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तृतीय भाग ।
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व्रतविहीन वे हो तो भी, नीच कुलोंमें नहिं होते । नहि होते अल्पायु दरिद्री, विकृतदेह भी नहि होते ॥
तथा
विद्यावीर्य विजय वैभव वय, ओज तेज यश वे पाते । असिद्धि कुलवृद्धि महाकुल, पाकर सज्जन कहलाते ॥ अष्टऋद्धि नव निधि होती हैं, उनके चरणोंकी दासी । रत्नोंके वे स्वामी होते, नृपगगा के मस्तकवासी ॥ ३३ ॥ मम्यग्दृष्टि जी यदि अती भी हों तो वे मरकर नारकी, तिर्यच, नपुंसक, स्त्री, नीवकुली, विकृत अंगवाले, अल्पायु और दरिद्री नहिं होते और विद्या ( ज्ञान ) वीर्य विजय, वैभव, कांति, प्रताप, यश, अर्थसिद्धि, कुलवृद्धिको पाकर, उच्चकुली, धर्म अर्थ काम मोक्षके साधक, मनुष्यों में शिरोमणिभूत होकर अष्टसद्धि नवनिधि चौदह रत्न और राजावोंके स्वामी होते हैं ।। ३२-३३ ।।
पाके तत्वज्ञान मनोरम, वे महान हैं हो जाते । सुरपति नरपति घरणीपति औ, गणधर से पूजा पाते ॥ धर्म चक्र के धारक अनुपम, मित्रो तीर्थकर होते ।
तीनों लोकोंके जीवों, शरणभूत सच्चे होते ॥ ३४ ॥ ममीचीन दृष्टिसे पदार्थोंका स्वरूप निश्चय करनेवाले सुरपति, नरपति, और गणधरोंसे पूजा पाते हैं और धर्मके चक्र के धारक सब जीवोंको शरणभूत तीर्थकर भगवान होते : ॥ ३४ ॥