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जैनवालवोधकफल पंच उदम्बर खाये । मधु मांस मद्य चित चाहे । नहिं अष्ट मूलगुणधारी । विसनन सेये दुखकारी ।।१०।। दुई बीस अभख जिन गाये । सो भी निशदिन भुंजाये। कछु भेदाभेद न पायो । ज्यों त्यों कर उदर भरायो ॥१॥ अनंतान जु बंधी जानो । प्रत्याख्यान अपत्याख्यानो। संज्वलन चौकरी गुनिये । सव भेद जु पोडश मुनिये ॥१२॥ परिहास अरति रति शोग । मय ग्लानि तिवह संजोग । पन वीस जु भेद भये इम । इनके वश पाप किये हम ॥१३॥ निद्रावश शयन कराई । सुपने मधि दोष लगाई। फिर जाग विषय वन घायो । नाना विध विपफल खायो ।। किय अहार निहार विहारा । इनमें नहिं जतन विचारा । विन देखी घरी उठाई । विन शोधी भोजन खाई ।। १५ ।। तवही परमाद सतायो । बहुविध विकलप उपजायो। कछु सुधिबुधि नाहि रही है । मिथ्या मति छाय गई है। मरजादा तुम लिंग लीनी । ताहूमें दोष जु कीनी । भिनभिन अव कैसे कहिये । तुम ज्ञानविष सब पइये ॥१७॥ हा हा मैं दुठ अपराधी । स जीवनराशि विराधी । थावश्की जतन न कीनी । उरमें करुणानहिं लीनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई । महलादिक जागां चिनाई । पन विन गारयो जल ढोल्यो । पंखात पवन विलोल्यो १९ हा हा मैं प्रदयाचारी । बहुं हरितकाय जु विदारी। या मधि जीवनके खंदा । हम खाये धरि भानंदा ॥२०॥