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जैनवालबोधकचस्तुतः संसारके सुख, सुख नहीं है अन्यथा मेरी उस स्त्री से ये स्त्रियां जो कि सब तरह रूप विद्या कला आदिमें चतुर हैं, धारिषेण क्यों छोडते ? इससे उसे परम वैराग्य प्राप्त हो गया और निश्चयसे तप करनेमें लग मया, वहांसे मरकर स्वर्गमें देव हुआ, उधर वारिषेण मुनिने आठ कर्मोको नाश करके सिद्धपदको प्राप्त किया।
पूर्वोक्त कथाका सारांश यही है कि अपने सच्चे धर्मसे डिगते हुयेको जैसे बने उसीमें फिर लगा देना इसीका नाम स्थिति करण अंग है जैसा कि वारिषेण मुनिने पुष्प. डालके सायकिया। इस कथाका पूर्वभाग अचौर्याणु व्रत में भी घट सकता है।
३९. श्रावकाचार चौथा भाग ।
सम्यग्ज्ञानका लक्षण । वस्तुरूपको जो वतलावे, नीके न्यूनाधिकता-हीन । ठीक ठीक जैसैका तैसा, अविपरीत संदेह विहीन ॥ गणधरादि आगमके ज्ञाता, कहते इसको सम्यग्ज्ञान | इसको प्राप्त करानेवाले, कहे चार अनुयोग महान॥ ३७॥
न्यूनाधिकता, विपरीतता और संदेहरहित जैसाका बैसा वस्तुके स्वरूपको जानना उसे गणधरादि आगमके