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जनवालवोधक
( इक्षुरसकी धारा देना।) निष्टत क्षिप्त सुवर्णमढ़ दमनीय ज्यौं विधि जैनकी । आयुप्रदा बल बुद्धिदा रक्षा, सु.यों जिय-सैनकी । ततकाल मंथित, क्षीर उत्थित, प्राज्यमणिकारी भरौं । दीजे अतुलवल मोहि जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ॥६॥
(घृतामृतकी धारा देना) शरदन शुभ्र सुहाटक धुति, सुरभि पाचन सोहनो। क्लीवत्वहर बलधरन पूरन, पयसकल मनमोहनो ॥ कृत उष्ण गोथनतें समाहृत, मणि जडित घटमें भरौं । दुर्बल दशा मो मेट जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ॥७॥
(दुग्धकी धारा देना) वर विशद जैनाचार्य ज्यों, मधुराम्ल कर्कशता धरै । शुचिकर रसिक मंथन विमंथन, नेह दोनों अनुसरें। गोदधि सुमणि शृंगार पूरन, लायकर आगे धरौं । दुखदोष कोष निवार जिन, त्रयधार दे पायनि परौं ।॥ ८॥
( दही रसकी धारा देना)
दोहा। सौषधी मिलाय करि, भरि कंचन भृगार। यजों चरन त्रयधार दे, भवरुज वाधा टार ॥१॥
( सवाषधिकी धारा देना)
इति पंचामृत अभिषेक समाप्त। १ । इक्षुरसके अभावमें पवित्र बूरे या मिश्रीके शर्वतसे धारा देना.