभाग ।
मंगलाचरण |
सकल कर्ममल जिनने धोये, हैं वे वर्द्धमान जिनराय । लोकालोक भासते जिसमें, ऐसा दर्पण जिनका ज्ञान ॥ - बडे चाव से भक्तिभावसे, नमस्कार कर वारंवार । . उनके श्रीचरणोंमें प्रणमूं, सुख पाऊं हर विघ्नविकार ॥ १ ॥
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जिनके ज्ञान दर्पणी समान, समस्त लोक प्रलोक भासता है और जिन्होंने समस्त कर्मरूपी मल आत्मासे धो दिया है उन श्रीवर्द्धमान ( महावीर ) भगवानको मैं बडे चाव और भक्तिभावसे बारंबार नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥
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जैनवालबोधक
धर्म कहनेकी प्रतिज्ञा। जो संसार दुःखसे सारे, जीवोंको सुवचाता है। सर्वोत्तम सुखमें पुनि उनको, भली भांति पहुंचाता है । उसी कर्मके काटनहारे, श्रेष्ठ धर्मको कहता हूं। . , श्रीसमंतभद्रायवर्यका, भाव बताना चहता हूं॥२॥ - जो संसारके दुःखोंसे छुटाकर जीवों को सर्वोत्तम सुख में पहुंचाता है और कर्मोको नष्ट करनेवाला है उसी धर्मको श्रीसमंतभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रावकाचारके अनुसार वर्णन करता है ॥२॥
धर्म अधर्म किसे कहते हैं ! गणधरादि धर्मेश्वर कहते, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान । सम्यकचारित धर्मरम्य है, सुखदायक सब भांति निदान॥ इनसे उलटे मिथ्या हैं लव, दर्शन ज्ञान और चारित्र । भवकारण हैं, भयकारण हैं, दुखकारण हैं मेरे मित्र ॥३॥ __ गणधरादिक धर्माचार्योंने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको सर्वसुखदायक धर्म कहा है और इनसे उल्टे मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्रको संसारकी परिपाटी बढानेवाला अधर्म कहा है ॥३॥
सम्यग्दर्शनका लक्षण। आठ अंगयुत तीन मूढ़ता-रहित अमद जो हो श्रद्धान! .. सच्चे देवशास्त्र गुरुपर दृढ सम्यग्दर्शन उसको जान ॥ .. .
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तृतीय भाग। सच्चे देवशास्त्रगुरुका मैं, लक्षण यहां बताता हूं। तीनमूढता पाठ अंग मद, सबका भेद जताता हूं ॥४॥
आठ अंगसहित तीनमूढता और आठपदरहित सत्यार्य देव शास्त्र गुरुपर दृढ श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है।॥४॥
- सत्यार्थ ( सच्चे ) देवकी पहिचान । जो सर्वज्ञ शास्त्रका स्वामी, जिसमें नहीं दोषका लेश । वही आप्त है वही प्राप्त है, वही आप्त है तीर्थ जिनेश ॥ जिसके भीतर इन बातोंका, समावेश नहिं हो सकता। नहीं आत वह हो सकता है, सत्य देव नहिं हो सकता ॥५॥ - जो सर्वज्ञ, हितोपदेशी, (शास्त्र का स्वामी ) अष्टादनदोष रहित और चीतरागी है वही सत्यार्थ (सचा ) आप्त हैं जिसमें ये तीन गुण नहीं हैं वह सच्चादेव या प्राप्त कदापि नहीं है ॥ ६ ॥
वीतरागी किसको कहते हैं। भूखप्यास चीमारि वुढापा, जन्म मरण भय राग द्वेष । शोक मोह चिंता मद अचरज, निद्रारती खेद ओ स्वेद ॥ दोष अठारह ये माने हैं, हों ये जिनमें जरा नहीं। आप्त वही है देव वही है, नाथ वही है और नहीं ॥६॥
जो भूख १ प्यास २ वीमारी ३ वुढापा ४ जन्म. ५ भरण ६ भय ७ राग ८ द्वेष ६ शोक १० मोह ११ चिंता १२. मद १३ आश्चर्य १४ निद्रा १५ रति १६ खेद.१७.
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जैन बालबोधक
वेद १८ इन अठारह दोषोंसे रहित हो, वही वीतरामी सच्चा देव है || ६ ||
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हितोपदेशी किसे कहते हैं ?.
सर्वोत्तम पदपर जो स्थित हो, परम ज्योति हो हो निर्मल । वीतराग हो महाकृतो हो, हो सर्वज्ञ सदा निवल || आदि रहित हो तरहित हो, मध्यरहित हो महिमावान | सव जीवका होय हितैषी, हितोपदेशी वही सुजान ॥ ७ ॥
जो परमेष्ठी, ( सर्वोत्तम पदपरस्थित ) परमज्योति, वीतराग, विमल, कृतकृत्य, सर्वज्ञ आदि मध्य अंतर हित और सब जीवोंका हितैषी हो वही हितोपदेशी सच्चा देव है । .
जो वीतरागी व कृतकृत्य हो वह हितोपदेशी कैसे हो सका है ? विना रागके विना स्वार्थ के सत्यमार्ग वे बतलाते । सुन सुन जिनको सत्पुरुषोंके, हृदय प्रफुल्लित हो जाते ॥ उस्तादोंके करस्पर्शसे जब मृदंग ध्वनि करता है । नहीं किसी से कुछ चहता है, रसिकोंके मन हरता है ||८|| जिसप्रकार बजानेवाले के हाथके स्पर्श होने पर मृदंग बिना राग और विना स्वार्थके ही मीठे मीठे शब्द सबको सुनाता है उसी प्रकार वीतराग और कृतकृत्य भगवान भी सबके लिये हितका उपदेश कहते हैं जिसको सुनकर सज्जन पुरुषोंका चित्त प्रफुल्लित होता है ॥ ८ ॥
सत्यार्थ ( सच्चे ) शास्त्रका लक्षण |
जो जीवोंका हितकारी हो, जिसका हो न कभी खंडन -
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तृतीय भाग ।
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" जो न प्रमाणोंसे विरुद्ध हो, करता होय कुपथखंडन ॥ वस्तुरूपको भली भांतिसे, बतलाता हो जो शुचितर । .. - कहा आता शास्त्र वही है, शास्त्र वही है सुन्दर तर ||६||
जो जीवोंका हितकारी हो, जिसका कभी खंडन न हों जो प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणोंसे विरुद्ध न हो, कुमार्गका खंडन करनेवाला हो, वस्तुका सत्यार्थ स्त्ररूप बतानेवाला हो, ऊपर कहे हुये सत्यार्थ का कहा हुवा हो वही सच्चा शास्त्र है ॥९॥
सत्यार्थ गुरुका लक्षण |
विषय छोडकर निरारंभ हो; नहीं परिग्रह रक्खै पास । -ज्ञानं ध्यान तपमें रत होकर, सब प्रकारकी छोडै घास ॥ ऐसे ज्ञान ध्यान तप भूषित, होते जो सांचे मुनिवर । वही सुगुरु हैं, वही सुगुरु हैं, बड़ी सुगुरु हैं उज्जलतर ॥१०॥
जो पंचेंद्रियोंके विषयको आशा, आरंभ, व परिग्रहसे रहित हो तथा ध्यान तपमें लवलीन हो, वही सत्यार्थ ( सच्चा ) गुरु है ॥ १० ॥
-:०:
२३. पृथिवी ।
-:०:
इस भारतवर्ष के प्राचीन विद्वानोंने इस पृथिवीको थाली की समान गोल और चपटी तथा स्थिर माना है और सूर्यचंद्रादि ग्रह नक्षत्र तारा ये सब ग्रह पृथिवीके उपरि
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जैनबालबोधक
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भाग में सुमेरु पर्वतके ( जो कि पृथिवीके बीच में लाख योजन ऊँचा दगडाकार स्थित है ) चारों तरफ पूर्वसे दक्षिण पश्चिम होकर फिरते हुए माने हैं और इसी मान्य और ग्रहों की चाल परसे गणित करके वे हिसाव निकालते हैं किअमुक दिन और अमुक समय पर चन्द्रग्रहण और अमुक दिन सूर्यग्रहणा इतना होगा इत्यादि तिथिवार नक्षत्र आदि सब ठीक २ पंचांग बनाकर बताते हैं परन्तु आजकल के इयुरोपीय विद्वानोंने अनेक यन्त्रोंके द्वारा निरीक्षण करके पृथिवीको नारंगीकी तरह गोल और गाडीके पइयेकी तरह पश्चिम से पूर्वकी तरफ फिरती हुई माना है और सूर्यको स्थिर माना है तथा चंद्रादि ग्रहोंको पृथिवी और सूर्यकी चारों तरफ फिरते हुए माना है । वे भी इसी मान्य परसे ( पृथिवीकी चाल परसे) सूर्य चन्द्रमाके ग्रहण आदिका निश्चित समय पहिलेसे ही निर्दिष्ट कर देते हैं यद्यपि इन विद्वानोंने इस बातको प्रत्यक्ष वा अनुमान द्वारा सिद्ध करके नकसा खींचकर सर्व साधारणको समझा दिया ( बहका दिया ) है कि पृथिवी गोल है, घूमती है परन्तु अब भी बडे २ विद्वानोंने इस वातको स्वीकार नहि किया है उनको पूर्णतया विश्वास है कि पृथिवी स्थिर है और थाली की समान वा पहाड़की समान बीचमें से उठी हुई क्षार समुद्रके बीच में टापूकी समान गोल है और इस बातको सिद्ध करने के लिये वहुतसे प्रमाण भी दिये हैं । आज कल
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तृतीय भाग। की नयी शोघसे अनेक इयुरोपीय विद्वानोंने सूर्यको चलता हुवा भी मान लिया है तोभी अभी तक सर्वसाधारणकाभ्रम अभी दूर नहिं हुवा है क्योंकि अभी यह विषय विवादग्रस्त है। परन्तु जवतक यह विषय भले प्रकार निीत न हो जाय तबतक हमें अपने प्राचीन प्राचार्योंके कथनानुसार पृथिवीको स्थिर थालोकी तरह गोलमानना ही ठीक है। क्योंकि प्राचीन आचार्यगण जिनवचनोंके अनुसार ही कथन करते हैं और जिनेन्द्र भगवान कभी अन्यया वादी नहीं होते।
२४. कडार पिंगलकी मृत्यु।
--:-- पूर्वकालमें एक कांपिल्य नामका नगर या उसके राजाका नाम नरसिंह था । नरसिंहराजा वडा बुद्धिमान धर्मात्मा न्यायनीतिके साथ राज्यका पालन करता था, उस राजाके मंत्री सुमत्तिके पुत्रका नाप था कडारपिंगल । यह कडारपिंगल बड़ा कामी दुराचारी था । इसी नगरमें एक सज्जन व्यापारी कुवेरदत्त नामका सेठ था उसकी स्त्री प्रियंगु सुंदरी वडी रूपवती सरल स्वभावकी पुण्यवती धर्मात्मा थी।
. एकदिन कडारपिंगलने प्रियंगुसुंदरीको मंदिरजी जावे देखा और वह कामी उसपर मोहित हो गया। माताने दुःख
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जैनवालवोधकऔर उदासीका कारण पूछा तो वेशर्मने वेखरके माताको कह दिया कि मुझे यदि कुवेरदत्तकी स्त्री प्रियंगुसुंदरी नहिं मिली-तौ में शीघ्र ही मरजाऊंगा। मंत्रीकी स्त्रीने यह बात कडारपिंगलके पिताको कह सुनाई। पिताने पुत्रकी मृत्युके भयसे उसको उपदेश देकर परस्त्रीसे विरक्त करनेकी जगह उसे थोडे दिन बाद उसकी प्राप्ति करादेनेकी आशा दिला भेजी।
दो चार दिन बाद सुमति मंत्रीने राजाको बहकाया कि हजूर रत्नद्वीपमें एक किंजल्क नामका पक्षी होता है वह जिस शहरमें रहता है उस शहरके आस पास महामारी दुमिक्ष रोग अपमृत्यु आदि नहिं होते । तथा उस शहरपर शत्रुओंका चक्र नहिं चल पाता, चोर डाकू भी किसी प्रकार की हानि नहि पहुंचाते और महाराज उस पक्षोकी प्राप्ति भी सहनमें हो सकती है, क्योंकि अपने नगरका प्रसिद्ध सेठ कुवेरदत्त प्रायः जहाजके द्वारा उस द्वीपकी तरफ जाया पाया करता है सो उस सेठको भेजकर अवश्य एक जोड़ा पक्षी मंगाना चाहिये । राजाने मंत्रीकी बात सत्यार्थ मानकर तुरत ही कुवेर सेठको रत्न द्वीपमें भेजकर पक्षी लादेनेको स्वी. कार कराकर जहाजका प्रबंध कर दिया। ___ - कुवेश्दसने घरपर आकर यह परदेश गमनकी बात अपनी खीसे कही तो स्त्रीका माथा उनका और विचार करके वोली माणेश्वर ! ऐसा पक्षी होना असंभव है। इस वातमें मुझे कुछ
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तृतीय भाग ।
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दाल में काला दिखता है, कारण मैं एक दिन मंदिरजी गई थी तौ मंत्री के पुत्र कडारपिंगलने मुझे वडी बुरी निगाहसे देखा था सो कदाचित् मंत्रीने राजाको बहकाकर आपको
परदेश भिजवाया है, आपके पीछे मंत्रीका पुत्र शायद उपद्रव करै तौ ताज्जुब नहीं, अतः ध्व्याप जहाजोंको तौ रवाना कर दें और दो चार दिन यहांका हाल जाने बाद दूसरे जहाज से जावें तौ ठीक हो । कुवेरदत्तको स्त्रीकी यह सलाह ध्यानमें जच गई, उसने जहाज रवाना करा दिया, और प्रसिद्ध करा दिया कि कुवेरदत्त रत्नद्वीपको चले गये, परंतु रात्रिमें अपने घर आकर छिप गया ।
कडा पिंगलको तौ दिन पूरा होना मुशकिल हो गया था, रात होते ही वह कुवेरदत्त शेठके घर चल दिया । प्रियंगु सुंदरीने भी एक पायखानेके ऊपरकी छतपर आदमी जाने -लायक छिद्र कराकर उसपर विना बुना हुआ पलंग बिछा कर ऊपरसे दरी गलीचा वगेरह बिछा दिया और सब शृंगार करके कडारपिंगलकी वाट देखने लगी जब कडारपिंगल आया तो बडे आदर के साथ ऊपर लेजाकर पलंगपर बैठनेको कहा । कडारपिंगल बैठते ही अँधेरे पायखानेके कोटमें जा गिरा । जब वहांकी दुर्गंधकी लपट नाक में घुसी तौ मालुम हुआ कि हम कैसी जगह ( भयानक नरकमें ) पड़े हैं इधर कुबेरदत्तने उसी तरह उस कुएमें कैद रखकर जीवित रखनेका sers करके रत्नद्वीपका रास्ता लिया । ६ महीने बाद
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६०
जैनबालबोधकबहुतसा धन उपार्जन करके शेठ आया और घरपर पहंव. कर कडारपिंगलको उस पायखानेमेसे निकलवाकर गोंदके द्वारा रत्नद्वीपसे लाये हुये अनेक पक्षिओंकी पांखें चिपका कर एक विकटाकार पक्षी बनाकर पिंजरेमें बंद करके राजा के यहां ले गया, और अर्ज किया कि हजूर आपने जो किंजल्क नामका पक्षी मंगाया था सो यह हाजिर है । फिर एकांतमें जाकर सब सच्चा २ हाल कह सुनाया तो राजा कडारपिंगलपर बहुत ही गुस्सा हुधा और उसी वक काला मुंह करके गधेपर चढाकर सारे शहरमें फिराकर और उस की बदमासीका फल सुनाकर जानसे मार डालनेका हुकम दिया । खोटे परिणामोंसे मरकर पापी सीधा नरक पहुंचा। अतएव कुशील भादि पाप कर्मोसे विरक्त होकर सबको सदाचारी बनना चाहिये।
२५. शुद्ध जल।
स्वास्थय रक्षा के लिये जिस प्रकार निर्मल वायुकी आव. श्यकता है उसी प्रकार निर्मल जलकी भी अतिशय भावश्यकता है । यद्यपि आजकल बडे बडे शहरों में जलको परिकृत और निर्मल करके नलके ( जल कलके) द्वारा घर २ पहुंचाया जाता है परंतु उसके द्वारा उच्च कुलकी सनातनी
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तृतीय भाग। धार्षिक क्रियाओं का पालना, शूद्रों वाचर्वी चमड़ेसे अस्पर्शित नलका माप्त होना असंभव समझ अनेक ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य जैनजातिवाले नलका जल पीनेमें घृणा करते है, तथा शहरोंके शिवाय छोटे २ गावों और कसयोंमें नल है ही नहीं, जो जलकी प्राप्ति हो । इस कारण शहरनिवासी वावुओंके सिवाय प्रायः सबहीको कूप, नदी या तालावका जल पीना पड़ता है जो कि बहुधा अपरिष्कृत ( मैला) रहता है, इसलिये. जलको शुद्ध (मासुक ) करनेकी क्रिया सबको अवश्यमेव जान लेना चाहिये, क्योंकि अपरिष्कृत जल पीनेसे वा वस्त्रादिक धोने न्हाने भोजनादि पदार्थों में व्यवहार करने से हमारे स्वास्थ्यको बहुत भारी हानि होती है। चाहे तालाघका जल हो, चाहे खड्डेका हो वा दुगंधमय कूएका जल हो, वा हाड मांस मलवाहिनी नदियोंका जल हो, केवलमात्र प्यास मिटाना कर्तव्य है पेसा समझकर जो प्यास मिटानेकी इच्छासे जैसा तैसा जल पीलेना है सो ऐसा जलपान करना विषपान करनेकी समान है। क्योंकि नित्य इसी प्रकारके जल पीनेसे शरीरमें अनेक प्रकारके रोग हो जाते हैं, और शीघ्र ही हम लोगोंको कालके गालका ग्रास बनना पडता है जलको निर्मल करनेकी क्रिया कुछ कठिन भी नहीं है, किंचिन्मात्र परिश्रम करनेसे ही निर्मल जलकी प्राप्ति मले। प्रकार हो सकती है। . १ .जलको निर्मल करनेके लिये कोयले और बालू रेत:
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जैनवालवोधकये दो पदार्थ मुख्य हैं । तालाब या वावडीका जल, स्नान करके कपडे धोने, वर्तन माजने वगैरहसे दूषित नहिं करके यदि यथेष्ट परिमाणसे उसमें कोयले ओर वालु डाल दिया जाय तो उस तालाव और वावडीका जल सदैव निर्मल रह सकता है इसके सिवाय कूएमें भी बालू और कोयले ढाल दिये जाय तो उसका जल भी विशेष दूषित नहिं होता । परन्तु सबसे सीधा उपाय यह है कि चाहे कूपका जल हो चाहे नदी वालावका जल हो, उसे विना ग्रंथिके ( जिसमें 'कि सूर्यका प्रतिबिंब नहिं दीखे) दोहरे कपडेसे छान ले फिर उसमें लोंग इलायची जावत्री बादाम मेंसे किसी एक का चूर्ण एक बडे जलमें छह मासेके अंदाज डाल दे तो वह जल दोपहर तक निर्मल रहेगा। क्योंकि जलमें स्वास्थ्य विमाडनेवाले जो असंख्य जीव अणुवीक्षण यंत्रसे चलते फिरते नजर आते हैं उनमेंसे प्रायः सभी जीव उक्त प्रकार के छन्नसे छानने पर निकल जायगे और लवंग इलायची आदिका चूर्ण डालनेसे अन्यान्य समस्त दोष नष्ट हो जाने के सिवाय दो पहर तक उस जलमें कीट ( जीव ) उत्पन्न नहिं हो सकते। इसके सिवाय उक्त प्रकारके छन्नेसे छान कर अग्नि पर गर्म करके रख देनेसे भी जल बहत निमेल 'हो जाता है परंतु उसमें भी दोपहरके बाद फिर वह जल
नहिं रखना चाहिए अर्थात् दो पहरसे पहिलेही वह जल · पर्चा देना चाहिये या फेंक देना चाहिये। फिर या तौ उक्त
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तृतीय भाग.।
(शा
प्रकारके छन्नेसे छानकर ताजा जल दो मुहर्च घंटे तक ) पीना चाहिये । अथवा उस छने हुए जल में लौंग इलायची वगेरह का चूर्ण डालकर काममें लाना चाहिये । क्योंकि छने हुए ताजे जलमें भी दो मुहूर्चके बाद जीव फिर उत्पन्न हो जाते हैं और जल वादीयुक्त हो अस्वास्थ्यकर हो जाता है। यदि चौमासेमें नदी तालाव आदिका मिट्टी मिला हुवा बहुत मैला जल हो तो उसमें थोडासा फिटकडी या निमलिका चूर्ण डालकर घंटे भरको रख देना चाहिये । जिससे गाद नीचे जम जायगी तव उपरका निर्मल जल दूसरे वर्जनमें छानकर ले लेना चाहिये, और उसमें लौंग आदिका चूर्ण डालकर अथवा गर्म करके दोय पहर तक वर्तना चाहिये । इसप्रकार जलको प्रासुक करके वर्तनेसे अनेक प्रकारके रोगों से बच सकते हैं. इसमें कोई विशेष प. रिश्रम नहिं है थोडासा परिश्रम करनेहीसे निर्मल प्रासुक. जलकी प्राप्ति हो सकती है।
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२६ । श्रावकाचार दूसराभाग।
सम्यक्त्वके आठ अंग तीनमूढता और आठमद ।
१ । निःशंकित अंग । तव यही है ऐसा ही है, नहीं और नहिं और प्रकार । जिनकी सन्मारगमें रुचि हो, ऐसी मनो खड्गकी धार
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"जैन बालबोधक
है सम्यक्त्व अंग है पहिला, निःशंकित है इसका नाम । इसके धारण करने से ही, अंजन चौर हुआ सुखधाम ॥ ११ ॥
तव (वस्तुका स्वरूप ) यही है, इसी प्रकार है और नहीं है अन्य प्रकारका भी नहीं है इस प्रकार खड्गकी आपके समान सम्मार्ग में धवल श्रद्धान होना सो निःशं'कित अंग है । इस अंग में अंजन चौर प्रसिद्ध हुवा है ॥ ११ ॥ २ । निःकांक्षित अंग ।
मांतिभांतिके कष्ट सहे भी, जिसका मिलना कर्माधीन । जिसका उदय विविध दुखयुत है, जो है पाप वीज अतिहीन ।। जो है सहित लौकिक सुख, कभी चाहना नहि उसको! निःकांक्षित यह श्रग दूसरा, धारानंतमती इसको ॥ १३ ॥
अनेक कष्टोंसे मिलनेवाला, पुण्यकर्मके आधीन जिल के उदयसे बीच २ में दुःख भी होता रहता है, पापका कारण और नाशवान ऐसे संसारी सुखमें इच्छा नहि रखना सो दूसरा निःकांक्षित अंग है इसके पालनेमें अनंतमती नामकी शेठकी पुत्री प्रसिद्ध हो गई है ॥ १२ ॥
३१ निर्विचिकित्सित अंग ।
रत्नत्रय से जो पवित्र हो, स्वाभाविक अपवित्र शरीर । उसकी ग्लानि कभी नहि करना, रखना गुणपर प्रीत सधीर निर्विचिकित्सित श्रंग तीसरा, यह सुजनोंका प्यारा है । पहिले उद्दायन जरपतिने, नीके इसको धारा है ॥ १३ ॥
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तृतीय भाग। रत्नत्रयसे (सम्पग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रसे ) पवित्र और स्वभावसे ही अपवित्र रहनेवाले शरीरमें ग्लानि नहि करके उसके ( सम्यग्दृष्टिके ) गुणों में ही प्रीति करना सो निर्विचिकित्सा नामका तीसरा अंग है । इस अंगको पालकर उद्दयन राजा प्रसिद्ध हो गया है।
४ अमुढ दृष्टि अंग। दुखकारक है कुपय, कुपंथी, इन्हे मानना नहिं मानसे । करना नहिं संपर्क सत्कृती, यश गाना नहि वचनोंसे ॥ चौथा अंग अमूढ दृष्टि यह, जामें अतिशय सुखकारी । इसको धार रेवती रानी, ख्यात हुई जगमें भारी ॥१४॥
कुमार्ग और कुमार्गमें चलनेवालोंकी मन वचन कायसे प्रशंसा स्तुति नहि करना सो अमृढष्टि नामक्षा चौथा अंग है। इस अंगमें रेवती राणी प्रसिद्ध हो गई है ॥ १४ ॥
५। उपगूहन अंग। स्वयंशुद्ध जो सत्य मार्ग है, उत्तम सुख देनेवाला । अज्ञानी असमर्थ मनुज कृत; उसकी हो निदा माला ॥ उसे तोड़कर दूर फेंकना, उपगृहन है पंचम अंग। इसे पाल निर्मल जस पाया, सेठ जिनद्रभक्त सुखसंग ॥१५॥
स्वयंशुद्ध उत्तम सुख. देनेवाले सत्यार्थ जैन मार्गकी अज्ञानी वा असमर्थ जनोंके द्वारा निंदा होती हो तो उस निंदाको दूर कर देना अर्थात् परके अवगुण और अपने गुणों
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जैनवालवोधकको ढक देना सो पांचवां उपगृहन अंग है। इस अंगमें जिनद्रभक्त नामका शेठ प्रसिद्ध हो गया है ॥ १५ ॥
६। स्थितिकरण अंग। सदर्शनसे सदाचरणसे, विचलित होते हो जो जन । धर्मप्रेमवश उन्हे करै फिर, सुस्थिर देकर तन मन धन ।। स्थितिकरण नामक यह छहा, अंग धर्म द्योतक प्रियवर ।। वारिषेण श्रेणिकका बेटा, ख्यात हुवा चलकर इसपर ॥१६॥
किसी कारणवश कोई धर्मात्मा सम्पग्दर्शन, सम्यकचारित्रसे चलायमान होकर भ्रष्ट होता हो तो उसको उपदे. शादि देकर धर्ममें स्थिर कर देना सो छहा स्थितिकरण नामका अंग है। इस मामें श्रेणिक राजाका पुत्र वारिपेण प्रसिद्ध हो गया है ॥ १६ ॥
७ । वात्सल्य अंग। कपटरहित हो श्रेष्ठ भारसे, यथा योग्य आदर सत्कार । करना अपने सधर्मियोंका, सप्तमांग वात्सल्य विचार ।। इसे पालकर प्रसिद्धि पाई, मुनिवर श्रीयुत विष्णुकुमार । जिनका यश शास्त्रोंके भीतर, गाया निर्मल अपरंपार ॥१७॥
अपने सहधर्मी भाईयोंका छल कपट रहित आदर सत्कार करके गुणोंमें प्रीति करना सो. सातवां वात्सल्य अंग है। इस अंगमें विष्णुकुमार मुनि. प्रसिद्ध हो गये हैं १७
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तृतीय भाग ।
८ । प्रभावना अंग ।
जैसें होवे वैसे भाई, दूर हटा जगका अज्ञान । कर प्रकाश करदे विनाश तम, फैलादे शुचि सच्चा ज्ञान || तन मन धन सर्वस्व भले हो, तेरा इसमें लग जावै । वज्रकुमार मुनींद्र सहय तू, तब प्रभावना कर पावै ॥ १८ ॥
जिसप्रकार वन सके उस प्रकार जगतका अज्ञान अंधकार दूर करके सत्यार्थ जैन धर्मका प्रभाव प्रगट करदेना सो प्रभावना नामका आठवां अंग है । इस अंग में वज्रकुमार मुनिने प्रसिद्धि पाई है ॥ १८ ॥
अंगहीन सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं ।
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सम्यग्दर्शन सुखकारी है, भवसंतति इससे मिटती । अंगहीन यदि हो इसमें तो, शक्ति नहीं इतनी रहती । विपकी व्यथा मिटा देनेकी, शक्ति मंत्रमें है प्रियवर' | अक्षर मात्राहीन हुयेसे, मंत्र नही रहता सुखकर ॥ १६ ॥ जिस प्रकार एक भाघ अक्षररहित मंत्र सांप वगेरह के त्रिपको दूर करने में असमर्थ है उसी प्रकार अंगरहित मोक्षदाता सम्यग्दर्शनं मी भवसतनिको दूर करनेमें असमर्थ होता है ॥ १६ ॥
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१ | लोकमूढता ।
गंगादिक नदियोंमें न्हाये, होगा मुझको पुण्य महान | ढेर किये पत्थर रेतीके, होजावैगा तत्व ज्ञान ॥
गिरिसे गिरे शुद्ध होऊंगा, जलें आगमें पावनतंर ।
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जैनवालवोधकऐसे मनमें विचार रखना, लोकमूढता है प्रियवर ॥ २० ॥ . गंगा जमुना आदि नदियोंमें न्हानेसे, तथा बालू और पत्थरके ढेर करने अथवा पर्वतसे गिरने वा अग्निमें जलनेसे पुण्य होता है ऐसा मानना सो लोकमूदता है ।। २० !!
