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________________ जैन पलोधक. अपनी स्वीके सिवाय अन्य खीसे न तो भाप में और न दुसरंको गमन करावे, उमको परस्त्रीशग वारसदारसंतोष नामा अणुव्रत कहते हैं। मंडववन कहना, अपनी न्त्रीमें भी अधिकतम्गा रखना, व्यमिवारिणी स्त्रियोंसे संबंध रखना, अनंगक्रीडा काना, और दूसरोकी मगाई न्याह कराना, ये पांच इसबनके अतीचार है इस शीटपूर्वक पालनेमें शेठकी पुत्री नीली, और परस्त्री सेवन पापमें यमपाल नामा कोतवाल प्रसिद्ध हुवा है । ५२-५३ ।। परमह परिमाण अनुद: . आवश्यक धन धान्पादिकका, अरने पनमें करि परिमाण । ससे भान नही चाहना, साई इच्छापरिमाग ।। अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोप,लादना अतिशय पार। इसवतके बोले जाते हैं, पित्रो ये पांचों अतिवार ।। १४ ॥ दोहा-भूमि, यान वन वन्य गृह, मानन कुष्य अपार । शयनासन, चौपंद दुपैर, परिग्रह दव परकार ॥१॥ . इन दन्न प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके शेषको छोटेदना सो परिषद परिमाण नापका असुव्रत है। विरा जलतके बहुवसे वाहन रखने, वा बहुतसी वस्तुयें संग्रह करना, दुसरका एस्वर्य देवकर प्रारी करना; अति लोम करना, और पशुवार. अविशय मार लादना ये पांच इस बनके अतीवार है:।। ५४॥ .
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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