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तृतीय भाग ।
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मन हरन मूरति हेरि * प्रभुकी, कौन उपमा लाइये । मम सकल तनके रोम हुलसे, हरष ओरं न पाइये || कल्यान काल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जो सुरनर वने । तिर्हि समयकी आनंद महिमा, कहत क्यों मुखसौं बने ॥
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भरनयन निरखे नाथ तुमको, अवर बांछा ना रही । मन भर मनोरथ भये पूरन, रंक मानों निधि लई || अब होहु भव भव भक्ति तुमरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास ' विनवै यही वर मोहि दीजिये ॥ ब्रह्मचारी ज्ञानानंदजीकृत दर्शन |
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अति पुराय उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया | व तक तुमको विन जाने, दुख पाये निजगुण हाने || पाये अनन्ते दुःख अवतक जगतको निज जानकर । सर्वज्ञभाषित जगत हितकर, धर्म नहि पहिचानकर || भवबन्धकारक सुखप्रहारक, विषयमें सुख मानकर । निजपर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधिसुधा नहि पानकर ॥१॥ तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये । निज ज्ञान कला उर जागी । रुचि पूर्ण स्वहितमें लागी ॥
* देख ।