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तृतीय भाग। देना किंतु इनके सिवाय ग्यारह अंगके धारी भन्यसेन वा अन्य और भी मुनि जो वहां थे उनके विषय में जब मुनिजीने कुछ न कहा वो तुल्लकजीको संदेह होगया और फिर पूछा कि और तो कुछ नहिं कहना है ? उन्होंने उत्तरमें यही कहा कि नहीं, अव क्षुल्लकजीका और भी संदेह बढ गया पर इस बातका विचार करते हुए कि कोई कारण अवश्य होगा, वहांसे चल दिए और उत्तर मथुरामें पहुंचकर सुव्रत मुनिसे जिनका चारित्र और वात्सल्य अपूर्व था, गुप्ताचार्यके नमस्कारको सादर निवेदन किया. यह सुन कर उनने क्षुल्लकनीको धर्मदि की और कुछ वार्तालाप भी उनके साथ किया पश्चात अपने संदेहको दूर करने के लिए भव्यसेनके पास पहुंचे परन्तु इनने उनके साथ बातचीत भी न की. क्षुल्लकजी वहीं पर चुपचाप बैठ गए. थोडी देर में भव्य. सेन अपने कमंडलुको उठाकर शौच के लिये वाहर निकले उसी समय क्षुल्लकजी भी उनके पीछे होलिए और थोडी दूर चलकर उनकी परीक्षाके लिए आगेका रास्ता हरयालीमय बना दिया जिस पर गमन करना मुनियों के लिये जैनशास्त्रमें सर्वथा निषिद्ध है पर मुनिजीने इसका कुछ भी विचार न करके उसी पर दीर्घशंका करली । यह देखकर तुल्ल. कजीने उनके कमंडलुका जल सुखा दिया और अपनी विद्यासे सामने एक छोटासा तालाब बना दिया। मुनिने जव कपंहलुमें जल न पागा तो सामनेके नालावसे ही अपनी