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तृतीय भाग। सहस अठोतर कलशा प्रभुके शिर ढरे। पुनि सिंगार प्रमुख आचार सर्व करे ।। करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव आनि पुनि मातहि दयो। धनपतिहि-सेवा राखि सुरपति आप सुरलोकहिंगयो । जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भनि 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर जगतमंगल गावहीं ॥६॥
भावार्थ-जिससमयं मतिज्ञान तबान और अवधिजातसहित श्रीतीर्थकर भगवानका जन्म होता है उससमय तीनों लोकों में आनंदमय क्षोभ हो जाता है उस समय प्रथम स्वर्गके इंद्रका शासन कंपायमान होता है जिससे वह जान लेता है कि भगवानका जन्म हुवा. उसी समय भवनवासी व्यतर ज्योतिषियों के घरोंपर भी घंटा वाजे वगेरहका शब्द हो जानेसे उन सबको भी मालुम हो जाता है कि भगवानका जन्म हुवा है। उसी समय कुवेर लाख योजनका मायामयी हाथी बनाकर लाता है उस हाथीपर इंद्र अपने परिवार सहित चढकर समात देवोंके साथ जय जय शन्द करते हुये नगरकी प्रदक्षिणा देता है । इंद्राणी प्रति घरमें जा कर भगवानकी माताको नो मायामयी निद्रासे सुला देती है और वहां पर 'दूसरा मायाश्यी वालक रख कर भगवान् को बाहर ले आती है। इंद्रजव भगवानका रूप देखते देखते तम नहिं होता