२। देवमूढता। दई देवताकी पूजा कर, मन चाहे फल पाऊंगा। मेरे होंगे सिद्ध मनोरथ, लाम अनेक उठाऊंगा। ऐसी आशायें पनमें रख, जो जन पूजा करता है।
रागद्वेष भरे देवोंकी, देवमूढता धरता है ॥ २१ ॥ - इसका अर्थ सीधा है लडके अपने आप अर्थ कह सकते हैं इसलिये नहि लिखा ॥ २१ ॥
३। गुरुमूढता। । नही छोडते गांठ परिग्रह, भाभको नहिं तजते हैं। भवचक्रोंके भ्रमनेवाले, हिंसाको ही भजते हैं ।। साधुसंत कहलाते तिसपर, देना इन्हे मान सत्कार । है पाखंडि मृढता प्यारो, छोडो इसकोकरो विचार ॥२२॥
आरंभ परिग्रह और हिंसाकेधारक संसार चक्रमें भ्रमण करनेवाले पाखंडी तपस्वियोंका आदर सत्कारादि करना सो गुरु मूढता है ॥ २२ ॥
आठ मद। मान जाति कुल पूजा ताकत, ऋदि तपस्या और शरीर। इन पाठोंका आश्रय करके, जो धर्मर करना मद वीर ॥
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तृतीय भाग। मदमें आ निजमि जनोंका, जो जन करता है अपमान । वह स्वधर्मके मान भंगका, कारण होता है प्रज्ञान ॥२३॥
विद्या, जाति, कुल प्रतिष्ठा, बल, धन, तपस्या और रूप इन आठोंका घमंड करके अन्य धर्मात्माओंका अनादर करता है वह अपने ही धर्मका अनादर करता है ।। २३ ।।
पापासव निरोधका फल। अगर पापका हो निरोध तो, और संपदासे क्या काम । अगर पापका पात्रक हो तो, और सपंदासे क्या काम ।। मित्रो यदि पहिला होगा तो, दुखका उदय नहीं होगा । यदि दुभरा होगा तो संगद् होनेपर भी दुख होगा।॥ २४॥ __यदि आपका निराध है तो दूसरी संपदाकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि पापके निरोध होनेसे दुख न हो कर सुख ही होगा और यदि पापका आगमन है तो दूसरी संपदा होने परभी दुःख होगा ॥ २४ ॥
2000ccee २७. अंजन चोरकी कथा।
DASAEEEE राजगृही नगरीमें एक जिनदत्वं नामके बडे धर्मात्मा श्रेष्ठी थे, उनको आकाशगामिनी विद्या प्राप्त थी। वे प्रतिदिन आकाशमार्गसे अकृत्रिमचैत्यालयोंके दर्शन करनेको .१ अनादिकाल से बनेहुये ४५८ मंदिर इस मध्यलोकमें सुमेरु आदि पर्वतोपर हैं।
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जैनयालवोधकजाया करते थे सो सोमदत्त नामके मालीने एकदिन शेठसे पूछा कि आपप्रतिदिन प्रातःकाल ही कहां जाया करते हैं तव जिनदत शेठने कहा कि मुझे अमितपम और विद्युत्मभ नामके दो देवोंने खुश होकर आकाशमें चलनेकी विद्याप्रदान की है सो मैं उसीके प्रभावखे प्रकृत्रिम चैत्यालयोंके दर्शनपूजन करनेको जाया करता हूं और उन देवोंने कृया करके इस विद्याके सिद्ध करनेकी विधि भी बता दी है। तब सोमदचने कहा कि कृपा करके मुझे उसकी विधिवतार्दै तौ मैं भी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करके प्रतिदिन आपके साथ अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करके अपनी इच्छा पूर्ण करूं जिनदत्त शेठने कहा-कृष्णचतुदर्शीकी अंधेरी रातमें इपशान. भूमिमें वटवृक्षकी पूर्वतरफकी डालीपर एकसौ आठतनीका. दूवकी घासका छीका वांधकर और उसके नीचे जमीनपर चंदनादिसे चर्चित करके चपचमाते हुए छुरी. कटारी वगेरह तीक्ष्ण शस्त्रोंको सीधे मुखसे गाड़ देना फिर उस छींकेपर वैठकर नमस्कार मंत्र पढना और नमस्कार मंत्र पूरा होते ही एक रस्सी काट देना इसप्रकार एकसो पाठवार मंत्र जपकर एकसो आठ रस्सी काट देना तो भाकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जायगी। .. ..सोमदचने वैसा ही किया और नमस्कार मंत्रजापकरके प्रथम रस्सी काटनेको तैयार हुआ तो नीचे चमचमाते हुए... शस्त्र देखकर डरगया और मनमें शंका होगई कि सायद जिन-,
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तृतीय भांग |
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दत्त शेठका कहना सूंठ हो तो मैं व्यर्थ ही मारा जाऊंगा ऐसी शंका करके नीचे उतर आया परंतु फिर विचार हुवा कि जिनदत्त सेट बडे घर्मात्मा हैं, दयावान हैं वे मुझे झूठ बोलकर मारनेका उपदेश क्यों देने लगे, मेरे मारनेसे उनका क्या उपकार होगा । ऐसा समझकर फिर बटपर चढा और मंत्र पत्रकर रस्सी काटनेको उद्यत हुवा कि फिर शंका होगई इसी प्रकार वह शंकित होकर पेडपर तथा छींकेपर चढने उतरने
लगा ।
इवर एक अंजन चोर था वह अंजना सुंदरी वेश्याके यहां जाया करता था | वेश्याने एकदिन प्रजापाल राजाकी रानीके गले में रत्नजडित सुवर्ण हार देख पाया | जब अंजन चोर रात्रिमें वेश्याके घर आया तो वह बोली कि रानीके गलेका हार मुझे ला दो तो मैं तुमसे बोलूं नहीं तो नहीं । चौरने कहा कि यह कौनसी बडी बात है, उसीवक्त राजाके महकमें चला गया और सोती हुई रानीके गलेसे हार उताकर चल दिया परंतु पहरेदारोंको चौर तो नहीं दीखा केवल हारका प्रकाश वा चमक दिखने लगी सो यह कोई अंजन चौर है, रानीसाहवका हार चुराकर लेजाता दिखता है, समझ उसे पकड़कर खींचातानी करने लगे। चौरने हार छोडकर जान बचाकर भागना शुरू किया । राजाके पहरेदार भी उसका पीछा करने लगे । वह चौर भागता भागता सोमदचके पास पहुंचा और उसे वृक्षसे चढते उतरते देख पूंछने
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जैनघालवोधकलगा कि-यह क्या बात है जो ऐसा करते हो । सोमदत्त प्राकाशगामिनी विद्याकी प्राप्तिका सव हालकह कर बोला कि मुझे सेठकी वातपर दृढ़ विश्वास ( श्रद्धान ) नहीं होता। ___चौरने कहा कि मुझे वह मंत्र बताओ मैं इसे सिद्ध करूंगा क्योंकि चौरके पीछे तौ राजपुरुष चले आरहे थे वे भी नौं पकडकर शुली देदेंगे इससे तो यही मंत्र यदि सिद्ध हो जायगा तो वचाव हो सकता है। सोमदत्तने णमोकार मंत्र सुनाया, इतनेहीमें राजाके सिपाही आते दीखे इसने कट पट पेडपर चढकर छींकेमें बैठकर निःशंक हो "णमो वाणु कछू न जानुं शेठ वचन परमाणु" इसप्रकार अथवा "ताण ताणं कछु न जाणं सेठवचन परमाणं" कह कर एक दमसे १०८ रस्सियें काट डाली। रस्सी काटते ही आकाशगामिनी विद्याने ऊपरका ऊपर ही उठालिया और फिर कहा कि-बोलो क्या आज्ञा है ? चौरने कहा कि जिनदत्त सेठके पास ले चल | जिनदत्व सेठ उस समय सुदर्शन मेरुके चैत्यालयमें दर्शन पूजनादि कर रहा था सो अंजन चौरने भी भावसहित दर्शन पूजन किये तत्पश्चात् जिनदत्तशेठको नमस्कार करकें विद्यासिद्धिका सव हाल कहकर बोला कि आपके उपदेशसे ही मुझे आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई है अब आपही मुझे संसारसे पार उतरनेका उपदेश दीजिये शेठने मुनि और मृहस्य धर्मका उपदेश दिया। अंजनका चित्त मुनि धर्म अंगीकार करने में तत्पर हो गया तब चारण ऋद्धिके धारक मुनि
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तृतीय भाग। के पास दीक्षा लेकर तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त होकर कैलास पर्वतपर देह विसर्जनकर अंजन चौर निरंजन (मुक्तवा सिद्ध) हो गये।
२८. पुद्गल परमाणु।
Өәәәeeee हमारे जैनसिद्धांतमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन ६ द्रव्योंमेंसे युगल द्रव्यको मूर्तिक जड माना है, इसके सबसे छाटे खंडको (जिसका फिर खंड नहिं हो सकै ) परमाणु कहते हैं और दो तीन चार आदि परमाणुओंके सूक्ष्म स्कंधोंको अणु वा दूधणुक स्कंध कहते हैं । इन सब परमाणुओंमें रूप रस गंध स्पर्श ये ४ गुण मुख्य और उत्तर गुण २० होते हैं और इन परमाणुओंमें न्यूनाधिक मिलकर अनंत प्रकारकी पर्याय ( अवस्थायें हालतें) पैदा करनेकी शक्ति होती है । दुनिघांमें जितने पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं वे इन्ही पुद्गल परमाणुभोंके नानाप्रकारके परिणमन से पैदा हुये है।
आज कलके वैज्ञानिक विद्वानोंने अपनी खोजसे अणुके भेद विशेषको एक ईयर नामका सूक्ष्म पदार्थ निर्णय किया है वह इंद्रियोंके अगोचर जगद्व्यापी है । किसी २ विद्वानका मत है कि यही एक आदिम अर्थात् मूळपदार्थ है इसीकी
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जैनबालबोधक -
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पल्टना से कितने ही मुख्य वा रूढ पदार्थों की सृष्टि हुई है । रूढ पदार्थ कितने ही क्यों न हों परंतु अधिकांश विद्वानों ने ६५ रूढ पदार्थ पाने हैं | जैसे मम्छ, यवक्षार, अंगारक, स्वर्ण, रौप्य, लौह, ताम्र, जस्ता, रांगा, गंधक और पारा इत्यादिक । इन सब रूढ पदार्थोंको भूत तथा अयौगिक पदार्थ भी कहते हैं । क्योंकि इन पदार्थोंमें कोई दूसरा पदार्थ as for है और जो पदार्थ दो तीन चार रूढ पदार्थों के योगसे बने हैं उनको यौगिक पदार्थ कहते हैं । यौगिक पदार्य अनंत हैं। नदी, पहाड, वृक्ष, जल, वायु, पृथिवी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, पित्तल, कांसा, काच, लवण इत्यादि समस्त पदार्थ जो हमारी दृष्टिगोचर होते हैं, वे इन्ही ६५ पदार्थोके योगसे बने हैं |
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इन रूढ पदार्थोंके उस खंडको परमाणु कहते हैं जिस का कि फिर खंड नहि हो सके अर्थात् इन मूल पदार्थोंको तोडते २ इतने सूक्ष्म हो जावें कि फिर उसमेंसे एक एक टुकडे का दूसरा टुकडा करना चाहें तौ नीिं हो सके उसीको परमाणु कहते हैं परंतु वह परमाणु इतना सूक्ष्म है कि अब तक कोई भी विद्वान उसकी प्राकृति निश्चय नहिं कर सका है । इस समय अनेक अणुवीक्षण यंत्र तैयार हुये हैं, उनके द्वारा देखनेसे क्षुद्रसे क्षुद्र वस्तु भी बहुत बडी होकर दिखती है । उनं अणुवीक्षण यंत्रोंके द्वारा उसके हिस्से करके देखने पर उसके इतने टुकडे हो जाते हैं कि फिर वे देखने में
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तृतीय भाग। नहि भासकते । इसकारण अणुवीक्षण यंत्रद्वारा भी परमा. गुका देखलेना अत्यंत असंभव है । एकसे अधिक मिले परमाणुओंको अणु कहते हैं और यौगिक पदार्थोंका अतिशय सूक्ष्म अंश भी अणु कहा जाता है क्योंकि उस एक अणुमें भी अनेक रूढ पदार्थोंके अंशोंका संयोग है।।
.. मकडीके जालमें जो मूत होता है उसमें अणुवीक्षण यंत्रके द्वारा देखनेसे ६ हजार तारोंसे भी अधिक तारोंका संयोग मालूम होता है । कीटाणु नामके जो सूक्ष्म प्राणी (जीव) हैं वे अणुवीक्षण द्वारा देखनेमें आते हैं । वे सब जीव जल, वायु, वर्फ और अन्न वगेरह द्रव्योंमें रहते हैं बल्कि जलमें तो ऐसे कीटाणु (स ) हैं कि उन करोडों जीवोंको इकट्ठा करने पर भी वालू रेतके एक कणकी वरावर नहिं हो सकते और उन जीवोंके भिन्न २ माकार हैं, रक्त मांस भी हैं। वे रक्त मांस भी अनेक परमाणुओंका एक पिंड (स्कंध ) है । जब ऐसे सूक्ष्म जीव भी देखनेमें नहि आते तब परमाणु तो अति मूक्ष्म है सो नेत्रगोचर नहिं हो सकता।
एक मिरचको तोड़कर जीभपर लगाते हैं तो चरपरा मालूम होता है, परंतु उस मिरचका कोई अंश क्षय हुआ नहि दीखता यानी मिरच ज्योंकी त्यों मालूम होती है। यदि मिरचका कोई अंश जिहाके नहिं लगा तो चरपरार्ट कहांसे आया ? इससे सिद्ध होता है कि जिवापर जो चरप
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जैनबालबोधकराट लगा सो अवश्य ही अनेक परमाणुओं का समूह है। इसी प्रकार सुगंधमय पदार्थके जद प्रणु हवाके साथ मिल. कर हमारी नासिकामें प्रवेश करते हैं तो हमें सुगन्ध मालूम होती है । जैसे एक रत्ती कस्तूरीकी सुगन्धसे बहुत वडा घर २० वर्ष तक सुगंधित रह सकता है, फिर कस्तुरीको देखो तो उतनीकी उतनी ही पड़ी रहेगी । यदि उस कस्तुरी से निरंतर सुगंधमय असंख्य परमाणु नहिं निकलते तो किस प्रकार वह घर सुगंधित रह सकता है ? भर विचार करो कि वे परमाणु एक रची कस्तुरीमेंसे २० वर्षे तक दरावर निकलते रहे तो कितने सूक्ष्म होंगे । इसकारण परमाणु कितना छोटा है यह निर्णय करनेमें नहि आ सकता परन्तु हमारे जैन ग्रन्थों में पूर्वाचार्याने निश्चय किया है कि वह परमाणु पट्कोण रूपी है। पदार्थ विद्या पहनेसे परमाणुओंके अनेक प्रकारके समाव व शक्तियें मालूम होती हैं और परमाणुओंके गुण व शक्तियें मालुम होनेसे सृष्टिकी रचना कैसे अपने श्राप अनादि कालसे होती विनशती आई है सो सब मालूम हो जाता है अत एव पदार्थ विद्याका अध्ययन भी करना परमावश्यकीय है ।
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तृतीय भाग। २९. भूधरजैन नीत्युपदेशसंग्रह तीसरा भाग।
कतन्य शिक्षा।
मनहर। देव सांचे मान, सांचो धर्म हिये थान,
साचौं ही बखान सुन सांचे पंथ आव रे । जीवनकी दया पाल झूठ तजि चौरी टाल,
देख ना विरानी वाल तिसना घटाव रे॥ अपनी वडाई परनिंदा मत कर भाई,
यही चतुराई मदमांसको वचाव रे। साध षट कर्म साधु संगतिमें बैठ वीर,
जो है धर्म साधनको तेरे चित्त चाव रे ॥१॥
सत्यार्थ देव गुरु धर्मशास्त्र की पहचान । सांचो देव सोई जामें दोषको न लेश कोई,
वहै गुरु जाके उर काहुकी न चाह है। सही धर्म वही जहां करुणा प्रधान कही,
ग्रंथ जहां आदि अंत एकसो निवाह है। ये ही जग रत्न चार इनको परख यार,
___सांचे लेहु झूठे डार नरभोको लाह है। १ व्याख्यान अर्थात् शास्त्र ।२ परकी स्त्री । ३ साधुओंकी वा सज्जनोंकी। ४ इच्छा-उत्कंठा । ५ लाभ। -
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जैनबालवोधकमानुप विवेक विना पशुकी समान गिना, ताते याही वात ठीक पारनी सलाह है ॥२॥ सांचे देवकी पहचान।
छप्पय। जो जग वस्त समस्त, हस्त तल जेम निहारे। जगजनको संसार,--सिंधुके पार उतारै ।। श्रादि अंत अविरोधि, वचन सवको सुखदानी ।
गुन अनंत जिह माहि, रोगकी नाहिं निसानी ।। माधव महेश ब्रह्मा किधौं, वर्द्धमान के बुद्ध यह । ये चिहन जान जाके चरन, नमो नौं मुझ देव वह ॥ ३॥
___यहमें हिंसा निषेध । कहै पशु दीन सुनि जग्यके करैया मोहि, . ___ होमत हुतासनमें कौनसी बडाई है। स्वर्ग सुख मैं न चहौं 'देहु मुझे' यौंन कहौं,
घास खाय रहौं मेरे यही मन भाई है। .. जो तू यह जानत है वेद यौं वसानत है, - जग्यं जरयो जीव पावै स्वर्ग सुखदाई है। हार क्यों न वीर यामें अपने कुटुंब ही को,
मोहि जि न.जारै जगदीसकी दुहाई है ॥ ४ ॥ ..
३
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१ विष्णु २ महादेव-शिव ३ बुद्धदेव । .
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तृतीय भाग ।
संसारी जीवका चितवन |
चाहत है घन होय किसी विध, तौ सब काज सरै जियरा जी । गेड चिनीय करूं गहना कंछु, व्याहि सुता सुत वांटिय भौजी || चितत यौं दिन जांहि चले, जम आनि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलार गये, रहि जाय रुँपी शतरंजकी बाजी || तेज तुरंगें -सुरंग भले रथ, मत्त मैतंग उतंग खरे ही । दास खवास वाटा, धन जोर करोरन कोश भरे हो ॥ ऐसे बढे तौ कहा भयो एनर, छोरि चले उठि अंत छेरे ही । - धाम खरे रहे. काम परे रहे, दाम डेरे रहे ठाम घरे ही ॥ ६ ॥
अभिमान निषेध |
कवित्त मनहर |
कंचन भंडार भरे मोतिनके पुंज परे, घने लोग द्वार खरे मारग निहारते । जानें चढि डोलत हैं झीने सुर बोलत हैं,
काकीहू और नेक नीके न चितारते ॥ कोलौं धन खांगे को कहै यौं न, लांगे
चिनाकर-बनाकर २ विवाह वगेरह उत्सवोंमें जो मिष्टान बांटा नाता है उसे भाजी कहते हैं । ३ जमी हुई । ४ घोडा | ५ हाथी | ६ नाई बगेरह खुसामदी । ७ खजाना । ८ अकेलेही । ९ पढे रहे जहांके तहां । यान-स्रवरी ११ कब तक- धन खांयगे बहुत धन है कोई ऐसा मत कहो :
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क्योंकि वेही फ़िर लांगे होकर नंगे पैर फिरेंगे. कंगले बनकर पराये पैर.
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( जूतिया ) झाडकर उदर निर्वाह करेंगे ।
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जैनवालवोधकतेई फिर पाय नांगे कांगे पगमारते । एते पै अयाने गरगने रहैं विभौ पाय,
धिक है समझ ऐसी धर्म ना विसारते ॥ ७॥ देखो भर जोवनमें पुत्रको वियोग आयो,
तैसें ही निहारी निज नारि काल मगरें । जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै,
रंक भये फिर तेज पनही न पग में॥ एते पैअभागे यन जीतवसौं धरै राग, .
होय न विराग जाने रहगो अलग मैं । आँखिन विलोकि अंध मुसेकी अधेरी करे, ऐसे राज रोगको इलाज कहा जगमें ॥ ८॥
___ दोहा। जैन वचन अंजन वटी, अाज सुगुरु प्रवीन । राग तिमिर तउ ना मिटे, बडो रोग लख लीन॥९॥
जोई दिन कटै सोई आवमै अवश्य घटे, ... बूंद बूंद बीते जैसे अंजुलीको जल है। - देह नित छीन होत नैन तेज हीन होत,
१२ अजान मुर्ख। १३ संपत्ति घन । १४ दीखते । १५ सरगोसकी समान भयात् खरगोसका कोई पीछा करता है तो थक जाने पर एक जगह भांस मीचकर निर्भय हो बैठ जाता है और अपने मनमें समझ लेता है * भव मुझे कोई नहीं देखता । १६ मायुनें ११७ विवम् पुरानी।
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तृतीय भाग। जोवन मलीन होत छीन होन बल है ।। आवै जरा नेरी तकै अंतक अहेरी अवै. __परभो नजीक जाय नरभो निकल है। मिलकै मिलापी जन पूछत कुशल मेरी,
ऐसी दशा माहि मित्र काहेकी कुशल है ॥ १० ॥
३०. अनंतमतीकी कथा।
अंगदेशमें चंपानामकी नगरी राजा वसुवर्धन रान करता था । सी नगर में एक मियहत्त नामका शेठ था उसकी स्त्रीका नाम था अंगवती और उनकी पुत्रीका नाम अनंतमती था।
सेठ प्रियदत्तने अष्टान्हिका पर्वमें धर्मकीर्ति आचार्यक पास पाठ दिनका ब्रह्मचर्य व्रत लिया। खेलसे अनंतमती को भी ब्रह्मवर्यव्रत ग्रहण करवा दिया था।
जव अनंतमती विवाह योग्य बडी हो गई तो शेठने उसके विवाह करनेकी खट पट करना प्रारंभ की तव पुत्री अनंतमतीने कहा-मुझे तो आपने ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था! अब विवाह करनेसे क्या लाभ ? पिताने कहा किमैंने तो खेलमें ब्रह्मचर्यव्रत दिया था, सो भी पाट दिन
१निकट । २ यमराजरूपी शिकारी।
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जैनबालबोधकतक । अनंतमतीने कहा धर्म व व्रतमें भी कहीं इंसी ठहा वा क्रीडा होती है। मैंनै तौ आठ दिनकी बात नहि सुनी थी मैंनै तौ हमेशहके लिये ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया था अब मेरे तो इस जन्ममें विवाह करनेकी सर्वथा निवृत्ति है। ऐसा कहकर वह विद्याध्ययनादि करती हुई धर्मध्यानमें अपना समय विताने लगी। .
एक दिन वह वागमें झूला झूलती थी तो विजयाद्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके किम्मरपुरका विद्याधर राजा कुंडलमंडित अपनी सुकेशी भार्यासहित विमानमें बैठा हुआ जाता था सो वह अनंतमतीको देखकर उसपर मोहित हो गया और अपनी स्त्रीको घरपर रखकर फिरसे आकर रोती विलाप करती अनंतमतीको उठाकर ले गया परंतु अपनी स्त्रीको सामने आती देख डरसे पर्णलघु विद्याके द्वारा भयंकर जंगल में छोड दिया । वहांपर उसको रोती हुई देखकर भीम नामके भिल्ल राजाने उसे अपनी वस्तीमें ले जाकर अपनी पटरानी बनाकर उसके साथ दुष्टता करना प्रारंभ किया परन्तु वहाँके वनदेवताने उस भीम राजाको वडी भारी सजा दी। तब भीमने समझा कि यह कोई देवांगना है। अतः भीमने पुष्पक नामके व्यापारीको सौंपदी। उसने भी लोभ देकर उसे अपनी स्त्री बनाना चाहा परन्तु अनंतपती
ने स्वीकार नहिं किया तब उसने अयोध्या नगरीमें लाकर 'कामसेन नामकी कुट्टनीको देदी। वह कुट्टनीके कहनेसे .
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तृतीय भाग।
१९३ . किसी प्रकार भी वेश्या न हुई तब उसने सिंहराजको दिखा दी उसने गत्रिमें जबरदस्ती उससे व्यभिचार करना चाहा परन्तु अनंतमतीके व्रतके माहाम्यसे नगरदेवताने उस राजा को खूब पार लगाई तत्र भयभीत होकर उसे घरसे निकाल दिया । तब रोती दुःख उठाती हुई कमल श्रीकांता अर्जिकाने श्राविका ममझकर बडे आदरसे अपने पास रक्खा ।
इसके पश्चात् अनंतमतीके शोक विस्मरणार्थ प्रियदत्त सेठ बहुतसे यात्रियों सहित तीर्थयात्रा करता २ अयोध्या में आया और अपने शाले जिनदत्त श्रेष्ठीके घर संध्या समय प्रवेश करके रात्रिमें अपनी पुत्रीके खो जानेकी वात कही । प्रातः काल ही वे तो सब बंदना भक्ति करने गये इधर जिनदत्त शेठकी स्त्रीने अनंतपतीको रंगसे चौक पूरने और रसोई करने के लिये अति चतुर समझ बुलाया सो अनंतपती सब कामकरके कमलश्रीकांताकी वस्तिकामें (धर्मशालामें) चली गई । जब कि बंदना भक्ति करके प्रियदत्त शेठ पाया तो उसने आंगन में चौकपूरना ( मांडना ) देखकर अनंतमतीको याद करके गदगद स्वरसे अश्रुपात करते हुये जिनदचसे कहा कि जिसने यह माडने (चित्र) खीचे हैं उसे मुझे दिखाओ। जिनदत्तने अनंतमतीको बुलाकर दिखाया प्रियंदच और उसकी स्त्रीने अपनी खोई हुई पुत्रीको पाकर बडा आनंद पाया जिनदत्तने भी इनके संयोग पर बडा पानंद उत्सव किया। अनन्तमतीने कहा-हे पिता ! अब मुझे तप
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जैनबालबोधककरनेके लिये भाज्ञा प्रदान करें। मैंने इस एकही भवमें संसारकी विचित्रता देख ली। तब पिताकी भाशा पाय कमलश्रीकांतिका अर्जिकाके पास दीक्षाग्रहण करके अर्जिका हो बहुत काल तपस्या करके अंतमें विधिपूर्वक सन्यास मरण करके स्त्रीलिंग छेद कर बारहवें स्वर्गमें जाकर देव हुई ।
३१. आहार्य पदार्थ। हमारे देशमें जो आहार किया जाता है वह शरीर रक्षाकी इच्छासे नहीं किया जाता. भूख लगी है, तकलीफ होरही है इसको मिटाना जरूरी है, ऐसा समझ जो मिला सोडूंस कर पेट भर लिया करते हैं, शरीरको सतेज पबल और भले प्रकार पुष्ट रखनेकेलिये, तथा दीर्घायु होकर दैहिक सुख भोग करनेकेलियेही आहार करना चाहिये सो कोई नहिं समझते। जो कुछ मिला सो खालिया उमसे चाहे शरीर नष्ट हो, चाहे वृद्धि हो उस तरफका कुछ भी विचार न रख शीघ्रताके साय पेट भरके नित्यकी वेगार टाल देते हैं । नित्यका शाहार करना एक सुखका मूल कारण है सो कोई भी नहीं समझते।
यदि किसीके यहांसे निमंत्रण [ न्यौता] पाता है तो प्रसन्न हो जाते हैं. और नियंत्र" देनेवालेके घर जाकर जितना पेटमें अट सक्ता खाकर अपने स्वास्थ्यको नष्ट कर देते हैं। इसके सिवाय हम लोगोंका रसोई घर.पाया ऐसी पुरी बबस्वामें होता है कि उसके देखते ही घृणा पाती है। ऐसी
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तृतीय भाग। घृणायुक्त जगहमें बैठ कर पेट भर लेते हैं । जिससे बहुत ही हानि होती है और हमेशहके लिये हम रोगग्रस्त हो दुःख उठाते हैं।
मनुष्य देहके लिये जिस प्रकारका प्रहार करना चाहिये उसका हम द्वितीय भागके २०वे पाठमें थोडासा विवरण लिख पाये हैं । कि-"पुष्टिकर द्रव्य खाना चाहिये सो पुष्टिकर पाहार वनाने में कोई बहुत खर्च होता हो सो नहीं है। चने, अरहर, मूंग, उडद इत्यादिकी दाल मात्रमें ही पुष्टिकर शक्ति विद्यमान है इनमें थोडासा घी वा तैल मिलाकर खानेसे ही यथेष्ट पष्टिकर वा सुंदर आहार हो सक्ता है । दूधमें सर्व प्रकारके पुष्टिकर पदार्थ हैं । इसको जहां तक बनै अवश्य खाना चाहिये । इसके सिवाय गेहूं बाजरा यव आदि की रोटी घृत वा सकर (बुरा-चीनी) सहित खानेसे ही यथेष्ट पुष्टि हो सकती है। हमारे देश, दिनों दिन विलायतमें चले जाने के कारण प्रायःसभी खाद्य पदार्थ मँहगे भावसे विकते हैं इसी कारण वहुधा खाद्य पदार्यमें खराब चीजें मिलाकर लोग विक्रय करने लग गये हैं अर्थात् घीमें चर्ची अर्वी आलु, केले, मृगफली नारियलका तेल, वगेरह, धमें पानी, तैलमें दूसरी तरह के तैल, गेहूंके घाटे में जौ जवार व सरांब गेहूंका पाटा वगेरह अन्यान्य कम मूल्य के पदार्थ मिलाकर बेचने लगे हैं। सर्वथा निदोष वस्तु का मिलना कठिन हो गया है, इस कारब जिस प्रकारसे
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जैनवालवोधकये खाद्य पदार्थ दूषित न हों, ऐसा उपाय करना चाहिये। जिस घर में रसोई बने यह साफ सुथरा होना चाहिये। भास पासमें दुर्गधका नाम निसान तक नहीं होना चाहिये परंतु सबसे अधिक इस नियम पर ध्यान रखना चाहिये कि दोबार थोडा थोडा खाना अच्छा है परंतु एक बारमें भूखसे अधिक खालेना अच्छा नही तथा विना भूखके कभी नहि खाना चाहिये। यदि इस बातपर ध्यान रखोगे तो तुम बहुतसे रोगों से बचे रहोगे।
३२. उदायन राजाकी कथा। कच्छ देशमें रौरव नामका नगर या । उसके राना उहायन सम्पष्टि बडे धर्मात्मा और दानी थे, उनकी रानी का नाम प्रभावी था। वह भी सतीधर्मात्मा पवित्र मनवाली थी। वह भी अपने समयको प्राय: दान, पूजा, व्रत, उपवास स्वाध्यायादिकमें विताया करती थी।
एक दिन सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने अपनी सभामें धर्मोपदेश करते समय सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंगोंका वर्णन विस्तारसे करते समय निर्विचिकित्सा अंग पालन करने रालोंमें उद्दायन राजाकी बडी प्रशंसा की। इंद्रके मुखसे एक मध्य लोकके मनुष्यकी प्रशंसा सुनकर वासव-नामका देव उसी समय मध्य लोकमें पाया और मुनिका वेश बनाकर आंहारके समय उहायनके महलपर गया।
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तृतीय भागा. उस मुनिकी देहमें गलिन कुष्टका वडा भारी रोग या, उसकी वेदनासे पैर इधर उधर पड रहे थे, सारे शरीर पर मविश्वयं भिनभिना रही थीं समस्त शरीर विकृत हो रहा या
और उसमें दुर्गंधकी लपटें भा रही थीं वह देव अपने मुनिपणेकी ऐसी बुरी हालत दिखाते हुए प्रदायनके दरवाजे पर पहुंचा तो राजा, मुनि पर अपनी दृष्टि पडते ही सिंहासनसे उठकर आये और नवधा भक्तिसे उन्होंने उप मायावी मुनि को भाजनार्थ पडगाहा । तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक मासुक आहार कराया । आहार कराके निवृत्त होते ही उस मुनिने मायासे चडी भारी दुर्गधयुक्त वमन (उलटी) कर दी । उमकी दुर्गयसे घवडाकर अन्य समस्त मनुष्य वहांसे माग गये । परतु राजा.और रानी मुनिकी संभाल करते रह गये। रानी मुनिका अंग कपडेसे पोंछ रही थी कि कपटी मुनिने उस विचारी पर और भी बढी भारी दुर्गवमय वमन कर डाली । गजा रानी कुछ भी ग्लानि नहि करके उल्टा पश्चात्ताप करने लगे कि-हाय ! हमने मुनि महाराजको प्रकृतिविरुद्ध भोजन दे दिया जिससे मुनिराजको इतना कष्ट उठाना रडा! हम लोग बडे पापी है जो ऐसे उत्तम पात्रको हमारे घर निरंतराय आहार नहि हुमा । इस प्रकार अपनी निंदा करके अपने प्रमादपर बहुन ही खेद उन राजा रानीने अगर किया और प्राशुक जलसे सत्र शरीर पोंछकर साफ कर दिया । राजाकी ऐसी भक्ति देख वह देव
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जैनवालबोधकमुनिका भेष छोडकर प्रगट हुवा और राजाको प्रशंसा कर , के बोला कि तुम सचमुच ही सम्यग्दृष्टि हो, इन्द्रने तुमारे निर्विचिकित्सा अंगकी बडी भारी प्रशंसा की थी सो मैं परीक्षाके लिये यहां आया तो जैसी प्रशंसा यी वैसाही पाया इस मेरे अपराधको क्षमा करें जो आपको कष्ट दिया ऐसा कहकर स्वर्गको चला गया।
३३. श्रावकाचार तीसरा भाग।
सम्यग्दर्शनकी महिमादि।
999966€ सम्यग्दर्शनकी शुभ सम्पद्, होती है जिनके भीतर । मातंगज हो कोई भी हो, महामान्य हैं वे बुधवर ॥ गुदडीके वे लाल सुहाने, ढंकी भस्मकी है आगी। सम्यग्दर्शनकी पहिमासे, कह देव ये बहभागी ॥२५॥
सम्यग्दर्शनरूपी संपदा जिसमें हो वह चाहे चांडाल हो चाहे कोई भी हो, वह भस्मसे ढकी हुई अग्निके समान या गुदडीके लालकी तरह देवकी समान उत्तम माना गया है ।
सुंदर धर्माचरण कियेसे, कुत्ता भी सुर हो जाता। पापाचरण कियेसे त्योंही, श्वानयोनि सुर भी पाता ॥ ऐसी कोई नहीं संपदा, जो न धर्मसे मिलती है। सब मिलती है, सब मिलती है, सब मिलती है मिलती है।
इसका अर्थ सीधा है विद्यार्थी स्वयं कह सकते हैं।
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तृतीय भाग। जिनके दर्शन किये चिचमें, उदय नहीं होने समभाव। जिनके पढने सुननेसे नहि, उप चरित हो, होनसुभाव।। जिन्हें मान आदर्श चलेसे, सत्यमार्ग भूले पढ जाय । ऐसे खोटे देव शास्त्र गुरु, शुद्ध दृष्टिसे विनय न पाय ॥
शुद्ध सम्यग्दृष्टि देव कुशास्त्र कुगुरुको भय पाया प्रीति या लोभसे प्रणाम या विनय नहि करते ॥ २७॥
सम्यग्दर्शनकी मुल्यता। ज्ञान शक्ति है ज्ञान बढा है, कोई वस्तु न ज्ञान समान । त्यों चारित्र बडा गुणधारी, सव सुखकारी श्रेष्ठ महान ।। पर मित्रो दर्शनकी महिमा, इन सबसे बढकर न्यारी। मोक्ष मार्गमें इसकी पदवी, कर्णधार जैसी भारी ॥२८॥
ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतासे उपासना किया जाता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गमें खेवटियेकी समान अधिकतर सहायक है ॥ २९ ॥
सम्यग्दर्शन नहिं होवै तौ, ज्ञान चरित्र कभी शुभतर । फलदाता नहि हो सकते, जैसे बीज विना तरुवर ।। सम्यग्दर्शन विना ज्ञानको, मित्रो समझो मिथ्याज्ञान ।
वैसे ही चारित्र समझ लो, मिथ्याचरित सकलदुखखान जिसमकार वीजके विना उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि वा फलोदय नहिं होता उसीप्रकार सम्यग्दर्शनके विना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृदि और
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जैनपालवोधकफलका लगना नहिं हो सकता। भावार्थ-सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है॥ २९॥
मोही निर्मोहीका अंतर। मोहरहित जो है गृहस्थ मो, मोक्षमार्ग अनुगापी है । हो अनगार न मोह तजा तो,वह कुपंथका गामी है ।। मुनि होकर भी मोह न छोडा, ऐसे मुनिसे तो प्रियवर । निर्मोही हो गृहस्थ रहना, हे अच्छा उत्तम वहतर ॥३०॥ निर्मोही ( सम्पहष्टि) गृहस्य मोक्षमार्गी है किंतु मोह. चान् मुनि नहीं। इसकारण मोहवान मुनिकी अपेक्षा नि. मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है ।। ३० ॥
भूत भविष्यत वर्चमान ये; कहलाते हैं तीनों काल । देव नारकी और मनुज ये, तीनों जग हैं महाविशाल ॥ तीनोंकाल त्रिजगमें नहिं है, सुखकारी सम्यक्त्वसमान त्यों ही नहि मिथ्यात्व सदृश है, दुखदायक लीजे सच मान ।
तीनों काल (भूत भविष्यत् वर्तमान) और तीनों लोकों (अ मध्य पातालमें ) सम्यग्दर्शनकी समान तो कोई जीवोंका हितकारी नहीं और मिथ्यात्वकी समान कोई अहितकारी नहीं॥३१॥ मित्रो जो सम्यग्दर्शनसे, शुद्धदृष्टि हो जाते हैं। नारक.तिर्यक, पंढ स्त्रीपन, कभी नहीं वे पाते हैं ।
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तृतीय भाग ।
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व्रतविहीन वे हो तो भी, नीच कुलोंमें नहिं होते । नहि होते अल्पायु दरिद्री, विकृतदेह भी नहि होते ॥
तथा
विद्यावीर्य विजय वैभव वय, ओज तेज यश वे पाते । असिद्धि कुलवृद्धि महाकुल, पाकर सज्जन कहलाते ॥ अष्टऋद्धि नव निधि होती हैं, उनके चरणोंकी दासी । रत्नोंके वे स्वामी होते, नृपगगा के मस्तकवासी ॥ ३३ ॥ मम्यग्दृष्टि जी यदि अती भी हों तो वे मरकर नारकी, तिर्यच, नपुंसक, स्त्री, नीवकुली, विकृत अंगवाले, अल्पायु और दरिद्री नहिं होते और विद्या ( ज्ञान ) वीर्य विजय, वैभव, कांति, प्रताप, यश, अर्थसिद्धि, कुलवृद्धिको पाकर, उच्चकुली, धर्म अर्थ काम मोक्षके साधक, मनुष्यों में शिरोमणिभूत होकर अष्टसद्धि नवनिधि चौदह रत्न और राजावोंके स्वामी होते हैं ।। ३२-३३ ।।
पाके तत्वज्ञान मनोरम, वे महान हैं हो जाते । सुरपति नरपति घरणीपति औ, गणधर से पूजा पाते ॥ धर्म चक्र के धारक अनुपम, मित्रो तीर्थकर होते ।
तीनों लोकोंके जीवों, शरणभूत सच्चे होते ॥ ३४ ॥ ममीचीन दृष्टिसे पदार्थोंका स्वरूप निश्चय करनेवाले सुरपति, नरपति, और गणधरोंसे पूजा पाते हैं और धर्मके चक्र के धारक सब जीवोंको शरणभूत तीर्थकर भगवान होते : ॥ ३४ ॥
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जैनवालबोधक
बाधा शंका रोग शोक भय, जरा जहां है जरा नहीं । जिसमें विद्या सुख है अनुपप, जिसका क्षय है कभी नहीं ॥ ऐसा उत्तम निर्मलतर है, शिवपद अथवा मोक्ष महान । उसको पाते हैं अवश्य वे, जो जन सम्यग्दर्शनवान इसका अर्थ स्पष्ट है इसलिये नहि लिखा ।
है देवेंद्र चक्रकी महिमा, कही नहीं जो जाती है । सार्वभौमकी पदवीको सिर, महिपावली झुकाती है ॥ सवपद जिसके नीचे ऐसा, तीर्थकर पद है प्रियवर । पा इन सबको शिवपद पाते, भव्य भक्त प्रभुको भजकर ॥
सम्पष्टि भव्य इंद्रोंकी अपरिमित महिमा, अनेक राजाओंसे पूजनीय चक्रवर्ती पद और समस्न लोकको नीचे करने वाले तीर्थकर पदको पाकर मोक्षको जाता है ॥ ३६ ॥
-:०:
३४. रेवती रानीकी कथा ।
विजयार्द्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें मेघकूट नामका नगर है वहां के राजा कुछ विद्यानोंके स्वामी चंद्रप्रभ अपने पुत्र चन्द्रशेखरको राज्य देकर दक्षिण मथुरा में जाकर गुप्ताचार्य मुनिके पास क्षुल्लक हो गये, एक समय बन्दना के लिए उत्तर मथुराको जाते हुए उनने ( चन्द्रप्रभ) गुप्ताचार्य से पूछा कि आपको कुछ खवर तो नहि कहना है । मुनिने कहा कि सुव्रत मुनि से वंदना और महारानी रेवतीसे आशीर्वाद कह
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तृतीय भाग। देना किंतु इनके सिवाय ग्यारह अंगके धारी भन्यसेन वा अन्य और भी मुनि जो वहां थे उनके विषय में जब मुनिजीने कुछ न कहा वो तुल्लकजीको संदेह होगया और फिर पूछा कि और तो कुछ नहिं कहना है ? उन्होंने उत्तरमें यही कहा कि नहीं, अव क्षुल्लकजीका और भी संदेह बढ गया पर इस बातका विचार करते हुए कि कोई कारण अवश्य होगा, वहांसे चल दिए और उत्तर मथुरामें पहुंचकर सुव्रत मुनिसे जिनका चारित्र और वात्सल्य अपूर्व था, गुप्ताचार्यके नमस्कारको सादर निवेदन किया. यह सुन कर उनने क्षुल्लकनीको धर्मदि की और कुछ वार्तालाप भी उनके साथ किया पश्चात अपने संदेहको दूर करने के लिए भव्यसेनके पास पहुंचे परन्तु इनने उनके साथ बातचीत भी न की. क्षुल्लकजी वहीं पर चुपचाप बैठ गए. थोडी देर में भव्य. सेन अपने कमंडलुको उठाकर शौच के लिये वाहर निकले उसी समय क्षुल्लकजी भी उनके पीछे होलिए और थोडी दूर चलकर उनकी परीक्षाके लिए आगेका रास्ता हरयालीमय बना दिया जिस पर गमन करना मुनियों के लिये जैनशास्त्रमें सर्वथा निषिद्ध है पर मुनिजीने इसका कुछ भी विचार न करके उसी पर दीर्घशंका करली । यह देखकर तुल्ल. कजीने उनके कमंडलुका जल सुखा दिया और अपनी विद्यासे सामने एक छोटासा तालाब बना दिया। मुनिने जव कपंहलुमें जल न पागा तो सामनेके नालावसे ही अपनी
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जैनवालवोधकशौचनिवृत्ति करली। यश अब क्या था! नुल्लकजीको पूर्णतया विश्वास हो गया कि वह मिथ्यादृष्टि है इसलिए गुप्ताचार्यजीने इन्हें नमस्कार नहीं कहा है। उस दिनसे चलकनीने इनका नाम अभव्यसेन रख दिया और वहांसे चलकर रेवती रानीकी परीक्षा करनेके लिए चतर्मुख ब्रह्माका रूप धारण करके पूर्वदिशामें सिंहासन पर बैंठ गए । नगरवासो ब्रह्माजीका प्रागमन सुनकर वंदनाके लिये सकुटुंब चलदिए वहांका राजा वरुण और भन्यसेन भी गए परन्तु रेवती रानी मायामयी ब्रह्मा समझकर लोगोंके समझाने पर भीन गई।
दूसरे दिन चक्र गदा तलवार आदि लेकर चतुर्भुन विष्णुका रूप बना कर दक्षिण दिशामें जा बैठे पूर्वकी तरह फिर भी नगरवासी वंदनाके लिये गये किंतु रेवती रानी यह समझकर कि जैन शास्त्रोंमें नव नारायण ही बतलाये हैं जो कि हो चुके अव दसवां होना असम्भव है इस वास्ते वह फिर भी न गई।
तीसरे दिन क्षुल्लकजीने शिरमें जरा शरीरमें गख सायमें पार्वती को लेकर पश्चिम दिशामें वैलपर सवार होकर शंकर (महादेव ) के रूपको दिखाया पुरवासी फिर भी वंदनाये गये परन्तु जैनसिद्धांतमें ग्यारह ही रुद्र बतलाये हैं जो कि हो चुके हैं। अव बारहवां होना अशक्य है ऐसा समझ कर फिर भी वह न गई। . चौथे दिन उत्तर दिशामें मानस्तम्भ, गंधकुटी, वारह सभा, गणधर श्रादि झूठे सपोसरणकी रचना की और भाप
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तृतीय भाग। (तुल्लकजी ) स्वयं तीर्थकर बनकर धर्मोपदेश देने लगे। अबकी वार मनुष्यों का झुंड दूना दिखाई देरहा था और तुल्लकजी व इतर जनोंको विश्वास था कि रेवती जरूर आ. वेगी पर बह जैनशास्त्रकी ज्ञाता यह जानकर कि तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं ना कि हो चुके हैं पच्चीसवां होना असम्भव है अतः लोगोंने बहुत समझाश पर वह न गई । जब तुलशनी इन परीक्षाओंसे निष्फल हो चुके तब एक दिन रोगसे क्षीण मुनिशरीर बनाकर भिक्षाके समय रेवतीके मकानके पास पहुंचे और वहां मायासे गिर पडे रेवतीने जत्र यह देखा तो शीघ्र दौडी और भक्तिसे उठाकर घरपर ले आई और आदरसे भोजन कराया परन्तु मायावी मुनि सत्र भोजन करगये और वहीं वमन कर दिया जिससे बडी दु. गंध निकल रही थी परन्तु रेवतीने अपना ही कसूर ठहराया
और चितवन करने लगी कि न जाने मैंने कैसा अपथ्य भोजन करा दिया है। यह सुनकर तुलकजीने अपनी माया समेटली ओर अपना खास रूप बनाकर रेवतीसे गुप्ताचार्य की तरफसे आशीर्वाद कहा और पूर्व वृत्तांतको कहकर उसके अमृदृष्टि अंगकी वही प्रशंसा की और फिर अपने स्थानको चले गये, इधर वरुणराजा नयकीर्ति पुत्रको राज्य देकर तप.. चरण कर चौथे स्वर्ग देव हुए और रेवती भी तप कर पाचवें स्वर्गमें देव हुई।
पूर्वोक्त कयाका सारांश यही है कि खोटे खरे तत्त्वों की
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जैनबालबोधक- . पहिचान कर मृढताकी तरफ न झुकना यही निमत्ता अंग है जैसा कि रेवती रानीके हष्टांतसे ज्ञात हुआ।
३५. भूधरजैन नीत्युपदेशसंग्रह चौथा भाग।
eurosete सातों वार गर्भित षट्कर्मोपदेश और सप्तव्यसन निषष ।
प्पय : अंघ अँधेर अदित्य, निन्य स्वाध्याय करिने । सोमोपेम संसार तापहर, तप करलिज्जै । जिनवर पूजा निश्म करह, नित मंगल दायनि।
बुंध संयम पादरहु, घरह चिन श्रीगुरुपायनि । निजवित समान अभिमान विन, तुकेर सुनहि दान कर । यों सनि सुधर्म पटकर्म भनि, नरभौ लाहौ लेहु नर ।।
दोहा येही छह विधि कर्म भज, सात निपुन तज वीर। इसही पैरे पहुंचि है, क्रप क्रप भवजल तीर ।
१ पापरूपी अंधेरेको मिटानेके लिये स्वाध्याय मादित्य (सूर्य) के समान है ।२ संधाररूपी तापको हरनेके लिये तप सोम (चंद्रमा) के समान है। ३ भगवानको नित्य पूषा करना मंगलदायनी है। ४ हे पंडित वन । ५शुक्रवार अथवा भच्छे हायसे । ६ सुपात्रको । ७ सनिबार भथवा धर्ममें सनिकर अर्थात् मग्न होकर । ८ इसी मार्गमे ।'
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तृतीय भाग।.
