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जैनघालबोधकएकल विहारी जथाजीत लिंग धारी कब, होऊ इच्छाचारी वलिहारी हों वा घरीकी ॥ २ ॥
राग और वैराग्यका अंतर । राग उदै भोगभाव लागत सुहावनेसे, विनाराग ऐसे ला- जैसे नाग कारे हैं। राग ही सौं पाग रहै तनमें सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं ।।: रागसौं जगतरीति झूठी सब सांची जान, राग मिटे सुझत असार. खेल सारे हैं। रागी विनरागीके विचारमें बडौई भेद, जैसे "भटी पच काहू काहूको वयारे" हैं ॥३॥
भोग निषेध ।
मत्तगयंद सवैया । तू नित चाहत भोग नये नर, पूरव पुन्य विना किप पै है। कर्म संजोग मिलै कहि जोग, गहै तब रोग न भोग सकै है ।। जो दिन चारको न्योत बन्यौ कहूं, तौ परि दुर्गतिमैं पछते हैं। यौं हित यार सलाह यही कि, "गई कर जाहु" निवाह न है हैं ।।
. देहका स्वरूप । माता पिता रज वीरजसौं, उपजी सव सात धात भरी है माखिनके पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ धरी है ॥
. १ नग्न मुद्राका धारक । २ भटा अर्थात् वैगन किसी २ को तो पथ्य' होते हैं और किसी २ को वादी करनेवाले हानिकर होते हैं । ३ मक्खियों के 'परकी समान पतले चमडेके वेष्टनसे. ढकी हुई ।