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तृतीय भाग। १६. दृढसूर्य चौरकी कथा ।
उज्जयनी नगरीमें राजा धनपाल राज्य करता था। उसकी रानीका नाम धनमती या । बसंवके उत्सवमें वसन्तसेनानामकी एक वेश्याने रानीके गले में एक अत्यन्त दिव्य सुंदर हार देख कर विचारा कि-"ऐसे हारके पाये विना मेरा जीवन व्यर्थ है। " और वह इसी चिंतामें अपने घर आकर पथ्यापर पड़ रही । एक दृढसूर्य नामका चौर उसका यार था। उसने रात्रिको आकर इस चिंतामें पड़ी हुई देखकर पूछा-निये क्या मुझपर नाराज हो गई हो जो इस प्रकार निरुत्साह देख पडती हो । वेश्याने कहा"नहीं प्यारे ! मैं तुम पर रुष्ट नहीं हूं। किंतु आज मैंने रानीके गलेमें एक सुंदर हार देखा था। उसके पहरे विना मेरा जीवन नहीं । चौरने कहा कुछ चिंता मत करो, मैं अभी ला देता हूं । इसप्रकार कहकर वह चौर किसी न किसी प्रकार राजमहलमें जाकर रानीके गलेसे हार उतार ले आया परन्तु उस हारकी प्रभा देखकर कोटपालने उस चौरको पकड लिया और राजाके पास ले जाने पर राजाज्ञा. से शुली पर चढा दिया । उस समय धनदच नामके. .शेठ चैत्यालयकी बन्दनाके लिये वहांसे निकले तो उन्हे.
देखकर चौरने गिडगिडा कर कहा कि-शेठ तुम बडे दयाल, ... जान पडते हो, मैं बहुत प्यासा ई, कपा करके मुझे पानी.