सप्तव्यसन। दोहा । जूपाखेलन मांस मद, वेश्या विसन शिकार । चोरी पररमनी रमन, सावो पाप निधार ॥६॥
जुवानिवेष उप्पय । सकल पाप संकेत, भापदा हेत कुलच्छन । कलह खेत दारिद्र देत, दीसत निज अच्छन । गुनसमेत जस सेत, के.तेरवि रोकत जैसे। ओगुननिकर निकेत, लेत लखि बुधजन ऐसें ॥ जूमा समान इह लोकमें, पान अनीत न पेखिये। इस विसनरायके खेलको, कौतुक हू नहिं देखिये ॥४॥
मांस निषेप । छप्पय । जंगम जियको नाश, होय तव मांस कहावै । सपरस आकृति नाम, गंच उर घिन उपजावै ।। नरक जोग निर्दई, वांहिं नर नीच अधर्मी।
नाम लेत तज देत, असन उचम कुल कर्मी। पह निपट निंद्य अपवित्र अति, कृमिकलराशिनिवास नित । अमिष अमच्छ याको सदा, वरज्यो दोपदयालचित॥५॥ .. १ नेत्रोंसे । २ जैसे सूर्यको तुमहका विमान रोक देता है । ई अवगुणों के समूहका घर ४ एकेंद्रिय जीवको छोडकर बाकीके समस्त जीनोंको जंगम जीव कहते हैं। ५ भोजन ।
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जैनगालबोधक
दुर्मिल सवैया । मदिरा निषेध । कृमिरास कुवास सराय दरै, सुचिता सब छीवत जात सही। जिह पान किये सुधि जात हिये, जननी जनजानत नार यही मदिरासप और निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल में न गही । धिक है उनको वह जीभ जलो, जिन मूढनके मत लीन कही।
वेश्या निषेध । धनकारण पापनि प्रीति क', नहिं तोरत नेह जया तिनको । लव चाखत नीचनके मुहकी, शुचिता सब जाय छिये जिनको। मदपांस वजारनि खाय सदा, अँधले विसनी न करै घिनको । गनिकासंग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनको ।।
शिकार निषेध ( कवित मनहर) काननमें वसै ऐसो पानन गरीय जीव,
प्राननसे प्यारो मान पूंजी जिस यह है । कायर सुभाव धरै काइसौं न द्रोह करै,
सवहींसौं डरै दांत लिये इन रहै है । काइसौं न रोस पुनि कापै न पोष चहै, ___ काहूके परोष परदोष नहिं कहै है। नेक स्वाद सारिवेको ऐसे मृग मारिवेको, '' हा हा रे कठोर तेरो कैसे करें बहै है ॥८॥ -
३ सदाकर। ४ यदि धन नहीं होता है प्रीतिको तिनकेकी तरह तोड डालती है । ५लार--लाला। ६ वनमें जंगलमें । ७ परोक्ष पीठ पी। ८ कैसे हाथ चलाता वा उठाता है।
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तृतीय भाग।
'चोरी निषेध छप्पय । चिंता तजै न चौर, चौंकायत सारै । पोटै धनी विलोक, लोक निर्दई मिल पारै ॥ प्रजापाल करि कोप, तोपसौं रोपि उडावे।
मरै महादुख पेखि, अंत नीची गति पावै ॥ अति विपतिमूल चौरी विसन, प्रगट त्रास आवै नजर । परवित प्रदत्त अंगार गिन, नीतिनिघुन परसै न कर ॥
परस्त्री निषेध । कुति वहन गुनगहन, दहन दावानल ही है। सुनसचंद्र धनघटा, देहकृषकरन बँई है। धनसर-सोखनधूप, धरमदिन सांझ समानी।
विपति भुजंगनिवास, वावई वेद वखानी ।। इहविधि अनेक औगुन भरी, मानहरन फांसी प्रवल । मत करहु मित्र यह जान जिय, परवनितासौं प्रीति पळ ।
परस्त्री त्याग प्रसंग। .
दुर्मिल सवैया। दिठि दीपक लोय वनी वनिता, जदजीच पतंग जहां परते।
१ चौकन्ने । २ परका धन । ३ विना दिया हुवा । ४ सुजस की चंद्रमाको ढकनेके लिए. बादलोंकी घटा: ५ क्षय रोग । ६ धर्मरूपी दिन: को अंत करनेवाली संध्या।.७ यांपके रहनेकी वाल्मीकी-चांवी । दिग्बप्रकाशमान । ९ दीपककी लोय ।
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जैनवालवोधकदुख पावत मान गवांवत हैं, बरजे न हैं हठसौं जरते ॥ इह भांति विचच्छन अच्छेनके बल, होय अनीति नहीं करते। परती लखि जे धरती निरखें,धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते॥ दिढ शील शिरोमनि कारजमैं, जगमें जस पारंज तेइ लहैं। तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इह भांति अचारज आप ॥ पर कामिनिको मुख चंद चिते, मुद जांहि सदा यह टेवगहैं। धनि जीवन है तिन-जीवनि को, धनि मार्य उन्ई उर माहि वह
कुशील निंदा ।
मत्त गयंद सवैया जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसै विगसैं वुधहीन बडे रे। झूठनकी जिमि पार्तर पेखि, खुसी उर कूकर होत घनेरे ।। है जिनकी यह टेवं वहै, तिनको इसभौ अपकीरति है रे। है परलोकविष दृढ दंड, करै शत खंड सुखाचलकेरे ।।
एक एक विसनको सेवनकर फल पानेवाले । . प्रथप पांडवाँ भूप, खेलि जूमा सब खोयो।
१० इन्द्रियोंके वश । ११ परस्त्रीको । १२ आर्य-श्रेष्ठ पुरुष । १३ कमल । -२४.जीनितव्य-जीना । १५ जीवोंका । १६ माता । १७ पेटमें नोमहीना.. धारणां करती है। ... .. १..विकसित होते हैं खिल उठे। २ पत्तल । आदतवान् । ४ बंह आदत इस भवमें उनकी बदनामी करती है । ५ और परलोकमें । ६ वडा भारी दंड दिलाकर सुखरूपी पर्वतके सैकडोंटकडें:करदेती है।
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तृतीय भाग ।
मांस खाय चकराय, पाय विपदा वहुरोयो || विन जाने मदपान योग, जादौंजन दंडके । चारुदत्त दुख सह्यो, विसंवा विसन अरुज्झे ॥ नृप ब्रह्मदत्त आंखेटस, द्विज शिवभूति अत्तरति ॥ पर रपनि राचि रावन गयो, सातौं सेवत कौन गति ॥ १४ ॥ दोहा !
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पाप नाम नरपति करें, नरक नगर में राज ।
तिन पठये पायँक विसन, निजपुर वसैती काज ॥ १५ ॥ जिनके जिनके बचनकी, वसी हिये परतीत । विसन प्रीति ते नर तजो, नरकवास भयभीत ॥ १३ ॥
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३६. जिनेंद्रभक्तकी कथा ।
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सौराष्ट्र देश में पटना नगर है वहां यशध्वज राजा राज करते थे। उनकी रानीका नाम सुसीमा या और सांत व्यमनका सेवी चोरोंका मुखिया सुवीर नामका पुत्र था. पूर्वदेश में तामलिता नगरी थी जहां एक श्रद्धालु सेठ रहता था जिसके सतखने मकानके ऊपरखनमें एक अपूर्व रत्नमयी पार्श्वनायजी की प्रतिमा विराजमान थी उसके ऊपर तीन छत्र थे
७ वक नामका राजा' ८ जले ९ वेश्या व्यसन १० सिकार से ११ सिपाही १२ नरक- नगरको वसानेके लिये १३ जिनेंद्र भगवानके ।
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जैनपालबोधक
उनमें एक बहुत घटिया वैदूर्यमणि रत्न था और उसकी तारीफ सुवीरने सुन रक्खी थी उसने लोभके वशीभूत होकर उस मणिको चुराना चाहा पर स्वयं तो न गया कारण कि वह जैनी था और इसका पिता वडा जिनेन्द्रभक्त था । इस वास्ते स्वयं जाना अनुचित समझ कर अपने मित्र चोरोंको बुलाया और कहा- क्या कोई ऐसा शक्तिशाली है जो वहांसे वैढूर्यमणि चुरा सके यह सुनकर सूर्य नामका चोर बोला यह तो क्या बल्कि मैं स्वर्गसे इन्द्रका मुकुट भी चुरा लासकता हूं । वस फिर क्या था वह वहांसे रवाना हो गया और छुलकके वेषको धारण करके कायक्लेश करता हुधा तामलिप्ता नगरी में पहुंचा, उसको आया हुआ सुनकर जिनेन्द्रभक्त श्रेष्ठीने वंदना की और उनके साथ कुछ मापण करके उनकी प्रशंसा करता हुआ पार्श्वनाथके मंदिर में ले गया, भगवान के दर्शन कराये। सेठजीकी श्रद्धा छुलकनी पर खूब होगई थी इसलिये एकदिन सेठजीका विचार हुआ कि छुलकनीको पार्श्वनाथ के मंदिरका रक्षक क 'पुजारी बनाकर तीर्थयात्राको चले जायें। सेठजीने सर्व वृत्तांत छुलकनी से कहा और वहां रहने की प्रार्थना की । छुल्लकजी तो ऐसा चाहते ही थे इसलिये उन्होंने सब स्वीकार कर लिया जब सेठजी घरसे निकल कर वाहिर उद्यानमें जा ठहरे तो यह पता छुल्लकजी को लग गया वह आधीरातके समय मणिको उठाकर चल दिया किंतु मणिकी कांति इतनी,
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तृतीय भाग ।
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चमकदार थी कि वह रात्रिमें न छिप सकी, मार्गमें बढ़ा प्रकाश होने लगा, भाग्यसे कोतवालकी निगाह इस पर पड़
| उसने यह समझकर कि चोर किसीका रत्न चुराकर भागा जारहा है शीघ्र ही उसका पीछा किया । यद्यपि चोर चहुत भागा पर कोतवालने पीछा न छोडा अंतमें चोर अंस-" मर्य होकर उसी उद्यानमें पहुंचा जहां सेठजी ठहरे हुए थे । वहां पहुंचकर बडे जोरसे चिल्लाया कि मेरी रक्षा करो। सेठजीने कोतवालकी डाटको सुनकर और उसे चोर सपझकर मनमें विचार किया कि यदि मैं इसे चोर बतलाता तो मेरे धर्मकी निंदा होगी या मेरे सम्यग्दर्शनमें दोष लगेगा | अतएव उसने कोतवालसे कह दिया कि यह चोर नहीं है यह वडा तपस्वी और सच्चा है मैंने ही इसे मणि -लाने को कहा था आपने बुरा किया कि इन्हें चोर समझ कर पीछा किया कोतवाल श्रेष्ठीके ऐसे वचन सुनकर चला गया | इधर सेठने एकांतमें खूब ही उस तुलुकको डाटा और उसी समय निकाल दिया । आप स्त्रयं वैराग्यको प्राप्त होकर दीक्षा धारण करली और तपश्चरण के प्रभावसे स्वर्ग में देव हुये ।
इसी तरह हरएको चाहिये कि अज्ञान व असमर्थ पुरुपद्वारा धर्मकी निंदा होती हो तो उसे प्रगट न करें । ढकने का प्रयत्न करें और उसे एकातमें समझावे या दंड देनेके योग्य हो तो दंड देवे जैसा कि जिनद्रभक्त सेटने किया ।
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जैनवालबोधक
३७ सुंदर दृश्य ।
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चित्तका सदैव प्रसन्न रहना शरीरकी स्वस्थता ( तंदुरुहती ) का प्रधान कारण है । क्योंकि संसारमें अनेक प्रकारकी चिताओं और अन्यान्य कारणोंसे मनुष्य के चिधर्मे विकलता, ग्लानि वा बालस्य हो जाता उस समय चिचको प्रसन्न करेनेके निमित समस्त इंद्रिये अपने २ विषयको प्राप्त करनेके लिये इधर उधर दौड़ती हैं । यदि उस समय आवश्यकीय विषयकी प्राप्ति न हो तो शरीरको बढी भारी हानि पहुंचती है। पांचों इंद्रियोंमेंसे प्रथम ही हमारी नेत्र इंद्रिय सुदृश्य पदार्थको देखनेके लिये व्याकुळ होती है । इस कारण उस समय नेत्रोंके संमुख अवश्य ही सुंदर दृश्य पदार्थोंका होना आवश्यक है क्योंकि उस समय नेत्रोंकी व्याकुलता दूर न करनेसे अथवा नेत्रोंके संमुख असुंदर पदार्थों के होनेसे चितकी ग्लानि और भी बढ जायगी जिससे मानसिक पीडा बढनेसे शारीरिक क्रियामें भी व्यालघंन हो जायगा अर्थात् शरीर और चित्तका ( मनका ) घनिष्ट संबंध होनेसे शरीर में रोगोत्पत्ति हो जायगी । चित्तकी प्रसन्नतासे शरीर में रक्तकी अधिकता होना ही स्वास्थ्य ( निरोगता ) है इस कारण नेनेंद्रिय को सुंदर दृश्य पदार्थोके अवलोकनकी अत्यंत आवश्यकता
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तृतीय भाग।
१३५ है । सो नेत्रोंको प्रसन्न करनेवाले पदार्थोंका संग्रह अवश्य करना चाहिये अर्थात् घर दुकान बैठक भले प्रकार परिष्कार और सजाये रखना चाहिये । जिससे चारों तरफ नयनतृप्ति कर पदार्थ सदैव दृष्टिगोचर हैं । तथा वाहरमें जावै तौ वाग वगीचे में या सुंदर बाजारमें ठहरनेको जाना चाहिये । सुंदर २ छोटे २ बच्चोंका खेल देखना भी नयन पनको तुप्तिकर होता है परन्तु ऐसान हो कि दिन रात सुंदर पदार्थों के देखनेमें ही लवलीन हो जावो । यदि ऐसा करोगे तो तुम्हारा संयम धर्म नष्ट हो जायगा-संयमका नष्ट करना आत्मा का घात करना है इस कारण जब तुमारा चिच कारण विशेषसे घबडाकर सुंदर पदार्थोका अवलोकन करना चाहे उसी समय सुंदर पदार्थोंके लिये तत्पर होना चाहिये जब घंटे आध घंटे बाद चित्तमें शांति हो जाय तब अपने कर्चव्य में लग जाना चाहिये।
जिस प्रकार सुंदर पदार्थोका अवलोकन स्वास्थ्यकर है उसी प्रकार सुगंधित पदार्थोंका संघना, तथा जिह्वा मन तप्ति करनेवाले पदार्थोका भक्षण करना तथा सुंदर गीत नृत्य वादिन वा सुमिष्ट शब्दोंश सुनना भी स्वास्थ्यकर है परंतु अनावश्यकीय वा अधिकताके साथ इन विषयोंमें लवलीन हो जाना हानिकारक है । इस कारण जिस समय इन विषयोंको उपयोगमें लानेकी अत्यंत आवश्यकता हो उसी समय ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् समय पर सुगं
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जैनवालबोधक
चित पदार्थ, पुष्प, इतर चंदनादिका धारण करना व घरमें दोनों वक्त धूप दहन करते रहना चाहिये। इसी प्रकार सुमिष्ट शब्दों को सुनना चाहिये और जिद्दा तृप्तिके लिये उपादेय स्वादिष्ट तृप्तिकर पथ्थ भोजन ग्रहण करना चाहिये जिससे सुख स्वस्थ्य की दृद्धि हो ।
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३८. वारिषेण राजपुत्रकी कथा ।
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मगध देशमें राजगृह नामका नगर है वहांके राजा श्रेणिक थे जिनकी पट्टरानीका नाम चेलना था उनके एक धार्मिक चारिषेण नामका पुत्र था जो हमेशा अष्टमी चतुर्दशी के व्रतों को वडे उत्साहसे पालन किया करता था एक चतुर्दशी के दिन उपवास धारण करके रात्रिको स्मशानमें जाकर कार्यासर्ग प्रांड दिया और सामायिक करने लगे इतनेमें उसी दिन श्री कीर्ति सेठ एक दिव्यहारको पहिनकर बगीचामें दिल वहलाने गए थे भाग्यसे वहीं पर एक मगधसुंदरी वेश्या भी जा पहुंची जिसका जी उस सुंदर हारको देखकर ललचा गया वस ! वह वहांसे चल दी और यह विचार करती हुई कि विना इस हारके मेरा जीना निर्थक है नाकर शय्या ( खाट ) पर लेट गई। रात्रिको उसका यार विद्युत् चोर माया और उसे इस प्रकार पडी देखकर बोला-माज
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तृतीय भाग ।
૩૭ आप क्यों ऐसी मलिन वंदन मालूम पडती हो ! उसने कहा कि यदि श्रीकीर्ति श्रेष्ठी हारको चुराकर मुझे उससे अलकृत करोगे तो मैं जोऊंगी और तुम मेरे स्वामी होगे, अन्यथा नहीं । यह सुनकर वह वहांसे चल दिया और सीधा सेटके महलमें पहुंचकर हार चुराकर लौट पडा परंतु घरके रक्षक कोतवालोंने उस हारकी कांतिको देखकर समझ लिया कि यह कोई चोर चोरी करके जारहा है । कोतवालोंने उसका पीछा किया | यह भागने में असमर्थ होकर श्मशान भूमिकी तरफ गया और वहां वारिषेण जो कि कायोत्सर्ग लगाकर खड़े हुए थे उनके आगे वह हार डालकर वहीं कहीं लुक गया, जव कोतवाल चारिषेणके पास में थाए तो उसीको हारका चुरानेवाला समझकर श्रेणिक राजाको खवर करदी कि आपका लडका ही हारका चुरानेवाला है । श्रेणिकने यह सुनकर विना विचारे ही थाज्ञा देदी कि उस पापीका शिर काट डालो, हुक्म सुनाते देरी न हुई थी कि चांडालने तलवार लेकर जैसे ही उनके मस्तक पर चलाई कि उनके गले में एक सुन्दर पुष्पमाला बन गई । जब श्रेणिकने यह प्रतिशय सुना तो शीघ्र दोड़ आया और अपने कसूरको वारिपेण से क्षमा कराया और वार २ घर चलनेको कहा परन्तु उनने इस प्रकार संसारकी चंचलता देखकर मुनि होने का ही उत्तर दिया और सुरदेव मुनिके पास जाकर दीक्षा ले ली । अव वह इधर उधर धर्मोदेश होते हुए पलासक्कूट
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जैनवालवोधकग्राममें पहुंचे जहां श्रेणिकके मंत्रीका पुत्र पुष्पडाल रहता था, एक दिन आहारके लिये ग्रापमें पाए और उसी पुष्पडालके दरवाजेसे निकले । पुष्पडालने शीघ्र पडगा लिया
और भक्तिसे भोजन कराया और यह स्मरण करके कि ये हमारे घडे मित्र थे अपनी स्त्रीसे आज्ञा लेकर कुछ दूरतक पहुंचाने गया । जब कुछ दूर निकल गए और मुनिजीने लौटनेको न कहा तो श्राप स्वयमेव ही महाराज यह वहीं कुआ है जहां हम आप खेला करते थे इत्यादि कुनां वावडी दिखा कर लौटने का प्रयत्न करने लगे परंतु मुनिजीको अव इन पातोंसे क्या प्रयोजन था ? अतः कुछ उत्तर न देकर सीधे चलते ही गये, भव तो पुष्पडाल समझ गया कि महाराज कुछ न कहेंगे इसलिये आगे जाकर हाथ जोडकर खडा हो गया और मुनिजीको वार २ नमस्कार करने लग गया। मुनि जी इसके अभिप्रायको तो जान ही चुके थे परंतु आपने वडी शांतिसे धर्मोपदेश दिया जिससे पुष्पडालका चिच उस समय अपनी कानी स्त्रीसे हटकर वैराग्यकी तरफ मुक गया और उनके साथ ही चल दिया इस तरह दोनों जनोंको तीर्थयात्रा करते हुए बारह वर्ष बीत गए और क्रमसे पद्धमानके समवसरणमें पहुंचे परंतु इतने दिन पुष्पडालको तपचरण में निकल जाने पर भी अपनी कानी स्त्रीकी याद न भूली और इसी संबंध वहीं जाकर एक गंधर्व द्वारा श्लोक भी सुना जिसका अभिप्राय महावीर स्वामी और प्रथिवीके
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तृतीय भाग ।
१३६.
सम्बन्धमें था । वह यह था कि हे स्वामिन् आपने इस पृथ्वी रूपी स्त्रीको तीस वर्षतक भोगके छोड दिया है इसलिए वह आपके वियोगसे दुखी होकर नदीरूप प्रांसुओंसे आपकी याद कर रोरही है । पुष्पडाल, पूर्वोक्त श्लोकका अर्थ अपनी स्त्री (काणी ) और अपने सम्बन्धमें समझकर अत्यन्त विद्दल हो गया और यह विचार करता हुआ कि मेरी स्त्री मेरे वियोग से अत्यंत दुखी होगी इसलिए कुछदिन घरमें रहकर उसे फिर संसार सुखका मजा चखाऊंगा और फिर निश्चित होकर दीक्षा लूंगा उठकर घरको चल पडा परंतु यह सब अपने दिव्य ज्ञानसे वारिषेण मुनि समझ ही गये थे इसलिये उनने न जाने दिया और उसी धर्ममें स्थित करने के लिए अपने नगर ( राजगृह ) को चल दिये । चेलिनीने जब वारिषेणको देखा तो विचारने लगी कि क्या वारिषेण अपने चरित्र च्युत होगया है जिससे घरकी तरफ आरहा है परंतु परीक्षा करनेके लिये उसने दो आसन बिछा दिए वारिषेण सेो वीतराग आसन ( काटकी चौकी ) पर बैठ गये किंतु सोनेके यानी सराग ब्रासन पर पुप्पडाल बैठगया उसी समय वारिषेणने अपनी सव स्त्रियां और यन्तःपुरु आदि दिखा पुष्पडालसे कहा कि तुम इन सबको ग्रहण करो और मनमाना भोग भोगो कारण कि उस कानी स्त्री की बजाय ये ३२ स्त्रियां हैं और यह तमाम राज्य है । यह सुनकर पुष्पडाल बहुत लज्जित हुआ और विचारने लगा कि.
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१४.
जैनवालबोधकचस्तुतः संसारके सुख, सुख नहीं है अन्यथा मेरी उस स्त्री से ये स्त्रियां जो कि सब तरह रूप विद्या कला आदिमें चतुर हैं, धारिषेण क्यों छोडते ? इससे उसे परम वैराग्य प्राप्त हो गया और निश्चयसे तप करनेमें लग मया, वहांसे मरकर स्वर्गमें देव हुआ, उधर वारिषेण मुनिने आठ कर्मोको नाश करके सिद्धपदको प्राप्त किया।
पूर्वोक्त कथाका सारांश यही है कि अपने सच्चे धर्मसे डिगते हुयेको जैसे बने उसीमें फिर लगा देना इसीका नाम स्थिति करण अंग है जैसा कि वारिषेण मुनिने पुष्प. डालके सायकिया। इस कथाका पूर्वभाग अचौर्याणु व्रत में भी घट सकता है।
३९. श्रावकाचार चौथा भाग ।
सम्यग्ज्ञानका लक्षण । वस्तुरूपको जो वतलावे, नीके न्यूनाधिकता-हीन । ठीक ठीक जैसैका तैसा, अविपरीत संदेह विहीन ॥ गणधरादि आगमके ज्ञाता, कहते इसको सम्यग्ज्ञान | इसको प्राप्त करानेवाले, कहे चार अनुयोग महान॥ ३७॥
न्यूनाधिकता, विपरीतता और संदेहरहित जैसाका बैसा वस्तुके स्वरूपको जानना उसे गणधरादि आगमके
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तृतीय भाग ज्ञाता पुरुषोंने सम्पाज्ञान कहा है। इस सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करानेवाले प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्या-. नुयोग ये चार अनुयोग हैं ।। ६७ ।।
. प्रथमानुयोगका लक्षण । धर्म अर्थ औ काम मोक्षका, जिसमें किया जाय वर्णन । पुण्य कथा हो चरित गीत हो, हो पुराणका पूर्ण कयन । रत्नत्रय औ धर्म ध्यानका, जो अनुपम हो महा निधान । कहलाता प्रथमानुयोग है, यों कहता है सम्यग्ज्ञान ॥३८॥
जिसमें वेसठि शलाका पुरुषोंमेंसे किसी एककी पुण्यमय चरित कथा हो, और धर्म अर्थ काम मोक्षका वर्णन हो, तथा रत्नत्रय धर्म ध्यानका अनुपम खजाना हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं ।। ३८॥
करणानुयोगका लक्षणः लोकालोक विभाग वतावे, युग परिवर्तन वतलाता। . वैसे ही चारों गतियोंको, दपण सप है दिखलाता ।। है उत्तम करणानुयोग यह, कहता है यो सम्यग्ज्ञान । इसे जाननेसे मानव कुल, हो जाता है वहुत सुनान ॥३९॥
जो अलोकालोकका विभाग, युगोंका परिवर्चन और चारों गतियोंका वर्णन दर्पणकी समान दिखलाता है उसको करणानुयोग कहते हैं ।। ३९ ॥ . ..
