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तृतीय भाग! तकै निरन्तर छिद्र, उदै परदीप न रुन्छ । विनकारण दुख कर, वैर विष कबहुं न मुँचै ॥ वर मौन मंत्रने होय वश, संगत कीये ज्ञान है । बहु मिलत वान याते सेही, दुर्गन सांप समान है।
विधातासे तर्क।
मनहर कवित्त । सज्जन जो रचे तौ सुधारसमौं कौन काज,
दुष्ट जीव किये कालकूटतौं कहा रही। दाता निरमापे फिर थापे क्यों कलपवृक्ष,
जाचक विचारे लघु तृणहते हैं सही ।। इष्टके संयोगते न सीरो धनपार कछु,
जगतको ख्याल इंद्रजालसम है वही। ऐसी दोय दोय बात दी विध एक ही सी,
काहेको वनाई मेरे धोको मन है सही ॥९॥
५२. तापसी चोरकी कथा ।
बत्सदेशकी कौशाम्बी नगरीमें राजा सिंहस्थ राज्य करते पे जिनकी स्त्रीका नाम विजया या । वहीं पर एक चोर रहता
१ दीपका उदय वा पराइ वढती । २ रुचती है । ३ अडता है। ४ शीतला .. ....
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