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जैनवालवोधकरुचिं लगी हितमें आत्मके, सतसंगमें अव मन लगा। मनमें हुई अव भावना, तब भक्तिमें जाऊं रँगा। प्रियंवचनकी हो टेव गुणि गुण गानमें ही चित पगै । शुभशास्त्रका निल हो मनन, मन दोषवादनतें भगै ॥२॥ कब समता उरमें लाकर । द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममतामय भूत भगाकर । मुनिव्रत धारूं वन जाकर ॥ धरकर दिगम्बर रूप कव, अठवीसगुण पालन करूं । दो बीस परिषद सह सदा, शुभधर्म दश धारन करूं ।। तप तपूं द्वादश विध सुखद नित, बन्ध आस्रव परिहरूं । अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कमेरिपुको निजरूं ॥३॥ कब धन्य सुअवसर पाऊं । जवनिजमें ही रम जाऊं। कर्चादिक भेद मिटाऊं । रागादिक दूर भगाऊ ।। कर दूर रागादिक निरन्तर, आत्मको निर्मल करूं । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल लह, चरित क्षायिक प्राचलं ।। आनंद कंद जिनंद्र वन, उपदेशको नित उच्चरूं । आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखदभवसागर तरूं ।
३ पंचामृत अभिषेक।
दोहा।
श्री जिनवर चौवीस वर, कुनय ध्वांतहर मान । अमित वीर्य ग बोध सुख,-युत तिष्ठो इह थान
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