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तृतीय भाग।
१५७ अपने मठमें लेगया और उसका खूब मिष्ट अन्नसे पोपण किया । एक दफे झूलेमें झूलती हुई दरिद्रा पर राजाकी दृष्टि पड गई और उनके रूपका पान करके अति विरहावस्याको प्राप्त होगया । मंत्रियों को जब यह खबर लगी तो उन्होंने बंदकले राजाके साथ दरिद्राकी शादी करनेको कहा, उसने इन वचनोंपर कि गजा यदि बौद्धधर्मको धारण करेगा तो मैं दरिद्राका विवाह राजाके साथ कर दूंगा, स्वीकार कर लिया। राजा उसके रूपका प्यासा था ही, इसलिये उसके वचनोंको मान लिया और उसके साथ पणिग्रहण कर लिया और वह रानी वना दी, पहले कह आए हैं कि उर्मिला बडी धर्मात्मा थी इसलिये जब फाल्गुणकी अष्टान्हिका वडे सजधजसे रथ निकलवाना शुरू किया तो दरिद्रा इसे देखकर विचार करने लगी कि मैं भी बुद्धस्य निकलवाऊंगी और जाकर राना से निवेदन किया कि उमिलाके पहिले मेरा रथ निकलना चाहिये, तब उसको राजाने आज्ञा देदी कि बुद्धरथ ही पहले निकलेगा, जब उर्मिलाको यह खबर लगी तो उसने प्रतिज्ञा का ली कि यदि मेरा रथ प्रथम न निकलेगा तो अन्न जल कदापि ग्रहण न करूंगी और मर जाऊंगी। ऐसा निश्चय करके क्षत्रिय गुहामें सोमदत्तादायके पास गई, भाग्यसे उसी समय वंदनाके लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर भी पाए हुए थे। जाकर पिलाने मुनिसे अपना सब हाल कह सुनाया वज्रकुमार मुनि भी वहीं ध्यान लगाये स्थित ये इसलिए