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तृतीय भाग।
७३ जाती है उनको अंधे कहते हैं । अंघोंके दुःखोंकी हद्द ही नहिं होती इस कारण चक्षु इन्द्रियकी दर्शन शक्ति किसी प्रकार भी नहिं विगडे ऐसे उपाय हमेशह करते रहना चाहिये।
श्रोत्र- इन्द्रियको कर्ण वा कान कहते हैं। श्रोत्र इंद्रिय का विषय शब्द है । परस्पर दो वस्तुओंके भिड़नेसे शब्द उत्पन्न होकर हवाके साथ हमारे कानमें प्रवेश करता है तब हमें सुनाई पाती है । श्रोत्रके द्वारा जो ज्ञान हो उसको श्रवण ज्ञान कहते हैं । इस कारण इस श्रोत्र वा कर्णको श्रवणेंद्रिय भी कहते हैं । शब्द और कानोंके वोचमें भीत बगेरह द्वारा हवा मानेका रास्ता बन्द हो तो वह शब्द कदापि सुनाई नहिं देगा । श्रवणेंद्रिय जिसकी विगड जाप अर्थात् श्रवण करनेकी शक्ति जिसकी नष्ट हो जाती है उसको बधिर (बहरा ) कहते हैं।
इन पांचों इंद्रियोंको अपने अपने विषयमें लगानेवाला मन है। मनकी प्रेरणाकै विना इन्द्रियें कुछ भी नहिं कर सकती । जब हमारा मन चाहता है तब ही हम देखते सुनते वा सुगन्धादिक अनुभव करते हैं। मन नहि चाहै और किसी अन्य विचारमें या ध्यानमें लगा हो तो आंखसे दीखता नही, कानसे सुनते नहीं, नासिकासे घ्राण नहिं आती जिहासे स्वाद नहिं पाता, स्पर्शका ज्ञान भी नहिं होता । मन हमारे हृदय स्थानमें आठ पांखुडीके कमलके आकारका