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जैनपालबोधक
चरणानुयोगका लक्षण |
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गृहस्थियों का अनगारोंका, जिससे चारित हो उत्पन्न | चढे और रक्षा भी पावे, हे चरणानुयोग प्रतिपन्न | मित्रो इसका किये आचरण, चरित गठन हो जाता करते हुये समुन्नति अपनी, जीव महा सुख पाता है ॥ ४० ॥ जिसमें गृहस्थ और मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति वृद्धि और रक्षा उपायका वर्णन हो उसे चरणानुयोग कहते हैं ॥ ४० ॥
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द्रव्यानुयोगका लक्षण |
जीव का स्वरूप ऐसा, ऐसा है अजीवका तत्व | पाप पुण्यका यह स्वरूप है, बंध मोक्ष है ऐसा तत्र ॥ इन सबको द्रव्यानुयोगका, दीप भली विधि बतलाता / जो श्रुतविद्या के प्रकाशको, जहां तहां पर फैलाता ॥ ४१ ॥
जिसमें जीव अजीव पुण्य पाप बंध मोक्ष भादि तत्वों का वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं ॥ ४६ ॥
सम्यक्चारित्रका स्वरूप ।
मोह तिमिरके हट जाने पर, सम्यग्दर्शन पाता है । उसको पाकर साधु समिकिती, श्रेष्ठ ज्ञान उपजाता है | .. फिर धारण करता है शुचितर, सुखकारी सम्यक चारित्र | - रहे राग ष्यों नहीं पास कुछ और द्वेष नश जावै मित्रः ४२ - राग द्वेषके नश जानेसे, नही पाप ये रहते पांच
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तृतीयं भाग। हिंसा मिथ्या चौरी मैथुन, और परिग्रह लीजे जांच ।। इन सबसे विरक्त हो जाना, म्यग्ज्ञानीका चारित्र । प्रकल विकल के भेद भावसे, धरें इसे मुनि गृही पवित्र ४३
मोहतिमिरके ( दर्शन मोहनीके ) हट जानेपर सम्य. ग्दर्शन सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति के पश्चात् रागद्वेषकी निवृत्तिके लिये सम्यग्दृष्टी सम्यकचारित्रको धारण करता है क्योंकि रागद्वेषके नष्ट हो जानेपर हिंसा असत्य चौरी कुशील
और परिग्रह ये पांच पाप नहिं रहते और इन पांच पापोंसे विरक्त होनेको ही सम्यक चारित्र कहते हैं। वह चारित्र सकल विकलके भेदसे दो प्रकारका है। सकल चारित्र मुनिका होता है, विकल चारित्र गृहस्थका होता है॥४३॥
विकल चारित्रके मेद। वारह भेद रूप चारित है, गृही जनोंका तीन प्रकार। पांच अणुव्रत तीन गुणवत, और भले शिक्षात चार । क्रमसे सभी कहो, पर पहिले, पांच अणुव्रत बतलादो। उनका पालन करना सारे, गृही जनोंको सिखलादो ४४
श्रावकका चारित्र वारहवत रूप है पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत शिक्षात ये तीन भेद हैं । सो कमसे कहे जाते हैं।॥४४॥
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जैनालबोधक४०. विष्णुकुमार मुनिकी कथा ।
(राखी पूर्णिमा ) अवंती देश उज्जयनी नगरीमें राजा श्रीवर्मा या । उस की रानी श्रीमती थी। उसके बलि, वृहस्पति, पढाद, और नमुचि ये ४ मंत्री थे। ये सब भिन्नधर्मी थे। उस नगरीके बाहर उद्यानमें एक समय समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले, दिव्यज्ञानी अकम्पनाचार्य सातसौ मुनिसहित पधारे । संघाधिपति. प्राचार्य महाराजने संघके समस्त मुनिगणोंसे कह दिया कि, यहां राजा वगेरह कोई लोग आवे, तो किसीसे भी बोलना नहीं, सब मौन धारण करके रहना । नहीं तो संघको. उपद्रव होगा। ___उस दिन राजाने अपने महलपरसे नगरके स्त्रीपुरुषोंको पुष्पालतादि लिये जाते हुऐ देखकर मंत्रियोंसे पूछा कि, ये लोग बिना समय किस यात्राके लिये जाते हैं ? मंत्रियोंने कहा कि नगरके बाहर नम दिगम्बर मुनि आये हुए हैं, उनकी पूजाके लिये जाते हैं। राजाने कहा किचलो न, अपन भी चलकर देखें कि वे कैसे मुनि हैं। तब राजा भी उन मंत्रियों सहित वनमें गया ।वहांसवको भक्ति पूजा करते हुए देखकर राजाने भी नमस्कार किया परंतु गुरुकी आज्ञानुसार किसी भी मुनिने राजाको आशीर्वाद नहिं दिया।
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तृतीय भाग। यह क्रिया देख राजाको कुछ क्षोभ और संताप हुआ नब मंत्रियोंने अवसर पाकर कहा कि-महाराज ! ये सब मूर्ख हैं, वलीबद्ध हैं, इनको बोलना नहिं आता है, इसी कारण छलसे सवने पौन धारण कर लिया है । इत्यादि निंदा वा हास्यादि करके मंत्रीगण राजाके साथ नगरकी
ओर लौटे, किंतु मार्गमें उसी संघके श्रुतसागर नायके मुनि नगरीसे चर्या करके वनको याते थे । उनको मम्मुख देश्दकर उन चारों मंत्रियोंने कहा कि, देखिये महाराज ! यह भी एक तरुण वलीबद्ध पेट भरके आरहा है। श्रुतसागर मुनिने इस पर मंत्रियों को अच्छा मुहतोड उत्तर दिया, और पीछे विशद करके राजाके सम्मुख ही उन्हें अनेकान्तवादसे हरा दिया जिससे कि वे बडे लजित हुए । पीछे संघमें पहुंचकर श्रतसागरने प्राचार्य महारानको यह सब वृत्तांत कह सुनाया श्राचार्य महाराजने कहा कि तुपने चुरा किया समस्त संघपर तुमने बडी भारी आपत्ति ला दी । अस्तु, अब मायश्चित यह लो कि, तुम उसी चादकी जगह पर जाकर कायोत्सर्गपूर्वक ठहरो और जो जो उपसर्ग आवे उन्हें सहन करो। प्राज्ञा पाकर श्रुतसागरने ऐसा ही किया और रात्रिको वे चारों मंत्री समस्त संघको मारनेका संकल्प करके आये । परंतु मार्गमें अपने असली शत्रु श्रुतसागर मुनिको देखकर वे चारोंके चारों खड्ग लेकर पहले उसीपर टूट पड़े। परंतु उस जगहके वनदेवतासे यह अन्याय देखा नहि गया, इसलिये
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जैनघालवोधकउसने मुनिको मारनेके लिये हायमें तलवार उठाये हुए उन चारों मंत्रियों को जहां तहां कीन दिये अर्याद वे चारों पत्थर जैसे हो गये और मुनिको नहिं मार सके । प्रातःकाल ही यह वृत्तांत राजाने सुना, तो उसने उन चारोंका काला मुंह करके और गधेपर सवार राके देशसे निकाल दिया।
वे चारों मंत्री कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नगरके राजा पझसे जाकर मिले और उसके मंत्री हो गए । उस समय उस नगर पर कुंभपुरका राजा सिंहबल चढ आया था सो उन चारों से वलि नामक मंत्री आनी चतुराईसे उस सिंहवल राजाको हराकर पकड लाया, तब पराजाने खुश होकर वलिको मनवांछित वर मांगने का वचन दिया। बलि मंत्रीने कहा कि, मेरा वर इस समय जमा रहै, जब मुझे आवश्यकता होगी तब याचना करूंगा।राजाने 'तथास्तु' कहकर स्वीकार किया। .. इसके पश्चात् कुछ दिनों में वे ही अकम्पनाचार्य अपने सातसौ मुनियोंके संघपहित हस्तिनापुरके वनमें पाये, तब बलिने यह बात जानकर उन मुनियों को मारनेकी इच्छासे राजासे अपना वह पुराना कर मांगा कि, मुझे सात दिनका रान दीजिये । राजा पा सात दिनके लिये बलिको राजा बनाकर आप अपने राजमहलों में रहने लगा। - बलिने आतापंन नामक पर्वत पर कायोत्सर्ग ध्यान करते हुए मुनियों को मारनेके लिये वहीं पर नरमेध यज्ञका
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'तृतीय भाग।
१४७ प्रारम्भ किया और उनको उस यज्ञमें जला देनेका प्रबंध किया। उनके निकट बकरे वगैरहों का हवन करके उसकी दुर्गधसे वडा कष्ट पहुंचाया यहां तक कि अनेक मुनियों के उस दुर्गधित धुएंसे गले फट गए और अनेक बेहोश हो गये । ___ इसी समयमें मिथिलापुरीके निकटके वनमें श्रुतसागर चंद्राचार्य महाराजने अद्धरात्रिके समय श्रवण नक्षत्रको कंपा. • यमान देखकर अवधिज्ञानसे विचारकर खेदके साथ कहाकि-'महामुनियोंको महान् उपसर्ग हो रहा है। उस समय पास बैठे पुष्पदन्त नामके विद्याधर क्षुल्लकने पूछा कि, भग वन् ! कहांपर किन २ मुनिमहाराजोंको उपस हो रहा है ? 'तव प्राचार्यमहाराजने हस्तिनापुरके बनमें अपनाचार्या दिके उपसर्गका समस्त वृत्तांत कहा । तुल्लक महाराजने पूछा कि-इस उपसर्गके दूर होनेका भी कोई उपाय है ! 'तव मुनि महाराजने अवधिज्ञानसे कहा कि, धरणीभूषण पर्वत पर विष्णुकुमार नामके युनि हैं । उनको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है। उनसे जाकर तुम प्रार्थना करो, तो वे इस उपसगको दूर कर सकते हैं। यह सुनते ही उस विद्याधर तुल्लकने तत्काल ही विष्णुकुमार मुनिके निकट जाकर -मुनिसंघके उपसर्गकी बात कही और यह भी कहा कि,आपको विक्रिया ऋद्धि है, आप समर्थ हैं । तर विष्णुकुमार मुनि महाराजने हाथ पंसार कर देखा, तो कोसों तक हाथ लंबा होता चला गया। तब उसी वक्त पद्म राजांके पास
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जैनवालबोधक
गये । उसको बहुत कुछ कहा । उसने कहा कि मैंने ७ दिन का राज्य बलिको दे दिया है वही उपसर्ग करता है । तब विष्णुकुमार बलि राजाके पास गये, जहां कि वह सबको इच्छित दान दे रहा था. विष्णुकुमारने बापनरूप धारण करके दुटी बनानेको अपने पांवसे तीन पेंड जमीन मांगी। दलिने तत्काल ही दी। विष्णुकुमारने विक्रिया ऋद्धिसे बहुत बडा शरीर बनाकर एक पांव दक्षिण तरफके मानुपांतर पर्वत पर रक्खा और एक पांव सुमेरु पर्वतपर रखारदसरा शव उचर के मानुषोत्तर पर्वतपर रवाना, और तीसरे पांबसे देवों के विमानोंको क्षोभित करके बलिकी पृष्ठपर रखके उस को काबू कर लिया अर्थात् बलिको बांध लिया । तब देवतामोंने भाकर मुनियोंका उपसर्ग निवारण किया, पूना बंद
है । पनराजा और चारों मंत्री, विष्णुकुमार अपनाचायांदि मुनि महाराजोंके चरणों में पडे, क्षमा प्रार्थना करके अपराध क्षमा कराया सबने जैनधर्म धारणकर धारक के १२ व्रत ग्रहण किये । मुनियोंके कंठ धुपैसे फट गये थे, बड़ी तकलीफ थी, सो नगरके लोगोंने उस दिन दयकी खीरके भोजन तैयार किये और सब मुनियोंको आधार
१मठाई दीपके चारों तरफ आधे पुष्कर द्वीपनें कोटकी तरह एक पर्वत है वहाते आगे विद्याधर मनुष्य भी नहीं जा सकता, इस कारन उसको मानुषोतर पर्वत कहते हैं ।
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तृतीय भाग! दिया। उस दिन श्रावणशुक्ला पूर्णमासीका दिन या, सांत सौ मुनियोंकी रक्षा हुई, इसकारण देशभरकी प्रजाने पर स्पर रक्षाबंधन किया और उस दिनको पवित्र दिन मानकर प्रतिवर्ष रक्षाबंधन क्षीरभोजनादिसे इस पर्वको मानना शुरू किया | उसी दिनसे यह राखीपूर्णिमाका तिहवार चला है। अन्यमतियोंने विष्णुकुमारकी जगह विष्णु भगवान और बलि मंत्रीकी जगह सुग्रीवके भाई वलि राजाको मानकर मनगदंत कहानी बना ली है, सो मिथ्या है।
११. शारीरिक परिश्रम ।
7919 EECE यद्यपि परिश्रम विषयक वर्णन दूसरे भागके ६८वें 'पृष्ट, उनचालीसवें पाठमें लिखा गया है। उसमें शारीरिक परिश्रमकी आवश्यक्ता और लाभादि दिखाये गए हैं दयापि यावश्यक समझ योडामा विषय इस भागमें भी लिख देना उचित है।
शारीरिक परिश्रम करनेसे किस प्रकारका हितसाधन हो सकता है सो विचारना चाहिये कि-दमलोग शरीरके कितनेही मांसमय हिस्सोंकी सहायतासे चलते फिरते हैं, उन सब मांसमय हिस्सोंका नाम मांसपेशी है, सो नित्य नियमानुसार शारीरिक व्यवहार करनेसे वे सब मांसपेशिय
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१५०.
जैनवालवोधकमोटी और बलिष्ठ हो जाती हैं किसी लुहारके दहने हाथको देखोगे तो यह बात सिद्ध हो जायगी । इसी प्रकार मांस पेशियोंका नियमित व्यवहार न होनेसे वे सब मांसपेशियां पतली और कमजोर हो जाती हैं, सो किसी ऊर्ध्वबाहु तपसी सन्यासीका जो हाथ हमेशा ऊपर उठा हुवा होता है उस को देखनेसे भलेप्रकार निश्चय हो जायगा कि यह बात ठीक है। __ हमलोग स्थिर होते हैं तो हमारे मुख और नासिकासे प्रायः एक मिनिटमें सोलह वार श्वासोच्छ्वास होता है परंतु दौडनेके समय इससे बहुत अधिक म्वासोच्छास होता है जिससे श्वासयंत्रमें ( फेफडे में ) हवाका प्रवेश भी बहुत होता है। श्वास यंत्रमें इवाके अधिक प्रवेश होनेसे शरीरका रक्त (खून) अधिकताके साय परिष्कृत (साफ) होता है। दौडनेके समय हृदय पिंडमें भी अधिक स्पंदन (फड़: कना) होता है। इसी कारण शरीरके समस्त स्थानोंमें अधिकताके साथ रक्तका संचालन होता है, और उसके अधिक चलाचल होनेसे ही शरीरके समस्त अंगोंकी पुष्टि अधिक २ होती जाती है।
शारीरिक परिश्रम करते रहनेसे दूसरा लाभ यह होता है कि दौडनेसे अथवा किसी कार्यको अधिकताके साथ करनेसे शरीरमें पसीना निकल पाता है । वह पसीना अनेक दुषित पदार्थोका वाहक है जिससे शरीरके अनेक,
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तृतीय भाग! दुषित पदार्थ निकल जाते हैं। यही कारण है कि पसीना आनेसे शरीर अधिक स्वस्य वा तंदुरुस्त हो जाता है । . शारीरिक परिश्रम करनेवालोंकी भूख भी बढ़ जाती है। भूख में अधिक भोजन कर लिया जाय तो वह भले प्रकार हजम हो जाता है। अतएव जो निरंतर शारीरिक परिश्रम करते हैं उनको छोडकर विद्यार्थी व दिनभर गद्दी तकियों पर बैठे रहनेवाले घनाढयोंको किसी भी प्रकारका शारीरिक परिश्रम करनेका मौका न मिले तो उनको नित्य नियमित व्यागम ( कसरत ) करते रहना चाहिए। क्योंकि यथोपयुक्त व्यायाम करनेसे समस्त शरीरमें बल हो जाता है । व्यायाम नहि करनेसे मनुष्य पालसी हो जाता है। वे खुद भी अनेक प्रकारके कष्ट पाते हैं और अपने ग्राश्रित जनोंका भी कुछ उपकार नहिं कर सकते।
छोटे बडे लडके प्रायः सभी देशोंमें खेलते रहते हैं । खेलनेवाले लडकों का शरीर बहुधा स्वस्थ रहता है क्योंकि दौडादौडी करनेसे अथवा अन्य प्रकारके खेलोंमें वल प्रकार करनेसे हाथ पांव वगेरह सब अंग वलिष्ट हो जाते हैं । परिक उच्च स्वरसे बोलने वा इंसनेसे भी वालकोंकी निरोगता बढ़ती है। . कोई २ वालक इतना खेलते हैं कि खेलनेके लिये पढ़ने लिखने में भी मन नहि लगाते और कोई २ वालक बहुत ही कम खेलते हैं तथा हमारे पश्चिमोत्तर प्रदेश वा
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जैनगलवोधकमध्यप्रदेशकी पाठशालाओंके विद्यार्थी बहुत कालतक पटकमें रक्खे जाते हैं । तथा कहीं २ तौ दोनों वक्त पाठशालामें पढ्नेको जाना पड़ता है और कहीं २ फिर रात्रिको अध्यापक लोग विद्यार्थियोंके घरपर जाकर या अपने घर बुलाकर भी पढ़ाया करते हैं। उन विद्यार्थियोंको व्यायाम करने के लिये हवा खानेके लिए कुछ भी समय नहिं मिलता । इसी कारण वे लडके व्यायामके अभावसे शारीरिक वा मानसिक कमजोरी अधिक हो जानेसे परीक्षाके समय प्रायः फेल हो जाते हैं। यदि कोई २ विद्यार्थी मानसिक अधिक परिश्रम करके पास भी हो गया नौ पास हुए बाद उससे शारीरिक परिश्रमाले कार्य होना अतिशय कठिन मालूप होते हैं । सो ऐसा कदापि नहिं होना चाहिये क्योंकि मस्तिष्क ( मगज) मनका एक यंत्र है. व्यायाम करनेसे मस्तिष्क-रक्तका संचार होनेसे मस्तकमें बलाधान होता है। किंचिन्मात्र भी व्यायाम नहिं करनेवाले अनेक विद्यार्थी परीक्षा समय आनेपर रोगी होते देखने में आते हैं, और अनेक लडके व्यायाम नहिं करनेसे हमेशहके लिए दुर्बल व रोगी हो जाते हैं । इस कारण सम लडकोंको यथा समय सूर्यास्तके समय एकबार खेल लेना उचित है । वालिकाओंके लिये मूलेमें झूलना वा घरके सब काम करना ही बहुत है । दिन भर बैठे.२ लिखने पढनेवालोंको . भी विद्यार्थियों की तरह व्यायाम करना उचित है परंतु
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तृतीय भाग। भूखके समय खाली पेट अथवा भोजनके वाद ही व्यायाम करना कदापि उचित नहीं । हां! धीरे धीरे मील डेढ मोल टहलनेमें कोई हानि नहीं।
--- -- ४२. वज्रकुमारकी कथा।
हस्तिनापुरमें राजा बलि राज्य करते थे, इनके पुरो। हित गरुडका लडका सोमदत्त था जो समस्त शास्त्रोंको पट. कर एकदफे अपने मामा सुभूतिके यहां अहिक्षत्रपुर गया । जाकर मामासे निवेदन किया-आप मुझे यहांके राजा दुर्मुख के दर्शन करा दीजिये परंतु मामा तो अपने घमंडमें चकचूर था इसवास्ते उसकी कुछ मी न सुनी, और यों ही टाल दिया लेकिन सोमदत्त कुछ अप्रसन्न होकर अकेलाही राज समामें जा पहुंचा और राजाको दरिमें बैठे हुए देख कर आशीर्वाद दिया, साथ २ अपने पांडित्यको भी दर्शा दिया जिसे देखकर राजा बडा प्रसन्न हुआ और उसी समय मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया । जब मामा अपने भानजेकी ऐसी बुद्धिमत्तासे परिचित हुया तो उसने अपनी पुत्री यज्ञदत्ताका विवाह सोमदत्त के साथ कर दिया । कुछ दिन बाद यज्ञदत्ताके गर्म रह गया और वर्षाकालमें आम खानेका दोहला उत्पन्न हुआ। सोमदचको जब यह खबर लगी तो
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जैनवालवाधकउसने वहांके सब वगीचोंको ढूंढ डाला, कहीं आम न मिला। केवल एक बगीचेमें आप वृक्ष के नीचे सुमित्राचार्य योग लगाये हुए ध्यान कर रहे थे, जिनके प्रतापसे उस आममें खूब फल लग रहे थे । सोमदत्तने अपना मनोरथ सफल देखकर उसमें से कुछ आप तोड लिए और एक मनुष्यके हाथ घर भेज दिये और आप स्वयमेव मुनिके पास धर्मश्रवण कर वैराग्यको प्राप्त होगए और तपको ग्रहणकर नानाप्रकार शास्त्र अध्ययन करके नाभिगिरि पर आतापम योगसे स्थिर होगा । उधर यज्ञदत्ताने पुत्रको जना और स्वामीका अपने वंधुनर्गसे वैराग्य सुनकर कुटुंव सहित वह नाभिगिरि पर गई और सोमदपको आतापन योगसे स्थित देख अत्यंत क्रोधकर बोली-इस बालककी, जिसका मूलबीज तू है, अपने आप रक्षा कर ऐना कहकर सोमभूतिके चरणोंमें बालकको रख दिया और गाली देती हुई आप घरको लौट आई । इतने में ही दिवाकर देव नामका विद्याधर जिसे उनके छोटे भाई पुरंधरने अमरावती नगरीके राज्यसे निकाल दिया था मय स्त्रीके वहां मुनिवंदनाको आया और वहां उस बालकको देखकर उठा लिया और अपनी स्त्रीको देकर . वज्रकुमार यह नाम रख दिया। थोडे दिनमें ही वज्रकुमारने अपने मामा विमलवाहन जो कि कनकगिरिके राजा
और दिवाकरदेवके साले थे, उनके यहां रहकर समस्त.. विद्या सीख ली और ऋमसे युवा अवस्थाको प्राप्त कर
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तृतीय भाग । लिया । एक समय पवनवेगा गरुडवेगकी पुत्री होमंत पर्वत पर प्रज्ञप्ति विद्या साधने के लिए आई हुई थी उसी समय वज्रकुमार भी वहां गए थे, जब यह विद्या सिद्ध कर रही थी कि जोरसे हवा चलने लगी जिससे एक कांटा उड कर पवनवेगाकी आंखमें चला गया । पवनवेग का मन उससे कुछ विचलित सा दिखाई दिया ही था कि वज्रकुमारकी दृष्टि उस पर जा पडी और शीघ्र जाकर उस कांटेको निकाल दिया जिससे पवनवेगा अपनी विद्या सिद्ध करने में सफलीभूत हुई और वारंवार वज्रकुमारकी प्रशंसा करने लगी और बोली- आपके प्रसादसे ही मुझे यह विद्या सिद्ध हुई है इस लिए चाही मेरे स्वामी होने योग्य हैं । वज्रकुमारने इसे मान लिया और इसके साथ विवाह करके अमरावती चला गया : वहां लडाई में पुरंधरको हराकर दिवाकरदेवको पुनः राज्य पर स्थापित कर दिया और आरामसे रहने लगा । कुछ दिन बाद दिवाकर देवकी त्रीके गर्भ रह गया और पुत्रको पैदा किया अब तो उसे वज्रकुमार बुरा सूझने लगा और विचार करने लगी कि मेरे पुत्रको राज्य न मिलकर इसे ही राज्य मिलेगा ! इसप्रकार के वचन एकदफे वज्रकुमारने किसी से कहते हुए जयश्रीके सुन लिए और सुनकर सीवा पिता के पास गया और वोला- मुझे यह बताइये कि मैं वस्तुतः किसका पुत्र हू जबतक आप सत्य न बतावेंगे तबतक में भोजन न करूंगा ऐसे वचन सुनकर दिवाकर देवको पूर्व वृत्तांत यथार्थ कहना
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जैनवालबोधक
पडा । चत्र क्या था ! वज्रकुमार को अपने गुरुके देखनेकी अभिलाषा हो उठी और बंधुओं सहित मथुराको क्षत्रिय-गुहा में जा पहुंचा । वहां सोमदत्तको दिवाकरदेवने नमस्कार करके पूर्व सर्व वृत्तांतको कह सुनाया । किंतु वज्रकुमारने अपने सब संबंधियोंको बडे कष्टसे घर लौटाकर स्वयमेव मुनिपद ग्रहण कर लिया। इसी बीचमें मथुरा के राजा 'पूतिगन्ध थे, उनकी रानीका नाम उर्मिला था, उसे धर्मसे बडा प्रेम था और हमेशा धर्मप्रभावना में लग्लीन रहा करती थी, वर्ष में तीन दफे नंदीश्वर पर्वको चडे समारोहसे किया करती थी और जिनेन्द्रदेवकी प्रभावनाके लिए, गजरय निकलवाया करती थी । उसी नगरी में सागरदत्त शेठ रहते थे, जिनकी स्त्रीका नाम समुद्रदत्ता और पुत्रीका नाम दरिद्रा था | सागरदत्तका मरण हो जाने पर दरिद्रा एक समय किसी के मकान में पडी हुई हड्डियों को चचोर ( चूस रही थी, इतनेमें आहारके वास्ते आए हुये दो सुनियोंने उसे देखा उनमें से छोटे सुनिने कहा, खेद है ! यह विचारी ऐसे तुच्छ पदार्थसे अपनी उदरपूर्ति कर रही है, बडे मुनिने अपने 'दिव्यज्ञान से उत्तर दिया - यह अभी दीन जान पड़ती है । परंतु यही यहां के राजाकी पट्टरानी होगी। सुनिने ये वचन - कहे ही थे कि उधर भिक्षाकेलिये घूमते हुए धर्मश्रीबंदक जो कि बौद्ध सन्यासी या उसने सुन लिये और यह निश्चय करके कि मुनिके वचन असत्य नहीं होते हैं, उस कन्याको ( दरिद्रा )
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तृतीय भाग।
१५७ अपने मठमें लेगया और उसका खूब मिष्ट अन्नसे पोपण किया । एक दफे झूलेमें झूलती हुई दरिद्रा पर राजाकी दृष्टि पड गई और उनके रूपका पान करके अति विरहावस्याको प्राप्त होगया । मंत्रियों को जब यह खबर लगी तो उन्होंने बंदकले राजाके साथ दरिद्राकी शादी करनेको कहा, उसने इन वचनोंपर कि गजा यदि बौद्धधर्मको धारण करेगा तो मैं दरिद्राका विवाह राजाके साथ कर दूंगा, स्वीकार कर लिया। राजा उसके रूपका प्यासा था ही, इसलिये उसके वचनोंको मान लिया और उसके साथ पणिग्रहण कर लिया और वह रानी वना दी, पहले कह आए हैं कि उर्मिला बडी धर्मात्मा थी इसलिये जब फाल्गुणकी अष्टान्हिका वडे सजधजसे रथ निकलवाना शुरू किया तो दरिद्रा इसे देखकर विचार करने लगी कि मैं भी बुद्धस्य निकलवाऊंगी और जाकर राना से निवेदन किया कि उमिलाके पहिले मेरा रथ निकलना चाहिये, तब उसको राजाने आज्ञा देदी कि बुद्धरथ ही पहले निकलेगा, जब उर्मिलाको यह खबर लगी तो उसने प्रतिज्ञा का ली कि यदि मेरा रथ प्रथम न निकलेगा तो अन्न जल कदापि ग्रहण न करूंगी और मर जाऊंगी। ऐसा निश्चय करके क्षत्रिय गुहामें सोमदत्तादायके पास गई, भाग्यसे उसी समय वंदनाके लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर भी पाए हुए थे। जाकर पिलाने मुनिसे अपना सब हाल कह सुनाया वज्रकुमार मुनि भी वहीं ध्यान लगाये स्थित ये इसलिए
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३५८
बालबोधक
उन उर्दिकी ऐसी प्रतिज्ञा सुन दिवाकर देव आदि विद्यारों का कि आप लोग समर्थ हैं
का
विद्यावर
भले प्रकार करा देनी चाहिये इतना सुनते ही चल दिये और उदासी (इन्द्र पानी ) का य मंग कर बड़े समारोहले उर्मिला निकलवाया। इप्रकारक विनयको देकर राजा पट्टरानी व अन्य जन हे चकित हुये और मन जिनको बार कर दिया !
इसलिये सबको चाहिये कि वज्रकुमार मुनिकी तरह की भावना करें जिससे दूसरों पर इस स धर्मका असर पडे और उसका माहात्म्य प्रकाशित हो, तया दूसरोंका व अपना कल्याण हो सके ।
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४३. श्रावकाचार पंचम भाग |
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पांच अलका स्वर !
हिंसा विध्या चौरी मैथुन और परिग्रह जो हैं यार ! स्यूत रूपसे इन्हें छोडना, कहा अत्रत प्रभुते आप || निरविचार इनको पालनकर पाते हैं मानव सुर तोक । वहां पुण अवविज्ञान त्यों, दिव्यदे मिलते हरशोक ॥
इसका अर्य स्यष्ट है इसलिये न लिखा ।
१।
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तृतीय भाग।
अहिंशाणुव्रत। 'तीन योग में तीन करणसे, पजीवोंका वध नजना। कहा अहिंसाणुव्रत जाता, इसको नित पालन करना । इसी अहिंशाणुव्रतके हैं, कहलाने पंचालीवार । छेदन भेदन भोज्य निवारण, पोडन बहुत लादना भार ।। , न वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे प जीवोंकी हिंसाका त्याग करना सो यहिंसाणुव्रत है और किसी जीवका छेदन, भेदन, आहार बंद करना, पीडा देना और बहुत भार लादना येणंच इस व्रतके भतीचार है ।।
अहिंसाणुव्रत और हिंसामें प्रसिद्ध होनेवालोंका नाम । इसी अणुव्रतके पालनसे, जाति पांतिका था चंडाल। जैमी सब प्रकार सुख पारा. कीर्तिमान् होकर यमपाल । नहीं पालनेसे इस व्रतके, हिंमारत हो सेठानी। हुई धनश्री ऐसी जिमुकी, दुर्गति नहिं आती जानी॥४७॥
इस अहिंसाणुव्रतके पालनेमें यमपाल नामका चांडाल मसिद्ध हुवा है और इस चूरको न पालकर हिंसाम रव हो कर धनश्री नामकी सेठानी दुर्गतिकी पात्र हुई है ।। ४७ ॥
__ सत्याणुव्रत । बोलै झूट न झूठ बुलाये, कहै न सच भी दुखकारी। 'स्थल झूठसे विरक्त होवे, है सत्याणुवून पारी ।। निंदा करना धरोह हरना, कूट लेख लिखना परिवाद । गुप्त वातको जाहिर करना, ये इसके अतिचार प्रमाद ।।
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जैनघालवोधकजो स्थूल झूठ न तौ भाप बोले, और न दृमरेसे बुलबावे तथा ऐसा सत्य वचन भी न बोलै जिससे कि दूसरे को दुःख वा हानि हो, उसे सत्याणुव्रत कहते हैं और परकी निंदा करना. धरोहर हरलेना, मूठा लिखना, चुगली करना, और किसीकी गुप्त वातका प्रगट करदेना ये पांच इस सत्याणुव्रतके अतीचार हैं। ४८॥
सत्याणुव्रतमें व झूठ बोलने में प्रसिद्ध होनेवालोंका नाम । इस व्रतके पालन करनेसे, पूज्य शेठ धनदेव हुआ। नहिं पाल मिथ्या रत होकर, सत्यवोप त्यों दुखी मुआ॥ मिथ्यावाणी ऐसी ही है, सव जगको संकटदाई ॥ इसे हटाओ नहीं लडाओ, समझायो सबको भाई ॥ ४९ ॥ ___ इस सत्याणुव्रतको पूर्णतया पालनेसे धनदेव नामका शेठ पूजनीय हुवा है और सत्यघोष नामके ब्राह्मणने झूट बोलने में प्रसिद्ध होकर महान दुःख पाया है ॥४॥
अचार्याणुव्रत । गिरा पडा भूला रक्खा त्यों, विना दिया परका धनसार। लेना नही न देना परको, है अचौर्य इसके अतिचार ।। माल चौयका लेना, चौरी-ढंग बतलाना छल करना । माल मेलमें नापतौलमें, भंग राजविधिका करना।।५०.!!
गिरा हुवा, पड़ा हुवा, रखा हुवा, दूसरेका.धन वगेरह वस्तु ग्रहण न करना वा. उठाकर दूसरेको न देना सो प्रचौर्याणवत है, और चौरीका माल लेना, चौरीका उपाय
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तृतीय भाग। चताना, अधिक मूल्यकी वस्तुम बोडे मृल्यकी वस्तु मिला कर चला देना, तोल नापके वांट तराजू गज वगेरहमें न्यूनाधिक करना, और राजाकी पात्राका उल्लंघन करना ये पांच इस व्रतके अतीचार है ।। ५०।।
अचीवाणुव्रत और चोरीमें प्रसिद्ध होनेवालोंका नाम । इस व्रतको पालन करनेसे, वारिपेण जगमें भाया। नहीं पालनेसे दुख वादल, खूब तापसी पर छाया। जो मनुष्य इस व्रतको पालै, नहीं जगतमें क्यों भावै । क्यों नहिं उसकी शोभा छावै, क्यों न जगत सब जस गावै ।।
इस अचौर्याणुव्रतके पालन करने में वारिषेण नामका राजकुमार प्रसिद्ध हुवा और नहीं पालनेसे अर्यात चौरी करनेमें. एक वारसी निंदित हुवा है ।। ११ ॥
ब्रह्मचर्याणुवत। .. .. पापभीरु हो परदारासे, नहीं गमन जो करता है। .. तया औरको इस कुकर्ममें, कभी प्रवृत्त न करता है ।। ब्रह्मचर्य व्रत है यह सुंदर, पांच इसीके हैं अतीचार। इन्हें मली विध अपने जीमें, मित्रो लीजे खूब विचार॥५२॥ • भंडवचन कहना, निशिवासर, अतितृष्णा तियमें रखना। "व्यमिचारिणी स्त्रियोंमें जाना, औ अनंगक्रीडा करना। 'औरोंकी शादी करवाना, इन्हें छोडकर व्रत पाला । बणिकसुता नीलीने नीके, कोतवालने नहिं पाला॥५३॥
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जैन पलोधक. अपनी स्वीके सिवाय अन्य खीसे न तो भाप में और न दुसरंको गमन करावे, उमको परस्त्रीशग वारसदारसंतोष नामा अणुव्रत कहते हैं। मंडववन कहना, अपनी न्त्रीमें भी अधिकतम्गा रखना, व्यमिवारिणी स्त्रियोंसे संबंध रखना, अनंगक्रीडा काना, और दूसरोकी मगाई न्याह कराना, ये पांच इसबनके अतीचार है इस शीटपूर्वक पालनेमें शेठकी पुत्री नीली, और परस्त्री सेवन पापमें यमपाल नामा कोतवाल प्रसिद्ध हुवा है । ५२-५३ ।।
परमह परिमाण अनुद: . आवश्यक धन धान्पादिकका, अरने पनमें करि परिमाण । ससे भान नही चाहना, साई इच्छापरिमाग ।। अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोप,लादना अतिशय पार। इसवतके बोले जाते हैं, पित्रो ये पांचों अतिवार ।। १४ ॥ दोहा-भूमि, यान वन वन्य गृह, मानन कुष्य अपार ।
शयनासन, चौपंद दुपैर, परिग्रह दव परकार ॥१॥ . इन दन्न प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके शेषको छोटेदना सो परिषद परिमाण नापका असुव्रत है। विरा जलतके बहुवसे वाहन रखने, वा बहुतसी वस्तुयें संग्रह करना, दुसरका एस्वर्य देवकर प्रारी करना; अति लोम करना, और पशुवार. अविशय मार लादना ये पांच इस बनके अतीवार है:।। ५४॥ .
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तृतीय भाग ।
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परिग्रह परिमाण व्रत और पापमें प्रसिद्ध होनेवालोंका नाम व गृहस्थ के
अष्टमूल गुण ।
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जयकुमारने इस वर व्रतको पालन करके सुख पाया । 'वैश्य 'मूळ मक्खन' नहि पाला 'हाय द्रव्य' कर दुख पाया || पांच अणुव्रत कहे इन्ही में, मद्य मांस मधुका जो त्यागः । मिल जावै तौ आठ मूलगुण, हो जाते हैं गृही-सुहाग |
जयकुमारने इस परिग्रहपरिमाण व्रतको पालन कर सुख पाया है और मूल मक्खन नामके लुब्धक वैश्यने अति - लोभ करके इस व्रत पालने में दुःख उठाया है ।
इन पांचों अणुव्रतोंको धारण करने और यद्य मांस - मधु इन तीन श्रभक्ष्योंका त्याग करनेसे श्रावकके आठ मूल - गुण हो जाते हैं ॥ ५५ ॥
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४४. यमपालनामा चंडालकी कथा |
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पूर्वकालमें सुरम्य नामके देशमें पोदनपुर नापका नगर था. उसका राजा महाबल था. उसो नगरमें एक यमपाळ - नामका चंडाल रहता था. जीवोंको हिंसा करना ही उसका - रोजगार था ।
एकदिन उस चंडालको सर्पने काट खाया सो उसे परा जान उसके कुटुंबियोंने दग्ध करनेको नगरसे दूर श्मशान भूमिमें लाकर रक्खा था. उसी जगहें सर्वोपधिद्धिके धारक
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जैनवालवोधकमुनिमहाराज ध्यानस्थ बैठे थे, सो उनके शरीरकी वायुसे चा चंटाल निर्विष होकर जीवित होगया-और मुनिराजके चरणोंमें भक्तिपूर्वक नमस्कार करके अपने कल्याणार्य कुछ व्रत ग्रहण करनेकी इच्छा प्रगट की. मुनिमहाराजने उसकी हिंसोपजीविका सुनकर उससे कहा कि "तुम चतुर्दशीकै दिन जीवहिंसा करना त्याग दो" उसने पंद्रह दिनमें एकदिनका हिंसात्याग करना सहज समझकर दृहप्रतिज्ञा करली किप्राण जांय परंतु चतुर्दशी के दिन किसी जीवको न मारूंगा। ___ ठीक उसी समय अष्टाहिका पर्व या. सो महाबल गना ने "पाठ दिनतक कोई भी किसी जीवको न मारे" ऐसा दंढोरा शहरभरमें पिटवा दिया था. किंतु राजपुत्र वलकुमार मांसभीजी था. सो उससे बिना मांसके रहा नहिं गया, उसने राज्योपवनमें राजकीय मेंको मच्छन्नमारसे मारकर व पकाकर खाया । जब राजाने मेंढकी खोज कराई तो वागमालीके द्वारा ज्ञात हुआ कि राजपत्र ही इस अपराधका अपराधी है। "मेरा पुत्र ही मेरी आमाका खंडन करता है" इस वातपर राजाको बडा क्रोध हुआ. उसने तत्काल ही चंडालके द्वारा माया कटवानेका हुकुम दिवा. दैवयोगसे उस दिन चतुर्दशी थी और उसी यपाल चंडालको राजमारके बष करनेका हुकम हुआ. राजभृत्य (सिपाही) उसके घर बलानेको गये वो वह चंडाल अपने ग्रहण किये हुये अहिंसा बाकीरतार्य छिप गया और अपनी स्त्रीको सिखा दिया कि
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तृतीय भाग ।
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मुझे कोई बुलानेको भाने तो कह देना कि- " वह ग्रामान्तर गया है ।" उसने राजभृत्योंके पूछनेपर वैसा ही कह दिया राजभृत्योंने कहा कि "देखो माग्यहीनता ( कमनसीची ) इसको कहते हैं कि आज राजपुत्रके मारनेमें इस चंडालको हजारोंका गहना मिळता, उमर भरके लिये निहाळ होजाता परन्तु भाग्य में वही जंगली जीवोंको मारकर उपर भर दुःखपाना लिखा है इसीकारण आज गांवको चला गया ।" : इसप्रकार राजभृत्योंके वचन सुननेसे चंडालिनीको लोभने चुप नहि रहने दिया और उसने हाथका इशारा करके यमपालको बता दिया. राजभृत्योंने उसे पकडकर राजाज्ञा सुनाई कि इस राजपुत्रको मार डालो | यमपालने कहा कि आज चतुर्दशी के दिन में जीवहिंसा नहिं कर सका लाचार राजभृत्योंने उस चंडालको राजाज्ञालोप करनेके अपराध में राजा के सम्मुख उपस्थित (हाजिर ) किया । राजाने उससे कहा कि "क्यों वे ! तू मेरी आज्ञाको नईि मानता ?" चंडाल ने कहा- हजूर ! मैं सर्पके दंशन से मरा हुआ मसान भूमि में पडा था. एक मुनिमहाराजके शरीरकी हवासे में जीवित हो गया । उन महात्मासे मैंने यावज्जीव हर चतुर्दशी के दिन हिंसा करना छोड दिया है. सो आप चाहें मुझे भी शूलीपर घर दें - परन्तु मैं प्राज किसी भी जीवको मारकर मुनिमहाराजके दिये हुये अहिसात्रतको मंग नहि कर सक्ता.. राजाने लाचार होकर हुकुम दिया कि "इस चंडाल और
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जैनवालवोंधक-. दुष्ट पुत्र दोनोंको दृढ बंधनोंसे बांध कर समुद्र में डाल दो" राजभृत्योंने तत्काल राजाज्ञाका पालन किया अर्याद दोनोंको बांधकर समुद्रमें डाल दिया. किंतु चंडालके दृढ अहिंसावन के प्रभावसे जलदेवताओंने उन दोनोंकी रक्षा की अर्थात मणिमंडित नौकापर रत्नजडित सिंहासनपर तो चंडाल बैठा है और राजपुत्र उसपर चमर दुरांता है और जलदेवता तथा अन्य देवगण भाकाशमेंसे चंडालके अहिंसाव्रतको धन्य २कहते हुये पुष्पवृष्टि करते हैं. इसप्रकार अहिंसावतके प्रभाव को देखकर महाबल राजाने भी उस चंडालकी अनेक तरह प्रशंसा की। . ___चंडाल भी एक दिनके अहिंसा व्रतका प्रत्यक्ष महा फल देखकर सम्यक्त्व सहित पंचाणुव्रत और सप्तशील धारण करके बूती श्रावक हो गया। उसके व्रतका प्रभाव देखकर हजारों नगरनिवासी स्त्रीपुरुषोंने मी अहिंसादि पंचाणुव्रत धारण किये. तबहीसे जैनशास्त्रों में इस चंडालकी कथा अहिसावतके प्रभाव दिखानेके लिये यत्र तत्र उदाहरणार्थ. लिखी है।
हे बालको! तुमको भी मनवचनकायसे यथाशक्ति उस जीवोंको (चलते फिरते जीवोंको) मारने वा किसी मकारकी पीडा देनेका त्याग करना चाहिये क्योंकि जैनियोंका यही एक सर्वमतसम्मत प धर्म है।
Baractée
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तृतीय भाग।
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४५ भूधर जैननात्युपदेशसंग्रह पांचवां भाग।
कुकविनिंदा।
मत्तगयंद । राग उदै जग अंघ भयौ, सहजै सब लोगन लाज गवाई। सीख विना नर सीख रहे, विपयादिक सेवनकी सुषगई ।। तापेर और रचें रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असझनकी अखियानमें, झोंकत हैं रज राम दुहाई ॥ कंचन कुंभनकी उपमा कहिदेत, उरोजनको कवि वारे । ऊपर श्यामविलोकतकै, मनिनीलमकी ढकनी हँकि छारे ।। यौं सतवैन कहै न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे। साधन झार दई मुख छार, भये यहि हेत किधौं कुच कारे ।। ए विधि भूलभई तुमतें, समुझे न कहा कस्तुरि वनाई । दीन कुरंगनके तनमें, उन दंत धरै करुना किन भाई॥ क्यों न करी तिन जीभन जे, रसकाव्य करें परको दुखदाई। साधु अनुग्रह दुर्जन दंड, दोऊ सधते विसरी चतुराई॥ १ विसनादिक सेवनकी' तथा 'वनिता सुख सेवनकी ऐसा भी पाठ है २ तापर रीझिरचे रसकाव्य, बडे निरदै कुमती कवि माई । ऐसा भी पाठ है। ३ मेलत है, ऐसा भी पाठ है। ४ बालक-मूर्ख ५ मांसके लोदे ६ मृगों के शरीर में कस्तूरी बनाई सो यही भूल की ५ परको दुखदायक रसकी कविता करनेवाले कवियोंकी लोभोंमें कस्तूरी बनाते, तो अच्छा होता क्योंकि
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जैनवालबोधक• . मनरूपी हाथीको वश करनेका उपदेश !
