________________
१४५
तृतीय भाग। यह क्रिया देख राजाको कुछ क्षोभ और संताप हुआ नब मंत्रियोंने अवसर पाकर कहा कि-महाराज ! ये सब मूर्ख हैं, वलीबद्ध हैं, इनको बोलना नहिं आता है, इसी कारण छलसे सवने पौन धारण कर लिया है । इत्यादि निंदा वा हास्यादि करके मंत्रीगण राजाके साथ नगरकी
ओर लौटे, किंतु मार्गमें उसी संघके श्रुतसागर नायके मुनि नगरीसे चर्या करके वनको याते थे । उनको मम्मुख देश्दकर उन चारों मंत्रियोंने कहा कि, देखिये महाराज ! यह भी एक तरुण वलीबद्ध पेट भरके आरहा है। श्रुतसागर मुनिने इस पर मंत्रियों को अच्छा मुहतोड उत्तर दिया, और पीछे विशद करके राजाके सम्मुख ही उन्हें अनेकान्तवादसे हरा दिया जिससे कि वे बडे लजित हुए । पीछे संघमें पहुंचकर श्रतसागरने प्राचार्य महारानको यह सब वृत्तांत कह सुनाया श्राचार्य महाराजने कहा कि तुपने चुरा किया समस्त संघपर तुमने बडी भारी आपत्ति ला दी । अस्तु, अब मायश्चित यह लो कि, तुम उसी चादकी जगह पर जाकर कायोत्सर्गपूर्वक ठहरो और जो जो उपसर्ग आवे उन्हें सहन करो। प्राज्ञा पाकर श्रुतसागरने ऐसा ही किया और रात्रिको वे चारों मंत्री समस्त संघको मारनेका संकल्प करके आये । परंतु मार्गमें अपने असली शत्रु श्रुतसागर मुनिको देखकर वे चारोंके चारों खड्ग लेकर पहले उसीपर टूट पड़े। परंतु उस जगहके वनदेवतासे यह अन्याय देखा नहि गया, इसलिये