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तृतीयं भाग। हे नसेवाजो! क्यों वृथा उमर खोते हो? खा खाके नसा बदनाम मुफ्त होते हो।
बचोंके लिये क्यों विष वृक्षहि बोते हो। अब भी समझो किस गफलतमें सोते हों।. भारतवासिनको शुद्ध पंथ दिखरावो । हे. हा०॥७॥
५९. जयकुमारकी कथा ।
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इस्तिनापरमें सोपप्रम राजा राज्य करते थे जिनके पुत्रका नाम जय या। जयकुपार वडा संतोषी और बनी था। इनकी स्त्रीका नाम सुलोचना था। एक समय किसी विद्या-- घर को विमानमें वैठेहुए जाते देखकर इन दोनोंको पूर्व विद्याओंका स्मरण हो आया। जिससे उन्हें वे विद्यायें सिद्ध हो गई । और वे दोनों उन विद्याओंका पाकर मेरु प्रादि पर्वतोंकी वंदना करके कैलाश पर्वतपर भरतके वनवाए हुए चौवीस तीथकरोंके मंदिरोंकी वंदनाके लिए जा पहुंचे। इतने में ही सौधर्म स्वर्गमें इंद्र अपनी सभाके -समक्ष जयः कुमारके व्रत (परिग्रह परिमाण) की प्रशंसा करने लगे। रतिप्रभदेव भी वहीं बैठा था। वह इन्द्र के द्वारा जयकुमार की तारीफ सुनकर उसकी परीक्षाके लिये कैलाशपर आया और साथमें चार सखियों को लेकर स्त्रीका रूप धारण करके