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बोर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगबोर') कि.१
जनवरी-मा
इस अंक में
विषय १. ऐसा मोहीमयों न अधोगति जाये २. प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी बहिन्यत्र
-ना. रमेशचन्द्र जैन, विवनौर ३. श्वेताम्बर बागम और विनम्बरत्य
-अस्टिस एम. एल.जैन ४. पार लिपियों की सुरक्षा आवश्यक
-डा. ऋषभचन्द फौजदार ५. प्राकृत एवं अपनी भाषा में सुलोचना चरित्र
-श्रीमती बल्पना जैन १. दुबकुणकी जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला
-श्री नरेश कुमार पाठक ७. प्रवचनसार में वर्णित परित्र-चित्रण
-कु.शकुन्तला बैन ८. अष्टपार की प्राचीन टीकाएँ
-डा. महेम कुमार जैन 'मनुज' १.गोम्मटसार कर्मकाण्डका बुधि-पत्र । -पं. जवाहरलाल मोतीलासन, भीमर १०.कविता-श्री मिश्रीबाल जैन ११. कविता-मानसिंह
र सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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गाथा तिमिर हरा जइ विट्ठो जणस्स दीवेण गस्थि कायग्वं । तह सोक्खं सयमादा विषया कि तत्थ कुम्वति ॥६७॥
काव्य तिमिर विनाशक हो यदि दृष्टि, दीपक का क्या करना ?
तू अनन्त की दीप शिखा है, बुझने से क्या डरना ? तिमिर खोजने पर न मिलेगा, यदि तू सम्यक विट्रो ।
तिमिर हरा जइ दिट्ठी ॥ तरस रहे बट-वक्ष छांह को, किससे मांगे छाया ।
बदरी नीर बिना घिर आई, मन पंछी है प्यासा ।
सरिताओं के सूखे आंचल, तल की दिख रही मिट्टी।
तिमिर हरा जइ विट्ठी।। काया के मन्दिर में आकर, अगर अमर है ठहरा ।
बाहर देखो घात लगाये, मरण दे रहा पहरा।
अपनी ही अर्थी को कांधा, देता मिथ्या विट्ठी । तिमिर हरा जइ दिट्ठी ॥
-मिश्रीलाल जैन, गुना
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5.
A
MITHIR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकसनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ४६ किरण १
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०५०
जनवरी-मार्च
१९६३
ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावं? ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे,
जाको जिनवाणो न सुहावै ॥ वीतराग सो देव छोड़ कर, देव-कुवेव मनावे । कल्पलता, दयालता तजि, हिंसा इन्द्रासन बावं ॥ऐसा०॥ रचे न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, परिग्रही गुरु भाव। पर-धन पर-तिय को अभिलाष, अशन अशोधित खावै ॥ऐसा०॥ पर को विभव देख दुख होई, पर दुख हरख लहा। धर्म हेतु एक वाम न खरच, उपवन लक्ष बहावै ॥ऐसा॥ ज्यों गृह में संचे बहु अंघ, त्यों बन हू में उपजावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ॥ऐसा०॥ भारंभ तज शठ यंत्र-मंत्र करि जमपं पूज्य कहा। धाम-वाम तज दासी राखे, बाहर मढ़ो बनावै ॥ऐसा०॥
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प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी-अहिच्छत्र
0 डॉ. रमेश चन्द्र जैन माम और स्थिति :
परगना तथा आंवला तहसील के ग्राम रामनगर से बाहर अहिच्छत्र या अहिच्छत्रा उत्तर पचाल को राजधानी है। उत्तर पंचाल का राज्य साहित्य मे अहिच्छत्र विजय थी। भागीरथी नदी उत्तरएवं दक्षिण पचालके मध्य विभा- के नाम से निर्दिष्ट किया जाता रहा। कुछ शताब्दियो जक रेखा थी। वैदिक ग्रन्थों मे इस देश का एक पूर्वी एवं पूर्व मुसलमानों के प्रादुर्भाव से वह क्षेत्र जो गगा के उत्तर पश्चिमी भाग बताया गया है। पतंजलि ने अपने महा. तथा अवध के पश्चिम में था कठेर नाम से कहलाया। भाष्य में इसका उल्लेख किया है। योगिनी तन्त्र में यह नाम अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक चलता रहा इसका वर्णन आता है। दिव्यावदान के अनुसार उत्तर जब तक कि इसका पुराना नाम रुहेलखंड नही हो गया। पंचाल की राजधानी हस्तिनापुर थी किन्तु कुम्भकार
प्राचीनकाल में यहां वे लोग रहते थे तो जिनके वंशज जातक मे कम्पिलापुर को इसकी राजधानी बतलाया आज आदिवासिया के रूप में रहत है। य जातिमाहगया है।
भील, बिहार, भुइहार, भार, अहार तथा अहीर । स्थानीय अहिच्छत्र टालेमी के यूनानी अदिसन के अधिक
परम्परायें अहिच्छत्र को अनार्य नागों से जोड़ती हैं। समीप है । इसे छत्रपती भी कहा जाता था। आषाढसेन के बलाई खेडा तथा परसुवा कोट का सम्बन्ध असुर राजा पभोसा गुहालेख मे जो लगभग ई. सन के आरम्भ का है. बलि से था। अहिच्छत्रा के पास एक ग्राम 'सोनसबा' है अधिछत्र नाम प्राप्त होता है। अर्जुन ने युद्ध में दुपद को जो स्याणश्रवा यक्ष की नगरी थी। इस यक्ष ने राजकन्या पराजित करने के पश्चात् अहिच्छा और कांपिल्य नगरों शिखण्डिनी को पुंस्त्व प्रदान किया था। यहां से कुछ पूर्व को द्रोण को दे दिया था। दोनो नगरों को स्वीकार कर 'पलावन' गांव है यह प्रसिद्ध 'उत्पलावन था यहां विश्वाविजेताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने काम्पित्य को पूनः द्रपद को मित्र कोशिक ने शक के साथ यज्ञ किया था। वापस लौटा दिया था।
वैदिक साहित्य मे अहिच्छत्र का प्राचीन नाम विविध तीर्थकल्प के अनुसार इसका प्राचीन नाम परिचका मिलता है सम्भवता उस समय इस नगर का संख्यावती था। यह कुरुजांगल देश की राजधानी थी। आकार चक्राकार या गोल रहा हो ऐसा प्रतीत होता है भगवान पार्श्वनाथ इस नगर मे परिभ्रमण करते थे। कि कालान्तर मे परिचका के स्थान पर इस नगर का पार्श्वनाथ के पूर्व जन्म के शत्रु कमठासुर ने सम्पूर्ण पृथ्वो नाम अहिच्छत्रा प्रसिद्ध हो गया जिस जनपद या राज्य को आप्लावित करने वाली अबाध वर्षा करायी थी। की यह राजधानी थी, उसके प्राचीन नाम पचाल और पाश्वनाथ आकण्ठ जल मे डूब गये थे। उसकी रक्षा करने अहिच्छत्रा दोनो मिलते हैं। अहिच्छत्रा नगर के ध्वसाव. के लिए स्थानीय नागराज अपनी पत्नियों के साथ वहां शेष उत्तर प्रदेश के बरेली में रामनगर गांव के समीप आ गये। उनके सिर पर अपना सहस्र फण फैलाया और टीलो के रूप में विखरे पड़े है वहां तक पहुंचने के लिए उनके शरीर को चारो ओर कुण्डली मारकर लपेट लिया। बरेली से आंवला नामक रेलवे स्टेशन जाना होता है। इसीलिए इस नगर का नाम अहिच्छत्र पड़ा। मित्र पडा।
आंवला से कच्ची सड़क के रास्ते लगभग १० मील उत्तर अहिच्छत्रा प्राचीन भारत की एक प्रमुख नगरी थी। अहिच्छत्रा है। इस पुरानी नगरी मे ढह कई मील के इसकी पहिचान उन खंडहरो से हुई है जो कि सिरोली विस्तार में फैले हैं। रामनगर से लगभग डेढ़ मील आगे
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प्राचीन भारतको प्रसिद्ध नगरी---अहिच्छत्र
अहिच्छत्रा के पुराने किले के अवशेष हैं जो आजकल था। यह यक्ष प्रतिमा राज्य संग्रहालय लखनऊ में सुरक्षित आदिकोट के नाम से प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र के विषय मे है। जनश्रुति है कि उसे आदि नाम राजा ने बनवाया था। कनिंघम अहिच्छत्र नाम ही ठीक मानते हैं क्योंकि कहा जाता है कि यह राजा अहीर था। एक दिन वह सर्प द्वारा फणो से किसी के सिर की रक्षा किये जाने की किले की भूमि पर सोया हुआ था और उसके उपर एक मान्यता जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण अनुश्रुतियों से स्पष्ट है। नाग ने छाया कर दी थी। पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य ने ऐतिहासिक काल में अहिच्छत्रा नाम अधिक प्रचलित हो उसे इस प्रकार की अवस्था मे देखकर भविष्यवाणी की गया । अहिच्छत्र जिस जनपद की राजधानी थी, उसका कि वह किसी दिन उस प्रदेश का राजा बनेगा। कहते हैं नाम महाभारत मे एक स्थान पर अहिच्छत्र विषय भी कि वह भविष्यवाणी सच निकली, टालमी ने इस स्थान मिलता हैको आदि राजा कहा है। इसका अर्थ यह है कि आदि अहिच्छत्रं च विषयं द्रोणः समाभिपद्यत । सम्बन्धी कथा ई. पूर्व के प्रारम्भ जितनी पुरानी हैं। एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरी जनपदा युता ॥ इस कोट के वर्तमान घेरे की लम्बाई करीब ३ मील है।
(आदिपर्व १३८/७६) कोट के चारो तरफ एक चौड़ी खाई (परिखा) थी, विदेशी यात्रियों की दृष्टि में अहिच्छवा जिसमें पानी भरा रहता था। यह खाई अब भी दिखाई अहिच्छत्रा के गुण गौरव की गाथा सुनकर अनेक पडती है। कोट के अतिरिक्त अनेक पुराने टीले अब भी विदेशी यात्रियों ने इसका परिभ्रमण किया तथा अनेकों रामनगर के आस-पास फैले हुए है। ये टीले प्राचीन ने इसके विषय में अपने यात्रा संस्मरण लिखे। यवान. स्तों, मन्दिरो तथा अन्य इमारतो के सूचक हैं। च्याङ् ने यहां लोगो को शैक्षिक प्रवृत्ति का तथा ईमानदार
परवर्ती साहित्य तथा अभिलेखो में अहिच्छत्रा के कई पाया। उसके अनुसार बौद्धों की हीनयान शाखा के एक नाम मिलते हैं। महाभारत मे छत्रवती और अहिक्षेत्र, हजार से अधिक सम्मतीय भिक्षु अहिच्छत्रा में रहते थे। पर नाम मिलते है। हरिवंश पुराण तथा पाणिनी को उनके दस से अधिक बिहार थे। देव मन्दिरों की संख्या
मायायो मे 'अहिक्षेत्र' अहिच्छत्र आदि रूप पाये जाते थी तथा पाशुपत शंव संख्या मे तीन सौ से अधिक थे। है। रामनगर तथा उसके आस-पास खुदाई से प्राप्त कई यूवानच्यांङः के अनुसार इस देश की परिधि ३०० ली अभिलेखों मे अधिच्छत्र नाम आया है और इसी रूप मे थी तथा इसकी राजधानी की परिघि १७ या १६ ली यह शब्द इलाहाबाद जिले के पभोसा नामक स्थान की थी। गुफा में भी खुदा है। पभोसा का पहला लेख इस प्रकार
हृनयांग (१३५ ई०) ने इसका नाम अहिच्छत्र (अहि
चिता लो) लिखा है । ह्वेनसांग के कथनानुसार यहां एक अधिछत्र राजो शोनकायन पुत्रस्य बंगापालस्य । यह नागहृद था, जिसके समीप बुद्ध ने नाग राजा को सात दिन लेख शंग कालीन (ई०पू०२री शती) का है। अहिच्छत्रा तक उपदेश दिया था। इस स्थान पर अशोक ने एक स्तूप की खदाई में गुप्तकालीन मिट्टी की एक सुन्दर मुहर बनवा कर चिह्नित किया था। इस समय जो एक स्तूप निकली थी जिसमें श्री अहिच्छत्रा मुक्तो कुमारमात्याधि- अवशिष्ट है, उसे छत्र कहा जाता है। इससे यह अनुमान करणस्य (अहिच्छत्रा संभाग के कुमार मात्य के कार्यालय होता है कि यह उस पुराकथा से सम्बन्धित है, जिसमें की मोहर) लेख लिखा है। १९५१ के अन्त मे प्रो० कहा गया है कि बुद्ध के धर्म में दीक्षित होने के बाद वहां कृष्णदत्त बाजपेयी को रामनगर से एक अभिलिखित यक्ष के नाग राजा ने बुद्ध के ऊपर फण फैलाया। इसी प्रकार प्रतिमा प्राण्त हुई। इस पर दूसरी शती का लेख खुदा है, की कहानी बोध गया के विषय में कही जाती है, जहां जिसमें अहिछत्रा नाम ही मिलता है। इन दोनों पिछले नागराज मुलिन्द ने फण फलाकर बुद्ध के ऊपर पड़ती अभिलेखों से स्पष्ट है कि नगर का शुद्ध नाम अहिच्छत्रा हई वर्षा के पानी की बौछारों को दूर किया था। मार
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४.
५ कि.१
अनेकान्त
ने इन्हें बुद्ध के ऊपर छोड़ा था। इस प्रकार अहिच्छत्रा से ह्वेनसांग ने इस स्थान के किसी राजा का उल्लेख उक्त कहानी का सम्बन्ध सारपूर्ण नहीं ठहरा है। कैन- नहीं किया है, क्योंकि उसे पता था कि यह राजा हर्ष के सांग के अनुसार अहिच्छत्र जिस देश में था, उस देश का सीधे नियन्त्रण में एक मुक्ति था। इस समय इस क्षेत्र में शेरा ३००.ली (लगभग ९६० किलोमीटर) से अधिक बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा था तथा शैव सम्प्रदाय था। अहिच्छत्र नगरी का घेरा १७ या १८ ली अर्थात् ३ समद्धि की ओर था तथा तेजी से उन्नति कर रहा था, मोरया तथा प्राकृतिक प्रवरोधों से इसकी रक्षा की गई जब कि जैनधर्म की अपनी स्थिति सदढ थी। थी। यहाँ १२ मठ थे, जहां १००० बौद्ध भिक्षु रहते थे।
टालमी (ण० ई.) ने कनागोरा (कान्यकुब्ज) के ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी १ मन्दिर थे।
साथ सम्भलक (सम्भल), अदिसत (अहिच्छत्रा) तथा ___ यहां ईश्वरदेव या शिव के ३०० उपासक थे। ये
सागल नगरियों का उल्लेख अपनी कृति कलाडियस के अपने, अग पर राख लगाये रहते थे। नागहृद् के समीप
भूगोल मे किया है। वर्ती स्तूप के निकट चार छोटे बोट स्तूप थे। ये चार
पतंजलि का उल्लेख पूर्ववर्ती बुद्धों के ठहरने अथवा भ्रमण करने के स्थान पर बने थे। प्राचीन अहिच्छत्रा का आकार तथा उसकी
यदिच्छता का आकार तथा उसकी प्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (लगभग १५० ई. ) विशिष्ट स्थिति हुनसांग के वर्णन के अनुसार ठीक-ठीक ने अहिच्छत्र में जन्मी स्त्री को अहिच्छत्री तथा कान्यकुब्ज मिलती है। याजकल जो कोट की दीवारें स्थित हैं व मे जन्मी स्त्री को कान्यकुब्जी कहा है। ३.५ मील के घेरे मे है। घेरे को त्रिभुजाकार वरिणत
अभिलेखों में अहिच्छता किया जा सकता है। पश्चिमी किनारा ५६०० फीट
पभोसा गुहालेख से हमे ज्ञात होता है कि अहिछत्र लम्बा है उत्तरी ६४०० फीट तथा दक्षिणी पूर्वी किनारा
पर सोनकायनि राज्य करता था। समुद्रगुप्त के प्रयाग ७४०० फीट है। किले की अवस्थिति रामगगा तथा
स्तम्भ लेख में अच्युत नामक एक शक्तिशाली राजा का गौधन नदी के मध्य है। इन दोनों को पार करना कठिन
उल्लेख है, जिसकी मुद्राय अहिच्छत्र से प्राप्त हुई है। है, क्योंकि पहली बहुत अधिक रेतीली है तथा दूसरी मे
पभोसा गुहा अभिलेखो में यह तथ्य उल्लिखित है कि बड़े-बड़े खरे हैं। उत्तर और पूर्व में दोनों प्रायः अगम्य
कौशाम्बी के समीप स्थित पभोसा की दो गुफायें अहिच्छत्र प्रिया नाला से विभाजित हैं। प्रिया नाला मे दुर्गम खड
देश पर नरेश आषाढसेन ने काश्यपीय अहितों को समर्पित 1. किनारा बहुत ढलावदार है तथा बहुत सारे गहरे छोटे- की थी। इन गुहाओ मे से एक में दानी नरेश आषाढ़सेन छोटे तालाब हैं। पहियेदार वाहनों का इस पर चलना को राजा बहस्पति मित्र का मामा बतलाया गया। दूसरे असम्भवस कारण बरेली को जाने वाला रास्ता, जो अभिलेख में राजाओं की चार पीढ़ियों का उल्लेख है, कि मील है. बैलगाड़ी से २६ मील से कम नही है। जिसका प्रारम्भ शोनकायन से होता है"। भोसा के अन्य पथा मे लखनौर से उत्तर दक्षिण का रास्ता अगम्य है। शिलालेख में उदाक के समय अहिच्छता का नाम उल्लिलखनौर कटेहरिया राजपूत की प्राचीन राजधानी थी। खित हुआ है। शिलालेख की लिपि (प्रथम शताब्दी ई. सयकार द्वेनसांग का यह वर्णन कि यह स्थान प्राकृतिक पू.की) ब्राह्मी है। इलाहाबाद स्तम्भ लेख में आर्यावर्त अबरोधों से सुरक्षित है, सार्थक है । अहिच्छत्रा आंवला से के दूसरे राजाओं के साथ अच्युत का निर्देश है। जना की और केवल ७ मील, किन्तु मार्ग का आधा अहिच्छत्रा मे ब्राह्मी लिपि में मिश्रित संस्कृत में भाधन नदी के खड़ों के कारण विभाजित है । आवला लिखा गया दो पंक्तियों का अभिलेख प्राप्त हबा है।
जनर के जंगलों के ही कारण कटेहरिया राजपूतों ने जिसका काल दूसरी शताब्दी ई. निर्धारित किया गया फीरोज तुगलक के अधीन मुसलमानो को आने से रोक है । अहिच्छत्रा के फरागुल विहार में धर्मघोष के दान का दिया था।
उल्लेख यहां प्राप्त हुआ है। यह चतुर्भज के बाकार की
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प्राचीन भारत की प्रसिडमगरी-अहिच्छत्र
चौकी पर अग्रिम भाग पर उत्कीर्ण है। यह चौकी लाल टकसाली नगर था। यहां पर एक मिट्टी की मोहर (सील) रेतीली पत्थर से बनी है। तथा उसके निचले भाग पर मिली है, जिस पर यह अभिलेख है कि यह अहिच्छत्रा विचित्र यक्ष की मुद्रा बनाई गई है। चौकी सम्भवत. मठ भक्ति के कुमारामात्य के कार्यालय निर्मित हुई थी। के स्नान घर में प्रयुक्त की जाती थी। कुछ मायनो मे उपाधि यह सूचित करती है कि यह बड़ा अधिकारी भक्ति इसकी उपलब्धि अपूर्व है। यक्ष की मुद्रा से अङ्कित यह का राज्यपाल था तथा राजकुमार के पद के बराबर सबसे प्राचीन प्रस्तरपट्ट है। यह इस ओर एक नये बौद्ध उसका पद था इसी काल का एक अन्य शिलालेख दिस. मठ फरागुल विहार पर प्रकाश डालती है। इस पर सबसे वारी गांव से प्राप्त हुआ है। अहिच्छत्रा किले से यह पहले सही नाम अहिच्छत्र अङ्कित है कांतरिखेरा टीले से गांव साढ़े चार मील दक्षिण में है। इसके अतिरिक्त एक जैन मन्दिर के खंडहर प्राप्त हुए है। यह मन्दिर कुषाण- अन्य गुप्तकाल का शिलालेख पार्श्वनाथ जैन मन्दिर (जो काल का है तथा पार्श्वनाथ का है। इसमें पार्श्वनाथ और कि कोटरी खेड़ा की ओर है) के मध्य से प्राप्त हुआ है। नेमिनाथ की मूर्तियां भी सम्मिलित है तथा इन पर लेख देवल से एक उल्लेखनीय प्रस्तर स्तम्भ प्राप्त हुआ भी अङ्कित हैं, जो १६ से १५२ ई. के है। उत्तर की है। देवल का आधुनिक नाम देवरिया है, जो कि पहले ओर एक छोटा जैन मन्दिर प्राप्त हुआ है तथा पूर्व की बरेली जिले मे था, आजकल पीलीभीत मे है । यह कुटिल ओर इंटो से निर्मित एक स्तूप भी प्राप्त हुआ है। मंसूर लिपि मे अच्नी संस्कृत में लिखा हुआ है तथा सवत् के पश्चिमी गंग क्षेत्र मे एक राज्य स्थापित हुआ था। १०४८ (९९२ ई.) का है इसमें उस समय वहां राज्य जिसका काल लगभग दूसरी शताब्दी ई० का अन्त और कर रहे शक्तिशाशी राज्यवश का उल्लेख है। उसमें तीसरी का प्रारम्भ है। इसकी स्थापना मे एक जैन गुरु लल्ला नामक एक राजा का उल्लेख है, जिसने कि यह ने उत्तर के दो राजकुमारो द्वारा सहयोग दिया था। ये अभिलेख मन्दिर पर खुदवाया, इसकी रानी ने उस मन्दिर राजकूमार अहिच्छत्रा के राजा के थे, जिन्हें उनके पिता को बनवाया था। वह छिन्द वश के वीरवर्मा की चौथी ने सुरक्षा हेतु दक्षिण भेजा था। जबकि उनके राज्य पर पीढी का था। महर्षि च्यवन इसी वंश के थे। छिन्दु से एक भयंकर शत्रु न आक्रमण किया था। कुषाण काल के तात्पर्य कुछ लोग चन्द्रवश लगाते हैं। कुछ इसे चेरम से कुछ ब्राह्मण मन्दिर भी प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार उस जोड़ते है। कुछ इसका सम्बन्ध चन्देलो से कहते हैं तथा काल में यह नगर तोनों धर्मों का केन्द्र था।
दूसरे लोग इसका सम्बन्ध बच्छल से जोडते हैं । यह अभिइलाहाबाद के प्रस्तर स्तम्भ शिला लेख के अनुसार लेख उस समय की समुन्नत संस्कृति और सभ्यता का समुद्रगुप्त राजा ने अपना पहला युद्ध कार्य आर्यावर्त में प्रमाण है। यह सस्कृति स्थानीय हो सकती है। इसके प्रारम्भ किया और इनकी शुरुआत पडोस के अच्युत तथा केन्द्र देवरिया तथा अहिच्छत्रा रहे होगे, किन्तु इसका भार नागसेन के या अच्युतनन्दि की पहचान अहिच्छत्रा के एक
अपेक्षाकृत कम परिष्कृत लोगों पर आ गया। छिन्दु राजतांबे के सिक्के में अकित अच्यु से की गई है। इस सिक्के कुमार स्वयं कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारो के अधीन रहे के दूसरे ओर चक्र अकित है। ऐमा विश्वास किया जाता होगे। है कि इस राजा ने ३३५ ई० से ३५० ई. के मध्य यद्यपि यहां शासन की कोई पीठ नहीं थी, फिर भी शासन किया था तथा सम्भवत: मथुरा पर राज्य करने अहिच्छत्रा एक सांस्कृतिक नगरी के रूप में कल फल रही वाले नागों के पूर्वज की एक शाखा के ही वशज थे, जिसके थी, जैसा कि एक दीवाल पर बने हुए दो सुन्दर सिरों की बाद यह भाग गुप्त राज्य का एक भाग बन गया तथा नक्काशी से प्रमाणित है, एक खण्डित शिलालेख भी है. १५०० तक इसकी यही स्थिति रही। अहिच्छत्रा, जो संवत् १०६० (१००४ ई०पू०) का है, यद्यपि यह (अहिच्छत्रा भुक्ति) एक प्रान्त के बराबर का प्रशासकीय पूरी तरह से अभी स्पष्ट नही हुआ है। यह अहिच्छत्रा भाग का मुख्यालय बनाया गया था और सम्भवतः यह की बड़ी नगरी के रूप मे अन्तिम सात तिधि है तथा इस
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६. वर्ष ४६, कि० १
अनेकान्त क्षेत्र की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है बाद मे यह उनका काल २०० ई० पू० से ३५० ई. तक का निर्धारित नष्ट भ्रष्ट हो गई। नष्ट होने का कारण अज्ञात है। किया गया है। इन सिक्को से यह प्रकट है कि कम से
पंचाल जनपद एवं अहिच्छत्रा से प्राप्त सिक्के तथा कम २७ राजाओ ने इस क्षेत्र पर स्वतत्र रूप से राज्य उनसे प्राप्त जानकारी :--
किया। इन सबकी राजधानी अहिच्छत्रा थी। ये सब अहिच्छत्रा से अच्युत नाम के राजा के सिक्के प्राप्त शासक एक ही राजवंश के नहीं अपितु अनेक राजवंशों के हुए हैं। अहिच्छत्रा से तृतीय शताब्दी ई. के भी कुछ प्रतीत होते हैं, जो कि एक दूसरे के बाद बिना किसी सिक्के प्राप्त हुए हैं। शोलदित्य प्रतापशीला राजा के व्यवधान के समृद्ध होते रहे। इन राजवंशों की कालसिक्के भी भिटौरा (फैजाबाद), अयोध्या के पास अहि- गणना तथा प्रत्येक राजवंश के राजाओं की संख्या निश्चित च्छत्रा प्राप्त हुए है"। अहिच्छत्रा से एक तांबे का सिक्का नही है । ये स्थानीय शासक या राजवंश पंचाल या पंचाल प्राप्त हुआ है, जिसे कनिघम ने "क्वाइन्स आफ मेडिकल राजा के नाम से विश्रुत हुए। उन्होने अपने नाम के सिक्के इंडिया" में प्रकाशित कराया था। इसका वजन ५ ग्रेन चलाये और कभी-कभी राजकीय उपाधियां धारण की। तथा आकार ६ इच है। इस पर पादपीठ पर पूर्ण कुम्भ वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मगध के शुंगों (१८५-७२ दृष्टिगोचर होता है। सिक्के के दूसरी ओर (श्री) महार ई०पू०) सम्बन्धित थे या नहीं, इस विषय मे भिन्न(ज) (ह)रिगुप्तस्य पढ़ा गया है। फलन, जिसने इसे मत हैं। कुछ विद्वानो के अनुसार वे निश्चित रूप से शंगों केटलाग आफ द क्वाइन्स आफ डाइनेस्टीज के अन्तर्गत ही के अधीन थे या शुंगो की ही शाखा के थे तथा प्रकाशित किया था, के अनुसार इसकी लिखावट अस्पस्ट शंगों के राज्यपाल के रूप मे कुछ दशक तक कार्य करते है, केवल 'गुप्तस्य' पाठ स्पष्ट है एलन ने सिक्के को रहे । अन्य लोगों के अनुसार इस अनुमान का कोई आधार जारी करने वाले राजा के नाम को बतलाने मे अपनी नही है। उनके अनुसार शुगों एवं अहिच्छत्रा के पचाल असमर्थता व्यक्त की है, किन्तु दूसरी ओर कहा है कि राजाओं का कोई सम्बन्ध नही था। वे अपने शासन कार्य लेख को पुरालिपि के अनुसार इसकी लिपि पाचवी में स्वतंत्र थे। शताब्दी ई. की जा सकती है। तांबे के सिक्के की अभी ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल के पचाल राजाओं खोज हुई है, जिस पर स्पष्ट रूप से हरिगुप्त लिखा है ने मौर्यों के अधीन रहकर शासन प्रारम्भ किया तथा बाद तथा इसकी आकृति चन्द्रगुप्त द्वितीय के तांबे के सिक्के ग मे मौर्यों की शक्ति क्षीण होने पर वे शक्तिशाली बन गये मिलती-जुलती है। एक अन्य शिलालेख की प्राप्ति हुई है, सम्भवतः इन्होने मौयों की शक्ति क्षीण होने मे स्वय योग जिससे ज्ञात होता है कि राजा हरिराज, जो कि गुप्त दिया। किन्तु यह अपने प्रतिद्वन्दियो से भी कमजोर होते राजवंश का था, ने उस क्षेत्र का शासन किया था, जहाँ रहे। अत: जिनकी नई राजकीय शक्ति का उदय हुआ था, वर्तमान बादा जिला है। उसका काल पाचवी शताब्दी का ऐसे शंगों के अधीन हो गये। यह अधीनता बहुत ही कम है। इस बात की प्रबल सम्भावना है कि अहिच्छत्रा के रही क्योंकि ग्रीक राजा दिमित्रयस तथा उनके सेनापति उक्त सिक्के का प्रचलन उसी के द्वारा हुआ था। इलाहा- मिनाण्डर की शक्ति के सामने शुंग राजाओं की शक्ति बाद म्युनिसिपल म्युजियम में भी एक तांबे का सिक्का है, क्षीण हो गई। जिस पर "महराजा हरिगुप्तस्य" अंकित है। इस सिक्के यगपुराण से ज्ञात होता है कि दुर्वीर यूनानियों ने का आकार .८५ इच तथा ४६ ग्रेन है। इसमें सन्देह की साकेत. पचाल तथा मथुरा पर आक्रमण कर लूटपूट की कोई अवकाश नहीं रह जाता है कि उसी महाराजा ने और वे पाटलीपुत्र तक पहुंच गये। शासन पूर्णतया छिन्न अहिच्छत्राका सिक्का भी प्रचलित किया था। इस राजा भिन्न हो गया, किन्तु सौभाग्य से आक्रमणकारी अपनी ने महाराजा की उपाधि धारण की थी।
सैनिक सफलता का फल प्राप्त करने में असमर्थ रहे, अहिच्छत्रा से जो सिक्के प्राप्त हुए है, सामान्यतया क्योंकि वे शीघ्र ही अपने देश को वापिस चले गये।
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प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी-अहिच्छत्रा सम्भवतः इसी यूनानी आक्रमण का वर्णन पतजलि ने किया स्पतिमित्र । इन राजाओं के सिक्कों का आकार गोल है है। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के मुख्य पुरोहित थे, जिन्होंने और इनकी शैली और प्रकार ज्यादातर एक जैसी ही है। अपनी कृति मे उत्तर पंचाल तथा उसकी राजधानी अहि- इन सब पर तीन पचाल प्रतीक बने हुए हैं तथा इसके मध्य ग्छत्रा की सूचना दी है। वे उत्तर पचाल तथा पूर्व पंचाल राजा का नाम ब्राह्मी लिपि मे लिखा हुआ है । दूसरी बोर मे भेद करते हैं तथा पंचाल माणवकः शब्द का पयोग एक देव या एक देवी सिंहासन पर बैठी हुई है तथा एक ऐसे छात्रों के लिए करते हैं जो कि पचाल से आये थे। वृक्ष भी अकित है। अग्निमित्र तथा सूर्यमित्र के सिक्के के मुद्रा सम्बन्धी प्रमाण भी इस समय अहिच्छत्रा की प्रधा- दूसरी ओर क्रमशः अग्नि तथा सूर्य के प्रतीक अंकित है। नता को प्रमाणित करते है। यह काल लगभग १८७ इन देवताओ से उनकी स्वय की पहचान होती है। सिक्कों तथा १६२ ई० पू० का था।
की इस अपूर्व शृखला से उस मूर्ति विज्ञान के अध्ययन में इस क्षेत्र के पचाल राजाओ का अनुमानित क्रम सहायता मिलती है। जिसकी कल्पना उनमे की गई है। उनके सिक्को के आधार पर निश्चित करने का प्रयत्न सिक्को के आधार पर इन राजाओं के क्रम तथा समय का किया जाय तो यह प्रकट होता है कि उनमे रुद्रगुप्त, जय- पता लगाना संभव नही हुआ है तथा सामान्यतया यह गुप्त तथा दामगुप्त सबसे पहले के थे। इस परम्परा के विश्वास किया जाता है कि ये लगभग १०० ई. पू. से उत्तराधिकारी सम्भवतः विश्वपाल, यज्ञपाल तथा बगपाल २०० ई तक समुन्नत रहे होंगे। ऐसा नहीं कहा जा सकता हए । पभोसा शिलालेख के अनुसार बगपाल शोनकायन कि उनम से एक या अधिक आषाढ़सेन या उसकी परम्परा का पुत्र और उत्तराधिकारी था। शोनकायन यज्ञपाल और से निश्चित सबंधित नही रहे मोंकि शृंगों की सची में विश्वपाल का उत्तराधिकारी हो सकता है। बगपाल का अग्निमित्र का नाम तथा कण्वों की सूची में भूमिमित्र का पुत्र तथा उत्तराधिकारी भागवत था, जिसका उत्तराधि- नाम है । यह अनुमान किया जाता है कि पचाल के ये मित्र कारी उसका पुत्र आषाडसेन हया। यह पभोसा (जिला राजा मगध राजवश से सबधित रहे होगे, किन्तु इस प्रकार इलाहाबाद) गुफा का दान करने वाला था। आषाढ़सेन की अनुरूपता की मुद्रा विशेषज्ञ तथा दूसरे विद्वान नही की बहन गोपाली का पुत्र बस्ति मित्र था, जो सम्भवतः मानते है । अहिच्छत्रा के स्थानीय शासकों का शासन उस समय कौशाम्बी का शासक था जिसका काल लगभग । अधिकतया उत्तरी पचाल की सीमा तक सुनिश्चित रहा। १२३ ई०पू० निश्चित किया गया है। पचाल के सिंहासन इस प्रकार के कम सिक्के ही अन्यत्र प्राप्त हुए हैं। अकेले पर आषाढ़सेन का उत्तराधिकारी सभवतः वसुसेन था। भूमिमित्र के सिक्के होशियारपुर से प्राप्त हुए हैं। अग्नि
१.०ई० पू० के लगभग इस राजवश के उत्तराधि- मित्र तथा इन्द्रमित्र के सिक्के पटल में प्राप्त हुए हैं। कारी दूसरे १४ राजा हुए। ये सभी अपने नाम के आगे बहस्पतिमित्र राजा का उल्लेख गया के शिलालेख मे डा। मित्र शब्द लगाते थे तथा प्रायः पचाल के मित्र राजा के इन अपवादो से यह निर्देश किया जा सकता है कि इन तीन नाम से जाने जाते थे। वे है- अग्निमित्र, आयुमित्र, भानु- राजाओ ने लम्बे समय तक कार्य किया तथा अधिक मित्र, भूमिमित्र, ध्र वमित्र, इन्द्रमित्र, जयमित्र, फाल्गनमित्र, विस्तृत सीमा मे राज्य किया। (क्रमशः) प्रजापतिमित्र, सूर्यमित्र, वरुणमित्र, विष्णुमित्र तथा बह
सन्दर्भ १. विमलचरण लाहा-प्राचीन भारत का ऐतिहासिक इडिया पृ. ३१ । भूगोल पृ. १०७ १०६ ।
७. बी. एन शर्मा : हर्ष एंड हिज टाइम्स पृ. ४१५ । गजेटियर आफ इडिया (उ. प्र.) बरेली पृ. २१.२२। ८. द एशिएट ज्याग्रफी आफ इडिया पृ. ३०३-३०५। भगवद्दत्त-भारतवर्ष का वहद् इतिहास पृ. १८१। ६. डा. एल. डो. बासेट : हिस्ट्री आफ कन्नौज पृ. १६-१७
डा. कृष्णदत्त बाजपेयी: काम्पिल्यकल्प पृ.४। १०. वह, पृ. १६ । १२. हिस्ट्री आफ कन्नोज पृ. ३५॥ ५. वही पृ. ५।
१३. डी. सी. सरकार : स्टडीज इन इडियन क्वाइन्स ६. लालमणि जोशी : स्टडीज इन बुद्धिस्ट कल्चर आफ पृ. २२१-२२६ ।
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श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व
0 जस्टिस एम० एल० जैन
मा
कुछ वर्षों पहले विश्व प्रसिद्ध श्वेताम्बर तीर्थ के लिए मुझे श्वेताम्बर मख्य आगम सूत्रो के अध्ययन की राजस्थान मे आबू के और गुजरात मे शत्रुजय (पाली- प्रेरणा हई। मागधी प्राकृत भाषा का ज्ञान न होने के ताना) के दर्शन करने का पावन अवसर मिला। वहा कारण कठिनाई आई किन्तु फिर भी इधर-उधर जो देखा पाया कि दोनो तीर्थस्थलो पर एक-एक दिगम्बर मन्दिर तो यह लगा कि श्वेनाबर आगम तो दिगम्बरत्व को मान्य भी हैं. हां, आबू के देवस्थान का दिगम्बर मन्दिर छोटा करते हैं तया श्वेताम्बर परम्परा में विशाल जैन साहित्य है परन्तु पालीताना का दिगम्बर देवालय काफी बडा है। विद्यमान है और हर दिगम्बर विद्वान को इनका गहन निश्चय ही यह श्वेताम्बर परम्परा की सहिष्णुता का अध्ययन करना चाहिए। यह सम्भव है कि हम उनकी परिचायक तो है ही किन्तु इसका आगम सम्मत कारण कुछ नातों से कतई सहमत न हों, कई बातें अब समयानु भी होना चाहिए; हो न हो श्वेताम्बर परम्परा मे भी ऐसे कल भी नही दी
भा एस कुल भी नही रही परन्तु इस अध्ययन से जैन धर्म और लोग थे जो दिगम्बर परम्परा को भी अपना ही मानते थे, आचरण की परम्परा के विकास के इतिहास का परिचय ऐसा विचार भी पैदा हुआ।
अवश्य ही मिलता है। श्वेताम्बर मुनि जिन विजय जी ने बताया था कि
जहा तक न्याय, स्याद्वाद, आरमा, कर्म आदि सिद्धानों मथुरा के कंकाली टीले मे जो प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं
का सवाल है वहा तक दोनो ही परम्पराओ के ग्रन्थों मे वे नग्न हैं और उन पर जो लेख अकित हैं वे श्वेताम्बर
पूर्ण समानता है और शास्त्रकारो मे आपस मे खूब आदानग्रन्थ कल्पसूत्र में दी गई स्थिरावली के अनुसार हैं। कुछ
प्रदान हुआ है। क्या ही अच्छा हो यह सिलसिला आगे विद्वानो की खोज यह है कि प्रारम्भ में तो तीर्थकर
बढ़े जिससे रूढ़िवादी दीवारें गिराई जा सके और जैन मूर्तियां सर्वत्र दिगम्बर ही होती थी किन्तु जब भेदभाव
समाज की सच्ची परम्परा विकसित हो। तो आइए, इस उग्र होने लगा तो एक वर्ग ने नग्न मूर्तियो के पादमून
दष्टि से श्वेताम्बर मुख्य प्रागमो का कुछ सिंहावलोकन पर वस्त्र का चिह्न बनाना प्रारम्भ कर गिरनार पर्वत
कर लें। पर अपनी अलग परम्परा की नीव डाली। गिरनार मे कर डाली गई यह परम्परा आगे बढ़ी और ऐसा लगता है कि (१) भगवती सूत्र में एक प्रसंग है'-'स्थविर और वैष्णव भक्ति धारा के प्रभाव से मतियो को वस्त्रालंकारो आर्य कालस्यवेषि पुत्र अनगार'। इसमें लिखा हैसे विभषित किया जाने लगा। दोनो ही परन्पराओ के तेणं कालेण, तेण समएणं पासच्चिज्जे कालावेसिए अनुसार भूषण मण्डित स्वरूप सम्पूर्ण सन्यास के पूर्व पुते णाम अणगारे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति तीथंकरों के युवराज पद या सम्राट पद को शोभा को xxx तएणं से कालासवेसिय पुत्ते अरणगारे बहूणि दशित करता है। लेकिन जो विचार भेद की बरार पडी वासाणि सामन्न परियाग पाउण इ, पाउणित्ता जस्सट्टाए उसने सीमा छोड़ दी और एक दूसरे के बारे मे विचित्र- कीरई नग्नभावे मुंडभावे, अण्हाणय, अदंतधुवरणय, अच्छ. विचित्र कहानिया गढ़कर परस्पर निरादर और उपेक्षा ने त्तयं, अणोवाहणय, भूमिसेज्जा, फलहसे ज्जा, कट्ठसेज्जा, घर कर लिया और आगम का भी अपनी-अपनी परम्परा केस लोओ, बभचेर वासो, परघरप्पवेसो, लच्छावलच्छो, के अनुसार वर्गीकरण कर लिया, ऐसा क्यों हुआ यह जानने उच्चावया, गामकटगा, बावीसं परिसहेवसग्गा अहिया
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श्वेताम्बर मागम और दिगम्बरत्व
सिजंति, तं अट्ठ बाराहेइ, आराहित्ता, परमेहि उस्सास (२) आचारांग सूत्र में साधुओं के वस्त्रों के विषय
-नीसासेहि सिदे. बुढे, मुत्ते, परिनिव्वुडे, सव्वदुखप्प. में चर्चा इस प्रकार हैहीणे ।
जे भिक्खू तिवत्येहि परिसिते पाय चउत्थेहिं तस्सणं उस समय पाश्र्वनाथ के अनुयायी कालस्यवेषी पुत्र णो एवं भवति च उत्थं वत्थं जाइस्सामि । से अहेसाणिजमाई नाम का अनगार स्थविरों के पाम आया। (उनके द्वारा वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा गो सामायिक, आत्मा, व्युत्सर्ग, क्रोध, मान, माया, लोभ घोविज्जा, गो रएज्जा, णो घोत्तरत्ताह वत्थाई घारेज्जा, पर चर्चा करने के पश्चात् पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म से अपलिउंचमाणे गामंतरेम, ओमचेलए। एय ख बत्थमहावीर के पंचमहाव्रतिक सप्रतिक्रमण धर्म को प्राप्त पारिस्स सामग्गियं । १।। अहपुण एव जाणेज्जा उवतिक्कते करके विहार करने ल 1)xxx बहुत वर्षों तक खलु हेमते गिम्हे पहिवन्ने अधा परिजुन्नाइ, वत्थाइ परिश्रामण्य पर्याय की पालना करता हुआ कालास्यवेसी पुत्र विज्जा, अदुवा सतरुत्तरे, अदुवा प्रोमचेले, अदुवा एगनग्नभाव, मुंडभाव, अस्नान, अदन्तधावन, अछत्र. भूमि साडे, अदुवा अचेले, लाघवीयं आगममाणे। तवे से अभिशय्या, फलक शय्या, काष्ठ शय्या, केशलोंच, ब्रह्मचर्यवास, समन्नागए भवति । जमेयं भगवया पवेदितं तमेव अभि परगृहप्रवेश, लब्ध्यापलब्धि, इन्द्रियों के लिए कण्टक के समेच्चा सब्दतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया ॥२॥ समान २२ परीषहो को सहने लगा और चरम उच्छ्वास जस्सण भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो खलु अहमंसि, निःश्वास की आराधना करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परि.
नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसूम सम्व समनिवृत्त, सर्वदुखहीन हो गया।
ण्णागय पन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आवठे तवइस वर्णन से यह जाहिर होता है कि उस समय जैन
सिणो हु त सेय ज सेमे विहमादिए, तत्थवि तस्स काल साधु संघ दो दलों में विभाजित थे। एक थे पाश्र्वनाथ के परियाए, सेवि तत्थ विअति कारए इच्चेतं विमोहायतणं अनुयायी "पार्श्वपत्य" जो सामायिक नहीं करते थे और हियं, सुह, खम, णिस्सेयसं, आणगामियं तिमि ॥३॥ आत्मा को ही सामायिक मानते थे और प्रतिक्रमण भी जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवसिते पाय तइएहि तस्सण नही करते थे और ब्रह्मचर्य नाम का अलग से महाव्रत णो एवं भवति वतिय वत्थ जाइस्सामि । से अहेसणिज्जाई नही मानते थे। दूसरे थे महावीर के अनुयायी बहुश्रुत वत्थाइ जाएजा जाव एवं खलु तस्म भिक्खुस्स साम"स्थविर" जो सामायिक प्रतिक्रमण नियमपूर्वक करते थे ग्गिय ॥१॥ अहपुण एवं जाणेज्जा उवक्कते खलु हेमते और ब्रह्मचर्य को अलग से महाव्रत मानते थे। जब काल- गिम्हे पडिवन्ने अहा परिजुन्नाइ वत्थाइ परिट्ठवेज्जा, स्यवेषिक पुत्र से स्थविरों का वार्तालाप और विचारो का
अदुवा सनरुत्तरे अदुवा ओमचेलए, अदुवा एगसाडे अदुवा आदान-प्रदान हुआ तो वह भी महावीर का अनुयायी अनेले कविय आगममाणे त मे अधिमण
अचेले लाविय आगममाणे तवे से अभिसम्मणागए भवति । होकर नग्न विचरण करने लगा। इसका यह अर्थ स्पष्ट जहेय भग पता पवेदित तमेव अमिसमेच्चा सघतो सध्यहै कि महावीर के स्थविर शिष्य दिगम्बर ही होते थे और ताप सम्मत्तमेव अभिजाणिवाशा नग्नता की श्रेष्ठता ही इस कथानक से दशित है।
जे भिक्खू एगेण वत्येण परिसिते पायवितिएण, इसी की पुष्टि कात्यायन सगोत्र स्कदक परिव्राजक तस्स णो एवं भवइ वितियं वत्थं जाइस्सासि से अहेसाणिके प्रसग से होती है। जिसने श्रमण महावीर के पास जं वत्थ जाएज्जा, अहापरिग्गहिय वा वस्थ धारेज्जा, जाकर उनके वचनों से प्रभावित होकर अपने त्रिदण्ड और जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्न बत्थं परिठ्ठवं ज्जा, कण्डिका का ही नही किन्तु एकान्त मे जाकर अपने गेरुआ अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाविय आगममाणे, जाव वस्त्र को छोड़ दिया। उसके पश्चात् श्वेत वस्त्र धारण सम्मतमेव समभि जाणिया, जस्मण, भिक्खुस्स एवं भवति करने का कोई सकेत नही है।
एगो अहमसि नो मे आत्थ कोइ नया अहम वि कस्स एवं
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१०, वर्ष ४६, कि.१
भनेकान्त
से एगामिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा लापविय आगम- किशोतकाल व्यतीत हुआ है ग्रीष्म ऋतु आ गई है इसमाणं तो से अभिसमन्नागए भवजहेय भगवया पगेइय लिए मेरे पास के दो वस्त्रों में से खराब वस्त्र डाल द, तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सब्बताए समत्तमेव समभि. और अच्छा वस्त्र रखू या लम्बे को कम करने या एक ही जाणिया ॥१॥
वस्त्र रखू या वस्त्र रहित रहूं ऐसा करने में लाघव धर्म इसके अनसार जिस साप को एक पात्र और तीन होता है इसे तप कहा गया है इसलिए जंसा भगवान ने वस्त्र रखना हो उनको ऐसा विचार न हो कि मुझे चौथा कहा है वैसा जानकर वस्त्र रहितपने में और वस्त्र सहित
पने मे समभाव रखना। वस्त्र चाहिएगा। यदि तीन वस्त्र पूरे न होवें तो निर्दोष वस्त्र की याचना जहां मिले वहाँ करना। जैसे निर्दोष
जिस साधु को एक पात्र के साथ एक ही वस्त्र रखने वस्त्र मिले वैसे ही पहिनमा परन्तु उन वस्त्र को धोना
की प्रतिज्ञा हो उनको ऐसी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि नहीं, रंगना नहीं, धोए हुए, रंगे हुए वस्त्र को धारण
दूसरा वस्त्र रखू। यदि वस्त्र न हो तो शुद्ध वस्त्र की करना नही ग्रामानुग्राम विचरते-विचरते वस्त्र को छिपाना
याचना करे जैसा मिने वैसा पहिने । उष्ण ऋतु आने पर नहीं-यह वस्त्रधारी मुनि का आचार है।
उसको परिठवे या तो एक वस्त्र से ही रहे या वस्त्र रहित जब ऐसे साधु का विचार हो कि सर्द ऋतु बी गई
रहे तथा विचार करे कि मैं अकेला हू, मेरा कोई नहीं है : है और ग्रीष्म ऋतु आ गई है अथवा क्षेत्र स्वभाव से उष्ण. एसी एकत्व भावना भाता हुआ अपने सदश सबको जाने काल मे भी सर्दी का आना संभव हो तो तीनों रखे या
उससे लापत्र धर्म की प्राप्ति होती है और इसी से तप तीन में से एक छोड़े दो रखे, या दो छोड़े एक रखे या
होता है इसलिए जैसा भगवान ने कहा वैमा ही जानकर
समभाव रखना। बिल्कुल न रखे। ऐसा करने से निर्ममत्व धर्म की प्राप्ति होती है इससे लाघवपन आता है इसको भी भगवान ने
(३) आयारो (आचारांग) सूत्र मे लिखा है-अहेगे तप कहा है यह सब भगवान की आज्ञा वस्त्र रखने और
धम्म मादाय आयाणप्पभिइ सुपणिहिर चरे, अपलोयमाणे वस्त्र न रखने में समभाव रखना । २॥ जिस साधु को
दढे । सम्वं गेहि परिण्णाय, एस पणए महामुणी । अइअच्च सा विचार हो कि मुझको शीत आदि परिषह आ पड़े सव्वतो सगं "ण मह प्रथित्ति इति एमोहमसि" जयभारणे है इनको मैं सहन करने में असमर्थ हूं तब उस स्थान पर एत्थ विरते अरणगारे सव्वओ मुडे रोयते जे अचेले परिसाध को वेहानसादिक मरण करना उचित है वहा ही वृसिए संचिक्खति ओमोयरियाए। से अकुठे व हए व उसकी काल पर्याय है जिसे भक्त पशिादिक काल पर्याय
सिए वा पलिय पगथे अदुवा पगथे। अत हेहि सद्द फासेहि वाला मरण हितकर्ता है वैसे ही यह वेहानसादिक मरण इति संखाए । । एगतरे अण्णयरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे हितका है। इस तरह मरण करने वाला मुक्ति को परिवए जे य हिरी, जे य अहिरीमणा। चिच्वा सव्व जाता है इस तरह वेहानसादि मरण मोह रहित पुरुषो का विसोत्तिऐ फासे-फासे समियदंसणे । कृत्य है, हितकर्ता है, सुखकर्ता है, योग्य है, कर्मक्षय करने
एत भो गिणा वुत्ता जे लोगसि अणागमरण धम्मिणो वाला है और उसका फल भी भवान्तर में साथ रहता है आणाए मामग धम्म। एस उत्तर वादे, इह माण वाण ऐसा मैं कहता हूं।
वियाहिते। एत्थोवरए त झोसमाणे । आयाणिज्ज परिकिसी साधु को एक पात्र और दो वस्त्र रखने का पणाय, परियारण विगिंचह। इहमेगेसि एगरिया होति । नियम हो तो उमको ऐसा विचार नहीं होना चाहिए कि तत्यियराइयरहिं कुलेहि सूद्ध सणाए सव्वेसणा। से मेहावी में तीसरे वस्त्र की याचना करू । यदि इतने वस्त्र नहीं हों परिव्यए । सुभि अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणपाणे तो जैसा मिले वैसा शुद्ध निर्दोष वस्ज्ञ मांग कर धारण कलेसति । ते फासे पुट्ठो धीरो अहिपासेज्जासि । करना यही माधु का आचार है। जब साधु को ऐसा लगे एवं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे
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श्वेताम्बर मागम और दिगम्बरस्व
णिज्झो स इत्ता जे अचेले परिवसिए, तस्स णं भिक्खस्स अरे वही नग्न है जो सांसारिकता से निवृत्त होकर णो एवं भवइ-परिजण्णे मे वत्थे वन्थ जाइस्सामि, सुत्त मेरे द्वारा दशित धर्म को धारण करते हैं, यह उच्चतम जाइस्सामि, सइ सधिस्मामि सोवीस्सामि, उक्कसिस्सामि धर्म मानवों के लिए विहित किया गया है। इस बात से बोक्कसिस्सामि परिहिस्मामि, पाउणिस्सामि ।
हर्षित होकर कर्मों का नाश करते हुए सब कुछ जानते हए
पाप कर्मों को छोड देगा। हमारे धर्म में एकलविहारी अदुवा तत्यपरक मतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुमनि,
मुनि भी होते हैं। इसलिए बुद्धिमान लोगों को श्रमण का मीयफासा फुसति, ते उकासा फुमति, दसमसगफासा फुसति।
जीवन बिताना चाहिए, शुद्ध भिक्षा ग्रहण करना चाहिए एगएरे अग्णयरे विरूवरूवे फामे अहियासेति अचेले।।
सभी प्रकार के परिवारों में आहार चाहे सुगधित हो या लाघगं आगममाणे । तवे से अभिसामण्णागए भवति
दुगंध वाला। दृष्ट प्राणो दूसरे प्राणियो को दुख पहुंचाते जहेय भगवता पवेदितं तमेव अभि समेच्चा सम्बतो सन
है यदि यह सब आपके साथ हो तो मेरा आदेश है कि उसे ताए सम-मेव समाजाणिया ।'
सहन करो। जो साधु धर्म को जानता है उस पर आचरण करता
ऐसा मुनि जो अचेल है, धर्म को जानता है, आचरण है और बाह्य आचरण की भी रक्षा करता है, सासारिकता
और सयम से रहता है उसको ऐसा विचार नही होता से दूर दृढ रहता है, सारे लोभ आकांक्षाओं को जानकर
कि मेरे वस्त्र परिजीर्ण हैं, नये के लिए याचना करूगा, छोडता है वह महामुनि हो जाता है, सारे बधन तोड़ देता कि
डोरे के लिये याचना करूँगा, सुई के लिये माचना करूंगा, है, सोचता है कि कुछ भी मेरा नही है-मैं केवल एक मैं
उनको सी लगा, उनको सुधार लूंगा, पहन लूगा या ओढ़ हं इस प्रकार विरत हो जाता है अनगार होकर मुंड। होकर विहार करता है, अचेल साधु व्रत करता हुआ देह लूगा। से संघर्ष करता है, उसे लोग गाना देंगे, प्रहार करेंगे और
इस प्रकार का अचेलक जो तप मे पराक्रम दिखाता सत्य दोषारोपण करेंगे-इस सबको पूर्व जन्म का फल है उसे अक्सर घांस भेगा, शीत-उष्ण, दंश-मशक परेशान समझ कर सुख-दुख मे समभाव रख कर शांति से विचरण करेंगे, वह अपनी इच्छाओ व कर्मों का दमन करता है करता है, सामारिकता को छोडकर सब कुछ सहन करता वही तप करने के योग्य है ऐसा भगवान ने कहा है यह हुआ सम्यक् दर्शन को बार-बार धारण करता है। समझकर सम्यक्त्व को धारण करता है। (क्रमश.)
पाव-टिप्पण १. जैन हितैषी भाग १३, अंक ६, पृ० २९२ ।
(b) अंग सुत्ताणि जैन विश्व भारती, लाडनं (राज.) २. (a) धर्मसागर उपाध्याय, प्रवचन परीक्षा ।
वि. स. २०३१, आयारो, अष्टम, अध्ययन (b) प्रेमी नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास पृ. उद्देश ४, ५, ६, ७ पृ. ६२-६५ | Sacred २४१ ।
Books of the East-Vol. 22, Jain ३. भगवती सूत्र, सुधर्मा स्वामी प्रणीत अभयदेव सूरि Sutras Pt. I मोतीलाल बनारसीदास १९६४।
विरचित विवरण सहित, जिनागम प्रकाशक सभा, ६. (a) उपरोक्त मायारो छठा अध्ययन उद्देश २-३ मुंबई वि० सं० १८५४ शतक १, उद्देशक ९, पृ.
पृ० ५०-५२। २०६-२०६ तथा २६६-३००।
(b) आचासंग प्रथम श्रुतस्कघ भद्रस्वामिकृत नियुक्ति उपरोक्त शतक २, उद्देशक १, सूत्र १८, पृ. २३८ ।
श्री शीलांकाचार्य कृत वृत्तियुक्त, सिद्धचक्र साहित्य ५. (a) सुधर्मा स्वामि आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध प्रचारक समिति जैनानन्द पुस्तकालय, सूरत सन्
विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन उद्देश ४, ५, ६ । १९३५ पाना नं० २१९-२२१ ।
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पाण्डुलिपियों की सुरक्षा आवश्यक
डॉ. ऋषभचन्द्र फौजदार जैन परम्परा में शास्त्रों का विशेष महत्व है। यहां मन्दिर में तो इनकी संख्या हजारों में है। किन्तु अधिकांश स्वाध्याय को परम तप कहा गया है। स्वाध्याय के लिये शास्त्रभंडारो में इनकी समुचित देखरेख नही हो पा रही शास्त्र आवश्यक हैं। हमारे पुरखों ने शास्त्र स्वयं लिखे। है। कहीं इन्हें चूहे खा रहे हैं तो कहीं दीमक चाट रहे हैं। दूसरों के लिये प्रेरित किया। अपना धन व्यप करके कहीं चोरी-छिपे पूरा शास्त्र या उनका महत्यपूर्ण अश बेचा शास्त्र लेखन कराया। प्रचार-प्रसार के लिये शास्त्र एक जा रहा है। यह गभीर चिन्ता का विषय है। इस ओर स्थान से दूसरे स्थान तक भेजे। शास्त्र भण्डार स्थापित हमारा ध्यान जाना चाहिए। किये । अन्य धर्मात्माओं को प्रेरणा दी। उनसे भी शास्त्र भारत को पाण्डुलिपियो का देश कहा जाता है। भंडार स्थापित करवाये। उनमें सग्रह के लिये शास्त्रों को क्योकि यहां विश्व की सर्वाधिक पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। व्यवस्था की। दान के भेदों मे शास्त्र दान का विशेष भारत को इस बहुमूल्य संपदा से विदेशी लोग अत्यधिक स्थान है। शास्त्रदान मे कौण्देश का दृष्टांत प्रसिद्ध है। प्रभावित रहे हैं । सकडों विदेशी पाण्डुलिपियो के अध्ययन
शास्त्रदान पुण्य का प्रधान कारण माना गया है। हेतु भारत पाये। यहां उन्होंने पालिपियो का भरपुर इसीलिये एक-एक शास्त्र की अनेक प्रतिलिपिया करायी उपयोग किया । अन्त में सास्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व जाती थी। बावक जन, राजे-महाराजे या श्रेष्ठ जन, को पाण्डुलिपियां येन-केन प्रकारेण अपने-अपने देश ले गये। यश तथा पुण्य लाभ के लिए शास्त्र लिखवाते थे। उन्हें आज ब्रिटेन, फांस, जर्मनी आदि देशो में लाखों भारतीय शास्त्रमंडारों तथा मन्दिरों में सुरक्षित रखवाते थे। इससे पाण्डुलिपियां मौजूद है । वहा वे भारत से बेहतर व्यवस्था उन्हें यश मिलता था। पुण्यार्जन होता था। शास्त्रों की में सुरक्षित हैं। यही नहीं अनुसन्धान हेतु उनको प्रतिसुरक्षा होती थी। धन का सदुपयोग भी होता था। दक्षिण लिपियां प्राप्त करना सरल है। इसके विपरीत अपने ही भारत की एक धर्मात्मा नारी अत्तिमब्बे ने पोन्नत देश के सरकारी-गैरसरकारी और व्यक्तिगत सग्रहों से शान्तिपुराण को एक हजार प्रतिया तयार कराकर बित- अनुसन्धान हेतु पाण्डुलिपि, उसकी जोराक्स प्रति या रित करायी थी। उस देवी ने सुवर्ण और रत्ननिमित डेढ़
माइक्रोफिल्म प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
देवदर्शन हमारी दैनिक क्रिया का प्रमुख अग है। हम हजार जिन मूर्तियां भी बनवाकर प्रतिष्ठित करायी थी। उक्त कार्य उसने अपना धन व्यय करके सम्पन्न किये।
प्रतिदिन देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करते हैं। उन्हें अर्ध्य
चढ़ाते हैं । यपार्थ में हमारी यह दैनिक क्रिया केवल देव पुण्य प्रधान तथा सातिशय महत्व के कारण समाज
(जिनदेव) तक ही सीमित रह गई। देव मन्दिर के स्वाके प्रायः प्रत्येक वर्ग ने शास्त्र सग्रह किया । उदाहर स्वरूप
ध्याय कक्ष में विराजमान शास्त्र की और हमारा ध्यान साधुओं के संग्रह, भट्टारकों के संग्रह, मठो के संग्रह,
नहीं जाता । जिनका ध्यान जाता है, वे उनकी धूल साफ मन्दिरों के संग्रह, राजाओं के सग्रह, श्रेष्ठियों के संग्रह तथा
करने में स्वयं को गौरवहीन समझते हैं। परिणाम स्वरूप सामान्य प्रावकों के संग्रह आज भी प्राप्त होते है। प्रत्येक
शस्त्र संपदा नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। इस दिशा मे ठोस प्राचीन जिनमन्दिर में शास्त्रों की सैकड़ों प्राचीन पा.
कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता है। जैन समाज के पास लिपियां उपलब्ध है। शायद ही कोई ऐसा जिनमन्दिर भारत की सर्वाधिक पाइलिपिया है। किन्तु उनकी सुरक्षा होगा, जिसमे पाण्डुलिपियां उपलब्ध न हों। किसी-किसी
(शेष पृ० १३ पर)
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प्राकृत एवं अपभ्रश भाषा में सुलोचना चरित
0 श्रीमती कल्पना जैन, शोधछात्रा
जैन साहित्य में परित काव्यों की प्रधानता है। से युक्त अच्छी तरह से कहने योग्य सुलोचना नामक कथा मानव-जीवन को विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यो से सार्थक कही है (उम कवि को नमस्कार है।"करने की दिशा में जो भी व्यक्ति पुरुष अथवा नारी अपने संपिहय-जिणवरिंशा धम्मकहा-बंध-दिक्खिय-परिवा। जीवन को लगा देते हैं उनके चरित को अमर रखने के कहिया जेरण सुकहिया सुलोचरणा समवसरणं व ॥ लिये जैन कवि अपनी लेखनी चलाते रहे हैं। यही कारण कुवलयमाला के सुलोचना के इस उल्लेख से यह तो कारण है कि तीर्थंकरों के जीवन के अतिरिक्त अन्य महा. भात हाता ।
ज्ञात होता है कि प्राकृत मे सुलोचना कथा नामक यह पुरुषों एव महासतियों का जीवनचरित काम्य का विषय ग्रन्थ काव्य-गुणो से युक्त रचना रही होगी किन्तु इसका बना है। जैन साहित्य में स्त्री पात्र प्रधान रचनाएँ भी कवि कोन था इसका उल्लेख इस सन्दर्भ मे नही है। हा. पर्याप्त मात्रा में लिखी गई है। उनमे सुलोचना चरित ए. एन. उपाध्ये ने इसका कवि हरिवर्ष को माना है और प्रचलित कथानक है। यह कथानक प्राकृत अपघ्रश एवं पण्डित दलसुख भाई मालवणिया कवि प्रभजन को इस संस्कृत भाषाओं में विकास को प्राप्त हुआ है।
कथा का कर्ता मानने का सुझाव देते है। किन्तु प्राकृत प्राकृत सुलोचना चरित:
को यह सुलोचना कथा अभी तक किसी ग्रन्थ भण्डार से सुलोचना कथा आठवीं शताब्दी के पूर्व इतनी प्रमित उपलब्ध नहीं हुई है। अत: इसके सम्बन्ध में अधिक कल थी कि तात्कालीन प्राकृत संस्कृत एवं अपभ्रश के प्रतिष्ठित
नहीं कहा जा सकता। कवि अपने ग्रन्थों में उसका उल्लेख किये बिना नहीं रहे।
प्राकृत सुलोचना कथा के सम्बन्ध मे एक सन्दर्भ देवप्राकृत चम्पू काव्य कुवलयमाला के लेखक उद्योतन सूरि
सेनगणि की अपभ्र श रचना "सुलोचणाचरिउ' में भी ने सुलोचना कथा का इस रूप मे स्मरण किया है
प्राप्त होता है जिसमे कहा गया है कि कुन्दकुन्दगणि के "जिसके द्वारा समवसरण जैसी जिनेन्द्र देवों से युक्त
द्वारा प्राकृतगाथाबद सुलोचना चरित को इस प्रकार से और धर्मकथाबन्ध को सुनकर दीक्षित होने वाले राजाओ
में (देवसेनगणि) पद्धड़िया आदि छन्दो मे (अनुव द) कर
रहा हूं किन्तु उसे कोई गूढ अर्थ प्रदान नही कर रहा हूं(पृ० १२ का शेषाश)
जंगाहा-बंधे पासि उत्त के प्रति समाज उदासीन है। समाज पर अनेक जिम्मे
सिरि कुंबकंद-गणिरणा णित्त । दारियां हैं। देव, शास्त्र और गुरु की रक्षा एवं संवर्धन
तं एम्वहि पद्धडियहि करेमि, उसका प्रमुख कर्तव्य है। इसके लिए अब युवा पीढ़ी को
परि कि पि न गूढउ प्रत्थु देमि ॥ अब आगे आना चाहिये। उसे इस अनमोल धरोहर की देवसेनमणि के इस उल्लेख पर विद्वानो ने कोई विशेष सुरक्षा के लिये क्रान्तिकारी कदम उठाने का संकल्प करना ध्यान नहीं दिया है । क्योकि कुन्दकुन्दगणि की जो प्राकृत चाहिये। युवापीढ़ी को समाज के अनुभवी बुजूगो, विद्वानों रचनाए अभी तक उपलब्ध हुई है उनमे सुलोचना चरित और साधु संस्था का विशेष मार्गदर्शन मिलना चाहिये। सम्मिलित नही। प्राकृत सुलोचना चरित के ये दोनों यही नेरा नम्र निवेदन है।
उल्लेख इस संभावना को बनाये हुये हैं कि प्राकृत की -प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सुलोचनाचरित रचना प्राचीन समय में प्रचलित थी। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी संभव है, कभी इसकी प्रति उपलब्ध हो जाये।
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१४, वर्ष ४६, कि.१
अनेकान्त
सुलोचनाचरित प्राकृत में लिखा गया था इसका ६. जयोदय महाकाव्य-पंडित भूरामल विश्वास आचार्य जिनमेन और महाकवि धवल के उल्लेखों ये सभी संस्कृत रचनायें हैं, जिनकी विभिन्न पाहसे भी दृढ होता है। उद्योतनसूरि की कुवलयमाला से लिपियां ग्रन्थ भण्डारों मे उपलब्ध है। पांच वर्ष बाद लिखे गये हरिवंशपुराण मे आचार्य जिनसेन अपभ्रंश सुलोचना चरित-अपभ्रश भाषा में ने कहा है कि शील अलंकार को धारण करने वाली और
सुलोचनाचरित लिखे जाने की जो सूचनायें प्राप्त हैं उनके मधुरा महिला के समान कवि महामे- की सुलोचना कथा अनसार ब्रह्मदेवसेन ने गाया छन्द में जयकुमारचरित किसी कवि के द्वारा वणित नही की गई है ? अर्थात् हर लिखा है और तीसरी अपभ्रंश रचना देवसेनगणि की है। कवि ने उसकी प्रशंशा की है
इनमे से प्रथम दो रचनाओं का उल्लेख जिनरलकोष में महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी । है। इनकी प्रतियां पचायती जैन मन्दिर दिल्ली में उपकथा न वणिता केन वनितेव सुलोचना ॥' लब्ध होने की सूचना है तीसरी अपभ्र श रचना प्रसिद्ध महाकवि धवल ने अपने अपभ्र श भाषा के हरिवश- है, जिसका संक्षिप्त परिचय यहा प्रस्तुत किया जा रहा है। पुराण म मुनि रविसेण के पद्मचरित के साय मुनि महासेन देवसेनगणिकृत सुलोयणाचरिउ : द्वारा रचित सुलोचनाचरित का भी उल्लेख किया है- इस कृति को पांच प्रतियों का विवरण डा. देवेन्द्र मुणि महिसेणु सुलोयणु जेण, पउमचरिउ सुरिण रविसेणेण।' कुमार शास्त्री ने दिया है। उनके अनुसार दिगम्बर जैन
इन उल्लेखों से यह तो म्पष्ट है कि कवि महासेन ने नया मन्दिर धर्मपुरा, दिल्ली में दो प्रतिया आमेर शास्त्र सुलोचनाचरित लिखा था। आठवी शताब्दी के पूर्व महा- भण्डार, जयपुर (अब श्री महावीर जी) एव एक प्रति सेन नामक कवि किस भाषा के थे और उन्होने सुलोचना दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, नागौर मे उपलन्ध है। चरित किसमें लिखा था, यह स्पष्ट नही है। किन्तु मभव- देवसेनगणि की कृति सुलोचनाचरिउ का परिचय देने तया यह रचना प्राकृत में लिखी होनी चाहिए। क्योंकि से पूर्व सलोचना कथा को सक्षेप मे ज्ञात कर लेना आवआठवी शताब्दी के पूर्व अपभ्रा की अपेक्षा प्राकृत की श्यक है। राजा श्रेणिक ने जब गौतम गणधर से इस अधिक समर्थ प्राकृत कथाएं लिखी गई हैं। यहाँ यह भो सलोचना कथा को सुनना चाहा तो उन्होंने जो जयकुमार ध्यान में लेने योग्य बात है कि अपभ्रश सुलोचना चरित और सुलोचना का चरित सुनाया वह सक्षेप में इस प्रकार के कवि देवसेनगणि (१वी सदी) ने जिन पूर्व कवियों के है। नाम गिनाये है, उनमे इन महासेन का नाम नहीं है। संक्षिप्त कथा वस्तु :-राजा श्रेणिक को कथा
सुलोचनाचरित मे प्रमुख रूप से सुलोचना के स्वयवर, सनाते हुए गौतम गणधर कहते है कि भगवान वृषभदेव उसकी पति भक्ति, उसके शील, धर्म, उसके पति जयकुमार के २४ गणधर थे, ये सभी सातों ऋद्धियो से सहित थे और के पराक्रम और धर्मपरायणता आदि कुछ ऐसे प्रसग हैं सर्वज्ञ देव के अनुरूप थे। इनमे इकहत्तरवों सख्या को जो कवियो को काव्य लिखने के लिए आकर्षित करते रहे प्राप्त करने वाले गणधर जयकुमार थे। उनकी संक्षिप्त है। प्राकृत की मूल रचना तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु कथा इस प्रकार है। सस्कृत और अपभ्रंश मे इस कथा को लेकर निम्न प्रमुख जम्बू द्वीप के दक्षिण मे कुरुजांगल नाम का विशाल रचनायें उपलब्ध है :
देश है। उस देश में हस्तिनापुर नाम का एक नगर है । १. महापुराण -(पर्व) गुणभद्र
उस नगर का राजा सोमप्रभ था। उस राजा की लक्ष्मी. २. सुलोचना नाटक - विक्रान्तकौरव) हस्तिमल्ल वती नाम की अत्यन्त सुन्दर पतिव्रता स्त्री थी। लक्ष्मी३. सुलोचनाचरित -वादिचन्द्र
मति व सोनप्रभ के जयकुमार नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। ४. जय कुमारचरित -बछा कामराज
राजा सोनप्रभ के और भी चौदह पुत्र थे तदन्तर राजा ५. जयकुमारचरित -ब्रछा प्रभुराज
सोनप्रभ अपने बड़े पुत्र जयकुमार को राज्य सौंपकर अपने
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प्राकृत एव अपभ्रंश भाषा में सुलोचनाचरित
छोटे भाई के साथ भगवान वृषभदेव के पास गये और रूप धारण कर ग्रस लिया जिससे जयकुमार सुलोचना दीक्षा लेकर मोक्ष मुख का अनुभव करने नगे। नरकुमार हाथी सहेत गगा में डूबने लगे। तब सुलोचना ने पच ने राज्य-भार सभाल लिया।
नमस्कार मंत्र को आराधना से उस उपसर्ग को दूर किया। इसी भरतक्षेत्र में काशी नाम का देश है । इस काशी हस्तिनापुर पहुच कर जयकुमार और सुलोचना ने अनेक देश में एक वाराणसी नाम की नगरी थी अपने नाम से सुख भोग। ही शत्रुनों को कम्पित कर देने वाला राजा अकम्पन उस किसी अन्य समय जयकुमार अपने महल के छत पर नगरी का स्वामी था। उसके प्रभा नाम की देवी थी। आरूढ हो शोभा के लिए बनवाये हुए कृत्रिम हाथी पर उम सुप्रभा देवी से नाथ वश के अग्रगण राजा अकम्पन आनन्द मे बैठा हुआ था, इतने में उसे विद्याधर दम्पति के अपनी दीप्ति के द्वारा दिशाओ को वश मे करने वाले दिखे उन्हे देखकर "हा मेरी प्रभावती" इस प्रकार कहकर हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे। अकम्पन और रानी सुप्रभा मूच्छित हो गया। इसी प्रकार सुलोचना सबूतर का जोड़ा के सुलोचना तथा लक्ष्मीपति ये उत्तम लक्षणों वाली दो देखकर "हे मेरे रतिवर' कहकर मूच्छित हो गई। मूच्छितकन्यायें उत्पन्न हुई थी उस सुलोचना ने श्री जिनेन्द्र देव रहित होने पर जयकुमार ने सुलोचना से पूछा कि तुम की अनेक रत्नमयी प्रतिमायें बनवायी थी। प्रतिष्ठा तथा
लोग इसनी दुखी क्यो हो। उन दोनो को जन्मान्तर तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के पश्चात् वह उन प्रति
सम्बन्धी अपना समाचार स्मरण होने के ही सर्ग पर्याय से
सम्बन्ध रखने वाला अवधिज्ञान की प्रकट हो गया। इस मायो की महापूजा करती थी। फाल्गुन महीने की अष्टा
प्रकार पूर्व भावनियो का वर्णन करते हुए वे सुख मे ह्निका में उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्र देव की पूजा की
समय बिताने लगे। एक बार एक देव ने आकर जयकुमार फिर वह वषागी पूजा के शेषाक्षत देने के लिए सिंहासन
के शील की परीक्षा की। पीछे जयकुमार ने संसार से पर बैठे हुए गजा अकम्पन के पास गयी। राजा पूर्ण
विरक्त हो भगवान ऋषभदेव के पास दीक्षा ले ली। यौवन को प्राप्त हुई उस विकारशन्य कन्या को देखकर
कवि परिचय : उसकी विवाहोत्सव की चिन्ता करने लगा। तत्पश्चात्
अपघ्र श सलोयनाचरिउ के कर्ता श्री देवसेनगणि ने राजा ने अपने चारो मत्रिो श्रृतार्थ, सिद्धार्थ, सर्वार्थ
ग्रन्य के प्रारम्भ मे जो प्रशस्ति दी है उससे ज्ञात होता तथा सुमति) के साथ विचार विमर्श किया। सब मत्रियो
हैं कि वे निबडिदेव के प्रशिष्य और विमलसेन गणधर के ने विभिन्न मत रखे। अंत मे सुमति नामक मत्री की बात
शिष्य थे। उन्होने इस ग्रथ की रचना राजा मम्मल की सबने स्वीकार की। उसके अनुसार स्वयवर विधि स
नगरी (मम्मलपुरी) मे रहते हुए की थी। विवाह होना चाहिए।
देवसेनगणि ने इस ग्रन्थ की रचना राक्षस सवत्मर के काशिराज अकम्पन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुद्धवार के दिन की थी। ये जयकमार पाये। अनेको सुन्दर राजकुमारो यहा तक राक्षस सवत्सर या विक्रम सबत क्या माना जाय इस पर चक्रवर्ती भरत के पूत्र अर्ककीति के रहने पर भी, विद्वानो मे मतभेद है। प० परमानन्द जैन शास्त्री ने
ना ने वरमाला जयमार के गले में डाल दी। राक्षस संव-तर को विक्रम संवत ११३२ (१०७५ ईस्वी वर समाप्त होते ही भरत के पुत्र अर्क कीति व जय- २६ जुलाई) माना है। उनका कहना है कि दूसरा राक्षस कमार के बीच युद्ध हा और विजय जयकुमार को हुई। सवत्सर वि. स. १३७२ (१११५ ई १६, जुलाई) माना इस घटना की सूचना भरत चक्रवर्ती ने जयकुमार को ही जाता है । इन दोनो मे २४० वर्षों का अतर है। किन्तु
शाको विवाह के अनन्तर विदा लेकर जयकुमार देव मेनगणि का समय प्रथम राक्षम सत्सर अर्थात् विक्रम ती से मिलने अयोध्या जाते है और वहां में लोटकर सवत् ११५ . मानना उपयुक्त है"। इस सम्बन्ध मे अभी जो अपने पडाव की ओर आते हैं तो मार्ग में गंगा नदी पर्याप्त लहापोह की आवश्यकता है नयोकि कुछ विद्वान पार करते समय उनके हाथी को एक देवी ने मगर का देवसेनगणि को १५वी शताब्दो का मानते ।
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१६, वर्ष ४६, कि०१
अनेकान्त अपनी गुरु परम्परा के सम्बन्ध में देवसेनगणि ने ग्रंथ सामने अपने को बहुत छोटा कवि माना है। किन्तु उनकी की आधप्रशस्ति में कहा है कि वीरसेन एवं जिनसेन यह आत्मलाघव प्रवृति का परिचायक है। आचार्यों की परम्परा मे बहुत से शिष्यों वाले होटल-पुत्र गुरु थे। उनके गड विमुक्त (गंड्ड्युक्त) नामक शिष्य थे
सुलोचनाचरित रचना का परिचय देते हुए देवसेन और उनके शिष्य रामभद्र थे जो चाल्लुक्य वश को राज कहते हैं कि अनेक प्रकार के भेदों (अवान्तर कथाओं एव परपरा के थे"। इस रामभद्र के शिष्य निबडिदेव थे। रहस्य) से भरी हुई सुन्दर और प्राचीन कथा को में कहता उनके शिष्य श्री मालिधारिदेव और विमलसेन थे। उन हूँ यह कथा सुलोचना के विचित्र वृतान्तों से युक्त है और विमलसेन के शिष्य मूल देवसेन मुनि ने इस ग्रन्थ की नपपुत्र जयकुमार को आनन्द प्रदान करने वाली है यह रचना की है। कवि की इस मुनि परम्परा का सूक्ष्म कथा
. कथा वतों के पालन करने वालो के द्वारा मिध्यात्व को अध्ययन करने से उनके निश्चित समय को निर्धारित
नाश करने वाली एवं सम्यक्त्व को दृढ़ करने वाली है। किया जा सकता है।
इस तरह अपभ्रंश की सुलोचना कथा सांस्कृतिक महत्व देवसेनमणि ने अपने इस काव्य में अपने से पूर्ववर्ती की रचना है। वाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, बाण, मयूर, हलीए,
द्वारा-श्री सतोष जैन गोबिंद, चतुर्मुख, स्वयभू, पुष्पदत और भूपाल नामक
प्रभा प्रिन्टर्स कवियों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि देवसेन
३२१.ए, सी सेक्टर शाहपुरा, २०वी शताब्दी के बाद ही हुए हैं । उन्होंने इन कवियो के
भोपाल सन्दर्भ-सची चौधरी, गुलाबचन्द : जैन साहित्य का बहत इति- १२. रक्खस-संवच्छर बुह-दिवसए, हास, भागद, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, १९७३
सुक्क चउद्दसि सावय-मासए । पृ. ३३४ प्रादि ।
चरिउ सुलेयणाहि पिपण्णउ, २. कुवलयमालाकहा : ३.३०
सह-अल्ह-वण्णण सपुण्णउ ।। -अंतिम प्रशस्ति ३. जैन, प्रेम सुमन : कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक
१३. शास्त्री परमानन्द जैन; जैन ग्रन्थ प्रशस्तिसग्रह, अध्ययन, वैशाली, १९७५, पृ. ३८ । ४. सुलोचनाचरिउ (आमेर पाडुलिपि), सधि १, कड़वक ६
भाग २, पृ.७२। ५. हरिवशपुराण (जिनसेन)।
१४. रामभट्ट णामें तव सारकउ, ६. हरिवंशचरिउ (धवल) अप्रकाशित पाडुलिपि :
चालुक्कियवसहो तिल उल्लह। -अंतिम प्रशस्ति ७. वेलणकर, एच. डी., जिनरत्नकोश, पृ. १३२ । १५. अन्य की आद्य प्रशाश्त, सधि १, कड़वक ३ । ८ जैन, कुन्दनलाल, दिल्ली जैन ग्रन्थ-सूची।
१६. आयण्णहो बहुविहु-भेय-भरिउ, ९. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार, अपभ्रश भाषा और साहित्य हड कमि चिराणउ चारु चरिउ ।
को शोध प्रवृत्तियां, दिल्ली, १९७२ पृ. १७३ । वइयरहें विचित्तु सुलोयणहें, १०. सुलोचनाचरितम् (वादिचन्द्र) अप्रकाशित पाडुलिपि शिवपुतहो मयणक्कोवणाहें। के आधार पर।
वयवतिहि हयमिच्छात्तयाहें, ११.णिवमम्मलहो पुरिणिवसते चारुट्ठाणे गण गणवंते । वरदिढ-सम्मत्त-पउत्तियाहे ॥ -वही, कड़वक ६
-सधि १ कड़वक ४
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दुबकुण्ड को जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला
0 नरेश कुमार पाठक, रायपुर मुरैना जिले की स्योपुर तहसील में कम्बल एवं कूनों लाटवाणगटगण के जैन मुनियों की परम्परा का उल्लेख नदी के मध्य दुबकुण्ड ग्वालियर से ७६ मील दक्षिण- है। शान्ति शेष के शिष्य विजयकीन ने नगर निवासियों पश्चिम में शिवपुरी से ४४ मील उत्तर-पश्चिम मे मुरैना को प्रेरित कर विशाल जैन मन्दिर का निर्माण करवाया। श्योपुर के सीधे मार्ग पर तथा ग्वालियर से सडक द्वारा विजय सिंह ने भी इस मन्दिर के निर्माण कराने में सेवा १८ मील की दूरी पर घने जंगल में स्थित है। इसी पर्वत पूजा मरम्मत आदि के लिए व्यवस्था की। महाचक्र नामक और वन बाहुल्य आदिवासी प्रदेश में दस यी शताब्दी के ग्राम में गेहूं बोये जाने योग्य भूमि इस मन्दिर को दान मे अन्त मे कच्छपघात वंश ने शक्ति सचयकर राज्य स्थापित दी थी तथा अनाज मन्दिर को देने हेतु प्रादेश दिया था। किया । यहां से मिले दो शिलालेखों में एक विक्रम सवत् एक उद्यान तथा एक कूप भी इम मन्दिर को दान में दिया ११४५ का विक्रमसिंह का शिलालेख तथा दूसरा विक्रम था।
विक्रम था । स्थानीय तेलियो को दीप जलाने के लिए तथा मुनियों सं० ११५२ का काष्ठसंघ के महांचायंवर श्री देवसेन की को मालिश करने के लिए तेल की व्यवस्था की थी। पादुका युगल का शिलालेख महत्वपूर्ण है । शिलालेखो मे दुबकुण्ड मे चार प्राचीन जैन मन्दिरो के भग्नावशेष दुबकुण्ड का वास्तविक नाम डोभ दिया गया है यहा एक अभी भी है। प्रथम जैन मन्दिर कच्छपघात राजा विक्रमकुण्ड भी वर्तमान में है, जो बारह मास जल से भरा सिंह द्वारा विक्रम संवत् ११४३ मे बनवाया गया। दुबरहता है। इसी कारण इसका डोभक नाम पडा है. जो कुण्ड से प्राप्त विक्रमसिंह के शिलालेख में "काछपघात वर्तमान मे दुबकुड के नाम से जाना जाता है । शिलालेख
तिलकवंश' नाम से विभूषित किया गया है। अत: के अनुसार कच्छपघातो की पांच पीढ़ियों का इतिहास
निश्चित इसका सम्बन्ध ग्वालियर के कच्छपघात राजामो मिलता है। प्रथम राजा युवराज था जिसका समय १००० से रहा होगा । २५४०५ मोटर वर्गाकार एवं ३ फीट ईस्वी माना जा सकता है। युवराज न तो नपति था न ऊचा जगति पर निमित मन्दिर आकार में काफी वहत भूप अत: राज्य का प्रथम शासक भपति अर्जुन ही था है। यद्यपि इस समय केवल नीचे का भाग तथा स्तम्भ हो भूपति अर्जुन के उत्तराधिकारी का नाम अभिमन्यू था, शेष है, किन्तु भग्नावशेषो के निरीक्षण से मन्दिर की अभिमन्यु कच्छपघात का सम्बन्ध भोज परमार से था वृहता का पता चलता है कि मन्दिर के मध्य में वर्गाकार इसके उत्तराधिकारी का नाम विजयपाल था। इसका खुला आंगन है, जिसके चारों ओर २ गर्भग्रहो का निर्माण समय लगभग १०४३ ईस्वी माना जा सकता है। इसका हुआ। गर्भगृह के सामने स्तम्भो से युक्त बरामदों का उत्तराधिकारी विक्रम सिंह कच्छपघात राजा हुआ। निर्माण हुआ है। इन गर्भगहो के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी शिलालेख मे विक्रम संवत् ११४५ मे इसके दिये गये दान कोने में एक बड़े गर्भगह का निर्माण किया गया है, जिनमें का उल्लेख है। इसे अभिलेख मे महाराजाधिराज कहा तीन जैन प्रतिमायें कायोत्सर्ग मे अभी भी स्थित है। गया है। अत: यह किसी का सामन्त नही था। विक्रम- प्रत्येक गर्भगृह कायोत्सर्ग में प्रतिमायें पादपीठो सहित सिंह ने ऋषि तथा दाहड़ नामक दो जनो को श्रेष्ठिन की स्थापित है। प्रत्येक गर्भगह की पहिचान द्वार स्तम्भो से उपाधि दी थी, वे यहा दो पीढ़ी से रह रहे थे। उनका होती है। यह स्तम्भ वर्गाकार आधार पर उल्टे कलशों प्रपिता जासूक जायसपुर से डोभ आया था। डोभ मे से निर्मित है । मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की ओर
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१८, व ४६. कि.१
अनेकान्त
है। द्वार के दोनों ओर गंगा-यमुना नदी देवियो की प्रति- नाथ का सिर एवं हाथ भग्न है। पादपीठ पर विक्रम स० माएँ परिचारिका सहित कित है। अभिलेखों के १३१२ (ईस्वी सन् १२५५) का लेख उत्कीर्ण है । प्रतिमा आधार पर मन्दिर की तिथि सवत् ११५२ या सवत् का आकार ३२४ ४२ सें. मी. है। तीसरी आदिनाथ ११४५ आती है। एक स्तम्भ पर सवत ११५२ बैशाख प्रतिमा पादपीठ (स. क्र. ४२) पर दोनों ओर सिंह सुदी पंचम्याम श्री काष्ठ सघ महाचार्यवयं श्री देवसेना आकृतियो का पालेखन है। नीचे ऋषभनाथ का ध्वज पादुका युगलम उत्कीर्ण है। दूसरा जैन मन्दिर २२४ २२ लाछन वृषभ का अकन मनोहारी है। मति का बाकार मोटर वर्गाकार जगति पर स्थित है। इसमे मध्य मे २४४२७ से. मी. है। राजकीय संग्रहालय लखनऊ में आगम तथा पूर्व उत्तर एवं पश्चिम तरफ अलग-अलग दुवकुड की एक मूर्ति (जे. ८२०, ११वी शती ईस्वी) में तीन गर्भगृह रहे होंगे। यहां खण्डित कई प्रतिमाएं विद्य- विछत्र के ऊपर आमलक एव कलश और परिकर मे २२ मान है। तीसरा मन्दिर हर-गौरी मन्दिर से थोड़ी दूर छोटी जिन मूर्तियां बनी है। इनमे तीन और पांच सर्पफणो पर एक चबूतरा बना हुआ है। जिस पर चार कीतिस्तम्भ को अच्छादित दो जिनो को पहिचान पार्व एव सपार्श्व थे, किन्तु अब तीन गिरे हुए हैं एवं एक अभी भी खड़ा से सम्भव है। यह आदिनाथ की मूर्ति प्रतिमा विज्ञान की हुआ है। स्तम्भ वर्गाकार एवं अष्टकोणीय है। प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जैन स्तम्भ पर जैन प्रतिमाएं उकेरी गई है। चौथा जैन अजितनाथ :-दूसरे तीर्थकर अजितनाथ की दुब. मन्दिर नाले से दूसरी पोर स्थित हैं, जिसकी हालत दय- कुंड से प्राप्त दो प्रतिमाएं जिला-सग्रहालय मुरैना में नीय है। इसमें एक छोटा सपाट छत वाला मन्दिर है एव सग्रहीत है। प्रथम प्रतिमा मे तीर्थकर अजितनाथ कापोतइसके अन्दर एक जन प्रतिमा कायोत्सर्ग में विद्यमान है। सर्ग मुद्रा में निर्मित है (स. क्र. ७३) दायें ओर चावरमूर्ति प्राचीन है, किन्तु मन्दिर बाद का प्रतीत होता है। धारी का अ लेखन है। प्रतिमा का आकार १०० x ३८ मूर्तिकला
सें. मी. है । दूसरी प्रतिमा में (स. क्र ४१) अजितनाथ का दुबकुंड से प्राप्त जैन मूर्तियां दुबकंड, जिला- पादपीठ पर दोनों ओर सिंह, हाथी मध्य मे देव प्रतिमा संग्रहालय मुरैना एवं राजकीय संग्रहालय लखनऊ की ओर भगवान अजितनाथ का ध्वज लाछन हाथो का अकन निधि है। सभी मूर्तियां सफेद बलुआ पत्थर पर निमित है। प्रतिमा का आकार ३३४७५ से. मी. है। है एवं ११-१२वीं शती ईस्वी की है। यहां से प्राप्त प्रमुख
पद्मप्रभु :-जिला संग्रहालय मुरैना मे दुबकुड से जैन प्रतिमाओं का विवरण निम्नलिखित है :
प्राप्त छठे तीर्थंकर पपप्रभु की दो प्रतिमाये सग्रहीत है। आदिनाथ:-जिला संग्रहालय मुरैना मे इसकंट से प्रथम मूति तीर्थकर पपप्रभु कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित है प्राप्त तीन प्रथम तीर्थंकर आदिनाय की प्रतिमाएं सग्रहीत (सं. क ६६) तीर्थकर के सिर व हाथ टूटे हुये है। पादहै। प्रथम प्रतिमा मे तीर्थकर आदिनाथ पद्मासन की पीठ पर चतुर्भुजी देबो का आलेखन है। प्रतिमा का ध्यनस्थ मुद्रा मे बैठे हैं। वितान में विद्याधर युगल आकाश आकार ११४३५ से. मी. है। दूसरी कायोत्सर्ग मुद्रा में मे विचरण करते हुये दर्शाये गये है। मध्य मे तीर्थकर के (स. क्र. ६३) शिल्पांकित तीर्थकर १मप्रभ का ऊपरी भाग ऊपर त्रिछत्र, दुन्दभिक अंकित है। प्रतिमा के पीछे खडित है। पादपीठ पर उनका ध्वज लाछन कमल का अलंकृत प्रभा मण्डल है। सिंहासन के मध्य मे खड़ी हई प्रालेखन है। प्रतिमा का आकार ८५४ ३५ सें.मी. है। देवी प्रतिमा है, जिसके नीचे भगवान ऋषभनाथ का वासुपूज्य :-जिला संग्रहालय मुरैना में सुरक्षित ध्वजलांछन वृषभ का पालेखन है । देव प्रतिमा के प्रत्येक दुबकुड से प्राप्त बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य (स. क्र. ८०)
ओर हाथी एव सिंह अकित है । तथंकर श्रीवत्स, त्रिवलय की कायोत्सर्ग मुद्रा मे अंकित प्रतिमा का मुअ खडित है। एव उष्णीष से अलंकृत है। मूर्ति का आकार १३५४७० मति मे दो जिन प्रतिमा परिचर एव यक्ष-यक्षी प्रतिमा सें. मी. है । दूसरी मूर्ति मे (स. क्र. ५३) तीर्थकर आदि का आलेखन है। पादपीठ पर देव नागरी लिपि मे वि.
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दुबकुण्ड की जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला
सं. १११३ (ईस्वी सन् १०५६) का लेखा उत्कीर्ण है। १०५ (ईस्वी सन् ११४८) का लेख उत्कीर्ण है। प्रतिमा प्रतिमा का आकार ८५४३५ से. मी. है।
का आकार ७०४३७ सें. मी. है। शान्तिनाथ :-जिला सग्रहालय मुरैना में सोलहवें तोथंकर पट:-जिला संग्रहालय मुरैना में दुबकुंड तीर्थकर शान्तिनाथ की दुबकुण्ड से प्राप्त स्तम्भ से अलंकृत के चार तीर्थङ्कर पट्ट हैं। प्रथम ६०४३० सें. मी.के पाषाण पर (स. क्र. २२०) कायोत्सर्ग मुद्रा में शिल्पांकित आकार के पट्ट पर (स.क्र.६५) कायोत्सर्ग मदा से है । तीर्थङ्कर का मुख एव दोनों हाथ खण्डित है। पाद- तीर्थङ्कर अकित है। इस आकृति को जिन सहस्र भी कहा पीठ पर चतुर्मखी देवी सहचरो के साथ अकित है। जा सकता है। दूसरी ३१४३० से. मी. के पाषाण स्वर वितान मे छत्रावली जिसके ऊपर पद्मासन मे तीर्थ हर का पर (स. क्र. ७१) आलिन्द मे पचामन एक कायोत्सर्ग में आलेखन है। दोनों ओर चामरधारी अकित है। प्रतिमा तीर्थकर अकित है। तीसरी २०x२७ से. मी. आकार का आकार ६३ x ३७ सें. मी. है।
की प्रतिमा मे तीन पद्मासन (स. क्र. १४५) एवं तीन मनि सवतनाथ:-ऐबकूण्ड की जिला संग्रहालय कायत्सिग में जन प्रतिमाएं अकित है। चौथी . मरैना मे सरक्षित बीसवें तीथंकर मुनि सुव्रतनाय प्रतिमा सें. मी आकार (स. क्र. ७२) प्रतिमा में पासन एव पादपीठ पर ध्वज लांछन कम एव सिंह (स. क्र. ५५) कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थङ्कर प्रतिमाओ का आलेखन है। यालो का आलेखन है। दोनो ओर चामरधारी कित पाँचवी २५४२० सें. मी. आकार के पद पर भी पपासन है। प्रतिमा का आकार ६३४३७ से. मी. है।
एग कायोत्सर्ग मुद्रा (स. क्र.११८) मे तीर्थडर का नेमिनाथ:-जिला सग्रहालय मुरैना मे बाईसवें आलेखन मनोहारी है। तीर्थकर नेमिनाथ की दुबकुण्ड से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में लांछन विहोन तीर्थकर:-जिला सग्रहालय मुरैना अकित प्रतिमा सुरक्षित है। मूर्ति मे चावरधारी एव मे दुबकुष्ट से प्राप्त पपासन एग कायोत्सर्ग मदा निर्मित चतर्भजी देवी प्रतिमा का आलेखन है। प्रतिमा का आकार प्रतिमा सुरक्षित हैं। पपासन निर्मित आठ प्रतिमाएं हैं। १३० x ४० सें. मी. है।
प्रथम ४६४५८ सें. मी. आकार को सिर विहीन पद्मासन पार्श्वनाथ:-जिला संग्रहालय मुरैना मे तेईसवें तीर्थङ्कर (स. क्र.७६) पादपीठ पर विक्रम सवत १२२८ तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मे अकित प्रतिमा (ईस्वी सन् ११७१) का लेख उत्कीर्ण है। दूसरी १८४ सुरक्षित है। (स. क्र. ८२) तीर्थपुर के सिर ऊपर सप्त- ६४ सें. मी. आकार की पपासन मे तीथपुर प्रतिमा का रुण नागमोलि का आलेखन है। पार्श्व मे चावरधारियों कमर से ऊपर का भाग भग्न है (स. क्र.७१) पादपीठ का आलेखन मनोहारी है । प्रतिमा का आकार ६५४३० पर विक्रम संवत् १२०२ (ईस्वी सन् ११४५) का लेख सें. मी. है।
उत्कीर्ण है। तीसरी ३५४३५ से. मी. आकार की सिर महाबोर:-चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर विहीन पद्मासन (स. क्र. १५०) मे तीर्थङ्कर प्रतिमा बैठी की जिला सग्रहालय मुरैना में दुबकुष्प से प्राप्त दो प्रति है। चौथी ४०-३० सें. मी. आकार की आलिन्द के माओ का संग्रह है। प्रथम स्तम्भ के मध्य कायोत्सर्ग में अन्दर बडित (स. क्र. १७२) अवस्था मे पपासन मे महावीर ध्यानस्थ मुद्रा मे अकित हैं। (सं. क्र. २२१) तीर्थपुर अकित हैं। पांचवी ४.४३० सें. मी. माकार पादपीठ पर चतुर्भजी देवी दोनों हाथो मे कमल की की स्तम्भ युक्त आलिन्द के अन्दर पपासन में तीर्थकर पंखडिया लिए बैठी ई हैं। वितान मे छत्रावली पपासन (सं. क्र. १७७) पाश्र्व मे दोनों ओर कायोत्सर्ग में जिन मे जिन प्रतिमाओ का आलेखन मनोहारी है। प्रतिमा का प्रतिमायें अकित हैं। छठवी ३०-३५ सें. मी. आकार प्राकार १६५४३५ सें. मी. है।
__ का पासन मुद्रा मे (स. क्र. १६५) तीर्थङ्कर प्रतिमा दूसरी मे भगवान महावीर स्वामी का पादपीठ (सं. अकित है। सातवी ३०४३५ सें. मी. आकार की पदमाक्र.१६) परिचर सहित है। जिस पर विक्रम संवत् सन (सं.क्र. २१०) मुद्रा में तीर्थकर अकित है। आठवी
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२०, वर्ष ४६, कि.१
अनेकान्त २३४६० सें. मी. आकार की सिर विहीन (सं. क्र. १) ६५४६५ सें. मी. आकार की स्तम्भ युक्त आलिन्द में पद्मासन मे तीर्थङ्कर प्रतिमा अकित है।
(स. क्र. ३०) कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थंकर प्रतिमा अकित कायोत्सर्ग मुद्रा मे निर्मित लांछन विहीन तीर्थङ्कर अंकित है। तेरहवीं ६० X ३५ सें. मी. आकार का सिर गकाईस प्रतिमायें जिला संग्रहालय मुरैना मे सुरक्षित है। विहीन कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर है (सं. क्र. ६४) दोनों प्रथम ९५४५८ सें. मी. आकार की स्तम्भ युक्त अलिन्द हाथ टूटे हुए हैं। चौदहवी ८३४ ३६ सें. मी. सिर विहीन मे (स. क्र. २) कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर बैठे हुए है। कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर (स. क्र. ५१) पादपीठ सिंह द्वितीय ०४६० सें. मी आकार की स्तम्भ युक्त अलिन्द आकृतियाँ एवं कायोत्सर्ग मे जिन प्रतिमाएं हैं। पन्द्रहवी में (स. क्र. ६) कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थङ्कर प्रतिमा अकित ५७४ ३३ सें. मी. सिर विहीन कायोत्सर्ग मुद्रा मे (स. है। तृतीय १००-३५ सें. मी. आकार की कायोत्सर्ग मे क्र. ६०) तीर्थकर की बायी भुजा एवं पर भग्न है। तीर्थकर के वितान का ऊपरी भाग एवं बायी भुजा खडित सोलहवी ३०x२० सें. मी. सिर विहीन कायोत्सर्ग मुद्रा है (स.क्र.८) पादपीठ पर चतुर्भुजी देवी अंकित है। (सं. क्र. १२०) मे तीर्थकर प्रतिमाएं हैं। सत्रहवी ४०x चौथी १५०x४७ सें. मी. आकार के स्तम्भ पर कायो- २० सें. मी. आकार को खण्डित अवस्था मे कायोत्सर्ग सर्ग मुद्रा में खडित (स. क्र. ६) मुख युक्त तीर्थङ्कर पाद- मुद्रा मे (स. क्र. १७८) तीर्थकर प्रतिमा का अकन है। पीठ पर बहभजी देवी प्रतिमा बैठी है। पांचवी १३०४ अठारहवी १३५४३० सें. मी. आकार की स्तम्भ यक्त ३० सें. मी. आकार की स्तम्भ युक्त अलिन्द मे कायोत्सर्ग आलिन्द मे कायोमर्ग मुद्रा मे तीर्थ कर (स. . २२२ (सं.क्र.१०) मुद्रा में मुंह एवं भुजायें भग्न तीर्थङ्कर वितान, छत्रावली विद्याधर युगल, पद्मासन जिन प्रतिमाएं अकित है। वितान मे छत्रावली एवं पद्मासन व कायोत्सर्ग पार्श्व मे कायोत्सर्ग मुद्रा मे जिन प्रतिमाओं का अकन है। नद्रा मे जिन प्रतिमायें अकित हैं। छठी १५५४४० सें. उन्नीसवी १३५४३० सें मी. आकार की स्तम्भ यक्त मी. आकार की स्तम्भ मे कायोत्सर्ग में खडित भुजाओ आलिन्द (सं. क्र. २२) में कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर यक्त (सं. ऋ. १२) तीर्थकर वितान मे छत्रावली, पादपीठ प्रतिमा की बायी भुजा खण्डित है। वितान मे पदमासन पर चतुर्भजी देव अंकित है। सातवी १३०-३५ सें. मी. मे दो जिन प्रतिमा अकित है। बीसवी १३५४३० सें. आकार की कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर (सं क्र.१३) की मी. आकार को कायोत्सर्ग तीर्थकर (सं. २ दोनो भजायें खहित हैं एवं मति दो भागो में निर्मित है। भुजाएँ खडित हैं। वितान में पदमासन एव कायोत्सर्ग में आठवी १३०-३५ से. मी. आकार की सिर विहीन जिन प्रतिमायें अकित हैं । इक्कीसवी १३५४३० सें. मी. कायोत्सर्ग मद्रा मे तीर्थकर (स. क्र. १५) पादपीठ पर आकार की कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थकर अकित है। (स. चतर्भजी देवी अकित है। नौवी ८.४६४ सें. मी. क्र. २२५) पादपीठ पर चतुर्भुजी देवी का अफन है। आकार की स्तम्भ युक्त आलिन्द मे कायोत्सर्ग मुद्रा में वितान मे छत्रावली एव पद्मासन और कायोत्सर्ग मे जिन (स. क्र. २०) तीर्थकर प्रतिमा अकित है। दसवी ६५४ प्रतिमाये है। ६४ सें. मी. आकार की स्तम्भ युक्त आलिन्द मे (सं. क्र. उपरोक प्रतिमाओं के अतिरिक्त ३०-३५ सं.मी. २५) कायोत्सर्ग तीर्थकर प्रतिमा अंकित है। ग्यारहवी आकार की (स. क्र. १८४) तीर्थकर प्रतिमा एव ७७४ ८५४३२ सें. आकार की सिर बिहीन कायोत्सर्ग मुद्रा मे ३२ सें. मी. आकार की सिर विहीन तीर्थंकर के दोनो तीर्थकर के पादपीठ पर (स. क्र. ६२) चतुर्भुजी देवी पाश्व मे चावरधारी अकित है। पादपीठ पर चतर्भजी प्रतिमा व नागरी लिपि मे लेख उत्कीर्ण है। बारहवीं देवी प्रतिमा एव कायोत्सर्ग मे जिन प्रतिमा अकित है।
सन्दम-सूची १. शिलालेख शुद्ध पाठ:
ग्वालियर १९८३, पृ. २१-२२ । तस्यक्षिति स्वर वरस्य पुर समस्ति ।
४. पाठक नरेश कुमार "मुरैना जिले के प्राचीन स्थल" विस्तीर्ण शोभम मितोपी च होम सशम् ।।
केशव प्रयास संस्कृति विशेषाक ग्वालियर वर्ष ५, २. द्विवेदी हरिहर निवास "स्वालियर राज्य के अभि- अक ६, १९८१, पृ. ८८ । लेख" ग्वालियर १९४८, पृ. ११ क्र. ५४।
तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद "जैन प्रतिमा विज्ञान" 1. पाण्डेय एल. पी. दुबकुण्ड के कच्छपघात 'अन्वेषिका' वाराणसी १९८१, पृ. ८८।
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प्रवचनसार में णित "चारित्राधिकार"
D कु. शकुन्तला जैन
सनातन जैन परम्परा में कलिकाल सर्वज्ञ भगवान इस शुभ कार्य के लिए आप सब मुझे आज्ञा प्रदान करेंगे, कुन्दकुन्दाचार्य का एक विशिष्ट स्थान रहा है। उनके ऐसी मैं आशा करता है। रचित समयसार, पचास्तिकाय, प्रवचनसार, परमागमो
इस प्रकार नम्रता व भद्रतापूर्वक सब कुटुम्बियो से मे जिनवाणी का सार प्राप्त होता है। 'प्रवचनसार' मे
बिदा होकर किसी सुयोग्य धर्माचार्य के पास पहुंचे जो जिनवाणी अर्थात् जिनप्रवचन का सार संग्रहीत किया गया
रत्नत्रय का धारक हो, अनशनादि तप करने में भी कुशल है। कुन्दकुन्दप्रणोत प्रवचनमार पर अमतचन्द्राचार्य एवं
का हो, कुल रूप अवस्था व दीक्षा में भी अपना बर्चस्व रखता आचार्य द्वारा रचित प्रवचनसार के अतर्गत जैनधर्म से सब- हो । जिसको अन्य साधु लोग अपना बड़ा समझकर उसको
आज्ञा मे रहने को पसन्द कर रहे हों। उनसे प्रार्थना करे धित विभिन्न पओ, सभ्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन व सम्यग्चारित्र
कि मुझे मी आप अपने चरणो का सेवक बना लीजिए। के विषय में हमे अमूल्य सामग्री प्राप्त होती है। इन
लेकिन ये दोनो विषय साधक सयमी बनने वाले जीव के विभिन्न पक्षों को मात्र लेख के रूप मे समग्र रूप में प्रस्तुत
लिए सर्वथा अनिवार्य नही है। समय पर इसमे अनेक करना एक जटिल कार्य है। अतः प्रवचनसार के एक पक्ष - 'चारित्राधिकार' को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
अपवाद भी आये हुए हैं। फिर भी सर्वसाधारण लोगों ज्ञान आत्मा का अनन्य गुण है। ज्ञान की सार्थकता को इन दोनों ही नियमो का ध्यान रखना परमा पवित्र आचरण के द्वारा होती है। आचार्य महाराज है । सयम धारण करने वाले मनुष्य को गुरु के पास जाकर प्रत्येक ज्ञानी मनुष्य को चारित्र धारण करने की प्रेरणा प्रार्थना करनी चाहिए कि "हे गरुदेव ! इस
स्वार देते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य अपने दुःख को दूर में रहकर भी मैं किसी का नही हैं और न कोई अन्य मेरा करना चाहता है तो उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व है। भगवन् ! अब मुझे भी जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये जो सम्यग्चारित्र के धारक सिद्धो व साधु को नमस्कार करके बारम्भ और परिग्रह से रहित होती है । जो अपने उपयोग चारित्र को धारण करे। यह दुःख दूर करने का एक मात्र
और योग दोनो को शुद्ध बनाते हुए समता को उत्पन्न
करने वाली है। हिसा आदि का सर्वथा अभाव होकर उपाय है। चारित्र धारण करने के उपाय-प्रवचनसार के
जिसमे बाह्याडम्बर भी बिल्कुल नहीं होता है । इस शरीर अनसार जिसको चारित्र धारण करना हो वह सबसे पहले
मे भी निस्पृहता को प्रगट करने वाला के शन्लुचन किया जिन के सम्पर्क में रहकर अपना अब तक का जीवन बिताया जाता है। जिसमे परावलम्बन का नाममात्र भी न होकर है उन बन्धुओं से आज्ञा लेवें कि मैं आप लोगों के साथ अपने भरोसे पर ही खड़ा हग जाता है।" आज तक बड़े सतोषपूर्वक रहा, आप लोगों ने मेरे जीवनो- ऐसा निवेदन करके गुरु के सम्मुख पहिले तो पूर्व के पयोगी कार्यों में सहायता पहुंचाई, मेरा आदर किया। लिए हुए अपने सम्पूर्ण दुष्कृत्यो को स्पष्ट करते हुए उन इसके लिए मैं आपका बड़ा आमार मानता हूं, अब आप पर पश्चाताप करे फिर गुरुदेव जो भी प्रादे माने शांत जीवन बिताने की आवश्यकता प्रतीत हुई है कार्य बतावें, उसे ध्यानपूर्वक सुने व गुरुजी के आशीर्वादअतः मैं गुरुदेव के पास जाकर संयमी बनना चाहता हू पूर्वक उसे पालन करने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ बनना चाहिए
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२२, वर्ष ४६, कि.१
अनेकान्त
साधु दीक्षा के कर्तव्य-साधु को बिल्कुल वस्त्रहीन नाश नही किया जा सकता है। यह निर्विवाद सिद्ध है। नग्न रहना चाहिए, नियमपूर्वक एक दिन में एक बार श्वेताम्बरों के उववाई सूत्र में प्रश्न २१ मे उल्लेख है कि अन्न ग्रहण करना चाहिए, व एक स्थान पर खड़े रहकर दिगम्बरत्व से मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा ही उत्तराध्ययन ही लेना चाहिए। तीनों बातो का समर्थन श्वेताम्बर मे भी लिखा है। शरीर पर से वस्त्र उतार देने मात्र का शास्त्रो से भी पूरा होता हैं । उमास्वामी विरचित तत्वार्थ- ही नाम दिगम्बर नही है। वस्त्र के साथ-साथ संसार के सूत्र महाशास्त्र जिसको प्रत्येक जैन पूर्णरूप से प्रमाणित सभी पदार्थों से निस्पृह होकर रहना व अपने कषाय भाव मानता है। इसमे बाईस परिषहो के नामो का उल्लेख को दूर करके सर्वत्र ही समताभाव को स्वीकार करना कारक सूत्र मे छठा 'नग्न परिषह' लिखा हआ है। अर्थात दिगम्बरस्व होता है। इसे प्राप्त करनेवाला ही सच्चा वस्त्ररहित नग्न रहकर भी निविकार रहना जो प्रत्येक साधु होता है तभी वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मुनि के लिए आवश्यक है।
मुनियों के कुछ महत्वपूर्ण भेद-मुनियो मे प्रधान साधु का दूसरा कर्तव्य मुनि का दिन में एक बार ही दो तरह के होते है। एक तो नतन दीक्षा देकर असंयमी भाजन करना हादगम्बर शास्त्रा के आतारक्त श्वताम्बर को सयमी बनाने वाले होते हैं । इन्हें गुरु कहते हैं। दूसरे के आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययन के समाचारी नामक २६व वे जो सर्वसाधारण मूनि किसी कारणवश अपने गुरु के अध्ययन में लिखा है।
रुचिकर न होने पर अपने व्रतो मे किसी प्रकार की भल दिवसस्स चऊरो भागे भिक्ख कुजा विपक्खयो।
बन जाने पर जिसके आगे प्रायश्चित लेकर उस मल को तवोउत्तर गुणे कुज्जा दिण भागेसु च उसु वि ।। ठीक कर लेता है । इन्हे 'निर्यापक प्राचार्य' कहते हैं। पढम पोरसिसमझायं वीय झाण झिणपई। तइयाये भिक्खायरि य पुणो च उत्थी ये सज्झाय ॥
मनुष्य की चितवृत्ति चचल होती है । न मालूम किस अर्थात ज्ञानी मनि दिन के ४ भाग करे पहिले म समय मे मन का घुमाव किधर हो जाए। ऐसे अवसर पर का स्वाध्याय करने में, दूसरे को ध्यान करने मे, तीसरे गिरते हुए मन को सहारा देकर स्थिर करने के लिए सहको भिक्षावृत्ति में व चौथे भाग को पुन: स्वाध्याय करने
योगियों की आवश्यकता होती है। इसीलिए अधिकतर मे व्यतीत करे। दिन-रात के पहन ना आत्मायें साधक लोग गुरुकुल में सत्ममागम में ही रहते केवल दिन का तीसरा पहर बताया है जिसम वह भिक्षा है। ऐसे मुनिया का
है। ऐसे मुनियो को 'अन्तेवासी स्थविरकल्पी मुनि' कहा के लिए शहर मे भ्रमण करके उसी एक प्रहर काल के ___ जाता है। जो मुनि सुदृढ अध्यवसायी होते है जिनको समा'त होने से पहले भोजन कर चके और पुन: आकर
अपने आत्मबल पर पूर्ण भरोसा है, घोर से घोर उपसर्गाअपने स्वाध्याय स्थान में स्वाध्याय करने में लग जावे ।।
दिक के आने पर भी जो सुमेरु के समान अविचल रहने इस सबसे स्पष्ट है कि मुनि २४ घण्टो मे दिन मे एक
वाला है जिनके आवश्यक कार्यों में कभी भी किसी प्रकार बार ही भोजन करे।
की कमी नही रहती है ऐसे महामुनि जहां कही भी स्वतत्र मुनि एक ही स्थान पर खड़े-खडे ही भोजन लेते है।
रूप से विचरण करते हुए रह सकते हैं इन्हें एकाकी या दिगम्बर जैनाचार्यों के ही नही श्वेताम्बर मान्य जैनाचार्यों
जिनकल्पो मुनि के नाम से पुकारा जाता है। के लिखे हुए इतिहास रूप कथा ग्रन्थो मे किसी भी जगह सम्पूर्ण प्रकार की वाह्य प्रवृत्ति से दूर होकर जान ऐसा नही है कि किसी जैन मुनि ने अनेक घरों से थोड़ा- दर्शनात्मक आत्मा मात्र मे तल्लीन रहना ही वास्तविक थोड़ा अन्न लेकर कही अन्यत्र एक जगह बैठकर खाया श्रमणत्व है । हिंसा, मठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच हो। सभी उपाख्यानो में ऐसा ही वर्णन मिलता है कि पापो से साधक को बचकर रहना चाहिए। साधारण रूप अमुक मुनि ने अमुक श्रावक के यहा आहार लिया। से किसी के प्राणों का घात करना, उसे मारना, पीटना करपात्र योगी नग्न दिगम्बर साधु बने बिना को का वगैरह हिंसा ही है। किसी के साथ धोखेबाजी की बात
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प्रवचनसार में वणित 'चारित्राधिकार'
करना मूठ है, किसी की वस्तु को बलात्कार से या बहाना जिस पर आराम करनेवाले संसारियों की दृष्टि नहीं बनाकर छीन लेना चोरी है। स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेम- जाती हो। 'यदि यत्नपूर्वक इसकी रक्षा नहीं करूंगा तो भाव का नाम कुशील है। दूसरी वस्तुओं को अपनी मान कोई इसको उठाकर ले जावेगा।' इस प्रकार की चिन्ता लेना ममत्वभाव है, मोह परिग्रह है। झूठ, चोरी और जिमके ग्रहण करने मे न हो. जो इंद्रियों का पोषक न कुशील ये तीनों कार्य हिंसा के ही प्रकार हैं जहां किसी होकर मनोनिग्रह का समर्थक हो, जिसमे पाप की कोई भी प्राणी को सीधा कष्ट मे डाला जाता है। उसका नाम सम्भावना न होकर प्रत्युत संयम की साधना हो सके जो हिंसा है जहाँ वचन के द्वारा किसी को कष्ट पहुचाया। अनायाम रूप से प्राप्त होने योग्य साधारण सी जाता है उस हिंसा का नाम झूठ है, जहाँ कोई भी वस्तु परिस्थितियो को लिये हुए हो, ऐसा कमण्डल आदि मुनि का अपहरण करके दूसरे को कष्ट दिया जाता है उस के ग्रहण करने के योग्य हो सकता है। यह भी उपेक्षा हिंसा का नाम चोरी है। जहाँ शील को बिगाडते हुए किसी संयम की प्राप्ति से नीचे केवल अपहृत सयम की दशा में दूसरे को कष्ट में डाला जाता है उस हिमा का नाम ग्राह्य कहा गया है। कुशील है। जहां पर पदार्थ के प्रति अहकार ममकार
पानी रखने का कमण्डलु काष्ठ या तुम्बी का बना हुआ करते हुए जो अपने परिणाम बिगड़ते हैं, राग-द्वष उत्पन्न होता है। यह गृहस्थ के काम का नहीं होता है। अत होते हैं. उनका नाम परिग्रह है। इस प्रकार अब दूसरे इसके रखने में उसकी रक्षा करने के लिए चिन्ता की शब्दों में हिंसा तथा परिग्रह ये दो ही परिहार्य अवशिष्ट
किंचित भी आवश्यकता नही होती है । इममे केवअ शौच
नित भी प ता नही होती. तो रह जाते हैं।
के लिए जल होता । यदि उस जल को पीने आदि के काम राग-द्वेष बाह्य पदार्थों के निमित्त से होते हैं। इनके में लेने लग जाए तो फिर वह उपकरण न रहकर योग्य अभाव के लिए धन, मकान, वस्त्रादि का त्याग परमाव. वस्तु बन जाती है। श्यक है। जिस प्रकार शरीर के होते हुए भी इससे राग- वस्त्र को गहस्थ अपने लज्जालुपन के कारण अतरग रहित होकर रहते हैं व मे ही वस्त्रादि आवश्यक वस्तुओ मे रहने वाले कामुकतादि दोषो को अन्य लोगो की दष्टि को रखते हुए उनसे राग रहित नही हो सकते । दूसरी ओर मे छिपाकर रखने के लिए पहिना करता है । स्त्री जीवन प्रवचमसार मे उल्लेख है कि वस्त्र आदि बाह्य बस्तुओ को मे मायाचारादि दोष नैगिक रूप से होते हैं अतः वे वस्त्र भी शरीर की समकक्षता मे रखना भूल है। शरीर धारण का त्याग नहीं कर सकती है। इसीलिए श्री महावीर के पायुकर्म की विशेषत से होता है। इसका दूर होना भी शासन मे स्त्रियो को अपने उसी शरीर मे मिद्धि की आयु अवसान के अधीन है। शरीर के अतिरिक्त वस्त्र णादि आधिकारिणी नहीं बनाया है। सारे मब बाह्य पदार्थों का तो मनुष्य अपनी इच्छा से प्रवचनसार मे योग्य आहार-विहार के विषय मे ही पहण करता है और स्वय ही उनका त्याग कर सकता उल्लेख मिलता है कि साधु को यूक्ताहार-विहारी होना कानको प्राप्त करके धारण करने, धोने, पोछने, मुखाने चाहिए कि स्वय नबनाकर तथा न किसी दूसरे से भी व बनाये रखने और नष्ट हो जाने पर उसकी जगह दूसरा बनवाकर बिना या चना किये भिक्षावात्त से जैसा भी अपने प्राप्त करने आदि मे व्यग्र रहार स्पष्ट रूप से हि- अजहर
अन्त राय कर्म के क्षयोपशमानुभार मिल जावे, वह भी करनेवाला बनकर मनुष्य पापारम्भी होता है। ऐसा ही मद्य-मासादि दोषो से सर्वथा रहित शुद्ध हो, ऐसा अन्न श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्मन आचारांग सूत्रादि ग्रन्थो मे का आहार दिन मे एक बार कर लेवे। वह भी पूरा पेट लिखा हुआ है वह ठीक ही । वहाँ वस्त्रपात्रादि को मुनिके भरकर न खावे तथा स्वाद के लालच से न खावे । क्योकि उपकरण कहे गए हैं। उपकरण तो उसे कहा जा सकता मुनि के भोजन करने का हेतु केवल ध्यान सिद्धि ही रहता है जो हमारे मूल उद्देश्य में किसी भी प्रकार से सहायक है। भिक्षा का वास्तविक अर्थ दाता के द्वारा दी गई वस्त हो। जो विलासप्रिय भोगी लोगों के लिए योग्य न हो, को ग्रहण करता है न कि किसी से मागना क्योकि मागना
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२४, वर्ष ४६, कि०१
अनेकान्त याचना शब्द का अर्थ होता है जो उससे भिन्न है, कहा भी जानादि के प्राप्त करने का अधिकारी समझता हो, आप गया है कि मांगने से भीख भी नही मिलती" अर्थात् स्वयं सम्यग्नान आदि गुणों का ग्राहक बनकर अपने से मांगना भिक्षु को दुखित करने वाला है।
अधिक गुणवान के प्रति समादरभाव रखता हो, जहाँ तक प्रवचनसार के अनुसार द्रव्यलिंगी मुनि श्री जिनवाणी हो सके परमात्म चितन में तल्लीन रहने वाला हो और के ग्यारह अग व नो पूर्व तक के पढ़ने वाले तथा घोर कदाचित इससे उपयोग हट जाये तो इसी मे सलग्न अन्य आतपनादि योग रूप में तपस्या करनेवाले होकर भी परमात्म-चिन्तक महात्माओं की सुश्रुषा मे लगा रहने भवविच्छेद नही कर सकते क्योकि आगम का ब्याख्यान वाला हो, मिथ्यात्व अन्याय अभक्षादि पाप वृत्तियो से करते हुए भी उनके अतरग मे तदनुकूल समुचित श्रद्धान सर्वथा दूर रहने वाला हो, ऐसा मत योगिराज आप को नही होता है। समुचित श्रद्धान और द्वादशाग का ज्ञान भी ससार से पार करने वाला है और अपने भक्तो को भी होकर भी यदि चारित्र धारण नहीं किया जाये तो मुक्ति निमित्त रूप मे संसार से पार करने वाला होता है। वह नहीं मिल सकती है। श्री तीर्थकर भगवान को भी चारित्र स्वय उसी शरीर से मुक्त बन सकता है। उसको श्रद्धा. धारण करना पड़ता है। ससार के सभी पदाथों से सबंध पूर्वक हृदय से सेवा करने वाला भी एक-दो प्रशस्त जन्म विच्छेद करना पडता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, धारण करके सदा के लिए अशरीरी हो जाता है। सम्यग्चारित्र मे तीनो होकर भी जब तक चारित्र की
आत्महितेच्छु साधु को चाहिए कि अतरग मे प्रस्फुट पूर्णता नहीं हो जाती है तब तक पुनजन्म का अभाव नहीं होने वाली वीतरागता को प्रगट कर दिखाने वाले निविहो सकता है।
कार निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेश के धारक किसी भी तपोधन जो मनि जैन शास्त्रानुसार व्रत नियम आदि का को अपने सम्मुख आते हुए देखे तो प्रसन्नतापूर्वक उठकर यथाशक्ति पालन करने मे सलग्न है फिर भी हृदय की खड़ा होवे, उसके सम्मुख जावे, हाथ जोडकर उसे कटिलता के कारण श्रद्धान को यथार्थ करने में असमर्थ हो नमस्कार करे, रत्नमय की कुशलता आदि प्रश्नों द्वारा ऐसे द्रव्यलिग अवस्था के धारक जैन साधु भी अपने
सुश्रुषा करे। इस प्रकार सत्कारपूर्वक उसे अपने पास आचरण मात्र से केवल पुण्यबध करक स्वर्ग सम्पदा प्राप्त
स्थान देवे और उसके आसन शयनादि की समुचित कर लेते हैं । वहा से आकर उन्हें संसार भ्रमण हो करना व्यवस्था करे। तत्पश्चात् तीन दिन के सहवास से उसके पड़ता है। कभी की ससार से मुक्त होन मे समथ नहीं हो
आचार-वचार और अपने आचार-विचार मे कोई खास सकते है। जो लोग गहस्थाश्रम से मुक्त होकर अपने अन्तर न हो तो सदा के लिए उसे अपने साथ रख सकता आपको साधु मानते हुए भी विषय कषायो की पुष्टि करने है, ऐसी जिनशासन की आज्ञा है।। वाले सांसारिक कार्यों मे ही फसे रहते है, जादू-टोना
आगमानुकल चलने वाले साधु को कोई यदि समुचित प्रादि करके साधारण लोगों को प्रसन्न करना ही जिन सत्कार नहीं करता है। प्रत्यत ईर्षा-पके वोडा लोगो का धन्धा है जो रसायन सिद्धि प्रादि में लगकर तिरस्कार करता है तो वह स्वयं चरित्रभ्रष्ट है, ऐसा हिंसा करते हुए पापार्जन करने वाले है, ऐसे लोगो को हो समझना चाहिए। इतना ही नहीं किन्तु मैं भी साधु हूं, प्रभावक तपस्वी मानकर उन्ही को सेवा-सुश्रुषा करने मै कोई कम नही है इस प्रकार घमड करते हुए जो कोई वाले लोग अपनी भद्र चेष्टा के द्वारा जो साधारण पुण्यार्जन अपने से अधिक गणवान साधुओ से भी पहिले अपना विनय करते है उसके फल से अभियोग्य और किल्विषक देवो मे कराना चाहता हो तो वह चरित्रभ्रष्ट ही नही किन्तु जन्म लेते हैं।
सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट है। ___ दूसरी ओर जो यह तेरा है और यह मेरा है इस इसी प्रकार जो मनुष्य अपने मोह की मदता से पदार्थों प्रकार की क्षुद्र वृत्ति का त्याग करके समताभाव को धारण के स्वरूप को ठीक-ठीक मानने लग गया है, जिसका चित्त किए हुए हो, जो प्राणीमात्र को अपने ही समान अनन्त शात दशा को प्राप्त हो चुका है अतः जो उचित अनुचित
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प्रवचनसार में वरिणत 'चारित्राधिकार'
का विचार करते हुए उचित कार्य करने में ही अग्रसर द्वारा परिशुद्ध होकर अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और होना चाहता है, जो गृहस्थ की झझट से उन्मुक्त होकर सम्यग्चारित्र को पूर्णतया प्राप्त हो जाने का नाम ही या तो साधु दशा को ही सफल मानकर उसको धारण सुक्ति है। इसको प्राप्त कर लेने वाले सिद्ध परमात्मा करना चाहता है, ऐसा जीव यद्यपि कुछ समय के लिए कहलाते हैं। संसार मे है परन्तु वह अवश्य मुक्ति प्राप्त करनेवाला है,
इस प्रकार मुनि के विमिन्न नियम, कर्तव्य और भेद मुक्ति उससे दूर नहीं है।
के साथ ही इनका पालन करने वाले महाराज, ज्ञानी जब यह बाह्य परिग्रह की तरह अभ्यन्तर परिग्रह से व्यक्ति को चरित्रधारण की प्रेरणा किस प्रकार देते हैं भी सर्वथा उन्मुक्त हो जावेगा, बाह्य परिग्रह का परित्याग इसका विषद वर्णन हमे प्रवचनसार के 'चारिवाधिकार' कर देने पर भी चिन्तन मास के कारण से उन्ही बाह्य के भाग से प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ की सफलता के बातों की तरफ दौड़ लगाने के लिए परिणमनशील अपने विषय मे प्रशंमापूर्वक ग्रन्थ कार कहते हैं कि जो भी व्यक्ति मन को एकान्त आत्म-तल्लीन कर लेगा, राग-द्वेष से श्रद्धापूर्वक इस शास्त्र को पढेगा वह जैनागम के सारभूत सर्वपा रहित शुद्ध हो जायेगा तब पुनर्जन्म भी धारण नही तत्वज्ञान को प्राप्त कर श्रावक या साधु के आचरण को करेगा। अपने आपको बिल्कुल राग-द्वेष से रहित शुद्ध स्वीकार करके, उसके द्वारा शीघ्र ही परमपद को प्राप्त बना लेना ही मुक्ति का साक्षात् उपाय है । इस उपाय के कर सकेगा। ६, श्रीकृष्ण कालोनी, उज्जन
सुण्गहरे तरुहिढे उज्जारणे तह मसाणवासे वा।
गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥ अर्थ-सूनां घर, वृक्ष का मूल कोटर, उद्यान वन, मसाण भूमि, गिरि की गुफा, गिरि का शिखर, भयानक वन अथवा वस्तिका, इनविर्षे दीक्षा सहित मुनि तिष्ठे।
सत्तमित्ते य समा पसंमरिणद्दालद्धिलद्धि समा।
सणकरणए समभावा पन्जा एरिसा भरिणया ॥४७॥ अर्थ-बहुरि जामैं शत्रु मित्रविर्षे समभाव है, बहुरि प्रशंसा निंदा विष, लाभ अलाभविर्षे समभाव है बहुरि तृणकंचन विर्षे समभाव है ऐसी प्रव्रज्या कही है।
जहजायरूवसरिसा अवलं वियभुय रिगराउहा संता।
परकियरिगलयरिणवासा पवज्जा एरिसा भरिया ॥५१॥ अर्थ- कैसी है प्रव्रज्या - यथाजातरूपसदशी कहिए जैसा जन्म्यां वालकका नग्न रूप होय तैसा नग्न रूप जामैं है, बहरि कैसी है अवलंबित भुजा कहिये लंबायमान किये हैं भुजा जामैं बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहनां जाम होय है, बहुरि कंसी है निरायुधा कहिए आयुधनिकरि रहित है, बहुरि शांता कहिए अंग उपांग के विकार रहित शांत मुद्रा जामैं होय है, बहुरि कैसी है परकृतनिलयनिवासा कहिए परका किया निलय जो वस्तिका आदिक तामैं है निवास जाम आपकू कृत कारित अनुमोदन मन वचन काय करि जामैं दोष न लाग्या होय ऐसी परका करी वस्तिका आदिकमै वसनां होय है ऐसी प्रव्रज्या कही है।
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अष्टपाहुड की प्राचीन टीकाएँ
डॉ. महेन्द्र कुमार जैन 'मनुज
पाहड ग्रथ आचार्य कुन्दकुन्द की प्रमुख रचनाएं हैं। वननिका ये दो टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं। अनुसंधान के हंपण, मृत्त, चन्ति, बोह, भाव, मोक्ख, लिंग और गोल क्रम में विभिन्न शास्त्र भण्डारों, प्रकाशित-अप्रकाशित इन आठ पाहुडो को 'भष्टप्रामृत' तथा आदि के छह पाहुडों ग्रन्य सूचिशे आदि के सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि अष्टको 'षटप्रामत' नाम दिया गया। इन्ही नामों से ये प्रका- पाहुड पर कन्नड, संस्कृत, ढूढारी, हिन्दी आदि भाषाओं शित हुए हैं।
मे विभिन्न आचार्यों तथा विद्वानों ने अनेक टीकाए तथा ___ अष्टपाहुड के अब तक प्रकाशित सस्करणा के सपादन पद्यानुवाद किए है। अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार मे प्रचीन पांडुलिपियों का उपयोग प्राय. नगण्य हआ है। पाहुडो पर तीन प्राकृत टीकाएँ, चार सस्कृत टीकार्य, चार इसलिए प्रायः प्रत्येक सम्करणके मूल प्रात पाठ मे भिन्नता हिन्दी-टूढारी टीकाए और पद्यानुवाद किए गये है। कन्नड़ है । पाठ-भिन्नता के कारण अष्टपाहुड के विशिट अध्य. टीकाए बाल बन्द, कनक वन्द और एक अज्ञात टीकाकार यन में काफी अमुविधाएँ हुई हैं। इन्ही को ध्यान में रखने की है। संस्कृत टीकाए प्रभाचन्द्र महारडित प्रभाचन्द्र हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की रिसर्च एशोसिएट श्रुतमागर सूरि और एक अज्ञात विद्वान् को है। ढढारीयोजना के अन्तर्गन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के हिन्दी टोकाए और पद्यानुवाद भूधर, देवीसिंह छाबडा, प्राकृत एव जैनागम विभाग मे मैने अष्टपाड के सम्पदन प० जयचन्द छावड़ा और एक अज्ञात रचयिता द्वारा किये का कार्य आरम्भ किया है। अभी तक के अनुसन्धान से मुझे जाने के उल्लेख हैं। अष्टपाहड की २६८ पाडुलिपिमो की जानकारी मिली है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन की सूचना के अनुसार १३वी
देश-विदेश के विभिन्न शास्त्र भंडारों मे अष्टपाहुड शताब्दी मे बालचन्द ने मोक्षपाहड पर कन्नड टी लिखी की दर्शनप्राभूत (दसणपाहुड), चारित्रप्रामन (चरित्र है। इसके अतिरिक्त इन्होने आचार्य कुन्दकुन्द के समयपाहुड), भावप्राभूत, भावनाप्राभूत (भावपाहुड), मोक्ष सार, प्रवचनमार, पञ्चास्तिकाय और नियमसार पर प्राभूत (मोक्ख गहुड), लिंगपाहुड, सीलपाड, षट्वाभृत कन्नड टीकाए लिखी हैं। तत्त्वार्थसूत्र, द्रव्यसंग्रह और (षट्पाहुड और अष्टप्राभूत आदि नामो से पांडलिपियाँ परमात्मप्रकाश पर भी इनके द्वारा कन्नड टीकाए रचे सुरक्षित हैं।
जाा को सूचनायें बाप्त हैं।' मोक्षपाहुड पर बालचन्दकृत आचार्य अमत चन्द कुन्दकुन्दकृत ग्रन्थो के आद्य एव कन्नड टीका की एक ताडपत्रीय पांडुलिपि के जैन मठ प्रमुख टीकाकार है। दूसरे प्रमुख टीकाकार आचार्य मूडविद्री में उपलब्ध होने की सूचना है। इसकी पत्र सख्या जयसेन है। उक्त दोनो आचार्यो की समय हड, प्रवचन- १२ व ग्रन्यांक ७५% है।' मोक्षपाहुड पर ही १३वी सार और पञ्चान्तिकाय पर टीकाएं उपलब्ध हैं। किन्तु शताब्दी मे कनकचन्द ने कन्नड टीका लिखी है। इनके कुन्दकुन्द की नियमसार और अष्टपाड जैसी महत्वपूण विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होती। रचनामों पर हन प्राचार्यों की टीकाएँ प्राप्त न होना आरा के जैन सिद्धान्त भवन मे पाहों की कन्नड विचारणीय है।
भाषा मे तीन ताड़पत्रीय पांडुलिपिया विद्यमान हैं। दो षट्पाहर पर श्रुतसागर सूरि की संस्कृत टीका तथा मोक्षपाहुड एव एक षट्वाभृत नाम से है। मोक्षप्राभूत के अष्टपाड पर पडित जयचन्द छावड़ा की ढूढारी भाषा पत्र १७ और १५ तथा प्रन्यांक १०२८ और १०२६ है।
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अष्टपाहुड को प्राचीन टीकाएँ पशाभूत के पत्र ४० तथा प्रन्यांक ११५७ है। १०२८ खेडी, बम्बई, इन्दौर, सागर और स्ट्रासवर्ग (जर्मनी) के नं. को पांडुलिपि मोक्षप्राभूत की है। इसकी लिपि शास्त्र भडारो में सुरक्षित हैं । इनमे से अहमदाबाद, ईडर, कन्नड हैं। इसमें मूल प्राकृत गाथाओं की सक्षिप्त टीका इन्दौर और सागर की चार पांडुलिपियों को जीराक्स भी है। टीका की भाषा कन्नड है । प्रति जीर्ण है। पत्र प्रतियाँ प्राप्त कर ली हैं। इस टी हा का रचयिता अज्ञात टूट रहे हैं। इसका परीक्षण कर लिया गया है।
है।
षट्पाहुड को एक टब्बा टीका भूधर ने लिखी है । षट्पाहु पर एक अन्य टीका की सूचना हमें भट्टारक
इगकी एक पांडुलिपि जयपुर के दिगम्बर जैन मंदिर यमःकीति सरस्वती भंडार, ऋषभदेव के प्रकाशित
ठोलियान के शास्त्रमडार मे विद्यमान होने की सूचना है। सूचीपत्र' से प्राप्त हुई। इस सूची में षट्प हुड की दो
इसके पत्र ६२, वेष्टन सख्या २४४ है। यह प्रति सवत् पांडुलिपियों का विवरण है। एक प्रति के विवरण मे
१७५१ की है । इस पाडुलिपि के विवरण से ज्ञात होता है टीकाकार के काल में "टी देवी" तथा भाषा के कालम मे
कि यह टब्बा टीका भूधर ने प्रतापसिंह के लिए बनाई थी। "प्राकृत टी" लिखा है। टी देवो के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। सम्भव है पांडुलिपि में कुछ विवरण सम्वत् १८०१ मे षट्पाहुड का हिन्दी पचानुवाद सुरक्षित हो।
देवीसिंह छाबडा ने किया है । इस अनुवाद की तीन पांड
लिपिया ज्ञात है। इन तीनो के अलग-अलग स्थानों म प्रभाचन्द्र महापण्डित ने अष्टपाहुड की 'पजिका' नाम
विद्यमान होने की सूचना है। एक दिगम्बर जैन मन्दिर से संस्कृत टीका लिखी है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने
आदिगाथ, बदो'", एक पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, इनका समय सम्वत् १.१०.१०६० सूचित किया है।'
इन्द्रगढ़" और एक सम्भवनाथ दिगम्बर जैन मदिर, उदप. इन्होंने इन्हें "प्रमाचंद्र महापंडित आफ धाग" लिखा है।
पुर१२ के शास्त्र भडार मे । आदिनाथ मदिर बदी को प्रति इस सूचना के अनुसार प्रभाचद्र महापंडित ने प्रवचनसार पर "प्रवचनसार सरोज भास्कर", पञ्चास्तिकाय पद
सवत् १८५ की है। इससे ज्ञात होता है कि देवीसिंह "पञ्चास्तिकाय प्रदीप" और समयसार तथा मूलाचार
छावड़ा ने षट्पाहुड का हिन्दी पद्यानुवाद अष्टपाहुर की पर भी टीकाएँ लिखी हैं। अष्ट पाहुड पर एक संस्कृत ।
ढढारी भाषा वचनिका (प. जयचद छावड़ा सवत् टीका प्रभाचा महापडित से भिन्न प्रभाचद्र ने की है।
१८६७) से पूर्व किया है।
' इनका समय १२७० से १३२०ई० है। इन्होन समयसार, सम्बत् १८२०-१८८६ के विद्वान् प० जयचद छ.बड़ा प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय पर भी टीकाएँ रची हैं।' ने सवत् १८६७" मे अष्टपार पर ढारी भाषा मे वचविक्रम की १६वीं शताब्दी के आचार्य श्रुतसागर सूरि ने निका टीका लिखी। प्राकृत संस्कृत में लोगो को दक्षता अष्टपाहु के सण, सुत, चरिन, बोह, भाव और मोक्ख- प्रायः समाप्त हो जाने के कारण यह टीका बहुत प्रसिद्ध पाहड पर पदखंडास्वयी संस्कृत टीका लिखी है। यह हुई। यही कारण है कि इस टोका युक्त अष्टपाहडकी टीका प्रकाशित हो चुकी है। श्रुतसागर सूरि ने कुल ३८ पांडलिपियो गाँवो-गाँवो मे अब भी सैकड़ो की संख्या में रचनाएं की हैं। ये टीकाग्रन्थ, कथाप्रथ, व्याकरण और उपलब्ध हैं। यह टोका प्रकाशित हो चुकी है। पडित काव्यग्रन्थ हैं।
जयचद छावड़ा ने समयसार, स्वामीकार्तिकेयानप्रेक्षा, षट्पाहर पर एक अन्य संक्षिप्त सस्कृत टीका प्राप्त द्रव्यसंग्रह, परीक्षामुख, आप्तमीमासा, पत्रपरीक्षा, सर्वार्थहुई है। इससे मात्र गाथार्थ स्पष्ट होता है। इस टीका सिद्धि, ज्ञानाणव आदि अनक ग्रन्थो पर ढ ढारी भाषाकी अनेक पांडुलिपियां भारत और विदेशों में भी मोजद वनिका लिखी है ।
की २० पांडुलिपियों की जानकारी है। ये प्रतियां षट्पाहुड पर संवत् १७८९ से पूर्व भी एक हिन्दी जयपुर, महावीरजी, अहमदाबाद, ईकर, ज्यावर, चांद- टीका लिखी गई है। इस टीका की ३ पाडुलिपियां शाव
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२८, वर्ष ४६, कि०१
अनेकान्त
हैं। २ प्रतियां दिगम्बर जैन मंदिर अभिनन्दन स्वामी, की गई है। उपर्युक्त ग्यारह टीकाओं में से एक श्रुतसागर बंदी मे सुरक्षित है।" अभिनन्दन स्वामी मदिर की वेस्टन सूरि कृत संस्कृत की तथा जयचद छावड़ा-कृत ढढारी भाषा संख्या १४ की प्रति संवत् १७८६ मे लिखी गई। यह वनि का टीका ही मुद्रित हुई है। पाइलिपि जती गंगारामजी ने सवाई जयसिंह के राज्य में
विज्ञ पाठकों से अनुरोध है कि अष्टपाहुड की टीकाओं माणपुर ग्राम मे लिखी। इस टीका का लेखक अज्ञात है।
तथा टीकाकारों और पांडुलिपियों के विषय मे यदि कोई इस तरह अब तक के अनुसधान से अष्टपाड एवं जानकारी हो तो मझे दें। षट्पाहर की ग्यारह टीकाओ की जानकारी प्राप्त हई -प्राकृत एव जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत है। ये टीकाएँ कन्नड, संस्कृत, ढढारी और हिन्दी भाषा मे विश्वविद्यालय वारणसी।
__ सन्दर्भ १. जैन आथर्स एण्ड देअर वर्स, जैना एण्टीक्वेरी, भाग पाहड, शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, महावीरजी, ३७, न० २, पृ० १४ एव परमात्मप्रकाश-प्रस्तावना वी. नि० स०-२४६४।
-डा० ए०एन० उपाध्ये। ६. राजस्थान के जैन शास्त्रभडारों की ग्रंथ सूची, २. वही।
भाग-३, पृ. १६४। ३. कन्नड प्रान्तीय तारपत्रीय अथ सूची, पृ०१७। १०. प्राचार्य कुन्दकुन्द : व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डा. ४. कतिपय (दि०) जैन संस्कृत प्राकृत ग्रंथों पर प्राचीन
कस्तूरचद कासलीवाल, श्री महावीर ग्रंथ प्रकादमी, कन्नर टीकाएँ–६० के. भुजबली शास्त्री, जैन
जयपुर, पृ० १७। सिद्धान्त भास्कर, भाग-३, किरण-३, दि० १९३५,
. राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की प्रन्थ सूची, पृ० ११२ । जैन आथर्स एण्ड देअर वसं-डा.
