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जैनवालबोधकमुनिका भेष छोडकर प्रगट हुवा और राजाको प्रशंसा कर , के बोला कि तुम सचमुच ही सम्यग्दृष्टि हो, इन्द्रने तुमारे निर्विचिकित्सा अंगकी बडी भारी प्रशंसा की थी सो मैं परीक्षाके लिये यहां आया तो जैसी प्रशंसा यी वैसाही पाया इस मेरे अपराधको क्षमा करें जो आपको कष्ट दिया ऐसा कहकर स्वर्गको चला गया।
३३. श्रावकाचार तीसरा भाग।
सम्यग्दर्शनकी महिमादि।
999966€ सम्यग्दर्शनकी शुभ सम्पद्, होती है जिनके भीतर । मातंगज हो कोई भी हो, महामान्य हैं वे बुधवर ॥ गुदडीके वे लाल सुहाने, ढंकी भस्मकी है आगी। सम्यग्दर्शनकी पहिमासे, कह देव ये बहभागी ॥२५॥
सम्यग्दर्शनरूपी संपदा जिसमें हो वह चाहे चांडाल हो चाहे कोई भी हो, वह भस्मसे ढकी हुई अग्निके समान या गुदडीके लालकी तरह देवकी समान उत्तम माना गया है ।
सुंदर धर्माचरण कियेसे, कुत्ता भी सुर हो जाता। पापाचरण कियेसे त्योंही, श्वानयोनि सुर भी पाता ॥ ऐसी कोई नहीं संपदा, जो न धर्मसे मिलती है। सब मिलती है, सब मिलती है, सब मिलती है मिलती है।
इसका अर्थ सीधा है विद्यार्थी स्वयं कह सकते हैं।