ज्ञान महावळ डारि, सुमति सकल गहि खंडै । गुरु अंकुश नहि गिन, ब्रह्मवत-विश्ख विहंडै । कर सिधंत सरन्हौन, केलि माघ रजसौं ठगने ।
करने चपलता घरै, कुमतिकरेंनी रति मान ।। डोलत सुछंद मदमत्त अति, गुण पथिक न आवत 'उरे । वैराग्य खपत वांध नर, मन-मतंग विचरत पुरै ॥ ४ ॥
गुरु उपकार।
कवित्त मनहर । ईसी सराय काय पंथी जीव परयो आय,
रत्नत्रय निधि जाप मोक्ष जाको घर है। मिथ्यानिशि कारी जहां मोह अंधकार भारी,
कामादिकतस्कर समूहरको थर है । सोवै जो अचेत सोई खोवै निज सपंदाको,
तहां गुरु पाहरू पुकार दया कर है। गाफिल न हूजे भ्रात ऐसी है अंधेरी रात,
"जागरे बटोही यहां चौरजको दर " ॥५॥ कस्तूरीके लिये उनकी जीमें काटी जाती, साधु अर्थत भले जीवोपर अनुग्रह (दया) होती और दुष्ट कवियोंको दंड मिल जाता ८ ब्रह्मचर्य रूपी वृक्ष। ९ कानोकी चपलता अथवा इंद्रियोंके विषयोंकी चपलता १. हचिनी । ११ गुणरूपी मुसाफिर पास भी नहिं आते । १२ चौर। ३३धल-स्थल । १४ पहरेदार । . ... ,
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तृतीय-भाग-1 कवाय जीतनेका उपाय। ..
- मत्तगयंदा छेम निवास छिमाधुवनी विन, क्रोष पिशाच उरें नटरंगो। कोमल भाव उपाव विना, यह मान महामद कौन हरेगो॥ ऑर्जवसार-कुठार विना; छलवेल निकंदन कौन करेंगी। मेषशिरोमनि मंत्र पठेविन, लोमणी विप क्यों उतरंगो ६
मिटवचन बोलनेका उपदेश काहेको चोलत वोल पुरे नर,नाहक क्यों जस धर्म गुमायें । कोमल वैन चै किन ऐन, लगै कछु हैन मवै मन भावे ।। तालु छिदै रसनानमिदन घटै कछु अंक दरिद्र न आवे । जीभ कहे निय हानि नहीं, तुम जी सब जीवनको सुख पावै।।
धैयधारण करनेका उपदेश ।
कवित मनहर पायो है अचानक भयानक असाता कर्म,
ताके दूर करवेको बली कोन अहरे । जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप,
तेई अब आये, निज उदैकाल लहरे ॥ rक्षमारूपी धूनी । ५ आर्जव (सरलता) रूपी पोलाद कुल्हाडीके विना'। ६ संतोषरूपी उत्कृष्टमंत्र । ७ लोम रूपी सर्पका जहर । ८ बोले । ९ क्यों नहीं । १० अच्छे ११ प १२ जीम कहती है कि हे जीव मिष्टपचन . बोलने में तेरी कुछ हानि नहीं है और सब जीवोंका जी सुस पाता है।
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जैनबालवोधकएरे मेरे वीर काहे होत है अधीर यामें,
कौऊको न सीर तू अकेलो आप सहरे। भये दिलगीर कछू पीर न विनसि नाय,
ताहीत सयाने, तू तमासगीर रहरे ॥ ८॥
४६. धनश्रीकी कथा।
भृगुकच्छ नगरमें राजा लोकपाल थे । वहीं धनपाल सेठ रहता था जिसकी स्त्रीका नाम धनश्री था जो बड़ी दुष्ट और हिंसक यी ! मन दोंनोके पुत्र गुणपाल और पुत्री सुंदरी ये दो संतान पैदा हुई किंतु इसके पहिले धनश्री व धनपालने एक बालक जिसका नाम कुंडल था रख छोडा था और उसीको अपना लडका समझ रक्खा था।जव धनपाल मरगया तो धनश्रीने उम कुंडलके साथ ही पति समझकर कुकर्म करना शुरू कर दिया। थोडे दिन वादगुणपाल को यह खबर लगगई थी परन्तु पुत्र होनेसे वह कुछ कह नहीं सकता था और यह बात धनश्रीको भी खटशने लगी थी कि गुणपाल किसी तरह मरजाय तो मेरावेरोकटोक कामसेवन हो सके, इसलिये धनश्रीने कुंडलसे रात्रिमें कहा कि कल तुम गोचराने गुणपालको भेजदेना और पीछेसे जाकर '१ साझा । २ चिंतत-दुखी।
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तृतीय भाग। मार डालना जिसे हमारे तुम्हारे कामसेवनमें किसी प्रकार की पाधान प्रासकेगी, पासमें ही मुंदरी खडी यी और उसने यह सुनकर गुणपालसे कह दिया कि भाई ! तुम कल होशयार रहना, तुम्हें कुंडलके हाय माता मरवानेवाली है, सुबह होते ही धनश्रीने गुणपालसे कहा कि वेटा ! आज तुम गोवाको लेकर चरा लाओ, कुंडढकी ववियत सराव है, वह वेचारा सब समझ गया परन्तु माताकी आज्ञानुकूल गोधन लेकर हार वन) को चला गया और अपने कपडे उतार कर एक काटके टुकडेको पहिना दिये एवं स्वयं छिपकर वहीं बैठ गया। जब कुंडल हायमें तलवार लेकर भाया तो उस काठको ही गुणपाल समझकर अपनी तलवार उसपर चलादी वहीं लुका गुणपाळ वैठा था वह धीरसे उठकर कुंडल के पास आया और एक तलवार ऐसी मारी कि कुंडलका शिर अलग होगया और वहांसे चलकर घर आगया। जब धनश्रीने कुंडलको घर आया हुआ न देखा तो बोली-कुंडल कहां है ? उसने कहा मुझे मालूम नहीं है इस तलवारसे पूछ ले, जब उसने तलवार देखी तो वह उनसे लाल हो रही थी। घनश्री समझ गई कि पापीने उसे मारडाला है । इसलिए उसने तलवार लेकर गुणपालको मारडाला, यह देखकर सुंदरी दौडी और इससे धनश्री को मारना शुरू किया जब इस कोलाहलको कोतवालने सुना तो शीघ्र दौडा पाया और घनश्रीको पकडकर राजा
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जैनगलवोधकके पास ले गया। गजाने गर्दभ पर चढाकर सारे शहरमें फिराया और नाक कान काट लिए ऐसी दुर्दशा होनेपर धनश्री मरगई और मरकर नरकादि गतिको माप्त हुई।
पूर्वोक्त कथाका सारांश यही है कि जो दूसरोंका घात नहि वरिक बुरा भी विचारता है वह इसलोक और परलोकमें भी दुःख प्राप्त करता है जैसा कि घनश्रीके दृष्टान्तसे मालूम पडा ।
४७. श्रावकाचार छठा भाग।
तीन गुणव्रत । मूलगुणोंकी बढ़ती होवे, इसके लिये गुणव्रत तीन । कहे श्रेष्ठ पुरुषोंने नीके, जिनसे होवें जन दुखहीन । दिव्रत और अनर्थ दंडवत, व्रत भोगोपभोगपरिमाण। इनको धारण करें भन्यजन, मान शास्त्रको सुदृढ प्रमाण ॥
जिनव्रतोंके धारण करनेसे ऊपर लिखे मूलगुणोंकी वृद्धि हो उन्हें गुणव्रत कहते हैं। वे गुणव्रत, दिव्रत, अनर्थदंडव्रत, और भोगोपभोगपरिमाणके भेदसे तीन प्रकारके
दिग्वतका स्वरूप। अमुक नदी तक अमुक शैल तक, अमुक गांव तक जाऊंगा। दशो दिशामें अमुक कोससे, प्रागे पद न बढ़ाऊंगा.॥ ..
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तृतीय भाग!
१७३ ऐसी कर मर्यादा आगे, कपी उमर मर नहिं जाना। सूक्ष्म पापनाशक दिवत यह, इसे सज्जनोंने माना ॥५॥
अमुक नदी तक, अमुक पर्वत तक, अमुक गांवतक वा अमुक मील तक दशों दिशाओंमें जानेका परिमाण करके इसके आगे यात्रजीव न जाऊंगा, इस प्रकार त्याग करना. सो दिग्बत है ॥ ५७॥
दिग्बतका फल । जो दिव्रतका पालन करते, उन्हें नहीं होता है पाप । मर्यादाके वाहर उनके, अणुव्रत होय महावत आप ॥ . प्रत्याख्यानावरण बहुत ही, मित्रो कृशतर हो जाते। . इससे कर्म चारित्र मोहिनी, मंद मंद तर पड जाते ॥५८
जो इस दिग्वतका पालन करते हैं उनके मर्यादासे पाहर पांचों पापोंका सर्वथा त्याग हो जानेके कारण उपयुक्त पांच अणुव्रत पांच महाव्रत सरीखे हो जाते हैं यद्यपि चारित्र मोहिनी कमके प्रत्याख्यानावरणी क्रोष मान माया, लोप ये ४ कपाय अति मंदतर हो जाते हैं परंतु साक्षात्. महाव्रत नहिं होते क्योंकि-. . ., :
. .. . ; . महानतका लक्षण । .. तन मन वचन योगसे मित्रो, कृत कारित अनुमोदन कर। होते हैं नौ भेद, इन्हीसे, तजना पांचो पाप प्रखरः॥ कहे जगतमें ये जाते हैं, पंच महाव्रत सुखकारी। बहुत अंशमें महाव्रतीसा, हो जाता दिववधारी ॥२६॥
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१७४ .
जैनबालवोधकमन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे पांचों पापोंका सर्वथा त्याग कर देनेको पंच महाव्रत कहते हैं ॥५६ ।।
दिग्वतके पांच अतीचार । दशों दिशाकी जो मर्यादा, को हो उसे न रखना याद । भूलभाल उसको तज देना, या तज देना धार प्रमाद ॥ ऊंचे नीचे आगे पोछे, अलग वगल मित्रो बढना । दिव्रतके अतिचार कहाते, याद न मर्यादा रखना ॥६॥
अज्ञान वा प्रमादसे उपरकी १ नीचेकी २ तथा विदिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन करना ३ क्षेत्रकी मर्यादा वढा लेना ४ की हुई मर्यादाओंको भूल जाना ये पांच दिव्रतके अतीचार माने गए हैं। ६० ॥ .
. . अनर्थ दंड विरति । दिग मर्यादा जो की होवे, उसके भीतर भी विनकाम । पापयोगसे विरक्त होना, है अनर्थ दण्डवत नाम ॥ . हिंसादान प्रमादचर्या, पापादेश कयन अपध्यान । त्यों ही दुःश्रुति पांचों ही ये, इस व्रतके हैं भेद सुजान ॥६१॥
दिव्रतमें की हुई मर्यादाके भीतर भी विनाप्रयोजन पाप के कारणोंसे विरक्त होना सो अनर्थदण्डविरति व्रत है । इसके हिंसादान, प्रमादचर्या, पापोपदेश, अपध्यान और दुःश्रुति ये पांच भेद हैं ॥६॥
हिंसादान बनय दंग। . . कुरी कटारी खडग खुनीता, अग्न्यायुष फरसा तलवार !
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तृतीय भाग। सांकल.सींगी अस्त्र-शस्त्रका, देना जिनसे होवे वार ॥ । हिंसादान नामका मित्रो, कहलाता है अनरय दंड । अपनन इसको तन देते हैं, ज्यों नहिं होवे युद्ध प्रचंड ।।६२॥
छुरी, कटारी, तलवार, बंदुक, फावडा, खुनीता, अग्नि, सांकल, सींगी, प्रादि हिला करनेवाले पदार्थ किसीको मांगे देना सो हिंसादान नामका अनर्थ दंड है ॥ २ ॥
प्रमादचर्या । पृथ्वी पानी अग्नि वायुका, विना काम आरम्भ करना। व्यर्थ छेदना वनस्पतीको, वे मतलब चलना फिरना ।। . औरोंको भी व्यर्थ घुमाना, है प्रमादचर्या दुखकर। कहा अनर्थ दंड है इसको शुभ चाहै तो इससे डर ॥६३ ॥
विना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, पानी वखेरना, हवा चलाना, वनस्पतीको छेदना तथा विना मतलब ही चलना फिरना औरोंको भी फिराना इत्यादि प्रमादचर्या नामका. अनर्थ दंड है इसलिये इन क्रियाओंकों भी छोड देनाः चाहिए। . .
- पापोपदेश या पापादेश। जिससे धोका देना आवे, मनुज करें त्यों हिंसारम। तियचोंको संकट देवे, वणिज कर फैलाकर दंभ ।।... ऐसी ऐसी बातें करना, पापादेश कहाता है। इस अनय दंडकको तजकर, उत्तम नर सुख पाता है:॥
जिन वातोंको वा कथाके मसंग उठानेसे, तियचोंको.
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१७६.
जैनवालबोधक
क्लेश पहुंचै ऐसा वाणिज्य तथा हिंशा, आरंभ, ठगाई हो, उसे पापोपदेश नामा अनर्थ दंड कहते हैं ॥ ६४ ॥
अपध्याननामा अनर्थ दंड |
राग द्वेषके वशमें होकर, करते रहना ऐसा ध्यान । उसकी स्त्री सुत सर जावे, नश जावे उसके धनधान ॥ वह मर जावे, वह कट जावे, उसको होवे जेल महान । वह लुट जावे, संकट पावे, हे अनर्थ दण्डक प्रपध्यान ॥
राग द्वेषके वशीभूत होकर किसीके स्त्री पुत्रादिकोंका बुरा चाहना वा परजाने, केंद्र होने, लुट जाने, आदिका हर समय चितवन करना सो अपध्यान नामा अनर्थ दंड है ॥ दुःश्रुतिनाम अर्थ दंड |
जिनके कारण से जागृत हों, राग द्वेष मदं काम विकार | आरंभ साहस और परिग्रह, त्यों छावै मिथ्यात्व विचार || मन मैला जिनसे हो जाये, प्यारे सुनना ऐसे ग्रंथ | दुःश्रुतिनाम अर्थ कहाता, कहते हैं ज्ञानी निर्यय ॥ ६५ ॥ जिन ग्रन्थोंके पढने सुनने से, राग द्वेष पद काम विकार उत्पन्न हो तथा आरम्भ, दुःसाहस, परिग्रह, मिथ्यात्वमें रत हो जावें ऐसे ग्रंथों का पढना सुनना दुःश्रुति नामका अनर्थ - दंड कहलाता है ॥ ६६ ॥
•
! अनर्थदंड के पांच अतीचार |
राग भावसे हँसी दिल्लगी, करना अँड वचन कहना । बकबक करना अखि लडाना, कार्य कुचेष्टाका बहना ॥
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तृतीय भाग क
१७७
सज धजके सामान बढाना, विना विचारे त्यों प्रियंवर ॥ - तन मन वचन लगाना कृतिमें, है अतिचार सभी व्रतहर ||
राग भावसे हास्य मिश्रित भंड वचन बोलना, काय की कुचेष्टा करना, कामवर्द्धक इशारे करना वा प्रयोजन रहित अधिकता के साथ हया बकवाद करना, विना प्रयोजन मोग उपभोगकी सामग्री बढाना, प्रयोजनका अंदाज किये बिना ही कुछ करना, वा प्रयोजनरहित अधिकता के साथ मन वचन कायको प्रवचना ये पांच अनर्थदंडविरति नामक गुण व्रतके अतीचार हैं ॥ ६७ ॥
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४८. सत्यवादी धनदेवकी कथा ।
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जंबूद्वीप के पूर्वविदेहमें पुष्कलावती देश है उस देशकी पुंडरीक नगरीमें जिनदेव और घनदेव दो सेठ रहते थे, दोनोंने एक दफे धन कमानेके लिये परदेश जानेका ठहराव किया और यह भी तय कर लिया कि उसमें जो लाभ होगा वह आधा आधा वांट लेगे ऐसा निश्चय करके दोनों परदेशको खाना हो गए और वहां बहुतसा धन कमाकर : कुशलपूर्वक अपने घर आगए, जब फायदा हुए घनका आधा वांटने का मौका आया तब जिनदेवने घनदेव से कहा कि मैंने कब कहा था कि आधा हिस्सा लाभका:
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१७८
जैनबालबोधकदंगा ? मैने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हारे परिश्रमके अनुकूल तुम्हे कुछ धन देदूंगा इसलिये भापको में उतना देनेके लिये अवश्य तयार हूं। धनदेवने जब जिनदेव की ऐसी बातें सुनी तो उसने न्यायालयमें जाकर राजा व अन्यजनों के समक्ष अपना सब किस्पा कह सुनाया उसी समय गजाने जिनदेवको बुलाया और प्रत्य २ कह देनेको कहा परंतु जिनदेखने मत्यव्रतकी कुछ परवाह न करके पूर्वोक्त ही कहा। अव तो राजा बडे सन्देहमें पड गया और विचारने लगा-इनकी परीक्षा कैसे की जाय कि इन्हमें कौन सच्चा है और कौन झूठा, थोडी देरमें राजा को एक युक्ति सूझ पडो और बोला कि इन दोनोंके हायोपर जलते हुर अंगारे रख दो । इनमें मो सच्चा होगा उसके हाथ न जलेंगे और झूठेके जल जायेंगे । राजाके ऐसे वचन सुनते ही जिनदेवका खून सूख गया । उपर राजाने वैसा ही किया । धनदेव तो अंगारेको बडो आसानीसे रक्खे रहा, उसे यह भी मालूम नहिं पडा कि मेरे हाथ पर अग्नि रक्खी है या और कुछ, किंतु जिनदेवका हाथ अमिपर रखते ही जलने लगा और उसके तेजको न सहन कर.जिनदेव ने शीघ्र हायसे अग्नि गिरा दी। यह देखते ही राजा व अन्य सबोंको विश्वास होगया कि जिनदेव विशाल मूगा है। बस! राजाने धनदेवको ही सब-धन दिवा दिया और जिनदेवको ठगी और मूंग इत्यादि शब्द कहकर अपने दरवार
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तृतीय भाग
१७ से निकाल दिया । उस धनदेवकी ऐसी सत्यता: देखकर साधुओंने भी प्रशंसा की और उस दिनसे धनदेवकी घर २ सत्कार होने लगा । ठीक है, मत्यके सामने झूठ कहांतक अपना राज्य कर सकता है इस लिये मवको चाहिये कि इमेशा सत्यका ही सहारा ले और झूठको निकाल देवें।
४९. जूवा निषेध।
किसी तरहकी. शर्न लगाकर उसपर रुपये पैसे लेना देना उप्तको जूआ कहते हैं । जैसे आज कल बहुतसे जूवारी "शामतक मेह आजाय तो तुपकोदश रुपये देदिये जायगै यदि नहिं आया तो जो एक रुपया देते हो सो मेरा होगया।" इसको पानी वा नालीका जूया कहते हैं। तथा 'आज विलायतमें दशहजार ईकी गांठगेका चाण आया तो पांच रुपये तुम्हें देदिये जायगे न्यूनाधिक आया तो.तुमारा एक रुपया जो हमको दिया है सो हमारा होगया।' अथवा अफीमका अंतिमास नीलाम होता है उस नीलाममें यदि ४ का वा पांचका अंक आवैगा तो हम इतना रुपया देदेंगे नहि तौ जो १) रुपया देते हो सो हम खागये । इसी प्रकार अफोमके दडे पर लगाया जाता है। इन सबको अफीमका.सट्टा कहते हैं। इसके सिवाय दीवाली वगेरह पर वा-बारहों महीना
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१८०
जैनवालबोधक कौडियोंकी मूठ लाकर छक्के पंजे खेलते हैं उसमें एक २ दाव पर पैसे रुपये रख देते हैं सो भूठ लानेवालेका दाब आता है तो वह सबका पैसा ले लेता है और दाव लगाने वालेका दाव आगया तो उसे उतना ही देना पड़ता है इत्यादि नाना प्रकारकी शर्ते लगाकर जूआ खेलाजाता है।
जूआ समस्त दुराचारोंका राजा है और समस्त दुराचारोंको सिखानेवाला गुरु है। जो कोई जूमा खेलता है।
और वह जीत जावे नौ धनवानका लड का होने पर भी चोरी करना झूठ बोलना बेईमानी करना- अवश्य सीख जाता है. यदि आमें जीत हो जाती है तो वह जीता हुवा धन मायः वेश्यासेवन आदि अन्याय कार्योंमें ही खर्च हो जाता है। वेश्याके यहां जो लोग जाते हैं वे वहां शराव मांस भंग आदि खाना भी सीख जाते हैं जिससे न तो वह दीनके रहते और न दुनियांके । जूमारीका कोई भी विश्वास नहिं करता उससे घरकी स्त्री तक अपना गहना छिपाती है. जुआरीकी सिवाय घृणाके कहीं भी प्रतिष्ठा नहिं होतो इस जूमाके व्यसनसे ही पांडव नल. सरीखे सत्यवादी प्रतापी राजागण सर्वस्व खोकर : गली २ और जंगल २ मारे २ फिरते रहे । इस कारण जूमा वा जुआरीके पास खडा रहना भी अत्यन्त हानिकारक है। : इस जूएकी जड़ गंजफा तास चौरस सतरंज आदि खेलना है अर्थात् जिसमें हार और जीतका दाव आवे वे सब
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तृतीय भाग। जूएके बहन भाई हैं । ये खेल कभी दिल बहलानेको भी नहि खेलना चाहिये।
५०. सत्यघोषकी कथा।
-- - . जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें सिंहपुर नगर है वहां राजा सिंह. सेन थे और रानी रामदत्ता, पुरोहितका नाम श्रीभूति था वह अपने यज्ञोपवीतमें छुरी बांधकर सारे शहरमें फिरा करता था और मनुष्यों को विश्वास दिलाता था कि यदि मैं कभी भी असत्य बोलूंगा तो इस छुरीसे अपनी जिहा काट डालूंगा इस तरह छलसे उसने अपना नाम सत्यघोष रखवा लिया था और पुरवासी. उसे सत्यघोष कहकर ही पुकारा करते थे। मनुष्योंका उस पर वटा विश्वास हो गयां था इसलिये जो बाहर यात्रा आदिकेलिए जाता था अपना माल सत्यघोषके यहां ही रख जाता था इसलिये सत्यघोष की खूब बन गई थी वह चाहे जिसकी धरोहरका प्राधा या कुछ भी नहीं देता था और राजा उसकी कुछ भी न सुनते थे कारण कि राजाको भी यह विश्वास हो गया था कि सत्यघोष विलकुल सच्चा है । एक दफे पद्मखंडपुरसे एक चणिकपुत्र जिसका नाम समुद्रदत्त था सिंहपुर पाया और वह लोगोंके, मुंहसे सत्यघोषकी विश्वासवार्ता सुनकर उसके
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पास गया और अपने बडे भारी कीमती पांच हारोंको उसके पास रखकर परदेश चला गया और वहां बहुमा धन कमा कर लौट प्राथ। रास्तेमें समुद्र पडता था इसलिये वह अपने मालको जहाजमें लदवा कर चल दिया । भाग्यसे जहाज समुद्र में डूब गया और एक लकडीके सहारे जैसे तैसे समुद्रदच पार लग गया अव उसके पास खाने तकको भी न बचा था इसलिए वह सीधा वहांसे सिहपुरकी तरक चल दियां और सत्यघोषके पास थाया परंतु सत्यघोष पहिलेसे ही जब वह भारहा था दूरसे देखकर समझ गया कि यह अपने हार उठाने आया है ऐसा जानकर पास बैठे हुए मनुष्योंको विश्वास दिलाने के लिए कि मेरे पास इसका कुछ भी नहीं है कहना शुरू कर दिया कि देखो ! यक्ष भिखारी आ रहा है और पागलसा मालूम पडता है यहां आकर मुझ से कुछ अवश्य मांगेगा कारण कि इसका जहाज समुद्रमें
व गया है इसलिये वह विहलसा हो गया है, इतनेमें समुद्रदसने सत्यघोषके पास आकर नमस्कार किया चौर बोला- है सत्यवक्ता ! मैं परदेशं धन कमाने गया था और वहांसे बहुत धन कमाकर लौट आया था परंतु भाग्य से मेरा धनका जहाज समुद्रमें डूब गया है अतः कृपया मेरे पांचों हार दे दीजिए | उसके वचन सुनकर सत्यघोष हँस पडा और पास के बैठे हुए मनुष्योंसे बोला- देखो ! मैंने तुमसे पहिले कह दिया था वह सत्य ही निकला न ! उन सर्वोने
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सूतीयभाग।
१८३ कहा-आप ठीक समझ गए थे कि यह पागल हो गया है इसे घरसे निकाल दीजिये, सत्यघोषने पागल कहकर समुद्रदत्तको घरसे निकाल दिया। विचारा राजाके पास गया परंतु उसकी कौन सुने । हाय ! राजाने भी वैसा ही किया भव विचारा निराश होकर घहरमें घूमने लगा, और सब जगह यही कहा करता था कि मेरे कीमती पांच हार सत्यघोष नहीं देता है। शत्रिको राजाके मकान के पीछे एक वृक्ष था उसपर बैठकर यही रटा करता था । जब इसतरह इसे छह माह हो गए तर एकदिन रामदचा रानीने महाराजसे कहा कि यह पागल नहीं है किंतु संबी ही मालूम पड़ता है भाप सत्यघोषकी परीक्षा करके तो देखिए, कहीं यह उग तो नहीं है ? राजाने भी यह बात मान ली और रानीसे परीक्षा करनेको कहा । रानीने एक दिन सत्यघोषको अपने महल में बु. लाया परंतु वह कुछ देरीसे पहुंचा । रानीने कहा-पाजतुम बडी देर कर पाए हो-उसने कहा । मेरे घरपर कुछ अतिथि आ गए थे इसलिए जिमाने में देरी हो गई। रानीने कहाखर ! परंतु अभी आप दारमें न जाइए । मेरा कुछ जी घबडा रहा है इसलिये चलो जुमा खेले । राजा भी इतनेमें आगया और उसने भी कह दिया कि कुछ हानि नहीं, थोडी देरतक रानीके साथ जुआ खेलो। उसवामणने खेलना शुरू कर दिया। रानी वडी ही निपुण थी इसलिए, उसने एक दासीको बुलाकर सत्यघोषकी स्त्रीके पास भेजा
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जैनवालबोधकऔर कह दिया कि तुम जाकर सत्यघोषकी स्त्रीसे कहना कि पुरोहितजी तो.रानीके पास बैठे हैं और उनने वे पाचों हार उस पागलके मगाए हैं। दासी उसके घर पहुंची और सव वृत्तांत कह सुनाया । परन्तु उसने माफ नाई कह दी कि मैंने नहीं देखे । दृती चली आई और रानीसे जो कुछ उसने कहा था, कह दिया । रानीने पुरोहितजीकी अंगूठी जुआ जीत ली थी इसलिए वह देकर भेजी और कहा कि शीघ्र हार ले आयो । अबकी दफे वह फिर गई परंतु फिर भी उसने न दिये। तीसरी दफे रानीने यज्ञोपवीत.जीत लिया या और उसे देकर भेजा। दासी फिर गई और बोली तुम्हे विश्वास नहीं होता है। देखो ! पुरोहितजीने श्रवके अपना जनेऊ विश्वासके लिये भेजा है और कहा है कि पांचोंहार दे देवे । उसने विश्वापमें आमर पांचों हार देदिये । दासो ले कर रानीके पास आई और हारको दे दिया। रानीने गजा को वे हार दिखा दिये परंतु राजाने उन पांचो हारोंको बहुतसे हारों में मिला दिया और उस समुद्रदत्तको बुलाकर कहा कि तुम अपने हारोंको इनमें से उठा लो। समुद्रदत्त तो अच्छी तरहसे अपने हारोंको जानता था इसलिए उसने उन हारोंमेंसे अपने पांचो हारोंको उठा लिया । अव राजाको विल्कुल विश्वास हो गया कि सत्यघोष वटा ठग और धूर्त है राजाने सत्यघोषसे कहा कि तुमने यह काम किया है या नहीं ? सत्यघोषने कहा-महाराज ! ऐसा प्रसाधु कर्म
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तृतीय भाग। मुझसे हो सकता है ? जव राजाने उसके ऐसे वचन सुने हो बहुत गुस्सा हुये और सन्यघोषके लिये तीन दंड नियत किये वे यह थे कि तीन मोवरकी याली भरी हुई खायो, या मल्लोंके तीन मुक्के (धूंसे ) सहो या अपना सारा धन दे दो । सत्यघोषने गोबर खाना पसंद किया परंतु उससे वह थोड़ा, भी नहीं खाया गया तो फिर उसने उसे छोडकर पल्लोंके तीन घूसे खाने पसंद किये परन्तु उनमें भी असक्त होकर अपना सारा धन दे दिया । सत्यघोष तीनों दंडाको क्रमसे सहकर मरणको प्राप्त हो गया और प्रतिलोमसे मर कर राजाके खजानेमें अगधनामका सर्प हुआ, वहांसे मरकर बहुत कालके लिये संसारी बनकर घूमने लगा।ठीक है, प्राणी मूठके प्रभावसे इस संसारमें सर्वत्र दुःख ही पाता है जैसा सत्यघोषने ऐहिक और पारलौकिक दुःखको प्राप्त किया।
५१. भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह छठा भाग।
होनहार दुर्निवार।
कवित्त मनहर। - कैसे कैसे बली भूप भूपर विख्यात भये, . . अरिकुल कांपे नेक भौंहके विकारसौं। ।
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१८६
जैनवालबोलधकलंधे गिरि सायर दिवायरसे दिपै जिन्हों, .. कायर किये हैं भट कोटिन हुँकारसौं । ऐसे महामानी मौत आये उन हार मानी, ___ क्योंहि उतरे न कभी मानके पहारसौं। देवसों न हारे पुनि दानेसौं न हारे और, काइसौं न हारे एक हारे होनहारसौं ॥१॥.
कालकी सामर्थ्य । लोहमयी कोट कोई कोटनकी ओट करो,
कांगुरेन तोप रोपि राखो पैंट मेरिक। इंद्र चंद्र चौंकायत चौकस है चौकी देहु,
चतुरंग चमू चहुं ओर रहो घेरिक । तहां एक भोंवरा बनाय वीच बैठो पुनि,
बोलो मति कोउ जो बुलावै नाम टेरिके। ऐसे परपंच पांति रखों क्यों न भांति भांति, कैसेहून छोरै जम देखो हम हेरिक ॥२॥
मत्तगयंद सवैया। अंतकसौं न छुटै निहचैपर, मूरख जीव निरन्तर धूजे चाहत है चितमें नित ही सुख, होय न लाभ मनोरथ पूजै ।। तौ पन मूढ़ बध्यो भय आस, वृथा बहु दुःख दवानल भूजे । छोडविचच्छन ये जड लच्छन, धीरज धारो सुखी कि न हूने ।।
१ सागर समुद्र । २ दिवाकर-सूर्य । ३ दानव-दैत्य । ४ किंवार लगाकर । ५ चौकनें । ६ सेना । ७.यमराज मृत्युसे। ८ कांपै-हरै
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तृतीय भाग ।
नसीब में लिखा है- सों ही मिलेगा ।
जो धन लाभ लिलार लिख्यो, लघुदीरघ सुक्रतके अनुसारै । सो लहि है कछु फेर नहीं, परु देश के ढेरे सुमेरु सिंवारें ॥ घट न वाढ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच विचारै । कूप किधौं भर सागर मैं नर, गागर पान मिले जल सौरे ॥ माशारूपी नदी ।
मनहर कवित्त ।
मोहसे महान ऊंचे परवतसौं दरि भाई, विहूं जग भूतल में ये ही विसतरी है। विविध मनोरमें भूरि जल भरी है,
तिसना तरंगनिसौं श्राकुलता घरी है ॥ परै भ्रम भौर जहां रागसे मगर तहां,
चिता तट तुंग धर्म वृच्छ ढॉय दरी है । ऐसी यह धाशा नाम नदी है प्रगाध ताकों, धन्य साधु वीरतरं चढि तरी है ॥ ५ ॥ महामूढ वर्णन |
जीवन कितेक तामेँ कहा वीति बाकी रह्यो, तापै कौन कौन करे हेर फेरही ।
S
९ मारवाड़ चोरोंमें अर्थात् टीलों में । १० सोनेके सुमेर पर । ११ कम और - ज्यादा । १२ कूएमें से मर ले चाहे समुद्रमेंसे भर ले तेरे घढे भर ही जल मिलेगा । १३ सर्वत्र । १४ मनोरथमय । १५ गिराकरके । १६ धीरज जहाज ।
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"
ટ
जैन बालबोधकं
आपको चतुर जाने औग्न को
सांझ होन आई है विचारत सवेर ही ||
मूढ मानें,
चापहीके चखन चित araौं न चौंध कर चावान तीन
सकल चाल, राख्यो है अंधेरही । नकही ऐसो जम,
दीख है मसान थान हाडनके ढेरही || ६ || केवी वार स्वान सिंघ यांवर सिपाल सांप, सिंधुरं सारंग मुस सुरी उदरें परयो । केतीबार चील चगोदर चकोर चिरा,
चक्रवाक चातक चंदुल तन भी घरयो ॥ केतीबार कच्छ मच्छ मेंहक गिडोला मीन,
शंख सीप कौडी है जलूकी नलमें तिरयो । 'कोड कहें 'जाय रे जिनावर ' तो बुरो मानै
यौं न मूढ जाने मैं अश्वार हैं मरयो ॥ ७ ॥
दुष्टकथन छप्पय ।
करि गुण अमृत पान, दोष विष विषम समप्यै । वक्रचाल नहि त, जुगले जिहा मुख थप्पै ॥
१
देखे । २ चलावै । ३ बाण सर । ४ तानकर । ५ बारहसींगा ।
।
६ हाथी । ७ मोर । ८ खर्गोस । ९ शकरी । १० चिडिया | ११ जोंक । १२ समर्पण करै अथात उगले । १३ सपिके दोजीमें होती है, दुष्ट द्वि जिह्वा अर्थात् चुगल होता है ।
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तृतीय भाग! तकै निरन्तर छिद्र, उदै परदीप न रुन्छ । विनकारण दुख कर, वैर विष कबहुं न मुँचै ॥ वर मौन मंत्रने होय वश, संगत कीये ज्ञान है । बहु मिलत वान याते सेही, दुर्गन सांप समान है।
विधातासे तर्क।
मनहर कवित्त । सज्जन जो रचे तौ सुधारसमौं कौन काज,
दुष्ट जीव किये कालकूटतौं कहा रही। दाता निरमापे फिर थापे क्यों कलपवृक्ष,
जाचक विचारे लघु तृणहते हैं सही ।। इष्टके संयोगते न सीरो धनपार कछु,
जगतको ख्याल इंद्रजालसम है वही। ऐसी दोय दोय बात दी विध एक ही सी,
काहेको वनाई मेरे धोको मन है सही ॥९॥
५२. तापसी चोरकी कथा ।
बत्सदेशकी कौशाम्बी नगरीमें राजा सिंहस्थ राज्य करते पे जिनकी स्त्रीका नाम विजया या । वहीं पर एक चोर रहता
१ दीपका उदय वा पराइ वढती । २ रुचती है । ३ अडता है। ४ शीतला .. ....
