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जैनवालबोधक- '
वर नीर छीर समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहुविधि नचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत, गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचुं ॥ १ ॥ मलिन वस्तु हर लेत सच, जलस्वभाव मलछीन । जासों पूजों परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
जे त्रिजग उदरमकार प्राणी, तपत प्रति दुद्धर खरे । तिन अहितहरन सु वचन जिनके, परमशीतलता भरे || तस भ्रमर लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घसि सचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ, नित पूजा रचूं ॥ २ ॥ चर्दन शीतलता करै, तपतवस्तु परवीन । जासों पूजौं परम पद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति
स्वाहा ॥ २ ॥
यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि उई । अति दृढ परम पावन जयारथ, भक्तिवर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि तंदुळ, पुंज घरि त्रय गुण जचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ३ ॥ तंदुल सालि सुगंध यति, परम अखंडित वीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन | ३ | ॐहीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा (यहां पर अक्षतोंके तीन पुंन ही करने चाहिये अधिक नहीं )
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