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जैनवानबोधकथा जो छलसे तापसी होकर पृथ्वीको नहिं छूता था और अधपर सींकचेमें बैठकर दिनमें पंचाग्नि तपा करता था और रात्रिमें चोरी किया करता था। जब नगरमें बहुतसी चोरियां होने लगी और नगरवासियोंको बहुत खटकने लगी तब उनने जाकर राजासे निवेदन किया कि महाराज इम बडे दुखित होने लगे हैं कारण कि हमारे बहुतसे माळ चौरी जाने लगे हैं और चौरका पता नहिं लगता है! गजा ने यह सुनकर कोतवालको बुलाया और डाट लगाकर कहा कि नगरमें बहुतसी चोरियां होने लगी हैं इसलिये सात दिन के अंदरम चोरको या अपने शिरको काट कर मेरे पास लाओ । कोतवाल यह सुनकर चल दिया और उसने ४-५ दिन खुव प्रयत्न किया परंतु चोरका पताकहीं भी नलगा। अब तो कोतवाल साहव बड़ी फिकरमें थे और शामके वक्त 'घर पर उदासीसे बैठे ये इतने में एक भूखाब्राह्मण वहां पाया
और कोतवालसे भिक्षाकी मार्थना को । कोतवालने कहातुम्हे भिक्षाकी पड़ रही है मेरे तो प्राण वचना कठिन हैं। ब्राह्मणने सुनकर कहां-सों कैसे ? कोतवालने पूर्वोक्त सब हाल कह सुनाया। तब उस भितुकने कोतवालसे कहा कि क्या कोई यहां निस्पृही आदमी तो नहीं रहता है ? उत्तर कोतपाळने वही महात्मासाधु बतलाया। भिक्षुकने कहा-वही चोर होगा, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है । यद्यपि.कोतवाल ने उसे बड़ा महात्मा और सचा ही सावित किया परन्तु