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जैनवालवोधकशौचनिवृत्ति करली। यश अब क्या था! नुल्लकजीको पूर्णतया विश्वास हो गया कि वह मिथ्यादृष्टि है इसलिए गुप्ताचार्यजीने इन्हें नमस्कार नहीं कहा है। उस दिनसे चलकनीने इनका नाम अभव्यसेन रख दिया और वहांसे चलकर रेवती रानीकी परीक्षा करनेके लिए चतर्मुख ब्रह्माका रूप धारण करके पूर्वदिशामें सिंहासन पर बैंठ गए । नगरवासो ब्रह्माजीका प्रागमन सुनकर वंदनाके लिये सकुटुंब चलदिए वहांका राजा वरुण और भन्यसेन भी गए परन्तु रेवती रानी मायामयी ब्रह्मा समझकर लोगोंके समझाने पर भीन गई।
दूसरे दिन चक्र गदा तलवार आदि लेकर चतुर्भुन विष्णुका रूप बना कर दक्षिण दिशामें जा बैठे पूर्वकी तरह फिर भी नगरवासी वंदनाके लिये गये किंतु रेवती रानी यह समझकर कि जैन शास्त्रोंमें नव नारायण ही बतलाये हैं जो कि हो चुके अव दसवां होना असम्भव है इस वास्ते वह फिर भी न गई।
तीसरे दिन क्षुल्लकजीने शिरमें जरा शरीरमें गख सायमें पार्वती को लेकर पश्चिम दिशामें वैलपर सवार होकर शंकर (महादेव ) के रूपको दिखाया पुरवासी फिर भी वंदनाये गये परन्तु जैनसिद्धांतमें ग्यारह ही रुद्र बतलाये हैं जो कि हो चुके हैं। अव बारहवां होना अशक्य है ऐसा समझ कर फिर भी वह न गई। . चौथे दिन उत्तर दिशामें मानस्तम्भ, गंधकुटी, वारह सभा, गणधर श्रादि झूठे सपोसरणकी रचना की और भाप