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१६० .
जैनवानबोधकथा जो छलसे तापसी होकर पृथ्वीको नहिं छूता था और अधपर सींकचेमें बैठकर दिनमें पंचाग्नि तपा करता था और रात्रिमें चोरी किया करता था। जब नगरमें बहुतसी चोरियां होने लगी और नगरवासियोंको बहुत खटकने लगी तब उनने जाकर राजासे निवेदन किया कि महाराज इम बडे दुखित होने लगे हैं कारण कि हमारे बहुतसे माळ चौरी जाने लगे हैं और चौरका पता नहिं लगता है! गजा ने यह सुनकर कोतवालको बुलाया और डाट लगाकर कहा कि नगरमें बहुतसी चोरियां होने लगी हैं इसलिये सात दिन के अंदरम चोरको या अपने शिरको काट कर मेरे पास लाओ । कोतवाल यह सुनकर चल दिया और उसने ४-५ दिन खुव प्रयत्न किया परंतु चोरका पताकहीं भी नलगा। अब तो कोतवाल साहव बड़ी फिकरमें थे और शामके वक्त 'घर पर उदासीसे बैठे ये इतने में एक भूखाब्राह्मण वहां पाया
और कोतवालसे भिक्षाकी मार्थना को । कोतवालने कहातुम्हे भिक्षाकी पड़ रही है मेरे तो प्राण वचना कठिन हैं। ब्राह्मणने सुनकर कहां-सों कैसे ? कोतवालने पूर्वोक्त सब हाल कह सुनाया। तब उस भितुकने कोतवालसे कहा कि क्या कोई यहां निस्पृही आदमी तो नहीं रहता है ? उत्तर कोतपाळने वही महात्मासाधु बतलाया। भिक्षुकने कहा-वही चोर होगा, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है । यद्यपि.कोतवाल ने उसे बड़ा महात्मा और सचा ही सावित किया परन्तु
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तृतीय भाग।
१६१ उसने एक न माजी और कहा पहिले मुझपर गुजरी हुई वार्ता सुनिये जिससे आपको पूरा निश्चय हो जायगा, वह यह है कि मेरी स्त्री अपनेको दडी पतिवूना बतलाया करती थी, यहां तक कि वह अपने बच्चे को दूध पिलाते ममय अपना स्तन नहीं छुवाती थी और कहा करती थी कि मेरे कुशील का त्याग है सिवा पेरे पतिके सव पुरुष परपति हैं इस लिये लड़केको कपडा, टक कर ऊपरवाला चूचक निकाल कर दूध पिला देती थी, परंतु रात्रि में एक गोपाल के साथ कुकर्म किया करती थी । यह एक दफे मैंने देख लिया इससे मैं विलकुल उस स्त्रीसे विरक्त होकर. तीर्थयात्राको चलं दिया और मेरे पास जो सुवर्ण की बहुत शलाईयां थीं उनको एक लडेमें भरकर साथ ले लिया और मैं तीर्थयात्रा करने लगा। भाग्यसे मुझे रास्तेमें एक बालक मिला
और उसने मेरा साथ कर लिया, वह हमेशा मेरे साथ ही रहा करता था परंतु में उसका विश्वास जरा भी नहिं करता या और अपनी लाठोकी सदैव रक्षा करता रहता था। एक दिन, हम दोनोंने रात हो जानेसे एक कुम्हारके घरमें वसेरा लिया और सुबह होने पर वहांसे चल दिये। थोड़ी दूर आए ये कि बालकने कहा-मुझसे बड़ा अपराध हो गया है कारण कि मेरी पगडीमें कुम्हारकानहीं दिया हुआ तिनका चला प्राया है. इसलिए लौटकर. उसीको. देनाऊं अन्यथा मुझे चोरीका पाप लगेगा । वह यह कह चल दिया और उसे
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जैनबालबोधकदेकर लौट आया उस दिनसे मुझे उस पर वडा विश्वास हो गया था, एक दफे मैंने उसे भिक्षा मांगनेके लिये अकेला भेजा और कुत्ता आदिके ताडनेके लिए अपनी लाठी भी देदी वह उसे लेकर चला गया परन्तु फिर लौटकर नहीं आया मैंने बहुत तलास किया परंतु उसका पता न चला इसी तरह और भी उसने एक दो कथा सुनाई जिससे कोत. वालको निश्चय हो गया और उस तापसीकी तलासमें ब्राह्मणको ही नियत किया । वह भिनुक ब्राह्मण वहांसे चलकर तापसीके पाश्रममें पहुंचा और अधा बनकर चिल्लाने लगा कि मैं अंधा हूं अव रात्रि हो गई है इसलिये घर नहि जा सकता अतः मुझे रात्रिमें यहां ठहर जाने दो यद्यपि तापसीके शिष्योंने वहांसे भगा दिया परतु वह वहीं गिर पडा और भागेको न वदा । तापसीके शिष्य चले गये और कहने लगे यह तो अंधा है अपने काममें कुछ बाधा नहीं डाल सकता इसलिये यहीं पड़ा रहने दो. उधर वह वहीं पडा रात्रि के सब कृत्योंको देखता रहा। यद्यपि तापसी, रात्रिमें यह अन्धा है या नहीं इस परीक्षा के लिये एक काठकी जलती. हुई लकडी लाया परंतु उसने देखते हुए भी नहीं देखा और भांख मीचे पटा रहा । उधर वह तपस्वी रात्रि में नगर से बहुतसा धन चुराकर लाया और वहीं एक गुफामें बने हुये अंध कूपमें पटक कर उसी सीकचे में बैठ गया। यह संव देखकर भिक्षुक वहांसे चलकर कोतवालके पास माया
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तृतीय भाग। और सब उससे कहकर राजासे मी निवेदन किया । राजाने कोतवालको मारनेसे वचा दिया और उस तापसी चौरको उसी समय पकडवा कर फांसी पर लटका दिया। वह आत ध्यानसे मर कर दुर्गतिमें गया । जो मनुष्य छलसे जारी वेश धारण कर चौरी आदि कुकर्म करते हैं उनकी तापसी चौरकी तरह दुर्दशा होती है।
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५३. श्रावकाचार सप्तम भाग।
• मोगोपभोगपरिमाणमत । इंद्रिय विषयोंका प्रतिदिन ही, कमकर राग धग लेना। है व्रत भोगोपभोग परिमित, इसकी ओर ध्यान देना ॥ . पंचेंद्रियके जिन विषयोंको, भोगि छोड देव हैं-भोग। . जिन्हें भोगकर फिर भी भोगे, मित्रो वे ही हैं उपमोग।।
रागादि भावोंको घटानेके लिये परिग्रह परिमाण व्रत की मर्यादामें भी प्रयोजनभूत इंद्रियोंके विषयोंका प्रति दिन परिमाण (संख्या) कर लेना ( रखलेना) सो भोगापमोग परिमाण व्रत है । भोजन वस्त्रादिक पंचेंद्रियके जो विषय एक ही वार भोगनेमें आर्दै उनको तो मोग कहते हैं और जो वस्त्रादिक विषय वारवार भोगने में भावे उनको उपभोग कहते हैं ।। ६८ ॥ . . . .
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१६४
जैनवालयोधकभोगोपभोग परिमाणमें कौन २ सी वस्तु त्याज्य है ? त्रस जीवों की हिंसा नहिं हो, होने पावै नही प्रमाद । इसके लिये सर्वथा त्यागो, मास मद्य मधु छोड विपाद ।। अदरग्व निवपुष्प बहुवीजक, मक्खन मूल भादि सारी । तजो सचित चीजें जिनमें हों, थोडा फल हिंसा भारी ॥
त्रम जीवोंकी हिंसाका निवारण करनेके लिये मधु, मांस, और पमाद दूर करनेके लिये मद्य छोडने योग्य है इसके सिवाय फल थोडा हिंसा अधिक होनेके कारण सचित्त (कच्चे ) अदरख. मूला, गाजर, मक्खन, नीमके फूल, केतकीके फूल, इत्यादि वस्तुएं भी छोड देना चाहिये ।।
वास्तविक व्रतका लक्षण। जो अनिष्ट है, स-पुरुषोंके सेवनयोग्य नहीं जो है । योग्यविषयसे विरक्त होकर, तज देना जो व्रत सो है। . भोग और उपभोग त्यागके, बतलाये यम 'नियम' उपाय। अमुक समयतफ.त्याग नियम है, जीवन भरका 'यम' कहलाय॥
जो शरीरको हानिकारक है अथवा उत्तम कुलके सेवन योग्य नहीं वह तो त्यांगने योग्य है ही, परंतु योग्यविषयोंसे विरक्त होकर त्याग करना वही व्रत होता है। यह त्याग यम नियमके भेदसे दो प्रकारका होता है। कुछ कालकी मर्यादा करके त्यागना सो तो नियम है और यावजीव त्याग देना सो यम कहलाता है ।। ७०।।
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तृतीय भाग।
१६५ .... नियम करनेकी विधि। ... भोजन वाहन शयन स्नान, रुचि, इत्र पान कुंकुम लेपन । गीत चाय संगीत काम रति, मालाभूषण और वसन॥ इन्हें रात, दिन, पक्ष मास या, वर्ष आदि तक देना त्याग । कहलाता है 'नियम' और 'यम',आजीवनइनका परित्याग ।। ___ भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कुंकुमादि लेपन, इत्रपान, गीत वाद्य संगीत, कामरति, माला भूषण आदि वि. 'षयोंका घडी, पहर, एक दिन, एक रात, एक पक्ष, एक मास, दो मास, छह मास, वर्षे आदि तककी मर्यादा करके स्याग देना सो नियम है और यावजीवन किसी विषयको -त्याग देना सो यम है ॥ ७१ ॥
भोगोपभोगनतके पांच अतिचार । विषय विषोंका आदर करना, मुक्त विषयको करना याद। वर्तमानके विषयोंमें मी, रचे प्रचे रहना अविषाद ।। आगामी विषयों में रखना, तृष्णा या लालसा अपार।। विन भोगे विषयों का अनुभव, करना, ये भोगातीचार ।।
विषयरूपी विषोंमें श्रादर रखना, पूर्वकालमें भोगे हुये विषयोंका स्मरण रखना या करना, वत्तमानके विषय भोगने में अतिशय लालसा रखना, भविष्यतमें विषयमाप्तिकी अतिशय ष्णा रखना, विषय नहिं भोगते हुये भी विषय भोगता हूं ऐसा अनुभव करना ये पांच भोगोपभोग परिमाण जतके अतिचार हैं ।। ७२ ॥
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जैनबालबोधक५४. वणिक्पुत्री नीलीकी कथा।
काटदेशके भृगुकच्छ नगरमें राजा बसुपाल राज्य करते थे वहीं वणिक जिनदत्त निवास करते थे उनकी स्त्रीका नाम जिनदत्ता और पुत्रीका नीली था । नीली बढी सुंदर
और रूपवती थी, उसी नगरमें समुद्रदच सेठ भी रहते थे! जिनकी स्त्रीका नाप सागरदत्ता और पुत्र का नाम सागर. दत्त था । एक समय वडी भारी पूजामें कायोत्सर्ग स्थित
और संपूर्ण भाभरयोंसे भूषित नीलीको सागरदत्तने देख लिया और देखते ही वह विचारने लगा कि यह तो कोई देवता खडी हुई मालूम पडती है परंतु जब उसने अपने मित्र प्रियदरसे पूछा तो उसने कहा-यह देवता नहीं है किंतु जिनदत्त सेठकी यह पुत्री नीली है । इसके रूपको तो सागरदत्त पहिले ही देख चुका था। इसलिए वह इतना मोहित हो गया कि उसे संसारके सब पदार्थ वुरे मालूम पडने लगे इसकी नजर में नीली ही नीली दिखाई देती थी और इसी चिंतामें वह वडा दुबला पतला हो गया था। उसकी वांछा यही रहती थी कि में कैसे इसे पांऊं ? कुछ दिन. वाद सागरदत्तके पिता समुद्रदत्तको जब यह खवर पडी तो उसने कहा कि यद्यपि जिनदत्त जैनीके सिवाय किसीको अपनी पुत्री न देगा। परंतु मैं ऐसा उपाय करता हूँ जिसमें
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१६७
तृतीय भाग। वह पुत्री तुम्हीको मिल सके ! उसने ऊपरी जैनी बनना शुरू किया और इतना दिखावटी जैनी वन गया कि सब लोग उसे सचा जैनी कहने लगे । अब क्या था यह बात जिनदत्त तक भी पहुंची और इसलिये उसने समुद्रदत्तके कानेपर अपनी लडकीका विवाह सागरदचके साथ कर दिया । विवाह करते देरी न हुई थी कि समुद्रदत्तने अपना वनावटो वेष बदल दिया और पूर्वकी तरह बौद्धधर्म पालने लगा और नीलीका पिताके यहा जाना विल्कुल. चंद कर दिया । जब यह खबर जिनदत्तने सुनी तो अपने भनमें बहुत पछताया और विचारने लगा कि इससे नीली का मरण होता तो भी अच्छा था परंतु अव जिनदत्तके सब विचार व्यर्थ ही थे। परंतु नीली वडी धर्मात्मा थी इस लिए वह वहां पातिव्रत्य धर्षसे रहती हुई अपने कालको धर्म में विताने लगी और उसने किसी तरह भी चौद्धधर्षे धारण न किया । जब घरके सव आदमी नीलीको बौद्धधर्मकी तरफ लगानेमें असमर्थ हो गए तब समुद्रदचने दौद्धसाधुवोंका व अपना प्रयत्न शायद सफल होजाय यह समझकर उन साधुवोंका एक दिन निमंत्रण कर दिया और नीलीसे रसोई बनानेको कहा। नीलीने श्वसुरकी आज्ञाको मानकर नाना प्रकारके मिष्टान्न बनाना शुरू कर दिया। जब साधु जीमनेको आए तबधीरेसे नीली साधुका एक जूता उठा लाई और छोटे टुकडे करके उसी भोजनमें मिलाकर सबको खिला दिया.जब
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जैनवालवोधक
साधु
अपने स्थानको जाने लगे तो एक साधुका जूता नहीं । बहुत तलास करने पर नीलीने कहा- महाराज आप तो निमित्तज्ञानी हैं अपने शास्त्रसे पता लगा लीजिए । मेरे श्वसुर तो I जिस धर्मपर मुझे लाना चाहते हैं इसकी वडी प्रशंसा करते हैं परंतु आप तो अपनी जूतीको पेटमें रक्खे हुए भी पता नहीं लगा सक्ते । नीली के ऐसे वचन सुनते ही माधु बहुत घबड़ाए और इस वातकी परीक्षा के लिये एक साधुने वपन कर दिया । नीलीने जो कहा था वह बिलकुल सत्य निकला उस चमनमें कई छोटे २ टुकडे जूतीके दिखाई देते थे । विचारे साधु बहुत लज्जित होकर अपने स्थानको चले गए, किंतु घरके सब लोग नीली पर बहुत कुपित हुए और कहने लगे - तू वडी पापिनी है। सागरदत्तकी वहिनने तो यहांतक किया कि इसे कुशीलका दोष लगाकर सब जगह बदनाम कर दिया | विचारी नीली इस दोषका छुटकारा पानेके लिए मंदिरमें गई और भगवानके सामने कायोत्सर्गसे स्थिर हो कर कहने लगी कि जबतक मेरा यह अपवाद न हटेगा अन्न जलका सर्वथा त्याग है, इसके महा तपसे नगरदेवता चुभित होकर रात्रिको नीली के पास श्राया और कहने लगादेवि ! इसतरह आप अपने प्राणोंका त्याग न कीजिये । में 1 यहांके राजा व मंत्रियोंको स्वप्न द्वारा जताए देता हूं किनगरके दरवाजोंके किवाड किसी शीलव्रता स्त्रीके अंगूठे से खुलेंगे अन्यथा नहीं, ऐसा कहकर वह देव चला गया और
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तृतीय भाग ।
१६६.
नगरके सब दरवाजोंको कीलकर राजा व मंत्रियोंको पूर्वोक्त स्वप्ना दे दिया। सुबह होते ही मनुष्योंने जब यह देखा तो बड़े अचंभे में पड गए और सब नगरवासी दुखित होने लगे, कारण कि भीतरके मनुष्य बाहर नहीं जा सकते थे, और न बाहर के भीतर | जब राजाने यह खबर सुनी तो रात्रिका स्वप्न स्मरण कर नगरकी सब स्त्रियोंको बुलाकर उनका पादस्पर्श कराना शुरू कर दिया परन्तु किसीसे किवाड़ न खुले । तब राजाने जैन मंदिरसे नीलीको बुलाया और अपना पद किवाडोंसे लगाने को कहा । नोलीने जैसे ही अपना पैर लगाया कि किवाड शीघ्र खुल गये । अब क्या था ? चारों तरफ से प्रशंसाकी आवाज गूंज उठी और राजाने उसका पातिव्रत्य देखकर पूजा की । धन्य हैं जिस शील व्रतके माहात्म्पसे स्त्रियां भी राजाओंके द्वारा पूज्य हो जाती हैं यदि मनुष्य इससे भूषित हों, तो न जाने उन्हें किस अलौकिक सुखकी प्राप्तिन हो ?
-:०:
५५. स्वदेशोन्नति ।
-:०:--
विद्यार्थियो ! जरा इयोरूपनिवासियों वा जापानियोंकी तरफ नजर उठाकर देखो कि उन्होंने थोडेही दिनोंमें अपने देशको कैसी उन्नति कर डाली है और दिनों दिन करते जाते हैं । तुमारे बुजुर्गोंने कहा है कि-
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जैनबालबोधक
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात् माता और अपनी जन्मभूमि स्वर्गसे भी श्रेष्ठ ( अधिक) सुखदायक है सो तुमने तो अपने वढोंके इन अमूल्य वचनोंका कुछ भी आदर व पालन नहि किया और विदेशियोंने तुपारे वडोंके इस वचनको सत्य करके दिखला दिया । क्योंकि वर्तमान में क्या व्यापार, क्या शिल्प, क्या नीति, क्या राज्य, क्या शोभा, क्या मान, क्या धन जिस विषय में देखो उसी विषय में अंगरेजों को सबसे उन्नत वढा चढा देखते हो सो क्या उनके शरीर में हाय पात्र नाक कान तुमारे शरीर से दुगणे चौगुणे हैं, क्या विधाताने ( कर्मने ) उन्ही को विद्या बुद्धि वा ज्ञान दिया है । तुमारेमें क्या विद्या बुद्धिका अभाव है ? क्या तुम भी उनकी देखा देखी उपाय करो तो किसी बात में कम हो, जो उन्नत नहि हो सकते ? परन्तु खेद यही है कि तुमने प्रमाद और मूर्खताके कारण हिम्मत और परिश्रम करना छोड दिया है !
1
२००
अरे भाइयो ! जरा अंगरेजों के प्राचीन इतिहासको तो देखो कि वे लोग दोसौ वर्ष पहले कैसे ये १ आलु मांसके खाने वाले निरे जंगली असभ्य थे कि नहीं ? फिर तुमारे हृदय की फूट गई कि उन्होंने तुमारे देखते किस नीति और चतुराईके साथ तुम लोगोंको दीन गुलाम बनाते हुए पृथ्वी भरमें
पना प्रभाव, धनमान प्रतिष्ठाका विस्तार किया और अपनी जन्मभूमिको स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बना लिया । ..
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तृतीय भाग।
२०१ तुम्हारी और तुमारे देशकी उन्नति हो तो कैसे हो ? क्योंकि तुम तो अपने वार दादोंको यानी महर्षियोंकी बताई हुई प्राचीन विद्या, नीति चतुराईको छोडकर समस्त आचार व्यवहार नष्ट करनेवाली थोडीसी अंगरेजी विद्या पढकर अपने पूज्य ऋषियोंके (वापदादोंके ) चलाये हुये सर्वोत्तम रीति रिवाजोंको (धर्मको) जडमूलसे हटाकर काले काले कोट बृट पतलून पहन कर रीछोंकी सी मुरत बना लेना, बूट पहन कर कुरसी पर बैठकर टेबल पर भोजन करना, विवाह शादी परदा जातिभेदको मिटाकर विधवाविवाह श्रादिक सत्यानासी विचारोंका प्रचार करना, शूद्रोंके साथ भोजन करना, वेटी व्यवहार करना आदि कुरीतियोंके प्रचारमें लग गये। अपने पूज्य ऋषि मुनियोंके वचनों और ग्रन्थों का खंडन करके अंगरेजोंके बताये हुये कुरीतियोंको ही नकल करनेमें देशोन्नति व जात्युन्नति समझने लगे हो। ___यारे लडको ! जरा हृदयके नेत्र खोल कर अपने वाप दादोंके लक्षावधि उपदेशी ग्रंथों के वचनों से कुछ वचनोंका तौ पालन करो उन्होंने तुमारे लिये ही उपदेश देनेवाले लाखों ग्रंथ बनाये थे और अब भी वे रक्खे हुये हैं उनका अनादर वा खंडन मत करो, एकदम कृतघ्नी भूख न बनो बहुत नहिं मानो तौ न सही, किंतु नीचे लिखे एक वाल्यको तौ आज अवश्य ही मान लो। देखो-इस वाक्यमें तुमारे लिये कैसा उत्तम उपदेश दिया है
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२०२
जैनवालयोधकस जातो येन जातेन याति वंशः समुन्ना। परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ १॥
अथांद दुनियाँमें वही मनुष्य पैदा हुभा है कि जिसके पैदा होनेसे यानी जिसके उपायोंसे उसके वंश और जाति की भले प्रकार उन्नति हुई देसे तो इस भ्रमणरूप (चक्रमप) संसारमें कौन नहिं जन्म लेता और कौन नहीं मरता ?
एक वाक्य और भी सुनोदाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं यशः। विद्यायामर्थलामे च मातुरुचार एव मः ॥२॥
अर्थात् जिस मनुष्यका जगतमें चार प्रकारके दानमें द्वादश प्रकारके तपः आचरण करनेमें, शूरवीरता, विद्या और धन कमानेमें यश नहि फैला वह मनुष्य अपनी माताका मूत्र वा विष्ठा ही है। अपनी माताका सुपूत वेटा तो वही हो सकता है जब कि उपर्युक्त गुणोंमें अपना यश फैलावै । ____वस ! इन दो वाक्योंको मानकर अपने देशके लिये अपनी जाति और धर्मके लिये जो कुछ कर सको यथाशक्ति तन मन धनसे कटिवद्ध होकर तुम्हें काना चाहिये।
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तृतीय भाग ।
५६. श्रावकाचार अष्टम भाग ।
देशावकाशिक शिक्षाव्रत ।
पहिला है देशावकाशि पुनि, सामायिक, प्रोषध उपवास ।-वैयावृत्य और ये चारो शिक्षा है सुखका आवास ॥ दिaner लंबा चौड़ा स्थल, काल भेदसे कम करना । प्रतिदिन व्रत देशावकाशि सो, गृही जनों का सुख भरता ॥
२०३.
देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत हैं। दिखतमें परिमाण किये हुये विशाल देशका, कालके विभागसे प्रतिदिन त्याग करना सो गृहस्थियोंका देशावकाशिक नामा शिक्षात्रत है ॥ ७३ ॥
देशावकiशिक के क्षेत्र और कालकी मर्यादा करनेका नियम । अमुक गेह तक, अमुक गली तक, अमुक गांवतक जाऊंगा।' अमुक खेतसे अमुक नदीसे, आगे पग न बढाऊंगा || एक वर्ष छह मास मास या, पखबाडा या दिन दो चार । सीमा काल भेद सो श्रावक, इस व्रतको लेते हैं धार ॥
इस देशाकाशिक व्रतको इस प्रकार धारण करते हैं कि दशों दिशाकों में अमुक घर, अमुक गली, अमुक गांव अमुक खेत वा अमुक नदी तक जाऊंगा इससे भागे नहिं जाऊंगा इस प्रकारकी मर्यादा एक वर्ष, छहमास, प्यारमास दो मास, एक मास, एक पक्ष वा एक दो चार दिन तककी करना चाहिये ॥ ७४ ॥
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"जैनवालबोधक
इस व्रत पालने का फल और अतिचार ।
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स्थूल सूक्ष्म पाँचों पापोंका, हो जानेसे पूरा त्याग | सीमाके बाहर सघ जाते, इस व्रतसे सुमहाव्रत आए || अतिचार पांच इस व्रतके, मंगवाना प्रेषण करना । रूप दिखाय इशारा करना, चीज फेंकना ध्वनि करना | इस देशावकाशिक व्रतकी मर्यादाओं से बाहर पांचों पापोंका स्थूल सूक्ष्म दोनों प्रकार त्याग हो जानेसे श्रावक के 'अणुव्रत महाव्रत हो जाते हैं ॥
२०४
मर्यादा बाहर चिट्ठी वस्तु या आदमीको भेजना, मगाना, - या शब्द करना, अपना रूप दिखाकर समस्या ( इशारा ) करना, या कंकर पत्थर फेकना ये पांच देशावकाशिक शिक्षा व्रतके अतीचार हैं ॥ ७६ ॥
सामायिक शिक्षाव्रत |
पूर्ण रीति से पंच पापका, परित्याग करना सज्ञान | मर्यादा के भीतर वाहर, अमुक समय घर समता ध्यान ॥ है यह सामायिक शिक्षाव्रत, अणुव्रतों का उपकारक । विधिसे अनलप्स सावधान हो, बनो सदा इसके धारक |
मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना करके मर्यादा और मर्यादासे बाहर भी किसी नियत समय पर्यंत पांव - पापोंके सर्वथा त्याग करके समता भावसे वैठकर ध्यान - करनेको सामयिक कहते हैं ॥ ७६ ॥
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तृतीय.भाग।
२०५. सामायिकमें बैठने की विभि। जब तक चोटी मूठी करडा, बंधा रहेगा, मैं तब तक। सामायिक निश्चल माधंगा, या विचार कर निश्चय तक ! पद्मासन कर भली भांतिसे, अथवा कायोत्सर्ग जु घर । दोय चार या छह घटिका तक, सामायिक तू धारन कर ।।
__ सामायिक करनेवाला श्रावक-अपने शिरके बाल. कपडा मूठी बांधकर दो या चार वा छह घडी तक पमासन वा कायोत्सर्ग धारण करके सामायिक स्थिर हो। कर तिष्ठ॥ ७७॥ . '
__सामायिक करने योग्य स्थान । घर हो बन दो चैत्यालय हो, अछ भी हो निरुपद्रव हो । हो एकांत शांत अति सुंदर, परम रम्य औशुचिता हो। ऐसे स्थलमें साम्य भावसे, तनको मनको निश्चलकर । एक मुक्त उपवास दिवस या,प्रति दिन ही सामायिक कर.
घर वन चैत्यालय धर्मशाला आदि जहांवर मी एकांत और पवित्र स्थान हो उसी जगहपर साम्यभावसे तन मनको निश्चल करके एकाशन या उपवास के दिन वा मति दिनी: सामायिक करना चाहिये ।। ७ ।।
सामायिक करनेका फल। सामायिकके समय गृही, आरंभ परिग्रह तकते हैं। पहिनाये हों वसन जिसे, ऐसे मुनिसे वे दिखते हैं...
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२०६
जनचालवोधकसाम्य भाव थिर रख मौनी रह, सर उपसर्ग उठाते हैं। गरमी सरदी मशक डांसके, परिषह सब सह जाते हैं ७८
सामायिकमें बैठनेके समयमें प्रारंभ रहित समस्त पापों का त्याग हो जानेसे और गमी सदी डांस मच्छरादिके उपसर्ग सहनेसे गृहस्य, जिस मुनिपर कपडा डाल दिया गया हो ऐसे मुनिकी तरह साक्षात् मुनि हो जाता है। इस कारण प्रति दिन ही मुनिधर्मकी शिक्षा देनेवाली सामायिक करना चाहिये ।। ७९ ॥
सामायिक करते समय क्या विचारना चाहिये ? अशभरूप अशरण अनित्य यह. परस्वरूपसारं महान | अतिशय दुःख पूर्ण है तौ मी, बना हुया है मेरा स्थान ॥ इससे विलकुल उलटा सुखमय, मोक्षधाम शास्वत सत्य । सामायिकके समय भव्यजन, ध्यान घरो ऐसा उत्तम ८०
जिसमें में निवास करता हूं ऐसा यह संसार अशरम -रूप अशुभरूप अनित्य दुःखमय और परस्वरूप है। मोक्ष 'स्थान इससे सथा विपरीत है इत्यादि कारसे सामायिक में उत्तम ध्यान करना चाहिये ।।८०॥
सामायिक शिक्षावत्तके पंचातीचर। . . अपने साभ्यभावको तनकर, करदेना चंचल तनको। बाणीको चंचल करदेना, करदेना चंचल मनको ॥ सामायिकमें करें अनादर, काल पाउ रखना नहि याद । -ये अतिचार पांच इस व्रतके, कहे गये हैं विना विवाद ॥
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तृतीय भाग।
२०७ . मनको चलायमान करना, तनको चलायमान करना, वचन चलायमान करना, सामायिकमें अनादर करना, और सामायिकका समय वा पागेको भूल जाना ये पांच सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार हैं ॥१॥
- ५७. यमदंड कोतवालकी कथा।
: अहीर देशके नासिक्य नगरमें कनकरथ राजा राज्य करते थे, राजाके कोतवाल का नाम यमदंड था जिसकी भाताका नाम वसुंधरी या । जो छोटेपनमें विधवा हो जानेसे व्यभिचारिणी हो गई थी। एक समय वह वसुंधरा अपनी वहूसे कुछ गहने लेकर जारके पास जा रही थी उस समय अंधेरी. रात खूब हो ही चुकी थी इसलिए जैसे यह घरसे कुछ दूर ही पहुंची थी कि उघरसे यमदंड कोतवाल चौकी लगा रहा था उसने इसे जाते देख लिया और कोई व्यभिचारिणी समझ कर उसके पीछे हो लिया । जव वसुंधरा अपने नियत स्थानपर पहुंच गई तो यह भी वहीं पहुंच गया
और वसुंधराने इसे अपना जार समझकर, और इसने व्य'भिचारिणी समझकर परस्पर अपनी कामाग्निको शांत किया,
और उन गहनोंको यमदंडको देदिया, उसने आकर अपनी स्त्रीको सोंप दिये, स्त्रीने गहनोंको लेकर अपने पति यमदंडसे
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जैनवालवोलधक
कहा कि ये गहने तो मैंने अपनी सासुको दिये थे आपपर कैसे आगये ? यह सुन यमदंड विचारने लगा कि जिसके साथ मैंने भोग किया है वह मेरी माता थी, परन्तु उसे तो ऐसा चसका लग गया कि माताके साथ ही उसी स्थानपर नित्य जाकर कुकर्म करने लगा जब उसकी स्त्रीको इसका पूरा पता चल गया तो उसने एक दफे बातचीत में चागकी मालिनसे कह दिया कि मेरा पति खास अपनी मातासे भोग करता है, मालिनने जाकर राजा कनकरथकी रानी कनकमाला से कह दिया । कनकमालाने यह सब अपने स्वामी कनकरथसे कह सुनाया परन्तु राजाने इस वातकी ठीक खोज करनेके लिये अपने दूनोंको भेजा और उनने वहां जाकर वैसा ही देखा जैसा राजाने सुन रक्खा था, आकर राजासे निवेदन कर दिया। महाराजने यमदंडको बुलाकर खूब सजादी जिससे वह मरकर नरक गतिको गया । ठीक है जो मनुष्य अपनी स्त्रीको छोडकर दूसरोंके साथ भोग करते हैं वे पापका संचय करके दुःख पाते हैं परंतु जो अपनी माताको ही स्त्री समझ बैठते हैं उनकी तो कहानी - ही क्या है ?