भाग-५, पृ० २१६ । ज्योतिप्रसाद जैन, जैना एण्टीक्वेरी, भाग- ३७, न०.२, पृ० १४।
१३. सवत्सर दस आठ सत सतसठि विक्रमराय । ५. हस्तलिखित शास्त्रो का परिचय, पृ० १८, प्रकाशक
मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन पाय । रामचंद्र जैन, ट्रस्ट मत्री, ऋषभ देव ।
-अष्टपाहुड (पांडुलिपि), पत्र २.६, आचार्य
महावीरकीति सरस्वती भवन, राजगिर । ६. जैन आथर्स एण्ड देनर वर्क्स, जैना एण्टीक्वेरी, भाग
१४. अष्टपाहुड, मुनि अनन्तकीर्ति प्रथमाला समिति, ३३ नं०-२, पृ० ११ ।
बम्बई, वी० सं० २४५० । ७. वही, भाग-३४, नं०-२, पृ. ४६ ।
१५. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग-२ पृ. ३२३ । ८. षट्प्राभूतादि संग्रह, माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थ- १६. राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की प्रथ सूची, माला समिति, बम्बई, वी. नि. सं०.२४७। अष्ट- भाग-५, पृ० २१९ ।
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड का शुद्धिपत्र [ब० रतनचंब मुख्तार द्वारा सम्पादित तथा शिवसागर ग्रंथमाला से प्रकाशित]
संशोधिका-१०५ आर्यिकारल विशालमति माता जी
[मा० क. विवेकसागर शिष्या]
पंक्ति
59
___
१६ ६-१३ • १४
-जवाहरलाल मोतीलाल जैन, मोण्डर अशुद्ध प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्याना- प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण क्रोध. वरण मान
प्रत्यारानावरण मान । कार्माण बन्धन
कार्माण शरीर बन्धन संयोग से शरीर बन्धन
संयोग से कार्माण शरीर बन्धन १६ कम करने उदयापेक्षा
१६ कम करने से उदयापेक्षा तव्यतिरिक्त
सद्व्यतिरिक्त कानो कर्म
का नोकर्म पौदूगलिक
पोद्गलिक सद्भाव
सद्भाव द्वितीय-षष्ठम्
प्रथम-षष्ठ अजनाराच-अर्धनाराच
वजनाराच, नाराष, अर्घनाराच बन्ध
बन्ध १००
६६
१०
२२
१०७
१०८
इस गुणस्थान मे महीं होता है कल्पावासिनी बन्ध योग्य प्रकृति बन्ध कारण भी अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण एक आवलीक अबाधा अनुकृष्ट अनादेय बैंक्रियक विका
७२ इस गुणस्थान में होता है। कल्पवासिनी बन्ध योग्य प्रकृति ६५ बन्ध के भी कारण अन्तः कोडाकोड़ो सागर प्रमाण अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण एक आवलीको भाबाधा अनुत्कृष्ट आदेय वैकियिक हिक का
१०५
१२१
१२५
૨૪
१५
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०,
४४,कि.
पंक्ति
अशुद्ध अनेक क्षेत्र स्थित अयोग्य
१५०
एक क्षेत्र स्थित अयोग्य
१५८
१७१
२०७
२१८
२२२ २२५ २२६ २३६
सब गुण हानि का
सर्व गुण हानि का अरति, शोक और जुगुप्सा का
मरति, शोक भय और जुगुप्सा का बन्धने का काम संख्यात गुणा है। बंधने का काल उससे भी सख्यात गुणा है। पांच अन्तराय प्रकृतियों के
पीच अन्तराय इन प्रातियों के दो गुण हानि (२x६१६)का
दो गुणहानि (२x४) का (१+४=५)
(1+४=५) देखा जाता अब .
देखा जाता है। अब अपनी २ बन्ध में स्थिति कारण होने से अपनी-अपनी स्थिति-बन्ध मे कारण होने से भागित
भाजित अनुभाग बन्ध्यवसाय
अनुभाग बन्पाध्यवसाय अनुदय प्रकृति ८२
अनुदय प्रकृति . व्युच्छिन्न रूप प्रकृतियां मिथ्यात्व गुणस्थान यह पंक्ति पुनर्मुदित हो गई हैं। से अयोग केवली गुणस्थान पर्यन्त कम से ५-६-१-१७.८-५-४-६-१-१६.३० और १२ हैं। ८-४-६ इन पांच बिना ४२ प्रकृति
इन पांच बिना पानिया की ४२ प्रकृति एवं मित्र मोहनीय
एवं अनुदय मिश्रमोहनीय होने से अनुदय प्रकृति ४
होने से अनुदय प्रकृति उदय
उदय
२३.२४
२४४
२४७
१८
२४०
२४९
२०
२४६
प्रथम नक्शा कोठा नं.३
७२
.
५१
७०
२५३
उदा मुन्डित्ति
प्रथम नक्शा उदय युधिति कोठा न०२
२५६
अनुदय
बनुदय
चरम पक्ति
२०
३०
२८.
१६
दुभग
मंद
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पंक्ति
२८८
१०५
३०७
३१३
१०.१२
गोम्मटसार कर्मचका शुधि पत्र अशुद्ध मत्त संयत गुणस्थान में
प्रमत संयत मुणस्थान मे उदय प्रकृति ६६
उदय प्रकृति १८ सासादन गुणस्थान में गुणस्थानोवत
सासावन युषस्थान में बुच्छित्ति गुण
स्थानोक्त (+४+देवगत्यानुपूर्वी व सम्यग्मिथ्यात्व) (६+४+देवगत्यानपूर्ची व सम्यग्मिध्यात्व) म्यु०७६ अप्रमत्त गुणस्थान से अयोगी
व्यु० ७६ अप्रमत्त गुणस्थान से अयोगी पर्यन्त व्यून्छिन्न होने वाली प्रकृतियाँ क्रम से पर्पन्त व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियाँ कम ४+६+६+१+२+३.+तीर्थकर विना ११०७६ से ४+६+६+१+२+१+३+
तीर्थङ्कर बिना ११-७६ जीव अनिवृतिकरण गुणस्थाम के परम जीव अनिवृत्तिकरण के चरम और चरम मय में
और चरम समय मे मे (१६+ +१+१+१+६+१+१+१) मे (१६+ +१+१+६+१+१+
१+१) गुणस्थान प्रमत्व | सव | सत्व वि
गुणस्थान असत्व सत्व | सत्व विशेष व्युछि यत। . १४८/ . , असयत | . १४८ १ .,
३२३
१२
३३०
३४७
२०
३४८
३५६
४२२
२०
उद्वेलना होने पर १३३ प्रकृति का...... उद्वेलना होने पर १३१ प्रकृति का...... । गुणस्थान | असत्व | सत्य व्यछि. । गुणस्थान | बसत्य | सस्व | सस्व |विशेष | । गुणस्थान | अ. स्व | सत्व | सत्व विशेष
। व्यकि देश सयत । १ ।१४७ १ तियंच देश सयम| १ | १४७ / १ तियंच
| | | आयु
| आयु एक समय से अन्तर्मुहूतं से कम काल पर्यंत एक समय से लेकर अन्त. मुहूर्त काल से
कम तक। उदय ब्युच्छित्ति से होती है।
उदय व्यच्छित्ति से पूर्व होती है। बैंकेयिक, अंगोपांग, अयशः कीति
वक्रियिक, अगोपांग, आहारकद्विक
बयशः कीति एक समय से अन्तर्मुहूर्त से कम काल एक समय से लेकर अन्तःमुहर्त से कम
काल तक
४२३
२३
४२६
44
४२६
- इसे समझने के लिए देखो धवल ८ विषय परिचय पृ.१,२ तथा धवल ८/१००,१०७, १४२
धवल ८/१५५, १००
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१२, बर्ष ४१, कि..
पृष्ठ
पंक्ति
६१
४३१
४४० ४.
२४
अशुद्ध उदय किस गुणस्थान से किस गुणस्थान तक होता है। १-२३४ स्वोदय परोदयबन्धी स्वाक्ष्य बन्धी परधाद स्थानगदित्रय क्योकि अप्रशस्ता के आदि लेक ३६ अवक्तव्य बन्ध के सव सव [१+२] ३ भग है चरम समय तक पुरुष वद का बन्धक है गुणस्थान उदय विकल्प अनिवृति करण सुक्ष्मसाम्पराध गुणस्थान संयम प्रमत्त संयम २ विहायोगति, स्थिर, सुभग नामकर्म के ये चार बन्ध स्थान होते हैं। चार मनोयोगियों व चार वचनयोगियों में उक्त ८बन्ध स्थान
५१०
५२८
ሃ
उदय किस गुणस्थान से किस गुणस्थान . तक होता है। १-४ स्वोदय परोदय बन्धी स्वोदय बन्धी परघात स्त्यानगृत्रिय क्योंकि अप्रशस्तता के आदि लेकर ३६ अवक्तव्य बन्ध के सर्व सर्व [१+२] ३ भग हैं चरम समय तक पुरुषवेद का बन्धक है। गुणस्थान उदय विकल्प अनिवत्तिकरण १ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान संयम प्रमत्तसंयम ३ विहायोगति, स्थिर, शुभ सुभग नामकर्म के ये पांच वन्ध स्थान होते हैं। चारों मनोयोगियों मे व चार वचनयोगियों एवं औदारिक काय योगियों में उक्त ८ बन्ध स्थान आहारक द्विक का बन्ध प्रमत्तगुणस्थान मे नही होता है। देव एकेन्द्रिय पर्याप्ति सहित २५ प्रकृति का तथा याताप या उद्योत के साथ पर्याप्त तिर्यञ्च सहित २६ प्रकृति का कापोत लेपाका मनुष्य प्रकृति संयुक्त ३० प्रकृति का स्थान एवं अयोगी गुणस्थान को, अयोगी सिट पद........ चालना से आठ आठ पर्याप्त दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय स्थान के शुद्ध ११, २५ ये पंक्तियां दो बार मुदित हो गई हैं।
आहारक द्विक प्रमत्त गुणस्थान में होता है
५४०
देव एकेन्द्रिय सहित २६ प्रकृति का
२७
१४३ ५४५
कपोत लेश्या का मनुष्य प्रकृति संयुक्त स्थान का एव
२१-२२
५६०
२४
अयोगी गुणस्थान को, अयोगी को अयोगी सिद्ध पद चालना आठ आठ पर्याप्त द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय स्थान के ११२५ अथवा उपर्युक्त २६ प्रवृति में सुस्व दुःस्वर मे से कोई एक प्रकृति मिलाने पर.. ...
५८०
१६.२१
उच्छवास पर्याप्ति में उदय योग्य ३० प्रकृति स्थान है।
(क्रमश:)
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जगतगुरु कब निज आतम ध्याऊँ ॥टेक॥
नग्न दिगम्बर मुद्रा धरिके,
कब निज आलम ध्याऊँ। ऐसी लब्धि होय कब मोकू,
जो निज वांछित पाऊँ ॥जगतगुरु०॥ कब गृहत्याग होऊँ वनवासी,
परम पुरुष लो लाऊँ । रहूं अडोल जोड़ पद्मासन,
कर्म कलंक खपाऊं ॥जगतगुरु०॥ केवलज्ञान प्रकट करि अपनो,
लोकालोक लखाऊं । जन्म-जरा-दुख देत जलांजलि,
हो कब सिद्ध कहाऊ जगतगुरु०॥ सुख अनन्त विलसू तिहि थानक,
काल अनन्त गमाऊं। 'मानसिंह' महिमा निज प्रगट,
बहुरि न भव में पाऊं ॥जगतगुरु०॥
कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरो देवी जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी, नई दिल्ली-२के सौजन्य से
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पाप-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत पौर प्राकृत के १७१ प्रकाशित प्रन्थों की प्रशस्तियों का पगलाचरण
परित प्रपर्व संबह, उपयोगी ११ परिशिष्टो पोर प. परमानन्द शास्त्र की इतिहास-विषयक मानिस
परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द । ... गप्रम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सपहा 11
पम्पकारों के ऐतिहासिक पंथ-परिचय पोर परिशिष्टो सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । मजिल्द । १५... पनवेलगोल और दक्षिण के अग्य बंन तीर्ष: श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सध्या ७४, सजिल्द । नसलमावली (तीन भागों में): स.प.बालबाद पिताम्त शास्त्री
प्रत्येक भाग..... Basic Tenents of Jainijm : By Shri Dashrath Jain Advocate.
5-00 Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain
References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pag.8, volume 11 contains 1045 to 1918 pages size crown octavo.
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सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मद्वित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०.१०५, न्यूमोलमपुर, दिल्ली-५३ !
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प्रिन्टेड पत्रिका बक-पैकिट
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वीर सेवा मन्दिरका प्रेमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
बब ४६: कि०२
अप्रल-जून १६६३
कम
इस अंक में
विषय १. गुरु-स्तुति २. प्राचीन भारत को प्रसिद्ध नगरी अहिच्छत्र
-डा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ३. श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व
-~-जस्टिस एम. एल. जैन ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड का शुद्धि-पत्र
-पं. जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर ५. केरल में जैन स्थापत्य और कला
-श्री राजमल जैन, दिल्ली ६. जिनागमो का संपादन
-श्री जौहरीमल पारख ७. प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में प्राप्त कुछ पत्र ८. पुरानी यादें-सपादक ९. ऊन के देवालय
-श्री नरेश कुमार पाठक १०. अ. भा० दि० जन विद्वत्परिषद् के खुर अधिवेशन मे पारित एक प्रस्ताव
कवर पृ०२
प्रकाशक :
बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्-खुरई अधिवेशन में
दि० २७-६-६३ को पारित प्रस्ताव
वर्तमान काल में मूल आगम ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन के नाम पर ग्रन्थकारों को मल गाथाओं में परिवर्तन एवं संशोधन किया जा रहा है। जो आगम को प्रामाणिकता, मौलिकता एवं प्राचीनता को नष्ट करता है। विश्व-मान्य प्रकाशन-संहिता में व्याकरण या अन्य किसी आधार पर मात्रा, अक्षर आदि के परिवर्तन को भी मूल का घातो माना जाता है। इस प्रकार के प्रयासों से ग्रन्थकार द्वारा उपयोग की गई भाषा को प्राचीनता का लोप होकर भाषा के ऐतिहासिक चिह्न लप्त होते है। अतएव आगम/आर्ष ग्रन्थों की मौलिकता बनाए रखने के उद्देश्य से अ० भा० दि. जैन वि० ५० विद्वानों, सम्पादकों, प्रकाशकों एवं उनके ज्ञात-अज्ञात सहयोगियो से साग्रह अनरोध करता है कि वे आचार्यकृत मल-ग्रन्थों में भाषा-भाव एवं अर्थ सुधार के नाम पर किसी भी प्रकार का फर-बदल न कर। यदि कोई सशोधन/परिवर्तन आवश्यक समझा जाए तो उसे पाद-टिप्पण के रूप में हो दर्शाया जाए ताकि आदर्श मौलिक कृति की गाथाएं यथावत ही बनो रहें और किसो महानुभाव को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के २५०० वर्ष उपरान्त उत्पन्न जागरूकता के बाद भी मूल आगमों में संशोधन किया गया है।
- सुदर्शन लाल जैन
मत्री
नोट-विद्वत्परिषद् द्वारा पारित उक्त प्रस्ताव सम-सामयिक और आर्ष-रक्षा के लिए कवच हैउसका पालन होना चाहिए। हमसे लोग कहते है आप विद्वानों के नाम बताएँ जिनसे आगम-भाषा विषयक निर्णय लिया जाय । सो हमारी दृष्टि में परम्परित आगम-भाषा भ्रष्ट ही नहीं है तब निर्णय कैसा ? यदि सशोधकों की घोषणानुसार परम्परित आगम-भाषा को त्रुटित या भ्रष्ट मान भी लिया जाय तब तो उस भाषा को पढकर डिग्री प्राप्त वर्तमान विद्वान भी भ्रष्ट-ज्ञान ठहरे-वे क्या निणय करेगे? हम तो व्याकरण वद्ध-भाषा और आप भाषा दोनो में अन्तर मानते है । आर्ष-भाषा के विषय में समय-प्रमुख (पूर्ण श्रुतज्ञानी-गणधर देव) प्रमाण है --और वर्तमान में उनका अभाव है। फलतः हमें आर्ष-रक्षा में पारित उक्त प्रस्ताव ही मान्य है। परम्परित-आगम में विद्वानों की ऐसी श्रद्धा का हम सन्मान करते है।
-सम्पादक
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परमागमस्य मोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ४६ किरण २
वोर-सेवा मन्दिर, २१दरियागंज, न दिल्ली-२
वीर-निर्वाण मवत् २५८, वि० सं० २०५०
अप्रैल-जन १६६३
गुरु-स्तुति कबधों मिल मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करिहैं भवदधि पारा हो । भोग उदास जोग जिन लीनों, छाडि परिग्रह भारा हो । इन्द्रिय-दमन वमन मद कोनों, विषय-कषाय निवारा हो। कंचन-कांच बराबर जिनके, निदक वंदक सारा हो। दुर्धर तप तपि सम्यक् निज घर, मन वच तन कर धारा हो। ग्रीषम गिरि हिम सरिता तोरें, पावस तरुतर ठारा हो। करुणा लीन, चीन त्रस थावर, ईर्यापंथ समारा हो। मार मार, व्रतधार शील दृढ़, मोह महामल टारा हो। मास छमास उपास, वास वन, प्रासुक करत अहारा हो। आरत रौद्र लेश नहिं जिनके, धरम शुकल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शध उपयोग विचारा हो । आप तरहिं औरन को तारहि, भवजलसिंधु अपारा हो। "दौलत" एसे जन जतिन को, नित प्रति धोक हमारा हो ।
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(गताक से गे) प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी-अहिच्छत्र
: डॉरमेश चन्द्र जैन
दूसरी शताब्दी ई० के प्रारम्भ में जबकि कनिष्क के प्रमुख नगरों में इसको गणना होने लगी। यह पापारिक तत्त्वावधान मे कुषाणो की शक्ति का विस्तार हुप्रा तब मार्ग से बनारस, पाटलीपुत्र, कौशाम्बी, मथुरा तथा तक्ष. पंचाल के गजा इसके अधीन हुए तथा सम्भवत: अधीनस्थ शिला से जुडी थी । पाणिनि वी अष्टाध्यायी की काणिका राजा के रूप मे शासन करने की उन्हे अनुमति दी गई। वृत्ति मे अहिच्छत्रा को प्राच्य दश के अन्तर्गत परिगणित किन्तु जब दूसरी शताब्दी के मध्य कुषाण कमजोर पड़े किया है । मनु ने पंचाल देश के लोगो को प्रमुख स्थानो तब अहिच्छता के प्रमुख के साथ उनके अन्य अधीनस्थ पर युद्ध हेतु यह चयन करने के लिए कहा है। सुन्दर गजाओ ने एक साथ देश के अनेक भागो मे विद्रोह खडा मृण्मूर्तियां तथा पाषाण मूतियाँ अहिच्छत्रा में बनाई जाती कर दिया तथा एक साथ कुषाण साम्राज्य के महल को थी। माला के दाने बनान का उद्योग यहाँ समृद्ध अवस्था ढहा दिया, अहिच्छत्रा तथा उसके साम-पाम कुषाणो के मे था । मालाओ को कवल ऊँची श्रेणी के लोग ही नही कम ही सिक्के, जिनमे एक दो वसुदेव के सिक्के है, प्राप्त पहिनते थे, अपितु मध्यम और निम्न श्रेणी के लोग भी हुए हैं। अहिच्छत्रा द्वितीय शताब्दी में प्रसिद्ध तथा पहिनने थे। पंचानिकाओ के अन्तर्गत हाथी दांत की महत्वपूर्ण नगर था, यह बात भूगोलवेत्ता टालमी (लगभग गडियो का अमरकोशमें निर्देश यह बतलाता है कि इस १५० ई.) के आदिसद्रा नाम से किये गये उल्लेख से प्रकार की गडियां इस क्षेत्र में बनाई जाती थी। अहिच्छत्रा प्रमाणित होती है । कुषाणो के पतन तथा गुप्तो के अभ्यु. मे सम्बन्धित कुछ शक-कुषाण काल की खिलोने की दय के मध्य का काल उत्तरी भारत से अनेक गणतत्रों मतियां विभिन्न प्रकार के फैशन और जातियो का प्रतितथा राजतत्रो (जिनमे अहिच्छत्रा राजतंत्र भी सम्मिलित निधित्व करती है । इससे उम युग के जातोय अन्त. प्रवेश है' के सकट का काल है।
का पता चलता है। रेतीले पत्थर से निमिन दो मूर्तियाँ तृतीय शतान्दी के पूर्वार्द्ध मे किसी समय मित्रवश का अहिच्छत्रा से प्राप्त हुई है। ऐमा प्रतीत होता है कि वे अन्त मालम पडता है अथवा ये किसी दूसरे वश से आक्रान्त मथुरा से मंगाई गई थी। इनमें से एक पर द्वितीय हो गए ज्ञात होते हैं । राजा शिवनन्दी तथा भद्रघोष इसी शताब्दी ई० का ब्राह्मी लिपि मे लेख है। काल से सम्बन्धित हैं। इनमे से पहले के नाम के मिक्के अहिच्छत्रा से प्राप्त हुए हैं। इनमे तृतीय शताब्दी के लक्षण
गुप्तकाल के बाद अहिच्छता विद्यमान हैं। ये दोनो नागवश के या उनके उत्तराधि- गुप्तो के बाद छठी शताब्दी के उनरार्द्ध मे पचाल कारी हो सकते है। राजा अच्यु अथवा अच्युत (जिसका क्षेत्र मौखी राजाओ के अधिकार मे आया, जिन्होंने अपने उल्लेख अनेक सिक्को मे है) वा इन्ही से सम्बन्धित रहा राज्य का विस्तार अहिच्छत्रा तक किया। इनके यहां कुछ होगा। वह अन्तिम पचाल राजा था तथा चौथी शताब्दी मिकके प्राप्त हुए हैं । सम्राट हर्ष के (६०६-६४७ ई ) के ई. के मध्य वृद्धिगत हुप्रा ।
वंश के शिलालेख से यह प्रमाणित होता है कि यह क्षेत्र २०० ई०५० से ६५० ई. तक अहिच्छता अहिच्छत्रा भक्ति के शासन का एक भाग था"। इस भक्ति
छ सो वर्ष के पचालो के इम काल मे राजधानी में अनेक विषय (जिले) थे। प्रत्येक विषय मे अनेक अहिच्छत्रा ने उस खनीय प्रगति की तथा उत्तर भारत के पथक (परगने) थे। प्रत्येक पथक मे अनेक ग्राम थे।
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प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी-च्छित्र
हष के बाद की स्थिति :
स्वरूप अहिच्छत्रा का विनाश निर्धारित किया जाता है। हर्ष की मत्यू के ५० वर्ष बाद का इम क्षेत्र का इति- कन्नौज के विरुद्ध १०१६ को चढ़ाई में महमद उस नगर हास अवशिष्ट उत्तर भारत के लिए विषमना का था। को बढने में पूर्व रामगंगा को पार कर गया था; अत: इम चन्द कवि के पृथ्वीराज रामो के अनमार यह कहा जाना जिले से गजरा होगा, किन्तु उसकी चढाइयो के प्रमग में है कि लगभग ७१४ ई० मे उस समय के प्रधान शासक अहिच्छत्रा का कही नामोल्लेख नही है, इसमें यह प्रतीत रामा परमार ने राजदूत वश की ३६ राजकीय जातियो होता है कि वह कभी भी इस स्थान पर नही आया था। को भूमि भेट की थी, इसमें से एक के हर जाति थी; जिसे इसका कारण यह था कि उस समय यह पूरी तरह से उसने कठेर दिया था। यदि इस परम्परा को सही मान आशिक रूप से उजड चुकी थी। लिया जाय तो यह कठेर शब्द का पहला प्रयोग है, जिसके
अहिच्छता का कवि वाग्भट : नाम से रुहेलखण्ड (प्राचीन उत्तरी पचाल); जिममे बरेली
वाग्भट कवि ने पन्द्रह मगो मे "नेमिनिर्वाण काव्यम" जिला भी सम्मिलित है, पूरे मध्यकाल मे जाना गया ।
लिखा था। इम ग्रन्थ का रचनाकाल ई० मन १०७५___ आठवी शताब्दी क दूमरे चतुर्थ भाग मे अहिच्छत्रा
११२५ माना जाता है। इसमे १५ सगों मे तीर्थकर विषय कन्नौज के यशोवर्मन के अधिपत्य में आ गया।
नेमिनाथ गजीवनवृत्त अकित किया गया है। वाग्भट इसके अनन्तर कुछ दशको के लिए कन्नोज के ही राजा
नाम के कई विद्वान हुए है। "अष्टाग हृदय" नामक आयुध के अधिकार मे आया। नवी शताब्दी के पूर्वार्द
आयुर्वेद ग्रन्थ के रचयिता एक वाट हो चुके है, पर मे सम्भवतः नागभट्ट द्वितीय के कन्नौज पर अधिकार व र
इनका कोई काव्य ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। नेमिनिर्वाण लेने पर गुर्जर प्रतीहारो की उदीयमान शक्ति के हाथ में
काव्य की जैन सिद्धान भान पारा की हस्तलिखित प्रति आया। कुछ लोग इस रजा का नाम विग्रह कहते है।
में; जिसका लेखनकाल वि० स० १७२७ पौष कृष्णा जिसके सिक्के अहिच्छत्र से प्राप्त हुए हैं। इसी स्थान से
अष्टमी शुक्रवार है, निम्नालखित प्रगस्ति श्लोक उपलब्ध जो आदिवर ह के मिक्के प्राप्त हा है वे निश्चित रूप से
होता हैभोज (लगभग ८३६-८८५ ई०) से सम्बन्धित है जो कि
अहिच्छत्र कुलोत्पन्न: प्राग्वाट कुल शालिन । कन्नौज के गुर्जर प्रतीहारो मे मबपे बडा था। दसवी के अन्त तक अहिच्छत्रा का क्षेत्र उन के आधिपत्य मे रहा।
छाहडस्य सुतं चक्रे प्रबन्ध वाग्भट कवि.॥ यह ज्ञात नही कि यह एक "भक्ति" के रूप मे उनके सीधे यह प्रशस्ति पद्य श्रवणबेलगोल के स्व०प० जिनदास प्रशासन मे था अथवा अपने किसी अन्य अधीन राजा का शास्त्री के पुस्तकालय वाली नेमिनिर्वाण काव्य की प्रति इसने प्रशासन सौपा हुआ था।
मे भी प्राप्य है। दसवी तथा ग्यारहवी सदी का अहिच्छया क्षेत्र :- प्रशस्ति पद्य से अवगत होता है कि वाग्भट प्रथम दसवी सदी के कन्नौज के राजकवि राजशेखर ने पचाल प्राग्वाट पोरवाल (परवार) कुल के थे और इनके पिता के कवियो की श्रेष्ठता का वर्णन किया है । उसके अनुसार का नाम छाहर था। इनका जन्म अहिच्छवपुर में हुआ पांचाल नाट्यकला मे निपुण थे और उन्होने रगमच का था। महामहोपाध्याय ओझा जी के अनुमार नागौर का
काम किया था। पचाली इस क्षेत्र की बोली थी। पुराना नाम नागपुर या अहिच्छत्रपुर" है। नाया धम्मपंचाली नारी की भद्रता की दूर-दूर तक प्रतिष्ठा थी। कहानो मे भी अहिच्छत्र का निर्देश आया" है। डाक्टर
मनष्य इस क्षेत्र के निवासियो के परिधान की जगदीश चन्द्र जैन ने अहिच्छा को अवस्थिति रामनगर जी का अनकरण करते थे। ११वी शताब्दी के प्रारम्भ ही मानी है"। अधिकांश विद्वान नेमिनिर्वाण काप के सोशलबनी ने पचाल को नौ बड़े बड़े राज्यो के अन्तर्गत रचयिता वाग्भट का जन्म स्थान आधुनिक रामनगर परिगणित किया है। महमद गजनवी क धावे के परिणाम (जिला बरेली) को ही मानते है"।
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४, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त अहिच्छत्र से प्राप्त मिट्टी की वस्तुएं
मूर्तिकला अहिच्छत्रा प्राचीन काल से उत्तर भारत में मिट्टी की अहिच्छत्रा के शिव मन्दिर में लगी हुई गंगा और बस्तुओ के निर्माण का प्रमुख केन्द्र रहा। विभिन्न प्रकार यमना की गभग कार्यपरिमाण मण्मतियां मिली है। की स्ट्रो की छोटी-छोटी मूर्तिया यहा प्राप्त हुई है, जो कि अहिछत्रा में मौयं शुग युग की पुरानी मातृमतियां मिली लगभग ३०० ई०पू० से ११०.ई. तक की। इन । अहिछत्रा से प्राप्त टिकरो पर मिथुनमुक्ति प्रायः लगभग ३००-२०० ई०पू० की मातृदेचियो की मूर्तिया अक्षित है। ये टिकरे नाचे से बने इए हैं और उस युग के भी सम्मिलित है। छ मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए है। है जब डोलियाने और छ अग साचे से निकालने का इनका वाल '५०० ई० पू० से ६००ई० पूर्व निर्धारित सक्रान्तिकाल बीत चुका था स्त्री मूर्तियो मे केश और किया गया है। ३ • से २०० ई०पू० के स्तर में गीली हागे मे मालिक चिन्ह है। पुरुषमति सप्ततत्री बीणा मिट्री से निमित कुछ ईटें प्राप्त हुई है। ओवा में पकाइ लिए हरा है। आरम टिकरी पर मिथुन या स्त्री-पुरुष हई ईटो के ढांचे पश्चात् कालीन स्तर में प्राप्त हुए है, क अकन था और कुछ का बाद बड़ी दम्पत्ति या पतिजिनका समय प्रथम शताब्दी ई० पू० निर्धारित विधा पत्नी के रूप में परिवर्तित हो गया। दोनों का भेद यह गया है। उस समय नगर का ढेनीन मील के धेरे का हैकिला बनाया गया था। लगभग ३५० ई० से ७५० ई० १. मिथुन प्रकार क. टिकरो म स्त्री-पुरुष के बायी की परत मे ७६. मन्दिर प्राप्त हुआ है, जिम में बड़ी-बड़। ओर है और दम्पत्ति टिकरो मे वह बायी बोर है। ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी मूति ।। मिली है। जो कि मिट्टी को २. मिथुन टिकगे के किनारे टेढ़े-मेढ़े हैं। किन्तु पकाकर बनाई गई थी। धार्मिक मण्मय मूर्तियोम ब्राह्मण, दमनिटकरे एकदम सीधे, सच्चे और फलोको गोट तथा बौद्ध तथा जैन धर्म से सम्बन्धित देवी देवताको की छाटी- पृष्टभूमि से युक्त है। छोटी मूर्तिया प्राप्त हुई है। ये गुप्तकाल स लेकर मध्य- ३. मिथुन मतिय दम्पति की अपेक्षा अधिक गहनों काल तक की है। कुछ मणमूनिया जो कि गुप्तकाल से पर- से लदी है। वर्ती तथा मरगम पूर्ववर्ती है, के शिरोवष्टन सहित ४ दम्पनि टेकरों पर शुंगकालीन भरहत को पाषाण सिर एक विशे दिया शैली के है। कुछ स्त्रिया दाये मूतियो के सदृश ही वस्त्र, आभूषण, केश-विन्यास, भारी हाय में बचे लिए हुए है अथवा गेद या खनखनाहट का उष्णीप और गोलमुख उकेरी है। शब्द करने वाला खिलौना लिए हुए है। कुछ मूर्तियो को ५. मिथुन मृतियो मे धार्मिक भाव है और कही भी आकृति बिल्ली के समान है तथा कुछ घुडसवार और काम की अभिव्यक्ति नहीं है, किन्तु दम्पति मतियों में हस्ति बारोहको की है। तीन सिर वाली स्त्री मतिया भी प्रेमासक्ति का भाव है। मिली है, जो सम्भवत. बच्चो के जन्म की अधिष्ठात्री आहच्छत्रा के उत्खनन मे प्राप्त मूर्तियों के आपेक्षिक देविया पी। मल्लो की मति भी साप्त हुई है। सती स्तर सूचित करते है कि मिथुन मूर्तियाँ अधिक गहराई में पाषाण के पास सती सत्ता (सती तथा उसका मत पति) और दम्पति मूर्तियां उसके बाद के स्तर (१०. ई.पू. की मतियां अर्पित की जाती थी। ये मण्मय लघु मनिया मे १०० ई०) मे प्राप्त हुई है। सामान्य जन की कलात्मक अभिव्यनि. का प्रतिनिधित्व अहिच्छत्रा मे मातृदेवी की दो तीन मतियां सबसे करती हैं। इनसे उस समय की अभिरुचि, फैशन, धार्मिक नीचे के स्तरी से प्राप्त हुई हैं (लगभग २०० ई० पू०) विश्वास, सामाजिक तथा धामिक दशा व कार्यों का पता उनमें से सबसे प्राचीन स्तर स०७ (३००-२००१००) चलता है । अहिच्छत्रा के शिव मन्दिर में लगे हुए गिट्टी मिली है"। १.० ई०पू० से १..ई. तक की मतियों के फलक बहुत ही सुन्दर मकला के परिचायक है। में नृत्य करती हुई स्त्रियां, मां तथा बचा दायें हाथ में
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प्राचीन भारत की प्रसिब नगरी-अहिच्छत्रा
सितार लिए हुए मनुष्य, एक नग्न बच्चा तथा एक खड़ा वाया होगा । किन्तु इसमे कि उन्होंने नई इंटे नही लगहुआ सन्यासी प्रमुख है । लगभग १०० से ३५० ई० तक वाई । अत: केवल मजदूरो पर ही उनका व्यय हआ। बोने, नगाड़ा बजाने वाले तथा मसक बाजे वालो की कुछ स्थानों पर अधिष्ठान पर दीवारों को मोटाई १५ लघु मूर्तिया मिली हैं। इनके साथ दीपक, चिड़िया, पालथी फोट तथा कुछ स्थानो पर १४ से १५ फीट तक है। मारकर बैठे हुए बोने सगीतज्ञ तथा सकोरे आदि प्राप्त अहिच्छत्र जिला ५०० मील के घेरे मे था। इसमे रूहेलहुए हैं। लगभग ४५०-६५० ई. के धातु के सजे हए खण्ड का आधा पूर्वी भाग रहा होगा जो कि उत्तरी टुकड़े शिव मन्दिर से प्राप्त हुए हैं जिसमे शिव की पौरा- पहाडियों से गगा के मध्य स्थित था। पश्चिम मे पीली. णिक कथाओ से सम्बन्धित चित्र है। मुडे हुए धातु के भात स घाघरा क नि
भीत से घाघरा के निकट खराबाद तक रहा होगा। यह सजे हुए टकड़े गुप्तकाल के है। इनके अन्दर बनी हुई स्त्री प्रदेश राजमार्ग से ५०० मील ठहरता है। पुरुष मूर्तियां स्त्री पुरुष को बालो की सजावट की विवि- १९४० से १९४४ तक आर्कमाजिकल मर्वे विभाग ने धता प्रस्तुत करती हैं। कुछ पश्चात् कालीन पति तथा किले के मध्य कुछ गिने चुने स्थानो पर खुदाई की थी। पत्नियो की मूर्तियो धर्मनिरपेक्ष है। इनमें छेद बने हुए है खुदाई के परिणामस्वरूप प्रागैतिहासिक काई वस्तु नही जो सम्भवतः गाय के पवित्र स्थानो अथवा समाधियों पर मिलो। अतः इम स्थान का महाभारत की पुरानी अहि. मनौतियां मनाने वालों द्वारा रखी जाती है।
च्छत्रा से सम्बन्ध जुटाना अभी शेष है। यहा प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक अन्वेषण :
स्तरो का काल इस प्रकार निर्धारित किया गया है। आधुनिक काल में सबसे पहले कैप्टन हाम्सन अहि स्तर--६ ३०० ई० पू० पछत्र पहुंचे थे। उन्होंने अहिच्छत्र की कई मीलों तक फैले स्तर-८
३०० ई० पू० से २०० ई. पूर्व हए किसी प्राचीन दुर्ग का भग्नावशेष बतलाया था, जिसमे
स्तर
२०० ई० पू० से १०० ई० पूर्व सम्भवत: ३४ अट्टालक थे, और जिये पाण्डु दुर्ग कहा
स्तर- ६ तपा ७ १०० ई० पू० से १०० ई० जाता था। अट्टालक प्राय: २८ से ३० फुट ऊचे थे, केवल
स्तर--४ १०० ई० से ३५० ई. पश्चिम की ओर ऊंचाई ३५ फीट थी। दक्षिण पश्चिम स्तर-३
३ ० ई० से ७५० ई. किनारे के समीप एक अट्टालक ४७ फीट ऊचा है। अन्दर स्तर-२ ७५० ई० से ८५० ई. के करों की औसतन ऊचाई १५ से २० फीट है। वर्त- स्तर--१ ८५० ई० से ११०० ई. मान में प्राप्त कुछ अट्टालक अधिक प्राचीन नही हैं, क्यों १८६२ ई० के कनिघम ने भी अहिच्छत्रा के कुछ कि २०० वर्ष पहले मोहम्मद खां ने इस दुर्ग को पुनः भाग को खुदाई कराई थी। १८८८ मे रामनगर के एक स्थापना की कोषिश की थी। मुहम्मद खां का उद्देश्य इसे जमोदार ने खुदाई कराई। आशिक खुदाई १८६१-६२ अपना किला बनाना था ताकि मुगल बादशाह के द्वारा मे हुई । १९४०-66 मे आर्कलाजिकल सर्वे आफ इडिया खदेड दिये जाने पर इसमें शरण प्राप्त की जा सके । नई विभाग ने अधिक व्यवस्थित और विस्तृत कार्य किया। दीवालों की मोटाई २ फीट ९ इच से ३ फीट ३ इच तक १९४०-४४ के कार्य के फलस्वरूप ३०० ई० पूर्व से है। प्रचलित परम्परा के अनुसार प्रली मुहम्मद ने इस ११०० ई० तक के नी स्तर प्रकट हुए। सबसे नीचे स्तर दुर्ग के पुननिर्माण में एक करोड़ काया व्यय किया। पर कोई रचना नही मिली, किन्तु भरे लाल रंग की अन्त मे इसके भारी व्या में विवश होकर उसने इस मिट्टी के बर्तन निकले। यद्यपि उत्तर भारत में अनेक योजना को छोड दिया। वनिंघम का अनुमान है कि स्थानो पर. विशेषत: जो स्थान महाभारत की कथा से अली महम्मद ने एक लाख रुपये इस किले के जीर्णोद्धार सम्बन्धित है, यह निकल । इस प्रकार के मिट्टी के बर्तनों में व्यय किये होगे । दक्षिण पूर्व की ओर एक कलात्मक के उत्पादक कारखाने उस समण काल से सम्बन्धित है प्रवेशार है, जिसे निश्चित रूप से मुसलमानों ने बन- जो कि हडप्पा संस्कृति के बाद और ऐतिहासिक युद्ध से
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६, वर्ष ४६, कि०२
पूर्व का है। इन स्थानो मे बसने वाले प्रारम्भिक आर्यों गलियां थीं। गलियों में प्रवेश हेतु बड़े-बड़े दरवाजे थे। की सस्कृति की विशेषताओ को यह समाहित किय हुये नगर के मध्य में ग्क उन्नन मन्दिर था। गली के दोनों है। मिट्टी के बर्तनो को बाह्य तथा निचली मीमा लगभग ओर व्यवस्थित मनकानों की कतार थी। इन पुरातात्विक लगभग १५०० ई० तथा ६०० ई०प० निश्चित की गई अन्वेषणो से सिद्ध है कि शताब्दियो पूर्व से मुसलमानो के है। अहिच्छत्रा में इन बर्तनो के ऊपर वाले स्तर पर आगमन काल तक यह क्षेत्र बहुत समद्ध और वैभवयुक्त बर्तनों की एक दूसरी जाति प्राप्त हुई है। इसका काल रहा था तथा इसको राजधानी अहिच्छत्रा सभ्यता और छठी.चवों ई०प० से द्वितीय शताब्दी ई० पू० है। सस्कृति की उच्च श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती थी। इसी
किले के क्षेत्र में दो बरामदायुक्त मन्दिरो के खंडहर प्रकार यह नगरी इस क्षेत्र के व्यापार तथा उद्योग धन्धे, प्राप्त हुए है। गुप्त युग में बनाए प्रतीत हाते हैं और कला, सामाजिक दशा तथा राजनैतिक स्तर का भी प्रतिबारहवी शताब्दी तक इनका प्रयोग होता रहा। लगभग निधि व करती थी। उत्तर प्रदेश के दूसरे प्राचीन नगरों ७५०-८५० तथा ८५०-११०० की पतो को क्रमशः के समान अहिच्छत्रा हिन्दू जैन तथा बौद्ध परम्पराओ का देखने से यह ज्ञात होता है कि इन समयों मे भवन निर्माण बहुत बड़ा केन्द्र था। यह परम्परा अब भी जुडी हुई है का कार्य अधिक नहीं हुआ।
और जैन लोग इसे अब भी पवित्र तीर्थ मानते है।। अहिच्छत्रा के खडहरो मे विभिन्न प्रकार के पदाथों अहिच्छवा मे एक विस्तृत मन्दिर का अहाता जो कि से निमित विभिन्न आकार और नाम के माला के दाने सम्भवत: शिव को समपिन था, दो बड़े चौरस मन्दिरों प्राप्त हुए है, जो कि ३०० ई० पूर्व से १.०० ई. तक के के ढाचे तथा बहुत सारी मिट्टी एव पत्थर की देव प्रतिहैं। इनमें खोदे हए सुलेमानी पत्थर से निमित, बिल्लौर मायें प्राप्त हुई हैं। ब्राह्मण, बौद्ध एव जैन प्रतिमाये के बने, नुकेले पत्थर के बने हुए, हरिमणि से निमित, गुप्त ल को है। मुख्य बौद्ध स्तूप तथा इसके चारो ओर रत्नमयी, हड्डी से बने तथा बीजो से बने मनके सम्मिलित चार छोटे स्तूपो की रचना तथा कोठारीखेड़ा के जैन हैं। कुछ दानो पर ऊची किस्म की पालिश है जो कि मन्दिर की रचना इसी काल की निर्धारित की गई है। प्राचीन अहिच्छत्रा के जोहरियो की उत्कृष्ट कारीगरी को इस काल की सुन्दर कला कृतियां इस स्थान के इस स्थान सूचित करती है। हरिन्मरिण में किये हुए छेद यह अभि- के मूर्तिकार, स्थापत्यकार जोहरी तथा अन्य शिल्पकारो व्यक्त करते हैं कि वस्तु की कठोरता के बावजद छेदने की प्रतिभा को अभिव्यक्त करती है तथा यह सूचित करती की वर्मा को तीक्ष्णता तथा निर्धारित धुरी पर खुदाई हकि यह एक
हैं कि यह एक स्वतंत्र राज्य की राजधानी के अतिरिक्त उत्कृष्ट थी। पालथी मारकर बैठी हई गर्भवती स्त्री के
बढा और समद नगर था। इसमे सुन्दर और ऊची इमाझुमके का घुमाव तथा नक्काशी बड़ी योग्यता से की गई
रतें थी। गिलगिट पाण्डुलिपि (जो गुप्तकाल के बाद है यह आकृति शुग काल लगभग (२००-१०० ई० पूर्व) लिखी गई) मे उत्तर पचाल का वर्णन अ.यधिक समद की निर्धारित की गई है। प्राचीन भारतीय नीले और हरे एव धन-धान्य से सम्पन्न एवं धनी जनसख्या वाले जनपद रग के शीशे के नमूने, जो कि प्रथम शताब्दी ई के हैं के रूप में हुआ है। गुप्तो के बाद छठी शताब्दी के उत्ता भी खोद निकाले गए हैं। भारी संख्या मे मौर्य काल से राख में यह क्षेत्र मोखरि राजाओं के अधिकार में आया: लेकर मध्यकाल से पूर्व के सिक्के बहुत ही शैव, वैष्णव जिन्होने राज्य का विस्तार अहिच्छत्रा तक किया। इनके तथा बौद्धधर्म सम्बन्धी पाषाण प्रतिमा मन्दिरों के प्रव. यहा कुछ। शेष, समाधियां, स्तूप, मठ, तालाब, किले की प्राचीर,
पभोसा शिलालेख"
द्वितीय या प्रथम शताम्दी ई०पू० गलिया, मकान, भवन आदि भी प्रकाश में लाए गय हा १. अधियछात्रा राजो शोनकायन पुत्रस्य वगपालस्य । खुदाई तथा अन्वेषण से प्राचीन ईंट निर्मित नगर के अब
२. पुत्रस्य रामो तेवणी पुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण । बेष प्राप्त हुए हैं। यह नगर प्रायः विस्तृत था। इसमें
(शेष पृ० १४ पर)
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(गतांक से आगे)
श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व
0 जस्टिस एम० एल० जैन जे भिक्ख अचेले परिवपिते, तस्स ण एव भवति- एगया अचेलए होड, सचेले यावि एगया। चाएमि अह तण फास अहियासितए, सोयफास अहया- धम्महियं नच्चा नाणी गो परिदेवए। सित्ता ते उफास अहियासित्तए, दममस गफास अहियामित्तए, अर्थात् कभी अचेलक होने पर तथा कभी सचे न होने एगतरे अण्णतरे वरूवरूवे फासे अहिया सित्तए, हरिपडि पर दोनों ही अवस्थायें धर्म हि के लिए है ऐमा जानकर च्छादणं चहं गो संचाएमि, अहियासित्तए, एव कथति से ज्ञानी खेद न करे । कडि वधण धारित्तए।
अचेलगस्स लूहस्स सजयस्स तवस्सिरणी। अदुवा तत्यपरक्कमन भज्जो अचेल तणफासा फुसंत तणेसु लुयमाणस्स होज्जा गायविराहणा॥ सीय फ सा फुमति ते उफासा फुसति, दमममग फामा फुति, आयवस्स निवाएणं, अतुला हवइ वेयणा। एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फामे अहियासेति अचेले लाघ- एवं गच्चा न सेवति तंतुजं तणतज्जिपा ॥ विय आगममाणे तवे से अभिम मन्नागए भवति जमेय जब अचेलक झक्ष सयमी तपस्वी तृण शय्या पर सोता भगवना-पवेदित तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए है तो उमके गात्र को विराधना (क्षति) होगी तथा आप समत्तमेव समभिजारिया ।
___ होने पर अतुल वेदना होगी इस प्रकार तृणकथित होने __जो भिक्षु अचेल रहता है तो उसे नही मोचना चाहिए पर भी भिक्षु तन्तु ज (वस्त्रादि को धारण नहीं करेगा। वि मै तृण, सदा, गमा, दशभशक या अन्य तर विविध उत्तराध्ययन सूत्र के ही प्रयोविंश (२३बे) अध्ययन मे प्रकार के परीषद सहन कर सकता हूं किन्तु मैं गुप्तागो के केशी गौतम का परिसवाद विस्तार से लिखा है जो इस आवरण को नही छोड सकता याद ऐसा हो तो वह कटि. प.
कता याद एसा हा तो वह काट प्रकार हैबधन धारण कर सकता है।
वशी पार्श्वनाथ के शासन के शिष्य थे और गौतम थे यदि अचेल निक्षु अपने चरित्र मे दृढ़ रहता है और शिष्य महावीर के। दोनो का एक समय श्रावस्ती नगरी तण, शीत, उष्ण, दशमशक या अन्य विविध प्रकार के मे अपने-अपने शिष्य समुदाय के साथ निवाम हुआपरीषहो को सहन करता है लाघवता को प्राप्त कता है दोनों ही अचित्त घास की शय्या पर, केणी तिन्दुक नामक हमको भी भगवान ने तप कहा है और सर्वदा सर्वल उद्यान मे तथा गोतम कोष्टक नामक उद्यान मे ठहरे थेसमभाव रखे।
एक दिन भिक्षा के निमित्त उनके शिष्य निकले और इसे जिनकल्पी साधुओ का आचरण बताया गया। बामना-सामना हा तो एक ही ध्येय होने तथा एक ही इतना स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी अचेल शब्द का अर्थ धर्म के उपासक होने पर भी एक दूसरे के वेश तथा साधु अला वस्त्र किया गय! । अब तक के परिशीलन से जाहिर क्रियाओ मे अन्तर दिखाई देने से एक दूमरे के प्रति सदेह है कि श्वेताम्बर आगमी में वम्बरहित साधु के अस्तित्व उत्पन्न हुआ। व समादर का वर्णन ही नहीं है उनके आचरण के नियम अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतस्त्तरो। भी बनाए गये हैं।
एगफज्ज पवन्नाणं, विसेसे किनु कारणं ।। (४) उत्तराध्ययन सूत्र मे भिक्ष के लिए लिखा है [चेलकश्च यो धमो, यो नांतराणि एक कार्य प्रपन्नो
विशेषे किंतु कारणं]
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८, वर्ष ४६, कि० २
अनेकान्त
यह नात जब श्रमण गौतम तक पहुंची तो वे स्वयं भिक्षुओं ने रगोन वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया। यह केशी मुनि के उद्यान मे गए। केशी मुनि ने पूछा- देखकर महावीर भगवान ने वस्त्र का ही निषेध कर दिया। एग फज्जपवण्णाणं, विप्लेसे कि कारणं ।
इस संवाद और टीका के अध्ययन से यह नतीजा धम्मे दुविहे मेहायो, कहं विप्पच्चओ न ते।।२८।। निकल रहा है कि दिगम्बरत्व सम्पूर्ण जैन शासन का एक अचेलप्रो प्रजो धम्मो जो इयो संयरुत्तरो। विशिष्ट अग रहा है किन्तु वस्त्रधारी थमणो ने अपना पक्ष देसियो वद्धमाणेण, पामेण य महामुणी । ६॥ सवल करने के लिए अचेक शब्द का अर्थ ही अल्पवस्त्र एकज्ज पवण्णाणं, विसेसे किनु कारणं । कर डाला। जान पडता है यही से श्वेताम्बर परम्परा मे खिगे दुविहे मेहावी, कहं विपच्चयो न ते?॥ ॥ दिगम्बत्व के विरोध की नीव डाल दो गई।
हे मेधावी, एक कार्य प्रपन्न होते हुए भी धर्माचरण (५) ठाणं मे उल्लेख इस प्रकार हैदो प्रकार का तथा लिंग भी दो प्रकार का अलक व से जहाणामए अज्जो। मए समणाणं णिग्गवाण सांनरोत्तर ऐमा वयो? क्या इस विषय मे आपको पाका जग्गभावे मुण्डभ वे अम्हाणए, अवनवण', अच्छतए, अणनही होती?
