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तृतीय भाग ।
५६. श्रावकाचार अष्टम भाग ।
देशावकाशिक शिक्षाव्रत ।
पहिला है देशावकाशि पुनि, सामायिक, प्रोषध उपवास ।-वैयावृत्य और ये चारो शिक्षा है सुखका आवास ॥ दिaner लंबा चौड़ा स्थल, काल भेदसे कम करना । प्रतिदिन व्रत देशावकाशि सो, गृही जनों का सुख भरता ॥
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देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत हैं। दिखतमें परिमाण किये हुये विशाल देशका, कालके विभागसे प्रतिदिन त्याग करना सो गृहस्थियोंका देशावकाशिक नामा शिक्षात्रत है ॥ ७३ ॥
देशावकiशिक के क्षेत्र और कालकी मर्यादा करनेका नियम । अमुक गेह तक, अमुक गली तक, अमुक गांवतक जाऊंगा।' अमुक खेतसे अमुक नदीसे, आगे पग न बढाऊंगा || एक वर्ष छह मास मास या, पखबाडा या दिन दो चार । सीमा काल भेद सो श्रावक, इस व्रतको लेते हैं धार ॥
इस देशाकाशिक व्रतको इस प्रकार धारण करते हैं कि दशों दिशाकों में अमुक घर, अमुक गली, अमुक गांव अमुक खेत वा अमुक नदी तक जाऊंगा इससे भागे नहिं जाऊंगा इस प्रकारकी मर्यादा एक वर्ष, छहमास, प्यारमास दो मास, एक मास, एक पक्ष वा एक दो चार दिन तककी करना चाहिये ॥ ७४ ॥