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तृतीय भागा. उस मुनिकी देहमें गलिन कुष्टका वडा भारी रोग या, उसकी वेदनासे पैर इधर उधर पड रहे थे, सारे शरीर पर मविश्वयं भिनभिना रही थीं समस्त शरीर विकृत हो रहा या
और उसमें दुर्गंधकी लपटें भा रही थीं वह देव अपने मुनिपणेकी ऐसी बुरी हालत दिखाते हुए प्रदायनके दरवाजे पर पहुंचा तो राजा, मुनि पर अपनी दृष्टि पडते ही सिंहासनसे उठकर आये और नवधा भक्तिसे उन्होंने उप मायावी मुनि को भाजनार्थ पडगाहा । तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक मासुक आहार कराया । आहार कराके निवृत्त होते ही उस मुनिने मायासे चडी भारी दुर्गधयुक्त वमन (उलटी) कर दी । उमकी दुर्गयसे घवडाकर अन्य समस्त मनुष्य वहांसे माग गये । परतु राजा.और रानी मुनिकी संभाल करते रह गये। रानी मुनिका अंग कपडेसे पोंछ रही थी कि कपटी मुनिने उस विचारी पर और भी बढी भारी दुर्गवमय वमन कर डाली । गजा रानी कुछ भी ग्लानि नहि करके उल्टा पश्चात्ताप करने लगे कि-हाय ! हमने मुनि महाराजको प्रकृतिविरुद्ध भोजन दे दिया जिससे मुनिराजको इतना कष्ट उठाना रडा! हम लोग बडे पापी है जो ऐसे उत्तम पात्रको हमारे घर निरंतराय आहार नहि हुमा । इस प्रकार अपनी निंदा करके अपने प्रमादपर बहुन ही खेद उन राजा रानीने अगर किया और प्राशुक जलसे सत्र शरीर पोंछकर साफ कर दिया । राजाकी ऐसी भक्ति देख वह देव