वाहणए भूमिज्जा फलगसेज्जा कमेज्जा केसलोए वंभ___ गौतम का उत्तर था कि हे महामुनि, समय का चेग्वासे पर घर पवेमे लद्धा बलद्ध वित्तीओ पण्णत्ताओ। विज्ञान पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण कर तथा माघुओं के मानस यह नग्न निग्रंथो के आचार का स्पष्ट ही उल्लेख है। को देखकर इस प्रकार भिन्न-भिन्न धर्म मावन रखने का (६) कल्पमूत्र' मे भगवान महावीर की दीक्षा का विधान किया गया है, जैन माधुओं की पहचान के लिए वर्णन करते हुए बताया है किये नियम बनाए गये हैं, अन्यथा मोक्ष के माधन तो ज्ञान उवागच्छित्ता असोगवर पायवस्स अहे सोय ठावेइ. दर्शन चारित्र है।
अहे मीयं ठावित्ता सीयाओ पच्चोरिहइ, सीयाओ मच्चोइस सवाद मे यह स्पष्ट है कि गौतम स्वामी अचेलक रिहित्ता सयमेव आमरणमल्नालंकार ओमुयति, ओमइत्ता नग्न थे और केशि मुनि सचे न, किन्तु आगे चलकर इस सयमेव पचमुट्ठिय लोयं करेइ, करित्ता छठेण भत्तण विषय पर यो वृत्ति की गई कि सामान्य रीति नञ् समास अपाणएण हत्थुत्त राहिं नवखत्तेण जोगमुवागएण एग देवका अर्थ नकारवाची अर्थात् अचेलक का अर्थ वस्त्ररहित- दूसमादाय एगे अबीए मुंडे वित्ता अगागओ अणगरिय प्रवस्त्र ऐगा किया जा सकता है किन्तु हावीर ने वस्त्र पब इए । की अपेक्षा वस्त्र जन्य मुर्छा को दूर करने पर विशेष जोर समणे भगव महावीरे सवच्छरं साहिय मासं चीवर. दिया इसलिए नत्र समास के छह अर्थों में से ईषत् (अल्प) धारी होत्या तेण पर अचेलए पाणिपडिग्गहिए । यह अर्थ ही उचित है, परन्तु यदि ऐसा होता तो केश ज्ञातृ खण्ड बन पहुंचकर अशोक वृक्ष के नीचे शिविका मनि कोई सशय न करते : इसके इलावा अचेलक का अर्थ रखी गई, शिविका रखे जाने पर भगवान शिविका से ईषत चेल मान लिया जाए तो फिर अहिसा महावत का उतरे, शिविका से उतर कर स्वय ने आभरण माला अर्थ अल हिस', असत्पत्याग महावत का अर्थ अल्प सत्य अलकार उतारे तथा उनके उतारने के बाद स्वय ने पचऔर अस्तेय का अर्थ अल्प स्तेय करना पड़ जाएगा । यदि मष्टि केश लोचन किया और पानी रहित छट्ठभक्त अर्थात् अल्प वस्त्र और अधिक वस्त्र की ही समस्या होती तो दो उपवास किये। हस्तोत्तग नक्षत्र का योग आने पर देशि मनि वस्त्रो को सख्या के बारे में ही प्रश्न करते, इस एक देवष्य को लेकर एकाकी हो मुंडित होकर, गृह त्याग डिमाईको पहचानकर नेमिचन्द्राचार्य ने यह टीका को कर अनगारत्व को स्वीकार किया। कि अचेलक धर्म बद्धमान स्वामी ने चलाया था, कारण श्रमण भगवान महावीर तेरह महीने तक चीवर धारी यह है कि पार्श्वनाथ ने तो वस्त्र पहनने की अनुज्ञा दी थी रहे उसके बाद अचेलक तथा करपात्री हो गये। किन्तु इसका अर्थ रगीन वस्त्र का निषेध न होने के कारण इस पर विनयगणि की टीका का सार इस प्रकार है
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श्वेताम्बर प्रागम और दिगम्बरत्व
कि जब भगवान ने देवों द्वारा लाई गई शिविका से शातृ उस रकम को अघा आधा बांट लेंगे और हमारा दोनों खण्डवन उद्यान मे अशोक वृक्ष के नीचे उतर कर स्वयमेव वा दारिद्र्य दूर हो जाएगा, तब पुनः प्रम के पाप से आभरण माल्यालंकार उतार दिए और पचमुष्टि केश आयाकिन्तु लज्जा के कारण कुछ कहने में असमर्थ साल
सोवास पर एक भर तक उनके पीछे-पीछे घूमता रहा । १३ महीने के बाद देवदूष्य रखा जिसे लेकर अगार से अनगार हो गये, घुमने हुए भगवान् जब दक्षिण वाचालपुर के पास सवर्णसामायिक में बैठे और उन्हे चतुर्थ ज्ञान हो गया--कुछ वालुका नदी तट पर आए तो कटको से उलझकर आघा समय पश्चात् कोनाक मन्निवेश मे बहुल ब्राह्मण गृह मे देवदूष्य भी गिर गया । तब पिता के मित्र उस ब्राह्मण यह कहकर कि मेरे द्वारा मपत्र धर्म प्रज्ञापनीय है गहथ उसे उठा लिया और चल दिया। प्रत. भगवान ने सवस्त्र के पात्र में प्रथम पारणा किया तब पच दिव्य प्रादुर्भन हा धर्म प्ररूपण के लिए मासाधिक एक वर्ष तक वस्त्र को (२) चेलोक्षेप, (२) गधोदकवष्टि (1) दुन्दुभिनाद, स्वीकार किया, मपात्र धर्म की स्थापना के लिए प्रथम (४) अहोदान अहोदान ऐनी घोषणा और (५) वसु- पारणा मे पात्र का उपयोग किया, उसके बाद जीवन भर धारावृष्टि । तदन तर अस्थिक ग्राम मे पाच अभिग्रह अवेलक पाणि पात्र रहे। धारण किए - (१) नाप्रतिमदगहे वाम., ( ) स्थेयं प्रति- कल्पमूत्र के नवें क्षण मे जिनकल्पी व स्थविर कल्पी मया सदा, (३) न गेहविनय. कायः, (४) मौन, (५) दोनो माधुओ के चरित्र के नियम दिए है। पाणी च भोजनम् ।
कल्पसूत्र की विनय विजयगणि द्वारा कृत सुबोधिका वार्षिक दानावसर पर कोई दन्द्र परदेश गया हुआ वत्ति का प्रारम्भ करते हुए लिखा गया है कि कल्प का था, लेकिन दुर्भाग्य में कुछ भी कमा कर नहीं ला सका अर्थ साधुओ का आचार है। उसके दस भेद हैं-(१) तो उसकी भार्या ने उसे झिडका, अरे अभाग्य शेखर, जब प्राचेलका, (२) देसि अ, (३) सिज्जायर, (४) रायपिंड, वर्धमान मेघ की तरह स्वर्ण बरसा रहे थे तब तू विदेश (५) किइकमो, (६) वय, (७, जिटु, (८) परिक्कमणे, चला गया और फिर निधन ही समागत हुआ। दूर हट, (8) मास, (१०) पज्ज'सवणकप्पे । मुंह न दिखा, अब भी तू जगम कल्पतरू से भीख माग इनमे से अचेलक की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वही तेरा दारिद्र हरेगा-इस प्रकार अपनी पत्नी के ऐसे न विद्यते चेल यस्य स अचेलकस्तस्य भाव आचेलक्य वाक्यो से प्रेरित होकर वह भगवान के पहुंचा और प्रार्थना विगतवस्त्रत्व इत्यर्थ. तच्च तीर्थश्व रानाश्रित्य प्रथमातिने की कि प्रभु आप जगदुपारी ने विश्व भर का दाग्द्यि जिनयो शक्रोपनीन देवदूष्यापगमे सर्वदा अलकत्व किन्तु निर्मूल कर दिया किन्तु निर्भाग्य से उस समय मैं यहां नहीं इसी ग्रन्थ कल्पसूत्र को किरणावली टीका मे यह लिखा है था, भ्रमण करते हुए भी मुझे कुछ मिला नही, निष्पुण्य, f. २४ तीर्थकरो के शक्रोपनीत देवदूष्य के अपगम पर निराश्रय, निर्धन मै आप जगद्वाछित दायक की शमा मे अचेलकत्व हो जाता है। विजयगण ने इसको समझाते आया हु विश्व दारिद्र्य को हरने वाले आपके लिए मेरी हए लिखा कि अजित नाथ से लेकर २२ तीर्थकरो के साधु दारिद्रता कितनी सी है। इस प्रकार याचना करने वाले समाज "बहुमूल्य विविध वर्ण वस्त्र परिभोगानुज्ञा सद्विप्र के प्रति करुणापरगण भगवान ने आधा करके देव भावेन सचेलक व मेव केशाचिच्च श्वेतमावो पेत वस्त्र दृष्य दे दिया। विप्र उन ने गधा और दशाचल के लिए धारित्वेन अचलकत्व अपि इति अनियत. तषा अय कल्प: तन्तुवाय को दिखाया और सारा व्यतिकर सुनाया तो श्री ऋषभवीर तीर्थ यतीना च सर्वेणा अनि श्वेतमानो पेत वह बोला, हे ब्राह्मण, तू उन्ही प्रभु के पीछे जा वे निर्मम जीर्णप्रायवस्त्र धारित्वेन अचेलकत्व ।" करुणाम्बोधि द्वितीय अर्ध भाग को भी दे देगे तब मैं दोनो वस्त्र परिभोग होने पर अचेलक कसे होगा? इस आधे-आधे टुकडो को जोड दूंगा। इस प्रकार अक्षत होने शका का निराकरण यो कर दिया कि जीर्ण पाय तुच्छ पर इसका मूल्य एक लाख वीनार हो जाएगा। तब हम वस्त्र के होने पर भी अवस्त्रत्व ऐमा जगत प्रसिद्ध है जैसे
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१०, वर्ष ४६, कि०२
लंगोटी लगाकर नदी पार करने पर भी कहते हैं कि नग्न स्वीकार करनी पड़ी। जान पड़ता है नारी मुक्ति को लेकर होकर नदी पार की तथा दर्जी या धोबी से वस्त्र जल्दी ही दोनों परम्पराएं एक दूसरे से बहुत दूर चलती गई। लेने के लिए कहते हैं कि भाई, जल्दी दो हम तो नंगे हो दर असल बात यों है कि जब से भारतीय संस्कृति रहे है-उसी प्रकार साधुओं के वस्त्र होते हुए भी अचेल- आत्मोन्मुखी या कहिए परमात्मोन्मुखी हुई तब से ही कत जानना चाहिए।
श्रमण उसकी आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए । महावीर उपरोक्त अवतरणों से साफ प्रकट है कि श्वेताम्बर और बुद्ध के जमाने में और उससे पहले भी दिगम्बरस्व परम्परा के अनुमार भी भगवान महावीर उस समय श्रामण्य का प्रतीक बन चुका था। कई श्रमण नग्न विहार दिगम्बर थे जब उन्हें केवल ज्ञान हमा और मुक्ति प्राप्त करते थे। मक्खलि गोसाल नंगा रहता था। पूर्णकस्सप ने की। इन्हीं को ध्यान में रखकर सुखलाल जी सघवी ने भी वस्त्र धारण करना इसलिए स्वीकार नहीं किया कि लिखा कि भगवान महावीर ने अपने शासन में दोनों दलो दिगम्बर रहने से ही मेरी प्रतिष्ठा रहेगी। प्रसेनजित के का स्थान निश्चित किया जो बिल्कुल नग्न जीवी व उत्कट कोषाध्यक्ष मगांक के पुत्र पूर्ण बर्द्धन की स्त्री विशाखा ने विहारी थे और जो बिलकुल नग्न नही थे ऐसा मध्यम- कहा था कि भगवन् बरसात के दिनो मे वस्त्रहीन भिक्षुओ मार्गी था। उन दोनों दलों के आचारों के विषय मे मत. को बड़ा कष्ट होता है इसलिए मैं चाहती है कि सघ को भेद रहा।
वस्त्र दान करूं।" यो देखा जाए तो हर धर्म मे यह श्रमण विचार करने से जान पडता है कि जिस प्रकार परम्पग अंशाधिक रूप में पाई जाती है और भारत की श्वेताम्बर परम्परा मे तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र श्रमण परम्परा मे नवीनता नहीं है, विशेषता अवश्य है। और अवस्त्र की मर्यादाएं रखी गई हैं, ठीक-ठीक वही है विशेषता है त्याग की और यही विशेषता जैन धर्म में मर्यादाए दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक, दिगम्बर और भी विशिष्ट हो गई है। जब श्रमण महत्याग करके मनि के रूप मे प्रस्थापित की गई है। मागे चलकर यह अनगार हो जाता है तो फिर उस अवस्था को अवश्य भेद यों बढ़ा कि श्वेताम्बर परम्परा सवस्त्र मुक्ति मानती पहचेगा जब वस्त्र उसकी सिद्धि में बाधक लगने लगेगा। है जबकि दिगम्बर परम्परा दिगम्बर होने के बिना मुक्ति यही कारण है कि जैन धर्म के श्वेताम्बर आगम भी की कल्पना भी नहीं करती। इसका कारण शायद स्त्री दिगम्बरत्व की विशेषता को अनदेखा नही कर सके और मक्ति की सम्भावना पर टिका है । दोनो ही परम्पराए उसे कल्प का सर्व प्रथम रूप मानकर उसके बारे मे लिखा। स्त्री के लिए आवाण आवश्यक मानती हैं । अतः दिगम्ब- इस लेख से श्वेताम्बर समाज के उस वर्ग को प्रोत्सारत्व पर पूर्ण बल देने वाली परम्परा ने नारी मुक्ति का ही हित करना है जो दिगम्बरत्व के प्रति आदर भाव तथा निषेध कर दिया जबकि श्वेताम्बर परम्पर। ने सावरण स्त्री समभाव रखने के अपने आगम आदेश को पूर्ण सम्मान मुक्ति स्वीकार कर ली तो फिर सावरण पुरुष कीमुक्ति भी देकर उसका पालन करे।
पाव-टिप्पण ८. अंग सुत्ताणि जैन विश्व भारती, लाडनूं भाग १, १०. सघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र, भारत जैन महामण्डल, ___ नवम ठाण, पृ० ८६१ ।
वर्धा परिचय पृ. २२-२३ । t. la) कल्पसूत्र विनयगरिण विरचित सुबोधिकावृत्ति, ११. भदन्त बोधानन्द महास्थविर- भगवान गौतम बुद्ध,
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६१५, षष्ठ क्षण, सूत्र ११८, पाना १५७.
प्र० बुद्ध विहार, लखनऊ। (b) कल्पसूत्र, प्राकृत भारती, जयपुर, सूत्र ११४-१५.
१२. डा. रमेशचन्द जैन, बौद्ध साहित्य मे निगण्ठो का (c) Sacred books of the East-Jain Sutras p. I, Motilal Banarsidas, 2964, Kalp
उल्लेख, महावीर स्मारिका, राजस्थान जैन सभा, Sutra DP.
जयपुर १९६२, पृ. ३, ६ व ११।
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(गतांक से प्रागे) गोम्मटसार कर्मकाण्ड का शुद्धिपत्र (गतांक से मागे) [अ० रतनचंद मुख्तार द्वारा सम्पादित तथा शिवसागर ग्रंथमाला से प्रकाशित]
संशोधिका-१०५ आपिकारत्न विशालमति माता जी [आ० क. विवेकसागर शिष्या]
तया -जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर पंक्ति
अशुद्ध ५८२ तीर्थकर सभरात केवली के देव-नारकी तीर्थकर समुद्घात केवली के औदारिक
शरीर मिश्रकाल मे. देवनारकी ५८७ दुःस्वर उदय नही है,
दु स्वर का उदय नही है। ५८६ और यशस्कोति युगल की अपेक्षा
यशस्कीति और विहा मोगति युगल की [६x६x२x२x२] ५७६ भग है अपेक्षा [६४ ६x२x२x२x२]
५७६ भग हैं। ५८६ विहायोगति रूप सुभग
विहायोगति, सुभग ५८६ यशम्कीति चार युगल
यशस्कीति, ये चार युगल ५८८
सर्व [१+१+ + +१०+६+१+१७] सर्व [१+१++++१०+६+१+ ६० भंग
१७] ६० भंग हैं। ५६० सुभग, सुस्वर, आदेय
सुभग, आदेय ५६१ ६२०+१२+११७६+१७६०
६२०+१२+११७५+१७६० ५६३ १७-१८ आदेय और विहायोगति रूप पांच युगलो आदेय और यशस्कीतिरूप पांच युगलों
की अपेक्षा पाच युगलो की अपेक्षा......" की अपेक्षा......... होती और शेष
होती है और शेष ६४६
मिश्र व ३ २४, २३, २२, प्रकृतिक मिश्र व ३ २४, २३, २२ प्रकृति असयत में मिश्र मे २४ प्रकृतिरूप असंयत मे मिश्र मे २४ प्रकृति ६ प्रकृतिक एव असयम मे २४, २२ व प्रकृतिक रूप एव असयत मे २४, २२ प्रकृतिरूप
२३, २२ प्रकृतिरूप ६५५ संदष्टि गति उदय स्थानगत प्रकृति सख्या गति उदयस्थानगत प्रकृति संख्या का विवरण
का विवरण मनुष्य २०, २१, २५, २६, २७, २८, मनुष्य २०, २१, २५, २६, २७,२८, २९, ३०, ३१,६ व १ प्रकृति
२६, ३०, ३१, ६ व ८ प्रकृति कायमार्गणा सस्वस्थान गत
कार्यमार्गणा सत्त्वस्थानगत संदृष्टि त्रसकाय प्रकृति सख्या का विवरण
सकाय प्रकृति संख्या का विवरण ६३, ९२, ६१,६०,८८,
६३, ६२, ६१,६०,८८, ८४, ८२, ८०,७६, ७८,
८४,८२, ८०,७६, ७८, ७७, प्रकृतिक
७७, १० व ९ प्रकृतिक
६५७
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१२, बर्ष ४६, कि. २
अनेकान्त
पंक्ति
पृष्ठ ६६१
६६२
६६५
६.११
भव्य
६६५
११
अशुद्ध उदय और स्थान मनःपर्यय ज्ञानवत
उदय और सत्त्वस्थान मनःपर्यय ज्ञानवत् मार्गणा बन्धस्थान गत प्रकृति मार्गणा बन्ध स्थान गत प्रकृति सख्या का विवरण
सख्या का विवरण परिहार विशुद्धि २८, ६, ३० व ३१ परिहार विशुद्धि २८, २९, ३०, ३१ लेश्या मार्गणा बन्ध स्थान गत प्रकृति लेश्या मार्गणा बन्ध स्थानगत प्रकृति सख्या का विवरण
सख्या का विवरण पीत लेश्या २५, २६, २८, २९, ३०, पीत लेश्या २५, २६, २८, २९, व १ प्रकृतिक
३०, ३१ मार्गणा उदय स्थान गत प्रकृति __ मार्गणा उमेय स्थान गत प्रकृति सख्या का विवरण
सख्या का विवरण २१२४, २५, २६, २७, २८, भव्य २०, २१, २४, २५, २६, २७,
२९, ३०, ३१, १० व ९ प्रकृतिक २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ प्रकृति सत्त्व स्थान सत्त्व स्थान गत प्रकृति सत्त्व स्थान सत्त्व स्थान गत प्रकृति संख्या सख्या का विवरण
सख्या सख्या का विवरण ६३, ६२, ६१,६०,८८,
६३, ६२, ६१,९०,८८, ८४,८२,८०,७६,७८,
८४,८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक
७७, १०, ६ प्रकृतिक बन्ध
बन्ध
बन्ध स्थान गत प्रकृतिस्थान
स्थान संख्या का विवरण संख्या
सख्या उदय
उदय उदय स्थान गत प्रकृति स्थान
स्थान सख्या का विवरण सख्या
संख्या सत्त्व
सत्त्व सत्त्व स्थान गत प्रकृति स्थान
स्थान संख्या का विवरण सख्या
सख्या १० प्रकृति का होता है
१. प्रकृति का सत्त्व होता है। उधोत, आतप व उच्छ्वास सहित
उद्योत या आताप सहित २६, अथवा २६ प्रकृतिक
उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के उच्छ्वास सहित [तथा आताप उबोत
रहित] २६ प्रकृतिक
[देखो-धवला ७/३५ से ३६ के आधारहर] ८२ प्रकृतिक चार स्थान हैं।
८२ प्रकृति पाँच स्थान हैं। आधेय
६६७
११-१३ II नक्शे का III कोठा
६६७
६६७
11 नक्शे का V कोठा
११-१३ "II नक्शे का VII कोठा
६७५
६८१
६६१
२३
बाधेय
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गोम्मटसार कर्मकाण का शुद्धि पत्र
७१२
७२४
७२४
७३४ ७३४
७४०
-MAGGA60xx
७४६
७५८ ७६१
а
л
पंक्ति अशुद्ध १७-२० सत्त्व स्थान सत्त्व स्थान गत प्रकृति उदय स्थान उदय स्थान गत प्रकृति संख्या संख्या का विवरण
संख्या सख्या का विवरण साम्परायिक ६ व ईर्यापथ आस्रव
साम्परायिक व ईर्यापथ आस्रव कामण काययोग
कार्माण काययोग हाता है
होता है चार जगह ३ का
चार की जगह ३ का सव भंग
सर्व मंग हाते हैं
होते हैं ३६.२४+१५ लन्ध आया
३६०.२४%१५ लब्ध आया अनुपम सुख किन्तु
अनुपम सुख है किन्तु युक्त, दोनो
युक्त, क्षय से युक्त दोनो जीवत्व और इस प्रकार
जीवत्व और भव्यत्व इस प्रकार एक एक सख्या रूप
एक-एक कम सख्या रूप गुणकार [१+४+५+३]
गुणकार [१+४+५+२] सद्धों मे
सिद्धों मे ये पांच गुणकार रूप
ये छह गुण कार रूप मिलाने से [१२४८+१४] ११० भंग [८x१२+१४]%११० भंग होते हैं। होते हैं गुणा करने और
गुणा करके गुणनफल मे और शेष २८ हैं
और क्षेप २८ है। गति, लिङ्ग व लेश्या रूप तीन है
गति, कषाय लिङ्ग व लेश्या रूप चार हैं। प्रत्येक द १६
प्रत्येक द १६ १४-२० पण्णठ्ठ प्रमाण
पण्णी प्रमाण अज्ञान के ४०१३
अज्ञान के ४०६६ जीवत्व के १०६४
जीवत्व के १०२४ कारण सूत्र के
करण सुत्र के कारण सूत्र के
करण सूत्र के अंतिम पक्ति चय धन का जोड़
पद धन १२ पद गुरिणब होदि
पदगरिणद होदि नोट:-पृष्ठ ८२२ में द्वितीय पंक्ति में जो "आदि चय" शब्द है वह 'आदि धन' अर्थ मे है।
इस क्रम से शिक्षा से जालायं है
शिखा से जलाये हैं। २१ अन्योन्याभ्यस्त ये छह
अन्योन्याभ्यस्त राशि ये छह
л
७८७
७८७
. .
- .
- .
- .
.
८२१ ८२१ ८२१
५२६
१२ ९३७
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१४, वर्ष ४६, कि०२
पंक्ति
८४३
निषेक भागाहार मे से घटाकर एक गुण हानि आयाम को वर्गशलाका के अर्द्धग्छेदों से ५६ गुणी है।
८४५ ८४५ ८४५ ८४८
अशुद्ध निषेक भागाहार अर्थात दो मुग हानि आयाम को वर्ग शलाका से ५६ गुणी है षष्ठम पल्य के पंचम, छठा, सातवां वर्गमूल के पल्य के आठवें, 6वें, १०वें वर्गमूलों के पत्य की वर्गशलाका के प्रथम वर्ग के, द्वितीय वर्ग के पस्य को वर्गशलाका के छठे, में, धगों के कटिक वृति
८४८
१७-१८
पल्य के चौथे, पांचवें, छठे वर्गमूल के पल्य के वें, वें, एवं वर्गमूलों के पल्य की वर्गशालाका के छठे, वें तथा
वें वर्ग के पल्य की वर्गशलाका के तथा उसके प्रथम वर्ग के द्वितीय वर्गों के कर्णाटक वृत्ति
८४८
२३.२४
८७२
१९
प्रेषिका- आयिका विज्ञानमति
(पृष्ठ ६ का शेषांश) ३. वैहिदरीपुत्रेण आशाढ़सेनन कारिते । (११) १४. जनाय शर्मा-हर्ष एण्ड हिज हाइम्स पृ. २१७ ।
अनुवाद-अहिच्छत्रा के राजा शोनकायन (शौनकायन) के पुत्र बगपाल के पुत्र (और) तेवणी (अर्थात तेवर्ण- १५. जैन हितैषी-भाग-११, अक ७.८, पृ. ४८२ । राजकन्या) के पुत्र रानी भागवत के पुत्र (तथा बहदरी) १६. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग २, पृ. ३२६ । अर्थात् (वै हिंदर राजकन्या) आषाढसेन ने बनवाई।
नोट-शुगकाल के अक्षरो से मिलने-जुलने के कारण
पट-शुगकाल क अक्षरा मिलन गुलन के कारण १७.नायाधम्मकहामओ १५/१५८ । दोनों शिलालेखों का काल विश्वास के साथ द्वितीय या प्रथम शताब्दी ई.प. निश्चित किया जा सकता है। १८. Life in ancient India as deficted in Jain खास ऐतिहासिक चीज, जो यहां अकित करने को है, वह
canons P. 264-265. अहिच्छत्रा के प्राचीन राजाओ की वंशावली है। अधि. छत्रा किसी समय प्रतापी उत्तर पचाल राजाओं की राज- २०. वासुदेवारण अग्रवाल : भारतीय कला पृ. ३७६ । घानी यो । वंशावली इस प्रकार है :शोनकायन
२१. भारतीय कला पृ. ३८३ । तेवणी (वर्ण राजकन्या) से विवाहित बंगपाल
२२. The ancient Geography of India p. 303-6 वहिदरी (वै हिदर राजव न्य) गोपाली से विवाहित
२३. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृ. 1३-१४ । राजा भागवत
-
गोपाली
भाषाणसेन
राजा बृहस्पतिमित्र
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केरल में जैन स्थापत्य और कला
- श्री राज मल जैन, जनकपुरी, दिल्ली
यह सहसा विश्वास नही होता कि केरल मे भी जैन सदी में हो चुका था। अत: इससे पूर्व भी केरल मे जनस्थापत्य मौर कला सम्बन्धी कोई सामग्री हो सकती है। धर्म का अस्तित्व मानना अनुचिन नही जान पड़ता। जैन सामग्री तो है किन्तु वह एक तो अल्प है और कुछ मतभेद पुगण इस बात का कथन करते हैं कि श्री एण के चचेरे के घेरे में है। इस विषय पर लिखना वास्तव मे एक भाई और जैनो के २२वें तीर्थकर नेमिनाथ ने जिन्होने कठिन कार्य है फिर भी कारणो और इस विषय पर लेखक गिरनार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था, पल्लव देश की धारणा का औचित्य बताते हुए यथासम्भव युक्तिसगत को भी अपने धर्मोपदेश का क्षेत्र बनाया था। उनकी मतियां विवरण देने का प्रयत्न किया जाएगा।
और उनका उल्लेख करते हुए शिलालेख तमिलनाडु में मबसे पहला कारण तो यह धारणा है कि केरल मे अधिक संख्या म पाए गए हैं। वे उनकी लोकप्रियता का जैनधर्म का प्रादुर्भाव अधिक से अधिक भद्रबाह और चन्द्र- प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । इसके अतिरिक्त, श्रीलका मे एक गप्त मौर्य के दक्षिण भारत मे आगमन के साथ हमा होगा। पर्वत का नाम भी उनके नाम पर अरिह पता तो यह धारणा उचित नहीं है कि इन मुनियों से पहले प्रश्न हो सकता है कि नेमिनाथ का विहार श्रीलंका
भारत मे जैनधर्म का अस्तित्व नहीं था। जो दि० मे कैसे हुआ होगा वीच मे तो समुद्र है। केरल मे यह भनियो की चर्या से परिचित है वे यह भली भाति अनुश्रत है कि केरल की बहुत-सी धरती समुद्र निगल गया। ममा सकते हैं कि ४६ दोषो से रहित आहार ग्रहण करने कन्याकुमारी घाट से देखने पर अनेक चट्टानें समद्र में से बाल मनि ऐसे प्रदेश मे विहार नहीं कर सकते है जहाँ अपनी गर्दन बाहर निकालती आज भी दिखाई देती जो विधिपक उन्हें आहार देने वाले गहस्थ निवास न करते इस बात का संकेत देती है कि केरल किसी समय श्रीला हो। फिर केवल दोनों हाथो की अजुलि को ही पात्र वना से जुड़ा हुआ था। अरिष्टनेमि और अनय जैन मनि इसी कर दिन में केवल एक बार ही आहार ग्रहण करने वाले रास्ते श्रीलका आते-जाते रहे होंगे। केरल का बारह हजार मुनियो के आहार के लिए जैनियों की बहुत गांव ही यादववंशी है और वह जैनधर्म का असर
विदामानता का आकलन उन मुनियो के है। पार्श्वनाथ (निर्वाण ई से ७७७ वर्ष पूर्व) की ऐतिनायक भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य ने
और चटगप्त मौर्य ने अवश्य ही कर लिया हासिकता स्वीकार कर ली गई है और उनके प्रभाव को होगा। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी मे इन मुनियों का विहार केरल में नागपूजा, पावं मतियों का पाया
मिलनाड और कर्नाटक मे ही हुआ था और केरल वती के मन्दिरों जो कि अब भगवती मन्दिर करलाते में वनों पचे थे यह विचार ही उचित नहीं जान तथा नायर (नाग) जाति की प्रधानता माथि - मम तो केरल तमिलनाडु का ही एक भाग अनुमानित किया जा सकता है। महावीर स्वामी के सबध
कि था और उसका स्वतंत्र अस्तित्व तो आठवी शताब्दी की में अब यह मान लिया गया है कि
... लिखित केरल के विशाल- जीवधर ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी। उनका प्रभाव कास तिहास ग्रन्थ केरलचरित्रम् मे यह स्वीकार किया केरल तक अनुमानित किया जा सकता है। ये सब पोरा. गया है कि ब्राह्मी शिलालेखो के आधार पर यह स्पष्ट है णिक साक्ष्य एकदम मिथ्या नही करे जानकर किरन में बनधर्म का प्रादुर्भाव ईसा पूर्व की दूसरी सब कल्पित हैं तो अनेक देवताओं सम्बन्धी विवरण की
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१६, बर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
असत्य माने जाएंगे। उनके संबंध में भी पक्का पुरा- हैं। कुछ गुहा मन्दिर और मुनिमडा या कुडक्कल अब भी तात्विक साक्ष्य उपलब्ध नही हुआ है। ऋग्वेद मे आर्यों इपेक्षित हैं। किमी जैन विद्वान का भी ध्यान इस ओर और पणियो के संघर्ष का स्पष्ट संकेत है। ये लोग वेदों नहीं गया। इसी लेख में दिए कुछ उदाहरणो से यह स्पष्ट को नहीं मानते थे और कुछ विद्वान यह मानते है कि पणि हो जाएगा। जाति उत्तर भारत से खिसकते-खिसकते केरल पहुची और केरल की भूमि पर्वती क्षेत्रों, मध्यभूमि और समुद्रबहां बस गई। उसने अरब देशों, रोम आदि से व्यापार तटीय भागो मे बंटी हुई है। परिणाम यह है कि घने किया। केरल का इतिहास उसके विदेशों से व्यापारिक जंगलो से आवृत कुछ अधिक ही ऊचे पहाडों पर स्थित सम्बन्धों से प्रारम्भ होता है किन्तु ये व्यापारी पिस जाति गुफाओं, शैल मन्दिरो आदि का अध्ययन कठिन भी है। के थे इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु इतिहास ऐसे जिन कुछ अवशेषो का अध्ययन हुआ है, वे जनधर्म से तो अपनी कुछ न कुछ निशानी छोड़ता ही है। केरल की सबधित पाए गए हैं। आदिवासी जातियां जैसे पणियान, कणियान, पाणन तथा तमिलनाडु की ही भांति केरल मे भी धार्मिक उथलपणिकर आदि एवं पन्नियकरा, पन्नियर जैसे स्थान नाम पुथल हुई। उसके कारण भी जैन स्मारको को क्षति और कुछ अन्य जातियो मे जेनत्व के चिह्न पगि या जेन पहुंची। अनेक जैन मन्दिर और पाश्र्वनाथ की शासनदेवी धर्मावलम्बियो के प्राधान्य को सूचित करते हैं। इसका पद्मावती के मन्दिर शिव या विष्ण मन्दिरो के रूप मे या विश्लेषण प्रस्तुत लेखक ने अभी अप्रकाशित तुस्तक केरल भगवती मन्दिरो के रूप में परिवर्तित कर दिए गए । अब मे जैनमतम मे एक स्वतत्र अध्याय मे किया है। इस पृष्ठ- उन्हें कुछ प्रतीकों से ही कठिनाई से पहिचाना जा सकता भूमि का उद्देश्य यह है कि केरल मे महापाषाणयुगीन है। अनेक शिलालेख या तो नष्ट हो गए हैं या अभी (Megalithic) जो अवशेष पाए जाते है। उनका संबध उनका समुचित अध्ययन ही नहीं हया है। जैनधर्म से जोड़ना अनुचित नहीं जान पड़ता।
केरल मे राजनीतिक आक्रमणो के कारण न केवल एक अन्य कारण यह भी है कि जिन अर्जन विद्वानो जैन मन्दिरो को हानि पहुची अपितु वैदिक धारा के मदिर ने केरल मे जैनधर्म संबधी कार्य किया है, उन्हे जैन भी क्षतिग्रस्त हुए। इतिहासकारो का मत है कि सदियों मास्यानों, प्रतीको आदि की समुचित जानकारी उपलब्ध से केरल के मन्दिरों के लिए आदर्श कूणवायिल कोद्रम का नही थी ऐसा लगता है। शायद यही कारण है कि कुछ प्रसिद्ध जैन मन्दिर हैदरअली के द्वारा की गई विनाशजैन अवशेषो आदि को बौद्ध समझ लिया गया है। जो भी लीला का शिकार बना और उसका जो कुछ अस्तित्व हो.जैन अवशेषो आदि की खोज के लिए हम गोपीनाथ बचा था उसे उन डच लोगो मे नष्ट कर दिया। गोआ में राव.कजन पिळळ आदि विद्वानो के बहुत ऋणी हैं। जिन भी अनेक जैन मन्दिरो को क्षति पहुचाकर नष्ट कर दिया अनुसंधानकर्ताबो ने केरल मे जैन अवशेषो की चर्चा भी था। टीपू सुलतान ने भी जैन मन्दिरो को हानि पहुंचाई। की है, उन्होने उन मन्दिरो, मस्जिदो आदि की या तो केरल मे जैन मन्दिरो की प्राचीनता आदि के सबध समचित समीक्षा नही की है या उन्हे बिल्कुल ही छोड़ में एक कठिनाई वहाँ के जैन धर्मावलबियो के कारण भी दिया है जो किसी समय जैन थे। यह तथ्य मस्जिदो के उत्पन्न हो गई है। उन्होने प्राचीन मन्दिरो को गिराकर सम्बन्ध मे विशेष रूप से सही है । आखिर वे भी तो जैन उनके स्थान पर सीमेट कक्रीट के नए मन्दिर बना लिए शाय नमने है। ऐसी दम मस्जिदें इतिहासकारो ने हैं। अतः प्राचीनता के तार जोड़ना एक कठिन कार्य हो खोज निकाली हैं।
गया है। यह भी एक सत्य है कि जंन पुरावशेषो का योजना- उपर्युक कठिनाइयो और कारणों के होते हुए भी पर्वक वैज्ञानिक और विस्तृत अध्ययन ही नही हुआ है। महापाषाणयुगीन (कुडककल, शैल-आश्रय) अवशेषो से शताधिक गुफाएँ ऐसी है जो अनुसधान की अपेक्षा रखती लेकर आधुनिक युग के विद्यत और प्रकाश मंडित जैन
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केरल में जैन स्थापत्य और कला
१७
चैत्यालय (Mirror Temple) तक के जैन मन्दिरों सादि स्मारक जैसे गुफाएं, गुहा मन्दिर कुडक्कल जोर टोपीका कुछ विवरण यहाँ देने का प्रयत्न किया जाएगा। जैन कल्लु आदि (२) निर्मित मंदिर (Structural temples). स्थापत्य के आदि रूप को ष्टि से यदि विचार किया जाए, केरल के इतिहास में महापाषाणयुगीन अवशेषो का तो यह तथ्य सामने आएगा कि जैनो ने शायद मन्दिरो से विशेष महत्व हैं । डा० सांकलिया ने उनका समय ईसा से भी पहले चरणो (footprince) का निर्माण किया। इस १००० वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से ३०० वर्ष पूर्व तक बात की साक्षी उन बीस तीर्थंकरों के चरणचिह्न। से प्राप्त बताया है। इस प्रकार की निमितियां हैं कुडक्कल और होतो है जो कि बिहार में पारमनाथ हिल या सम्मेद- टोपी कल्लु तथा शैल-आश्रय (rock shelters) कुडक्कल शिखर पर उत्कोण है। नेमिनाथ के चरण भी रैवतक या एक प्रकार की बिना हेंडल की छतरी के आकार की रचना गिरनार पर्वत पर आज भी पूजे जाते है । केरल के अनेक होती है। इसमे चार खड़े पत्थरो के ऊपर एक ग्रोधी मन्दिरो तथा पर्वतो पर भी चरणो का अचन पाया जाता शिला रख दी जाती थी। आदिवासी जन इन्हे मुनिमडा है यद्यपि आज वे जैन नही हे किन्तु उनका सम्बन्ध जैन- कहते है जिसका अर्थ होता है नियों की समाधि। इस धर्म से सूचित होता है। इस प्रकार के मन्दिर है- प्रकार की मुनियो की समाधियां केरल मेअनेक स्थानो पर कोडगल्लर का भगवती मन्दिर, कोरडी का शास्ता मदिर, हैं। अरियन्नर, तलिप्परब, मलपपुरम्, आदि कुछ नाम पालककाड का एक शिव मन्दिर इत्यादि । तिरुनेल्ली यहा दिए गए हैं। इनकी संख्या काफी अधिक है। इनका पर्वत पर चरण जो कि अब राम के बताए जाते है। भी ऐतिहासिक अध्ययन आवश्यक है। कालीकट जिले में एक पहाडी पर चरण निन्हे मुसलमान कछ इतिहासकार यह कथन करते हैं कि केरल में बाबा आदम के चरण म.नते है और उसकी जूते निकाल जैन शैलाश्रयों का अभाव है। किन्तु यह कथन तथ्यों के कर वंदना करते है । इन सबा प्रमुख चरण है विवेकानद विपरीत है। अरियन्नर मे ऐसा ही एक शैलाश्रय देखा शिला पर देवी के चरण । यहा यह उल्लेखनीय है कि जा सकता है जो कि इस समय पुरातत्व विभाग के सरक्षण वैदिक धारा के प्रभास पुराण मे यह प्रसग है कि आग्नीध्र में है। यह भमिगत है। वह लेटराइट चट्टान को खोद की सतति परम्परा मे हुए भरत ने जो कि ऋषभदेव के कर बनाया गया है। उसमें नीचे उतरने के लिए मीडिया पुत्र थे अपने आठ पुत्रो को आठ द्वीपों का राज्य दिया था है। उसमे पत्थर की तीन शय्या है जिनके उपर एक गोलाऔर नौवें कुमारी द्वीप का राज्य अपनी पुत्री को दिया कार लगभग तीन फूट का एक रोशनदान भी हवा आने था। भारत के लिए कुमारी नाम तो नही चला किन्तु और वर्षा से बचाव के लिए बना हुआ है। तमिलनाडु मे भारत के अन्तिम छोर का नाम कन्याकुमारी आज तक इसी प्रकार की शिला शय्या पुगलूर नामक स्थान पर चला आ रहा है। केरल मे इस राजकुमारी को स्मृति चेरकाप्पियन जैन साधु के लिए चेर शासक को आनन मातमत्तात्मक समाज के रूप मे या मरुमक्कतायम् उत्तग- चेरल इरम्पोराइ के पौत्र ने बनवाई थी। उसका समय धिकार व्यवस्था के रूप मे जिसके नुसार पिता को ईसा की दूसरी सदी माना जाता है। अत: केरल मे शैल सम्पत्ति पुत्री का प्राप्त होती है, आज भी सुरक्षित जान शय्या का निर्माण इसमें बहुत प्रचलित मानने में कोई पडती है। वैदिक परपरा मे चरण चिह्नो का प्रचलन नही आपत्ति नही होनी चाहिए। के बराबर जान पड़ता है और बौद्ध तो स्तूपों की ओर गृहा मन्दिरों की गणना भी महापाषाणपुगीन स्मारकों उन्मुख है। इसलिए केरल मे ये चरण जैनधर्म के प्रसार में की जाती है। प्राकृतिक गुफाओ मे आराध्य देव की की ओर इंगित करते हैं। श्रवणबेलगोल मे भी भद्रबाहु के स्थापना या उनसे संबधित चित्रण इनकी विशेषता मानी चरण ही अकित हैं।
जाती है। इस प्रकार के दो जैन गुहा मन्दिर केरल में केरल में जन स्मारको के अध्ययन को दो भागों में आज भी पूरे जैन साक्ष्य के साथ विद्यमान हैं यद्यपि अब बांटा जा सकता है--(१) प्राकृतिक या महापाषाणयुगीन वे भगवती मन्दिर कहलाते हैं। सबसे प्राचीन कल्लिल का
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१८, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
गुहा मन्दिर मालूम पड़ता है। उसमे पार्श्वनाथ, महावीर मे गुफाओ की संख्या १६० है किन्तु पुरातत्व विभाग द्वारा और पद्मावती देवी की मूर्तिया आज भी प्रतिष्ठित है। किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में इनकी संख्या और भी केवल पद्मावती देवी की मूर्ति पर पीतल मढ दिया गया अधिक होने की सम्भावना व्यक्त की गई है। ये गुफाए है। कुछ इतिहासकार इसका समय आठवी सदी बताते हैं घने जगलो और ऊची पर्वत चोटियों पर है। सर्वेक्षक श्री जो कि सही नहीं मालूम पडता है । उस समय तो जैनधर्म वाय. डी. शर्मा ने अपनी रिपोर्ट मे पहले तो इनका वर्गीको क्षति पहुचना प्रारभ हो चुका था। इस गुफा को करण वैदिक और बौद्ध गुफाओ के रूप में किया किन्तु सामने से ही दूर से दिखाई पड़ने वाली चट्टान पर आले- बाद में उन्हें बौद्धो से भी अमबधित इमलिए कर दिया नमा रचना में एक पद्मासन तीर्थकर प्रतिमा अधूरी उकेरी कि उनमे बोद्ध पूजा वस्तुओ का अभाव है। फिर वे यह गई मानी जाती है। इसकी कुछ तुलना तमिलनाडु मे मत व्यक्त करते है कि अन्य माधु उनका उपयोग करते कलगुमल मे इसी प्रकार चट्टान मे बनाए गए आले मे होगे । अन्य मे जैन माधुओ की सम्भवत गिनती की जा उकेरी गई पदमासन प्रतिमा से की जा सकती है। स्थानीय सकती है। आधार यह है कि वैदिक ष आश्रम बना अजैन जनता यह विश्वास करती है कि रात्रि मे देवगण कर गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे। बौद्ध भिक्षु सघाराम आकर इस प्रतिमा को सुडौल रूप देते है। पाायद प्रति- या विहारो मे रहते थे। जैन साधुओ के लिए वनो मे मा के कारण कुछ इतिहासज्ञ इसे शैलाश्रय गलनी से और पर्वतो पर तपस्या करने का विधान था। उन्हे कवल मार लिया गया है इस प्रकार की धारणा व्यक्त करत है। आहार के लिए नगर में आना विहित था। भद्रबाहु और किन्तु यदि इसका सम्यक अध्ययन किया जाए तो यह
सिकन्दर जिन जैन साधुओ से मिलने स्वय गया था उससे स्पष्ट होगा कि यही पर एक कोष्ठ के बराबर स्थान
स्पष्ट है कि गुफाओ मे तपस्या की जैन परपरा बहुत चट्टानों के ही कारण बन गया है जिसका उपयोग तपस्या
प्राचीन है । अत: केरल की अनेक गुफाओ का जैनधर्म से रत मुनियो द्वारा किया जाता रहा होगा। जत. इसे
सबधित होना मानने में कोई आपान नहीं होनी चाहिए। शैलाश्रय मानना उचित नहीं है।
इडप्पाल, पेरिंगलकन्तु आदि गुफाए इस प्रकार के उदाहरण अब तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले में सम्मिलित हैं । मलयालम लेखक श्री वालत्तु ने इन्हे ध्यान मन्दिर की तिरुच्चारणटमले पर भी एक गुहा मन्दिर है। वह भी सज्ञा दी है और अनेक जैन गुफाओ की ओर संकेत किया आजकल भगवती मन्दिर कहलाता है । उसमे पार्श्वनाथ, है। महावीर और पद्मावती देवी की मूर्तिया आज भी देखी केरल मे ही एक गुफा का नाम भ्रातनपाडा है जा सकती है। यह भी चट्टानों से निर्मित है यद्यपि इसके जिसका अर्थ है भ्रांत (पागल) लोगो को गफा। यह गफा ऊपर जो शिखर है वह पतलो इंटो से बना है। इसके साथ अधरी और शैव धर्म से सबधित बताई जाती है। आश्चर्य की एक चट्टान पर लगभग तीस सौष्ठवपूर्ण तीर्थकर प्रति- ही है यदि शैव लोगो को पागल कहा गया हो। श्रीवालत मा उत्कीर्ण है। मतियो और गुहा मन्दिर के दूसरी और का कथन है कि यह जैन गुफा है । इस प्रकार के नाम का की चट्टान पर आठवी और नौवी सदी के अनेक लेख हैं एक प्रयोग आंध्र प्रदेश में भी पाया गया है। वही गांव जिनसे ज्ञात होता है कि तमिलनाडु के दूरस्थ प्रदेशो तक के एक भाग का नाम दानवलपाड (जिसमे जैनों का के भक्त यहा आते, दान करते थे तथा मूलिया आदि बन- निवास था) और दूसरे भाग का नाम देवल पाद्ध (जिसमे वाते थे। यह स्थान किसी समय पावापुरी के समा- पवित्र ब्राह्मण निवास करते थे) था। इसलिए इस नाम पर माना जाता था। इतनी पवित्रता प्राप्त करने के लिए कोई आश्चर्य नही। शायद इसी बात को ध्यान में रखते अनेक शताब्दियो का समय अवश्य लगा होगा। तेरहवी हुए केरल गजेटियर के सपादक ने लिखा है, "The सदी मे इसका जैव स्वरूप नष्ट हो गया।
mcgalithic habitation sites should be studied जमेल द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार केरल more intensively to know more about the
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के.ल में जैन स्थापत्य और कला
cultural sequence and matetial content." विचर जिले में एक निरुवलयनल्लुर भी है। इस कारण वास्तव में, यदि खोज की जाए तो जैनधर्म सबधी अनेक इस मन्दिर का निर्माण ८७० ईस्वी के बाद हुआ और स्थल प्रकाश में आ सकेगे।
शिलप्पादिकारम् की रचना किसी ने इलगो अडिकल के अब गुफाओ से निकल कर मन्दिरो की ओर। नाम से कर दी ऐमा निष्कर्ष उन्होने निकाला है किन्तु एक
यह कहा जाता है कि केरल मे जैन निर्मित मन्दिरो निष्पक्ष इतिहासकार की भौति उन्होने साहित्यिक एव का अस्तित्व नही पाया जाता। किन्तु यह कथन भी अन्य साक्ष्य के लिए गुंजाइश छोड दी है। खेद है कि इस उचित नहीं जान पडता। केरल मे जैन मन्दिर होने का सबध मे कार्य नहीं हुआ। प्रो० चम्पकलक्ष्मी इस मत से सकेत इलगो अडिगल के तमिल महाकाव्य शिलप्पादि- सहमत नहीं है। उनका मत है कि आठवी सदी मे तो से मिलता है। इसमे जैन श्राविका कण्णगी और कोवलन जैनधर्म को कठिन धार्मिक सघर्ष से गुजरना पड़ा था। की दुखभरी कथा वरिणत है। अडिगल (आचार्य) युवराज उस समय ऐसे आदर्श मदिर का निमाण सभव दिखाई पाद थे चिन्तु अपने बड़े भाई के पक्ष में राज्य का त्याग नहीं देता। कर सन्यामी हो गए थे। वे घेर राजधानी कजी के इलगो अडिकल के बड़े भाई चेर शासक चेन कुवन किले के पूर्वी द्वार के समीप स्थित कुणवायिलकोट्रम नामक (१२५ ईस्वी) ने कण्णणी की प्रतिमा स्थापित करन के जैन मन्दिर में रहा करते थे। इस मन्दिर को 'पुरनिल जिए एक मन्दिर बनवाया था जिसके उत्सव में लका का कोट्टम्' अर्थात् पुर के बाहर का मन्दिर कहा जाने लगा शासक गजबाहु और मालवा का राजा भी सम्मिलित हआ और इससे बाद क शिव मन्दिरो को ऊरकोटम' या पूर था। उस समय जैन धर्मावलम्बी भद्र चष्टन मालवा का के अन्दर का मन्दिर कहा जाने लगा। यह मन्दिर केरल शासक था। उसका राज्य पूना तक फैला हुआ था और के अन्य मन्दिरी का नियत्रण करता था और केरल में उसने मालवाधिपति को उपाधि धारण की थी। लका मे मन्दिरो क निर्माण के लिए आदर्श था ऐसा चार-पाच दूसरा गजबाहु बारहवी सदी में हुआ है। इसलिए इलगो मन्दिरो के शिलालेखो से ज्ञात होता है। इसका उल्लेख की रचना ईसा की दूसरी सदो को है यह स्वीकार किया केरल के अनेक काव्यो विशेषकर सन्देश काव्यो यथा कोक जा सकता है। यह मन्दिर था कम से कम उसका भाग सन्देश, शुक सन्देश आदि मे थी उपलब्ध है। इसे तककणा- प्राज भी काडगललूर म विद्यमान है यद्यपि उसका अनेक मतिलकम् भी कहा जाता था। चौदहवीं सदी तक यह बार जीर्णोद्धार हुआ है ऐसा जान पडता है। आजकल वह जैन मन्दिर रहा ऐसा इतिहासकार मानते है। उसके बाद भगवती मन्दिर कहलाता है। उस पर अधिकार करने के इसका प्रबन्ध नायर लोगो के हाथों में चला गया। समय जो कुछ हुआ होगा उसकी पुनरावत्ति प्रति वर्ष कालातर मे इसे हैदरपली और डच लोगो ने नष्ट कर भरणी उत्सव के रूप में की जाती है एसा कछ विद्वानोका दिया। सन ७० मे जो खुदाई की गई थी उसमें किले की मत है। उस समय अश्लील गाने, गाली-गलौज. मन्दिर दीवार और एक मध्ययुगीन (आठवी नौवी सदी) मन्दिर को अपवित्र किया जाना आदि का दौर रहता है। हाल ही की नीव के चिह्न पाए गए है (प्रो. नारायणन) प्रो० मे करल सरकार ने कुछ अकुश लगाया है। साथ ही जीवित नारायणन ने इस मन्दिर का निर्माण पाठवी सदी मे माना मुर्गे मंदिर पर फेंकना भी सरकार ने बद करा दिया। कहा है और इसके प्रमाण मे वे किणालर के जैन मन्दिर के एक जाता है कि देवी को अपलील गाने और गालिया आदि शिलालेख का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। इसकी विस्तृत पसद है। समीक्षा न कर केवल इतना ही यहां कहना उचित होगा उपर्युक्त मन्दिर चौकोर द्रविड़ शैली का विमान कि इस शिलालेख का पाठ केल उन्हीं का किया टुआ ग्रेनाइट पाषाण से निमित उसकी दीवारों पर वाहर की है। उन्होने कुणयनल्लूर (Kunayanallur) को कुण वाय- ओर दीप आधार की दो-तीन पक्तियां पूरी दीवाल में बनी नल्लर पर लिया है। यहां भ्रांति हुई इस लगता है। वसे हुई है जिनके कारण उत्सव के समय दीपो की अदभत छटा
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२०, बर्ष ४६, कि० २
अनेकान्त
उपस्थित होती होगी। देवी के एक हाथ में पुस्तक सी लगती installed in the kudalmanikkam temple isa है किन्तु वीरगा नही है। छोटे आकार के चरणभी स्थापित Jain Digambar in all probability Bharates
wara, the same saint whose statute exists at हैं, सफेद चवर भी लटके दृष्टिगत होते हैं। पुजारी आज भी अडिगल कहलाते है। एक विशेष तथ्य यह है कि इस
Sravanbelgala in Mysore' भरत बाहुबलि के बड़े
भाई थे यह इस कथन में शायद छुट गया है। मन्दिर में एक भूमिगत (underground secret cham
त्रिचूल मे वडकुन्नाथ नामक एक मन्दिर है। वह ber) है किन्तु उसमे क्या है यह कोई नही जानता। श्री
कुन्नाथ का अर्थ है उत्तर के देवता का मन्दिर । वह एक इदुचडन ने इसी विषय पर अपनी बृहत् पुस्तक मे यह मत ।
सर्वतोभद्र विमान है जिसमे चार द्वार होते हैं किन्तु अब व्यवत किया है उसमे कण्णगी के अवशेष हो सकते है।
इसमें केवल तीन द्वार ही रह गए हैं। यह गोलाकार है यदि ऐसा होता तो इतनी रहस्यात्मकता की शायद आव
और एक कम ऊंची पहाडी पर स्थित है जिसे वषभादि श्यकता नही होती। प्रस्तुत लेखक का अनुमान है कि उसमे
करते है। इसमे जैनो को अत्यन्त प्रिय कमल और पत्रावलि प्राचीन जैन प्रतिमाएं हो सकती है शायद इसी कारण उसे
का प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसके परिक्रमा पथ मे अनेक कभी खोला नहीं जाता था उनके साथ सर्प आदि के द्वारा
मूतिया हैं। मुख्य मन्दिर से जुडा ऋषभ मडप भी है रक्षा आदि की कोई घटना डी हुई है जिसके कारण यह
जिसमे जनेऊ धारण करके और ताली बजाकर प्रवेश कोष्ठ भयप्रद बना हुआ है । ___ कोडंगल्लूर मे ही केरल की सबसे प्राचीन मस्जिद
करना होता है इसके परिसर मे कुछ अन्य छोटे मदिर भी बताई जाती है । लोगन्स के अनुसार वह किसी समय एक
हैं। इसके चार गोपुर है । पिछले गोपुर मे जैनो को प्रिय जैन मन्दिर था । अब केवल इतना ही कहा जा सकता है
परस्पर बैरी जीव का चित्रण भी है। इमके नो शिलालेखों
में से चार नष्ट हो गए है। इस कारण इसके इतिहास का कि वह एक द्वितल विमान था। इरिजालकडा मे कडलमाणिक्यम् नामक एक विशाल मन्दिर है । वह चेर शासको
ठीक-ठीक पता नही लगता। इसके नाम और अकन आदि के समय में निर्मित अनुमानित किया जाता है। यह एक
से ऐसा लगता है कि यह मूल रूप से जैन मन्दिर था।
श्री वालतु के अनुसार इस मन्दिर ने तीन युग देखे हैंद्वितल विमान या मन्दिर है। इसका अधिष्ठान पाषाण
१. आदि द्रविड काल, २. जैन सस्कृति युग और ३. शैव का है किन्तु उसके ऊपर की दीवाले लकडी की है । इसमे
वैष्णव युग जो अभी चल रहा है। स्पष्ट लगता है कि एक काट्टम्बलम् या नृत्य संगीत के लिए एक मंडप भी है
यह ऋषभ देव का मन्दिर था। जिसकी आकृति एक अधखुली छतरः जैसी है। इसका यह षम दव गोपुर काफी ऊचा है। मन्दिर के साथ ही एक अभिषेक कोझिकोड मे एक तृक्कोविल है। यह श्वेतांबर मदिर सरावर या टेप्पकलम है। इसका जल केवल अभिषेक के है। कहा जाता है कि लगभग पांच सौ वर्ष पर्व गजराती लिए ही उपयोग में लाया जा सकता है। पहा प्राचीनता जैनो को जामोरिन ने इसलिए दिया था कि वे पर्यषण के के प्रमाणस्वरूप स्थाणुरवि नामक शासक का एक शिला- दिनो मे वापस गुजरात न जावे और यही अपना पर्व मना लेख नौवी सदी का है। इसमें भारत के एक मूर्ति है जिसके लिया करें। मदिर प्राचीन है किन्तु उसका भी जीर्णोद्धार दर्शन की अनुमति महिलाओं को नहीं थी। केरल के हुआ है। उसका अभिष्ठान ग्रेनाइट पाषाण का है और प्रसिद्ध इतिहासकार श्रीधर मेनन का कथन है-"Accor- छत ढलवां है। कलिकुड पार्श्वनाथ के नाम से भी जाने ding to some scholars the Kudalmanikkam जानेवाले इस मदिर के मूलनायक पार्श्व के अतिरिक्त अन्य temple ay Irinjakuda, dedicated to Bharata, तीर्थकर प्रतिमाएं भी हैं जिनम अजितनाथ की ध्यानावस्था the brother of Sri Rama, was once a Jain
प्रतिमा का अलकरण विशेष रूप से आकर्षित करता है। shrine and it was converted in to a Hindu temple, during the period of the decline of
उनके मस्तक के पास हाथी, देवियो और यक्ष यक्षणी की Jainism itis argued that the deity originally लघु आकृतियां है। गर्भगृह के मुरुम द्वार पर कांच का
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केरल में जैन स्थापत्य और कला
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विशेष काम है विशेषकर नेमिनाथ की बारात का। इसकी एक पुजारी रह गया था। वह गुजारा नहीं होने के कारण छत लकडी की है। इसी मदिर से जुडा आदीश्वर स्वामी इस मन्दिर को पुरातत्व विभाग को सौपकर चला गया। मदिर भी है। उसके गर्भगृह के बाहर ऋषभदेव के यक्ष इसकी रचना मे दो फीट के लगभग मोटी शिलाओ का गोमुख और यक्षिणी चक्रेश्वरी देवी, लक्ष्मी और अन्य प्रयोग किया गया जान पड़ता है जिसकी तुलना हम्पी के देवियो का भव्य उत्कीर्णन काले पाषाण पर किया गया गणिगित्ति मन्दिर की रचना से की जा सकती है। वह है। इसकी दूसरी मंजिल पर वासुपूज्य स्वामी और अन्य निश्च हो प्राचीन मन्दिर है। देवियो का भव्य उत्कीर्णन काले पाषाण पर किया गया पालुमन्नु (दूध का पहाड़) नामक स्थान पर लगभग है। इसकी दूसरी मंजिल पर वासुपूज्य स्वामी और अन्य दो हजार वर्ष पूर्व महाबीर जैसी घटना की एक अनुश्रुति प्रतिमाएं जैन प्रतीको सहित स्थापित हैं । मन्दिर से बाहर प्रचलित है। चौकी और ग्रेनाइट के पाषाण प्राकार से एक कोठ मे कमल पर ऋषभदेव के चरण है। एक अन्य यहां के मन्दिर की प्राचीनता का आभास अवश्य होता कक्ष मे कांच पर शत्रुजय तीर्थ प्रदर्शित है।
है अब उसके ऊपर का भाग साधारण कान जैसा लगता बंगर मजेश्वर मे एक चौमूखा या चतुर्मख मन्दिर है है जिस पर अब मग लौर टाइल्म को छत है। इसका जिसमे चारो दिशाओ मे चार तीर्थंकर प्रतिमाएं स्थापित महत्व टीपू सुलतान के कारण है। टपू ने मन्दिर को हैं। ये तीर्थकर :--आदिनाथ, तीर्थनाथ, चन्द्रनाथ और नष्ट कर दिया और लगभग ६ फीट ऊची मूर्ति ने चार वर्धमान स्वामी। मन्दिर छोटा है। उसका भी जीर्णोद्वार खड हो गए। उसे नदी प्रवाहित कर दिया गया। हा है। वैसे यह सालहवी सदी का बताया जाता है। पुरातत्व विभाग ने उसके एक खई को निकाल कर यह अब भी पूजा स्थान है।
कोझिकोड संग्रह लय मे रख दिया है। प्रस्तुत लेखक को केरल के कश्मोर वायनाड मे मानदवाडी मे एक सप्न फणम डि पीतल की एक छोटी पार्श्व मूति दिखाई आदीश्वर स्वामी मन्दिर है जो मोर्ययुगीन था ऐसा बताया गई जिसवे दो फणो को टीपू सुलतान के आक्रमण के समय जाता है किन्तु उसे गिराकर नया मन्दिर बना लिया गया नष्ट कर दिया गया था। यहा नव ग्रह, नागफण यक्ष आदि है। उसकी स्मृति में एक पाषाण सुरक्षित रखा गया है भी प्रदाशत है । मन्दिर पार्श्वनाथ का है। जिस पर एक नर्तकी का धुंधला-सा अकन दिखाई देता हाल ही में पुलियारमला में एक भव्य मन्दिर का है। स्थानीय विश्वास मिथ्या भी नहीं दिखाई देता क्योकि निर्माण किया गया है जो कि अनंतनाथ को समति है। मन्दिर की ओर जाते समय ही पापाण को क्रमशः ऊँची इसको भुडे पर वीणा वादिनी सरस्वती, ब्रह्मदेव और होती चली गई परतें स्पष्ट दिखाई देती है। वह २००० सरस्वती की लगभग चार फीट ऊची प्रतिमाए स्थापित वर्ष प्राचीन बताया जाता है। वर्तमान मन्दिर में ऋषभ- हैं। पन्दिर म श्रन-कध, धर्मचक्र, पद्मावती देवी एवं देव को लगभग तीन फुट ऊची प्रतिमा मूलनायक के रूप फणमडित पावनाय, अनतनाय, आदीश्वर स्वामी और में है। उसमे ताबे का रत्नत्रय, पीतल का नदीश्वर आदि पचपरमेष्ठी की मतियां आदि विराजमान की गई है।
