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तृतीय भाग।
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४५ भूधर जैननात्युपदेशसंग्रह पांचवां भाग।
कुकविनिंदा।
मत्तगयंद । राग उदै जग अंघ भयौ, सहजै सब लोगन लाज गवाई। सीख विना नर सीख रहे, विपयादिक सेवनकी सुषगई ।। तापेर और रचें रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असझनकी अखियानमें, झोंकत हैं रज राम दुहाई ॥ कंचन कुंभनकी उपमा कहिदेत, उरोजनको कवि वारे । ऊपर श्यामविलोकतकै, मनिनीलमकी ढकनी हँकि छारे ।। यौं सतवैन कहै न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे। साधन झार दई मुख छार, भये यहि हेत किधौं कुच कारे ।। ए विधि भूलभई तुमतें, समुझे न कहा कस्तुरि वनाई । दीन कुरंगनके तनमें, उन दंत धरै करुना किन भाई॥ क्यों न करी तिन जीभन जे, रसकाव्य करें परको दुखदाई। साधु अनुग्रह दुर्जन दंड, दोऊ सधते विसरी चतुराई॥ १ विसनादिक सेवनकी' तथा 'वनिता सुख सेवनकी ऐसा भी पाठ है २ तापर रीझिरचे रसकाव्य, बडे निरदै कुमती कवि माई । ऐसा भी पाठ है। ३ मेलत है, ऐसा भी पाठ है। ४ बालक-मूर्ख ५ मांसके लोदे ६ मृगों के शरीर में कस्तूरी बनाई सो यही भूल की ५ परको दुखदायक रसकी कविता करनेवाले कवियोंकी लोभोंमें कस्तूरी बनाते, तो अच्छा होता क्योंकि