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तृतीय भाग। वसुविध अर्घ संजोयक, अति उछाह मन कीन ।
जासौं पूजौं परमपद , देवशास्त्र.गुरु तीन ॥ ९॥ ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
अथ जयमाला।
देव शास्त्र गुरु स्तन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न २ कहुं भारती, अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥ चउ कर्मकीत्रेसठि प्रकृति नाश । जीते अष्टादश दोष राशि जे परम सुगुण हैं नन्त धीर। कहवतके छयालिस गुण गंभीर ।। शुभ समवसरन शोभा अपार । शत इंद्र नमत कर शीस धार। देवाधिदेव परहंत देव । बन्दौं मन वच तन कर सुसेव ॥३॥ जिनकी धुनि है ओंकार रूप। निर अक्षरमय महिमा अनुप। . दश अष्ट महाभाषा समेत । लघुभाषा सात शतक सुचेत ।। सो स्यादवादमय सप्त भंग । गण धर गूथे बारह सुअंग । रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति लाय गुरु प्राचारज उवझाय साध, तन नगन रतनत्रय निधि अगाघ । संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि त शिव पद निहार ॥ गुण छत्तिस पचिस आठ चीस, भवतारन तरन जिहान ईश गुरुकी महिमा बरनीन जाय । गुरु नाम जपो मनवचन काय