बाहरी प्रकोष्ठ में प्राकृतिक दृश्यो का भी मोहक चित्रण सुलतान बत्तारी वह स्थान है जहां टीपू सुलतान की है। फोज की छावनी थी। यहा एक जैन मन्दिर ध्वस्त अबस्था इस जिले के एक काफी फार्म गृह में रत्नत्रय विलास मे है जो लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है। नामक एक भवन है। उसमे एक चैत्यालय में पार्श्वनाथ उसके ऊपरी भाग पर पेड़ पौधे उग आए है । उसके अनेक और पद्मावती देवी की सुन्दर मतिया है। इसके ध्यान स्तम्भों पर तीर्थकर मनिया उत्कीर्ण है। नागपाश भी कक्ष में विद्युन और दर्पण की महायता से विभिन्न कोणो ले जा सकते हैं। उसके गमगह में अब कोई मूति नहीं और हरे, पीले, लाल और सफेद रगो के बल्बो तथा है किन्तु बताया जाता है कि करीब सो वर्ष पूर्व केवल ट्यूबलाइट का प्रकाश डालकर अनत प्रतिमाए स्वर्ण,
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२२, वर्ष ४६, कि०२
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भनेकान्त
रजत, माणिक्य एवं स्फटिक स्वरूप में दिखाई जाती है। जिसका अतिशय आसपास के क्षेत्रों मे यहां तक कि इसे पिछले पैतीस वर्षों मे हजारो लोगो ने देखा है। ईमाइयो में भी मान्य बताया जाता है। इसकी गणना केरल के पर्यटक स्थल के रूप में की जाती नागरकोवित का नागराज मन्दिर सोलहवी शताब्दी है किन्तु खेद है कि कुछ शरारती लोगो के कारण इसका तक जैन मन्दिर था यह बात पुरातत्वविदों ने त्रावणकोर प्रदर्शन बन्द कर दिया गया है । इसे (Mirror temple) महाराजा भूतल वीर मार्तण्ड के शिलालेखो के आधार कहा जाता है।
पर स्वीकार कर ली है। डा० के. के. पिल्ले ने यह मत पालक्काड मे एक चन्द्रप्रभ मन्दिर है जो पूरा का व्यक्त किया है कि यह मन्दिर ईसा की छठी शताब्दी मे पूरा ग्रेनाइट पाषाण से निमित है। वह एक हजार वर्ष निर्मित हुआ होगा क्योकि वह समय केरल मे जैनधर्म के से भी अधिक प्राचीन बताया जाता है। कम अलकरण लिए अत्यन्त गौरवशाली था। इस मत को ह्वेनसाग के और यहा से नौवीं-दसवी की प्रतिमा की प्राप्ति से इसकी इस विवरण से भी समर्थन मिलता है कि सातवी सदी मे पुष्टि होती है। इसका भी अनेक बार जीर्णोद्धार हुआ है। जब उसने भारत की यात्रा की थी तब उसने कोटा में मन्दिर प्रदक्षिणा पथ है और पादपीठ पर चन्द्रप्रभु का । अधिक संख्या में दिगम्बर साधुग्रो को विचरण करते पाया लांछन उत्कीर्ण है। इसके सामने एक चबूतरा है जिसे था। कोट्टा इस समय नागरकोविल में समा गया है। किसी मन्दिर का अधिष्ठान पुरातत्वविदो ने माना है। नागराज मन्दिर के कुछ स्तम्भो पर पाश्र्वनाथ, महावीर इसी मन्दिर से कुछ दूरी पर मुतुपट्टणम् (मातियो का और पद्मावती देवी की मूर्तिया आज भी देखी जा सकती बाजार) था । वहा जैनियो की अच्छो आबादी थी। जब है। इसके प्रवेश द्वार पर लगभग चार फीट ऊची आधी जामोरिन ने यहा के शासक पर आक्रमण किया तब उसन मानव आकृति में धरणेन्द्र और पद्मावती हैं। प्रवेशद्वार हैदरअली को अपनी सहायता के लिए बुलाया । जैन लोग के फश पर साष्टांग प्रणाम करती एक महिला मति भी धर्भ परिवर्तन के भय से यह सपान छोडकर अन व चल जडा हुई है। इस मन्दिर के गर्भगृह पर छत नही है। गए। उसके बाद जब टीपू सुलतान ने इस नगर पर
प्रतिवर्ष घास-फूस की नई छत डाली जाती है । कही ऐसा
तो नही हुआ कि मन्दिर को क्षति पहुंचाने का प्रयन्न हुआ आक्रमण किया तब उसने मन्दिर को तुडवा कर उसकी ग्रेनाइट सामग्री का उपयोग यहां किला बनवाने में किया। हा आर शासन देवी या देवता का कोई चमत्कार हुआ
हो। यह भी उल्लेखनीय है कि इस मन्दिर में पार्वनाथ आज भी किले मे गजलक्ष्मी, देव कुलिकाओ के शिखर
की पीतल की मति आज भी विष्णु के रूप में पूजी जाती जैसी रचनाए, कमल, मीनयुगल आदि देखे जा सकते है।
है । लेखक ने उसे स्वय देखा है क्षौर करलचरित्रम् मे भी मन्दिर का ध्वस्त प्रधिष्ठान अभी भी है।
इस तथ्य का उल्लेख किया गया है। पुरातत्वविद यह आलप्पी मे एक भब्व देरासर का निर्माण पच्चीस
मानते हैं कि करल के मन्दिरो पर जैन स्थापत्य का भी लाख की लागत से किया जा रहा है जो कि जनवरी ३
प्रभाव है। इस सम्बन्ध में केरल के स्मारको के विद्वान मे पूर्ण होना था।
श्री सरकार ने एट्र मन्नर के शिव मन्दिर के विषय में हानरी मे धर्मनाथ जिनालय मे धर्मनाथ, पार्श्व- लिखा है-"It is a sarvatobhadra temple with बारावासपज्य और महावीर की मूर्तियां हैं। प्रवेश द्वार four openings. In other words, the plan पर लक्ष्मी का अभिषेक करते गज प्रदर्शित हैं । इस मंदिर simulates the chaturmukha shrines of the का भी जीणोद्धार हुआ है । इसके साथ हो चन्द्रप्रभु जिना- Jain tradition. That is why the linga in the लय है। इसमे काच पर सम्मेदशिखर और शत्रुजय के centre can be viewed from all the directions." चित्र केरल के ही कलाकारो से बनवाए गए है । एक लोगन्स ने तो यहा तक लिखा है कि मस्जिदो की निर्माण छोटे से मन्दिर मे शातिनाथ की अतिशयपूर्ण प्रतिमा है शैली पर भी जैन प्रभाव है। (शेष पृ० २६ पर)
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जिनागमों का संपादन
0 श्री जौहरोमल पारख
प्राचीन अर्द्धमागधी के नाम पर वैयाकरणो द्वारा प्राजीविका चलाने वाले लहिये और श्रमण-श्रमणियां पाठो के "शुद्धिकरण" की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है उसकी व प्रबुद्ध श्रावक-श्राविकाये भी इन उपरोक्त लिखित आगमो स्वागत-ममीक्षा कई जैन पत्रिकाओं मे छपी है। डॉ० के० को प्रतिलिपिया करते रहते थे । पहले भोजपत्र व ताड़पत्र ऋषभचन्द्रजी जैन अहमदाबाद वालो ने इस नई दिशा मे पर और बाद मे कागज का चलन हो जाने पर कागज पर मेहनत की · जिमके बारे मे पडितो के अभिप्रायो के आगम लिखे जाते रहे। ऐमी प्रतिया संकडो हजारो की प्रशमात्मक अशों का प्रचार भी हो रहा है जो आज की मख्या में, देश-विदेश के भण्डागे व यत्र-तत्र, अन्यत्र भी फैशन व परम्परागत के अनकल ही है । नमूने के तौर पर मिलती हैं जिनमे कई तो हज र-आठ मो वर्ष से भी अधिक आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय के पुरानी। वर्तमान मे आगमधर गुरु से परम्परा मे प्राप्त प्रथम उद्देशक का नव सपादित पाठ भी प्रसारित किया पाठ का प्रायः अभाव हो जाने से, आगम के असली पाठ गया है।
निर्धार में ये प्राचीन हस्तलिखित प्रतिया (जिन्हे आदर्श उस बारे में यह लेख है कि प्रारम्भ से आगम पाठ को सज्ञ दी जाती है। ही हमारा एक मात्र आधार रह मौखिक रूप मे ही गुरुशिष्य परम्परा से चलते रहे । चूकि गई है और इसीलिए आगम-संप दन की यह मान्य प्रथा आगम पाठो की शुद्धता पूर्वाचार्यों की दृष्टि में अत्यन्त हकि बिना आदर्श मे उपलब्ध हुए कोई भी पाठ स्वीकार महत्त्व रखती थी अत समय-समय पर वाचनाये व सगतियें न किया जाय। होती थी जिनम सख्याबद्ध बहुश्रत आगमधारक श्रमण इस दृष्टि से डॉ० चन्द्रा द्वारा संपादित प्रथम उद्देशक मिलकर अपनी-अपनी याददास्त को ताजा व सही करते का विश्लेषण करते हैं तो सनग्न सूची के अनुमार महावीर रहते थे। किन्तु बाद मे स्मरण शक्ति के ह्रास व स्वाध्याय जैन विद्यालय संस्करण (जिसे उन्होने आदर्श ग्रन्थ/प्रति के शिक्षणादि अन्य कारणो से आगमो को लिखने व नोट रूप में प्रयुक्त किया है) के पाठको ९४ जगहो पर शब्दो करने की छटपुट प्रथा भी चल पडी, या मुख्यतः गुरुमुख मे भेद किया है। ५ शब्द भेद छठे मूत्र में 'यश्रुति, तश्रुति, से प्राप्त पाठ का ही प्रचलन था और वही शुद्धतर माना दवतस्वर' प्राधार पर और जोड़े जा सकते है जैसा कि जाता था। कालान्तर मे आगम धरो की निरन्तर घटती उन्होने दूसरे सूत्र में (सूची कम सख्या ४८-६, ५२-४) में सख्या को देखते हुए जब आगम-विच्छेद जैसा ही खतरा किये है (मभवत: छठे सूत्र में ये भेद करना चाहते हुए भी दिखाई देने लगा तो पाठ सुरक्षा के लिए आज से लगभग नजर चूक से वे भूल गए लगते हैं)। इस प्रकार पाठ भेद १६०० वर्ष पूर्व गुजगत (सौराष्ट्र) के वल्लभीपुर नामक वाले शब्दो की सख्या ६६ पर पहुच जायगी और १७ शहर में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण (अपरनाम देववाचक) को शब्दो मे (सूची क्रम संख्या १,३,६,३१,३२,३६,४०,५०, अध्यक्षता मे आगम वाचना हुई । उस अवसर पर आगम- ५१,५५,५६,६५ ६७,७६,८३,८७.६०) तो दो दो पाठ भे धारक आचार्यो/उपाध्यायो को गुरु परम्परा से प्राप्त पाठ है अत: कुल पाठ भेद ११६ गिनाये जा सकते हैं। लेकिन व व्यक्तिगत छुटमुट प्राप्त पोथियों के व्यापक आधार पर इतने सारे पाठ भेदो में केवल ७ भेद ही (सूची क्रम संख्या समस्त उपलब्ध आगमों को लेखबद्ध किया गया और वही ६,४६ ४६,५२,५३,५४ व ५७) आदर्श मम्मत है। बाकी पाठ आज समूचे श्वेताम्बर जैन समाज में मान्य है। के सब भेद आदर्शों पर आधारित न होने के कारण अमान्य
चलन यारो की
खुन
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२४, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
ठहरते हैं। डॉ० साहब कष्ट उठाकर भण्डारी में जाते. जिस स्थल पर वर मिलती है वहीं ली जा सकती हैंप्राचीन प्रतियो का अध्ययन करते और उसी सूत्र मे उसी मवंत्र नही । महावीर जैन विद्य लय के संस्करण मे आगस्थल पर इनके द्वारा सुझाया गया पाठ उपलब्ध है ऐसा मोदय समिति सस्करण की अपेक्षा 'त' श्रुति की भरमार बताते तब तो छ आधार बनता, वरना इनका पाठ गले है परन्तु एक भी जगह बिना आदर्श का आधार लिए नही नहीं उतरेगा।
है। विडम्बना यह है कि डॉ. चन्द्रा ने अपने सारे निष्कर्ष असल आगम पाठ क्या है ? बस इसका ही निर्धारण बिना असल प्रतियो के देखे केवल छपी पुस्तको-द्वितीय करे। आपकी गय मे क्या होना चाहिए या हो सकता है स्तर को साक्ष्य (Secondary evidence) के आधार पर यह अनधिकार चेष्टा है। वास्तव मे पाश्चात्य जगत् से निकाले है जिन्हें प्रायः साधारण अदालत भी नही मानती भई 'सपादन' नाम से पहिचाने जाने वाली प्रक्रिया आगमो है। यदि वे गहराई मे जाते तो अपना मामला मजबूत पर लागु ही नही होती है क्योकि न तो हम सर्वज्ञ है न कर सके होते। गणधर और न आगमधर स्थविर है (नियुक्ति व चूणिकार अर्द्धमागधी भाषा के प्राचीन रूप का तर्क भी शक्तिने तो थेर शब्द का अर्थ भी गणधर ही किया है- (देख
हीन है। भगवान ने तीर्थ को प्ररूपणा की थी, न कि अर्द्ध
टीम | Hala द्वितीय स्कन्ध का प्रारम) अन्य आगमो भे या स्वय अचा. मागधी भाषा की। वह भाषा तो उनसे पूर्व भी प्रचलित राड मे अन्यत्र अमुक पाठ मिलता है इसलिए यहा भी थी--उनसे भी बहुत पुरानी है। भाषावली की कठोर वैसा ही पाठ होना अहिए, दम तक में काई बल नहीं सीमा रेखाए नही खेची जा सकती है तथा एक प्रदेश व
-यह दतरफा है। इसके अतिरिक्त यह कोई नियम एक युग म सभी व्यक्ति एक-सी हा भाषा व्यापरते हैं यह नही है कि एक व्यक्ति सदैव एक सरीखा ही बोलता है। सिद्धान्त भी नही बनता है। भिन्न-भिन्न जातियो की, श्रोताओ की भिन्नता, स्थल को भिन्नता आदि कारणवश शहरो ६ गावो की, अनपढ़ व पण्डितों की बोलियो मे अथवा बिना कारण भी, हम गद्य पद्य छंद मात्रा अलकार, अन्तर होता है-पारिभाषिक शब्दावली भी अपनी-अपनी कभी लोक तो भी लोग, कमी पानी तो कभी जन, कभी अलग होती है। आज २१वी सदी में भी मारवाड़ी लोगो प्रशापना तो कभी पण्णवण्णा, कभी किंवा तो कभी अथवा, को बहियो व आपसी पत्र व्यवहार की भाषा व शंली १८वी कभी कागज तो कभी कागद, कभी भगवतो तो कभी शताब्दी से मेल खाती है और इसी कारण जैन समाज यह व्याख्याप्रज्ञप्ति, कभी प्रत्याख्यान तो भी पच्चक्खाण, कदापि स्वीकार करने वाला नहीं है कि बोड ग्रन्थो या कभी छापा तो कभी अखबार, कभी सुमरा तो कभी हुमरा, अशोक के शिलालेखो मे प्रयुक्त भाषा हमारे आदी की कभी मै तो कभी हम, कमी प्रतिक्रमण तो कभी पडिक्क अपेक्षा अधिक माननीय है एव जैनागमो मे अपना ली मणा, कभी रजस्ट्री तो कभी पजीकरण बोलते है । अर्थात् जानी चाहिए। हा आगमो का अर्थ समझने में भले ही हमारी बोली मे और विशेषतः सतत बिहारी साधु वर्ग में उनकी सहायता ली जाए किन्तु परितो से हमेशा हमारा श्रतिवैविध्य, शब्दवैविध्य (पर्यायवाची) और भाषा वंध्य वही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेलसेल का वही पाठ (अन्य भाषा के शब्द) होता है।
हमे प्रदान करे जो तीर्थकरो ने अर्थ रूप से प्ररूपित और डॉ. चन्द्रा ने ३८ भेद (यकात/उदवृतस्वर करक) ७ गणधरी ने सूत्ररूप से सकलित किया था। हमारे लिए भेद (ग का क करके) ३ भेद (ह का ध करके) २ भेद वही सर्वथा शुद्ध है। सर्वज्ञो को जिस अक्षर शब्द पद
डढ का द्ध करक) १ भेद (य का च काके) और १ भेद वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था वह सूचित कर (य का ज करके) कुल ५२ भेद श्रुति आधारित किए है गए-अब उसमे कोई असर्वज्ञ फेरबदल नही कर सकता। जिनमे केवल ६ आदर्श सम्मत है (जो उपरोक्त ७ को उसकी अपेक्षा अक्षर व्यजन मात्रा भी गलत, कम या सख्या में समाविष्ट कर लिए गए है)। हमारा यह कहना अधिक बोलने पर जानाचार को अतिचार लगता हैनही है कि आगमो म 'त' श्रुति नहीं है। पर आदर्शों मे प्रतिक्रमण मे प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
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जिनागमों का संपानन
रही बात व्याकरण की, सो व्याकरण गणित को तरह एक ऋत विज्ञान ( Exact Science) तो है नहीं कि जहां दो व दो चार ही होते हों । व्याकरण के प्रायः सभी नियम अपने-अपने अनुमान व अधूरे पोथी ज्ञान के बल पर बनाए गए हैं, उन्हें पूर्णता की संज्ञा नहीं दी जा सकती। वैयाकरण, निष्णात (experts) होते हैं और सब या अधिक की बात छोडिए दो निष्णात भी एकमत नहीं होते हैं। और तो और, वर्षों की बहस के बाद भी जैनो के मूल मन्त्र नवकार मे "न" शुद्ध है या "ण" शुद्ध है इसका निर्णय वैयाकरण नहीं कर पाए है जबकि डॉ० चन्दा ने प्रस्तुत उद्देशक में ३५ पाठ भेद केवल "ग" को 'न' मे बदल करके किए हैं जिनमे एक भी आदर्श सम्मत नहीं है।
साथ मे हमे यह नही भूलना है कि व्याकरण तो मच पर बहुत बाद मे आती है । व्याकरण के नियम रचित साहित्य पर आधारित होते हैं शास्त्रों व अन्य ग्रन्थों में हुए प्रयोगों के अनुसार पन्डितो द्वारा पीछे से पढे जाते हैं। ऐसी परिस्थिति मे यह कहना कि आगमकारों ने व्याकरण की अवहेलना की है किवा आगम-रचना व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हुई है, उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि हमारे दादों, पडदादो ने हमारे पोतो पड़पोतो का अनुकरण नही किया ।
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प्राप्ति के बाद भगवान् ने तीर्थं की प्ररूपणा पण्डितों की भाषा मे नही की वे लोकभाषा मे बोले नाकि आम प्रजा आप्त वचनों को सरलतापूर्वक सही रूप मे समझ सके । प्रस्तुत उद्देशक मे ७ भेद विभक्ति परिवर्तन करके, २ भेद अनुस्वार का लोप करके और १ भेद ए का लोप करके व्याकरण की दृष्टि से १० पाठ भेद किए गए हैं। जिनमे केवल एक भेट ही आदर्श सहमत है जो ऊपर गिनाया जा चुका है।
थोडी देर के लिए यह मान भी ले कि सभी व्याकरण डा० चन्द्रा से एकमत हैं और यह भी मान ले कि भगवान् महावीर की तीर्थ प्ररूपणा से पूर्व डा० चन्द्रा की यह नियमावली दृढ़तापूर्वक प्रभाव में थी तो भी हमारा कथन है कि आगम इतनी उच्चकोटि की सत्ता व अधिकारिक स्तर लिए हुए है कि बेवारी उपकरण की वहा तक पहुच ही नहीं है। सर्वज्ञों के वचन व्याकरण के अधिकार क्षेत्र से परे व बहुत-बहुत ऊंचे है। पाणिनी का व्याकरण वेदो पर लागू नही होता अर्थात् आर्ष प्रयोग के अपवाद सर्वमान्य हैं। स्टूडियो में निदेशक जैसे एक्टर (अभिनेता) को अथवा छड़ीधारी अध्यापक जैसे छात्र को कहता है कि 'तू ऐसा बोल' जैसा मुंह में भाषा डूबने का अधिकार या करण को नहीं है कि तीर्थकर व गणधरो को कहे कि आपको इस प्रकार बोलना चाहिए था ! इसे भाप वैयाकरणो का दुर्भाग्य मानें या जनता का सोभाग्य कि ज्ञान
अनएव भकरण के पति से हमारा अनुरोध है कि ज्ञानी (जो वैयाकरण नहीं होता है) व पण्डत के बीच इस भारी फर्क को समझे और अपने व्याकरण ज्ञान को सामान्य शास्त्रो. प्रत्थो व अन्य साहित्य तक ही सीमित रखें - आगमो पर थोपने की कोशिश न करे । तिस पर भी उन्हे आप्न वचनो मे भाषाई या व्याकरणीय दोष अतीव रूप मे खटकने हो तो "समरथ को नदी दोष
गाई" इस चौपाई मेमना से प्रोफेसर घाटगे ने अपने अमेठीक तिवा है कि ऐसे प्रयासो का उपयोग शब्दकोष बनाने मे लिया जाएगा कि उपलब्ध पाठो में प्राचीनतम पाठ नसा है। मुनि श्री जम्बूविजय जी ने भी अपने अभिप्राय मे लिखा है- " मे उपर उपर थी तमारु पुस्तक जो अनुनामिकपरसवर्ण वाला पाठी प्राय: MSS मा मलता जा नयी एटेल ञङ् वगेरे वाल पाठो मारावी अपान, समारो एक विद्धान छे के MSS मां होय तेज पाठ आयो" लेखक ने भी जंमलमेर, पूना, काठमण्ड़, जोधपुर, बाडमेर, जयपुर आदि भंडारों की हजारो प्राचीन प्रतियो का अवलोकन, सूचीकरण व प्रतिनिधिकरण किया है पर प्राकृत ग्रन्थों मे परसवर्ण अनुनासिक लिखने को पद्धति का अभाव हो पाया है - अनुस्वार मे ही काम चनाया गया है। लेकिन डा० चन्द्रा ने इस पद्धति को अपना कर प्रस्तुत उद्देशक में १६ स्थानों पर पाठभेद किए है जिनमें से एक को आदर्श
सम्मत नहीं हैं ।
यहा पर यह भी उसनीय है कुल ११६ पाठ भेदो मे केवल 'आउ' को छोडकर शेष १५ पाठ भेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ मे कार्ड फर्क नहीं पड़ता । और आउसते ( कही अनुम्वार सहित है कही रहित ) इस पाठ
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२६, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
को सबने विकल्प में स्वीकार किया ही है और चणिकार, पनपता है और उनकी भावनाओं को ठेस भी पहुंचती है। वत्तिकार आदि ने इसकी व्याख्या की ही है। तो फिर अत: आत्मनिरीक्षण करें कि जो कार्य आप श्रत सेवा व इस पाण्डित्य प्रदर्शन का लाभ क्या? पहाड खोजने पर निर्जरा का कारण समझकर कर रहे हैं वह कहीं आश्रव व पहा भी नहीं निकला ऐसा कहा जा सकता है। कर्मों का बन्धन तो नहीं है। याद रखें कि गलत ग्रन्थ
ग्रन्थकार की अपकीति को चिरस्थायी कर देता है । और डा. के इस प्रयत्न को, जैनागमों के संशोधन व म
अन्त में होगा यह कि गुडगांव व राजकोट (अहमदाबाद)
नोगत संपादन प्रक्रिया को नयी दिशा का बोध देने वाला बनाया से छपे आगमों की तरह आपका संस्करण भी बहिष्कृत गया है। नवीनता का शोक सबको-बूढों को भी होता कर दिया जाएगा। हमारा मन्तव्य यह नही है कि प्रतिहै. लेकिन कृपा कर आगमो पो इस मानसिक चंचलता का लिपि करने में भलचक अस्वाभाविक है, लेकिन आदी शिकार न होने दें। आगमों का सशोधन या सपादन के का मिलान कर सर्वसम्मति से उनका परिष्करण बिल्कूल बहाने पूनलेखन जैसी वस्तु हर प्रकार से अक्षम्य है- माभव है -प्रादशों से हटने की कतई आवश्यकता नही मनमानी का पथ प्रशस्त करने वाली सिद्ध हो सकती है। है। भूलो का परिमार्जन लो हिसाब, कानन आदि मे सर्वत्र हमारे आगम पुराने है और उनके लिए पुरानी दृष्टि ही होता ही है क्योकि वन्त, भूल अस्तित्वहीन है, नही अधिक उपयुक्त है क्योकि वह आगम युग के समीपस्थ है। (Nullity) गिनी जाती है। किन्तु जहा, भून हुई हो ऐसा लाख-लाख धर्मानुयायी इन पाठो को पवित्र मत्र समझते कहा नही जा सकता, वहा मल सुधार की ओट लेकर है, श्रद्धापूर्वक कठस्थ व नित्य पारायण करते है। भाषा
आगमपाठो मे घुमपंस काना अनुचित है। आदर्शविहीन विज्ञान के चौखटे मे फिट करने के लिए प्राचीन आदर्शों इस भाषाविज्ञान की दृष्टि मे आगम संशोधन का विरोध में उपलब्ध एव सदियों से प्रचलित पाठों में कांट-छांट होना चाहिए। करने से सामान्यजन की आस्था हिलती है, उनमे बुद्धिभेद
(तुलसी प्रज्ञा से साभार)
सम्पादकीय टिप्पण-श्री जोहरीमल पारख ने आर्ष भाषा के सरक्षण की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने का पुण्य कार्य किया है। श्वेताम्बर आगमों को ही क्यों ? कुछ विज्ञों ने तो दिगम्बर आगमों की भाषा को भ्रष्ट तक घोषित कर वर्षों पूर्व से-आगा-पीछा सोचे बिना, उन्हें बाद के निर्मित (पश्चाद्वर्ती) व्याकरण से बांध, शुद्धि-करण का नाटक रच रखा है और हम किसी भी बदलाव का बराबर विरोध करते रहे हैं। पर, इस अर्थ-प्रधान समाज में कुछ कहना 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' जैसा हो रहा है फिर भी हमारे आंसू पोंछने के लिए हमें निवेदन मिले हैं कि हम ही जागम शुद्ध कर दें। पर, हम ऐसो दुश्चेष्टा, जिससे मूल-आगम भाषा का लोप होने को परम्परा चाल करने का प्रारम्भ होने को बल मिले और आगम लुप्त हों तथा अल्पज्ञों को यह कहने का अवसर मिले कि वे सर्वज्ञों की परम्परागत वाणी को भी शुद्ध करने जैसा श्रेय पा सके हैं के सदा विरोधी हैं।
इस संदर्भ में हम श्री पारख जी के हम-सफर हैं। उनकी इस जागरुकता के लिए उन्हें बधाई देते हैं और आशा करते हैं कि समाज भाषा को समझ या न समझे पर, इतना तो अवश्य ही समझेगा कि उसके आगम जैसे, जिस रूप में हैं, सही हैं-'नान्यथाषादिनो जिनाः।'
-संपादक
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प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में प्राप्त कुछ पत्र
मान्य भाई मा० प्रेमचन्द जी, (अहिंसा मन्दिर)
महाकवियो की कालजयी रचनायों में व्याकरण-विरुद्ध जय जिनेन्द्र ! उस दिन दिल्ली मे आपसे भेंट के प्रयोग उनके दोष नही, उनकी विशेषता बन गये हैं। समय अन' यास आ. कुन्दकुन्द कृत समयसार के भिन्न- कवि कभी भाषा के नियमों से नियंत्रित नहीं होता संस्करणो और सस्था विशेष द्वारा प्रकाशित सस्करण में
अपितु वह तो स्वयं भाषा का नियामक/निर्माता होता है, शौरसेनी व्याकरण के नियमों को आधार बनाकर पाठ
भाषा करण के नियमों मे नियत्रित नहीं होती, अपितु निर्माणविषयक विवाद पर भी कुछ चर्चा हुई। यह विवाद
उमका नियामक तो लोक-व्यवहार या लोक-जिह्वा हुआ अत्यन्त खेदजनक है।
करती है । भाषा के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि मैं 'अनेकान्त' का पाठक है। इस सम्बन्ध मे जिज्ञासा
किसी भाषा के लोक-प्रचलित रूप से उसके व्याकरण का वश अनेकान्त के भिन्न-भिन्न अको मे एतद्विषयक अका निर्माण होता है न कि व्याकरण सामने रखकर भाषा को पुनः पढा । इस विवाद के केन्द्र मे 'समयसार' का जो ।
का। यद्यपि पूर्णत: नहीं, परन्तु बहुत अशो मे सस्कृत एक सस्करण है उसके श्रद्धास्पद 'सम्य-प्रमुख' अथवा सशोधन-
ऐसी संस्कार की हुई कृत्रिम भाषा है। इसी कारण
मी मरकार की ई ऋषित खा प्रमुख के 'मुन्नडि (पुगेवाक) माहित ग्रन्थ और उसके
सम्कृत एक विद्वभोग्य भाषा बनकर रह गयी। वह कभी पाठो को भी ध्यान से देखा।
लोकभापा नही बन सकी। प्रसगत: मैं यह कहना उचित समझता हूं कि मैंने दस- ऐसी कृत्रिमता से बचने और अपने-अपने सिद्धान्तो वर्षों तक लगातार स्वर्गीय डा० हीरालाल जी तथा डा० को सुगम व सुबोध बनाये रखने के लिए हो भ० महावीर, प्रा. ने. उपाध्ये के मार्गदर्शन मे सपादन कार्य सीखने/करने महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियो ने अपने उपदेश अतिका अनुभव प्राप्त किया है। डा० उपाध्ये द्वारा सपादित विचारपूर्वक संस्कृत मे न देकर लोकभाषा प्राकृत में प्रवचनसार को वर्षों तक पढा/पढाया है। तथा प्राचीन दिये। वे जहाँ जहाँ धर्मप्रचार के लिए गये, उनकी वाणी पवित्र ग्रन्थो के सम्पादन के मान्य सिद्ध न्तों का सम्यक् में प्रादेशिक भिन्नताएं आना न केवल स्वाभाविक अपितु परिचय प्राप्त किया है। मेरे द्वारा संपादित 'जंबूसामि- अनिवार्य भी था। इस कारण निश्चय व्यवहार नयों के चरिउ' भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। उसे सदन अलग-अलग महत्त्व मिद्ध करने के लिए उन्हें उच्चस्वर से की दृष्टि से देखा जा सकता है।
यह घोषित करने मे रंचमात्र भी सकोच न हुआ कि जिस ___ 'पुरोवाक' मे 'समयसार' या (समयसारो) के श्रद्धेय प्रकार किसी अनार्य (म्लेच्छ) को उसकी भाषा संशोधन-प्रमुख ने पाठ संपादन के जो सिद्धान्त स्थिर किये (बोनी) का आश्रय लिए बिना समझाया नहीं जा सकता, हैं वे संस्कृत भाषा में लिखे किसी अन्य के सम्बन्ध में उसी प्रकार 'व्यवहार' के बिना 'निश्चय' का उपदेश सम्भवतः उचित हो सकते थे, पर वह भी नियमतः नहीं। करना अशक्य है। क्योंकि संस्कृत के कई प्रख्यान महाकवियों 'अपाणिनीय' ऐसे उन स्वसंवेदी, अध्यात्मरस मे विभोर रहस्यवादी सर्थात पाणिनी कत अष्टाध्यायी के नियमों के विरुद्ध संतों से आग्रहपूर्वक यह अपेक्षा और ऐमी स्थापना करना प्रयोग किये हैं। इसी कारण यह उक्ति प्रचलित हुई, कि "वे न केवल छन्द और व्याकरण अपितु भाषा-शास्त्र "निरंकूशाः कावय." कवि निरकुश होते हैं। परन्तु उन (जिसका इतिहास कुल दो सौ वर्षों का है) के भी पण्डित
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२८, वर्ष ४६, कि. २
अनेकान्त
थे, सौर उन्होने प्रत्येक शब्द भाषा-रचना और छन्दशुद्धि पाद टिप्पण मे दे सकता है। और प्राकृत ग्रन्थों में तो आदि तथा भाषाशास्त्र के सभी नियमों को ध्यान मे रख- विशेष रूप से किसी भी सिद्धान्त को मानकर पाठी को कर अपनी जगद्वद्य रचनाओं का प्रणयन किया।" इसके एकरूप बनाना तो सरासर प्राकृत की सुन्दरता, स्वाभासम्बन्ध में क्या कहा जाय ? वे कवि और भाषाविद् होने विकता को समाप्त कर देना है जो संपादन के सर्वमान्य के कारण 'सत' नही अपितु 'सत' होने के कारण कवि थे। सिद्धान्तो के सर्वथा विरुद्ध है। काव्य उनकी प्रयत्नपूर्वक की गयी रचना नहीं, ये तो एक उदाहरण देकर मैं अपनी बात और स्पष्ट करना उनके उद्गार हैं, जो काव्य के रूप मे प्रगट हुए। चाहूंगा । प्राकृत के प्रसिद्ध सहक 'कर्पूरमजरो' की अनेक ___ और फिर कभी प्राकृत के कवियो और लेखको ने तो प्रतियां सामने होने पर भी हा. स्टेन कोनो ने 'पद्य मे कभी व्याकरण के नियमो को ध्यान में रखकर अपनी महाराष्ट्री और गद्य मे शौरसेनी' का प्रयोग किया जाना रचनाओ का प्रणयन किया ही नही । उनकी रचनाओ को चाहिए, क्योंकि महाराष्ट्रो 'अधिक मधुर होती है' शोरदेखकर विभिन्न प्राकृतो के नियमोपनियमों का निर्माण सेनी उसकी अपेक्षा कम मधुर' इस उक्ति को आधार मान किया गया है। प्राकृतें जन-बोलियां थी और उनमे क्षेत्रीय कर इसी सिद्धान्त पर बलपूर्वक 'कपूरमञ्जरी' का अत्यन्त रूपो का होना-यथा होदि, भौदि, होई, भोइ, हवा, श्रमपूर्वक एक सस्करण तयार करके प्रकाशित किया। भवह ही स्वाभाविक था। ऐसे भेदो का न होना सर्वथा वह संस्करण (उपलब्ध) विद्वानों द्वारा पूर्णतया अमान्य अस्वाभाविक होता । प्राकृतो की यह बहु-रूपात्मकता हो कर दिया गया। तब स्व. डा० मनमोहन घोष ने 'कर्पूरउनका प्राण, उनकी आत्मा और उनकी सुन्दरता है । इन मजरी' का एक नया सस्करण प्रस्तुत किया जिसमे रचनामी को व्याकरण के जड्-कट हरे मे बलात् बाधना गद्य-पद्य दोनो मे शौरसेनी का ही प्रयोग है तथा वह तो इसके प्राणहरण करने के समान होगी। और फिर यह कर्परमजरी का श्रेष्ठ सस्करण है। भी कोन नही जानता कि प्राचीन गाथा' छन्द के कितने अन्त मे एक बात और ! विभिन्न प्राकृतो के बीच मेध-प्रभेद रहे हैं। उनमे कही एकाध मात्रा कम, कही कोई कठोर भेदक/विभाजक नियम नही थे। अत: महाअधिक यह बहुत साधारण बात है। ऐसे छन्द दोषी को राष्ट्री, जैनमहाराष्ट्री, शोरसेनी,जैन शोरसेनी आदि नाम तो उच्चारण मे लघु को दीर्घ व दीर्घ को लघु करके ही थोडी-थोड़ी विशेषताओ के कारण रखे गये। जिन्हे किसी ठीक कर लिया जाता है।
भाषा/व्याकरणीय भाषा शास्त्रविद् ने माना ओर किसी और यह भी कि प्राचीन कृतियो मे व्याकरणशुद्धि, ने नही। छन्दशुद्धि या अर्थशुद्धि आदि किसी भी कारण से सपादक अत: आगमो के सपादन मे पाठों की व्याकरण या को किसी एक मूल-प्रति यदि वह सर्वशुद्ध और प्राचीन छन्दशुद्धि महत्त्वपूर्ण नही, उनकी स्वाभाविकता, सहज सिद्ध होती हो, तभी और केवल तभी उसे आदर्श मानकर, अर्थ-बोधकता और विविधता, जो कि उनका वास्तविकफिर उसमे जो भी शब्दरूप प्राप्त होते हो, उन्हें स्वीकार सौन्दर्य है, महत्वपूर्ण है। करके; अथवा अनेक भिन्न प्रतियो मे से पाठो का चयन
अत: सम्बद्ध पक्षो से मेरा अतिविनम्र/करबद्ध निवेदन करके, जिस पाठ को मूलरचना में स्वीकार किया जाय, है कि ग्राग्रह छोड़कर आगम में प्राकृत का प्राकृतपन आपके अतिरिक्त शेष सभी पाठो को निरपवाद रूप से विनम्र/सरलभाव से सुरक्षित रहने दें। पादटिप्पण मे देने का अकाट्य सिद्धान्त है। फिर वे पाठ यह अवांछनीय विवाद अविलब समाप्त हो इसी छन्द, व्याकरण अर्थ और सपादक की रूचि के चाहे जितने सदाकक्षा और हादिक सद्भावना के साथ। अनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, सपादक को अपनी ओर
आपका स्नेहाकांक्षी ३ पाठ-परिवर्तन करने का कथमरि अधिकार नही है।
(डॉ.) विमल प्रकाश जैन जो जो भी कहना हो, वह अपना अभिमत या सुझाव
(रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर)
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प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में प्राप्त कुछ पत्र
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आदरणीय पं० पप्रचन्द्र जी शास्त्री, (सम्पादक अनेकान्त) है। फिर प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों की मल भाषा को शुद्ध प्रणाम !
करके उसे विकृत करना तो एक बहुत बड़ा दुस्साहस है। स्व. परमपूज्य गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के जैन शौरसेनी आगमों की भाषा समस्त प्रारुतों से बाद आप ही एक ऐसे सजग एव शाश्वत प्रहरी हैं, जो प्राचीन है इसलिए उसके रूपो में विविधता का होना संकटग्रस्त मुल जिनवाणी की रक्षा कर रहे हैं। वास्तव स्वाभाविक है। १२वीं शताब्दी के वैयाकरणों के व्याकरण मे आप्ताभिमान-दग्ध तथाकथित विद्वान मूल ग्रन्थों की के नियमों के अनुरूप बनाना सर्वथा अनुचित है। आचार्य भाषा के परिमार्जन करने के बहाने उसे विकृत कर देते हेमचन्द्र ने स्वय प्राकृत व्याकरण में आर्षम् ११३ सूत्रके हैं। ऐसी घिनोनी प्रवृति का डटकर मुकाबला करना द्वारा कहा भी है कि पार्ष अर्थात्-आगम सम्बन्धी शब्दों चाहिए और यथा सम्भव एक सम्मेलन भी बुलाकर इस की सिद्धि मे प्राकृत व्याकरण के नियम लागू नहीं होते विषय मे कार्यकारी निर्णय लेना चाहिए।
हैं। प्राकृत व्याकरण के नियम नाटको, काव्य साहित्य
आदि पर ही लागू होते हैं। अतः सशोधन के बहाने जैन आजतक अनेक मान्य मनीषियों ने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का
शो सेनी को विकृत करना उचित नहीं है। मैं आपके सम्पादन किया है लेकिन किसी ने मूल ग्रन्थ की भाषा
विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। को शुद्ध करके विकृत नही किया है। यह बात दूसरी है
आपका: कि जिस बात से हम सहमत न हो उसे पाद-टिप्पणी मे
(डॉ.) लालचन्द जैन लिख या ग्रन्थ के अन्त मे परिशिष्ट में अपने विचारो
प्रभारी-निदेशक का उल्लेख कर दें। आज अर्वाचीन ग्रन्थों की मल भाषा
प्राकृत जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, को शुद्ध करने वालो को भी कोई लेखक पसन्द नही करता
वैशाली
(पृ० २२ का शेषाश) गोदपुरम, अलातूर, मुंडर, किरणालर आदि स्थानो उत्सव में अष्टमगल द्रव्यों के प्रयोग की सूचना डा. कुरुप से भग्न मन्दिर और भूतिया प्राप्त हुई हैं। पार्श्वनाथ, ने इस प्रकार दी है-"The virgin girls who had महावीर और पपावती की इन मूर्तियो मे से अनेक को observed several rituals like holy bath and सन्दर और सुडोल पाया गया है। केरलचरित्रम् मे यह clad in white clothes proceed with Talappoli उल्लेख है कि तलक्काड मे प्राप्त मूति को यद्यपि विष्णु before the Teypam of Bhagwyti. In festivals मति कहा जाता है किन्तु उसका शिल्प सौष्ठव चितराल and other occasions the eight auspicious artiके जैन शिल्प के सदृश है। श्रीधर मेनन भी जैन मति
cles like umbrella, conch, swastik, Purna कला के क्षेत्र में भी जैनों का valuable contribution
Kumbh, and mirror are provided for progस्वीकार किया है।
perity and happiness as a tradition. This केरल के भगवती मन्दिरों में तेभ्यट्टम् नामक एक custom is also relating to Jainism."
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पुरानी-यादें
१. प्रामाणिकता कहाँ है ?
वसूल हो जाएंगे। मैंने रुपयों का जुगाड़ करके एम० ए.
की डिग्री ले ली और मुझे आफिस मे काम मिल गया। वे बोले-मुझे वे दिन याद आते हैं जब मैं एक बड़े
होनहार की बात है कि एक दिन मेरा आफिस के दफ्तर में कार्यरत था। अच्छा पैसा मिलता था। रहने
एक माथी से झगड़ा हो गया और उसने किसी तरह मेरी को बंगला, कार, नौकर-चाकर सम्बन्धी सभी सुविधाएँ
जालो डिग्री की बात कहीं न कहीं से जान ली और मेरी प्राप्त थीं। सैकड़ो लोग सुबह से शाम और रात तक भी
शिकायत कर दी। मैं जांच के लिए निलंबित कर दिया मेरे मुख की ओर देखते थे कि कब मेरे मुंह से क्या निकले
गया। मुकद्दमा चला और आठ वर्ष के कार्यकाल में जो और वे तदनुरूप कार्य करे। कोई ऐसा पल न जाता था
कुछ जोड़ा था वह सब खर्च हो गया। पर, मैं निर्दोष न जब कोई न कोई मेरी ताबेदारी में खड़ा न रहता हो।
छट सका । नौकरी भी गई और जुर्माना भी भरना पड़ा। पर, क्या कहू ? आज स्थिति ऐसी है कि बेकार बैठा है। रहने का ठिकाना नही। नौकर-चाकर को क्या कहूं? मैं मैंने कहा-आपने जाली सागैफिकेट क्यों बनवाया? खद ही मेरा नौकर हूं। मैं कही नौकरी करना चाहता हूं क्या आप नही जानते कि वही सार्टीफिकेट काम देता है,
कोई नौकरी नहीं देता। कई टायम तो भूखो रह केवल जो किसी स्वीकृत और प्रामाणिक बोर्ड या विश्वविद्यालय पानी के दो घट पोकर खाली पेट ही सोता है।
से मिला हो-किसी ऐसे व्यक्ति, संस्था या समाज मे मिला प्रमाण-पत्र जाली होता है जिसे उतनी योग्यता न हो और
जो प्रमाण-पत्र देने के लिए अधिकृत न हो। उसका दिया का क्या हुआ?
मार्टीफिकेट तो बोगस और झूठा ही होगा। बोले-क्या कहं ? बचपन से मेरा खेल-कूद मे मन रहा।
वे बोले-वक्त की बात है, होनी ही ऐसी थी। पर वालों के बारम्बार कहने पर भी मैं पढ़ने से जी चुराता
वरना कई लोग तो आज भी अयोग्य और अनधिकृत लोगों रहा और जब बड़ा हुआ तब देखा कि मेरे साथी यूनि
से उपाधियाँ, अभिनन्दनादि ले रहे हैं वे सम्मानित भी वर्सिटियों की डिग्री लेकर अच्छे-अच्छे पदों पर लगे चन की वशी बजा रहे हैं। मुझे अपने पर बस तरस आया। हो रहे हैं और उनकी तूती भी बोल रही है। मैंने सोचा, यदि मेरे पास डिग्री होती तो मैं भी कही न मैंने कहा- आपकी दृष्टि से आपका कहना तो ठीक कही कोई आफीसर बन गया होता। बस, इमी सोच में है पर, इसकी क्या गारण्टी है कि उनकी प्रामाणिकता भी काफी दिनो रहा कि एक दिन मेरे किसी जानकार ने मुझे आपकी तरह किसी न किसी दिन समाप्त न होगी? फिर, कहा कि तू डिग्री ले ले। मैंने कहा-कहा से कैस ले लू? ऐसे उपक्रमो की प्रामाणिकता है ही कहां? सभी लोग तो अब तो उन भी बडी हो गई है। उसने मुझे बताया कि ऐसे उपक्रमों के वैसे समर्थक नहीं होते जसे वे विश्वविद्यापडोस के महल्ले मे एक सम्था गुप्त रूप मे डिग्रियां देती लयो द्वारा प्रदत्त उपाधियो के पोषक होते हैं। माप है। तेरे कुछ पैसे जरूर लगेंगे, पर तेरा काम हो जायगा। निश्चय समझिए कि प्रामाणिक उपाधि सभी स्थानों पर, बस, क्या था? मरता क्या न करता-मैं उस संस्था में सभी की दृष्टि में प्रामाणिक ही रहेगी--एक भी व्यक्ति पहचा और जैसे-तैम दो हजार रुपयो में सौदा बन गया। ऐसा नहीं होगा जो किसी सरकार द्वारा दी गई मैंने सोचा इतने रुपये तो दो मास की तनख्वाह हैं, बस उपाधि को नाली बताने की हिम्मत कर सके। जबकि
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पुरानी यादें
भीर के द्वारा दी गई उपाधियो के विषय मे सभी एकमत २. क्या मुलमन्त्र बदल मकेगा? नही होते-कुछ न कुछ लोग उसे नकारने वाले अवश्य ही
हमने मल आगम-भाषा के शब्दो में उलट-फेर न होते हैं।
करने की बात उठाई तो प्रबुद्ध वर्ग ने स्वागत कर उक्त कथन से हमारा तात्पर्य ऐसा नही कि हम
समर्थन दिया--सम्मतियां भी आयी। बावजूद इसके अभिनन्दनों या उपाधियो का जनाजा निकाल रहे हो।
हमारे कानों तक यह शब्द भी आए कि-- शब्दरूप बदलने अपितु ऐसा मानना चाहिए कि हम गुण-दोषों के आधार
से तो अर्थ में कोई अन्तर नही पड़ा । उदाहरण के लिए पर ही रूप में किसी सम्मान के पक्षपाती हैं-सम्मान
'लो' या 'होइ' के जो अर्थ है वे ही अर्थ 'लोगे' या 'होदि' होना ही चाहिए। पर, हम ऐसे सम्मान के पक्षपाती है
के हैं और आप स्वय ही मानते हैं कि अर्थ-भेद नही हैजो किमी ऐसे अधिकृत. तद गुणधारक, पारखी और अभि
नपक, लवण, सेन्धव भी तो एकार्थवाची हैं -कुछ भी नन्दित के द्वारा किया गया हो-जिनकी कोई अवहेलना
कहो । स पी से कार्य-मिद्धि है। न कर सके। उदाहरण के लिए जसे मैं 'विद्यावाचस्पति'
गत सुनकर हमे ऐसी बचकानी दलील पर हमी जैसी नही-शास्त्रो में मूढ हूं और किसी को 'सकल शास्त्र
अ गई । हमने सोचा -यदि अर्थ न बदनने से ही सब पारगत' जैसी उपाधि से निभपित कने का दु साहस करूँ
ठीक रहता है तब तो कोई णमो अरहनाण' मत्र को (यद्यपि ऐसा करूंगा नही) तो आप जैम ममझदार लोग
'अस्सलामालेकं परहंता' या 'गडमोनिग टू अरहंताज' भी मुझे मूर्ख न कह 'महामूर्ख' ही कहेंगे और उम उपाधि को
बोल सकेगा --- वह भी मूलमत्र हो जायेगा। क्या कोई भी बोगस, जाली, झूठी पोर न जाने किन-किन सम्बो
ऐमा स्वीकार करेगा-जपेगा या लिख कर मदिरों में धनों से सम्बोधित करेंगे ? और यह मब इसलिए कि मैं
टांगेगा या इन्हे मुलबीज मंत्र मानकर ताम्र यत्रादि मे विषय मे अकिंचन हं, मुलगे तदर्थ योग्यता, परख नही अकिन करायेगा? कि ये अग णमोकार मलमत्र का है। है। फलत:
क्योंकि इनके अर्थ मे कही भेद नही है । सारीष्टि में वे ही उपाधियाँ और अभिनन्दन- पर, हमने जो दिशा-निर्देश दिया है वह अर्थभेद को पतियक्त और प्रामाणिक है जो तवगुणधारक किसी अधि• लेकर नही दिया-भाषा की व्यापकता कायम रखने और कत, अभिनन्वित और पारखी व्यक्ति या समुदाय की ओर अन्य की रचना मे हस्तक्षेप न करने देने के भाव में दिया भनिए गए हों और जिनका दाता (व्यक्ति या समाज) है। ताकि भविष्य में कोई किसी अन्य की रचना को किसी पूर्वाभिनन्दित व्यक्ति या समाज द्वारा कभी अभिनदिन बदलने जैसी अधिकार चेष्टा न कर सके । कयोकि यह सोचका हो। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में बटने वाली तो सरासर परवस्तु को स्व के कब्जे मे करके उसके रूप उपाधियो या अभिनन्दनो और विभिन्न पोस्टगे की डिग्रियो को बदल देना है ताकि दावेदार उसकी शिनासन ही का स्थान या महत्त्व कब, कैसा और कितना है ? है भी न कर सके और वह सबूत देन से भी महरूम हो जाय । या नही ? जरा मोचिए ! कही वर्तमान के पदवी आदान- हाँ, यदि कदाचित् कोई व्यक्ति किसी का रचना मे प्रदान जैसे उपक्रम, गुटबाजी, अहं-वासना था पैसे से अशुद्धि या अशुद्धि का मिलाप मान । हो तो सर्वोत्तम रित तो नही है? यदि हा. तो 'अह' के पोषक ऐसे उप- औचित्य यही है कि वह लोक-प्रालित रीतिवत -किसी क्रमो पर ब्रेक लगाना चाहिए। फिर, माप जैसा सोचे एक प्रति को आदर्श मानकर पूरा-पूग छपाए और अन्य सोचिए । हां, यह भी सोचिए कि पूर्वाचायो को उपाधियो प्रतियो के पाठ टिप्पण म दे । जैसा कि विद्वानो का मत और अभिनन्दनों की प्राप्ति मे भी क्या हम चालू जैसी है। दूसरा तरीका है-वह पूर्व प्रकाशनो को मलिन न 'तच्छ' परम्परा की कल्पना कर उनके स्तर की भी अव. कर स्वय उस भाषा में अपनी कोई स्वतन्त्र प्रस्थान हेलना के पाप का बोझ अपने सिर लें?
करे। क्या ठीक है ? जरा सोचिए ? .-सम्पादक
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ऊन के देवालय
श्री नरेश कुमार पाठक
ऊन पश्चिमी निमारण के जिला मुख्यालय खरगोन से क्षरण से मूर्तियां बहुत कुछ अस्पष्ट होती जा रही हैं। १८ कि. मी. जुलवानिया मार्ग पर स्थित है। यह गाव सरसरी दृष्टि से देखने पर ये पकड मे नही आती। यहां लगभग एक सहस्राब्दि पूर्व एक सम्पन्न नगर रहा होगा। के कलाकारों शिल्पी ने लौकिक और धार्मिक दोनो ही जिसके प्रमाण परमार शैली के लगभग एक दर्जन मदिरों जीवनों को पाषाण मे मूर्ति रूप दिया है। एक ओर के अवशेष हैं। यह स्थान जैन स्थापत्य एव मूर्तिकला का उसने तीर्थंकरों उनके यक्ष-पक्षियो का अंकन किय तो प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां प्रसिद्ध सुवर्ण भद्र तथा अन्य दूसरी ओर लोकानुरजन दृश्यों जैसे मूर-सुन्दरियों और तीन सन्तों को नमन कर जिन्होने चलना नदी के तट पर मिथुनो को भी अपनी कल्पना और कला के सहारे स्थित पावागिरि शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया था। पाषाणों में सजीव रूप दिया। यह मन्दिर अलकृत स्तम्भों चलना नदी को आधुनिक इतिहासकार ऊन के पास बहने का आकर्षण नमना है तथा वह परमार स्थापत्य कला की वाली नदी को मानते हैं तथा पावागिरि को आधुनिक ऊंचाइयो को छूता दिखाई देता है। कृष्णदेव का मत है कन से समीकृन करते हैं। डा. रामलाल कंवर ने लिखा कि यह मन्दिर कुमारपाल देव चालुक्य शैनी मे निमित है कि ऊन के मन्दिर परमारो की निमितियां हैं तथा किया गया होगा। डा. रामलाल कवर ने कृष्णदेव के मालवा की परमार कालीन भूमिज शैली का शत प्रतिशत मत पर आपत्ति उठाते हुए लिखा है, कि यह चोबारा अनुकरण है। अत: बिना ऊन के मन्दिरों के अध्ययन के डेरा क्रमांक २ शैली और अलकरण मे चौबारा रेरा मालवा की मन्दिर वास्तुकला का अध्ययन अधग ही रह क्रमांक एक के तुल्य बैठना है और इस नाते यह निश्चित जाता है। ऊन मे दो जैन मन्दिर हैं, जिनका विवरण ही परमार शैली का सिद्ध होता । अभिलेखीय आधार निम्नानुसार है :
पर चौबारा डेग का निर्माण काल सन् १८५ ईम्वी है।
इस मन्दिर की दो प्रतिमा इस समय केन्द्रीय संग्रहालय चौबारा डेरा नं० २ (नहल अवर का डेरा) इन्दौर में है। बडी प्रतिमा शान्तिनाथ को है। वर्तमान
मन्दिर का नाम स्थानीय निवासियो में "नहल अवर में इस मन्दिर में कोई प्रतिमा विराजमान नहीं है। कारा" तथा लो प्रिय सम्बोधन मे 'चौवारा डेरा नं०
"ग्वालेश्वर मन्दिर" २' कहा जाता है। यह ऊन मे स्थित जैन मन्दिरों मे अत्यन्त उल्लेखनीय मन्दिर है तथा ऊन के सर्वाधिक यह मन्दिर एक पहाड़ी पर बना हुआ है जिसे सुन्दर स्मारको में से एक है। दुर्भाग्यवश इस मन्दिर का स्थानीय लोग ग्बालेश्वर मन्दिर कहते है। यह नाम शिखर नष्ट हो गया है। इसमे गर्भगृह छोटा अन्तगल सम्भवत: विगत गल मे आधी पानी वाले मौसम में
और मण्डप है। मण्डप आठ सम्भों से युक्त है, वर्तमान ग्वाल लोग यहां आश्रय लेते थे। यह मनि:र भी अपनी में जो चौबारा दिखाई देता है। इसकी छतो मे अलकृत पूर्णता मे देखा जा सकता है केवल आमलक और चहापदम बने हैं। द्वार शाखाएं, पत्र लताओ से सुशोभित है। मणि का इममे अभाव है। यह मन्दिर भूमिज शैली का इसके सिरदलों पर तीर्थकर और यक्षी मूर्तियां उत्कीर्ण है। वर्तमान में जैन धर्मावलम्बियों ने ऊपर पुनः निर्माण
भित्तियों पर मिथुन मूर्तियो का अकन है। पत्थर के कर आंशिक रूप से आधुनिकता दे दी है। शैली तथा
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अलकरण की दृष्टि से चोबारा डेरा क्रमाक २ के तुल्य नमना है। हा. रामलाल कंवर कृष्णदेव के मत से ही है। ऐसा लगता है कि मन्दिर का द्वार मण्डप बनाया सहमत होते हुए लिखा है कि इस कथन मे बहुत कुछ नही गया था। इसका महामण्डप वर्गाकार है। उसके सार दिखाई देता है क्योकि ग्वालेश्वर के मन्दिर का शिखर तीन द्वार बाहर की ओर खुलते है तथा एक गर्भगृह की बहन कुछ ऊन मे विद्यमान अन्य मन्दिरी के शिखर से ओर जाता है। एक छोटे अन्तराल द्वारा गर्भगृह मण्डप पर्याप्त भिन्नता रखता है। यह सहज भी है, क्यो कि से जुड़ा है। तीनो द्वार के गिरदल पर पद्मासन में नरवमन और उसके उत्तराधिकारी के समय मालवा पर तीर्थकर मूर्तियां अकित है। गर्भगृह मण्डप से लगभग ३ चालुक्य अधिपत्य स्थापित हो गया था। इधर मालवा मोटर नीचे है। इसी कारण गर्भगृह में इस सोढियो के नरवमन और ऊपर चालुक्यराज कुमार पाल दोनो ही मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। गर्भगृह के भीतर तीन जैन धर्म के मबन समर्थक थे। मम्भव है इन मन्दिरो के विशाल तीर्थकर प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हे जैन निर्माताओं ने दोनो की प्रेरणा ग्रहण करके इन जो क्रमश: सोलहवे तोधार मान्निनाश, मत्तरहवे तीर्थकर मन्दिगे का निर्माण करवाया होगा। इन आधारो पर कुन्धनाथ और अठारहवें तीर्थकर अरहनाथ ही है। इनमे चौबाग डरा क्रमाक २ के बारे में यह कहा जा सकता है कुन्थनाथ जो सर्वाधिक विशाल हैं लगभग ३७५ मीटर कि यह पोबारा डेरा क्रमांक एक समरूप है । यदि उसका है। पादपीठ लेख मे जान होता है कि मन्दिर का निर्माण शिखर बालेश्वर के शिखर के समान रहा हो तो दूसरी (१३६३ विक्रम संवत् ज्येष्ठ ३) सन् १२०६ मे हुआ। और यह भी परमार और चालुक्य शैलियो का सम्मिश्रण इन मूर्तियो के दोनो ओर गर्भगृह के पीछे को दीगर के
कहा जा मकता है। साथ-साथ उनके छोटी-छोटी सीढिया है और ये सीढिया
-पुरातत्व एव सग्रहालय मूर्तियो का अभिषेक करने के इच्छुक दर्शनार्थयो के उप
नलघर सुभाष स्टेडियम के पीछे, योग के लिए है। कृष्णदेव का मत है कि यह मन्दिर परमार और चालुक्य मन्दिर वास्तुकला का मिश्रित
रायपुर (म.प्र.)
सन्दर्भ-सूची १. कवर रामलाल "प्राचीन मालवा मे मन्दिर वास्तु. ५. इन्दौर स्टेट गजेटियर इन्दौर १९ पृ०७२। कला" दिल्ली १९८४ पृ० १७८ ।
६. सक्सेना मपावीर प्रसाद "मध्य भारत की मार्ग२. इन्दौर स्टेट गजेटियर इन्दौर १९३१ पृ०७१-७२। दशिका" ग्वालियर १९५२, पृ० १२४ । ३. वही पृ०७१।
७. इन्दोर स्टेट गजेटियर इन्दौर १९३१ पृ०७१। ४. पश्चिमी निमाड जिला गजेटियर गोपाल १९६७, ८.कंवर रामलाल पूर्वील पृ० १७८-७९ ।
पृ०५ ०।
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लेखक के विचारो से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागन प्राप्ति -श्रीमतो अंगूरो देवो जैन, धर्मपत्नो श्री शान्तीलाल जैन कागजी के सौजन्य से, नई दिल्ली-?
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
बीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
नज प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१
अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व उपयोगी ११ परिशिष्टों घौर पं परमानन्द शास्त्रो की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिद नथ-प्रशस्ति संग्रह भाग २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय मोर परिशिष्टो सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । अवणबेलगोल और दक्षिण के सम्म जैन तीर्थ श्री राजकृष्ण मैन
...
जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । न लक्षणावली (तीन भागों में ) स० प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
Basic Tenents of Jainism: By Shri Dashrath Jain Advocate.
