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तृताय भाग ।
२२७ आप उस पैसेसे मौज उडाने लगे। वह उस कन्याका पिता नही किंतु उस कन्यारूपी गायको काटनेवाला कसाई है। और जो उस कन्याके विवाहमें लड्डू जीयते हैं वे उस कन्यारूपी गायका मांस खानेवाले हैं। और वह नर पिशाच जिमने बुढापेमें भी विषयोंसे विरत न हो कर विचारी एक कुपारी कन्याको दो हजार रुपये देकर उसे वैधव्य दुख देनेको घर में डाला वह महाकसाई है। छी छी !! कैसी घृणित बात तने कही है। दूर रह, मेरी जाजप न छूना क्योंकि तू भी उस कमाईके यहां लड्डू खाकर आया होगा सो तू भी कसाईकी बराबर है।
शिष्य-गुरुजी घबराइये नहीं, मैंने उसके यहां खाना तो क्या पानी भी नहिं पोया, पान नकनहिं खाया। मैंने उस बुडढे वाचाको देखकर उसी वक्त प्रतिक्षा करली थी कि पाजसे जो कन्याका विवाह रुपये लेकर करेगा । में उस कन्याके 'पिनाके यहा और वरके यहां पानी भी नहिं पीऊंगा।
गुरु-सावास वेटे सायास ! ऐसाही करना चाहिये अब तुम लोग ही इस पतित होती हुई जाति वा देशका कल्याण कर सकोगे यदि तुम सब लडके और नवयुवक ऐसे ऐसे अन्यायोंके विरुद्ध खडे हो जावोगे तो ये अत्याचार जो होने लगे हैं, शीघ्र ही उठ जायगे । भाज तूने उन कसाइयोंकी बात कह कर मेरे चित्तको बढी भारी गिलानी दिलाई मेरा मन वढा खराब हो गया है सो तुप सब ही चले जावो भान इस अन्यायके लिये पाठशाला बंद रखनाही ठीक है।