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तृतीय भाग । .
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पाप प्राणसन गुगाहि गरेवा, दोष अष्टादश रह्यो । . घरि ध्यान कर्म विनाश केवल शन अविचल जिन लो || प्रभु पंच कल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावही । त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावही ॥ १ ॥ जाके गर्भ कल्याणके, धनपति भाइयो । अवधि ज्ञानपरवान, सुइंद्र पैठाइयो । रचिनव वारह जोजन, नयैरि सुहावनी । कनक रण मणिमंडित, मंदिर अति बनी ॥ अति वनी पौरि पगार परिखा, सुवन उपवन सोहए । नर नारि सुंदर चतुर भेखसु, देख जन मन मोहए || तह जनक गृह छह मास पयमहि, रतनधारा वरसियो । पुनि रुचिंक वासिनि जैन नि सेवा, करहिं सर्वविधि हरसियो | सुर कुंजर पम कुंजर, धवल धुरंधरो । केहरि केसर शोभित, नखसिख सुंदरी ॥ कमला कलशन्दवन, दुइ दाम सुहावनी । रवि शशि मंडलमधुर मीनजुग पावनी ||
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पावनी कनकघट जुगम पूग्न, कमल कलित सरोवरो । कल्लोलमालाकुलित सागर, सिंघ पीठ मनोहरो !!
१ गुणोंसे भारी २ कुवेर ३ अवधि ज्ञान के द्वारा ४ इंद्रका भेजा हुवा ५ नगरी ६ रत्न ७ कोट प्राकार ८ साई ९ रुचिक पर्वतपर रहने वाली देवियां १० माताकी सेवा 1