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जैन बालवोधक
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोघकारविनाशनाय दीपं निर्व
पामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जो कर्म - ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसैं ।
बरधूप तासु सुगंधता करि, सकल परिमलता हँसें ॥ इह भांति धूप चढाय नित, भवज्वलन माहि नहीं पचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ७ ॥ अग्निमांहि परिमलदहन, चन्दनादि गुण लीन | जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ७ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीतिः
स्वाहा ॥ ७ ॥
लोचन सुरसना घ्रान डर, उत्साहके करतार 1 घोषै न उपमा जाय वरणी, सकलफल गुणसार हैं || सो फल चढावत अर्थपूरण, सकल अम्रतरस सचूं । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ८ ॥ जो प्रधान फल फळविषै, पंचकरण रस लीन । जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन | ८ || ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति
स्वाहा ॥ ८ ॥
जल परम उज्जल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूं । वरधूप निर्मल फल विविध, वहु जनमके पातक हरूं ॥ यह भांति अर्घ चढाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूं । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ९॥