________________
तृतीय भाग!
१७३ ऐसी कर मर्यादा आगे, कपी उमर मर नहिं जाना। सूक्ष्म पापनाशक दिवत यह, इसे सज्जनोंने माना ॥५॥
अमुक नदी तक, अमुक पर्वत तक, अमुक गांवतक वा अमुक मील तक दशों दिशाओंमें जानेका परिमाण करके इसके आगे यात्रजीव न जाऊंगा, इस प्रकार त्याग करना. सो दिग्बत है ॥ ५७॥
दिग्बतका फल । जो दिव्रतका पालन करते, उन्हें नहीं होता है पाप । मर्यादाके वाहर उनके, अणुव्रत होय महावत आप ॥ . प्रत्याख्यानावरण बहुत ही, मित्रो कृशतर हो जाते। . इससे कर्म चारित्र मोहिनी, मंद मंद तर पड जाते ॥५८
जो इस दिग्वतका पालन करते हैं उनके मर्यादासे पाहर पांचों पापोंका सर्वथा त्याग हो जानेके कारण उपयुक्त पांच अणुव्रत पांच महाव्रत सरीखे हो जाते हैं यद्यपि चारित्र मोहिनी कमके प्रत्याख्यानावरणी क्रोष मान माया, लोप ये ४ कपाय अति मंदतर हो जाते हैं परंतु साक्षात्. महाव्रत नहिं होते क्योंकि-. . ., :
. .. . ; . महानतका लक्षण । .. तन मन वचन योगसे मित्रो, कृत कारित अनुमोदन कर। होते हैं नौ भेद, इन्हीसे, तजना पांचो पाप प्रखरः॥ कहे जगतमें ये जाते हैं, पंच महाव्रत सुखकारी। बहुत अंशमें महाव्रतीसा, हो जाता दिववधारी ॥२६॥