५८. मद्यपान निषेध |
मद्य ( मदिरा शराब ) एक अतिशय अपवित्र और दुर्गंधमय पदार्थ होता है। क्योंकि वेरी के पेडक़ी जड, महुआ
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'तृतीय भाग ।
पुराना गुड आदि, जमीन में गढे हुये मटकोंमें पानी के साथ डालकर महीनों तक सढाये जाते हैं। जब उसमें सर्दी के प्रभावसे सडकर असंख्य कीडे पड जाते हैं तब उन सब कीडों और बेरीके जड वगेरहका भर्क भट्टी चढाकर यंत्र द्वारा निकाल लिया जाता है फिर ठंडा करके बोतलोंमें भर भर कर उसे बेचते हैं। जब वह मद्य ठंडा हो जाता है तबसे उसमें असंख्य सूक्ष्म कीडे पडने शुरू हो जाते हैं । यदि तुम सूक्ष्मदर्शक यंत्रसे ( माइस्कोप (से) देखोगे तो शरराव सर्वथा कीडोंकी राशि (खान) संमझोगे । इस प्रकार असंख्य जीवोंसे भरी हुई दुर्गंधमय मंदिरा को लोग पीते हैं उनको इन सब जीवोंकी हिंसाका महा : पाप लगता है और उनको मद्यपी, शराबी कहते हैं । मदिरामें नशा बहुत होता है जिसके पीनेसें मनुष्य अपनी सब शुत्र बुध विमर जाता है और उसको का ज्ञान न होने से वह धर्मसे च्युत होकर हिंसा चौरी झूठ कुशील सेवनादि पापोंमें लग जाता है । सदाचरणको विलकुल भूल जाता है फिर वह मानसिक शक्तियोंके नष्ट 'होनेसे प्रतिदिन के कार्य करनेमें भी असमर्थ हो रोगी हो जाता है । जिससे दिनोंदिन उसकी आयु घटती जाती हैं
परका वा हिताहित
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असदाचारी होने से दुनियांमें उसका विश्वास व मान मर्यादा सब घट जाती है । तब उसके पास कोई भी भला मनुष्य जहि आता । जो वह शरावी धनाढ्य होता है तौ ठग लोग
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जैनबालबोधक
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उसके प्यारे बन जाते हैं और उसे वेश्या सेवनादि कुकार्यों में लगाकर सत्र घन नष्ट कर देते हैं। अंतमें दरिद्र दुःखो होकर कुमरमासे मरता है । 1
मनुष्यों को मदिरा पीने का अभ्यास इस तरह पड जाता कि मनुष्य प्रायः खोटी संगतिमें रहने से अनेक कुकार्य करने लगता है । उस समय शरावका पोना भी उन खोटी इच्छा
साधनेका कारण हो जाता है । क्योंकि मदिरा बड़ी गर्म होती है इसको पहिलेही पहिले पीनेपर उसकी गर्मी से खून पतला हो जाता है और उसकी गति बढ़ जाती है जिससे नाडी बलवान हो जाने से कुछ कालकेलिए शरीर की शिथि लता नष्ट हो जाती है इस कारण उसको लाभदायक समझ रोज २ पीने लग जाते हैं । परंतु थोडी पीने से वह नशा तथा वह गर्मी नहिं आती, जैसी कि पहिले दिन मालूम दीथी ।. इस कारण दिनोंदिन मात्रा बढाने लगते हैं जिनको नित्य ' और बहुत २ पीनेका अभ्यास पढ जाता है उनको कमसे कुमा (अर्द्धांग वायु ) मंदाग्नि, बात, मूत्र रोग, कम्प वायु वगेरह अनेक रोग पैदा होने लगते हैं । तथा थोडे ही दिनोंमें शरीर काठकी लकडी के माफक सुख जाता है और शीघ्री काळके गाल में चला जाता है। कोई २ बहुतसा मद्य पीनेवाले हमेश के लिये पागल बनकर अपने जीवनका -सत्यानाश कर डालते हैं । जिस प्रकार मद्य शरीरको हानिकारक होती है इसी प्रकार गांजा चरस, चंडू भांग पोस्ता
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- तृतीय भागः।. अफीम बीड़ी चुटं चाय वगेरह भी बहुत हानिकारक हैं । जब ठीक समय पर इनमेंसे कोई. नशा नहीं मिलता है तो बडी हानि करता है और उसके विना. कोई भी काम नहि कर सकते। इस कारण इन सव नसोंमेंसे तुम किसी प्रकार का भी नसा करना नहिं सीखना पलिक .जो लोग मद्य चरस भांग गांजा चंडू वगैरह पीते हैं उनकी संगतिमें भी नहिं बैठना अगरं बैठोगे तो तुम भी सीख जाओगे।
लावनी। हे हे भारतसंतान न मद विष खाओ। ... है हाथ जोडकर अरज ध्यानमें लाओ॥टेक॥ कतं मनुष्य खाय कर नसे नसहि दिनराती।
कत.कुल.कलपत हैं कूट कूट कर छाती ॥ कत शन कुलवाला बिन प्रीतम दुख पाती।
विधवा बन वन. नयननसे नीर वहाती ॥ इस विपतासे अब सबके प्रान बचाओ।
है हाथ जोडकर अरज ध्यानमें लाओ। हे हे भारत संतान न मद विष खाओ । हे० हा० ॥१॥
कत बालक विन पितु हाय महा दुख पावें । कत जननिपुत्र विन हाहाकर अकुलावें ॥
जब लाख लाख रुपयनके नसे विकावें। .१ कितनेही ।
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जैनबालबोधक: . फिर क्यों न दरिद दुख मुख अपनो दिखरावें ॥ है मादक अग्नि समान भरजि जि न खाओ।हे. हा० ॥२॥
कत युवा मादकन खाय खाय दुख पाते। . '. हो रोग ग्रसित फिर बिना मौंत परजाते ।। । वे वैद्य दुष्ट जो इन्हें श्रेष्ठ बतलाते ।
जगके जीवनका वृथा नाश करवाते । __ भैया ऐसनको दूरहित शिर नावो । हे० हा० ॥३॥ सब इक तन इकमन एक प्राण हो भाई ।
इक साथ कहैं द्वारन द्वारन पै जाई ।। " यह नसा बुरा है सदा अधिक दुखदाई ।
तिह कारण इसको तजहु भजहु जिनराई ॥" सब मिलकर सुग्द तै धर्म ध्वजा फहरावो । हे० हा० ॥४॥
इस मेरी अरज पर जरा ध्यान तुम धरना । विद्या रस तजकर जहर पान मत करना ।
इन नसेबाजोंकी कहीं जगतमें दर ना है सदा एकसा इनका जीना मरना। तुम जान बूझकर मूरख यत कहलायो। हे० हा०॥५॥
विद्याके वराबर नसा कोई नहिं नीका । इसके आगे हैं और नसा सब फोका ।। .
यातें विद्या पढो भरम तज जीका । ____सब चमत्कार है जगमें विद्याहीका ॥ इन नसे बाजोंको भली भांति समझावो । हे० हा०॥६॥
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तृतीयं भाग। हे नसेवाजो! क्यों वृथा उमर खोते हो? खा खाके नसा बदनाम मुफ्त होते हो।
बचोंके लिये क्यों विष वृक्षहि बोते हो। अब भी समझो किस गफलतमें सोते हों।. भारतवासिनको शुद्ध पंथ दिखरावो । हे. हा०॥७॥
५९. जयकुमारकी कथा ।
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इस्तिनापरमें सोपप्रम राजा राज्य करते थे जिनके पुत्रका नाम जय या। जयकुपार वडा संतोषी और बनी था। इनकी स्त्रीका नाम सुलोचना था। एक समय किसी विद्या-- घर को विमानमें वैठेहुए जाते देखकर इन दोनोंको पूर्व विद्याओंका स्मरण हो आया। जिससे उन्हें वे विद्यायें सिद्ध हो गई । और वे दोनों उन विद्याओंका पाकर मेरु प्रादि पर्वतोंकी वंदना करके कैलाश पर्वतपर भरतके वनवाए हुए चौवीस तीथकरोंके मंदिरोंकी वंदनाके लिए जा पहुंचे। इतने में ही सौधर्म स्वर्गमें इंद्र अपनी सभाके -समक्ष जयः कुमारके व्रत (परिग्रह परिमाण) की प्रशंसा करने लगे। रतिप्रभदेव भी वहीं बैठा था। वह इन्द्र के द्वारा जयकुमार की तारीफ सुनकर उसकी परीक्षाके लिये कैलाशपर आया और साथमें चार सखियों को लेकर स्त्रीका रूप धारण करके
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जैनालबोधकजयकुमारके पास गया और बोला-जयकुमार ! सुलोचना के स्वयंवरमें जिसने आपके साथ वही लडाईकी यी, उस नाभि विद्याधरकी में स्मवती और संपूर्ण विद्याओंकी स्वामिनी स्त्री हूं परंतु मैं आपके रूपकी प्रशंसा सुनकर नामि राजासे विरक्त होकर आपके पास आई हूं और मब तरह माप पर मोहित हूं । कृपया मुझे दासो बनाइए और मेरे तमाम राज्यको ब्रहण कर भोग कीजिए । जयकुमारन जब उसकी ऐसी बातें सुनी तो उत्तरमें निवेदन किया कि-हे सुंदरी !
आपको ऐसे वचन नहीं शोमते हैं। कारण कि भार स्त्री रत्न हो और मेरे सर्वया परती माता के समान है। इसलिए मुझे ऐसे तुम्हारे राज्यसे कोई काम नहीं है। इसके सिवाय रतिप्रमदेवने और भी कई उपसर्गों द्वारा जयकुमार को डिगाना चाहा परंतु उसका मनमरु जरा भी चलायमान न हुआ तब रविप्रभदेवने अपने वास्तविक रूपको धारण करके सब हाल जयकुमारसे कह सुनाया और कहा-मैं प्राप के परिग्रहपरिमाण व्रतकी परीक्षाके लिए ही भाया था। परन्तु भापका मन जरा भी विचलित न देखकर मुझे बडा प्रानन्द हुआ और भाप सर्वया पुज्य व माननीय हैं। प्राप की जो इंद्र प्रशंसा करते हैं उसके आप सर्वया योग्य हैं। ऐम कहकर बहुतसे प्राभूषणों द्वाग पूजा करके अपने स्थानको चला गया। इसलिए मत्रको जयकुमारकी तरह परिग्रहपरिमाणं व्रत धारण करके एन्य बनना चाहिए।
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तृतीय भाग ।
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६०. भूधर जैन नीत्युपदेशसंग्रह सातवां भाग । सुबुद्धि सखीके प्रति वचन |
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मनहर कवित्त ।
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कहै एक सखी स्थानी तुन री सुबुद्धि रानी, तेरो पति दुखी देख लागै उर ओर है । महा अपराधी एक युग्गल है छहों माहि,
सोई दुख देत दीसे नाना परकार हैं || कहत सुबुद्धि आली कहा दोष पुग्गलको,
अपनी ही भूल लाल होत भाप रूवार है । "खोटो दाम थापनो सराफै कहा लागे वीर"
काहूकौ न दोष मेरो भौंदू भरतार है ॥ १ ॥ द्रव्यलिंगी मुनिका वर्णन ।
शीत सहे तन धूप दहै, तर्फे हेट रहे करुणा उर आनै । मूठ कहें न दत है, वनिता न च लॅब लोभ न जानै ॥ मौन है पढि भेद लहै, नहि नेम हे व्रत रीति पिछाने । यों निवहै पर मोख नहीं, चिन ज्ञान यहै जिनवीर खाने || अनुभव प्रशंसा ।
मनहर |
जीवन अलप आयु बुद्धि बलहीन तामें, आगम अगाधसिंधु कैसें ताहि डाक है ।
१ आर-कील । २ वृक्षके नीचे । ३ जरा भी । ४ छोडते । ५ कैसे
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जैनपालबोधकद्वादशांगमूल एक अनुभौ भपूर्वकला, . भवदाबहारी धनसारकी सलाँक है ।। यह एक सीख. लीजे यांहीको अभ्यास कीजे, ___याको रस पीजे ऐसो बीर जिनबाक है। इतनो ही सार से ही प्रातमको हितकार, यही लौं मदार और आगे दाढाकै है ॥३॥
__ भगवानसे प्रार्थना । भागम अभ्यास होहु सेवा परकम्प तेरी,
संगत पदी मिलौ साधरमी जनकी । संतनके गुनको वखान यह बान परो, ,
मेटो टेव देव परमओगुन कयनकी ।। .. सवहीसौं ऐन सुखदैन मुख वैन भाखौं,..
भावना त्रिकाल राखौं बातमीक धनकी । जोलौं कर्म काट खोलौं मोक्षके कपाट तौ लौं, येही बात हूज्यौ प्रभु पूजो पास मनकी ॥ ४ ॥ ६१.श्रावकाचार नवम भाग।
__ प्रोषधोपवास शिक्षावत । सदा अष्टमा चतुर्दशीको, तज देना चारों आहार ।। यह मोषध उपवास कहाता, दिनभर रहै घर्ष व्यवहार ।।। गकंगा पार होगा। ६ संसाररूपी उष्णताके हरनेवाले । ७ चंदनकी ८ सलाका-सलाई । ९ जिनवाक्य वा जिन वचन है । १० पाने योग्य है. 13 दूसरी सब बातें व्यर्थ है। . . . . . . .
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तृतीय भाग ।
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अंजन मंजन न्हाना धोना, गंध पुष्प सजधज करना । आरंभ पांच पार हिंसादिक, इस दिन बिलकुल परिहरना ॥
उमेश अष्टमी चतुर्दशी के दिन चार प्रकारके आहार को छोड देने को उपवास कहते हैं परन्तु पहिले रोज और पारनाके दिन एकासन करके १६ पहरका उपवास करना सो प्रोषधोपवास है । प्रोषधोपवासके दिन पांचों पापोंका,-- और शृंगार, आरंभ, गंध पुग्ध, स्नान अंजन मंजनका सर्वथा त्याग करके १६ पहर तक ज्ञानध्यान स्वाध्यायमें तत्पर " रहना चाहिए ॥ ८२ ॥
प्रोषधादिका मेद |
तजना चारों आहारोंका, होय निराकुल है उपवास | एकवार खानेको मोषय, कहते हैं जो प्रभुपददास || दो मोषधके विचमें करना, एक आशना कहलाता | प्रोपधोपवास है पूरा, भव्य जनोंको सुखदाता ॥ ३ ॥
खाद्य साथ लेद्य पेय इन चारों आहारोंका त्याग करना-सा तो उपवास है और एक ही वक्त खाना सो प्रोषध( एकाशना ) है, और दो प्रोषधोंके वीचमें ( अष्टमी चतुदशीको ) एक उपवास करना सो प्रोषधोपवास है ॥ ८३॥
प्रोषधोपवासके पांच अतीचार |
देखे माले बिन चीजोंका, लेना मलादि तज देना । और विछाना विस्तरका त्यों, व्रत कर्तव्य झुला देनाः ॥..
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जैनवालवांधक
तथा अनादर रखना व्रतमें, हैं ये पांचों ही अतिचार | इन्हें छोड़कर व्रतको पालो, धारो उरमें धर्म विचार ॥८४॥
बिना देखे विना सोधे पूजा वगेरह वर्तनादि लेना व घसीटकर उठाना, जगह देखे बिना मल सूत्रादिका त्याग करना, विना देखे शोधे विस्तर चटाई बिछाना, उपवास में अनादर करना, और योग्य क्रियाओंको भूल जाना ये पांच मोषधोपवास नामक शिक्षा व्रत के अतीचार है ॥ ८४ ॥ वैयावृत्यका वर्णन ।
जो अनगार तपस्वी गुणनिधि, धर्म हेन उनको दे दान | प्रतिफलकी इच्छा बिन है यह, वैयावृत्य सुव्रत सुखदान ॥ गुणरागी होकर मुनिवर, चरण चापिये होय प्रसन्न | उनका खेद दूरकर दीजे, सेवा कीजे जो हो अन्य ॥
सम्यक्त्वादि गुणों के भंडार गृहरहित तपस्वियोंको धर्मके प्रर्थी प्रत्युपकारक बांछा वा अपेक्षा के विना श्राहारादि चार प्रकारका दान देना तथा उनके गुणोंमें अनुरागी हो कर संयमी जनों के पग दावने वा अन्य कष्ट दूर करने वगे. रहसे नानाप्रकारकी सेवा करना सो वैयावृत्य नामका शिक्षा - व्रत है ॥ ८५ ॥ .
दानका स्वरूप ।
-मूनारम्भ तजा है जिसने धर्म कर्म हित हर्षाकर । नवधा भक्ति भावसे ऐसे, शायका तू गौरव कर ॥
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तृतीय भाग!
२१६ निलामीपन क्षमाशक्ति त्यों, बान भक्ति श्रद्धा संतोष ।। . निर्मल दाताके गुण हैं ये. धारो इनको तनकर दोप ॥८६॥
जिनके कूटने, पीसने, चूला सुलगाने, पानी भरने, और बुहारी देने रूप पंच सूनाके प्रारंयका त्याग, है उन मुनियोंको, नवधा भक्तिपूर्वक सप्त गुणधारक श्रावकके द्वारा आदरपूर्वक आहार आदि दान देना सो दान कहाता है । पडगाहना, उच्चस्यान देना, दोदकको मस्तक पर लगाना, पूजा करना, प्रणाम करना, मन वचन कायकी शुद्धि रखना
और एषणा शुद्धि अर्थात् शुद्ध आहार देना सो नवधा भक्ति है। श्रद्धा, संतोप, भक्ति, ज्ञान, निलोपता, क्षमा, और दान देनेकी शक्ति ये दातागके सात गुण हैं । इन गुणों सहित दातारही प्रशंसाके योग्य है।॥८६॥
दानका फल। जिसने घर धर्मार्थ तजा, उस, अतिथीकी पूजा करना। घर धंदेसे बढे हुये, पापोंका है सचमुच हरना ।। मुनिको नमनेसे ऊंचा कुल, रूप भक्तिसे मिलता है। मान दास्यसे, मोगदानसे, श्रुतिसे शुचि यश बढता है ।।
गृहरहित अतिथियोंको नवधा भक्तिपूर्वक आहार दान देना निश्चयसे गृहसंबन्धी भारंभोंके संचित पापोंको नष्ट करनेवाला है तथा ऐसे अतिथियों को नमस्कार करनेसे ऊंचा कुल, दान देनेसे भोग, भक्ति करनेसे सुंदर रूप सेवा करने से मान प्रतिष्ठा और स्तुति करनेसे कीर्ति यश प्राप्त होता है।
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जैनवालबोधक
वडका बीन भूमिमें जाकर, हो जाता है तरु भारी । वेर घुमेर सघनघन सुंदर, समय पाय छायाकारी ॥ वैसे ही हो अल्प भले हो, पात्रदान सुख करता है । समय पाय बहुफल देता है, इष्ट लाभ बहु भरता है ॥ ॥
. जिसप्रकार बढका छोटासा बीज भूमिमें प्राप्त होकर समय पर बढ़ा भारी सघन छाया देनेवाला वृक्ष हो जाता है उसी प्रकार मुनि अर्जिकादि पात्रोंमें दिया हुवा थोडासा भी दान समय पर मन बांछित बहुतसा फल देनेवाला होता है' दानके भेद व उनके प्रसिद्ध फल ।
ހތް
भोजन भेषज ज्ञानउपकरन, देना और अभय द्यावास | चार ज्ञानके धारी कहते, दान यही चारों हैं खास ॥ इनके पालन करनेवाले, श्रीश्रेण रु वृषभ सेना । कोतवाल कौंडीश व शूकर, हुए प्रसिद्ध समझ लेना ॥ ८९ ॥ चार ज्ञानके धारक गणधरोंने, श्राहारदान, औषध दान, ज्ञानके साधन शास्त्रादि उपकरण और भयरहित स्थानदान ये चार प्रकारके ही दान कहे हैं। इन चारों दानोंपेंसे ग्राहारदानमें श्रीषेण राजा, औषधदानमें सेठकी पुत्री वृषभसेना, शास्त्रदान में कौंडेशनामका कोतवाल, और मुनिको वस्तिका दानमें शूकर प्रसिद्ध हो गया है ॥ ८ ॥
वैयावृतके भेदमें ही भगवत्पूजा करना ।
प्रभुपद कामदहनकारी है, बांछितफल देनेवाले । उनका प्रतिदिन पूजन करिये, वे सब दुख हरनेवाले ॥,
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तृतीय भाग जिनपूजाको एक पुष्प ले, मेडक चला मोद धरके । मुआ मार्गमें हुआ देव वह, महिमा महा प्रगट करके ॥१०॥
इच्छित फल देने वाले, कामवाणको भस्म करनेवाले देवाधिदेव अरहंत भगवानके चरणों में पूजा करना सपस्त दुखोंका नाश करनेवाला अत्यावश्यकीय कार्य है । इस कारण इसे आदरपूर्वक प्रतिदिन करना चाहिये । राजगृही नगरी में महावीरस्वामीके पधारने पर फूलकी एक पांखुडी लेकर एक मेंडक पूजा करनेके भाव धारण कर चला था, वह श्रेणिक राजाके हाथीके पवितले दबकर मरगया और पूजाके भाषक पुण्यसे स्वर्गमें जाकर एक अद्धिधारी देव हुवा और उपने पूजाकै थावका फल जान उसी वक्त रूपवशरणमें आकर पूजाकी ।
वैयावृतके अतिचार। हरे पत्रके भीतर रखना, हरे पत्रसे ढक देना । देने योग्य भोजनादिकको, पात्र अनादर कर देना ॥ याद न रखना देनेकी विधि, अथवा देना मत्सर कर। हैं अतिचार पांच इस व्रतके, इन्हें सर्वथा तू परिहर ।। ६१ ॥
दान देनेवाली वस्तुको हरित पत्रसे स्ना, और हरित पत्रमें रखना, दान अनादरसे देना, दानकी विधि वगेरह भूल जाना, और ईर्षा बुद्धिसे देना ये पांच वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रतके पांच प्रतिचार हैं।। ६१॥
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जैनवालबोधक. ६४. श्रीषेण राजाकी कथा
___ मलय देशके रत्न संचयपुरमें श्रीषेण राजा राज्य करते थे जिनकी स्त्रीका नाम सिंहनंदिता था और दूसरोका अनि. दिता, उनके क्रमानुसार इंद्र और उपेंद्र दो पुत्र थे, वहींपर सात्यकि ब्राह्मण रहता था जिसकी स्त्री जंबू और पुत्री सत्यभामा थी। पटना में रुद्रभट्ट ब्राह्मण बालकोंको वेद पढाया करते थे जव वेदका पाठ चलता था उसी समय रुद्रभट्ट ब्राह्मणकी दासी (नौकरनी) का लडका कपिल वहीं पास में छुपकर वेद सुन लिया करता था। उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी इसलिए थोडे दिनमें ही वेदका ज्ञाता हो गया । जब यह खबर रुद्रभट्टको लगी तो वह बड़े नाराज हुए,. और उसी समय वहांसे कपिलको निकाल दिया, वह वेद तो पढ ही चुका था पर जातिका शूद्र होनेसे उसने यज्ञोपवीतः धारण कर लिया और ब्राह्मण वनकर रत्नसंचयपुर नगरमें पहुंचा, रत्नसंचयपुग्में वास करनेवाले सात्यकिने जब इसे देखा तो विचाटने लगा कि यह वेदका विद्वान और सुंदर है इसलिये अपनी लडकी सत्यभामाका इसीके साथ विवाह कर देना चाहिये और उसने वैसा ही किया। अब यह अपने दिलमें वटा खुशी हुआ और सत्यभामाके साथ भोगविलास करने लगा परंतु रात्रि समयमें इसकी विटचेष्टा देखकर उसे
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तृतीय भाग :
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विश्वास नहीं होता था कि यह ब्राह्मण है परंतु ऊपरी तौर से उससे बातचीत करना ही पडती थी, कारण कि सत्य -- भामा उसकी हो चुकी थी, परंतु सत्यभामा हमेशा इसी तलाश में रहा करती थी कि इसका वास्तविक पता लगाऊं ।। भाग्यसे रुद्रभट्ट तीर्थयात्रा करता हुआ रत्नसंचयपुरमें आ पहुंचा, जब कपिलने इसे देखा तो उसका वडा चादर सत्कार किया और उसे बहुत धन भी इस मयसे दिया कि मेरी पशेल न खोल देवें, मनुष्योंने जब यह पूछा कि आपके : ये कौन है वो उस कपिलने उसको अपना पिता बताया रुद्रने भी लालच में आकर इसे स्वीकार कर लिया। अब तो मनुष्योंको कपिलके विषय में सच्चा विश्वास हो गया था कि कपिल सच्चा ब्राह्मण और वेदपाठी है परन्तु सत्यभामा का अभी संदेह नहीं गया था इसलिये जैसे हो कपिल कारण वश दूसरे ग्राम गया कि सत्यभापाने रुदभट्टको खूब धनं देकर निवेदन किया- महाराज सत्य वर्तळाइए कि कपिल आपके कौन हैं, पहिले तो रुद्रभट्ट बडे विचार में पड गये परंतु सत्यभामा के आग्रह करने पर सत्य हाल कह सुनायाऔर आप उसी समय घरको खाना हो गए । सत्यभामाकपिलको बनावटी ब्राह्मण समझकर उससे विरक्त हो गई और कुपित होकर सिंहनंदिता महारानी के पास चली गई। उसने अपनी पुत्री के समान समझकर उसे रख लिया। एक वार श्रीषेण राजाने वडी भक्ति से विधिपूर्वक चारण-मुनियों
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जैनवालबोधक
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को आहार दान दिया जिसकी उन दोनों रानियों और सत्यभामा ने वडी अनुमोदनाकी, श्रीषेण राजा उस दानके 'प्रभाव से मरकर भोगभूमिमें पैदा हुए और उन दोनों रानियों - च सत्यभामाने भी अनुमोदना से वहीं पर ( भोगभूमि ) दिव्य सुखको प्राप्त किया और श्रीषेणराजा वहांसे च्युत होकर मनुष्य व देवके भवोंको प्राप्तकर अन्तमें शांतिनाथ तीर्थकर हुए । ठीक है - जो आहार दानकी अनुमोदना से भोगभूमि यादिके सुखको प्राप्त कर मोक्ष सुखकी प्राप्ति कर लेता है तो चाहार दान देनेवालेको अन्य सुखोंकी प्राप्ति हो जाये तो आश्चर्य क्या है |
६५. गुरु शिष्य प्रश्नोतर |
04:0:-80
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गुरु — कहो मोतीलाल ! तुम कल सामको पढनेके लिये क्यों नहीं आयें 8
शिष्य – गुरुजी कल हमारी विरादरीमें एक विवाह था उसमें जाना पडा इस कारण थाना नहि हुआ। मुझे मालूम नहीं थी कि - विवाह में जाना पडेगा, नहीं तो मैं आप से माज्ञा लेकर ही जाता । लाचार पिताजी के आग्रहसे जाना • पडा सो अपराध क्षमा करें।
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गुरु-कौनके यहां व्याह या कन्या दाताका क्या नाम है ?
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तृतीय भाग ।
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शिष्य - गुरुजी ! कन्यादाता नहीं, किंतु कन्या विक्रेता कहना चाहिये जिसका नाम सुपचंदनी है ।
गुरु -- क्या कहा ! क्या उसने कन्या बेची है ? कन्या पर रुपये लेकर व्याह किया है ?
शिष्य - हां गुरुजी ! विचाग गरीब आदमी है । धंधा रोजगार है नहीं, तीन चार बेटियां हैं । एक एकके विवादमें कमसे कम एक २ हजार रुपये चाहिये सो हजार पेद्रहसौ ले लिये तो क्या हर्ज है ?
गुरु-क्या कहा ! रूपचंद गरीब आदमी है ? सुनता हूँ वह तौ व्याज वा गहना गिरवी रखनेका काम करता है और खूब ब्याज लेता है । खैर ! वह गरीब ही मही तौ क्या कन्या I को बेचकर उसने रुपये लिये हैं १ हजार रुपये व्याहमें खर्च करनेकी क्या जरूरत है ? दुलहा दुलहाका भाई, भतीजा, बामन, चौथा नाई बुलाकर बेटी का पीला हाथ कर देता, तौ क्या नाक कट जाती १
शिष्य – नाक तौ जरूर कट जाती क्योंकि उसने बडी बेटीका विवाह भी जमाईसे चुपके २ तीन हजार लेकर किया या जिसमें विरादरीको एक हजार रुपये लगाकर खूब लडडू जिमाये थे जिससे वडा भारी नाम हुआ था । यदि उसी प्रकार विशदरीको लड्डू न जिमाता व पहिले व्याहकी सच शोभा नष्ट हो जाती !
गुरु - धिक्कार है ऐसे नामको और सैकडों धिक्कार हैं
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जैनबालबोधकउसके यहां लड्डू जीमनेवालोंको और सबसे अधिक घिकार उनको जो रुपये देकर विवाह करते हैं।
शिष्य-गुरुजी ! जरा विचार तौ कीजिये ! आपने तौ सवको धिक्कार ही धिक्कार दे दिया परन्तु मेरी समझमें नहिं पाता कि-वे धिक्कारके पात्र क्यों हैं ? बेटीवाला तौ गरीब है बेटीका विवाह करै तौ वियाना भात देकर सारी विरादरीको ( सवकी देखा देखी) न जिमावै तौ निंदा करैं इसलिये उसने हजारके खर्चकी जगह दो हजार लेलिये सो एक हजार तौ वेटीके व्याइमें लड्डू जिमा दिये, एकहजार रह गये उससे उसका गुजारा दो तीन वर्ष चल जायगा। विरादरीवालोंको जीमनेके लिये लड्डू मिल गये। उनका क्या? उन्हे रुपया खर्च किये बिना बहू कहांसे मिले तव दो हजार देकर व्याह कर लिया और घर बांध लिया । बालबच्चोंको सम्भालने वाली घरमें आगई। अगर ऐसा नहिं करते तो क्या करते ?
गुरु-माई! करते क्या चुल्लू भर पानीमें नाक डुबो कर मरजाते। हाय ! हाय ! कैसा घोर कलियुग आगया है। कन्या जपाईका पैसा खाना तो दूर रहो, बलके जिस गांवमें कन्या व्याही जाती उस गांवके कूएकापानी पीना तक पाप समझा जाता था। आज हमारे भारतवासी ऐसे नालायक लोभी पापी हो गये जो कन्याको बेच कर बूटेके साथ व्याह कर दो चार वर्षमें विधवा बनाकर उसका जन्म नष्ट करके
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तृताय भाग ।
२२७ आप उस पैसेसे मौज उडाने लगे। वह उस कन्याका पिता नही किंतु उस कन्यारूपी गायको काटनेवाला कसाई है। और जो उस कन्याके विवाहमें लड्डू जीयते हैं वे उस कन्यारूपी गायका मांस खानेवाले हैं। और वह नर पिशाच जिमने बुढापेमें भी विषयोंसे विरत न हो कर विचारी एक कुपारी कन्याको दो हजार रुपये देकर उसे वैधव्य दुख देनेको घर में डाला वह महाकसाई है। छी छी !! कैसी घृणित बात तने कही है। दूर रह, मेरी जाजप न छूना क्योंकि तू भी उस कमाईके यहां लड्डू खाकर आया होगा सो तू भी कसाईकी बराबर है।
शिष्य-गुरुजी घबराइये नहीं, मैंने उसके यहां खाना तो क्या पानी भी नहिं पोया, पान नकनहिं खाया। मैंने उस बुडढे वाचाको देखकर उसी वक्त प्रतिक्षा करली थी कि पाजसे जो कन्याका विवाह रुपये लेकर करेगा । में उस कन्याके 'पिनाके यहा और वरके यहां पानी भी नहिं पीऊंगा।
गुरु-सावास वेटे सायास ! ऐसाही करना चाहिये अब तुम लोग ही इस पतित होती हुई जाति वा देशका कल्याण कर सकोगे यदि तुम सब लडके और नवयुवक ऐसे ऐसे अन्यायोंके विरुद्ध खडे हो जावोगे तो ये अत्याचार जो होने लगे हैं, शीघ्र ही उठ जायगे । भाज तूने उन कसाइयोंकी बात कह कर मेरे चित्तको बढी भारी गिलानी दिलाई मेरा मन वढा खराब हो गया है सो तुप सब ही चले जावो भान इस अन्यायके लिये पाठशाला बंद रखनाही ठीक है।
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२२८
जैनबालवोधकशिष्य-ठीक है, गुरुजी हपलोगोंका मन भी इस घृणित चर्चासे दुःखित हो गया है (प्रणाम)!
*08-0-8 ६४. श्मश्रुनवनीतकी कथा ॥
अयोध्यामें भवदत्त सेठ रहते थे जिनकी स्त्रीका नाम धनदसा और पुत्रका नाम लुब्धदत्त था । वह एक समय व्यापारकेलिये परदेश गया और वहां बहुत धन कमाकर लौट आया परन्तु भस्तेमें चोरोंने लूट लिया । बेचारा वहांसे चल दिया और एक गोपालके मकान पर आया जो रास्ते ही में या। उसने ग्वालासे कुछ महातक मांगा, उसकी याचना सफल हुई किंतु उस पठेमें ऊपर थोडा सा घी उतरा रहा था उसे देखकर उसने विचार किया कि यदि मैं यहां थोडे दिन ठहरूं और प्रतिदिन मट्ठा लेकर उसका घी निकाल लिया करूं तो कुछ न कुछ इकट्ठा हो जायगा जिससे मैं पुनः व्यापार कर सकूँगा ऐसा विचार कर वहीं रहने लगा और वैसा करना शुरू कर दिया। लोगोंने ऐसा देख कर इसका नाम कमश्रुनवनीत रख दिया । थोडे दिनमें उसके पास एक. प्रस्थममाण घी हो गया जिसे पांत्रमें भरकर जहां सोता था पैरोंके अन्तमें रख लिया और ठंडके कारण पासमें ही अग्नि. जलाकर लेट गया और विचार करने लगा कि इस घी को.