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सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक - बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली - ५३
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वोर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर')
जुलाई-सितम्बर १९६३
इस अंक मेंकम
विषय १. चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-स्तवन २. अभिज्ञान शाकुन्तल मे अहिंसा
-हा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ३. आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि मे जिन-दीक्षा :
एक अध्ययन-~श्री राजेन्द्रकुमार बसल ४. तीथंकर शीतलनाथ-श्री गुलाब चन्द्र जैन ५. चन्दे नकालीन मदनसागरपुर के श्रावक
-प्रो. यशवंत कुमार मलैया ६. केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर को तीर्थकर
नेमिनाथ की मूर्तियां--श्री नरेश कुमार पाठक १८ ७. सुख का सच्चा साधन : बारह भावना
-क्षुल्लकमणि श्री शीतलसागर महाराज ८. श्रीलका मे जैनधर्म और अशोक
श्री राजमल जैन, दिल्ली ९. परिग्रह-मूर्छाभाव
-श्री पश्चन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली १०. मोक्षमार्ग में विन्तनीय विकृतियाँ-संपादक ११. गोम्मटेश-स्तुति-आ० नेमिचन्द्र सिवान्त-चक्रवर्ती बा. २ १२. संचयित-ज्ञानकण-श्री शान्तिलाल जैन कागजी
प्रकाशक:
चोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली:२
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गोम्मटेस-थुदि
(गोम्मटेश-स्तुति) (प्राचार्य की नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती विरचित) विसट्ट-कंदोट्ट-बलाण्यारं।
लयासमक्कत - महासरीर। सुलोयणं चंद-समाण-तुण्डं ।।
मध्यावलोलख सकप्परुक्खं । घोणाजियं चम्पय-पुप्फसोहं।
देविविच्चिय पायपोम्म । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।१।।
तं गोम्स्टेसं पणमामि णिच्चं ।।५।।
अच्छाय-सच्छं-जलकंत-गंड। आबाहु-दोलंत सफण्ण-पासं ॥ गइंद-सुण्डज्मल - बाहुदण्डं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिचं ॥२॥
दियंबरो यो ण च भोह जत्तो। ण चांवरे सत्तमणो विसुद्धो॥ सप्पादि जंतुप्फुसको ण कंपो। तंगोम्मटेसं पणमामि णिच्च ॥६॥
सुकण्ठ-सोहा जिय-दिव्व संखं। हिमालयुद्दाम - विसाल-कंधं ॥ सुपोक्ख-णिज्जायल-सट्ठमझं । तं गोम्मटसं पणमामि णिच्चं ॥३॥
आसां ग ये पेक्खदि सच्छदिद्धि । सोषख वंछा हयदोतमूल ।। विरायमावं भरहे विसल्लं।
तं गोम्मटेसं पणमामि णिचं ॥७॥
विज्झायलग्गे पविभासमाणं । सिंहामणि सध्व-सुचेदियाणं ।। तिलोय-संतोसय-पुण्णचंदं ।
तं गोम्मटेस पणमामि णिच्चं ॥४॥
उपाहिमत्तं धण-धाम-वज्जियं। ससम्बजतं मयमोहहारयं ।। बस्सेय पज्जंतमुववाप्त जत्तं । त गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥
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परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविससितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ४६ किरण ३
बोर-सेना मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-
२ ___ वीर-निर्वाण मवत् २५१६, वि० सं० २०५०
जलाई-सितम्बर . १६६३
चिन्तामणि-पाश्र्वनाथ-स्तवन
श्रीशारदाऽऽधारमुखारविन्दं समाऽनवद्यं नतमौलिपादम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वभुं नौमि निरस्तपापम् ॥१॥ निराकृतारातिकृतान्तसङ्गं सन्मण्डलीमण्डितसुन्दराङ्गम। चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम ॥२॥ शशिप्रमा-रोतियशोनिवासं समाधिसाम्राज्यसुखावभासम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रमुं नौमि निरस्तपापम् ॥३॥ अनल्पकल्याणसुधाब्धिचन्द्रं सभावलोसून-सभाव-केन्द्रम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पाश्वप्रभुं नौमि निरस्तपापम् ॥४॥ करालकल्पान्तनिवारकारं कारुण्यपुण्याकर-शान्तिसारम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभुं नौमि निरस्तपापम् ॥५॥ वाणीरसोल्लासकरीरभूतं निरजनोऽलंकृतमुक्तिकान्तम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पाश्र्वप्रम नौमि निरस्तपापम ॥६॥ क्रूरोपसर्ग परिहर्तुमेकं वाञ्छाविधानं विगताऽपसङ्गम। चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ।।७।। निरामयं निजितवीरमारं जगद्धितं कृष्णपुरावतारम् ॥ चिन्तामणि ।।८।।
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अभिज्ञान शाकुन्तल में अहिंसा के प्रसंग
डॉ. रमेश चन्द्र जैन
कालिदास एक अहिंमावादी कवि थे। उनके द्वारा सुखाय ।" ग्रथित अभिज्ञान शाकुन्तलम् न टक के सूक्ष्म अध्ययन से शाकुन्तल के प्रथम अङ्क के सातवे श्लोक मे शिकारी उनकी अहिंसावादी मनोवृत्ति की पर्याप्त झांकी प्राप्त राजा दुष्यन्त के द्वारा पीछा किए जाने हा हिरण का होती है । इस नाटक के प्रथम अङ्क के प्रारम्भ में ही नटी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। हिरण की स्थिति को कहती है कि प्रमदाये दयाभाव मे युक्त हो भ्रमरो द्वारा देख कर निष्ठर व्यक्ति के मन में भी करुणा जाग्रत हो कुछ कुछ चमेशा नोपल वे सर शिखा ने युक्त शिरीष सकती है-- पुष्पो को अपने कानो का आभूषण बना रही। इस पद्य "ग्रीवाभगाभिरामं मुहसुपनि स्यन्दा, दददृष्टि: । गे 'दअगाणा' पद साभिशय है। मदयुक्त (सौन्दर्य आदि पश्चार्द्धन प्रविष्ट शरपतनभयाद् भूयमा पूर्वकायम् ।। के कारण मतवाली) होने पर भी दयाभाव के कारण दभैरद्धविलीढे धमविवत मुखभ्र शिभिः कीर्ण वर्मा। युवतियां शिरीष के फलो को मावधानी के साथ तोड़कर
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतर स्तोकमुर्गा प्रयाति ।। कर्णाभूषण बना रही हैं। जिस प्रकार मौरे बहुत सावधानी
अर्थात देखो, पीछे दौडते हुए रथ पर पुन: पुन. गर्दन से फलो का रसास्वादन करते हैं, उसी प्रकार युवतियाँ मोडकर दृष्टि डालता हुआ, बाण लगने के भय के कारण भी बड़ी सावधानी से पुष्पो का स्पर्श कर रही हैं । किमी (अपने) अधिकाश पिछले अर्द्धभाग से अगले भाग मे को किसी प्रकार कष्ट पहुनाए बिना उससे कुछ ग्रहण सिमटा हुआ थकावट के कारण खुले हुए मुख से अर्द्धचवित करना उपर्युक्त भ्रामरी वृत्ति की सदृशना के अन्तर्गत कुशो से मार्ग को व्याप्त करता हुआ ऊंची छलाग भरने परिगणित होता है। जैन ग्रन्थो मे साधु को भ्रामरी वृत्ति के कारण आकाश मे अधिक और पृथ्वी पर कम चल का पालक कहा गया है। जैन साधु बिना गृहस्थ को कष्ट रहा है। पहुंचाए उसके न्यायोपाजि। धन से बने हुए आहार मे से राजा आश्रम के मग पर प्रहार करने को उद्यत कछ आहार अपने उदर की पूर्ति हेतु ले लेता है, उसके देखकर तपस्वी कहता है-"राजन्, आश्रममगोऽय न लिए श्रावक को विशेष उपक्रम नही करना पडता है। हनव्यो न हन्तव्य.' अर्थात् यह आश्रम का भुग है, इसे यही कारण है कि साधु को उद्दिष्ट भोजन लेने का मत मारिये । इस कोमल मृग शरीर पर रुई के ढेर पर निषेध ।भ्रामरी वत्ति का एक तात्पर्य यह भी है कि जिस अग्नि के समान यह वाण न चलाइये, न चलाइए। हाय ! प्रकार भ्रमर एक फूल से दूसरे फूल पर थोडा-थोडा रस बेचारे हिरणो का अत्यन्त चञ्चल जीवन कहाँ और तीक्ष्ण ग्रहण कर बैठता रहता है, उसी प्रकार साधु भी वर्षाकाल प्रहार करने वाले वन के समान कठोर आपके बॉण को छोडकर अन्य समय में एक स्थान पर अधिक दिन कहाँ ? निवास न , रे; क्योकि इससे श्रावको से गाढ़ परिचय शस्त्रो की उपयोगिता केवल दुखी प्राणियों की रक्षा होने के कारण रागभाव की वृद्धि की आशङ्का होती है। के लिए है, निरपराध पर हार करने के लिए नही है। इसीलिए भगवान बुद्ध ने भी अपने भिक्षुग्रो को बहुजन आश्रम में सब प्रकार की हिंसा का निषेध है, अत उमका हिताय बहुजन सुखाय सतत गतिशील रहने का उपदेश पुण्याश्रम नाम सार्थक है। ऐसे पुण्याश्रम के दर्शन से ही दिया था-'चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय बहुजन व्यक्ति पवित्र हो जाता है। पश-पक्षी भी ऐसे स्थान पर
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अभिज्ञान शाकुन्तल में अहिंसा के प्रसंग
विश्वस्त होकर रहने हैं और सब प्रकार के शब्दों के प्रति छठे अंक में जब श्याल मत्स्योपजीवी को हमी उडाता है सहिष्णु हो जाते हैं। रक्षा के कार्य मे राजा का सबसे वह तो अनुकम्पामदु श्रोत्रिय का उदाहरण देकर अपने बड़ा योग होता है। तप का सचय प्रतिदिन करने के जीविकोपार्जन की पद्धति का औचित्य सिद्ध करना चाहता कारण राजा राजर्षि कहलाता है
शहजे किल जे विणिन्दिए ण ह दे कम्म विवज्जणीअए । अध्याक्रान्तावसतिरमुनाऽप्याश्रमे सर्वभोग्ये । रक्षायोगादयमपि तपः प्रत्यह सञ्चिनोति ।।
पशुमालणकम्मदालुणे अणुकम्पामिदु एव शोत्तिए ।।
अभि. शाकु. ६.? अस्यापि द्या स्पशति वशिनश्चारणद्वन्द्वगीत: ।
अर्थात निन्दित भी जो काम वस्तुत. वश परम्परागत पुण्य' शब्दो मुनिरिति मुहुः केवल राजपूर्वः ।।
है, उनको नही छोडना चाहिए । यज्ञ मे पशुओं को मारने अभिज्ञान शाकुन्तलम् २०१४
रूपी कार्य मे कठोरवत्ति वाले भी वेदपाठी ब्राह्मण दयाअहिंमक भावना से प्रोत-प्रोत स्नेह का पशु-पक्षियो
भाव मे मदु ही कहे जाते है। और वृक्षो पर प्रभाव पड़ता है। वे भी अपने स्नेही के
ऐसा लगता है, कालिदास के समय ज्ञो में जो पशु वियोग मे कातर हो जाते है। शकुन्तला के वियोग मे
हिंसा होती थी, उसे जन सामान्य अच्छा नही समझता पशपक्षियो की ऐसी ही दशा का चित्रण कालिदास ने
था। छठे अडू मे ही जब राजा मान का स्वागत किया है-- उग्गलिअदब्भकवला मिया परिच्चत्तणच्चणा मोरा।
करता है तो विदूषक कहता है ---ह जेण इट्टिपसुमार
मारिदो मो इमिणा सापदण अहिणन्द। आंद' अर्थात ओसरिअपडुपत्ता मुअन्ति अस्सू विअ लदाओ ।।
जिसने मुझे यज्ञिय पशु की मार मारा है, उसका यह अभिज्ञान शाकुन्तलम् ४१२
स्वागत के द्वारा अभिनन्दन कर रहे है। अर्थात् शकुन्तला के वियोग के कारण हिरणिओ ने
जहाँ अहिंसा और प्रेम होता है, वहाँ विश्वाम की कुशो के ग्रास उगल दिए, मोरो ने नाचना छोड दिया
भावना प्रबल होती है। छठे अङ्क मे चित्रकारी के नैपुण्य और लतायें मानो आँसू बहा रही है।
की पराकाष्ठा को प्राप्त एक कृति गजा बनाना चाहता शकन्तला के द्वारा पुत्र के रूप मे पाला गया मग इतना सवेदनशील है कि शकुन्तला को विदाई के समय
कार्यास कतलीन हममिथुना स्रोनीवहा मालिनी । वह उसका मार्ग ही नही छोडना है -
पादास्तातो निषण्णहरिणा गौरीगुगे: पावना.।। यस्य त्वया व्रणविरोपणमिगुदीना।
शाखालम्बिन वल्कनग्य च तरोनिर्मातुमिच्छाम्राधः । तल न्यपिच्यत् मुखे कुश सूचिविवे॥
शृगे कृष्णम गम्य वामनान कडूयमाना मृगीम् ॥ श्यामाकमुष्टि परिवद्धितको जहाति ।
अभि. श कु. ६१७ सोऽय न पुत्रकृतक: पदवी मृगस्ते ।।
जिसके रेतीले किनारे पर हसो के जोड़े बैठे हुए है,
अभि. शाकु. ४।१४ ऐमी मालिनी नदी बनाती है, उसके दोनो ओर जिन पर अर्थात् जिनके कुशो के अग्रभाग से बिधे हुए मुख मे हिरण बैठे हुए है ऐसे हिमालय की पवि। पहाड़ियाँ तुम्हारे द्वारा घावो को भरने वाला इन्गुदी का तेन लगाया बनाई है, जिनकी शाखाओ पर वल्कल लटके हुए है. ऐसे गया था, वही यह सावा की मुट्ठिओ (ग्रासों) को खिला वृक्ष के नीचे कृष्णमग के सोग पर अपनी बाई आँख कर बड़ा किया गया और तुम्हारे द्वारा पुत्र के समान खु जाती हुई मृगी को बनाना चाहता हूँ पाला गया मग तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा है।
हममिथुन प्रेम का प्रतीक है। प्रेम की अवतारणा जीवन मे अहिंसा की भावना सर्वोपरि है। जिसके कृष्णमग और मुगी में हुई है। ममी को मार इता जीवन में अहिंमक आचरण नहीं है, उसका लोकनिन्दिन अगाध विश्वास और प्रेम है कि वह उसके सीग पर जीविका वाले व्यक्ति भी उपहास करते हैं। शाकुन्तल के अपनी बायी आख खुजला रही है। (शेष प० ४ पर)
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आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में जिनदीक्षा : एक अध्ययन
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0 श्री राजेन्द्र कुमार बंसल जिनवरों का मार्ग वीतरागता का है। आत्मा में शक्ति क्षय हुई उसका एक अश भी यदि प्रात्म स्वभाव मोह-राग-द्वेष की पत्ति न हो और वह अपने ज्ञान- की ओर ढलता तो आत्मा विकार-वासना से मुक्त होकर दर्शन, आनन्द मादि अनन्त दिव्य गुणो मे लीन रहे यही स्वतन्त्र, स्वाधीन एव परिपूर्ण हो गया होता। उसका धर्म है। आत्मा स्वय आनन्द एव शिव स्तरूप है जिनदोक्षा :महान प्रतिज्ञा : किन्तु अनादि मोहजन्य अरुचि, प्रज्ञान तथा कषा पजन्य आत्म साधक के लिए "जिनदोक्षा" शब्द से महज असयम के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से बेखबर रहा ही आ म म्फ ण (रोमाच) हो जाता है। जिनदीक्षा है और पर वस्तुमो में सुख की कल्पना कर उनके सोग राग-द्वेष परिहार का एक महान सकल्प, सर्व प्रकार के या वियोग के प्रयास मे अनन्त काल से भटक रहा है। अन्तर बाह्य परिग्रह के त्याग को प्रतिज्ञा, विषय वासना पर वस्तुओ के कर्तत्व व स्वामित्व के ग्रह कार में जितनी के दमन सर्व पापो से विरत ने
के दमन, सर्व पापो से विरत रहने का श्रेष्ठ व्रत होता (१० ३ का शेषाश)
है। जिसमें साधक शुद्धोपयोग रूप मुनि धर्म अगीकार कर
पने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में रहता , या साम्य जीवन इस प्रकार सारी प्राकृति सृष्टि के प्रति संवेदनशील
बितान की प्रतिज्ञा करता है। महाकवि कालिदास अपने मुकुमार भाबी की व्यजना म
प्रतिज्ञा का उल्लंघन महापाप : अहिसा को पर्याप्य स्थान दिया है।
जैन मन्दिर के पास बिजनौर, (३.५०) जिनदीक्षाधागे साधक वीतरागी जिनवरो के प्रत्यक्ष सन्दर्भ-सूची
प्रतिनिधि होते है जो "वीतरागता" के अशो मे वृद्धि हेतु १. ईसीसिचुम्बिआई भमरहिं गुउमा केसर सिंहाइ । सतत प्रयासरत रहते हैं। इस कारण जिन मार्ग मे साधु ओदसअन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीमकमाइ॥ पद को पूज्यनीय मानते हुए उन्हे आयतन, च यगड जिन
अभिज्ञान शाकुन्तलम् ११४ । प्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, २. न खलु न खलु वाण. सन्नित्योऽयमस्मिन् । भाव-अरहन्त एवं प्रवज्या जैमा महिमामंडित किया है मृदुनि मगशरीर तूनराशाविवाग्नि ।
(बोधपाहुड गाथा ३/४) । लोक मे सामान्य प्रतिज्ञा भग क्व बत हरिणकाना जीवित चातिलोल ।
को महापाप म.ना है। उच्च पद पर रहकर निम्न क्रिया क्व च निशितानिपाता वज्रसारा: शरास्ते ।। करने वाला महापापी होता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा
अभि. शाकु ० ११०
कि साधु का जन्मे बालक जैमा नग्न रूप होता है। यदि ३. आतंत्राणाय वः शस्त्र न प्रहर्तुमनासि ||
वह तिलतुष मात्र भी परिग्रह खे तो निगोद का पात्र है अभि० शाकु० ११६
(सूत्र पा० गाथा १०)। आचार्य गुणभद्र ने ऐसे व्यक्ति ४. पुन्याश्रमदर्शनेन तावदात्मान पुनीमहे ।।
प्रथम अङ्क पृ० २८
को उलटी कर पुनः बमनभक्षण करने जैसा निन्दनीय ५. विश्वासोपगमादमिन्नतयः शब्द सहन्त मगा। माना है । (आत्मानुशासन गाथा २१७)।
आभ० शाव० १११४ उच्च पद धारण कर निम्न प्रक्रिया करने वाले नष्टाशकाहरिण शिशवो मन्द मन्द चरन्ति ॥ वही १।१५ साधक को गुरु मान कर पूजना जिनमार्ग में निन्दनीय, गाहन्ता अस्मद्धनः ॥ वही २७
अनन्त पाप का कारण माना है। कहते है कि सपं के
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प्राचार्य कुन्दकुम्ब को दृष्टि में जिनदोक्षा : एक अध्ययन
काटने से एक बार ही मरण होता है किन्तु उन्मार्गी गुरु परिग्रह से रहित प्रव्रज्या, जिनदीक्षा का रूप स्वरूप है मानने से अनन्त भव जन्म-मरण करना पड़ता है । इस जो निम्न विवरण या अवस्था से स्पष्ट होता है :महापाप से बचने हेतु जिन दोक्षा उन्ही भव्य आत्माओ को १ -जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह ग्रहण करना चाहिये जो अन्तरग-बहिरंग परिग्रह का से रहित है वह दीक्षा (प्रव्रज्या) है, जिसको मोह नष्ट हो त्याग, भख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि बाइस परिषहो का गया, वह देव है जिससे सब जीवो का कल्याण (उदय) समतापूर्वक सहने एव आत्मस्वरूप मे लीन रहने की होता है (बोध पा० २५) । क्षमता प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा; पद के अयोग्य २ जिनदीक्षाधारी साधु, गह (घर) और ग्रन्थ व्यक्ति को उच्च पद देने से जिन मार्ग उपहास का विषय । (परिग्रह) मोह-ममत्व तथा इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित बनता है।
होते हैं, बाइम परिषह सहन करते है, कायो को जीतते दीक्षा का प्रथम सोपान : भावद्धि:
हैं और पापारमा से रहित होते है (बोध पा० ४५) जिनदीक्षा का प्रथम मोपान भावशुद्धि है। आचार्य
३---वे समत्व एव माध्यस्थ भाव वाले होते हैं । कुन्दकुन्द ने दर्शनप हुड में मम्यग दर्शन पे महत्व को शत्रु-मित्र, निदा-प्रशसा, लाभ-अलाभ और तण कच अकिन किया है। उनके अनुमार दर्शन ही धर्म का मूत्र मे उनका सम भाव होता है (बोध पा० ४५) । है । सम् कत्व के बिना धर्म भी नही होता। (गाया २)।
४-वे निग्रन्थ, पर वस्तु, स्त्री आदि के सगरहित, जो दर्शन भ्रष्ट है; ज्ञान भ्रष्ट है, चारि भ्रष्ट है वे जीव निरभिमान, आशा-राग-द्वेष र हत, निर्मम, निर्लोभ. भ्रष्ट से भ्रष्ट है (गाथा )। भाव पाहुड मे सम्यग्दर्शन निहि, निविकार, निष्कलुषित, निर्भय, निसाक्षी, रहित पुरुष को "चलश' अर्थात चलता हुआ मृतक निरायुध, शशांत, यथा जातरूप होते हैं (बोध पा से जमा माना है । (गाथा १४३)। आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनदीक्षा की पूर्व स्थिति के ५-३ उपशम, शम, दम, युक्त होते हैं अर्थात उनके
मोर परिणाम शान होते है, क्षमाशील एवं इन्द्रिय विषयो से कर भाव से अन्तरग नग्न हो, पीछे मुनि रूप द्रव्य
विरक्त रहते है। स्नान, तेल, मदन आदि शरीर सस्कार बालिग जिन आज्ञा से प्रकट करे, यही मोक्षमार्ग है नहीं करते। मद, राग, द्वेष रहित होते है। (बो. (भाव पा०७३)। भाव ही स्वर्ग और मोक्ष का कारण पा० ५२)। है। भाव रहित श्रमण पापस्वरूप है। तियंच गति का ६-वे बारह प्रकार के अन्तर-बाह्य, तप, पांव स्थान तथा कर्म मल से मलिन चित्त वाला है (गा० ७४)। महाव्रत, पांच इद्रिय एब मन का निरोध, रूप, सयम, इसलिए अन्त र-बाह्य भाव दोषो से अत्यन्त शुद्ध होकर छहकाय के जीवो की रक्षा, सम्यक्त्व आदि गुणो से युक्त निर्ग्रन्थ जिनदीक्षा धारण करना चाहिए (गाथा ७०)। ओर अन्तरग भावो से शुद्ध होते हैं (बोध पा० ५८/२०।। जिनवीक्षा का अन्तर-बाह्य रूप-स्वरूप:
७-जिनदीक्षाधारी स.धु सूने घर, वृक्ष का मूल वीतरागता अर्थात् मोह-क्षोभ रहित धर्मस्वरूप कोटर, उद्यान, वन, शमशान भूमि, पर्वत की गुफा या सोम्य परिणामो की प्राप्ति हेतु भावशुद्धि सहित, उभय शिखर, भयानक वन, आदि एव शांत स्थान मे रहते हैं परिग्रह रहित अपने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव मे रमण करने (बो० पा० ४२ से ४४ । का उपक्रम जितदीक्षा है। अध्यात्म के अमर ज्ञायक -वे पशु-नियंच, महिला, नपुसक तथा व्यभिआचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पच परमागम मे विश्व व्यवस्था चारी पुरुष के साथ नहीं रहने और शास्त्र स्वाध्याय आत्मस्वरूप, जिनलिग, जिनदीक्षा तथा श्रावक साधुओ तया धर्म-शुक्न ध्यान से युक्त होते है (गाथा ५७) । के रूप-स्वरूप पर बहुत ही व्यापक प्रकाश डाला है। 6-साधु लोक व्यवहार के कार्य मे सोता है उनके अनुसार 'पवना सव्वसग परिचत्त' अर्थात सर्व वह अपने आत्म स्वरूप मे सदैव जागरूक रहता है किन्त
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६, वर्ष ४६, कि०३
जो लोक व्यवहार मे जागरूक होता है वह आत्म स्वरूप को पाकर कोई जीव सिद्ध पद को भी प्राप्त कर ले मे सोता है (मोक्ष पा० ३१)।
(मो० मा० प्र० पृष्ठ ३३.)। जिनदीक्षा का आधार, पान, काल एवं प्रक्रिया: (ब) जिनदोक्षा के पात्र एवं काल :
जिनदीक्षा का आध्यात्मिक आधार स्वाध्याय एव ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का कोई निरोग, तप तत्व-विचार है जिस पर वीतराग विज्ञान का समूचा मे समर्थ, सुन्दर, दुराचारादि लोकापवाद से रहित पुरुष महल अवस्थित है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार को ही जिनदीक्षा ग्रहण करने योग्य होता है । अति बालक चरणानुयोग सूचक चूलिका मे श्रमण धर्म स्वीकार करने और अति वृद्ध को जिनदीक्षा निषिद्ध है। सब शुद्ध भी को आधार भूमि, विधि, आचरण, धाम भेव-श्रामण्य छल्ल कदीक्षा के योग्य होते है । (प्र० सा० गाथा २२५ छेह, तप सामर्थ्य, निश्चय व्यवहार धर्म सहित २८ मूल प्रक्षेपक गाया २६)। दीक्षा ग्रहण में काल कोई बाधा नहीं गुणों का विस्तार वर्णन किया है जो मुनिधर्म के अन्तर- है। पचम युग मे भी निग्रन्थ साधु का सद्भाव स्वीकार बाह्य स्वरूप को दर्शाता है :
किया है। यहा इतना विशेष है कि साधुपने बिना साधु (अ) आध्यात्मिक आधार : आगम अभ्यास मानकर गुरु मानने से मिथ्यादर्शन होता है (मो० मार्ग तत्व विचार:
प्रकाशक पृष्ठ १६०)। एकाग्रता की प्राप्ति के लिए पदार्थों के स्वरूप का (स) दीक्षा की प्रक्रिया एवं स्वरूप : निश्चय होना आवश्यक है जो आत्म ज्ञान एव तत्वविचार आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनमार मे दुःखो से छुटकारा से ही सम्भव है। इमलिए 'आगम घेछ। तदोचेछा' के पाने हेत मिद्धों को प्रणाम कर म निधर्म अगीकार करने अनुसार आगम व्यापार ही श्रेष्ठ है (गाथा .३२)। की प्रेरणा देते हुए निम्न दीक्षाविधि र्शाते हैं :आगमहीन साधु न तो अपने को ही जानता है और न पर १-माता-पिता, पत्नी-पुत्र, और बन्धुवर्ग से पूछको ही। ऐसी स्थिति में वह कमों का नाश किस प्रकार कर ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और करेगा (गाथा २८३) । आगम के ज्ञाता माधु पागम चक्ष बीर्याचार को अगीकार करता है (गाथा २०२)। कहलाते हैं (गाथा २३५) । आगमहीन माधु असयमी होते २-कुल, रूप एव वय से विशिष्ट तथा गुणधारी हैं (गाथा २३६)। आगमज्ञान एवं तत्वार्थ श्रद्धान इन श्रमणोत्तम प्राचार्य की शरण में जाकर 'शुद्धात्म तत्व को दोनो सहित सयम की एकता ही मोक्ष मार्ग है (गाथा उपलब्धि रूप सिद्धि से मझे अनग्रहीत करो' ऐसा कहते २३७)। यही कारण है कि जो कर्म अज्ञानी लक्ष कोटि हुए दीक्षाभावना प्रकट करता है। "मै दूसरो का नही ह, भवों मे बालतप से खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार पर मेरे नही है, इस लोक मे मेरा कुछ भी नही है' ऐसा (मम. वचन, काय) से गुप्त होने से श्वास मात्र में खपा निधनयवान और जितेन्द्रिय होता हुआ नग्न दिगम्बर रूप देता है (२३८)।
पारण करता है (गाथा २०३/२०४) । आचार्य प० टोडरमल के अनुमार 'मुनिपद लेने का ३-वह दाढी-मूंछ के बालो का लोचकर शारीरिक क्रम तो यह है पहले तत्व विचार होता है, पश्चात् उदा. शृगार से रहित यथाजात बालक जैसा होता है। वह सोन परिणाम होते है। परिषहादि सहने की शक्ति होती हिमादि, ममत्व और आरम्भ रहित उपयोग एवं योग की है तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और तब शुद्धि सहित होता है जो मोक्ष का कारण है गाथा श्री गुरु मनि धर्म अगीकार कराते है (मो• मा० प्र० पृष्ठ (२०५/२०६) १७६)। प. जी आगे कहते है कि पहले तो देवादिक ४--वह गुरु द्वारा वणित साधु क्रिया सुनक माधु के का श्रद्धान हो, फिर तत्वो का विचार हो, फिर पापर २८ मूलगुणो को धारण करता हुआ सात्मस्थ होता है। का चितवन करे फिर केवल आत्मा का चितवन करे। पांच महाव्रत, पांच समिति, इन्द्रिय विजय, केश लोच, इम अनक्रम से साधन करे तो परम्परा सच्चे मोक्षमार्ग आवश्यक, अचेल कपना, अस्नान, भूमिशयन, अदतधावन
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आचार्य कुनकुन्द की दृष्टि में जिनदीक्षा : एक अध्ययन खडे-खड़े भोजन, एक बार आहार यह माधु के २८ मून देश सयम (अणुव्रत) होता है। इसमे तुच्छ सो क्रोधादि गुण हैं जिनका निरतिवार पालन करते हुए यय शक्त की प्रवृत्ति व्रती श्रावक की होती है। तप द्वारा आत्मा मे वीतरागता के अशो मे वृद्धि कर ३-क्रोधादि प्रत्याख्यानादि कषयों के अभाव मे है (गाथा २०८/२०१)।
मुनिधर्म रूप सकल चारित्र होता है। इसमे मदतर ५-- शास्त्रो के अनुसार श्रमण शुद्धोपयोगी एवं क्रोधादि का सद्भाव होता है। शुभोपयोगी दोनो होते है । प्रथम निराश्रव तथा शेष ४-क्रोधादि सज्वलनादि कषायो के अभाव में आश्रव सहित है। (गाथा २४५) ।
यथाख्यात चारित्र होता है। इसमे उत्तर गुणों के दोषों जिनदीक्षा में कर्मों की नैमित्तिक पृष्ठ भूमि: का भी अभाव हो जाता है।
कर्म बन्ध को अवधारणा जैनदर्शन का महत्वपूर्ण यदि श्रावक अन्याय रूप प्रवत्ति एव अमर्यादित सिद्धान्त है जिसकी मधु दीसा के मदर्भ मे नैमित्तिक क्रोधादि करे तथा निर्ग्रन्थ माधु बुद्धिपूर्वक या सप्रयोजन भमिका समझना आय है क्योकि अनादिकाल से कम क्रोधादि से पीडिन हो, तब उसमे स्पा होता है कि बध के कारण ही आत्म अपद्धान, अज्ञान एवं असयम से । उन्होने अपनी पात्रता से अधिक ऊचा पद ले रखा है जो दु:खी है।
जिनदीमा की प्रक्रिया व मर्यादा के प्रकिल है। मम्यग्दर्णन का प्रतिरोधक दर्शन मोह कम है जिसके। ज्य काल मे तत्तोको यथार्थ प्रतीत नही होगी। आम साधक बुद्धिपूर्वक आगम-स्वाध्याय, तत्वविचार, सम्बग्यज्ञान का प्रतिरोधक ज्ञानावरण कर्म है जो ज्ञान गुण एव आत्मचिंतन की प्रक्रिया में जब उपयोग लगाता है तब को आवत करता है । सम्यग्चारित्र एव प्रात्म- परिणामो की विraat
परिणामो की विशुद्धता के कारण मोह कर्म की स्थिति रमणता का प्रतिरोधक कर्म चारित्र मोह है। जिसके एव अनुभाग स्वमेव ही घटते है । मोह का अभाव होने से उदयकान में आत्मा मे राग-द्वेष-मोह आदि की उत्पत्ति शक्ति अनुमार गम्यग्दर्शन, देश संयम या सकल चारित्र होती और ज्ञान दर्शन स्वभाव रूप परिणमन नही हा अगीकार करने का पुरपार्थ प्रकट होता है। इस प्रकार पाता। चाग्नि मोह के २५ भेद हैं। इनमें क्रोध, मान, कषायों के उत्तरोत्तर अभाव एव उमसे उत्पन्न भाव माया, लोभ इन चार पायो के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्या
शुद्धि से क्रमश अवती-श्रावक, व्रती-श्रावक एव मनि-धर्म स्यान, प्रत्याख्यान, एवं सज्वलन रूप से लह भेद हुए। धारण करने का पुरुषार्थ प्रकट होता है। हास्य. रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, द्रव्यलिंगी साध से प्रती-अवतो धावक को श्रेष्ठता: नमक, वेद यह नौ कषाय हैं। अपना ज्ञाता दृष्टा जिनवरों के मार्ग में भावों को ही प्रधानता है। स्वभाव छोडकर पर दव्या में राग-द्वेष भाव उत्पन्न
द्रव्यलिंगी साधु मन्द कषायपूर्वक कटोर तपस्या करता हैं करना ही कपाय का कार्य है।
और २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करता है फिर आत्मा और कर्म के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों को भी सम्यग्दर्शन के अभाव मे, नवमे ग्रेवेयक तक जाकर दष्टिगत कर कारणानयोग शास्त्रों में जिन दीक्षा के फिर समर मmarat उत्तरोत्तर हासोन्मख कषाय के मानदण्ड निर्धारित किये सम्यग्दृष्टि सोलहवें स्वर्ग तक जाकर भी मोक्ष का अधिहैं जो इस प्रकार है :
कारी होता है। १-क्रोधादि अनन्तानबन्धी कपायो के अभाव मे
प्रवचनसार मे आत्म-ज्ञान शून्य सयम साव को आत्म श्रद्धान रूप सम्पकत्व होता है। इसमे मर्यादित
अकार्यकारी वहा (गाथा २३६) । मिथ्यात्व एव अन्य क्रोधादि तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल के विचार सहित न्याय सहित यदि कोई मुनि भेष धारण करता है तो भी वह रूप प्रवृत्ति अब्रती स्रावक की होती है।
श्रावक के समान भी नही है (भा. पा० १५५) भाब २-क्रोधादि अप्रत्याख्यानादि कषायों के अभाव मे
(शेष पृ०८ पर)
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जिनके अवतरण से विदिशा पावन हो गया :
"तीथंङ्कर शीतलनाथ"
श्री गुलाबचन्द्र जैन
पुष्कर वर द्वीप के विदेह क्षेत्र मे सीता नदी के दक्षिण मुनि से दीक्षा ले तप मे लीन हो गए । निरन्तर तप करते तट पर वत्स नामक एक देश था। (इक्ष्वाकु) कुलभूषण हुए उन्होने ग्यारह अगों का मनन एव पोडमकारणादि महाराज पपगुल्म थे उम प्रदेश के शासक और सुमीमा भावनाओ का चितन किया और फलस्वरूप शीर्थङ्कर नामक नगरी थी उसकी राजधा-।। वसत ऋतु में महा- प्रकृति का बध किया। आयु वा अन जान समाधिमर ग राज पपगुल्म अपनी रानियो के साथ वनक्रीड़ा हेतु गया पूर्वक देह त्याग वे आरण नामक पन्द्रहवे स्वर्ग मे इन्द्र हुआ था । वृक्षो के झडते हुए पत्तो को देख उमे ससार को हए। क्षणभगुरता का ज्ञान हुआ साथ मे वैराग्य भी जाग्रत इसी इन्द्र का जीव भरत क्षेत्र के मलय नामक नामक हा। वैगग्य मे वृद्धि होने पर पद्मगृल्म अपने चन्दन देश के भद्रिलपुर नामक नगर में इक्ष्वाकु कुलभूषण महानामक पुत्र को राज्य भार सौप वन मे जा आनन्द नामक राज दृढ़ रथ को गनी सुनंदा के गर्भ में, पूर्वाप ढ नक्षत्र
चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन अवतरित हुआ। गर्भ मे आने (पृ० ७ का शषाश) रहित नग्नत्व के अकार्यक रक होने से निरतर आत्मा की के पूर्व महारानी सुनदा ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में भावना भाने का उपदेश दिया । (भा० पा० ५५) ।
सोलह उत्तम स्वप्न देखे और अंत में एक विशाल गज उपसंहार:
को अपने मुंह में प्रवेश करते देखा, इन स्वप्नो का फल आचार्य कुन्दकुन्द के जिनदीक्षा से सम्बन्धित उक्त
था एक महान आत्मा का आगम सम की गरिमा का विवेचन से यह स्पष्ट है कि जिन मार्ग में जिनदीक्षा एक अनुभव कर देवताओ ने भी दो की वर्षा कर गर्भविशिष्ट प्रतिज्ञा एव पद है जिमका उद्देश्य कर्म क्षय व कल्याणक उसव मनाया। आत्मा मे वीतरागता प्रकट करना है। वह मात्र नग्नत्व
गर्भकाल समाप्त होने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन ही नही आस्मा की निर्मलता एव अन्तरंग शुद्धि का बाह्य
विश्वयोग मे बालकका जन्म हुआ। सम्पूर्ण नगर हर्षोल्लास प्रतीक भी है । जिनदीक्षा की प्रक्रिया आगम ज्ञान, तत्व
मे डूब गया । सौधर्म इन्द्र ने भी अति आनद पूर्वक बालक, विचार, आत्मस्वरूप-चितन, आत्मानुभति एव देशवत को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीर सागर में जल र आदि के विभिन्न स्तरों को पार करती हुई निग्रंध साधु उन का अभिषेक किया। वही राजेन्द्र ने भी भक्ति विहल तक जाती है जहा साधक पल-प्रतिपल अपने ज्ञान दर्शन हो ताण्डव नृत्य किया। बाल जिनका नाम शीतलनाथ स्वरूप मे सम्पर्क करता परम आनन्द की सनभति रखा गया। करता है।
श्री शीतलनाथ के यौवनावस्था में पदार्पण करते ही जो आत्म साधक सही अर्थों मे जिनदीक्षा धारण
महाराज दढ़ रथ ने उनका राज्याभिषेक कर स्वय दीक्षा करना चाहते है या अपन का जिनदी।क्षत मानते है उन्हे ले मनिपद धारण कर लिया। महाराज मोलमा उक्त आदशो, मानदण्डो एवं क्रिया-प्रक्रिया का अन्तरग दिन वन विहार हेतु वन में गये हए थे। सर्वत्र घना भाद सहित आलम्बत करना चाहिए यही जिनाजा है। कोहरा छाया हआ था, कुछ भी दिखाई नहीं देता था।
कामिक प्रवन्धक तभी सूर्योदय होते ही सारा कोहरा नष्ट हो गया। यह ओरियन्ट पेपर मिल्स, प्रमलाई देख उनके मन में विचार आया कि कोहरे के समान यह
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तीर्थकर शीतलनाथ
सारा संसार ही नाशवान है। वैराग्यपूर्ण भावनाओ मे भाद्रिलपुर विदिशा : बद्धि हो लगी। तभी नौकानिक देवो ने स्वर्ग से आकर तीर्थङ्कर शीतलनाय की जन्मभूमि भद्दिलार, भद्रपूर उनकी बदना की और उनके वैराग्यपूर्ण विचारों की वर्तमान विदिशा (मध्यप्रदेश) है। इसी पावन नगर में सराहना की। यह माघ कृष्ण द्वादशी के सायकाल का भगवान शीतलनाथ के गर्भ, जन्म, बीक्षा एवं तप -चार समय था। महाराज शीतलनाथ तत्काल हो अपने पुत्र को कल्याणक सम्मान हए है। इस बात की पुष्टि के लिए राज्य सोप शुकप्रभा नामक पालनी पर आरूढ हो नगर अनेकों शास्त्रीय व शिलालेखी पण उपलब्ध हैं । अहिंसा के बाहर बन में पहुच, दो दिन के उपवास का व्रत ले, वाणी के पूर्व प्रकाशित "ती. शीनल श्रेयास व वासुपूज्य' सयम धारण कर ध्यान मे लीन हो गए। उनके साथ विशेषाक में सर्वश्री अगर चन्द न इटा, हेम बन्द शास्त्री, अनेक गजाओ ने भी सयम धारण किया।
सत्यधर सेठी, डा. कालीचरण सक्सेना, डा. दिगम्बरदास दीक्षा संत हा उन्हे मन.पर्यय ज्ञान प्रकट हो गया। मुख्त्यार, प० मोतीलाल मार्तड आदि ने भदपुर या महिलदो दिन के तपकरण के बाद वे चर्या हेतु अरिष्टनगर पुर को ही तीर्थकर शीतलनाथ की जन्म भमि स्वीकार पहुंचे। वहाँ के गजा पुनर्वसु ने नवधा भक्ति पूर्वक उन्हे किया है। बरो (बड़नगर) के विशाल जैन मन्दिरोग सोलह आहार दिया । उम मगल वेला मे देवो ने रत्न वर्षा की। तीर्थङ्कर प्रतिमाएं स्थापित है। हाँ के शिलालेखो मे वीशआहार के पश्चात् मुनि शीतलनाथ पुन: घोर तप मे लीन नगर (भलसा-विदिशा) को भगवान शीतलनाथ का जन्म हो गर । तीन वर्ष पश्चरण के पश्चात् बेल वृक्ष के स्थान लिखा है। हा. कामताप्रसाद तथा डा.होगनाव नीचे ध्यानस्थ उन्हें पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढ़ ने भी अपने लेखो में विदिशा को भद्दिलपुर स्वीकार
मायकाल के समय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। किया है। आगम से भी यही प्रमाणित होता है। अहिंसा देवताओ ने आकर भगवान के ज्ञान कल्गणक की पूजा वाणी के उक्त अक में गुलाबचन्द पाड्या लिखते है-- कर समवशरण की रचना की। भगवान की दिव्य वाणी "दमवें तीर्थकर शीतलनाथ स्वामी के गर्भ जन्म व तपश्रवण करने देव, मनुष्य, तिथंच नादि सभी अपने-अपने कल्याणक विदिशा (महिलपुर) मे हुए थे।" विदिशा को स्थान पर आ बैठे। भगवान को दिव्यवाणी को सभी ने दक्षिणी सीमा स्थित उद गिरि पर्वत की बीसवी गुफा म पूर्ण मनोयोग से सुना। इसके पश्चात् उनका धर्मचक्र भगवान शीतननाश के सरकारी चरण स्थापित है। प्रवर्तन प्रारम्भ हो गया।
विदिशा में प्राप्त प्राचीन शिललिखो म भो विदिशा का ___ अनेक देशो मे भग करते हुए उन्होंने भव्य जीवो नाम भद्दिलपुर व भद्रावती काया: । को आत्मकल्याण का उपदेश दिया। अन्तिम समय श्री विदिशा का प्राचीन गौरव : सम्मेद शिखर पहुंच, योग निरोध सहित प्रतिमा योग महाकवि कानिदम ने "मेघदूत" HE काव्य में धारण कर आश्विन शुक्ल अष्टमी के मगल दिवस, माय- दशार्ण जनपद को पानी विमा का वर्णन किया है। काल की वेला मे, पूर्वाषाह नक्षत्र में समस्त कमी का उग काल मे दशार्ण जापद की पहिचान विनिशा के आस नाश कर परम मोक्ष पद प्राप्त मिया। देवो व नर-नारियो पाग के प्रदेश से की जाती थी। आदिपुगण मे जिस उत्साह एव मनोयोग पूर्वक वान का निर्वाण ल्याणक दशाणं प्रदेश का वर्णन गाया है, वह यही है। ईस्वी पूर्व ममायो जयनाद मे सम्पूर्ण धरती और गगन गंजायमान २ मे ५ शादी तर दणं यद बहुन समृद्ध था और हो उठा।
इग देश को गनधानी दिदिगा भी अन्न सम्पन्न एवं तीर्थ र शीतलनाथ का शरीर स्वर्ण यर्ण वनवे गन्दा याताय. यन थी। ' दपुराण में मारत" धनुष ऊँचा था। आयु थी की एक लाख वर्ष पूर्व। . लेखक Afrद्र शास्त्री') इ. हासकागेकामत इनका चिन्ह श्री नरु कल्प-वक्ष है । ब्रह्म यक्ष इनके मेवा है कि महिलपुर पर्तनान पृ० ५६ विदशा ही है। ईमा ब मानवी यक्षिणी इनकी सेविका है।
पर्व छठवी शताब्दी में इस भूभाग का यही नाम प्रचलित
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१०,
६, कि
है। ईमा पूर्व ३६४वें वर्ष में आचार्य भद्रबाहु अपने भुनि ले आई। पता चलने पर उदयन ने चंडप्रद्योत पर आक्रसंघ महिन पधारे थे और उन्होने चन्द्रगुप्त मौर्य को जो मण कर उमे बन्दी बना लिया। पश्चात चण्डप्रद्योत ने उस समय यही थे, उपमा दिया था। (ग्वालियर - मुक्त होने पर जीवन्त स्वामी की वह प्रतिमा विदिशा मे टियर--प्रशम भाग)। महाभारत में इल्लिखित दशणं स्थापित
स्थापित कर दो। यह प्रतिमा भगवान मावीर स्वामी
हो प्रदेश विदिशा के अपमपाम का ही प्रदेश है। "त्रिषष्टि की थी। बाद मे चन्दनाष्ठ निर्मित यह प्रतिमा यहाँ कई शमाया पूम्ब" के अनुसार भगवान महावीर का समय- वर्षों तक विगजमान रही। कारण विदिशा आया था। तीर्थङ्कर नेमिनाथ के समव- भगवान नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत पर ५६ दिनों शरण के विदिशा पाग्ने का भी आगम मे उल्लेख है। तक घर तप कर ज्ञान प्राप्त किया। तत्पनात निहार स्वामी ममत ट्रनार्य ने विदिशा में हु! वाद-विवाद में हुए उन्होंने अपना पहला उपदेश यादव को दिया। मजनो को परास्त कर उन्हें जैन धर्म में दीक्षित किया
पश्चात् धर्मचक प्रतन र ग्ते हा वे भदिनपूर पधारे और था। इस सम्बन्ध मे जैन बद्री के एक शिलालेख का यह देवकी के छह पुत्रो को- जो कम के भय से विदिशा के प्रलोक पठनीय है :
एक वणिक के यहाँ 'छप कर पल रहे थे - दशा दी। पूर्व पाटलिपुत्र नाम नगरे भेग मा ताडिता।
(गिरनार गौरव - डा. कागनाप्रस द)। भगवान नहापश्चान्माल्भव मिधु दपक विषय कांचीपुरी वैदशे॥
वीर के ममवशरण व दशाणपुर-विनिशा के शासक प्राप्नोह करहाटक बहुभटविद्योत्कट सकटम् ।
दमार्णभद्र द्वारा उनके अमृत पूर्व स्वागन की गाथा भी वादार्थी विचराह नरपते. शार्दूल विक्रीडितम् ॥
ग्रन्थो में प्राप्त है। उसमे यह भी उल्लेख है कि महागज पाली ग्रन्थों में इस स्थान का नाम बेसनगर या
दशाणभद्र ने भगवान समवशरण मे मुनि दीक्षा लेकर चैत्येनगर दिया गया है। बारहवी शताब्दी के चालुक्य
घोर तप किया था। शुग गुप्त व परगार कान मे काल में इसका नाम भल्ल स्वामिन हो गया था । ब्राह्मण
विदिशा मे जैर संस्कृति के विकास की गाया आज भी ने इसका नाम भद्रावती या भवपुर लिखा गया है। काफी विस्तार से इतिहाम मे उपलब्ध है। ईसा की पहली शताब्दी में यहाँ नागों व सातवाहनो का राज्य था। एक पौराणिक कथा के अनुसार यहाँ हैहय- उवयगिरि: वंशी शासको का की राज्य रहा है। रामायण से पता विदिशा से पाच किलो दूर मन्दिर दक्षिण दिशा में चलता है कि राम के लघु प्राता मन ने हम प्रदेश को वेत्रवती व वेस नदियो के मध्य विध्यान पर्वन माना यादवो से मुक्त कर अपने पुत्र सूवाह को इस प्रदेशका का एक भाग उत्तर दक्षिण दिशा में स्थित है। यही पवन
किया था। सम्राट अशोक को तो विदिशा शृखला उदयगिरि नाम से जानी जाती है। गणो मे
उन्होने यहा को एक वणिक कन्या से इसके अनेक नाम पाए जाते है। वैदिम गिरि, चैत्यागिरि, विवाह किया था और और बहुत समय तक यहाँ निवास रथावतं कृजरावत एव दशार्ण कुट आदि अनेक नामो से
जात प्राचीन शिलालेखो में भी इसका समय-समय पर उल्लेख मिलता है। आर्यवच विदिशा का उल्लेख मिलता है।
स्वामी के कुजरावर्त पर्वत पर तप कर मोक्ष प्राप्त किया परतावर ग्य-विशष्ट शलाका पुरुष" के अनुसार या धर्मामृत ग्रन्थ के अनुसार घनद नाक मुनिराजन समान धर्म का सर्वाधिक प्रमार अशोक के पौत्र सम्प्रति भी विदिशा के निकट उदगिरि पर तपायानी के शासन काल में हुआ था। इसी काल में भवति के उदयगिरि दो किलो मीटर लम्बी है। इसको शामक चहप्रद्योत न मिधु सोवीर नरेश उदयन का एक तम ॐाई ३५० फुट है। इसके पूर्वी ढाल पर सन्दर दासी का अपहरण कर लिया। दासी अपने साथ काट कर या प्राकृतिक चलाधयों ..
सिसित जीवन्त स्वामी की प्रतिमा भी पुरा कर गुफाबो का निर्माण किया पया है। इनमे गफा ,
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तीर्थकर शीतलनाथ
२० स्पष्ट रूप से जैन गुफाएं हैं । इन मुफाओं का निर्माण में निर्मित तीर्थर पार्श्वनाथ की एक अति भब्ध पचासन गुप्तकाल---ईसा की पाचवी शताब्दी मे हुआ था। प्रतिमा विराजमान है। मस्तक के ऊपर सप्त फणावलि स्थापत्य कला की दृष्टि से गुफा न० एक को गणना देश है। इसके ऊपर छत्रत्रयी है छत्र के ऊपर दुदुभिवादक व मे प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन गुफ ओ में की जाती है। इस शीर्ष पर एक और तीर्थकर प्रतिम का अकन है। दोनो गुका के गर्भगृह मे, पश्चिमी दीवार पर प्रभामण्डल युक्त पाश्वों में विभिन्न वाद्य लिए गन्धर्व है। मध्य मे दोनो तीर्थङ्कर प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीणित थी जो ओर दो-दो पनासन लघु आकार जिन प्रतिमाएं है। अधोवर्तमान में काल के प्रभाव, असुरक्षा एव धामिक विद्वेष भाग मे देव माला लिए गज अकित है। वक्ष पर सुन्दर के कारण पूर्णत नष्ट हो चुकी है। प्रतिमा का प्रभा- श्रीवत्स चिन्ह निर्मित है। प्रतिमा के कुछ भाग खण्डित मण्डल मात्र शेष है। इसी के समीप पाषाण निमिा, पाच हो गए है। सर्प फणो से सुशोभित, कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थङ्कर सुपा- बाह्य कक्ष के दक्षिण भाग में प्रवेश स्थन के समीप कनाथ को, साढे चार फुट ऊ ची प्रतिमा स्थापित है। शिला पट्ट पर १२ इच चौडा व १० इंच लम्बा एक लेख इसके सिर पर छत्र है व दानी पाश्चों में आकाश में उड़ते अकित है। इसका लखन गुप्त सवन १०६ (ईस्वी सन हु। गन्धर्व हायो मे पुष्पमाला लिए अकित है। अधोभाग ४२६) मे हुआ था। इस लख से ज्ञात होता है कि 'गुप्त में दो पद्मासन व दो खड्गासन मूर्तिया दोनो ओर निमित नरेश कुमार गुप्त के शासन काल में शकर नामक व्यक्ति है। इनके नीचे ललितामय मे तीथङ्कर सुपाश्वनाथ की ने इस गुफा मे सर्पफणो से मणि भगवान पार्श्वनाथ की शासन देवी 'मानवी' अकित है। देवी के दोनो ओर भक्त- विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया था। अठ पक्तियो स्त्री पुरुष सिर झुका। खडे है। गुफा का बाह्यमहप चार वाला यह लेख इस प्रकार है :स्तम्भों पर आधारित है ब छन का कार्य एक प्राकृतिक १. नम. सिद्धेभ्यः (1) श्री सयुतानां गणनीयधीनां प्रस्तर शिला करती है।
गुप्तान्वयाना नृप सत्तभाना। गुफा न००० गिरिमाला के उत्तरी छोर पर शिखर
२. राज्ये कुलस्याभिविवर्धमाने षडभियंते वर्षशने. से कुछ नीचे स्थित है। तलहटी से सीढ़ियां चढ़कर यहाँ
शामासे (1) सुकातिकब हुलदिनेश पच में । पहुंचा जाता है। ऊपर एक चट्टानी पठार-सा है। इसके
३. गुहामुखे स्फुटविकटोक्तटामिमा जितद्विषो जिनदाहिने सिरे पर एक द्वार है जिसमे से १४ १५ सोढ़िया
वर पार्श्वमज्ञिका जिनाकृति शमदमवान--- नीचे उतर कर गुफा के अन्तर्भाग मे पहुचते हैं । इस भाग
४. चीकरत (I) आचार्य भद्रान्वय भूषणस्य शिस्यो में दाहिनी और दीवार के मध्य में एक आले नुमा वेदी
ह्यसावार्य कुलोद्गतस्य आचार्ययोगेशमे भगवान शीतलनाथ के सातिशय चरण विराजमान है।
५. म्ममुने. सुतस्तु पद्मावतावश्व तेर्भटस्य (1) चरण के सम: तीर्थङ्कर आदिनाथ की तीन फुट ऊयो
परैरजस्य रिपुन मानिनस्स सधिःएक पद्यामन प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के पृष्ठ भाग मे
६. लस्येत्यभिविश्रुतो भवि स्वसज्ञया शंकरनामभामण्डल व वक्ष पर श्रीवत्स का अकन है ।
शदिवो विधानयुक्त यनिमाइस गुफा का बाह्य कक्ष सामने से खुला है। कक्ष
७. गंमास्थितः (1) स उत्तराणा सदृशे कुरुणां को बायी और दाहिनी दीवार पर द्वार के दोनो ओर दो
उदग्दिशादेशवरे प्रसून.-- दो पद्मासन नीर्थङ्कर प्रतिमाएँ, पाषाण शिला पर, भूमि
८. क्षयाय कर्मारिगरणम्य धीमान यदवपुण्य तपाससे लगभग चार फुट ऊपर उत्कीणित है। दोनों ओर सज्ज (1) चमरेन्द्र खडे है। विधमियो द्वार। नष्ट कर दिए जाने से अर्थात्-मिद्धो को नमस्कार हो। वभर मपन्न गणों आज इनका आभाम मात्र शेष है। दक्षिणी ओर एक के समुद्र, गुप्तवश के राजाओ के राय. साके पापण चौकी पर साढ़े चार फुट ऊँची, भूरे रंग के पाषाण कार्तिक मास वृष्ण पवमी दिन, गफा के महत, वितत
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१२. वर्ष ४६, कि०३
अनेकान्त
सर्प फणों से युक्त, शत्रुओं को जीतने वाले, जिन श्रेष्ठ काल मे तीर्थङ्कर शीतलनाथ का एक विशाल मन्दिर था पार्श्वनाथ को प्रतिमा, शमदमयुक्त शकर नामक यति ने जिसमे ये प्रतिमाएं विराजमान थी व उसी जिनालय के बनवाई जो आचार्य भद्र भूषण आर्य कुनोत्पन्न आचार्य समक्ष यह कल्पवृक्ष निर्मित शीर्ष महिन स्तम्भ स्थापित गोशर्म मुनि पा शिष्य था । दूसरो के द्वारा अजेय, शत्रुओं था। का विनाश करने वाले अश्वपति मंघिल भट और पद्मावती तीर्थदर शीतलनाथ के निर्वाग दिवस --आमोज बदी का पूत्र था। शकर इस नाम से विख्यात और यति मार्ग अष्टपी को स्थानीय जैन समाज एक मेले के रूप मे भगमे स्थित था। वह उत्तरकुरुओ के सदृश उत्तर उत्तर दिशा वान को तपोभूमि उदयगिरि पर एकत्रित होकर एवं श्रेष्ठ देश मे उत्पन्न हुआ था। उसके इम पाचन कार्य मे गफा नं० २० में विराजमान उसके चरणो का भक्ति-भाव जो पूर्ण हो वट में रूपो गाओ के क्षा के लिए हो।
पूर्वक पूजन अर्चन कर तथा लड्डू चढ़ा कर उनका निर्वाण विदिशा उदयगिरि मार्ग के मध्य दुर्जनपुरा नामक महोत्सव मनाता है। इस पावन अवमर पर उदयगिरि एवं स्थान से कुछ वर्ष पूर्व तीन पद्यामन प्रतिमाएं हल चलाते
आस-शस का सम्पूर्ण वन प्रदेण भगवान श्री शीतलनाथ हा प्राप्त हुई थी। नौथी सदी ईस्वी में निर्मित ये प्रति- के जयघोष से गंज उठता है। मायें महाराज रामगुप्त के काल की है। इनमे एक प्रतिमा विदिशा की अति प्राचीन जैन मांस्कृतिक गौरवशाली तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ व दूसरी पुष्पदंती है। तीसरी प्रतिमा परम्पग, विदिशा में निमित दम जिनालयों में श्री शीतलके संहित होने से उसका विन्द व लेख नष्ट हो चका है। नाथ नामांकित दो जिनालय जिनमे किले में निमिनमति के नीचे अंकित लेखो मे महाराजाधिराज रामगुप्त का श्री शीनाथ जैन मन्दिर" अति विशाल एव लग ग नाम अकित है। ये प्रतिमाएँ प्रारम्भिक गुप्तकाल का २५० वर्ष प्राचीन है, उदयगिरि गुफा न० . . मे विराजप्रतिनिधित्व करती है एवं इनका समाालीन मथु । वला मान भगवान क सातिशय चरणचिन्ह तथा ५०-६० वर्षों से काफी साम्य है। प्रतिमा के पाद मूल मे उन्कीर्ण लेखों से आयोजित निर्वाण दिवस मेला, अनेक शास्त्रीय प्रमाण से रामगप्त द्वारा जैन धर्मावलम्बन एवं जैन धर्म के प्रति एवं प्रतेक इतिहास विज्ञ विद्वानो का अभिमत --मब उनकी आस्था पकट होती है।
मिलकर हिलपुर - वर्तमान विदिशा को तीर्थङ्कर शीतल इसी क्षेत्र में एक स्तम्भशीर्ष भी प्राप्त हुआ है जिस नाथ के गम, जन्म, दीक्षा व तप चार वल्याणको नो पावन पर कल्पवृक्ष वी अनुकृति उत्कीणित है। कल्पवृक्ष एक भमि होने का गौरव प्रदान करते है। चौकी पर स्थित है व इसकी ऊंचाई ५ फुट ६ इच है। वर्तमान कालिक परम सन आचार्य श्री विद्यासागर वक्ष पर मुद्राओ से भरे पात्र एवं लटकती हुई थेलियाँ एव उनके परम शिष्य मुनि श्री क्षमासागर, प्रमाणसागर, इसके कल्पवृक्ष नाम को साथक करता है । वतमान म यह समता सागर के आशीर्वाद मे आगामी कुछ ही वर्षों मे जीर्ष वलकत्ता के भारतीय कला संग्रहालय में प्रदोशत है। विदिशा अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करने जा कल्पवृक्ष तीर्थङ्कर शीतलनाथ का लांछन है। यह स्तम्भ रहा है। एवं अनेक दिगम्बर जैन विशाल प्रतिमाएं जो यहाँ प्राप्त
--राजकमल स्टोर्स हुई हैं--इस तथ्य को सुनिश्चित करती है कि यहां प्राचीन
विदिशा अमृत-वचन जीवन में वचनों का सर्वाधिक महत्त्व है जब हम अपने विचार प्रकट करते हैं तो वे दूसरों पर प्रभाव डालते हैं और हमारे मन के छिपे भावों का प्रकटोकरण करते हैं। वचनों में अगाध शक्ति होती है। कहा भो है : ---
वाणी ऐसी बोलिए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपे शीतल होय।। यह कितना सुन्दर कथन है हमें आठ मदो से रहित होकर हित-मित-भाषी वचन बोलना चाहिए। जिनको बोलने से स्वयं शीतलता मिलती है तथा दूसरों को भी शीतलता प्राप्त हो जाती है।
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चन्देलकालीन मदनसागरपुर के श्रावक
:) प्रो. यशवंत कुमार मलैया
मक
ई० ८८४ में ग्राम दहकना में एक प्राचीन जैन कोतिवर्मन : स० ११३२-११५४ (ई० १०७५मन्दिर के खंडहर प्राप्त हुए थे। खुदाई से इसके आस- १०६७) पाम अन्य चत्यो के अवशेष भी मिले थे। यह स्थान आज जयवर्मन · स. ११७३ (ई. १९१६) पुन : विकसित होकर अहार नीर्थ क्षेत्र के नाम से विख्यात मदरवर्मन : सं० ११८६-१२२० (ई. ११२६है। इस स्थान के ऐतिहासिक महत्व को पहचाना नही गया है। बुन्देलखड में ही नही, मम्पूर्ण भारत में सभवन:
परमादि · म० १२२६-१२५८ (ई० ११६६-१२०९ कोई अन्य स्थान नही है जहाँ ग्यारहवी से तेरहवी सदी
लोक्यवर्मन : स. १२६१-१२९८ (ई. १२०४
१२४२) के बीच इतनी दूर-दूर मे श्रावको ने आकर प्रतिष्ठा कराई
वीरवर्मन : स०१३११-१३४२ (ई०१२५४. हो। यहां प्राप्त लेखो से न केवल श्रावको की न्यातो
१२८५) (त्वयो) के इतिहास पर प्रशि पड़ता है बल्कि चंदेल मीजवर्मन स० १३४५-१३४६ (ई०१२८८राजवणो मे हा उतार-चढ़ाव के मी प्रमाण मिलते है। १२८६ । जैन साधुओ को एक निकाय के बारे में भी पता चलता हम्मीरवर्मन : स० १३४६-१३६५ (ई० १२८६है कि जिस पर अभी कोई अध्ययन नही हया है। १९०८)
गहलोत (गिसोदि) कुल की तरह चदेल भी वीरवर्मन (दूमरे). स. १३७२ (ई. १३१५) ब्रह्म त्रिय थे। यह वश नवमी शती के मध्य उतान्न हा और इनका राज्य किसी न किसी रूप मे १४यी
गड, विद्याधर, विजयपाल, सल्लक्षणवर्मन, पृथ्वीशताब्दी के आरम्भ तक चला। पहले ये प्रतिहारो के .
न वमन व यशोवर्मन के समकालीन उल्लेख नही मिले है। भाडलिक थे, दसवी शती मे यशोवर्मन ने स्वतन्त्र राज्य
वर्तमान अहार का प्राचीन नाम मदनसागरपुर था। स्थापित किया । नवमी सदी मे हए जयशक्ति या जेजा के यह नाम मदनवर्मन क शासन काल म दुआ । स० १२०६ नाम पर इनका राज्य जेजामुक्ति या जजहुति कहलाता
के एक लेख में यह नाम है। मदनवर्मन के पूर्व की भी था। इनकी राधानी पहले खजुराहो थी, बाद मे महोबा
दो प्रतिमाये (स० १.२३ व स० ११३१) यहाँ हैं। सं० मे हुई। खजुगहो को कभी मुसलमानो ने नही जीता. १३३२ तक की प्राचीन प्रतिमाये यहाँ है। सं० २०१४ अत: यहाँ के बहुत से मन्दिर आज भी खड़े हैं।
(ई. १९५८) मे यहाँ पुनः प्रतिष्ठायें हुई थी। सं० अलग अलग लेखको ने चन्देल राजाओ के राज्य. १५२४ से स १८६६ की प्रतिमाये भी यही है, पर वे काल के अलग अलग अनुमान लिखे है नीचे लिखे अन्यत्र से लाई गई मालभ होती है। राजाओ के ताम्रशामन या समकालीन उल्लेख शिला
म. ११२३ व १५३, की प्रतिमाओ की प्रतिष्ठा लेखों मे प्राप्त हए हैं। प्राप्त लेखो के सवत दिए
किसके राज्यका न मे हुई यह घर नही है। देववर्मन के
सिंहासन पर बैठने के बाद कनी चेदि के नलचुरिवश के धग : मं०१०११-१०५६ (ई० ५५४-१००२) लक्ष्मीर्ण (या कणं ने आक्रमण करके चदेलों के राज्य देववर्मन : स. ११०७-११०८ ई० १०५०-१०५२) के बडे भाग पर अधिक र कर लिया। सभवत. देव
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१४, वर्ष ४६, कि०३
अनेकान्त
वर्मन ने किसी कारण से गही छोड़ दी व उसके छोटे भाई सं० १२०९, आषाढ़ ब०४ : २ जैसवाल कीतिवर्मन को राज्य मिला। यह हमारा अनुमान है कि सं० १२०६, आषाढ़ ब०८:१ जैसवाल देववर्मन दीक्षित होकर मूलसष-देशीययण के साधु बनकर स० १२६०,शाख सु० ११:२ पोरपट्ट , १ लमेच, ३ दक्षिण चले गये वहाँ गोल्लाचार्य कहलाये"। कीर्तिवर्मन गृहाति, १ जैसवाल, २ मडडितवाल (या मेडतवाल) के राज्यकाल में चन्देलो ने अपनी खोई भूमि पुनः पा स०१२६०, तिथिहीन . १ अज्ञात ली। महोवा के एक कुएं से कई जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई सं०१२६६, फागन सु०८:१माथुर,१ अज्ञात थी, जिनमे में दो पर सात २१ व २२ अकित है"। स० १२९२, तिथिहीन :१ अज्ञात हमारे अनुमान मे इनको स्थापना उस समय हुई थी जब स० १२६३, आषाढ़ सु०२ : १ गोलापूर्व, २ गहपति, महोबा पर कलचुरि कर्ण का आधिपत्य था, और इनका २ अज्ञात संवत कलचुरि सवत है । कलचुरि सवत विक्रम सबन के सं० १२६३, तिथिहीन . १ माधु, ३ साधु ३७५ वर्ष बाद हुआ था,' अत ये प्रतिमाये विक्रम
स. १२६४, फागुन ब. ४ . १ अवधपुरा स० ११६६ व ११६७ की है । अतः हमारा अनुमान है स० १२१६, आषाढ ब० ८ : १ जैसवाल कि इसी ममय के आमपास देववर्मन ने राज्य त्यागा सं० १२१६,माघ सु०१३ - १ खडेलवाल, २ जसवाल, होगा !
३ साधु मदनमागपुर में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को अलग- म०१२१६, फागन ब०८:१ जेमबाल अलग चन्देल राज्यो के राज्यकाल के अनुसार बाँटा जा स० १.१८, तिथिहान : गीलापूर्व मकना है। यहाँ नीचे प्रतिष्ठापको के अन्वय का उल्लेख
परमाद्धि का राज्यकाल : किया गया है।
स. १२२३, बैशाख सु० ८ खडेलवाल देववर्मन का राजकाल
म. १२२५, ज्येष्ठ सु० १२.१ साधु स० ११२३ : देउवाल
स० १२२५, तिथिदीन : १ अज्ञात कीर्तिवर्मन का गज्यकाल :
स० १२२८, कागुन सु० १२ . १ जैसवाल स० ११३: : अज्ञात
स० १२:०, फागुन सु० १३ : १ अज्ञात मवनवर्मन का राज्यकाल :
स० १२३७, माघ सु० ३ : : गृहाति,"३ गोलापूर्व, सं० ११६६, चैत्र सु०१३ . २ गगराट, १ महिषणपुर
१ गोलाराड, २ खडे ताल, १ अवधपुस, २ अज्ञात पुरवाई
स० १२३७, तिथिहीन . १ अज्ञात स० १२००, आषाढ व ८ . १ जैसवाल, १ महेष गउ,
वलोक्य वर्मन का राज्यकाल: १ अज्ञात
स. १२८८, माघ सु० १३ . १ गोलापूर्व व गृहपति सं० १२०२, चंय सु० १३ : १ लपच, गोलापूर्व
सयुक्त स० १२०३, आषाढ़ सु० २ १ गोलापूर्व व गृहपति संयुक्त, १ गृहपति व वैश्य संयुक्त, १ साधु
वीरवर्मन का राज्यकाल : स० १२०३, माघ सु० १३ . ३ दो-दो जैसवालो द्वारा स० १२२०, फागुन सु० १३ : १ अज्ञात संयुक्त, गोलापूर्व, १ वैन, ४ अज्ञात, १ साधु
स० १३३२, आषाढ़ ब०२ १ अज्ञात स० १२०३, तिथिहीन अज्ञात
अज्ञातकालीन : १ खडेलवाल, १ जैसवाल, २ अज्ञात स० १२०७, आषाढ ब १ गहपति व पौरव ल सयुक्त यहाँ कार जिन प्रतिमाओ मश्रावको के नाम नहीं स०१२०७, माघ ब८:४ गहानि, १ १ जैसपाल, १ है, पर दीक्षित साधुओ के नाम है, उन्हे साधु लिखा है। माधुव, साधु
मदन सागरपुर का क्या महत्व था ? यहाँ इतनी
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चन्देलकालीन मवनमागरपुर के श्रारक
अधिक प्रतिष्ठायें क्यों हुई थी? इन प्रश्नो का स्पष्ट उत्तर के आस-पाम रहा है"। गर्गराट जाति वर्तमान में गंगेरदेने मे हम ममक्ष नहीं है। यह एक रहस्य ही है। वाल या गगराहे कहलाती है। ई० १५वी-१८ती मदी
इस क्षेत्र मे बसने वाली सबसे पुरानी न्यातें गृहाति के लेखको ने इसे गगेडा, गंगरा आदि लिखा है। ये व गोलापूर्व है। गृहपति जैनामुकिा मे सभवतः नवनी- प्राचीन काल में राजस्थान-महाप्रदेश सीमा पर स्थित, दसवीं शताब्दी में पद्म वती के आमपास से आकर बसे झालावाड जिले के गगराड (गंगधार) स्थान के वासी थे। थे। ये अधिकतर जैन थे, पर कुछ शैव व संभवतः कुछ महडितवार (-मेडवाल) राजस्थान के मेडता स्थान के बौद्ध भी थे"। किमी किमी का राजदरबार मे अच्छा वामी थे। इन्हें ही मेडतवाल कहा जाता है। ये वर्तमान आदर था। खजुराहों में इसकी अच्छी बस्ती थी और काल सब वैष्णव हैं । देउवा ल देशवाल ही होना चाहिए। वहां के मम्भवत सभी चन्देलबालीन जिनालय इनके ही ये भी वर्तमान काल मे नही मिलते। सम्भव है वैष्णवों बनवाये मालम होते है। ये ही वर्तमान मे गहोई कहलाते या श्वेताम्बरो मे मिल गये हो। हैं। इनके १२ गोत्र है जो ६.६ अलो मे विभक्त हैं। महेषणउ या महिषपुरवार माभवत: वही जाति अहार के पास ही खरगापुर स्थान है जिसे गहोइयो का होना चाहिए जिसे आज महेसरी या माहेपरी कहते हैं। प्राचीन केन्द्र माना जाता है"। बणपुर के गृहपति, ये अधिकार वैष्णव ही रहे है, फिर भी ई० १६१५ मे जिनने बाणपूर या महमकट लिनालय, मदनमागापुर की १६ महे। जै। थे। ये राजस्थान में किमी महेशन स्थान विशान शौनिकाय प्रतिमा आदि का निर्माण कराया था, के निवासी लगते है। वे कोच्छल्ल गो। के मालम होते हैं । गृहपति जाति के माथुर (माधुव, मधु) मथुरा के प्राचीन निवासी है। १३वी सदी तक के जैन मूति लेख मिलते हैं। वर्तमान में यह वैश्य जाति आज भी है पर इनमे कोई भी जैन नही सभी गहोई वैष्णव है, पर दो-तीन सौ वर्ष पहले तक है। मथुर. को मधुरा या (मधुवन) भी कहा जाता था। इनमे सम्भवतः कुछ जैन थे। गोलापूर्व भी हवी-१०वी यह शक-कुपारण काल में जनो का अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र सदी से इस क्षेत्र के निवासी लगते है। इनमें एक बेक था ! इस काल मे सभी वर्गों के लोग जैन धर्म मानते चरिगा कहलाता है, जिसे पहले पद्मावती गोत्र का थे"। मथग मे काष्ठवणिक, मानिकर (जोहग), लोहमाना जाता था। अत: सम्भव है कि इनके पूर्वज गोल्ला वणिक, भार्थवाह, रागिन (रग रेज), गधिक, ग्रामिक गढ (या गोल्लापुर) से पद्मावती जाकर बसे हो व फिर ग्राम प्रमुख), पुजारी, लोहिककारक, हैरक (सुनार), वहां से जंजा भक्ति मे आकर बमे हो।
कल्यपाल गणिका आदि वर्ग के व्यक्तियो द्वारा प्रति ठाये पोरपाट या पोरवाल वर्तमान में परकार कहलात है। विय जाने के उल्लेख मिलते"। हणो के साक्रमण के ये बदेलो वा राज्य हो जान के बाद बड़ी सख्या मे चदेरी बाद मथग का प्राचीन सय छिन्न-भिन्न हो गय! । कालामहल में आकर बम थ"। इसी प्रकार से गोलाराड सरमथरा में प्राचीनकाल से निवास करने वाले वैश्य गोलालारे कहल ते है और ये भी बुदे के राज्यकाल में
माथुर कहला)। बारहवी शताब्दी के इनके लेख मदनस आकर बम " । चदैला के राज्य में इन्हे मागरपुर व अन्य स्थानों में मिले हैं। माथर जी के लख परदशी ही माना जाना चाहिए । अवधपुरा (इसे अबध्या- इसके बाद प्राप्त नही होते है। पुरा भी पड़ा गया है) को १८वी सदी के खको ने अयो
खडेलवाल या (खडिलवाल) उत्तर भारत की प्रसिद्ध ध्यापूरी या अयोध्यापूर्व लिखा था"। ये अब अयोध्या- जाति है जो शेखावाटी के प्राचीन खडेला नगरस निकलो वासी कहलात है। फिर भा ई. १६०५ से ५६२ अयोध्या- है। इनम स जो जैन हात है वे सरावगा (श्रापक) कहयासी जैन थे। इनका भी बुदेलखड में निवास है पर लाते है"। जैन व वैष्णव खडेलवालो को न्याते अलगइनका कोई इतिहास ज्ञात नहीं है।
अलग है। लमेच व जैसवाल जातियो का प्राचीन निवास चंबल अत: यह पता चलता है कि मदनसागरपुर में न
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१६, वर्ष ४६, कि.३
अनेकान्त
केवल स्थानीय (गहपति, गोलापूर्व, अयोध्यापुरी) श्रावकों हासिक दृष्टि से कही-कही गलत है । पृथ्वीराज के आक्रद्वारा प्रतिष्ठायें की गई थी, बल्कि चदेरी मडल (परवार), से जेजाभुक्ति को सपन्नता हमेशा के लिए समाप्त हो गई, चंबल के आस-पास के ब्रज प्रदेश (लमेच, जैसवाल, यद्यपि चदेलो का राज्य करीब डेढ़ सौ वर्षों तक चलता गोलालारे), व वर्तमान राजस्थान के अलग अलग भागो रहा । पृथ्वीराज के लौटते ही जंजाभुक्ति पुनः परमाल से आये (गगे रवाल, मेडतवाल, खडेलवाल) श्रावको ने भी के हाथ आ गया । परमाल रासो के अनुसार अपनी पराप्रतिष्ठायें कराई थी। उस काल मे आवागमन सुरक्षित जय के दुःख से परमाल ने काजजर में आत्महत्या कर ली। नही था, दूर-दूर तक घने वनों से रास्ता जाना था। पृथ्वीराज रास के अनुसार परमाल राज्य त्याग कर बदेलखड व चदेरी मडल मे आज से केवल दो तीन सो गया बिहार) चला गया। परन्तु स. १२४० से सं० वर्ष पहले तक जगली हाथी होते थे। चदेलकाल मे मदन १२५८ के शिलालेखो से स्पष्ट है कि परमाल का राज्य सागरपुर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था, यह तो स्पष्ट
पृथ्वीराज से हारने के बाद भी बहुत वर्ष तक चला । ई० है। यह महत्व वाणिज्य के कारण था या धाभिक केन्द्र
१२०२ (स० १२५६) मे कुतुबुद्दीन ने कालजर घेर लिया।
.. होने के कारण या, यह स्पष्ट नहीं है। चदेलो का महत्व घेरे के दौरान ही प-माल की मृत्यु हो गई। बढ़ने के पूर्व पपावती व्यापार का अच्छा केन्द्र था।
प माल का पुन त्रैलोक्यवर्मन न केवल मुसलमानी पद्मावती पुरवार तो यहां से निकले ही है, परवार,
से अपना राज्य छुडाने में मल रहा बल्कि उसने चदेलो गोलापूर्व व पल्लीवाल जातियो मे पद्मावती नाम के
के पुराने शत्रु कलचुरियो से डाहल महल छीन लिया। विभाग रहे है। किंवदलियो के अनुसार पद्मावती मे कभी
लोक्यवर्मन के बाद उसके पुत्र औरवर्मन का राज्य ५४ जन न्यानो का सम्मेलन हुआ था। सम्भव है यहाँ
हुआ। वीरवर्मन के बाद पहले उसके पहले पूत्र भोजवर्मन की ही मडी टूटकर मदनमागरपुर आ गई हो।
का राज्य हआ । इस समय तक चदेलो का राज्य बढ़त यहाँ पर कुटक अन्वय को चर्चा बाकी है। इस अन्वय
कुछ पूर्ववत् बना रहा। पर उत्तरी भारत का बहुत लेखो से यह स्पष्ट है कि यह अन्यय श्रावको का नही,
सा भाग विदेशियो के हाथ आ जाने से वाणिज्य व धार्मिक साधुग्रो का था। अन्यत्र इस अन्वय के उल्लेख देखने में
व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई थी। जनसंख्या घटन से बहुत नही पाए हैं। इस विषय पर एक अन्य लेख में विचार
से गाँव जड रहे थे। जेजाभुक्ति में कुछ जैन प्रतिष्ठाये किया गया है।
फिर भी कही कहीं होती रही। भोजवमन के बाद उसके मदनवर्मन के राज्यकाल में किसी कारण से यह
भाई हम्मीरवर्मन का राज्य हुआ। इसके काल में स० स्थान प्रसिद्ध हो गया है। स० ११६६ से म० १२८
१३६६ (ई० १३०६) में अलाउद्दीन खिलजी ने डाहल तक १० वर्षों में यहाँ कम से कम १७ बार प्रतिष्ठाये
महल व सम्भवत कुछ अन्य प्रदेश हपिया लिये। वीरहुई। यह क्रम परमद्धि (परमाल के राज्यकाल में भी
वर्मन (दूसरा) नाम के एक गाजा का एक लेख ई० १३१५ कुछ समय तक चलता रहा। स० १२३७ में कई प्रति
(स० १ ३६२) का प्राप्त हुआ है। इसके बाद चदेल माय एक साथ पुनः प्रतिष्ठित हुई। इसमे शातिनाथ की
राजवश का सूय अस्त हो गया। १८ फुट ऊँदी प्रसिद्ध प्रतिमा भी यो। जो अपने ही मन्दिर मे मूलनायक के रूप में स्थापित की गई। इसके इस क्षेत्र में करीव ३ सो वर्ष आस्थरता बनी रही। दोही वर्ष बाद स०१२३६ म चाहमान पृथ्वीराज ने परदेशी श्रावका का आना तो स०१२३९ मे हो रुक गया
आत्रमण करके जंजाक मुक्ति को लूट लिया इस प्रसिद्ध था। तेरहवी-चौदहवी सदी तक गहपति (गहोई। जाति यड का विस्तुन वर्णन चदबरदाई रचित पृथ्वीराज रासो से भी जैनधर्म छूट गया। इसी काल मे मदन सागरपुर
महोबाखा (परमाल रासा) एव जगनिकरराव के रचे उजड़ गया होगा। जेजाभुक्ति में कही-कही गोलापूरों आल्हा रासो मे हा है। इनमे दिया हुआ वर्णन ऐति द्वारा कुछ प्रतिष्ठाये होती रही।
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चन्देल कालीन मदनसागरपुर के बावक
कालांतर में इस क्षेत्रों में बुंदेलों का उत्तर भारत मे मुगलो का राज्य हुआ। पुन. जनसमा बढ़ी, व्यापार बढा । १६-१७वी सदी में बड़ी संख्या में बदेरी महल से
परवार बंदेलखर में आकर बसे । अग्रेजो के राज्य में पूनः चेतना पाई व मदनमागरपुर (अहार) आदि स्थानो का पुनरुद्धार हुबा।
सन्बम-सूची १. कस्तूर नन्द सुमन, अहार का शान्तिनाथ प्रतिमा लेख, निर्माता गहपति थे इतना ज्ञात है।
'अनेकान्त अप्रैल-जून १९६१, पृ. १६-१६। १४. स. १२३७ मे स्थापित इस प्रतिमा को किवदंतियों २. शिशिर कुमार मित्र, The Early Rulers of के अनुमार पाणासाह नामक व्यापारी ने स्थापित
Khajuraho, प्र. मोतीलाल बनारमीदास, १८७७, कराया था। परन्तु ...... लेख के अनुसार इसकी पृ. १२-२०।
स्थापना जाहह व उदयचन्द्र नामक भाइयो ने कराई ३. वही, पृ. २४०।
थी। इसके पहले ही मदनमागरपुर महत्वपूर्ण स्थान ४. Mable Dull, The chronology of Indian बना चका था।
History, Dosmo Publications, 3972. १५. मजुराहो मे विश्वनाथ मन्दिर की दीवान में लगे (Original Publication in 189SAD)
स. १०५८ (ई. १००१) के गृहपनि कोक्कल के लेख ५. अध्याप्रमाद पाडेय, चन्देलकालीन बदेलखड का
मे उमके पूर्वजो के पदमावनी मे निवाम किये जाने इतिहास, प्र. हिन्दी माहित्य सम्मेलन, १६६८, पृ.
