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तृतीय भाग ।
१८. आलोचना पाठ.
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बंद पांचों परम गुरु, चौवीसौं जिनराज । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करनके काज ॥ १ ॥
चाल छंद ।
सुनिये. जिन अरज हमारी। हम दोष किये अति भारी । तिनकी व निवृत्ति काज । तुम सरन लही जिनराज ॥ २॥ इक वे ते चउ इंद्री वा । मनरहित सहित जे जीवा । तिनकी नहि करुणाधारी । निरदय है घात विचारी ॥ ३ ॥ - समरंभ समारंभ आरंभ । मन वच तन कीने प्रारंभ | कृत कारित मोदन करिकैं । क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ ४ ॥ शत घाट जु इन भेदनतें । अघ कीने पर छेदनतें । तिनकी कद्दू कोलों कहानी। तुम जानत केवलज्ञानी ॥ ५ ॥ विपरीत इकांत विनयके । संशय अज्ञान कुनयके । -वश होय घोर अघ कीने । बचतें नहिं जात होने ॥ ६ ॥ -कुगुरुनकी सेवा कीनी | केवल अदया कर भीनी । याविध मिथ्यात भ्रमायो । चहुँ गति मधि दोष उपायो ॥७॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी | परवनितासों हग जोरी । प्रारंभ परिग्रह - भीनो । पुन पाप जु या विध कीनो ॥ ८ ॥ सपरस रसना घ्राननको । चख कान विषय सेवनको । -बहु कर्म किये मन मानी । कछु न्याय अन्याय न जानी ॥!:
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