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जैनवालबोधकवृषभसेनाकी बडी प्रशंसा करने लगे और वह प्रशंसा रूपवती के कानों तक भी पड गई । रूपवतीने गुस्सा होकर रानीसे कहा कि-माप मेरे विना पूछे ही वनारसमें दानशाला खोल बैठी। रानीने कहा-मुझे तो इस वातका पता तक भी नहीं है । उसी समय रानीने इसका निश्चय करनेके लिये बनारस को दूत भेजे और वे थोडे दिनमें लौटकर आगए । रानी के पूंछने पर उनने सत्य २ कह सुनाया कि पृथ्वीचंद्रकी रानीन अपने पतिको छुड़ाने के लिए आपको पुनः स्मरण करानेके लिए आपके नामसे दानशालायें खोल रखी हैं। रानीने उसी समय राजासे पृथ्वीचंदको छोड देनेको कहा
और राजाने वैसा ही किया । पृथ्वीचंदके बन्धनमुक्त हो जाने पर पृथ्वीचन्दको बड़ी खुशी हुई और उसने रानीका बडा उपकार माना उसीप्रकार राजाका भी। यहां तक कि राजा रानीकी एक तसवीर ऐसी वनवाई जिसमें अपने शिर को उनके पैरोंमें रखवाया और वह राजाको समर्पण करदी जिससे राजा अतिप्रसन्न हुए और पृथ्वीचन्द्रसे मेपिंगल को जीत लेनेको कहा । मेपिंगल पृथ्वीचन्दसे पहिले ही डरता था इसलिए जब उसने सुनी कि पृथ्वीचन्द छोड दिया गया है और वह मुझे पराजय करनेके लिए आरहा है तो वह इसके पहुंचनेके पहिलेही राजा उग्रसेनसे भा.मिला और नमस्कार कर आज्ञाको मानना स्वीकार किया ।, राजा उग्रसेन मेघपिंगलसे बहुत खुश हुए और