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तृतीय भाग। यौँ पैन दोइ विगोइ दयो नर, डारत क्यों नरकै निज जीको । पाये हैं सेत अनौं शठ चेत, 'गई सोगई अव राखि रहीको' ॥२॥
कवित्त मनहर। सारनर देह सब कारजको जोग येह, यह तौ विख्यात वात वेदनमें बचे है । तामें तरुणाई धर्मसेवनको समै भाई, सेये तब विषै जैसे माखी मधु रचै है ।। मोहमंदभोये धनरामा हितरोज रोये, योही दिन खोये खाय को दौं जिममचै है। .अरे सुन चौरे अब आये शील धोरे अजौं, सावधान होरे नर नरकसौं वर्षे है ॥३॥
मच गयंद सवैया। वायलगी कि वलाय लगी, मदमत्त भयौ नर भूलत त्यौही । बुद्ध भये न भजे भगवान, विषविषखात अपात न क्योंही ।। सीस भयो बगुलाप्सम सेत' रह्यो उर अंतर श्याम अनौही मानुषभो मुक्ताफलहार, गवार तगाँहित तौरत योंही ॥४॥ दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि, वक भई मति लेक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयो पत्यिक लई है ।।
६ वालकपन और जवानीपन ये दो अवस्थायें । ७ नरकमें । ८ मोहरूपी मदमें मन हुये । ९ कोदों धान जिसप्रकार खेतमें वडकर सघन हो जाता है उसीप्रकार मदोन्मत्त हो जाता है । १० सफेदवाला । ११ वात-. जन्य पागलपन । १२ भूतप्रेतकी वाधा । १३ सूतके धागेके लिये।
१ वांको-कहीं परपर रखै कहीं पर पड़ता है २ कमर । ३ झुक गई है: वा टेडी पड गई है । ४ व्याही हुई घरवाली । ५ पलंग-चारपाई...