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जनवालवोधकधान्यो सची जिनरूप.निरखत नयन त्रिपति न हूजिये। तब परम हरषित हृदय हरिने, सहस लोचन पूजिये । पुनि करि प्रणाम सु प्रथम इंद्र उछंग धरि प्रभु लीनऊ। ईशान इंद्र सुचंद्र छवि सिर छन प्रभुके दीनऊ ॥३॥
सनत कुमार महेंद्र, चमर दुइ दारहीं। शेष शक्र जयकार, सवद उच्चारहीं। उच्छव सहित चतुरविध, सुर हरषित भये ।
जोजन सहस निन्यानवे, गगन उलंघि गये ।। लंघि गये सुर गिरि जहाँ पांडक, वन विचित्र विराजहीं। 'पांडक शिला तहँ अर्द्ध चंद्र, समान मणि छवि छानहीं। जोजन पचास विशाल दुगुणी याम वसु ऊंची गनी। वर अष्ट मंगल कनक लसनी, सिंह पीठ सुहावनी ॥४॥
रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो। थाप्यो पूरब मुख तह, प्रभु कमलासनो। वाजहिं तालमृदंग, वेणु वीणा बने ।
दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु वाजने । बाजने वाजहिं सचीव मिलि, धवल मंगल गावहीं। पुनि काहि नृत्य सुरांगा सव, देव कौतुक धावहीं ॥ भरि छीर सागर जल जुहायहि हाथ सुश गिरि ल्यावहीं। सौधर्म अरु ईसान इन्द्रसु, फलत ले प्रभु न्हावहीं ॥५॥ बदन-उदर-अवगाह, कलसगत जानिये । एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ॥