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जैनवालवांधक
तथा अनादर रखना व्रतमें, हैं ये पांचों ही अतिचार | इन्हें छोड़कर व्रतको पालो, धारो उरमें धर्म विचार ॥८४॥
बिना देखे विना सोधे पूजा वगेरह वर्तनादि लेना व घसीटकर उठाना, जगह देखे बिना मल सूत्रादिका त्याग करना, विना देखे शोधे विस्तर चटाई बिछाना, उपवास में अनादर करना, और योग्य क्रियाओंको भूल जाना ये पांच मोषधोपवास नामक शिक्षा व्रत के अतीचार है ॥ ८४ ॥ वैयावृत्यका वर्णन ।
जो अनगार तपस्वी गुणनिधि, धर्म हेन उनको दे दान | प्रतिफलकी इच्छा बिन है यह, वैयावृत्य सुव्रत सुखदान ॥ गुणरागी होकर मुनिवर, चरण चापिये होय प्रसन्न | उनका खेद दूरकर दीजे, सेवा कीजे जो हो अन्य ॥
सम्यक्त्वादि गुणों के भंडार गृहरहित तपस्वियोंको धर्मके प्रर्थी प्रत्युपकारक बांछा वा अपेक्षा के विना श्राहारादि चार प्रकारका दान देना तथा उनके गुणोंमें अनुरागी हो कर संयमी जनों के पग दावने वा अन्य कष्ट दूर करने वगे. रहसे नानाप्रकारकी सेवा करना सो वैयावृत्य नामका शिक्षा - व्रत है ॥ ८५ ॥ .
दानका स्वरूप ।
-मूनारम्भ तजा है जिसने धर्म कर्म हित हर्षाकर । नवधा भक्ति भावसे ऐसे, शायका तू गौरव कर ॥