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जैनवालबोधकमेरे अवगुन न चितारो । प्रभु अपनो विरद निहारो। सबदोषरहित कर स्वामी। दुख मेटहु अन्तरजामी ॥ ३२ ॥ इन्द्रादिक पदवी'न चाहूं। विषयनिमें नाहि लुभाऊं। रागादिक दोष हरीजे। परमातम निज पद दीजे ॥३३॥
दोहा। दोषरहित जिनदेवजी, निजपद दीज्यो मोहि । सव जीवनके सुख वढे, आनंद मंगल होय ।। ३४ ।। अनुभव माणिक पारखी, जौहरी श्राप जिनन्द । ये ही वर मोहि दीजियो, चरन शरन आनन्द ॥३॥
१९. पांच इंद्रियें।
स्पर्शन ( त्वक ) रसना (जिहा) वाणा (नासिका) चक्षु ( नेत्र ) श्रोत्र (कर्ण) ये पांच इंद्रिय हैं । इन इंद्रियों के द्वारा ही हमको सर्व प्रकारका ज्ञान होता है इस कारण इनको ज्ञानेंद्रिय भी कहते हैं। हमारे शरीरमें ये इंद्रिय नहि होती तो हम किसी भी विषयको नहिं जान सकते इस कारण ये इन्द्रिये हमको बहुत उपकारी हैं।
स्पर्शन- स्पर्शन शरीरके चमडेको कहते हैं इस इन्द्रिय का विषय स्पर्श करना (छूना ) है अर्थात् स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा शीत, उष्ण, हलका, भारी, चिकना, रूखा,