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तृतीय भाग।
२२६ वेचकर जो पैसाभायेंगे उनसे खूब धन उपार्जन करूंगा । जब सेठ पदवी.प्राप्त कर लूंगा तवराजा महराजा होनेका प्रयत्न करूंगा उसे पालेने पर जब चक्रवर्ती हो जाऊंगा तब अपने सतखने मकान पर सोया करूंगा और जब मेरी स्त्री मेरे. पैर दावेगी तब मैं प्रेमसे पैर फटकार कर (मारकर) कहूंगा कि तुम्हे पैर दावना ठीक नहीं आता ! ऐसा विचार करते हुए उसने एक पैर उस समय फटकार ही दिया जिससे. पैरोंके पास रक्खा हुआ घी फैल गया और उस जलती हुई अग्नि पर पटा जिससे अग्नि खच प्रज्वलित हो गई और उस झोपडीके द्वारमें ही लग गई जिससे श्मश्रुनवनीतका. निकलना असध्य हो गया। बेचारा उस आगसे जलकर परगया
और मरकर दुर्गतिको गया । इस लिये मनुष्योंको चाहिये कि थोडेमें ही सन्तोष रख अपने जीवनको सफल करें: मथुनवनीतकी तरह परिग्रहमें पढ कर अपनी जिन्दगी वरवाद न करें।
६५. सेठकी पुत्री वृषभसेनाकी कथा।
कावेरी नगरमें राजा उग्रसेन थे वहीं पर धनपति सेठ रहता था जिसकी सेठानीका नाम धनश्री और पुत्रीका वृषमसेना था। उस वृषभसेनाकी दासी रूपवतीने एक समय
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२३०
जैनबालबोधक
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वृषभसेना के स्नान जल से भरे हुए गड्ढे में एक रोगी कुत्तेको गिरा हुवा देखा । जैसे ही कुत्तेका शरीर जलसे भीगा किकुत्तेका विल्कुल रोग चला गया और सुदर शरीर बनगया यह देखकर रूपवती, वृषभसेनाका स्नान जल ही आरोग्य का कारण समझकर थोडासा जल अपनी मांके पास ले गई और आंखोंको लगा दिया, लगातेही बारह वर्षकी धुंद चली गई और उसे खूब दीखने लगा अब तो यह दासी प्रत्येक रोगमें उसी जलको काममें लाने लगी और सारे नगर में प्रसिद्ध हो गई । एक समय उग्रसेन राजाने बहुत सेना लेकर रणपिंगळ मंत्री को अपने वैरी राजा मेघपिंगल पर भेजा । रणपिंगलने जाकर उसके नगरको घेर लिया, परंतु मेघपिंगलने दुष्टता के साथ कुओंके जलोंमें विष डाल दिया जिससे रणपिंगल बीमार पड गया और सेनाके साथ घर लौट आया परंतु वृषभसेना के स्नान जलसे तंदुरुस्त हो गया । मेघपिंगलकी ऐसी दुष्टता सुनकर राजा उग्रसेनं सेना लेकर स्वयं जा चढे, परंतु वही हाल इनका भी हुवा इसलिये वे भी अपने देशको लौट आये, और बहुत बीमार पड गए | परंतु रणपिंगलसे जब राजाने वृषभसेना के स्नान जलकी तारीफ सुनी तो उसी समय जल लेनेके लिए आदमी भेजा, इसे. माया हुवा देखकर धनश्रीने छापने पतिसे कहा कि अपनी पुत्रीका स्नान्जल राजाके शिरपर छिड़कना अच्छा नहीं हैं । सेठने कहा- इसमें अपना कोई दोष नहीं है । यदि राजा
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तृतीय भाग। जलके विषयमें पूछेगें तो मैं स्पष्ट हाल कह दूंगा । रूपवती. जल लेकर चली गई और राजाके शिरपर छिड़क दिया छिड़कते ही राजा विरकुल स्वस्थ हो गया। जब उग्रसेनने रूपवतीसे जळके माहात्म्यको पूछा तो उसने ठीक २ कह सुनाया। राजा यह सुनकर बडे चकित हुये और विचारने लगे कि जिपके स्नानजलका तो इतना माहात्म्य है तो उस पुत्रीका कितना न होगा इसलिये राजाने उसी समय वृषभसेनाके पिताको बुलाया और अपने साथ पपसेनाके विवाह कर देनेको कही। सेठने उत्तरमें कहा कि-महाराज में
आपके योग्य तो नहीं हूं परन्तु भापकी आज्ञाका उल्लंघन भी नहीं कर सकता! हां! एक बात अवश्य है कि आप को जिनेन्द्र भगवान के आगे अष्टान्दिकाकी पूजा बडे सजधनके साथ करनी पडेगी और तमाम जंतुओंको दंघनसे मुक्त कर देना पडेगा और कैदियोंको भी छोड देना होगा। राजाने यह स्वीकार कर लिया और पासेनाके साथ विवाह कर पट्टरानी बना दिया, एवं अपना काल सुखसे उसीके साय विताने लगा। यद्यपि राजाने सबको छोड दिया या तो भी वनारसके राजा पृथ्वीचंदको उसकी अतिदुष्टता के कारण नहीं छोड़ा था, इसलिए पृथ्वीचंद्रकी राना नारायणदवाने अपने पतिको छुडवानेके लिए मंत्रियोंके साथ विचार करके बनारसमें सब जगह वृषभसेनाके नामसे दानशालायें खुलवा दी। वहां नानादेशक भिक्षुक भोजनकररानी
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जैनवालबोधकवृषभसेनाकी बडी प्रशंसा करने लगे और वह प्रशंसा रूपवती के कानों तक भी पड गई । रूपवतीने गुस्सा होकर रानीसे कहा कि-माप मेरे विना पूछे ही वनारसमें दानशाला खोल बैठी। रानीने कहा-मुझे तो इस वातका पता तक भी नहीं है । उसी समय रानीने इसका निश्चय करनेके लिये बनारस को दूत भेजे और वे थोडे दिनमें लौटकर आगए । रानी के पूंछने पर उनने सत्य २ कह सुनाया कि पृथ्वीचंद्रकी रानीन अपने पतिको छुड़ाने के लिए आपको पुनः स्मरण करानेके लिए आपके नामसे दानशालायें खोल रखी हैं। रानीने उसी समय राजासे पृथ्वीचंदको छोड देनेको कहा
और राजाने वैसा ही किया । पृथ्वीचंदके बन्धनमुक्त हो जाने पर पृथ्वीचन्दको बड़ी खुशी हुई और उसने रानीका बडा उपकार माना उसीप्रकार राजाका भी। यहां तक कि राजा रानीकी एक तसवीर ऐसी वनवाई जिसमें अपने शिर को उनके पैरोंमें रखवाया और वह राजाको समर्पण करदी जिससे राजा अतिप्रसन्न हुए और पृथ्वीचन्द्रसे मेपिंगल को जीत लेनेको कहा । मेपिंगल पृथ्वीचन्दसे पहिले ही डरता था इसलिए जब उसने सुनी कि पृथ्वीचन्द छोड दिया गया है और वह मुझे पराजय करनेके लिए आरहा है तो वह इसके पहुंचनेके पहिलेही राजा उग्रसेनसे भा.मिला और नमस्कार कर आज्ञाको मानना स्वीकार किया ।, राजा उग्रसेन मेघपिंगलसे बहुत खुश हुए और
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तृतीय भाग। उनने उस दिनसे ग्रामीण राजामों द्वारा भेटमें आई हुई चीजोंको मेपिंगल और अपनी उपभसेना रानीको आया २ देनेको कह दिया । भाग्यसे उसी समय दो रत्नकम्बल आ गए। राजा उग्रसेनने उनमेंसे एक तो मेघपिंगलको दे दिया जिस पर उसका नाम अंकिन था और दूसरा वृष. भसेनाका नाम डालकर उपभसेनाको सोंप दिया। एक समय कारणवश मेघपिंगलको रानी उस कम्बलको ओढकर वृषभसेनाके घर गई और वहां पर उसका कंवल बदले पड गया और उसको ओढकर अपने घर चली आई। मेपिंगल भी उसी वदले हुये कंवलको श्रोढकर राजा उग्रसेनसे मिलने माया । राजाको कृपभसेनाका कंवल मेघपिंगलके पास देख कर कुछ संदेहसा पैदा हो गया और मुख भी गुस्सामय कर लिया। उग्रसेन राजाको कोचित्त देखकर लौट आया और यह विचार कर कि राजा मुझपर नाराज है दूरदेश चला गया। जब उग्रसेन महलमें गये और गनीके पास मेघपिंगलका कंवल देखा तो अब वह खूब गुस्सा हो गया
ओर यह निश्चय करके कि वृपभसेनाका पाचरण खराब है उसी समय राजाने पथसेनाको मारनेके लिये समुद्रजल में फिकवा दिया परंतु वृषभसेनाने प्रतिज्ञा करली थी कियदि में इस उपसर्गको सहन कर लूंगी तो खूप तपश्चरण करूंगी। इसके शील माहात्म्यसे ऐसा ही हुवा कि जलदेवता. ऑने पाकर पानीमें सिंहासन रच दिया, जिसके पास
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जैनबालवोधकपास आठ प्रातिहार्य शोभायमान हो रहे थे । उसपर वृषभसेनाको विराजमान देखकर नगरके लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। उग्रसेन राजा भी दौडा आया, अपने अपराधकी क्षमा कराई और घर चलनेको कहा । जैसेही यह लौटकर आ रही थी कि वनमें आते हुये गणधर मुनिको देवा। देखकर वृषभसेनाने भक्तिसे नमस्कार किया और उन अवधिज्ञानी मुनि से अपना पूर्वधव पूछना प्रारम्भ किया । मुनि महाराज वोले. कि-पहिले भवमें तू इसी नगरमें नागश्री नामकी ब्राह्मणपुत्री थी और उग्रसेन राजाके मंदिरमें बुहारी लगाया करती थी एक दिन सायंकाल एक मुनि कोटके भीतर पद्मासन ल. गाए ध्यान कर रहे थे जब तुपने ( नागश्रो) मुनिको देखा तो क्रोधसे कहा कि-यहांसे उठ | राजा कटक सहिन आ रहे हैं इसलिये में वुहारी दूंगी यदि तु न उठेगा तो गजाकी सेना से कुचल कर मर जायगा परन्तु मुनि तो अपनेध्यानमें लवलीन थे इसलिये तुझसे कुछ भी न कहा । जब तुझे ज्यादा गुस्सा उमड आया तो इधर उधरका कूरा करा लाकर मुनिके ऊपर डारना शुरू कर दिया और इतना डारा किमुनि महाराज उससे विलकुल दब गये । सुवहमें राजा दर्शनार्थ पाये । वह उस जगह पहुंचे जहां मुनि कूडा कचरासे ढके हुये ध्यानमें लवलीन थे। यद्यपि मुनि का शरीर विल्कुल नहीं दीखता था परंतु श्वासोच्छवास मुनि महाराजकी चल रही थी जिससे कूड़ा कचरा हिलता था।
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तृतीय भाग ।
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राजाने देखकर कहा कि - यह क्या है ? परंतु किसीको मालूम होता तो कोई उत्तर देता, इसलिये जब राजाने कुछ उत्तर न पाया तो उस कूडेको उसी समय अलग करनेका हुकुम दिया । जैसे ही वह अलग किया मुनिजी ध्यानस्थ दिखाई देने लगे । राजाने बडे प्रेमसे दर्शन किये और स्वयमेव हाथांसे शरीर पोंछना शुरू कर दिया। जब तुमने यह देखा तो अपनी asी निंदा की और उसी समय मुनि महाराज से अपने अपरायकी क्षमा मांग नानाप्रकारको औषधियां लगाना शुरूकर दिया और सेवा चाकरी भी खूप करी जिससे मुनिकी पीडा दूर होगई उसी औषधि दानके प्रभावसे धनपतिकी कन्या तृषमसेना हुई हो और सुन्दर सर्व औषधिसम्पन्न शरीर घार किये हो परन्तु कूडा कचराके कारण तुम्हें यह कलंक : भुगतना पडा है । वृपभसेना मुनि महाराजके मुखारविंद से यह सब सुनकर उन मुनिके पास श्रार्थिका हो गई, राजाने बहुत समझाया कि घर चलो परंतु वह न गई ।
इसलिये प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि यदि सुंदर और सम्पूर्ण औषधियोंके मूल शरीर पानेकी इच्छा है तो नृपभसेना - की तरह रोगी मुनि व श्रावककी वैयावृत्य करे और औषधि : दान दे और पापबंध से वचनेका प्रयत्न करे ।
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२३६ . जैनवालवोधक“६६. भूधरजैननीत्युपदेशसंग्रह आठवां भाग।
जिनधर्म प्रशंसा ।
दोहा। • छये अनादि अज्ञानसौं, जगजीवनके नैन । सव मत मूठी धूलकी, अंजन है मत जैन ॥१॥ मूल नदीकै तरनको, अवर जतन कछु है न। सब मत घाट कुघाट हैं, राज घाट है जैन ॥२॥ तीन भुवनमें भर रहे, यावर जंगम जीव । सव मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव ॥३॥ : इस अपार जगजलधिमें, नहिं नहिं और इलाज । पाहन वाहन धर्म सव, जिनवर धर्म जिहाज ।। ४ ।। मिथ्या मतके मद छके, सब मतवाले लोय । • सव मतवाले जानिये, जिनमत मच न होय ॥५॥ मतगुमान गिरि पर चढे, बडे भये मन माहि। लघु देखें सब लोककौं, कौं हू उतरत नाहि ॥६॥ गम चखनसौं सब मती, चितवत करत निवेर । ज्ञान नैनसौं जैन ही, जोवत इतनो फेर ॥ ७॥ ज्यौं वजाज डिंग राखिकैं, पट परखे परवीन।
१ पत्थरफी नावें । २ सर्वधर्मावाले । ३ मदोन्मत्त-पागल। ४ धर्मके अगिमानरूपी पहाड पर। ५ चमडेके नेत्रों से-बाहरी नजरसे । ६ देखते हैं। ७ । पास पास रखकर सब कपडोंकी जांच करता है ।
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पाप माण
२३७.
त्यों मतसौं मतको परखि, पावै पुरुष अमीन ॥ ८ ॥ दोय पक्ष जिनमत विषै, नय निश्चय व्यवहार । तिन बिन कहै न हंसे यह, शिव सरवरकी पार ॥ ६ ॥ सी सी सीम हैं, तीन लोक तिहुँ काल । जिन मतको उपकार सच, जिन भ्रम करहु दयाल ॥१०॥ महिमा जिनवर वचनकी, नहीं बचनवल होय । भुजवलसौं सागर अगम, तिरै न तरहीं कोय ॥ ११ ॥ अपने अपने पंथको, पाखे सकल जहांन । तैसे यह मत पोखना, मत समझो मतिमान ॥ १२ ॥ - इस असार संसारमें, अवर न सरन उपाय | जन्म जन्म ज्यो हमें, जिनवर धर्म सहाय ॥ १३ ॥
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६७. कौंडेशकी कथा ।
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goat गांव गोविंद गोपाल रहा करता था वह कोटर - से प्राचीन शास्त्रको निकालकर पूजा किया करता था । एक वार पद्मनंदी मुनि वहां आए और उन्हें देखकर उस शास्त्रको मुनिमहाराजके सुपुर्द कर दिया कारण कि वह लिखा पढा न या मुनि उस पुस्तकका स्वाध्याय प्रतिदिन किया करते थे और उसीकर सब जगह उपदेश दिया करते थे । कुछ :
१ आत्मा जीव । २ मतकरो ।
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२३८ . जैनबालवोधक"दिन ऐसा कर मुनि उसी कोटरमें पुस्तक रखकर चले • गए । गोविंदने फिर शास्त्र निकाल लिए और पूर्वकी तरह पूजा करने लगा। वह ग्वाला निदानसे मरकर उसी नगरमें ग्रामकूटका पुत्र कौंडेश राजपुत्र हुआ और थोडे दिन बाद जब वह बडा हो गया तो उन्हीं पद्मनंदो मुनिको देखकर पूर्वभवका स्मरण कर वैराग्यको माप्त हो गया और उन्ही मुनि महाराजके पास कोंडेश नामके बड़ेभारी मुनि हो गए जो द्वादशांगका अध्ययनका श्रुतकेवली हो गए । ठोक है जव शास्त्रदानके प्रभावसे केवली पद प्राप्त हो सकता है तो श्रुतकेवलीपदका प्राप्त कर लेना कोई आश्चर्य नहीं है जैसा :कि गोविंद के जीवने प्राप्तकिया।
६८. श्रावकाचार दशम भाग।
सक्लेखना या संन्यास मरणका स्वरूप । 'आजावे अनिवार्य जरा, दुष्काल रोग या कष्ट महान |
धर्महेतु तव तनु तज देना, सल्लेखना मरण सो जान ॥ अंत समयका सुधार करना, यही तपस्याका है फल । अतः समाधिमरण हित भाई, करते रहो प्रयत्न सकल ॥
उपाय रहित बुढापा, दुष्काल, वा रोग या उपसर्ग माने ' पर धर्म धारण कर शरीरको तजदेना सोसल्लेखना वासन्यास
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२३६
तृतीय भाग। ‘मरण है अंत समयकी क्रियाको सुधार करना ही तमाम उमरके तपका फल है ऐसा समस्त मतालंबी कहते हैं। इस कारण जहांतक वन सके समाधिमरणपूर्वक मरनेमें प्रयत्न करना चाहिए ॥१२॥
समाधिमरण करने की विधि। स्नेह वैर संबंध परिग्रह, छोड शुद्धमन त्यों होकर । क्षमा करै निजजन परिजनको, याचे क्षमा स्वयं सुखकर ।। कृत कारित अनुमोदित मारे, पापोंका कर आलोचन । निश्छल जीवनभरको धारै, पूर्ण महावन दुग्बमोचन ।।९३॥
समाधिमरणके समय राग द्वेष संबंध, वाहयाभ्यन्तर 'परिग्रह छोडकर शुद्धांतःकरण होकर प्रियवचनोंसे अपने कुटुंबियों व नोकर चाकरोंसे नपा करा और अपने आप भी उन्हें क्षमा कर देवे। तत्पश्चात् छल कपटरहित कृत कारित अनुमोदनासे किए हुए समस्त पापोंकी मालोचना करके मरणपर्यंततक पांच महाव्रत धारण करै ॥ ९३॥ शोक दुःख भय भरति कलुपता, तज विषादकी त्यों ही श्राह । शास्त्रसुधाको पीते रहना, धारणकर पूग उत्साह ॥ भोजन तजकर रहै दूधपर, दूध छोडकर छाछ गहै। 'छाछ छोड ले प्रासुक जलको, उसे छोड उपवास लहै ।। कर उपवास अपनी शक्तिसे, सर्व यत्नसे निज मनको । णमोकारमें तन्मय करदे, तज देवे नश्वर तनको ।। ,
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जैनबालबोधकजीना चहना, मरना चहना, डरना, मित्र याद करना । भावी भोगवांछना करना, हैं अतिचार इन्हें तजना ॥९॥
तत्पश्चात् शोक दुःख भय अरति कलुषता विषादको तजकर उत्साहपूर्वक शास्त्रसुधामृत पीते रहना और भोजन छोडकर क्रमसे दूध पीये, दूध छोडकर, छाछ कांजी, व छाछ कांजी छोडकर फक्त गर्म पानी पीकर ही रहै जब मरण अत्यंत निकट हो जावे तब गर्म पानी भी छोडकर उपवास धारण करके समताभावोंसे नाशवान शरीरको छोड देवै । इसप्रकार समाधिमरण करते समय जीनेकी इच्छा करना, परनेकी इच्छा करना, मरनेका भय करना, मित्रादिकोंका स्मरण करग और आगामी भोगोंकी वांछा करना ये पांच अतीचार हैं सो इनको भी त्याग कर देना चाहिए ।। ९४-९५ ॥
सल्लेखना धारण करनेका फल व मोक्षका स्वरूप । जिनने धर्म पिया है वे जन, हो जाते हैं सब दुखहीन । तीररहित दुस्तर नियन,-सुखसागरको पियें प्रवीन ।। जहां नहीं है शोक दुःख भय, जन्म जरा वोपारी मोत । है कल्याण नित्य केवल सुख, पावन परमानंदका श्रोत ॥१६॥
जिनने धर्मामृत पान किया है वे समस्त दुखोंसे छूट जाते हैं और अपार दुस्तरं उत्कृष्ट मोक्षके सुखसमुद्रका सुखामृत पान करते हैं । मोक्षमें किसी प्रकारका शोक दुःख भय
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तृतीय भाग ।
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जन्म जरा रोग मरण होकर केवलमात्र ल्याय वा अक्षय परमपावन सुखरूपी अमृतका श्रोत बढ़ता है ॥ ९६ ॥ तथासल्लेखना मनुज जो धारें, पाते हैं वे निरवधिमुक्ति । विद्या दर्शन शक्तिस्वस्थता, हर्ष शुद्धि औ अतिवृप्ति ॥ तीन लोकको चकट पलट दे, चाहें ऐसा हो उत्पात । aft hera भी होता, मोक्षप्राप्त जीवोंका पात ॥ ९७ ॥
जो मनुष्य सल्लेखना धारण करते हैं वे परंपरा मोक्ष को जाते हैं उस मोक्षमें अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतवीर्य अनंतसुख हर्ष पवित्रता और अतिशय यात्मिक सुखकी तृप्ति होती है चाहे तीन लोकको उलट पलट करनेवाला भी उत्पात हो तौ मी मोक्षमात जीवोंका सैकडों करन काल बीत जाने पर भी किसी प्रकार भी पतन नहीं होता || ९७ ॥ कीट कालिमाहीन कनकसी, प्रतिकमनीय दीप्तिवाले । तीन लोक शिरोमणि सां है, निःश्रेयस पानेवाले ॥ धन पूजा ऐश्वर्य हुकूमत, सेना परिजन भोग सकल । होय घलौकिक अतुल अभ्युदय, सत्य धर्मकर ऐसा फल |
मोक्ष पानेवाले जीव मुक्तिसे पहिले कालिपारहित सुबकी कांति समान दीप्यमान होते हुए तीनलोकमें शिरा मणिभूत शोभाको धारण करते हैं क्योंकि समीचीन धर्म प्रतिष्ठा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य, सेना, सेवक, परिजन और कामयोगोंकी बहुलतासे अलौकिक अतुल अभ्युदयको प्रदान करता है ।। ९८ ।।
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२४२ - जैनवालबोधक. ६९. वसतिका दानमें सूकरकी कथा ।
-:मालव देशके घटयाममें देविल नामका कुंभकार और धम्मिल नामका नाई रहा करता था । उन दोनोंने एक मठ (मकान ) इसलिए वनवाया जिसमें रास्तेगीर आकर ठहरें और अपनी थकावटको दूर करें । एक समय देविलने जब कि मकान बन चुका था, एक मुनिको लाकर सबसे पहिले ठहरा दिया और श्राप घरको चला गया । थोडी देर पीछे धम्मिल एक ढोंगी सन्यासीको वहां लाया और.. उसे वहां ठहराकर उन मुनिमहाराजको जिन्हें देविल ठहरा गया था, उन्हें निकाल दिया । वे विचारे वहांसे चलकर एक वृत्तके नीचे ध्यान लगाकर स्थित हो गए और रात्रिमें नाना प्रकारकी देशमशक आदि परोषहको सहन किया । सुबह होते ही देविल और धम्पिल उस मठमें आ पहुंचे परंतु जब देखिलने मुनिमहाराजको वहां न देखा तो उसे बडा गुस्सा पायर्या और धम्मिलसे लडना शुरू कर दिया, इतनी लडाई हुई कि अन्तमें दोनों मरकर देखिल तो मूकर हुआ और धरिल व्याघ्र हुआ। जिम गुहा में यह सूकर रहा करता था उसी गुहामें एक समय समाविगुप्ति और त्रिगुप्ति नामके दो मुनि वहां आए और उस गुहामें ध्यान लगाकर स्थित हो गए। उन दोनों मुनियोंको सूकर देख
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तृतीय भाग ।
२४३.
कर वडा प्रसन्न हुआ और पूर्व भवका स्मरण करके उनसे धर्मaaree anist ग्रहण कर लिया। उधर वह घम्मिलका जीव व्याघ्र मनुष्योंकी गंध सूंघकर उसी गुहा में आया और मुनियोंको भक्षण करनेके लिए गुफा में प्रवेश करना शुरू किया परन्तु सूकर गुहाके द्वारपर स्थित हो गया और व्याघ्र को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया इससे व्याघू जल गया और खूब युद्ध करना शुरू कर दिया और इतना युद्ध हुआ कि आखिरको उन दोनोंका मरण हो गया। सूकरके तो परिगाम मुनिरक्षाके थे इसलिए वह तो सौधर्म स्वर्ग में देवोंसे पूज्य वडा देव हुआ और व्याघ्र खोटे भावोंसे नरकमें गया इसलिये सबको चाहिए कि अपने साधनको अभय देकर उसके बचानेका प्रयत्न करें जैसा कि सूकरके दृष्टान्तसे मालूम पडा ।
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७०. श्रावकाचार ग्यारहवां भाग ।
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श्रावककी एकादश प्रतिमा वा कक्षा ।
श्रावकाचार यानी गृहस्थका आचार जो ऊपर के पाठों वन किया है, विषय भेदसे भिन्न २ वर्णन किया है, इस पाठ की प्रथम क्रियासे लगाकर अंत तककी क्रिया तकके क्रमसे चढ़ते हुये ११ प्रतिमा वा पद ( दरजे ना कक्षा ) माने गये हैं वे ऋपसे बताये जाते हैं ।
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जनवालबोधक
१ । दर्शनप्रतिमा | इस प्रतिमा कक्षा ) में रहनेवाले मनुष्यको २५ दोषरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन और आठ मूल गुण धारण करने पड़ते हैं।
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पच्चीस दोष- शंका, कांक्षा, चिचिकित्मा, ( द्वेषरूप ग्लानि ) मूढदृष्टित्व, अनुषगूहन, अस्थितिकरण, अत्रात्सल्य, और प्रभावना ये आठ दोष और आठ पद तीन मूढता (देव मृढता, गुरुमूढता, लोकमूढता, ) और छह अनायतन इ प्रकार २५ दोष हैं । कुदेव, कुशास्त्र, और कुगुरु तथा इन तीनोंको माननेवाले तीन, इस प्रकार ६ आनयतन हैं इनको अच्छा समझना वा सेवा पूजादि करना सो दोष है । इन पच्चीस दोषोंको छोडने से सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है । आठ मूलगुण- उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे तीन प्रकार के कहे गये हैं ।
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१ । स हिंसाका त्याग १ स्थूल झूठका त्याग २ स्थूल चौरीका स्थाग ३ परखीका त्याग ४ परिग्रहका परिमाण करना ५ मद्यपानका त्याग ६ पांस भक्षणका त्याग ७ मौर और मधु खानेका त्याग ८ ये आठ मूलगुण उसम प्रकार के हैं । २ | मध्यम प्रकार के भाठमूल गुम-पद्यका त्याग १ मांसका त्याग २ मधुका त्याग ३ रात्रिमें भोजन करनेका त्याग ४ पांच उदंबर फलोंका त्याग ५ पांच परमेष्ठीको त्रिकाल वन्दना करना ६ जीवदया पालन ७ और जळ छान कर पीना. ये आठ मध्यम प्रकारके मूलगुण हैं |
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नृताय भाग ।
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३ ! पांच उबर फलों का त्याग और मद्य मांस मधु का व्यागकर देना सो जघन्य प्रकारके आठ मूलगुण हैं । इन तीन प्रकारके मूल गुणों में जो उत्तम प्रकारके मूळ गुण धारण करेगा सो उत्कृष्ट दर्जेका दर्शनिक ( दर्शन प्रतिमाधारी ) कहलावेगा और मध्यम प्रकारके मूलगुण पा
नेत्राला मध्यम प्रकारका दर्शनिक ( दर्शन प्रतिमाधारी ) और जघन्य मूलगुणों का धारक जघन्य दर्शनिक कहलावेगा ।
२ । व्रत प्रतिमा - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रतोंको निरतिचार पालना सो दूसरी व्रतप्रतिमा है । ३ । सामयिक प्रतिमा- प्रातःकाल मध्यान्हकाल और सायंकालमें छह घडी या ४ चार घडी वा दोय घडी निरतिचार सामायिक करना सो तीसरी सामयिक प्रतिमा है ।
४ । प्रोषव प्रतिमा- प्रत्येक सप्तमी त्रयोदशी के दिन प्रातःकाल ही सामायिक पूजा वगेरह करके दुपहरको भोजन करके मध्यान्हकालका सामायिक करके १६ पहर तक चार प्रकारके आहारोंका त्याग करके शेषके दोपहर दिन व रात्रि के ४ पर धर्मध्यानमें बिताये तथा अष्टमी चतुर्दशीके दिन के ४ पहर और रात्रिके चार पहर और नवमी पूर्णमासी के वा अमावस्या के दो पहर तक सामायिक पूजा बन्दनादि करके एकवार आहार ग्रहण करे इस तरह १६ पहर धर्म - ध्यानमेंही आरंभ छोडकर बिताये ऐसे प्रोपधपूर्वक उपवास को निरतिचार करते रहना सो प्रोषध प्रतिश है ।
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जैनवालबोधक४ । सचित्त न्याग प्रतिमा- जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि, पत्र, फल, त्वक ( छाल) मूल, कोंपल, बीज, सचित्त (हरे वा कच्चे) न खावे सो सचित्तविरति श्रावक है। सचित्त शग प्रतिमाघारीको कच्चे मुके गेहूं वगेरह खाने व कच्चे जलपान करनेका भी त्याग करना चाहिए । जलको या तौ विधिसे छानकर गर्म करके अथवा लोंग इलायची आदि कषायले पदार्थ डालकर वेस्वाद करके पान करें।
६ । रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा-जो ज्ञानी श्रावक रात्रि में चार प्रकार अशन, पान, खाद्य, स्वाधरूप आहार न तो आप ग्रहण करै और न दूसरेको भोजन पान करावे तथा दिनमें स्त्रीसेवनका त्याग करे सोछडी रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा है । रात्रि भोजनका त्याग तौ पहिली प्रतिमांमें भी कराया गया है परंतु वहां पर कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायके दोष (अतिचार ) लगते हैं परंतु छट्ठी प्रतियामें सर्वथा शुद्ध (निरतिचा त्याग है।
७ । ब्रह्मचर्य प्रतिमा- मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे सर्व प्रकारकी स्त्री सेवनेका पांच अतीचार रहित त्याग करना सो ब्रह्मचर्य नामको सातवीं प्रतिमा है।
८|आरम्मत्यागप्रतिमा-मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे गृहसंबन्धी प्रारम्भोंका त्याग करना सो प्रारम्भत्याग प्रतिमा है।
९ । परिग्रहत्यागप्रतिमा-जो बाहरके दशों परिग्रहों में
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तृतीय भाग। ममताको छोड करके संतोष धारण करे. रुपया पैसा पास न रक्खे सो परिग्रह त्याग प्रतिमा है।
१०। अनुमतित्यागप्रतिमा-मारंभ परिग्रह तथा लोक संबंधी कार्योंमें अनुमती देने का त्याग कर देना सो दशवीं अनुमति त्याग प्रतिपा है ।।
११ । उद्दिष्ट प्रतिमा । कविताघरको नजि मुनि वनको जाकर गुरु समीप व्रतधारण कर । तपते हैं भिक्षाशन करते, खंड वस्त्रधारी होकर ।। उत्तम श्रावकका पद यह है, जो मनुष्य इसको गहते । उन्हें श्रेष्ठजन नुटक.रेलक, भाग्यवान् श्रावक कहते ।। इसका अर्थ स्पष्ट है।
--- --- ७१. मेढककी कथा।
मगधदेश के राजगृह नगरमें राजा श्रेणिक राज्य करते थे, वहींपा नागदत्त सेठ रहते थे जिनकी स्त्री का नाम भवदत्ता था वह नागदच सेट बडा मायावी या, इसलिये जब मरण हुभा तो पाकर अपने आंगनकी बावड़ीमें मेढक दुमा एक समय उस बावडीका जल भरने के लिए भवदत्ता सेठानी
आई उसे देखकर मेढकको पूर्वभवका जातिम्मरण हो आया जिससे कूदकर भवदत्ताके अंगको चाटने लगा उसने (भव
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जैनवालवोधकदचा) मेढकको अपने ऊपरसे फटकार दिया, परन्तु फिर भी वह मा लिपटा और उसे चाटना शुरू कर दिया उसने कई वार अपनेसे अलग किया परंतु वह चार २ उसीके शरीर पर पाकर चाटने लगा । सेठानीने विचार किया कि यह मेरा कोई स्नेही मालूम पडता है जिससे वार र आकर मेरा पीछा नहीं छोडता है। वह वहांसे चलकर अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिके पास गई और भक्तिसे नमस्कार कर पूछने लगी कि महाराज मेहकका जीव पूर्वमवमें मेरा कौन था,, जिसने आज मेरे ऊपर बडास्नेह दर्शाया है । मुनि महाराज ने सव वृत्तांत कह सुनाया कि यह मेढक तुम्हारे स्वामी नागदत्त सेठका जीव है जो पूर्वभवका स्मरण करके तुम्हारे ऊपर इतना प्रेम जता रहा है.। यह सुनकर भवदत्ता मुनिको नमस्कार कर चल दी और घर आकर उस दिनसे उत्त मेढकको अपने पतिका जीव समझकर आनंदसे रखने लगी। एक वार महावीर स्वामीका वैभारपर्वत पर भागमन सुनकर राजा श्रेणिकने नगरमें आनंद भेरी वजवा दी और पुरवा. सियोंके साथ वैभार पर्वतार बर्द्धमान स्वामीके दर्शनके लिये जा पहुंचा। सेठानी भवदचा भी बडे हर्षके साथ गई जब मेढक को यह खबर लगी तो वावडीमेंसे एक कमल मुंहमें दवा. कर भगवानकी पूजाके लिये चल दिया रास्तेमें बडे भा. ल्हादके साथ जा रहा या कि हावीके पैरसे दबकर मरगया और पूजाके भावोंके कारण सौधर्म स्वर्गमें बढी ऋद्धिकाधारी
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तृतीय भाग।
२४९ देव हुमा । देव हुये देरी न हुई यी कि अवविज्ञानके द्वारा अपना पूर्वभव स्मरण करके भगवानकी पूनाकेलिये अपने मुकुटमें मेटकका चिन्ह लगाकर चल दिया और भगवानके. पास आकर प्रतिमक्तिसे वंदना कर बैठ गया। जब राजा श्रेणिकने इसे देखा तो गौतम स्वामीसे पूछा कि हम देवके मुकुट पर जो भेकका चिन्ह दिखाई देता है इसका कारण क्या है ? क्योंकि देवोंके सुकटोंपर भेकके चिन्ह नहीं हुवा करते हैं । गौतम गणधरने कहा कि यह देव पूर्वभवमें मेढक था किंतु इसके भाव महावीर स्वामीकी पूजा करनेके थे । भाग्यसे यह कपल लिए आ रहा था परंतु रास्ते में हाथी के पैरसे कुचलकर यह देव भया है इसे पूर्वभवका स्मरण हो. गया है इसलिये अपनेको यह जतानेके लिये कि मैं पूर्वभव में मेढक था और पूजाके प्रतापसे देव हुआ हूं, अपने मुकुटपर भेकका चिन्ह धारण कर रक्खा है । राजा श्रेणिक व अन्य जन यह सुनकर बडे चकित हुए और उस दिनसे गजा श्रेणिक व अन्य भव्यजनोंने नियम ले लिया। कि हम सब विना पूजनके भोजन नहीं किया करेंगे।
यह पात निर्विवाद सिद्ध है कि जो व्यक्ति चाहे गरीव हों या बनवान, भगवानकी भावोंसे पूजा करते हैं उन्हें उस अलौकिक सुखकी प्राप्ति हो जाती है जिसका वर्णन करना, बचनके अगोचर है।
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जैनवालवोधक
७२. गुरु अष्टक ।
संघसहित श्री कुंदकुद गुरु, बंदन हेत गये गिरनार । वाद पस्यो तह संशयमतसों, साक्षी वदी अंविकाकार ॥ 'मत्यपंथ निरग्रन्थ दिगम्बर' कही सुरो तहँ प्रगट पुकार। सो गुरुदेव वतो उर मेरे, विघ्नहरण मंगल करतार ॥ १ ॥
स्वामी समंतभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हठ कियो अपार । . चंदन करो शंभु पिंडीको, तव गुरु रच्यो स्वयंभूभार ।। बंदन करत पिंडिका फाठी, प्रगट भये जिनचंद्र उदार। सो गुरुदेव वसा उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ।। २ ॥
श्रीअकलंक देव मुनिवरसों, बाद रच्यो जहँ बौद्ध विचार ॥ तारा देवी घटमें थापी, पटके मोट करत उच्चार ॥ जीत्यो स्यादवाद बल मुनिवर, बौद्ध बोधि तारामद टार । सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥३॥
श्रीमत् विद्यानंदि जौ, श्रीदेवांगम थुति सुनी सुधार । अर्थहेत पहुंच्यो निनमंदिर मिल्यो अर्थ तहँ सुखदातार तब व्रत परम दिगंवरको घर, परमतको कीनी परिहार। -सो गुरुदेव वसौ उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार॥ ४ ॥
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तृतीय भाग ।
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श्रीमत वादिराज मुनिवरसों, कह्यो कुष्ठि भूपति जिंहबार । श्रावक सेट को तिस अवसर, मेरे गुरु कंचन तनधार ॥ तब ही एकीभाव रच्यो गुरु, तन सुवरण दुति भयो अपार । सो गुरुदेव बसी उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ५ ॥ ६
श्रीमन मानतुंग मुनिवरपर, भूप कोप जब कियो गवार । चंद कियो तालेमें तत्री, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार || चक्रेश्वरी प्रगट तब होके, बंदन काट कियो जयकार | सो गुरुदेव वसो टर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ६ ॥
७
श्रीमत कुमुद चंद्रमुनिवरसों, वाद परचो जहँ सभामकार । तव ही श्रीकल्यान धाम श्रुति, श्रीगुरुरचना रची अगर ॥ तत्र प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार | सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ७ ॥
•
श्रीमत श्रभयचंद्र गुरुसों जब, दिल्लीपति इम कड़ी पुकारि ॥ के तुम मोहि दिखावहु अतिशय, के पकरो मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगटि अलौकिक अतिशय, तुरत हरयो ताको मदभार सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ८ ॥ दोहा | . विघ्नहरन मंगल करन, वांछित फलदातार ।
· वृन्दावन अष्टक रच्यो, करा कंठ सुखकार ।। १ ॥
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संस्थाके छपे हुये भाषाटीका सहित उत्तमोचम जैन शास्त्र |
परीक्षामुख
:)
संस्कृतप्रवेशिनी - दोनों भाग
संस्कृतप्रवेशिनी - द्वितीय भाग III) जैनबालबोधक द्वितीय भाग
तस्वज्ञानतरंगिणी
१८) जैनबालबोधक तृतीय माग
(=)
||}
१)
सुभाषितरत्न संदोह खुलेपत्र २ ) असहमत संगम मकरध्वजपराजय-हिन्दी, काम और जिनदेवका युद्ध
11)
कच्ची जिल्दका ॥ पक्की जिल्दका
MI).
परमाध्यात्मतरंगिणी - संस्कृत और भाषा टीका सहित ( थोडी है ) २) जिनदत्तचरित्र भाषावचनिका ||) जिल्दका ||1) वीनती संग्रह
=)
४).
11)
खुलेपन
आराधनासार सजिल्द १०) तत्त्वार्थसार भाषाटीका पात्र केशरीस्तोत्र भाषाटीका सहित ।) तीर्थयात्रा दर्शक गोम्मटसारजी- दोनोंकांड पूर्ण, और लव्विसार क्षपणासार स ४००० पृष्ठ ५१ ) ग्रन्थत्रयी III ) जिल्दकी || रविव्रत कथा -) गोम्मटसारजी - कर्मकांड पूर्ण, लब्धिसार क्षपणासारजी, और भाषा ३४) चारित्रसार २) धर्मपरीक्षा
संदृष्टि सहित
छहढाला संग्रह
बन्धिसार क्षपणासारजी भाषा टीका संदृष्टि सहित द्रव्यसंग्रह सान्वयार्थ = ) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा सजिल्द 11) भदैया पूजा संग्रह |) शीलकथा = )
जनकथा संग्रह सजिल्द दर्शनकथा ) दानकथा
विशेष जानने के लिये वडा सूचीपत्र मंगाकर देखिये ।
श्रीलाल जैन,
मिलने का पता - मंत्री- भारतीयजैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था,
९ विश्वकोष लेन, बाघबाजार कलकत्ता ।
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11-):
१२॥)
=).
11)
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विमान इन मार्गोंमें वह भी विशेषता है - अनेक पाठधर्मसंबंधी जीवाजीवविचार आदि विषयोंकी
पानी पडती है सो हमने इन विषयोंका इन भागोनेही यथास्थानपर समावेश कर दिया है जिससे कोई पुस्तक ही नं
एक पुस्तक पढ़ाने से ही समस्त विषयोंका ज्ञान प्राप्त डोबावमा 1. हिंदी व्याकरण व गणित मात्र खुदा अवश्य पढाना पडेगा । और पढ़ाना हो तो इसका चौer are gette बाद पढ़ाना ठीक होगा ।
कथा
*
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हमने मेरे चैन यूनिवर्सिटी वा मालवा प्रांतिक जैम निकी और गोपालनैनचितविचालय के पठन क्रमानुसार ही रक् | अतएव इन सबके पठन कम इन मागोको रखकर परीक्षा सामग
का
करेंगे तो यह
·
निवेदक
-१-१-१९१२ ६० ].: पालाल बाकलीवाल ।
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Printet and Publisher Srilal Jalo JAIN SIDDBANT PRAKASHAK PRESS, .. Visvakosha Lane, Baghbazar,
CALCUTTA.
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