उल्लेख है। कोककल ने बंद्यनाथ शिव के मदिर का ६. मित्र, २२३-२३६ ।
निर्माण कराया था। इस लेख में ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, ७ गोविंददाम जैन पोठिया, प्राचीन शिलालेख, (श्री जिन, वामन को एक ही मानकर नमरहार किया दि. अ.क्षे. अहारजी), १९५' ई.।
गया है। खजगहो मे जैन गन्दिरों के निकट ही ८. मित्र पृ. ६१-६७।
गृहपनियो को बनी रही होगी। यहां घंटाई मंदिर १. पांडेय, १७२।
के पाम जैन मनियों के अलावा बौद्ध मनियां भी १०. यानन मार मलैया, गोल्लाचार्य का समय अप्र- प्राप्त हुई थी। देविा मित्र पृ. २२४, पांडेय पृ. काशित लेख।
७', मित्र १ २०१। ११. मोह-लाल जैन काव्यतीर्थ गोलापूर्व डायरेक्टरी, १६. R. V. Russell and Hiralal Tribes and २६४१ ई. पृ. १६८।
caster of the Central Provinces of India, १२ गौरोशकर हीराचद ओझा, भारतीय प्राचीन लिपि- Vol. II, Cosmo Publication, 1975 (Oriमाला, १९१८ ई., १७३ ७१।
ginally published in 1916), Pages 055-47. १३. 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तिका के आधार पर। इस १७. नवलगाह चदेग्यिा के *. १७६८ में रचे वर्धमान
लेख सग्रह में अहार के अलावा नारायणपुर के मंदिर पुराण मे ८४ बह जातिगो नाम दिये है। इममे की प्रतिमाओं के लेख भी शामिल हैं । अहार के पास माढे बारह प्रमुख जन जानियों के नामो के बाद, सरकनपुर में भी खाग परिवार के मन्दिर मे चदेल- "जैन लगार" वाली जातियो क नाम दिये है। इनमें कालीन प्रतिमाओ व ताम्रपत्रीय अचल यत्रों का गृहपति, माहेश्वरी, अमाटी. नेमा आदि के नाम हैं। संग्रह है। ये प्रतिमायें १९२८ई. में ओरछा के महा- इनमे में कई मे बीमती गदी मे भी जैन मिन जाते राजा महेन्द्रसिंह द्वारा लार ग्राम के बदेलकालीन हैं। देनिा-यावं न कु. 17 मया, वर्षमान पुगण जैन मदिर के पास खुदाई से प्राप्त हुई थी इन प्रनि- के मोलहवे अधिार पर विपर, अनेमान, जन माओं के लेख प्राप्त नही हैं, पर नार के मंदिर के १९७४, पृ. ५८-६४।
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१८, वर्ष ४६, कि० ३
अनेकान्त १५. सौरई के एक प्रतिमा विहीन मंदिर के लेख में Mathura (in "Mathura, The Cultural
निर्माता को पावती गोत्र का चंदेरिया बैंक का Heritage" Editor D.M. Srinivasan), 1989, लिखा गया है। नवलमाह चदेरिया ने भी वर्धमान Page 333 पूराण में अपना गोत्र "प्रजापति" लिखा है जो २८. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जन पुरुष और पद्मावती का अपभ्रश लगता है।
महिलायें, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७५ ई पृ. ६५-६६ । १६. बंदेलखड मे (चदेरी मडल के अलावा) परवार जाति २९. खंडेलवाल जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ।। के लेख १७वी शताब्दी से पाये जाते है। देखिए
३०. बहार के लेखो मे पोरवाल व पौरपट्ट दोनों शब्द "जिनमति प्रशस्ति लेख', कमलकुमार जैन छतरपुर,
वर्तमान परवार जाति के लिए ही प्रयुक्त किये गये मे फलचन्द्र मिशानशास्त्री को प्रभावना, पृ. ३०।
मालूम होते हैं। चंदेलकाल में यहाँ श्रीमाल मंडल दर्तमान मे बंदेलखंड में प्रमुख जैन जाति यही है।
के श्रावको का (श्रीमाल, प्राग्वाट, ओसवाल, पल्ली२०. बंदेलखड में बसने वाले गोलाराडे खरोआ व मिठौआ
वाल) आना नही था, ऐसा प्रतीत होता है। संभवतः दोनो ही श्रेणियो के थे। फिर भी कालांतर में वे
यहाँ अग्रवालो का आना भी नही था। एक धातु की सभी मिठौआ कहलाये । देखिए --गमजीत जैन, श्री
स. १३८६ की प्रतिमा छतरपुर मे है, जिसमे अग्रोतदि. जैन खरौआ समाज का इतिहाम, प्र. गयेलिया
कान्वय का उल्लेख है, पर हो सकता है वह अन्यत्र जैन धर्मार्थ ट्रस्ट, ग्वालियर, १९९० ।
से लाई गई हो। हरियाणा व श्रीमालमहल दोनों ही २१. कस्तूरचन्द्र कामलीवाल, खंडेलवाल जैन समाज का यहाँ से बहुत दूर है। वृहद् इतिहास, पृ. ३८ ।
३१. यशवंत कुमार मलैया, जैन साधुओं का कुटक अन्वय, २२. आ. भा. दिगम्बर जैन डायरेक्टरी, प्र. ठाकुरदास अप्रकाशित लेख । भगवानदास जवेरी, १९१४ ।।
३२. मित्र, पृ. ११८-१२७ । मदनपुर मे प्राप्त स. १२३६ २३. झम्मन लाल जैन न्यायतीर्थ, श्री लमेंच दि.जैन के पृथ्वीराज के दो लेखों में भी जेजाभक्ति को लटे
समाज इतिहास, १९५१ एव रामजीन जैन, जैसवाल जाने का उल्लेख है। जंन इतिहास, १९८८।
३३. मित्र, पृ. १३९ । २४. यशवत कुमार मलया, गोलापूर्व जाति के परिप्रेक्ष्य ३४.R.C. Majumdar (Ed.), The History and मे, प. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनदन प्रथ, १९६०
Cultural of lodian People : The Struggle पृ. १०३-१६०।
for Empire, P.69. २५. दिगम्बर जैन डायरेक्टरी। २६ यशवंत कुमार मलैया, वर्धमान पुराण के सोलहवें
C Computer Science Department अधिकार पर विचार, अनेकांत, वर्ष २५, अ. २,
Colorado State University अगस्त १९७४, पृ. ५८-६४ ।
Fort Collins Co 80525 २७. N. P. Joshi, Earlp Jain Icons from
USA
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केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर की तीर्थङ्कर नेमिनाथ की मूर्तियाँ
0 श्री नरेश कुमार पाठक
नेमिनाथ या अरिष्टनेमि नेमि इस अवसपिणी के समवशरण नेमि ने अपना पहला धर्मोपदेश भी दिया। २२वे जिन हैं। द्वारावती के हरिवंशी महाराज समुद्र नेमि को निर्वाण स्थली भी उज्जय। गरि है। नेमिनाथ विजय उनके पिता और शिवा देवी उनकी माता थी। का लाछन शख है, यक्ष-यक्षी गोमेद एवं अम्बिका या शिवा के गर्भकाल मे समुद्र विजय सभी प्रकार के अरिष्टो (कुष्माण्डो) है। से बचे थे तथा गर्भावस्था मे माता ने अरिष्ट चक्र ने मि
केन्द्रीय सग्रहालय गूज महल ग्वालियर मे २२खें का दर्शन किया था, इसी कारण बालक का नाम अरिष्ट
तीर्थदुर नेमिनाथ की दो प्रतिमाये सुरक्षित हैं, जिनमे त
एक पद्मासन मे एव एक कायोत्सर्ग मुद्रा मे निर्मित है, नेमि या नेमि रखा गया। समुद्र विजय के अनुज वसुदेव
सुरक्षित प्रतिमाओ का विवरण इस प्रकार है :की दो पत्नियां रोहिणी और देवकी थी। रोहिणी से
पद्मासन :--यह प्रतिमा पुरातत्त्व सप्ताद के समय बलराम और देवकी से कृष्ण उत्पन्न हुए। इसी प्रकार
संग्रहालय को उपलब्ध हुई थी, इसका प्राप्ति स्थान कृष्ण एवं बलराम नेमि के चचेरे भाई थे। इस सम्बन्ध
ग्वालियर ही है। २२वे तीर्थङ्कर नेमिनाथ पद्मासनस्थ के ही कारण मथुरा, देवगढ, कुम्भ रिया, विमलसही एव
मुद्रा में निहित है। (स. क्र. ६८३) तीर्थकर का दाया लणवसही के मतं अकनो मे नेमि के साथ कृष्ण एव बल
पर आशिक रूप से भग्न है। सिर पर कुन्तलित केश राम भी अंकित हुए। कृष्ण और रुक्मिणी के आग्रह पर
सज्जा, कणंचार, पीछे चत्र के आकार को प्रभावली है। नेमि राजीमती के साथ विवाह के लिए तैयार हुए।
पापर्व में दोनो और एक-ए, पमान मे जिन प्रतिमा विवाह के लिए जाते समय नेमि ने मार्ग मे पिंजरो मे बंद
अंकित है। विनान मे त्रिछत्र, दुभिक विद्याधर युगल, जाल पाशों में बंधे पशुओं को देखा। जब उन्हें यह ज्ञात
अभिषेक करते हा गजो का शिल्पाकन है। पादपीठ पर हुआ कि विवाहोत्सव के अवसर पर दिये जाने वाले भोज
दोनों पाश्र्व में चावरधारी है जिनके मुख भग्न हैं। एक के लिए उन पशुओ का वध किया जाएगा तो उनक हृदय
भूजा मे चावर एक भुजा में कटियावलम्बित है। वे यज्ञोविरक्ति से भर गया। उन्होंने तत्क्षण पशुओ को मुक्त कग
पवीत, केयर, बलय, मेखला पहने हुए है। पादपीठ पर दिया और बिना विवाह किये वापिस लोट पड़े और साथ
नीच सामन मुख किये सिंह, मध्य म चक्र एव एक पूजक दीदीक्षा लेने के निर्णय की भी घोषणा की, नाम के प्रतिमा अजलीहस्त मुद्रा में बैठी हई है। परिकर में गज, निष्क्रमण के समय मानवेन्द्र, देवेन्द्र, बलराम एव कृष्ण सिंह, मकर, व्याल व हार लिए संचिका बडी।। पादउनको शिविका के साथ-साथ चल रहे थे। नेमि ने उज्ज- पीठ के नीचे दायें पर्व में यक्ष गोमेद और बायें पावं में यत पर्वत पर सहस्रार उद्यान मे अशोक वृक्ष के नीचे अपने
यक्षी अम्बिका है, जो दायी मजा मे आम्रलुम्बी एव बायो आभरणो एव वस्त्रो का परित्याग किया और पंच मुष्टि
भुजा से गोद में लिए बच्चे को सहारा दिये हुए है। सफेद मे केशो का लुचन कर दीक्षा ग्रहण को। ५४ दिनो की
बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा का आकार १३५०५ तपस्या के बाद उज्जयत गिरि स्थित रेवतगिरि पर बेतस
४३० से. मी. है। कलात्मक अभिव्यक्ति दृष्टि से ११वी वक्ष के नीचे नेमि को केवल्य प्राप्त हआ। यही देव निर्मित
(शेष पृ० २० पर)
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सुख का सच्चा साधन : बारह भावना
(लेखक : क्षल्लकमणि श्रीशीतलसागर महाराज)
सबसे प्राचीन-भाषा प्रावृत मे, जिसे 'अणु वेक्खा', दीयन्नाभिरय ज्ञानी, भावनाभिनिरन्तरम् । संस्कृत में जिमे 'अनुप्रक्षा' और हिन्दी में जिसे 'भाबना' इहैवाप्नात्यनातक, सुखमत्यक्षमक्षयम् ।। रहते है, वह बारह भेद वानी है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अर्थात् इन बारह भावनाओ स निरन्तर शोभायमान 'बारसाणवेक्खा' नामक शास्त्र में इसका महत्व प्रदाशत होता हा ज्ञानी व्यक्ति, इसी लोक मे रोगादिक की करते हुए लिखा है :--
बाधा रहित अतीन्द्रिय और अविनाशी सुख को प्राप्त कि पलवियेण बहुणा, जे सिद्धा णर वरा गये काले ।
करता है। सिज्झिहदि जे वि विया, तज्जाणह तस्स माहप्प ॥१०॥
आगे भी आचार्यश्री लिखते हैंअर्थात् अधिक कहने से क्या प्रयोजन ! जितने भी
विध्यति कषायाग्नि, विगलति गगो विलीयते ध्वान्तम् । महापुरुष सिद्ध हुए है और आग •विष्य काल में भी सिद्ध
उन्मिपति बोध-दीप्पो, हृदि पुसां मावनाऽभ्यासात् ।। होग, वह सब बारह-भावना का ही माहात्म्य है।
अर्थात् इन बारह भावनाओ के अभ्यास से, भव्यज्ञानार्णव-महाशास्त्र मे, श्रीशुभचन्द्राचार्य ने इनका
पुरुषो को कषाय रूपी-अग्नि शान्न हो जाती है, राग गल माहात्म्य इम प्रकार वरिण किया है -
जाता है, अज्ञानरूपी अन्धकार विलीन हो जाता है तथा (पृ० १६ का शेषाश)
हृव मे ज्ञानरूपी दीपक का प्रकाश विकसित होता है। शताब्दी की कच्छपधातु युगीन शिल्प कला के अनुरूप इतना बतला देने पर भी आचार्य श्री को जब सतोष प्रतीत होती है।
नहीं हुआ तो वे, हम संसारी जीवो को इन बारह भावना कायोत्सर्ग:-ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त गभग १३वी के प्रति और भी आस्था दृढ करने के लिए लिलते है-- शती ईसी को तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग एता द्वादश-भावनाः खलु सखे | सख्यऽपवर्गश्रियस्, मुद्रा में निर्मित है। (स. क्र. ११७) कर के सिर पर
तस्याः सगम-लालसं, घंटयितु मंत्री प्रयुक्ता बुध. । कूलित कश राशि, लेम्बे कर्ण चाप, सिर के पीछे प्रभा- एताम् प्रगुणीकृतामु नियत, मुक्त्यगना जायते, वली, त्रिछत्र, दुन्दभिक दोनो ओर भालाधारी विद्याधर
सानन्दा प्रणयप्रसन्न-हृदया योगीश्वराणां मुदे । तीर्थकर क पावं म चावरधारी परिचारक खड़े है, जो
अर्थात् हे मित्र ! हे भव्यात्मा ! ये बारह भावनायें एक भुजा मे चावणे दूसरी भुजा कटियावलम्बित है।
निश्चय से मुक्तिरूपी लक्ष्मी की सखी-सहेलियाँ हैं। मोक्षदोनो और दो स्तम्भ जिस पर गज धालो का अकन है।
रूपी लक्ष्मी के सगम की लालसा रखने वाले बुद्धिमानों ने पादपीठ पर तीर्थकर नेमिनाथ का लाछन शख तथा उसकी
इन्हें, मित्रता करने के लिए प्रयोग रूप से कहा है। पूजा करते हुए स्त्री पुरुष स्थित हैं। एस. आर. ठाकुर ने
इनका अभ्यास करने से मुक्ति रूपी स्त्री आनन्द सहित इस प्रतिमा को जैन तीर्थंकर लिखा है।
स्नेहरूप प्रसन्न हृदय वाली होकर योगीश्वरो को आनन्द सन्दर्भ-सूची १. तिवारी मारुतिन-दन प्रसाद, जैन प्रतिमा विज्ञान
देने वाली होती हैं। वागणसी १६८१, पृ. ११७ ।
स्वामी कार्तिकेय ने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा के प्रारम्भ २. ठाकूर एस. आर.. केटलाग अ.फ स्कान नही में लिखा हैआर्केलाजिकल म्यूजियम ग्वालियर एम. बी. पृ. २१,
"वोच्छ अणुपेहाओ, भविय-जणाणद-जणणीओ" क्रमाक ५।
अर्थात् मैं भव्यात्माओं को आनन्द उत्पन्न करने वाली जिला संग्रहालय, शिवपुगे (म.प्र) अनुप्रेक्षाओ को कहता हूं।
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सुख का सच्चा साधन : बारह भावना
गाथा ४८ को अन्तिम दूसरी पक्ति मे लिखा है
भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशीलः । "जो पढ़इ सुणइ भावइ, सो पावइ उत्तम सोक्ख' हेयाऽऽदेयाऽशेष-तत्त्वाऽवबोधी, अर्थात् जो भव्य जीव इन बारह भावनाओ को पढ़ता
सिदि सद्यो याति सध्वस्त-कर्मा ।। है सुनता है और बार-बार चिन्तवन करता है वह उत्तम अर्थात भक्ति पूर्व: जो भव्यात्मा, ध्यान स्वभाव मोक्षसुख को प्राप्त करता है।
वाला होता हुआ, इन बारह भावना का सदैव ध्यानआचार्य सकल कीर्ति रचित पावचरित सर्ग पन्द्रह का चितवन करता है, वह हेय व उपादेय तत्वो का ज्ञानी, निम्न श्लोक सरूपा १३६ भी इस सम्बन्ध मे ध्यान देने शीघ्र ही कर्मों का नाश करके सिद्धि को प्राप्त करता है। योग्य है। आचार्य श्री लिखते हैं
श्री प. जयचन्दजो छाबडा ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सकल-गुण-निधानाः, सर्व-सिद्धान्त-मूला, टीका करते हुए अनुप्रेक्षा के सम्बन्ध मे लिया है कि
जिनवर-मुनि-सेव्याः, राग-पापारि-हन्त्रीः । पढउ पढावह भव्यजन, यथा ज्ञान मन धारि । शिवगति-सुखखानी, सिद्धयेर्मुक्तिकामा,
करह निजंग कम को, बार-बार सुविचारि ॥ अगवरनमन्प्रेक्षा, भजध्व प्रयत्नात् ।। अर्थात् है भव्य-आत्माओ ! अपने क्षयोपशम के अनुअथात् हे मुक्ति की कामना करने वाले मुमुक्षुओ! सार इन बारह भावनाओ को मन मे धारण करके, स्वयं ये बारह भावनायें, मकल गुणों को भण्डार है, सम्पूर्ण पढो एव दूमरो को भी पडात्री । माथ ही इनका बार-बार मिद्धान्तो की मूल है, जिनवर तथा मनिवरो के द्वारा चितवन करके, कर्मों की निर्जरा करो। सेवनीय है, राग व पाप रूपी का विनाश करने वाली पडित सदासुखजी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार को टोका हैं एव मोक्ष अवस्था में होने वाले अतीन्द्रिय-सूख को खान मे इन बारह भावनाओ का महत्व इस प्रकार प्रदशित हैं प्रताव मिद्ध पद की प्राप्ति के लिए इन्हे निरन्तर किया है-.. भजो लगातार चिन्तबन करो।
___ "इन का स्वभाव भगवान तीर्थंकर हू चितवन करि श्रीमत् सोमदेव मूरि विरचित यशस्तिलक चम्प के समार देह भोगनि ते विरक्त भय है तात वे भावना वैराग्य द्वितीय आश्वाम मे भी, बारह भावना का वर्णन है, वहाँ की माता है, समस्त जीवनि का हित करने वाली है, इनका महत्व बनाते हुए जो लिखा है उसका भाव यह है अनेक दुखनि करि व्याप्त ससारी जीवान के ये भावना कि-"ये बारह भावना; अठारह हजार शील के भदो में ही भला-उत्तम शरण है। दुखरूप अग्नि करि तप्लायप्रधान और समार समुद्र से पार करने के लिए जज की मान जीवनि कू शीतल पवन का मध्य में निवास समान घटिकाओ के समान है।"
है, परमार्थ माग के दिखावने वाली है, तत्वनि का निर्णय रयणसार-गाथा १०० के अन्त में भी लिखा है- करावने वाली हैं। इन द्वादश भावना सगान, इस जीव "अणुपेहा भावणा जुदो जोइ" अर्थात जो जोगी-महात्मा है का अन्य हितकारी नाही है, द्वादशाग को सार है।" वह अनुप्रेक्षा की भावना से युक्त होता है। बार-बार कविवर दौलतरामजी ने भी, निम्न दो सखी छन्दा मे अनुप्रेक्षाजों का चिन्तवन करने वाला होता है। इनका माहात्म्य बताया है
सर्वोपयोगी प्रलोक संग्रह पृष्ठ ५८० पर जो उल्लेख है "मुनि सकल-व्रती वड़ भागी, भव भोगनते वैरागी। उसका भाव यह है कि-बारह भावना काचिन्तयन करने वर उपावन माई, चिौ अनुप्रेक्षा भाई ।। से साधु पुरुष (धमण, महात्मा) धर्म में महान उद्यमी इन चिनन सम-सुख जाग, जिमि ज्वलन पवनके लागे। होता है तथा इनसे कर्मों ना महान् सवर होता है।
जबहि जिय आतम जान, तबही जिय शिव-मुख ठानं ।। अमिन गति श्रावकाचार अध्याय चौदह का श्लोक ८२ अर्थात् हे भाई ! महाव्रतो को धारण करने वाले वे भी इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य है
मुनि-महात्मा महान् भाग्यशाली है जो कि भव-समार योऽनुप्रेक्षा द्वादशापोति नित्य,
और भोगों से वैरागी होते है तथा वे वैराग्य को उत्पन्न
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२२, वर्ष ४६, कि०३
करने-बढाने के लिए, माता के समान बारह भावनाओ ) में इस विषय को इस प्रकार समझाया हैका चितवन करते रहते हैं। इन बारह भावनाओं के 'सुदत्यस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहरु णाम चितवन करते रहने से ममता रूपी मुख की बढवागे होती पर्थात् सुने हुए अर्थ का, श्रुत के अनुसार चिन्तवन करना है, जिस प्रकार से अग्नि के हवा लगने से मग्नि प्रज्वलित- 'बनूप्रेक्षा' है। मर्थिसिद्धि अध्याय सूत्र २५ की टीका देदीप्यमान होती है । इन बारह-भावना के विशेष चितवन में भी इसका विवेचन है । वहाँ लिखा है . 'अधिगतार्थस्य करने से हो, ससारी-जीवात्मा अपने असली स्वभाव को मनसाऽध्यासोऽनुप्रेक्षा' अर्थात् जाने हुए पदार्थ का, मन मे जानता है और नबी यह जीवात्म। एक दिन मोक्ष सुख बार-बार अभ्यास करना 'अनुप्रेक्षा' है। को प्राप्त कर लेता है।
वास्तव में किसी भी विषय को पुन -पुनः चिन्तवन कविवर भंया भगवती दास जी ने भी स्वचित करना 'अनुप्रेक्षा' है। मोक्षमार्ग में वैराग्य को बढ़ाने के बारह भावना के अन्त मे लिखा है
लिए, बारह प्रकार के विषय के चितवन रूप बारह ये ही बारह भावना सार, तीर्थकर भावहि निरधार ।
प्रकार की अनुप्रेक्षा का कयन जंग शास्त्री म पाया जाता है वैराग्य महाव्रत लेम, तब भवभ्रमण जना देहि॥ है। इन्हे बारह भावना कहन है। इनके चिन्तवन से अर्थात् ये अ नत्यादि बारह भावना ही श्रेष्ठ उत्तम
व्यक्ति, ससार, शरीर और भोगो से वैगी-उदासीन है, जिन्हे होने वाले तीर्थकर भगवान भी निश्चय मे चिन- होकर मन्यास दशा को अगीकार करता है। यह अवस्था वन करते है। इनसे वैराग्य को प्राप्त करके महाब्रतो को आत्म-शान्ति व मुक्ति का प्रधान कारण है। धारण करते है पश्चान् जन्म-मरण मे छुटकारा प्राप्त
आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षाओ के क्रम में कुछ करते है।
अन्तर पाया जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य न इनका क्रम इस प्रकार अनेक आचार्यों एव अनेक कवियों ने इस प्रकार रक्खा है-१. अधब, २. अशरण, ३. एकन्व,
रामाय बोडा इन स्वरूप ४. अन्यत्व, ५. ससार, ६. लोक, ७. अशुचित्व, ८ आस्रव प्रादि की और भी दृष्टिपात करे।
१. सबर, १०. निर्जरा, ११. धर्म और १२. बोधि । अनु++ा इन तीनो के मेल से अनुप्रेक्षा'
श्री उमा स्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र में इनका शब्द बना है। पुन: पुन: प्रकर्ष रूप में देखना, अवलोकन
कम इस प्रकार रक्खा है -१. शानिन्य, २. अशरण, करना, चितवन करना इसका अर्थ होना है।
३. ससार, ४ एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुवि, 3. आसव, श्री उमा स्वामी अचार्य न नत्यार्थ सूत्र अध्याय ९ सूत्र .
८. सबर, ६. निर्जरा, १०. लाक, ११. बाधिदुर्लभ और सात मे इम विपथ को इस प्रकार से समझाया है-'स्वा- १२. धर्म। ख्यातत्त्वानुनितनमनुप्रेक्षा' अर्थात् इन अनित्य आदि बारह
स्वामी कार्तिकेय ने भी कार्तिकेयानप्रेक्षा में इसी प्रकार के कह गये तत्त्व का बार-बार चितवन करना पिछले क्रम को अपनाया है। 'अनुप्रेक्षा' है।
लगभग सभी आचार्यों एवं कवियों ने इस पिछले क्रम श्री अकलक देव मूरि ने भी तत्वार्थ राजवाति मे को ही अपनाया है। हो सकता है आचार्य कुन्दकुन्द के उल्लेख किया है--
'वारसणवेश्खा' का अन्वेषण देरी में हुआ हो। किसी-२ "शरादीनां स्वभावानुदिननमनुप्रेक्षा वेदितव्या." ने ग्यारहवे नाम की बारहवां और बारहवे नाम को ११वा अर्थात् शरीर आदि के स्व-नाव का बार-बार चिन्तन करना भी लिखा है । अघ्र व और अनित्य ये पर्यायवाची शब्द । अनुप्रेक्षा है ऐमा समझना चाहिए ।
जितने भी कर । मोक्षगामी भव्य-पुरुष हुए हैं 'अनप्रेक्षा' यह स्वाध्याय नामक अतरग तप के चौथे और होगे वे मब इन बारह अनुप्रेक्षाओ-भावनाओ का चितभेद रूप में भी प्रयुक्त हुआ है । धवला (१४१५, ६, १४, वन को ही हुए और होगे। इत्पलम्
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श्रीलंका में जैनधर्म और अशोक
श्री राज मल जैन, जनकपुरी, दिल्ली दक्षिण भारत मे जैनधर्म के अस्ति-व के लिए श्रीलका कुछ तथ्य इस काव्य के Greiger के अंग्रेजी अनुवाद के के बौद्ध महाकाव्य महावशो के आधार पर प्राय: मभी आरार पर संक्षेप मे यहाँ दिए जाते हैं। इतिहासकार इस बात से सहमत है कि ईमा से पूर्व की (१) बुद्ध मे पहले श्रीलका का एक नाम गाग द्वीप चौथी शताब्दी मे जैनधर्म दक्षिण मे फैल चुका होगा भी था। क्योकि श्रीलका उपर्य त ग्रंश में यह उल्लेख है कि वहाँ (२) शाक्यमुनि को यह ज्ञान हुआ कि उनना धर्म श्रीलंका के राजा पांडकामय (ईमा पूर्व ३३७-३७८) ने निरपयो मे फैलेगा। इमाि उन्होंने श्रीलका को तीन बार (जैनो) के लिए एक भवन तथा क मन्दिर का निर्माण यात्रा की थी। जब वे यहाँ गा तब कल्याणी (कोलबों करवाया था। यह गक भौगोनिक पथ्य है कि किमी ममय पाम को एक नदो) प्रदेश में एक नाग गजा राज्य केरल और श्रीलका जुडे हा थे। स्पष्ट है कि जैन वहाँ करता था। उस समय बुद्ध ने हवा में उडते हुए पर केरल होते हुए पहुंचे होगे । पांडगमय और चन्द्रगुप्त यक्स (Yakkha) लोगो के मन मे वर्पा, तूफान मौर्य (राज्यारोहण ३२० ईसा पूर्व) ममकालीन थे। जैन बादि के द्वारा भय उत्पन्न किया और उन्हें गिरिसम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने २५ वर्ष राज्य कर सिंहासन दीप मे भगा दिया .. नाग और असर लोगो के त्याग दिया था। यदि पाइका य से पहले धोलका पहुचन परमोपकार के लिए बुद्ध ने श्रीलका की तीन यापाये मे जनधर्म को एक सौ वर्षों का भी समय लगा हो तो भी की थी। यह मानने मे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि श्रीलका (३) महावमो के अनुसार बग (बगाल) देश के राजा की मे जैनधर्म ईमा मे ५०० वर्ष व अर्थात् महावीर स्वामी
पुषी का पुत्र सिंहबाहु था। उसके पुत्र विजय को के निर्वाण के कुछ सान गद हो श्रीलका मे पहुच चुका दुराचारी होने के कारण राज्य में निकाल दिया था। उपलब्ध जानकारी के अनुमार पाडुकमय का गया। वह ७०० साथियों व स्त्रिगे, उच्चो महित राज्याभिषेक बुद्ध निर्वाण के १८६ वर्ष बाद हुआ पा श्रीलका पहुंचा। यह घटना इतिहासकार ईगा में और अशोक के पुत्र महेन्द्र द्वार। बौद्धधर्म क. श्रीलंका मे ५०० वर्ष पूर्व हुई मानते हैं। बच्ने जहा उतरे वह प्रचार बुद्ध निर्वाण के २३६ वर्ष बाद प्रारम्भ हया था। नागदी था। थी ग्रीगर ने नाग का अर्थ Naked इसका अर्थ यह धुआ कि श्रीलका मे जैनधर्म का अस्तित्व किया है। महेन्द्र से १० वर्ष पूर्व भी था।
(४) इमी कार में यह उल्लिमित है कि नो नद गजाओ इतिहासकार यह मानते है कि अशोक ने श्रीलका मे के बाद मगध का साम्राज्य चन्द्रमान मौर्य को प्राप्त बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और हुआ। उसे पूरे जबूढीप का स्वाहा गया है। पुत्री संघमित्रा को श्रीलका भेजा था और वहां के राजा (५) महावंसो के प्रथम अध्याय मे यह उल्लेख भी है कि देवानांपिय निरस (ईसा पूर्व २५०-२१०) ने उनका बुद्ध को यह ज्ञात था कि महोटर (मामा) और चलोस्वागत किया था तथा बौद्ध धर्म फैलाया था। यह घटना दर (मानजा) मे युद्ध होगा। महोदर की बहिन का ई० पू० तीसरी शताब्दी की है।
विवाह एक नाग राजा से बहुमान पर्वत पर हुआ अब महावशी के आधार पर इस प्रमग से संबधित था। बहुमान वर्धमान का प्रा!त रूप है। महावीर
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२४, बर्ष ४६, कि०३
अनेकान्त
के मात-पिता ने अपने पुत्र का नाम वर्धमान रखा अनुवाद कर दिया गया है कि अशोक ने बुद्ध की पूजा की। था। इस प्रकार श्रीलका मे महावीर का यश पहले शायद यह अशोक का सबसे छोटा? लेख है। इसका ही फैल चुका था।
नो पक्तियो का लेख तो गिरनार का है जिसमें उसने (६) उपर्यवत ग्रन्थ (१५-६२) के ही अनुमार श्रीलका के केवल इसी बात पर जोर दिया है कि लोग अपने सप्रदाय
एक स्थान का नाम वर्धमान था जो कि महामेघवन की प्रशसा और दूसरे संप्रदार की निंदा नहीं करें। ऐसा (अनुराधपुर के निकट) के दक्षिण की ओर स्थित था। करके वे अपने ही संप्रदाय का हनन करते हैं। क्या यह
एक यह तथ्य भी विचारणीय है कि मिहली भाषा मे नेमीनाथ को निर्वाणस्थली की प्रेरणा थी? आश्चर्य की प्राकृत भाषा के तत्व पाए जाते हैं। श्री सिल्वा के अनु- एक बात यह भी है कि बुद्ध की जन्मस्थली वो यह यात्रा सार प्राकृत का एक भेद सिंहली प्राकृत भी है । प्राकृत का अशोक ने कलिंग युद्ध (जब उमका बोद्ध हो जाना बताया सबध जनो मे है यह सभी जानते हैं। बौद्धों को प्रिय जाता है) के बारह वर्ष बाद की थी। अपने उपास्य की भाषा पाली है। प्राकृत नाग लोगो की भाषा रही होगी पवित्र भूमि के दर्शन मे इतनी देगे। जो कि व्यापारी थे।
अशोक शिलालेखो का अध्ययन करने के पश्चात् डा. प्रो० सिल्वा नामक श्रीलका के इतिहासकार ने लिखा हरेकृष्ण मेहताब ने लिखा है-"अशोक के सारे अनु. है कि वहाँ मोरिय नामक जाति प्राचीन ममय मे बसनी शासनो का अध्ययन करने पर विस्मित होना पडता है। थी और उसका चिह्न मयूर अथवा मोर था। चन्द्रगुप्त वह विस्मयकारक विषय यह है कि उन्होने बौद्धधर्म-प्रचार मौयं भी इसी जाति का था और उसकी वजा पर भी के प्रसार की कथा का कही भी उल्लेख नही किया है।" मोर का ही चिह्न था। अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार अशोक के चार-पाच लेखो मे २५६ अक आया है था यह भी भ्रामक कथन है। प्रो० सिल्वा (Silva, K. जैसे गुजंग (जिला दतिया), रूपनाथ (जिला जबलपुर), M. De, A History of Shri Lanka, O.UP. P. पानगुडरिया (जिला सीहोर) आदि । कुछ में उसके पहले 10-110 ने यह मत व्यक्त किया है कि --- ''Though सावन शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु उसका भी अर्थ Buddhist sources have naturally endeavoured श्रावण को भूलकर उसके पड़ाव का २५६वां दिन कर to associate Ashok with the Third Council, दिया गया है। वास्तव में वह महावीर निर्वाण सवत् he does not refer to it anywhere in his ins- २५६ है। कोई भी यह गणना करके स्वय इमकी परीक्षा criptions not even in those relating specifically कर सकता है। महावीर का निर्याण ईसा मे ५२७ वर्ष to the Sangha." सबंधित परिषद ईसा से २५० वर्ष पूर्व हुआ था। पहला सवत् ५.६ मे पूर्ण हुआ। इसमें से पूर्व पाटलिपुत्र में हुई थी। कुल चार पक्तियो मे बुद्ध के २५६ घटाए तो २७० सख्या आई । अशोक का समय ईसा जन्म स्थान पर उत्कीर्ण लबिनी के छोटे से शिलालेख मे पूर्व २७४ से २३२ के लगभग है। इस प्रकार यह स्पष्ट भी अशोक का नाम नही है। उसमे केवल इतना ही लिखा होगा कि ईमा पूर्व २७० वह मन है जब अशोक राज्य है कि यहां शाक्यमुनि का जन्म हुआ था, इसलिए इस कर रहा था। ग्राम से छटे भाग के स्थान प' आठवां भाग करके रूप में अशोक के दिल्ली या सप्तम लेख मे यह लिखा है कि लिया जाए। बुद्ध को अपना उपास्य मानने वाले सम्राट वृक्ष लगाए गए हैं जो मनुष्यों तथा पशुओ को छाया के लिए यह बहुत बडो छुट नही है, वह शत प्रतिशत हो प्रदान करेगे। जीवधारी अवश्य हैं। उसके धर्म नियम ये सकती थी। इसके अतिरिक्त इस लेख की क्रिया “मही- किसी जीव की हिंसा न की जाए । किसी जीव को आघात यित" का अर्थ भी सम्भवत: गलत लगाया गया है। न पहुंचाया जाए। क्या ये भावनाएँ बौद्ध धर्म के अनुसार उसका प्राथमिक प्रथं To delight, gladden or to be हैं जिसके प्रवर्तक ने स्वयं मास भक्षण किया था और अपने glad है जब कि उसका गौण अर्थ worship लेकर यह अनुयायियों को तीन प्रकार के मांस भक्षण की अनुमति
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श्रीलंका में जैनधर्म और अशोक
स्वयं दी थी। यदि यह अनुमति नहीं होती, तो बौद्धधर्म दोनों ही परंपराओं के इतिहास के समुचित ज्ञान के अभाव विदेशों मे नहीं फैल सकता था।
में हई जान पड़ती है। यदि कोई बौद्ध सघ महापरिडॉ. ही गलाल जैन (भारतीय संस्कृति मे जैनधर्म का निव्वाणमुत्त पढे, तो यह ज्ञात होगा जि गौतम बुद्ध ने योगदान पृ० ३०६) लिखते हैं - "बराबरी पहाडी की दो अपने शिष्य प्रानन्द को यह निर्देश दिया था कि उनके गुफाएँ अशोक ने अपने राज्य के १०वें वर्ष में और तीसरी धर्म के संघ का मंगठन वैशाली संघ के मगठन के आधार १९वें वर्ष में निर्माण कराई थी।" बराबरी पहाडियां पर किया जाए। इस गणता मे महावीर का जन्म हमा बिहार मे हैं। ये गुफायें बौद्धों के लिए नही अपितु था और वे बुद्ध से आयु मे बड़े किन्तु उनके समालीन आजीविको के लिए निर्मित कराई गई यो जो कि जैन थे। उन्होंने चतुर्विध संध के रूप मे अपने अनुयायियो को धर्म के निकट थे।
मगठिन किया था जिनमें मुनि, आपिका (माध्वी), श्रावक प्रसगवश यहां एक जैन कथा का उल्लेख किया जाता और श्राविका अर्थात् गहरथ स्त्री और पुरुष होते है। है जिसका उद्देश्य यह बताना है कि एक बिदी लगा देने आज भी यह मघ व्यवस्था जीवित है। संघ बौद्धधर्म का से कितना अनर्थ हो सकता है। अशोक ने एक पत्र अपने ___ मौलिक लक्षण नहीं है। पुत्र कुणाल के नाम लिखा जिसमे यह कहा गया था कि यदि निष्प रक्षिता मम्बन्धी कथा को छोड़ दें तो भी कुमार अब पढे (अघीयताम्) । परन्तु यह पत्र उसकी बौद्ध यह तथ्य ही उभरता है कि अशोक अपनी पिछ नी और रानी तिष्यरक्षिता के हाथ पड गया। उसने एक बिंदी अगली पीढियो को भाति जैनधर्म के सिद्धांतो मे विश्वास लगाकर अधीयताम् कर दिया। जब यह पत्र कुणाल के रखने के मात्र ही साथ अन्य धर्मों के प्रति महिष्ण था। पास विदिशा पहुचा, तो अशोक के आदेशानसार कृणाल शायद यही कारण है कि उसने अपने शिलालेखों में वाहाण की आखें फोड दी गयी। कुणाल ने सगीत सीखा और श्रमण, आजोधिका (जो जैनधर्म मे बहन अधिक माम्य पानिपुत्र आकर महल के नीचे बैठकर अपना मधुर रखने थे) और निम्रन्थ (जैन) आदि का स्मरण किया है। संगीत प्रारम्भ किया। उसे सुनकर प्रशोक ने उसे महल शिलालेखो की शब्दावनी भी जैनधर्म के अधिक निगट मे बुलवाया किन्तु जब उसे अपने पुत्र की दुर्दशा का है। कुछ उदाहरण है-बाचागुरित, मनोधि, मादव, शुचि कारण माल म हआ, तो उसने तिष्य रक्षिता को जिदा (कोच), धम्म म गलम् (जैन लोग पनि दिन चार प्रकार जला देने का आदेश दिया किन्तु कुछ शान्त होने पर के मगलम् का उच्चारण ज भी करते है)। युद्ध शब्द उसने रानी, उमके पुत्र महेन्द्र और पुत्री सघमित्रा को देश प्रयोग भी जैनधर्म मे friजाता है। प्रसिद्ध पुर। नवनिद निकाला दे दिया और वे श्रीलका पहचे । विमाता के षड-डी० सी० गरकार मामा है -“The Jain stunts arc यत्र सम्बन्धी यह कथा असम्भव तो नहीं लगती है। sometimes called Bauddhas, Kcvlin, : uddha, कुणाल से अशोक ने वर मा.ने को कहा । कुणाल ने अपने Tathagata and Arhat." (P. 29, Select Ins. पुत्र सप्रति के लिए राज्य मांगा और अशोक ने संप्रतिको criptions) अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तथा अठ वर्षों शोक ने पूरे भारत और गदर या देशो तक तक सप्रति के अभिभावक के रूप में राज्य किया। कुणाल मे मनुष्यो तथा पशुग्री के लिए छायादार पेड लगवात अधा हो गया था यह तो ऐतिहासिक तथ्य है।
और चियालय खोले किन्तु श्रीलका मे ऐसा कुछ भी पुरातत्वविद डा. कृष्णद न बाजपेयी ने यह लिखा है नही क्यिा। वह अपर शिलालेखो मे श्रीला का नाम कि तिष्य रक्षिता के जाली पत्र के सम्बन्ध मे सूचना बौद भानहीनता है यह आश्चर्य की बात है। अथ दिव्यावदान में भी उपलब्ध है।
अशोक -- ममय में बौद्ध धर्म सम्बन्धी स्पिति का सघ शब्द को लेकर इन शिलालेखो का सम्बन्ध आकलन दक्षिण भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध इतिहासकार अशोक से जोड़ा जाता है किन्तु यह घ्राति जैन और बौद्ध नीलकठ शास्त्री ने इस प्रकार लिखा है-"In the davs
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१२६, वर्ष ४६, कि०३
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of Asoka, Buddhism was followed only by an है। गलत रूपांतर को यह स्थिति वैसी ही है जसो कि obscure Minority in India like many other "सातकरिण" (आध्र प्रदेश का एक शासक) का अनवाद contemporary creeds .....Buddhism even in सात कानोवाला राजा अनुवाद कर देने से विद्वानों के the days of Asoka was not a state religion." सम्नुख उपस्थित हुई थी। विद्वानो को इस पर विचार
करना चाहिए। जो भी हो, इस पिलालेख से यह आशय अशोक के शिलालेख १२ (गिरनार' को लेकर यह
लेना चाहिए कि केरल मौर्य साम्राज्य के नीचे के भाग में कह दिया गया कि उसके ममय तक केरल मौर्य साम्रा
स्थित था न कि स्वतत्र राज्य था। ज्य के अन्तर्गत नही आया था क्योंकि वह उसका उल्लेख पड़ोसी राज्य के रूप में करता है। ऐसा कथन करने वाले
इधर कुछ शिलालेख ऐसे भी पाए गये हैं जिनके विद्वान जरा उसका शिलालेख १३ देखे । उसमे उसने
आधार पर यह कहा जाता है कि अशोक बौद्ध था। "निच" (नीचे) शब्द का प्रयोग किया है जिसका आशय
उसका एक आज्ञालेख ऐसा भी है जिसमे सात बौद्ध प्रथो
के नाम हैं। शिलालेख मे प्रथो के नाम सचमुच ही यह है कि चोड, पंड, तबपनिय आदि उसके राज्य के
आश्चर्य की बात है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रकार निचले भाग मे हैं। जो राज्य सचमुच स्वतंत्र थे, उनके लिए उसने "राजा" (आंतियको योनराज!) शब्द का
के लेख जानी हों। पुरातत्वविद इस बात को जानते हैं
कि जाली लेख या ताम्रपत्र भी पाए गये हैं। मास्को प्रयोग किया है। यदि निच पर ध्यान न दें तो भोज, अंध, पूलिंद, पितनिक आदि मारे ही राज्य जिनका उल्लेख (कर्नाटक) शिलालेख की प्रथम पक्नि मे अशोक का नाम शिलालेख १३ मे है, पहोमी राज्य हो जायेंगे। इसी है किन्तु इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए प्रकार केरलपुत्र की भी स्थिति समझनी चाहिए। वैसे कि इस लेख की पहली पक्ति मे असोकस्सोड देने मे मूल शिलालेख मे "सतियपूतो केतलपुतो" का प्रयोग हा कोई कठिनाई नहीं हुई होगी। कर्नाटक में बौद्ध धर्म है सतियपूतो से क्या आशय है इसका ठीक-ठीक निर्णय और जैनधर्म के इतिहास को जानने वाले इस बात से नहीं हो सका है। केतलपुतो का रूपांतर झट से केरलपुत्र परिचित हैं कि इन दोनो धर्मों में एक युग में तीव्र सघर्ष कर लिया गया है। लेख प्राकृत मे है और प्राकृत के हआ था। पूजनीय माने जाने वाले जन तकशास्त्री अकनियमो के अनुसार "संस्कृत का र वणं प्राकृत मे ड, ण लकदेव और वौद्ध आचार्य मे दीर्घ समय तक शास्त्रार्थ और र मे बदल जाता है।" (नमिचन्द्र शास्त्री, अभिनव चला था तथा बोट आचार्य उनके प्राणो के प्यासे हो गये प्राकृत व्याकरण, पृ० १२.)। अत यहाँ इन तीनो वर्णों थे। आश्चर्य नही कि अशोक का नाम बाद मे जोड दिया मे से कोई होना चाहिए था। अगर इसे अपवाद मान गया हो। बिहार की बराबर पहाडियो के शिलालेखो में लें तो भी केरलपत्र नाम का कोई शासक हुआ है या से "आजीविक" शब्द छेनी से काट देने का प्रयत्न किया किसी समय केरल का नाम केरलपुत्र रहा है यह बात गया है। शिलालेखो को घिस देने या उनके कुछ भागों गले नही उतरती है। कही ऐसा तो नही कि केरलपति को नष्ट कर देने के प्रयत्लो का आभास अनेक स्थानो पर को केरलपत्र पढ़ लिया गया है । एक बात और भी ध्यान होता है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में एक नो देने की है वह यह कि सस्कृत 'च' के स्थान पर प्राकृत फट ऊंचा शिवलिंग है जिसकी पूजा होती है। यह अशोक सानो जाता है। इस दष्टि से केतलपुतो का सस्कृत के एक शिलालेख को काटकर बनाया गया बताया जाता रूप चेरलए होना चाहिए । किन्तु हमे केरलपुत्र स्वीकार्य है। धार्मिक असहिष्णुता के युग मे सब कुछ सम्भव हुआ नही है। इसलिए यदि प्राकृत का सही पाठ चेरलाति गा माना जाए तो सारी आपत्तिया दूर हो जाती हैं। चेरल
(क्रमशः) या चेरलपित का प्रयोग तर्क और व्यवहारसगत लगता
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परिग्रह : मूर्छाभाव
0 श्री पनचन्द्र शास्त्री, नई छिल्यो कहते हैं सत्य बड़ा कडवा अमत है। जो इसे हिम्मत जैन' है. वे 'जिन' भी इसे न छोडेंगे और ना जैन ही करके एक बार पी लेता है वह अमर हो जाता है और छोडेगा। मोह, गगादि परिग्रह को छोडने से 'जिन' जो इसे गिरा देता है वह सदा पछताता है। हम एक हैं और उनका धर्म 'जन' ही में रहेगा। और जो 'जिन' ऐसा सत्य कहने जा रहे हैं जिसे जन-मानस जानता है- बनता जाएगा उसका धर्म जैन :ोता जाएगा। यह बात मानता नही और यदि मानता है तो उस सत्य का अन- बड़ी ऊँची और अध्यात्म की है अतः हम इसे यही छोडते गमन नही करता। उस दिन एक सज्जन मेरे हस्ताक्षर हैं। प्रसंग में ले जैन से हमाग आशय 'जिन' द्वारा लेने आ गए। दूर से आए थे, कह रहे थे---आपके सुलझे प्रमारित उम धर्म से है जो जीवो को समार के दुःखों से और निर्भीक विचारो को 'अनेकान्त मे पढ़ता रहता हूं। छड़ाकर 'जिन' बना सके -- म क्ष सुख दिला सके । क्योंकि कारणवश दिल्ली आना हुआ। सोचा आपके दर्शन करता इस धर्म का माहात्म्य ही ऐसा है कि जो इसे धारण चलू । उनके आग्रहवश मैंने हस्ताक्षर दे दिए। वे पढ़कर करना है उमीनो 'जन' या 'जिन' बना देता है कहा भी बोले-- ग्राप तो जैन है, आपने अपने को जैन नही लिखा- है-'जो अधीन को श्राप समान, कर न सो निम्बित केवल पद्म चन्द्र शास्त्री लिखा है। मैंने कहा-हाँ, मैं ऐमा पनवान ।' ही लिखता हूं। इससे आप ऐमा न समझे कि मैं इस समु- वर्तमान में अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मवयं की दाय का नहीं। मैं तो इसी मे पंदा हुआ हूं, बडा भी इसी जैसी धुंधली-परिपाटी प्रचलित है, यदि उममे सुधार आ में हुआ हूं और चाहता हूं मरूं भी यही। काश ! लोग जाय तो लौकिक-मानव बना जा सकता है। प्राचीन समय मुझे जैन होकर मरने दें ! यानी 'ये तन जावे तो जावे, की मुधरी परिपाटी ही आज तक समाज और देश को एक मुझे जन-धर्म मिल जावे।' मैंने कहा-पर अभी मुझे जैन सूत्र में बाधे रह सकी है। निःसन्देह उक्त नियमो के बिना या जिन बनने के लिए क्या कुछ, और कितना करना न तो समाज सुरक्षित रह पाता और ना ही देश का पडेगा? यह मैं नही जानता। हाँ, इतना अवश्य है कि उद्धार हुया होता । लौकिक सुख-शान्ति भी इन्ही नियमो यदि मैं मर्छा -- परिग्रह को कृया कर सकें तो वह दिन पर आधारित है। इसीलिए भारत के विभिन्न मतदूर नहीं रहेगा जब मैं अपने को जन लिख सकू।। मतातरो ने भी इन पर ही विशेष बल दिया। ताकि मानव,
जिन' और 'जन' ये दोनों शब्द आरास मे घनिष्ट मानब बन सके और लौकिक सुख-शान्ति से ओत-प्रोत रह सम्बन्ध रखते है। जिन्होन कमी पर विजय पाई हो, वे सके । पर अन तोय करों की दृष्टि पारलौकिक सुख तक 'जिन' होते हैं और 'जिन' का धर्म 'जन' होता है। मुख्यतः भी पहुंची। उन्होने जीवो को शान-रलोक-माक्ष का धर्म के लक्षण-प्रसग में 'बत्य सहाबो धम्मों' और 'य: मार्ग भी दर्शाया। उनका बताया मार्ग ऐसा है जिससे सत्वान संसार दुखत. उढत्य उत्तम (मोक्ष) सुखे धरति दोनो लोक सघ सकते हैं। वह मार्ग है-मानव से 'जन' सः धर्म.' ये दो लक्षण देखने में आते हैं। जहाँ तक प्रथम और 'जिन' बनने का, पूर्ण परिग्रह के छोड़ने का प्रर्थात लक्षण का सम्बन्ध है. वहां हमें कुछ नही कहना । क्योंकि जब स्यूल हिसा, झूठ, चोरी तोर कुशील का त्याग किया बड़ा तो 'जिन' का अपना स्वभाव हो 'जैन' कहलाएगा। जाता है तब मानव बना जाता है और जब परिग्रह की जैसे अग्नि का अपना अस्तित्व है वह उसके अपने धर्म सीमा बांधी या परिग्रह का त्याग किया जाता है तब आणत्व से है। न तो अग्नि उष्णत्व को छोड़ेगी और न 'जन' बना जाता है। जैनिया में जो दश धमाँ का वर्णन ही उष्णत्व अग्नि को छोड़ेगा। ऐसे ही जिनका यह धर्म है उनमे भी पूर्ण-अरिग्रह धर्म ही साध्य है, शेष धर्म उस
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२८, बर्ष ४६, कि०३
अनेकान्त
अपरिग्रह के परक ही है । कहा भी है
है। यानी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों में 'क्षमा मार्दव आर्जव भाव है, सत्य, शोच, सयम, तप, दान्त की लोभ कषाय पूर्व की कषायों मे कारण है। लोभ त्याग'उपाय' है। आचिन ब्रह्मयं धर्म दश सार हैं...।' (चाहे वह किसी लक्ष्य मे हो के होने पर ही क्रोध, मान
जब सत्य, शौच, संयम, तप और त्यागरूपी उपायो या मायाचार की प्रवृत्ति होगी। इसी प्रकार हिंगा, झठ, से मन को क्षमा, मार्दव, आर्जव रूप भावो मे ढाला जाता पोरी, शील, परिग्रह इन पाच पापो में भी अन का है तब आकिंचय (पूर्ण अपरिग्रह) धर्म प्राप्त होता है परिग्रह पाप पूर्व के पापों मे मूल कारण है। परिग्रह और तभी आत्मा-- ब्रह्म (आत्म') में सीन (नागप) होता (चाहे वह किसी प्रकार का हो) के होने पर ही हिंसा, झूठ, है। यह आत्मा में लीनता (नदूपता) का होना ही 'जिन' चोरी या कुशीन की प्रवृत्ति होगी। ये तो ह। पहिले भी या जैन' का रूप है। और इस प्राप्त करने के लिए निख चुके कि-'तन्मूला वंदोपानुषङ्गा'ममेदमिति, आस्रव से निर्वत्ति पाकर संवर-निर्जरा के उपाय करन हि सति सकल्प रक्षणादय सजायन्ते । तत्र च हिंसाऽवश्य पडते है और वे सभी उपाय प्रवृत्त रूप न होकर निवृत्ति भाविनी तदर्थमनत जल्पति, चौयं चाचरति, मैथुन च रूप (जमा किन म हाना है। ही होते है। किन्ही का प्रतिपनने ।'--त० रा ० ०० ७.१७४५ सर्व दोष अशो मे हम नाशिक नित्ति कर, वालो को भी 'जिन' ।
परिग्रह मलक है। यह मेरा है, ऐसे सकल्प मे रक्षण आदि या 'जन' कह सकत है। कहा भी है
होते है उनमे हिंसा अवश्य होती है, उसी के लिए प्राणी जिणा दुविधा मलदांजणभएण' विय धाइक.म्मा झठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुनकर्म मे प्रवृत्त सय नजिणा। के त? अरहन मिद्धा अवरे आ.रिय उव. होता है, आदि। ज्झाय साह देय-जिणा तिव्व कगायेदियमोहनियादी।- आचायाँ ने मूर्छा को पार ग्रह कहा है। और यहा धवला-६,४, १, १, १० ।
मर्छा से तात्पर्य १४ प्रकार के परिग्रह से है। मूर्छा जिन दो प्रकार के है-सका जन और देशाजन। ममत्व भाव को कहते है। और ममत्व सब परिग्रहो मे घानिया कर्मों का क्षप करन व.ल अरहतो और सर्व:म- म है । अरति, शोक, भयादि भी इसी से होते है । इमी रहित सिद्धो को सकलाजन कहा जाता है तथा कषाय लिए ममत्व का परिहार करना चाहिए। राग की मुख्यता माह और इन्द्रियो की तो बता पर विजय पाने वाले के कारण ही जिन भगवान को भी बोत द्वेष न कह कर आचार्य, उपाध्याय और साधु को देश-जिन कहा जाता वीतरागी कहा गया है । यदि प्राणी का राग बीत जायहै। उक्त गुणो की तर-तमना म कचित देश-त्यागी- मळ भात बोत जाय तो वह 'जिन' हो जाय । जिनपरिग्रह को श करन वाले श्रावको का भी भावी नय से मार्ग में परिग्रह को सर्व पापो का मूल बताया गया है जैन मान सकते है, क्योकि---मोक्षरूप उत्तम सुख मिलना और परिग्रह त्यागी को ही 'जिन' और 'जैन' का दर्जा परिग्रह कृश करने पर ही निर्भर है, फिर चाहे वह- दिया गया है। परिग्रह अन्तरग हो या बहिरंग या हिंसादि पापो रूप कुछ लोग रागादि को हिंसा और रागादि के अभाव हो-सभी तो परिग्रह है।
को अहिंसा माने बैठे है। और हिंसा व परिग्रह मे भेद ये तो 'जि' की देन है, जो उन्होने वस्तुतत्व को नही कर रहे । ऐसे लोगो का कहना है कि अमृतचन्द्रा. बिना किसी भेदभाव के उजागर किया और अपरिग्रह को चार्य ने कहा है किसिरमोर रखा औ अहिसाद सभी में इस अपरिग्रह 'अप्रादुर्भाव. खलु रागदोना भवत्याहिंसेति । को हेतु बताया। पिछले दिनो हम भी खुश ल बन्द गोरा- तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य सक्षेपः ।। वाला का पत्र मिला है । पत्र का साराश यह है कि चारो ऐसे लोगों को सूक्ष्म दृष्टि से कार्य-कारण की व्यवस्था कपायो और पावो पापो में काय क रण की व्यवस्था को देखना चाहिए । आचार्य ने यहां कारणरूप रागादिक उल्टी है। कार्य निर्देश पहिले और कारण-निर्देश अन्त म म वयं रूप हिंसा का उपचार किया है। रागादिक स्वय
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परिग्रह : मूछाभाव
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हिंसा नही है अपितु हिंसा मे कारण है। इसीलिए आगे निर्देश किया है, वे सभी कारण परिग्रह निवृत्तिरूप हैं, चलकर इन्ही आचार्य ने कहा है--
किसी मे भी हिंसा, झूठ, चोरी जैसे किसी परिग्रह का सत्य 'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा हरवस्तु निवधना भवति पंसः।' नही। तथाहि-'स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा-परीषह जय 'आरम्यकर्तृ म कृतापि फलति हिमानृभावेन ।' चारित्रः । 'तपसा निर्जरा च ।' गुप्ति समति, धर्म, अनु. 'यस्मात्सकषाय: सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।' प्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से सवर होता है और तप यत्खलुकषाययोगात् प्राणाना द्रव्य भावरूपाणाम् ।' से सवर और निर्जरा दोनो होते है। उक्त क्रियाओ मे
-पुरुषा० प्रवृत्ति भी निवृत्ति का स्थान रखती है--सभी में परहिंसा पर-वस्तु ( रागादि) के कारणो से होती है हिंसा परिग्रह त्याग और स्व मे आना है। तथाहिकषाय भावो के अनुसार होती है। कषाय के योग से द्रव्य- गुप्ति--- 'यत. ससारकारणादात्मनो गोपन सा गुप्तिः।' भावरूप प्राणो का घात होता है। और सवषाय जीव
-रा० वा० २१ हिंसक (हिंसा में करने वाला) होता है।
जिसके बल से ससार के कारणो से आत्मा का गोपन जो लोग ध्यान के विषय में किसी विन्दु पर मन को (रक्षण) होता है वह गुप्ति है। लगाने की बात करते है उममे भी आस्रव भाव होता है मनोगप्ति- 'जो रागादि णियत्ती मणस्स जाणाहि तं फिर जो दीर्घ संसारी है, ऐसे लोगो नमो ध्यान-प्रचार के
मणोगुत्ती।' बहाने आज देश-विदेशो में भी काफी हलचल मचा रखी वचोगुप्ति-'अलियादिणियत्ती वा मौण वा होइ वचिगती।' है, जगह-जगह ध्यानकेन्द्रो की स्थापना की है । वहा जाति
-नि० सा. ६६ के इच्छुक जनसाधारण भन शान्ति हेतु जाते है। पर कायगुप्ति-'काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगेवहाँ वे वह कुछ नहीं पा सकते जा उन्हे निन, जैनी या
गुत्ती।'
-नि० सा० ७८ अपरिग्रही होने पर--सब ओर से मन हटाने पर मिल समिति---'निज परम तत्त्व निरत सहज परमबोधादि परम मता यहां प्रात्मा का प्रात्मदर्शन मिलेगा और वहा
धर्माणा सहति समिति । -नि सा.ता.व. ६१ उन्हे परिग्रह रूपी पर-विकारी भाव मिनेगे। फिर चाहे वे 'स्व स्वरूपे सम्यगिता गतः परिणत. समितिः।' विकारी भाव व्यवहारी दृष्टि मे- कर्मशृग्वलारूप मे 'शुभ'
--प्र० सा० ता०व० २४० नाम से ही प्रसिद्ध क्यों न हो। वास्तव में तो वे बधरूप 'अनत ज्ञानादि स्वभावे निजात्मनि सम सम्यक होने से अशुभ हो है; कहा भी है--
समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनतच्चितन तन्मय'कम्ममसुह कुसील मुहकम्म चावि जाणह कुसोल। त्वेन अयन गमन परिणमन समिति।' -प्र. स. टी. ३५ कह त होइ सुसोल जे ससारं पवेसेदि॥ धर्म-भाउ विसुद्धण अप्पणउ धम्मभणेविण लह।' --समयसार ४.११४५
-१० प्र० मू. २/६८ अशुभ कम कुशोल--बुरा है और शुभ कर्म सुशील
'मिथ्यात्व रागादि ससरणरूपेण भावससारेप्राणिनअच्छा है, ऐसा तुम जानते हो; किन्तु जो कर्म जीव को मुदत्य निविकारशुद्धचतन्य धरतीति धम.।'
-प्र. सा. ता०व० ७६१६ ससार मे प्रवेश कराता है, वह किस प्रकार सुशील
सद्दष्टिज्ञानवत्तानि धर्मम् ।
-रत्न. ३ अच्छा हो सकता है ? अर्थात् अच्छा नहीं हो सकता।
'चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिहिट्रो। उक्त प्रसग से तात्पर्य एमा ही है कि यदि जीव परि- मोहक्वाह विहीणा परिणामो अप्पणी हि समो॥' ग्रह-आस्रव जनक क्रिया को त्याग कर मवर निर्जरा में
-प्र० सा०७ पानशील-सभी प्रकार विकल्पो को छोड़कर स्वम अनुप्रेक्षा-क.म्मणिज्जरणमाठ-मज्जाणगयस्स सुदणाआए तो इसे जिन या जैन बनन म दर न लगे। आचार्यों न णस्स परिमलणमणपेक्खगा नाम।' ध.६,४,१,५५ स्व में आने के मार्ग रूप संवर निर्जरा के जिन कारणो का
(शेष पृष्ठ १२ पर)
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मोक्षमार्ग में चिन्तनीय विकृतियाँ
जिन शामन दे आध्यात्मिक पक्ष मे 'सम्यग्दर्शन नान- घोषित कर दिया है। तो कही ज्ञान के मूलस्रोत आगम चारित्राणि मोक्षमार्ग.' कहा है। पर, आज तीनों की के मूल शब्द-रूपो को एकांगी कर या आगम की मनमानी व्याख्यानों, बदलवता जैमा प्रतीत होने लगा है। व्याख्याएँ कर उन्हें विकृत किया जा रहा है और कहीं कछ लोग तो 'नाणिपूण जाण तिणि वि अप्पा ण चेव चारित्र को अपनी स्वच्छन्द सुख-सु वधानमार आडम्बर णिज्यदो' की दुहाई देकर चारित्रादि की उपेक्षा कर, जुटाने, आगम-विरुद्ध स्थानो को स्थायी आवास बनाने मात्र एक सम.ग्दर्शन प्रा!ि के प्रयत्न का उपदेश देने लगे आदि तक मोड दिया जा रहा है। है। उनका तर्क है --- 'एकहि माधे सब सधै।' फिर इस
अभी किसी ने हमसे 'साई' शब्द का अर्थ पूछा है। मार्ग में उन्हे सहुलियत यह भी दिखी है कि ज्ञान और
उनका कहना है कि किसी ने 'समयसार' की सोलहवी चारित्र की तो अन्य लोगो को पहिचान हो जाती है और
गाथा मे गृहीत प्राकृत के 'साहू' शब्द का अर्थ सज्जन या सम्यग्दर्शन की पहिचान होनः केवलोज्ञानगम्य है। पलत.
