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जैनपालबोधक
उनमें एक बहुत घटिया वैदूर्यमणि रत्न था और उसकी तारीफ सुवीरने सुन रक्खी थी उसने लोभके वशीभूत होकर उस मणिको चुराना चाहा पर स्वयं तो न गया कारण कि वह जैनी था और इसका पिता वडा जिनेन्द्रभक्त था । इस वास्ते स्वयं जाना अनुचित समझ कर अपने मित्र चोरोंको बुलाया और कहा- क्या कोई ऐसा शक्तिशाली है जो वहांसे वैढूर्यमणि चुरा सके यह सुनकर सूर्य नामका चोर बोला यह तो क्या बल्कि मैं स्वर्गसे इन्द्रका मुकुट भी चुरा लासकता हूं । वस फिर क्या था वह वहांसे रवाना हो गया और छुलकके वेषको धारण करके कायक्लेश करता हुधा तामलिप्ता नगरी में पहुंचा, उसको आया हुआ सुनकर जिनेन्द्रभक्त श्रेष्ठीने वंदना की और उनके साथ कुछ मापण करके उनकी प्रशंसा करता हुआ पार्श्वनाथके मंदिर में ले गया, भगवान के दर्शन कराये। सेठजीकी श्रद्धा छुलकनी पर खूब होगई थी इसलिये एकदिन सेठजीका विचार हुआ कि छुलकनीको पार्श्वनाथ के मंदिरका रक्षक क 'पुजारी बनाकर तीर्थयात्राको चले जायें। सेठजीने सर्व वृत्तांत छुलकनी से कहा और वहां रहने की प्रार्थना की । छुल्लकजी तो ऐसा चाहते ही थे इसलिये उन्होंने सब स्वीकार कर लिया जब सेठजी घरसे निकल कर वाहिर उद्यानमें जा ठहरे तो यह पता छुल्लकजी को लग गया वह आधीरातके समय मणिको उठाकर चल दिया किंतु मणिकी कांति इतनी,