सत्पुरुष के रूप में प्रचारित किया है। वे लिखते हैं कि चाहे जिसे भी सम्पष्टि होने का मार्टीफिकेट देना सरल
आप स्पष्ट करे कि दि० प्राकृत आगमों में 'साहू' शब्द २८ है। इसी वह भी खुश और स्वयं भी चारित्रधारण से
मल गुणधारी मुनियो के लिए प्रयुक्त है या सर्वमाधारण बचना सहज । क्योकि उनी दृष्टि मे चारित्रधारण करना
मज्जन पुरुष के लिए प्रयुक्त है ? संर. इसका स्पष्टीकरण कष्ट साध्य है--- इस तो "गग करना पडता है जो इनके
तो हम किसी स्वतत्र अन्य लेख मे करेगे कि दि० आगम सग्रह करने जैग धेय से विपरीत है। चारित्र की उपेक्षा
मे प्राकृत भाषा का 'साहू' शब्द 'मुनि' के लिए ही प्रयुक्त करने का तरीका सम्मान मात्र को आगे करने के
है। यदि कदाचित् सस्कृत-छाया 'साधु' के सस्कृत अर्थ सिवाय और होमी मकना है?
(सज्जन) वत् 'साहू' का भी सज्जन अर्थ लिया जायगा पर, असलियत यह है कि सम्यग्दर्शन प्रयत्नसाध्य मात्र
तब तो णमोकार मत्र मे गात ताह' से लोकमान्य सभी होती पण सज्जन (अपेक्षा दृष्टि मे) परमेष्ठी श्रेणी में आ जाएंगे और क्षय, क्षयोपशा की और श्रद्धानरूप आचरण, परिणामों सभी को नमस्कार होगा। आदि । की सरलता आदि को उपस्थिति में स्वय होता है। ऐसा
श्रावक के दैनिक धर्माचार एवं अधिकारी को लेकर कदाचित् भी नहीं है कि जीव वाह्य पदाथों के प्रति तीव्र
भी अनेको विवाद उठते रहे है। अभी ही भगवान बाहुगाट और परिग्रह इकट्ठा करने से विराम न ले और बली के महामस्तकाभिषेक के अधिकारी व्यतित्व की चर्चा चर्चा मात्र मे सम्यग्दर्शन हो जाय । मात्र सम्यग्दर्शन की
को लेकर हमे जयपुर से लेख और पत्र मिले है। लेख चर्चा ने तो चरित्र का सफाया हो कर दिया। जब कि
'वीरवाणी' एव 'समन्वयवाणी' में छप चुका है। पत्र में मो:मार्ग मे चारित्र भी जरूरी है और लोक हित मे भी।
हमे लिखा है-इस लेख को कोई निर्भीक सम्पादक ही कहा भी है-'चारित्त खलु धम्मा।'
अपने पत्र में स्थान देगा क्योकि समाज का नेतृत्व इसको कति य लोगा ने तो तीनो रलय के रूमो मे बद- पसन्द नहीं करेगा।' लाव जैसा हो कर दिया है । कही आत्मानुभूति (जो स्वय इसस क्या हम ऐसा समझे कि यद्यपि सब लोग नहीं, में त्रयीरूप है) को मात्र अकले सम्यग्दशन का लक्षण ता कुछ ता एस चिन्तक हेही जो नेतृत्व में पूरा भरोसा
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मोक्षमार्ग में चिन्यनीय विकृतियाँ
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नही रखते ? पर प्रासंगिक प्रस्ताव मे अभिषेक के लिए हम कई बार सोचते रहे है कि हमने अपने बुजर्गों अण्डा, मांस, शराब के सेवन न करने और इनसे आजी- और धर्म प्रेमियो की कृपा से चारिन चक्रवर्ती आचार्य विका न कमाने की शर्त थी और यह जैनाचार की नीव श्री शान्तिसागर मुनिगज और उत्कृष्ट श्रावक शुल्लक है-इसे नेता भी चाहते होगे । बहा तो कुछ नेता और पूज्य न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसाद वर्णकि दर्शनो का सौभाग्य स्वय श्री जगद्गुरु (२) कर्मयोगी स्वस्ति श्री चारुकीति प्राप्त किया। पर, आज के हम बुजुर्गों को करनी से भट्रारक स्वामी भी मौजूद थे ओर लेखक के अनुसार क्या उमारी सन्तान को उत्त, आदर्श त्यागियो के स्थान वहाँ किमी ने विरोध भी नही किया। ऐसे मे लेखक के पर ऐसे ही त्यागियो के दर्शन मिलेगे जिनके धम-विरुद्ध मन मे नेतृत्व के प्रति सन्देह की रेखा क्यो ? हम तो अब अपवादों के चर्चे प्राय: जब कभी समानार पत्रों में भी तक लेखक को भी नेतृत्व की श्रेणी में आते रहे है। प्रकाशित होते रहते हैं और जिन अपवादों को छपाने के फिर लेखक की उक्त पतें तो जन्मन: दिगम्बर मात्र होने लिए हम कथित उपगृहन अग (?) पालन कर अपनी जैसी शर्त से कहीं अधिक दृढ है और मर्वथा धर्मानुकूल सन्तान की उपस्थिति मे-उन त्यागियो को भक्ति, सेवा भी। खैर, बागे आगे देखि होता है क्या।'
में उनके पीछे दौडें लगाते रहते है। क्या हमने कभी
सोचा है कि हमारी भावी पीढ़ी के कि क्या हम ऐसे ऐगेही उस दिन एक सज्जन पूछने लगे --'आज कल
त्यागियो के ही आदर्श छोड एंग? कही ऐसा न हो कि श्रेष्ठ और भ्रष्ट दोनो पकार के त्यागियो वी चर्चा
हमारी करनी से हमारे त्यागियो- गृमओ का रूप ही सामाजिक पत्रो मे पढने को मिलती है तो आप हमे
बदल जाए और सतान कहे कि हमारे गुरुयो का सच्चा रूप बताइये कि चचित किन्ही भ्रष्ट त्यागियो को आहार देना।
गही होता है और इस रूप को ही हमारे पूर्व न अपनाते चाहिए या नही ? हमने कहा भ्रष्ट तो माधारण श्रावको
रहे है-परिग्रही, सग्रही और आडम्बरी। ऐसे में हम मे भी है और त्यागियो मे में है -आप त्यागियो को ही
स्वय ही सच्चे गुरु के स्वरूप के ला का पाप अपन सिर दोष क्यो देते है ? हम तो पद के अनुकूल क्रिया न पालने
लगे और धर्म मार्ग का ह्रास होगा सो अलग से । वालो को भ्रष्ट ही मानते है, फिर चाहे वे साधारण नियमधारीधावक हों या पूर्ण त्यागी। पर, जहाँ तक ऐसे ही पहिले जब 'अकिचित्कर' पुस्तक निकली थी आहार देने और न देने की बात है, हम तो 'आहारमात्र (जो आज भी विद्वानो मे विवादस्थ है) तब हमने सकेन प्रदानेतु का परीक्षा के .नुयायी है और सभी को आहार दिया था कि - विद्वदगम्य गूढ चर्ग को जन-माधारण में देने के पक्ष मे है। यदि पात्र योग्य है तो दाता का प्रचारित करने से तो जनमाधारण मिथ्यात्व को अकिंचित्कल्याण है और पात्र अयोग्य है तब भी दाना का कल्याण कर मानकर पद्मावती आदि देवियों को पूजने लगेगा। इसलिए है कि वह परिग्रह के भार से तो हल्का हो ही जाता वह बात अब साकार फलित होने लगी है बीतराग मार्ग है-उसका द्रव्य तो किमी के काम आ ही जाता है। का अवलम्बन लेने वाले साधु नक अब राग धिनी प्रवृत्ति स्मरण रहे कि हमारे कमाए द्रव्य में हमारे अनजाने में के प्रचार में लग गये हैं। अभी हमे गणधराचार्य पदवीऐसा भी द्रव्य आ जाता है, जो न्यायोचित श्रगा मे घर थी कुन्दसागर जा ति .६६ पंजी पुस्तक 'नवसम्मिलित न हो-ऐम। द्रव्य सहज मे इसी बहाने निकल रात्रि पूजाविधान' (पमानती शुक्रवार व्रत उद्यापन) जाता हो। लोग भी ऐसा ही मानते है कि न्याय की मिली है। इसमें अष्टद्रव्यो से पद्मावती-पूजा का विधान कमाई सतणत्र को जाती है और अन्याय की असत्कार्य है और पपावती के सहस्रनाम गिनाकर उन्हे पृथक-पृथक में। दाता दोनों भाति ह. पापमुक्त होता है। इसलिए अर्घ्य है। पुस्तक छन्दो में है। जैसे जनता नवरात्रि के आहार देना चाहिए । हो, विधि विचारणीय हो सकती दिनो में अन्य देवियो को पूजते है, वैसे जैनी उन दिनो
पद्मावती को पूजेगे और वीतरागी की महिमा का ह्रास
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३२,
४६, कि० ३
अनेकान्त
होगा। जैनी बिचारें कि यह मब क्या हो रहा है और जरूरत है। पर, हमाग लम्बा अनभव है कि-अज्ञ कौन-सा वर्ग ऐसे मार्ग प्रशस्त कर रहा है। हमे तो अपनी भेड़ चाल न छोइ सकेगे और दोनो हाथो लड्ड आश्चर्य है कि भगवान भक्त कही जाने वाली पद्मावती लेने के धुनी कुछ जायक अपनी गंगा-जमुनी (दुरगी) कसे भगवान के समक्ष बैठकर अपनी पूजा करा भगवान प्रकृतिवश सुधार की ओर न बढ़ सकेगे-पैसे के धूनी का तिरस्कार करवा रही है। क्या वह भक्तों को स्वप्न कुछ ज्ञानी भी शायद इसी श्रेणी मे रहें। सम्भव है में ऐसी ताड़ना नहीं दे सकती कि तुम मेरी पजा कर हमारी सष्टवादिता की परिधि मे आने वाले 'दाढ़ी में मेरे समक्ष भगवान की ऐसी अवहेलना करोगे तो तुम्हारा तिनका' जैग लोगो को हमारी कयनी आतकवादी भाषा भला न होगा-तुम वीतरागी मार्ग मे च्युन हो जाओगे। भी लगे या वे हमे अपमानित भी करें। पर, फिर भी
हम लिखने को मजबूर हैं । यन. हमारे मामने लिखा है-- यह तो हमने चन्द विकृतियो को प्रलक मात्र दी है,
'न्य' स्यात् पथ, प्रविचलन्ति पद न धीग:' और उससे ऐसी ज्ञात-अज्ञात ढेर सारी विकृतियो का पुलन्दा भी हमारा ध्यान क्षण भर भी नहीं हटना। धन्यवाद सहज ही बाँधा जा सकता है जिसमे सुधार करने की
-सम्पादक (पृ०२६ का षाश) परीषहजय-'क्षधादि वेदनानां तीवोदयेऽपि.."समतारूप उत्पन्न नित्यानन्दमयस्खामन से चलायमान न होना पीबह
परमसामायिकेन । निजारमात्मात्मा भावना जय है। स्वरूप में पाचरण चारित्र है अर्थात अर्थात् संजान निविकार नित्यानन्दलक्षणमुखामृत स्वात्मपत्ति चारित्र है। इच्छा का निरोध नप है। संवित्तरचलन स परीषह जय ।' -प्र० सं० टी० ३५
उक्त सभी उद्धरणो मे (जो सबर-निर्जरा के साधन
भूत हैं) परिग्रह की निवत्ति और म्व-प्रवृत्ति ही मुख्यत: चारित्र'स्वरूपे चरण चारित्रम् । बसमग्र प्रवृत्तिरित्यर्थः।'
-प्र० सा०व०७
परिलक्षित होती है और उक्त व्यवस्थाओ मे प्रयत्नशील तप-'इच्छानिरोधस्तप ।'
..त मूल
किन्ही व्यक्तियो को पदाचित् हम किन्ही अपेक्षाओ से मन की रागादिक से निति होना मनोगुप्ति है। देशोजन या जैन कह सकते है। पर, आन तो जैनाचार
से सर्वथा अछता व्यक्ति भी किसी समुदाय विशेष मे उत्पन्न झंठ आदि मे नित्ति या मौन वचनगुप्ति है। काय की। क्रिया से निवृत्ति-कायोत्सर्ग काय गुरित है। निज पर. हाने मात्र में ही अपने को जैन घोषित करने वाद
बनाए बैठा है और विडम्बन्ग यह कि इस प्रकार 'जन' मात्मतत्व में तीन सहज परम ज्ञानादि परमधर्मों का समूह
को मम्प्रदा बनाकर भी कुछ लोग इसे बड़े गर्व से धर्म समिति है। स्व-स्वरूप मे ठीक प्रकार से गत -प्राप्त
का नाम दे रहे है-कह है है 'जैन मम्प्रदाय नहीं, अपितु समित कहलाता है। मनन ज्ञानादि स्वभावी निज आत्मा
धर्म है। और वे स्वय भी जैनी है। जब कि इस धर्म के में, रागादि विभावों के त्यागपूर्वक, लीन होना, तन्मय
नियमो के पालन मे उन्हे कोई मरोकार नहीं। यह नो होना परिणत होना समिति है। अपना शुद्ध आत्म-भाव
ऐमा ही स्व-बचन बाधित वचन है जैसे कोई पुरुष बांझ धर्म है उसमे रहो। जो पाणी को मिथ्यात्र गगादिरूप
स्त्री ना लक्षण करते हा कहे गि-जिसक समान न हो संसार से उठाकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य मे धरे वह धर्म
उमे बौन कहते हैं जैसे--- 'मेरी माँ।'- भला बांझ है तो है, रत्नत्रय धर्म है। नारित्र निश्च मे धर्म है सपना को
मा कैमे और वह उम का पुत्र कसे? इपी प्रकार यदि वह धर्म कहा है। मोह-क्षोभ से रहित निज अात्मा ही समय सम्प्रदायी है तो जन कम है-आत्मा है, समताभाव है, धर्म है । कम की निर्जरा के
हमारा कहना तो यही है कि यदि किसी को सच्चा लिए अस्थि-मज्जागत अर्थात् पूर्णरूप से हृदयगम हुए श्रुत- जैन बनना है तो पा ले वह भाव और द्रव्य दोनो प्रकार शान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षण है - शरीर के परिग्रहो में सकोच करे। इनमें सकोच होते ही उसमे भोगादि की अस्थिरता आदि का चितन अनुप्रक्षा है। अहिमादि सब व्रतो का सचार होगा-क्योकि सभी पापो मधादि वेदनाओ के तीव्रोदय होने पर भी-समतारूप की जननी परिग्रह है और 'जैन-सस्कृति' का मूल अपरिपरमसामायिक से..... निज परम पास्म की भावना से ग्रह है।
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संचयित-ज्ञानकण
0 जिन कार्यों के करने मे आकुलता हो उन्हें कदापि न करो। चाहे वह अशुभ हों, चाहे शुभ हों, 0 परिग्रह लेने में दुःख, देने में दुःख, भोगने में दुःख, रक्षा में दुःख, धरने में दुःख, सड़ने में दुःख । धिक् है
इस दुखमय परिग्रह को।
- स्व-परिणामो द्वारा अजित ससार को पर का बताना महान अन्याय है।
n विश्व की अशान्ति देख अशान्त न होना, यहां अशान्ति ही होती है। नमक सर्वाङ्ग-क्षारमय होता है।
संसार की जितनी पर्याएं हैं सब दुखमय है, इनमें सुख की कल्पना भ्रम है।
0 जैसे विष करिके लिप्त जो वाण ताकरि बेधे जो पुरुष तिनिका इलाज नही, मारयां ही जाय । तसे
मिथ्यात्वशल्मकरि बेध्या पुरुष हूं तीव्र वेदना करि निगोद में तथा नरक, तिर्यच में अनंतानन्त काल दुःख
अनुभव है। g जो लिंगी बहुत मानकषायकरि गर्ववान भया निरन्तर कलह कर है, वाद कर है, धूत-क्रीड़ा कर है, सो
नरक कू प्राप्त होय है। D जिसके हृदय में पर द्रव्य के विषय में अणुमात्र भी राग विद्यमान है वह ११ अंग और पूर्वो का जानकार होकर भी अपने आत्मा को नहीं जानता वह तीन मिथ्यात्वी है।
संकलन : श्री शान्तिलाल जैन कागजी के सौजन्य से
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) १०, इस अंक का मुख्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते।
कागज पाप्ति :-धोमतो अंगरी देवो जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तीलाल जैन कागजी के सौजन्य से, नई दिल्ली-२
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
नाप-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित प्रपत्र संग्रह, उपयोगी १२ परिशिष्टो मोर पं. परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साटिना.
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ मप्रकाशित प्रन्यों को प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह। पचपन
प्रन्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द। १५... प्रवणबेलगोल पोर दक्षिण के अन्य अन तीर्ष: श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सम्या ७४, सजिल्द । न लक्षणावली (तीन भागों में) : स.पं. बालवाद सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... Basic Tenents of Jainism : By Shri Dashrath Jain Advocate.
5-00 Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain
References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo.
Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume.
600-00
सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३
प्रिन्टेड पत्रिका बक-पैकिट
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वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त (पत्र प्रवर्तक : आचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
वर्ष -46 किरण - 4 वर्ष - 47 किरण - 1
अक्तूबर-दिसम्बर-93 जनवरी-मार्च-94
परम्परित मूल आगम रक्षा विशेषांक
वीर सेवा मंदिर, 21 दरियागंज, नई दिल्ली-110002
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क्या कहां है?
1 जिनवाणी स्तुती ।। 2 प्रस्तुत अंक क्यों ? 12 3 सामाजिक प्रदूषण का जिम्मेदार कौन ? | 3 4 नितांत असत्य / 3 5 हमारी कार्यप्रणाली/ 4 6 विरोधाभासी वक्तव्य / 4 7 मेरा समयसार - पं. बलभद्र जैन । 5 8 हमारा मन्तव्य 15 9 आचार्य श्री विद्यानन्द जी का अभिमत । 10 आगम बदलाव से हानि / 6 ।। स्व प्रशंसा।7 12 श्री बाबूलाल जैन वक्ता / 8 13 अधिकार की सीमा / ४ 14 डॉ नेमिचन्द जेन इन्दौर । ) 15 बाबू नेमिचन्द जैन नयी दिल्ली वार्ता प्रसग . ) । (, डॉ. नन्दलाल व डॉ. प्रेम सुमन । । ।) 17 नग्न दिगम्बर रूप की महत्ता ।। । ६ अथ समयसार शुद्धि प्रकरण । 13 1) आ. विद्यानन्द जी की चतावनी-एक प्रतिक्रिया । 15 20 माह अशाक कुमार जैन को पत्र 1 5 ----93 / 18 . 21 कुन्दकुन्द भारती को पत्र /19 22 माह अशोक कुमार जैन से मार्गदर्शन / 20 23 साह रमशचन्द्र जैन को पत्र 17-3-93 /22 24 डॉ गोकुलचन्द जेन वाराणसी-विचार / 23 25 डॉ. हीरालाल जैन व डॉ. अपाध्ये - अभिमत / 23-24 26 पं. फूल चन्द शास्त्री के विचार / 24 27 कुन्दकुन्द भारती के पत्रों के उत्तर / 25-29 28 पूज्य त्यागीगण एवं विद्वानों की सम्मतियां/ 29-34 29 उपसंहार । 34-35 30 परम्परित मूल आगम रक्षा प्रसंग / 36-52 31 कुन्दकुन्द शब्दकोश / कवर 3
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वर्ष 46 कि 4 वीर-निर्वाण संवत् २५१९, वि० सं० २०५० अक्टूबर-93 वर्ष 47 कि० । पारम्परित मूल आगम रक्षा विशेषांक
मार्च-94 जिनवाणी स्तुति देवि श्री श्रुतदेवते भगवती त्वत्पाद पंकेरुहद्वन्दे यामि शिलीमुखत्वमपरं भक्त्या मया प्रार्थ्यते । मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिनमुखोद्भूते सदा त्राहि माम् , दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती संपूजयामोऽधुना ॥
अर्थ – हे देवि, हे श्रृतदेवते, हे भगवती, तेरे चरण कमलों में भौरे की तरह मुझे स्नेह है । हे माता, मेरी प्रार्थना है कि - तुम सदा मेरे चित्त में बनी रहो । हे जिनमुख से उत्पन्न जिनवाणी, तुम सदा मेरी रक्षा करो और मेरी ओर देखकर मुझ पर प्रसन्न होओ । मैं अब आपकी पूजा करता हूँ।
शारदा स्तवन वीर हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है। मोह महाचल भेद चली. जगकी जड़तातप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहभंग-तरंगनिसों उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलिकर शीस धरी है ।। या जग मंदिर में अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अति भारी । श्री जिनकी धुनिदीप-शिखासम, जो नहिं होत प्रकाशन हारी ।। तो किस भांति पदारथ पांति कहां रहते लहते अविचारी । या विधि संत कहैं, धनि हैं, धनि हैं जिन बैन बड़े उपकारी ।। जा वाणी के ज्ञान से सूझै लोकालोक । सो जिनवाणी मस्तक चढौ सदा देत हूं धोक ।।
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प्रस्तुत अंक क्यों ?
पाठकों की यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि 'अनेकान्त' का प्रस्तुत अंक "परम्परित मूल आगम रक्षा' विशेषांक क्यों ?
कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली जैसी सामाजिक संस्था से प्रथमबार प्रकाशित "प्राकृत विद्या" पत्रिका के जुलाई-दिसम्बर 93 के अंक में पत्र के संपादक श्री बलभद्र जैन ने अपने संपादकीय लेख 'सामाजिक प्रदूषण' शीर्षक के अर्न्तगत वीर सेवा मंदिर पर अनर्गल, मिथ्या एवं भ्रामक आरोपो की बौछार करके उसे प्रदूषण की लपेट में लेने का असफल प्रयास किया है और सस्ती प्रशंसा लूटने के लिए 'प्राकृत विद्या' पत्रिका के प्रचार-प्रसार का एक नमूना प्रस्तुत किया है। । स्मरण रहे कि संपादक महोदय के मतानुसार मुद्रित 'कुन्दकुन्द' भाषा अत्यंत भ्रष्ट एवं अशुद्ध है । इसलिए उन्होंने पूर्व आचार्यों की उपेक्षा करके मूल आगम भाषा को व्याकरण द्वारा शुद्धिकरण के नाम पर सन् 1978 से प्रदूषण फैलाने का दुस्माहसपूर्ण कार्य किया है । उनका उक्त अंक भी प्रदूषण फैलाने का एक और नमूना है। __ वीर सेवा मंदिर मृल आगमों की सुरक्षा के लिए कृत-संकल्प है । इसलिए हमने उक्त आत्मघाती प्रदूषण को साफ करने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु उन्हें यह स्वच्छता रास नहीं आई । उन्होंने अहंकार वश क्रोध के वशीभूत होकर डराकर, धमकाकर व उत्तेजित होकर अपमानित करने वाली भाषा के शस्त्र द्वारा वीर सेवा मंदिर की आवाज को दबाने के प्रयत्न किए और कराए और अब उक्त संपादकीय लेख द्वारा पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मिथ्या आरोपों की झड़ी लगा दी । उनकी मुख्य शिकायत यह भी रही है कि हम उनके पत्रों के उत्तर नहीं देते यद्यपि उनके सभी पत्रों के उत्तर दिए गए हैं। ___ अत: वीर सेवा मंदिर ने प्रस्तुत विशेषांक में अब तक घटित वस्तुस्थिति सप्रमाण प्रकाशित करने का निर्णय लिया ताकि समाज भ्रम में न पड़े और असलियत जानकर आगम रक्षा में सतर्क हो सके ।
-भारत भूषण जैन, एडवोकेट
प्रकाशक
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सामाजिक प्रदूषण का जिम्मेदार कौन ?
"प्राकृतविद्या" के जुलाई-दिसम्बर 93 के अंक में "सामाजिक प्रदूषण" के अन्तर्गत पण्डित बलभद्र जैन का वीर सेवा मन्दिर के पदाधिकारियों, सदस्यों तथा अनेकान्त के संपादक के विरुद्ध दुराग्रह युक्त संपादकीय पढ़कर बहुत विस्मय हुआ । उनका सम्पूर्ण लेख न केवल मिथ्या आरोपों, असत्य वचनों से भरा है, अपितु नितान्त भ्रामक तथा विरोधाभासी भी है । आश्चर्य तो इस बात का है कि विद्वान् लोग भी मिथ्या और असत्य आरोपों का सहारा लेने लगे और झूठ का अम्बार लगा कर खरगोश के सींग सिद्ध करने की प्रवीणता दिखाने लगे।
नितान्त असत्य
पण्डित बलभद्र जैन का यह कहना एकदम निराधार है कि वे कभी वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी के सदस्य एवं "अनेकान्त" के सम्पादक रहे हैं । संस्था के रिकार्ड के अनुसार वे यहां किसी पद पर नहीं रहे बल्कि महासचिव श्री महेन्द्रसेन जैनी के कार्य-काल में पण्डित बलभद्र जी के वीर सेवा मन्दिर में नि:शुल्क आवास प्रदान करने के अनुरोध को समाज रत्न साहू शान्तिप्रसाद जैन की अध्यक्षता में दिनांक 4-2-74 एवं समाज श्रेष्ठि श्री श्यामलाल जैन ठेकेदार की अध्यक्षता में दिनांक 30-5-74 को हुई कार्यकारिणी की बैठकों में इस कारण अस्वीकृत कर दिया गया क्योंकि उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ तथा मुनि-संघ कमेटी से वेतन के रूप में पर्याप्त धन मिलता था ।
यह तो हम नहीं समझ पा रहे हैं कि असत्य कथन से पण्डित बलभद्र जी को किस लक्ष्य की प्राप्ति हो रही है । इसके दो ही कारण
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हो सकते हैं, पहला तो यह कि असत्य कथन को बार बार दोहराने से उन्हें वह सत्य प्रतीत होने लगा हो या फिर यह कि उनकी पत्रकारिता की कला का एक पहलू हो कि इसे पढ़कर समाज के कुछ लोग तो उनके असत्य को सत्य मान ही लेंगे । हर व्यक्ति तो वीर सेवा मन्दिर से स्पष्टीकरण नहीं मांगेगा ।
हमारी कार्यप्रणाली
किसी व्यक्ति विशेष के चरित्र हनन में हम विश्वास नहीं रखते, किंतु मिथ्या एवं भ्रामक धारणाओं का निराकरण करना हमारा कर्तव्य है । वीर सेवा मन्दिर एक प्राचीन संस्था है । इसका अपना गौरवपूर्ण इतिहास है । इसके अपने विशेष उददेश्य और कार्यक्रम हैं । यह संस्था आगम की रक्षार्थ सदैव तत्पर रही है और आगे भी रहेगी । इस संस्था को अपनी कार्यप्रणाली के लिए पण्डित बलभद्र जी के अवांछित परामर्श अथवा प्रमाण पत्र की आवश्यकता कदापि नहीं है ।
विरोधाभासी वक्तव्य
प्राकृतविद्या के पृष्ठ 8 पर पण्डित बलभद्र जी ने लिखा है कि हमने एक भी शब्द अपनी मर्जी से घटाया बढ़ाया नहीं है और मूडबिद्री की ताडपत्री को हमने आदर्श प्रति माना है । पृष्ठ 4 पर वे लिखते हैं कि कई शब्द छूट गये 'अत: व्याकरण और छन्द शास्त्र की दृष्टि से उन्हें शुद्ध किया।
इनका यह कथन कितना विरोधाभासी है कि एक ओर तो कहते हैं कि “घटाया बढ़ाया नहीं और दूसरी तरफ कहते हैं कि व्याकरण
और छन्दशास्त्र की दृष्टि से शुद्ध किया" । वीर सेवा मन्दिर ने अपने 13 मार्च 1993 के पत्र में पण्डित बलभद्र जी की मांग से सहमत होते
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हुए स्पष्ट लिखा था कि आप मूढब्रिद्री की ताडपत्री की छाया प्रति भिजवा दें । यदि सन्दर्भित समयसार उसी ताड़पत्री के अनुरूप है तो वीर सेवा मन्दिर अपनी सभी आपत्तियां सखेद वापस ले लेगा, किन्तु आज तक ताडपत्री की प्रतिलिपि नहीं भेजी गयी । वास्तविकता तो यह है कि उनका यह समयसार ग्रन्थ किसी भी अन्य उपलब्ध समयसार की प्रामाणिक प्रतिलिपि नहीं है क्योंकि संपादक समयसार महोदय ने स्पष्ट लिखा है कि व्याकरण के आधार पर गाथाओं को संशोधित कर शब्दों में परिवर्तन किया गया है ।
मेरा समयसार - पण्डित बलभद्र जैन
पण्डित बलभद्र जी सन्दर्भित ग्रन्थ को "मेरा समयसार' कहते हैं. जिसका उल्लेख उन्होंने अपने संपादकीय में कई जगह किया है । वास्तव में उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार को अपना समयसार बना दिया है । सम्भवत: कालान्तर में यह समयसार उनके द्वारा रचित ही जाना जाने लगेगा । लोकेषणा और वित्तेषणा लोगों से क्या कुछ नहीं करा देती ? वे लिखते हैं कि “आश्चर्य की बात है कि उन्होंने मेरा नाम नहीं दिया" । वास्तविकता यह है कि यह एक शास्त्रीय विषय था जिसका समाधान भी शास्त्रज्ञ ही करते, किन्तु बलभद्र जी इसे अपने ऊपर एक प्रहार समझ रहे हैं, यह दुर्भाग्य ही है । हमें उनका नाम देने में कोई डर नहीं है।
हमारा मन्तव्य ___ शास्त्रीय चिन्तन और मनन के लिए पण्डित पद्मचन्द शास्त्री का लेख “परम्परित मूल आगम रक्षा प्रसंग' के अन्तर्गत इसी अंक में पृष्ठ 36 पर दिया जा रहा है । वीर सेवा मन्दिर का मन्तव्य इस प्रकार है :
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एक ही ग्रन्थ में एक शब्द को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न रूपों में दिया गया है । वे सभी ठीक हैं । उनका वही रूप रहना चाहिए । व्याकरण की दृष्टि से आगम के मूल शब्दों को सुधार के नाम पर बदलना, उसमें एकरूपता लाना न तो किसी के अधिकार की परिधि में है और न ही उसका कोई औचित्य है । इससे आगम विरूप होते हैं और उनकी प्राचीनता नष्ट होती है। यदि पाठ भेद किया जाना आवश्यक प्रतीत हो तो उसे पादटिप्पण में दिया जाना चाहिए क्योंकि यही संपादन की अंतरराष्ट्रीय परम्परा है । यदि मूल आगम में किसी प्रकार से बदलाव की प्रथा प्रारम्भ हो गयी तो कालान्तर में उनका लोप हो जायेगा ।
आचार्य श्री विद्यानन्द जी का अभिमत ___ आगम बदलाव की भर्त्सना के सम्बन्ध में स्वयं मुनि श्री विद्यानन्द जी के 1964 में व्यक्त उदगार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :
" मनुष्य अल्पज्ञता तथा कषाय भाव के कारण अपने कलुषित एवं कल्पित निराधार भाव जब दूसरों के मस्तिष्क में उतारना चाहता है, जब मिथ्या अभिमान उसको विकृत साहित्य लिखने की प्रेरणा करता है तब उस दुराभिमान और दुराग्रह से लिखा गया ग्रन्थ या साहित्य उसकी चिरस्थायी अपकीर्ति का कारण तो बनता ही है, किन्तु उसके साथ जन-साधारण को भी कुछ समय के लिए भ्रम में डाल कर श्रद्धालु समाज में कलह और भ्रम का बीज बो देता है" ।
(दि. जैन साहित्य में विकारप्राक दो शब्द, पृष्ठ 7 से उद्धृत) आगम बदलाव से हानि
पण्डित बलभद्र जी के कथनानुसार आचार्य विद्यानन्द जी महाराज ने उन्हें आदेश दिया था कि अभी तक अर्थ मूल प्राकृत गाथाओं का
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नहीं दिया बल्कि प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया ही दी है और अर्थ संस्कृत छाया का किया है । इसलिए उन्होंने प्राकृत को महत्व देने पर जोर दिया । हमारी दृष्टि में आचार्य श्री का आशय प्राकृत के मूल शब्दों को व्याकरण के अनुसार एकरूपता प्रदान कर बदलना नहीं था । वेदों के समान ही मूल प्राचीन आगम प्राकृत ग्रन्थ व्याकरण के नियमों से बंधे नहीं हैं । प्राकृत ग्रन्थों में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के शब्द प्रयोग में लाये गये हैं, जो अपने आप में इतिहास है । मूल शब्दों में तो परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता । इसके अतिरिक्त यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि कुन्दकुन्द से पहले कोई प्राकृत का व्याकरण था ही नहीं । हैमचन्द आचार्य की व्याकरण के आधार पर मूल शब्दों में परिवर्तन करने से मूल आगम की प्राचीनता तो नष्ट होती ही है, साथ ही पण्डित बलभद्र जी के इस कृत्य से आचार्य कुन्दकुन्द बारहवीं शताब्दी के प्रमाणित होते हैं । इस तरह आगम के बदलाव करने से उस वर्ग विशेष की मान्यताओं को बल मिलता है जिससे दिगम्बर जैन आगम ईस्वी पूर्व न होकर बारहवीं शताब्दी का हो जाता है । वह वर्ग यही चाहता है । पण्डित बलभद्र जी ने अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए अपने पत्र 15-2-93 में श्वेताम्बर विद्वान् का हवाला दिया है । कहीं पण्डित बलभद्र जी श्वेताम्बरों के प्रभाववश तो कार्य नहीं कर रहे हैं?
स्व-प्रशंसा
पण्डित बलभद्र जी ने स्व-प्रशंसा और सार्वजनिक अभिनन्दन की चर्चा करते हुए लिखा है कि कानजी स्वामी पक्ष के विद्वानों ने उनके समयसार की प्रशंसा की और उन्हें आश्वासन दिया कि भविष्य में जब भी वे समयसार प्रकाशित करेंगें पण्डित बलभद्र जी के समयसार की
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नकल करेंगे । पण्डित बलभद्र जी का समयसार 1978 में प्रकाशित हुआ । जयपुर से प्रकाशित समयसार 1983 व 1986 के संस्करण वीर सेवा मन्दिर के ग्रन्थालय में मौजूद हैं जो उनके समयसार की नकल नहीं है । इसलिए पण्डित जी का यह प्रचार नितान्त भ्रामक है । कानजी स्वामी ने तो आचार्य कुन्दकुन्द का पूरा समयसार पाषाणों पर उत्कीर्ण कराकर सोनगढ के मन्दिर में लगाया है । उनके अनुयायी उसको गलत मान कर आपके ग्रन्थ की नकल करेंगे यह कितना हास्यास्पद लगता है ।
श्री बाबूलाल जैन वक्ता __ पण्डित बलभद्र जी ने लिखा है कि बाबूलाल जी ने 8 अप्रैल 1993 को उन्हें फोन पर यह बताया कि वे प्राकृत नहीं जानते । इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन पर्याप्त है कि सन् 1988 में श्री मुसद्दीलाल जैन चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित समयसार पर उनकी प्रस्तावना देखी जा सकती है और वह समयसार पर धाराप्रवाह प्रवचन भी करते हैं । स्पष्ट है कि पण्डित बलभद्र जी के इस कथन में कोई सार नहीं है । अधिकार की सीमा
श्री बाबूलाल जैन (वक्ता) यदि प्राकृत नहीं भी जानते हों तो क्या इस तथ्य से पं. बलभद्र जी को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह आगम में मूल शब्दों को बदल दें । हम पुन: निवेदन कर दें कि वीर सेवा मन्दिर की दृष्टि में आगम के सभी प्राचीन रूप सर्वशुद्ध हैं, कोई भी अशुद्ध नहीं है । उन्हें शुद्ध करने का हमें कोई अधिकार नहीं है । हम अपने विचार को पाठ टिप्पण में व्यक्त कर सकते हैं । दुर्भाग्य है कि पण्डित बलभद्र जी की दृष्टि में, जैसा कि उन्होंने “रयणसार" की
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प्रस्तावना में लिखा है "मुद्रित कुन्दकुन्द के साहित्य की वर्तमान भाषा अत्यन्त भ्रष्ट एवं अशुद्ध है "। आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य को अत्यन्त भ्रष्ट एवं अशुद्ध कहने का दुःसाहस केवल दिग्भ्रमित व्यक्ति ही कर सकता है।
डॉ० नेमिचन्द जैन इन्दौर
पं. बलभद्र जी ने डॉ. नेमिचन्द जैन इन्दौर पर भी आरोप लगाया है कि उन्होंने कोई उत्तर उन्हें नहीं दिया है । डॉ. नेमिचन्द जैन का 29-5-93 का पत्र हमारे पास है जिसमें उन्होंने पं० पद्मचन्द्र शास्त्री के प्रति लिखा है कि "आदरणीय पण्डित जी तक मेरा प्रणाम पहुंचाइए, उन्हें माध्यम बनाकर मुझ पर भी आक्रमण हुआ है । पण्डित जी के लिए मन में आदर भाव है । वे मात्र लौह पुरुष नहीं हैं, स्टेनलैस फौलाद के आदमी हैं, निष्कलंक, स्वाभिमानी' । 7-6-93 के पत्र में उन्होंने लिखा है कि लोग मेरे और उनके बीच दीवार खड़ी करने पर आमादा हैं, किन्तु ऐसा कभी नहीं हो पायेगा । मेरी शास्त्री जी के प्रति श्रद्धा अविकल रहेगी । उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होगा । मैं पं. पदमचन्द जी की विशेषता, उनकी विद्वता और स्वाभिमान का कायल हूँ"।
बाबू नेमिचन्द जैन, नयी दिल्ली - वार्ता प्रसंग
बाबू नेमिचन्द जैन के हवाले से पं० बलभद्र जी ने श्री पद्मचन्द जी शास्त्री पर आरोप लगाया है कि शास्त्री जी ने बाबू नेमिचन्द जी से कहा था "पं० बलभद्र जी से मेरा समझौता करा दीजिए" । वस्तुस्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है । शास्त्री जी ने कभी भी उनसे ऐसा नहीं कहा । बाबू नेमिचन्द जी ने स्वयं बलभद्र जी के उक्त आरोप का खण्डन कई लोगों के सामने किया है ।
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डॉ. नन्दलाल जैन व डॉ. प्रेम सुमन
डॉ. नन्दलाल और डॉ प्रेम सुमन पर आरोपों के प्रसंग में डॉ. प्रेम सुमन के पत्र दिनांक 3 अप्रैल 1988 को यहां उद्धृत कर रहे हैं जिससे आपको उनके विचारों का पता लग जाये ।
डा. प्रेम सुमन का पत्र आदरणीय पं० जी,
29, सुन्दर वास उदयपुर 3-4-88 सादर प्रणाम
आपके पत्र मिले एवं आपका लेख भी । "आगम के मूलरूपों में फेर-बदल घातक है" नामक आपका लेख सार्थक एवं आगम की सुरक्षा के लिए कवच है।
जिन्होंने प्राचीन आगमों व अन्य सहित्य का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि कोई भी प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ/आगम, किसी व्याकरण के नियमों से बंधी भाषा मात्र को अनुगमन नहीं करता । उसमें तत्कालीन विभिन्न भाषाओं, बोलियों के प्रयोग सुरक्षित मिलते हैं । अत: ग्रन्थ की प्रमुख भाषा कोई एक प्राकृत हो सकती है, किन्तु अन्य प्राकृतों के प्रयोग उस ग्रन्थ के दूषण नहीं होते ।
यह ठीक है कि ध्वनि परिवर्तन या भाषा विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार प्राकृत के प्रयोगों में क्रमश: परिवर्तन की प्रवृति बढ़ी है। किन्तु कौन सी प्रवृति कब प्रारम्भ हुई उसकी कोई निश्चित कालरेखा खींचना विशेष अध्ययन से ही सम्मभव है । एक ही ग्रन्थ में कई प्रयोग प्राकृत बहुलता को दर्शाते हैं । अतः उनको बदलकर एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नहीं है।
जैनशौरनसेनी भाषा का प्रयोगों की दृष्टि से अध्ययन होना अभी
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बाकी है । संस्कृत छाया से प्राकृत पढ़ने वाले विद्वानों के द्वारा इस प्राकृत भाषा के साथ छेड़छाड करना अनधिकार चेष्टा कही जायेगी। उसे रोका जाना चाहिए।
आचारांग की भाषा के निर्धारण के लिए विद्वान प्रयत्नशील हैं । वे प्राचीन शिलालेखों, पालिग्रन्थों, ध्वनि परिवर्तनों के क्रमिक विकास, व्याख्या साहित्य में सुरक्षित रूपों, संघ की परम्परा और विषय के अर्थ की सुरक्षा आदि को ध्यान में रखकर कुछ निष्कर्ष निकालने के लिए प्रयत्नशील हैं । इस कार्य में वर्षों का श्रम अपेक्षित है । इतना ही श्रम जब बुद्धिपूर्वक कोई श्रमण-परम्परा का जानकार विद्वान् जैनशौरसेनी आगमों की भाषा के क्षेत्र में करे तभी किसी शब्द के बदलने का सुझाव वह दे सकता है, शब्द (मूल) को वह फिर भी नहीं बदल सकता । क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों का एक-एक शब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है।
शब्द के साथ-साथ आगमों के अर्थ की सुरक्षा भी आवश्यक है । श्रमण-परम्परा में अर्थ की प्रधानता रही है, इसीलिए एक अर्थ को व्यक्त करने के लिए कई शब्द/शब्दरूप प्रयोग में आये । उन सब शब्दरूपों, विकल्पों का संरक्षण करना भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखना है । श्रमण-परम्परा को जीवित रखना है । शब्द परिवर्तन या संशोधन का सबसे बड़ा आधार ग्रन्थ विशेष की उपलब्ध प्राचीन पाण्डुलिपियों का अध्ययन हो सकता है । पाण्डुलिपियों का अध्ययन सम्पादन की एक विशेष कला है केवल पाठान्तर दे देना या शब्दों को एकत्र कर देना सम्पादन नहीं है । इस कार्य की गम्भीरता के कारण ही पहले और अब भी विद्वानां के ग्रुप द्वारा सम्पादन करने की पद्धति है । अकेले तो केवल अपने विचार व्यक्त किये जा सकते हैं या टिप्पणी दी जा सकती है, मूलपाठ में शब्द नहीं बदला जा सकता है। किन्तु
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दुर्भाग्य यह है कि अभी भी कई आगम ग्रन्थों के मूलपाठ निर्धारित नहीं हो पाये हैं ! यह कार्य प्राथमिकता देकर सम्पन्न होना चाहिए ।
अभी कुछ कार्यो की व्यस्तता है । अन्यथा इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने का मन है । कभी एक संगोष्ठी आप जैसे मनीषी व खोजी विद्वानों की इसी विषय पर करने का विचार है । सब मिलकर किसी एक शौरसैनी आगम ग्रन्थ का सम्पादन कर उसे आदर्शरूप में उपस्थित करें तो आगे का रास्ता प्रशस्त हो सकता है ।
"जैनशौरसेनी प्राकृत व्याकरण" पुस्तक हमारे सहयोगी डॉ. उदयचन्द जैन ने तैयार की है। प्रयत्न है, इसे शीघ्र विद्वानों के समक्ष लाया जाय। तब शायद आगम में फेर-बदल का नियोजन हो सके ।
और सब ठीक है।
आपका प्रेम सुमन
नग्न दिगम्बर रूप की महत्ता
इतिहास की एक घटना है कि श्रावस्ती के राजा सुहेलदल को हराने के लिए लखनऊ के नवाब राजा ने अपनी सेना के आगे गऊओं को रखा। राजा गोभक्त था । लड़ाई के मैदान में उसने हथियार डाल दिये और परिणाम यह हुआ कि राजा लड़ाई में हार गया । इसी प्रकार पं० बलभद्र जी हमारे परमपूज्य नग्न दिगम्बर स्वरूप को आगे रख कर वही नीति अपना रहे हैं । उन्होंने आचार्य विद्यानन्द जी को अनुचित परामर्श देकर भरी सभा में वीर सेवा मन्दिर और पं० पद्मचन्द शास्त्री के विरुद्ध अपमान जनक प्रवचन करा दिया । हम उत्तर देने में सक्षम थे, किन्तु हमारे सामने वह दिगम्बर रूप आ गया जिसके सामने हम सदा
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नत मस्तक होते हैं और सदा होते रहेंगे । आचार्य विद्यानन्द जी के प्रवचन से प्रभावित होकर श्री अजितप्रसाद जैन ने "शोधादर्श" जुलाई 93 में "अथ समयसार शुद्धिकरण' शीर्षक से जो लेख छापा है उसे पाठकों की जानकारी हेतु अविकल दे रहे हैं -
अथ समयसार शुद्धि प्रकरण कुन्दकुन्द भारती के प्रकाशन में समयसार के मूल पाठ में संशोधन पर आचार्य श्री विद्यानन्द महाराज से प्रो० खुशाल चन्द्र गोरावाला की चर्चा:
पं. बलभद्र जी और पं० पद्मचन्द्र जी के बीच हुए पत्राचार को देख-समझकर प्रो० गोरावाला ने १ मई, १९९३, को दिल्ली में मुनि श्री से भेंट की थी।
प्रो० गोरावाला : Pischel आदि प्राकृतविदों के अनुसार जैनशौरसेनी वैदिक-संस्कृत के समान प्राचीन तथा पृथक है, साहित्यिकशौरसेनी से, साहित्यिक-संस्कृत के समान । अतएव जैसे वैदिकसंस्कृत में, साहित्यिक-संस्कृत के आधार पर आज तक एक भी रूप नहीं बदला गया है, वही हमें करना है जैन-शौरसेनी के विषय में ।
मनि श्री ने अपनी भाषा-समिति में आधे घंटे तक अपनी साधना, आगमज्ञान और शौरसेनी के विशेषाध्ययन पर उपदेश दिया । __ प्रो० गोरावाला : मैं 'संजदपद-विवाद' के समय से ही मूल की अक्षुण्णता का लघुतम पक्षधर हूँ, अतः जैन-शौरसेनी या कुन्दकुन्दवाणी की अक्षुण्णता के लिए 'अनेकान्त' का प्रेरक हूं। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ-निर्मित दोनों पंडितों में ममत्व भी है, तथा ये दोनों
आपके भी कृपाभाजन रहे हैं । ये व्याप्य हैं और आप व्यापक हैं । ऐसे प्रसंगों में व्यापक (आप तथा श्रमणमुनि) की अधिक हानि हुई है ।
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मुनि श्री का पुनः वाग्गुप्ति मय उपदेश चला ।
प्रो० गोरावाला : आपको जो एक अन्य ताड़पत्र की प्रति मिली है, उसे 'अनेकान्त', वीर सेवा मन्दिर, को दिला दीजिए।
मुनि श्री : मैं ५० हजार लोग भेजकर वीर सेवा मन्दिर का घिराव करा सकता हूं । या ५० पंडितों के अभिमत (पंफलेट) रूप में छपवाकर बांट सकता हूं और उस से वीर सेवा मन्दिर की भी वही हानि होगी जो आयकर में शिकायत करके इन्होंने 'कुन्दकुन्द भारती' की की है। अभी तक हमारा एक करोड़ का फण्ड हो गया होता अगर अनेकान्त ने इसके खिलाफ न लिखा होता ।
प्रो० गोरावाला : यह सब हमारे गुरुओं के अनुरूप नहीं होगा । अत: आप लिखें कि अमुक ताड़पत्री प्रति को आधार मानकर पं० बलभद्र जी का संस्करण प्रकाशित किया गया है तथा पूर्व-प्रकाशनों को त्रुटिपूर्ण, भूलयुक्त या अशुद्ध कदापि न लिखें क्योंकि यह लिखना जिनवाणी के लिए आत्मघातक होगा । जब एक ही ग्रंथ में पोग्गल पुग्गल, आदि रूप 'बहुलं, प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति' रूप से पाये जाते हैं तो वे तदवस्थ ही रहें । एकरूपता के लिए एक भी पद बदला, घटायाबढ़ाया न जावे, जो अधिक उपयुक्त लगे उसे 'अत्र संजदः प्रतिभाति' करना पादटिप्पणी में, विश्वमान्य संपादन-प्रकाशन-संहिता है । व्याकरण के आधार पर संशोधन और वह भी दूसरे (साहित्यिक-संस्कृत या शौरसेनी) के आधार पर न हुआ है और न होगा । महाराज। आपको कोई प्राकृत-व्याकरण प्राकृत में मिला ?
मुनि श्री ने प्रकारान्तर हेतु जयसेनी टीकागत सूत्रों को कहा ।
प्रो० गोरावाला : सब प्राकृत-व्याकरण संस्कृत में हैं । ये ब्राह्मणयुग की देन है जिसने लघु भाषाओं को अप-भ्रंश बनाया है । तीर्थ-राज वीरप्रभु से आगम रूप में आया तथा गणहरंगथिपय, श्रुत
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स्मृत रूप से जब शास्त्ररूप में आया तो १८ भाषाओं के आचार्यों की दृष्टि श्रोता-हित पर थी, 'वत्त्थुसहाव' को 'विद्वज्जनसंवेद्य' रख कर प्राकृत जन को वंचित करने की नहीं थी । 'स्याद्वाद' भाषाचौकापंथी (conservatism) का भी निराकरक है । वह भाषास्याद्वाद है । कहके नमोऽस्तु की ।
आचार्य श्री विद्यानन्द जी की चेतावनी - एक प्रतिक्रिया
प्रो० गोरावाला से दिनांक १ मई को हुई उपरोक्त भेटवार्ता के पहले महावीर जयन्ती की आम सभा में परेड ग्राउन्ड, लाल किला, दिल्ली में दिनांक ३ अप्रैल, १९९३, को मुनि श्री चेतावनी दे चुके थे -
"अन्त में मैं आपको एक महत्वपूर्ण बात बता दूं कि हमारे पं. बलभद्र जी ने एक समयसार सम्पादन १९७८ में कर दिया था जिसका सम्पादन ताडपत्री ग्रंथ के और चार हस्तलिखित और चार जो छपे हुए ग्रंथ हैं उनके अनुसार किया गया ।
१९७८ में लगातार एक साल तक वीर सेवा मन्दिर के कई सदस्यों ने पं० पद्मचन्द जी से ये लिखवा दिया कि ये ग्रन्थ भ्रष्ट कर दिया, ये ग्रन्थ बदल दिया और इसकी भाषा बदल दी । आगम को ध्वंस कर दिया, ऐसे सब बहुत बड़े आपत्तिजनक बातें कही, इतना ही नहीं उन्होंने कार्यकारिणी समिति बुलाकर एक पोस्टर भी निकाल कर इस ग्रंथ का बहिष्कार कर दिया । उनसे अनेक बार पंडित जी ने चिट्ठियां लिखी
और अभी भी तैयार हैं । समाज में पडितों को लड़ना नहीं चाहिए । पंडित तो पहले जैसे नहीं हैं और लड़वाने वाले सबसे बड़े जो चतुर लोग हैं उनसे आप लोगों को बच कर रहना चाहिए । और साफ हम कहते हैं कि आपको कोई हिम्मत हो तो यहाँ आप बाल आश्रम में आओ या यहाँ आओ या जहां आप चाहते हैं । पंडित जी एक-एक प्रामाण देंगे, हम भी बैठने को तैयार हैं । उनके पास ग्रन्थ भी भेजा
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इसमें क्या गलती है भेजो, आज तक नहीं भेज सके । तीन महीनों से उनको चिट्ठियाँ लिखी, कोई एक शब्द उत्तर देने को तैयार नहीं है और इतने कषायवश होकर उन्होंने अपशब्द तक उसमें लिखा है, जिसको बोल भी नहीं सकते । तो आप (वीर सेवा मन्दिर के) सदस्यों से मेरा कहना है कि या तो आप सिद्ध कर दीजिए, या इस्तीफा दे दीजिए और दोनों नहीं कर सकते तो मैं १०-२० हजार आदमियों को बुलाकर प्रस्ताव पास करुंगा । तब आपकी कोई स्थिति इधर उधर की नहीं रहेगी। ये मेरी आज चेतावनी है और आपको स्पष्ट कहना है। उन्होंने ६-६ लेख अनेकान्त में दिये जो बहुत ही घटिया बात है ।
१९७४ में भी शान्तिलाल कागजी इत्यादि ने मेरे खिलाफ बहुत परिश्रम किया और उन्होंने बहुत नाना प्रकार के बाल आश्रम में मुझे तकलीफ भी दी । मैंने क्षमा कर दिया था । इतना तक लिखा कि अनेकान्त में कि कुन्दकुन्द भारती को जो दान दिये गये हैं वो अन्याय उपार्जित धन है और वीर सेवा मन्दिर को जो दान दिये गये हैं न्याय उपार्जित । ये शान्तिलाल कागजी और पं० पद्मचन्द के धन्धे हैं । इनसे सतर्क रहो । और यदि ये लोग १०-१५ दिन के अन्दर इस समस्या का हल नहीं करते हैं तो मैं समाज के चारों तरफ से लोगों को भी बुलाऊँगा
और उनके खिलाफ प्रस्ताव पास होगा । और जो पं० बलभद्र जी कानूनी कार्यवाही करेंगे उसकी भी जिम्मेदारी आपकी होगी । आज मैं स्पष्ट कर रहा हूं, आज तक चुप बैठे हैं अब चुप नहीं बैठ सकते ।"
(प्रो० खुशालचंद गोरावाला जैन साहित्य के पिछली पीढ़ी के शेष रहे मूर्धन्य विद्वानों में से हैं । भगवद्कुन्दकुन्दाचार्य की अमर कृति समयसार के मूल पाठ में पूज्य आचार्य राष्ट्रसंत विद्यानन्द मुनि के मार्ग-दर्शन में कुन्दकुन्द भारती में प्राकृत व्याकरण के आधार पर किए गए संशोधनों के विषय पर आचार्य श्री के साथ उनकी चर्चा हुई थी। उपर्युल्लिखित भेंट-वार्ता इस संबंध में उनकी मनोव्यथा को उजागर
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करती है । समयसार ग्रंथ में शौरसेनी प्राकृत भाषा के प्राचीनतम रूप के दर्शन होते हैं तथा प्राकृत भाषा के व्याकरण उसके बहुत बाद में रचे गए थे । अत: समयसार की भाषा पूर्णरूपेण व्याकरण के नियमों के अनुरूप न हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । हम प्रोफेसर साहब के अभिमत से सहमत हैं कि उपलब्ध प्राचीन पांडुलिपियों के आधार पर स्थिर किए गए मूल पाठ में व्याकरण, अर्थ आदि की दृष्टि से यदि कोई संशाधन उपयुक्त समझा जाय तो मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ न करके उसे पाद-टिप्पणी (Footnote) के रूप में देना ही उचित है।) __इस संबंध में श्री महावीर जयन्ती के सुअवसर पर दि. ३-४-९३ को आयोजित विशाल जन सभा में आचार्य श्री द्वारा व्यक्त किए गए टेपित उद्गारों में उनकी कोपावेश से प्रेरित धमकी को पढ़ कर बड़ा अटपटा लगा । निश्चय ही, भाषा समिति का निरन्तर पालन करने वाले कषाय-जयी महामुनियों की गरिमा में इससे कोई श्री-वृद्धि हुई हो, हमें ऐसा नहीं लगा । पूज्य आचार्य श्री के सारी सभा को विस्मित करने वाले कोपावेश का हम स्वयं भी प्रत्यक्ष दर्शन कर चुके हैं जब उन्होंने श्री श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली के सहस्त्राब्दि महामस्तकाभिषेक के अवसर पर एक विशाल जन सभा में श्री भरत कुमार काला (बम्बई) को भारी कोपावेष में डांट कर मंच से उतरवा दिया था क्योंकि वे श्री काला के द्वारा एक विधवा अजैन महिला राजनेता से प्रथम अभिषेक कराए जाने की पूर्व आलोचना किए जाने से रुष्ट हो गए थे ।
-अजित प्रसाद जैन
प्रबन्ध सम्पादक ('शोधदर्श' 20 से साभार)
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आचार्य श्री के उक्त प्रवचन के सम्बन्ध में तत्काल ही एक पत्र कुन्दकुन्द भारती के अध्यक्ष साहू अशोक कुमार जैन की सेवा में वीर सेवा मंदिर की ओर से भेजा गया जो इस प्रकार है :
15 अप्रैल, 93 आदरणीय साहूजी,
सादर जय जिनेन्द्रदेव की । __गत माह समयसार विवाद के सम्बन्ध में 15-20 दिनों बाद बाहर से वापस आने पर आपने बात करने को कहा था। इस बीच 3 अप्रैल को महाराजश्री का प्रवचन इस सम्बन्ध में हुआ । जो जानकारी मुझे जैन-अजैन मित्रों से जितनी मिली, आपके अवलोकनार्थ संलग्न है ।
प्रवचन में लगाये गये सभी आरोप निराधार तो हैं ही, पं. पद्मचन्द शास्त्री के विरुद्ध की गयी टिप्पणी विशेष रूप से विचारणीय है ।
1 क्या किसी विद्वान् को खामोश करने का यही तरीका है ? 2 क्या शास्त्री जी का निरादर उचित है ? 3 क्या शास्त्री जी किसी के कहने पर लेख लिख सकते हैं ?
जैन समाज के नेता, कुन्दकुन्द भारती के अध्यक्ष, वीर सेवा मन्दिर के संरक्षक तथा अग्रज के नाते आपके मार्गदर्शन की अपेक्षा है ।
सादर, संलग्न : ।
आपका प्रतिष्ठा में, साहू श्री अशोककुमार जैन महासचिव अध्यक्ष कुन्दकुन्द भारती
इसके पश्चात् 10 मई 1993 को वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी की बैठक में महाराज श्री के उक्त प्रवचन पर विचार विमर्श हुआ और
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12 मई 1993 को कुन्दकुन्द भारती के मंत्री महोदय को जो पत्र भेजा गया वह यहाँ दिया जा रहा है :
12 मई, 1993 मंत्री महोदय. श्री कुन्दकुन्द भारती, 18 --बी स्पेश्यल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नयी दिल्ली-110067 आदरणीय बंधु,
सादर जयजिनेन्द्र । दिनांक 10 मई 1993 को वीर सेवा मन्दिर कार्यकारिणी की बैठक श्री प्रकाशचन्द जी जैन, पूर्व निगम पार्षद की अध्यक्षता में हुई । संस्था के सदस्य श्री दिग्दर्शनचरण जैन ने भगवान महावीर जयन्ती के अवसर पर 3-4-93 को आचार्य श्री विद्यानन्द जी के प्रवचन का टेप "जिसमें वीर सेवा मन्दिर एवं जैनागम" सम्बन्धी विचार व्यक्त किये गये हैं, प्रस्तुत किया और कहा कि इस टेप में वीर सेवा मन्दिर पर जो आरोप लगाये गये हैं वह अत्यन्त आपत्तिजनक है । टेप बैठक में बजाकर सुनाया गया ।
सर्वसम्मति से विचार किया गया कि टेप में व्यक्त आचार्यश्री के विचार तथ्यों पर आधारित नहीं हैं । सभी सदस्यों ने एकमत से टेप में व्यक्त भाषा के प्रति असहमति प्रकट की और निर्णय लिया कि टेप की प्रति आचार्य श्री के मनन हेतु भेज दी जाय । कार्यकारिणी के इस निर्णय के अनुसार टेप की प्रति आपके पास भिजवा रहा हूँ।
सधन्यवाद,
भवदीय, महासचिव
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पं. बलभद्र जी ने साहू अशोक कुमार जैन के हवाले से एक पत्र वीर सेवा मन्दिर को लिखा था । वीर सेवा मन्दिर ने 11-3-93 को पत्र लिखकर साह अशोक कुमार जैन से मार्गदर्शन चाहा था । पत्र इस प्रकार है :
11-3-93 आदरणीय साहू जी,
मादर जय जिनेन्द्र ।
कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयसार ग्रन्थ के प्रसंग में वीर सवा मन्दिर द्वारा उठाई गयी आपत्तियों से आप परिचित होंगे । इसी विषय में कुन्दकुन्द भारती से पं बलभद्र जी का पत्र दिनांक 11-- 3 ) 3 जो “अनेकान्त'' के प्रकाशक श्री बाबुलाल जैन के नाम है, की प्रति संलग्न है । इसी सम्बन्ध में विचार करने हेतु आज कार्यकारिणी की बैठक भी बुलाई गयी है जिसकी सूचना आपकी सवा मं भी यथासमय प्रेषित कर दी गयी थी। ___वीर सेवा मन्दिर का मन्तव्य यह है कि भगवान कुन्दकुन्द की निजी हस्तलिखित कोई प्रति समयमार की उपलब्ध नहीं है । विभिन्न प्रकाशनों की जो प्रतियाँ उपलब्ध हैं उन सभी में पाठ भेद है । कहीं भी व्याकरण के आधार पर एकरूपता की बात नहीं कही गयी है । मूल आगम की प्राचीनता अक्षुण्ण रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि व्याकरण के नाम पर एकरूपता करने के बहाने बदलाव नहीं किया जाय । यदि कहीं कोई पाठ भेद किया जाना आवश्यक लगता हो तो टिप्पणी में जाना चाहिए । यदि इस प्रकार बदलाव चालू हो गया तो मूल आगम का विलोप ही हो जायेगा ।
पं. बलभद्र जी ने अपने उपरोक्त पत्र में लिखा है कि आप और साह रमेशचन्द्र जी ने प्राकृत भाषा के कई प्रकाण्ड विद्वानों द्वारा यह
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जानकारी ली थी तो उन विद्वानों ने पाठ भेद का मामला बताया । बारामती में जब आपने जानना चाहा कि क्या कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयसार उपलब्ध प्राचीन ग्रन्धों में से किसी भी एक ग्रन्थ के अनुरूप है तब आपको भावनगर से 52 वर्ष पूर्व यह प्रकाशित 'समयमार'' ग्रन्थ दिखाया गया था । पण्डित जी के अनुसार उस प्रति में सभी पाठ कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशित ग्रन्थ के अनुरूप पाये गये थे।
कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित “समयसार'' ग्रन्थ के अगलेख "मुन्नड़ि' शीर्षक में दिये गये तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ किसी भी प्राचीन समयमार ग्रन्थ के अनुरूप नहीं है, फिर भी जैसा कि पण्डित बलभद्र जी ने उपगक्त पत्र में लिखा है कि कन्दकन्द भारती में प्रकाशित समयमार भावनगर में प्रकाशित ग्रन्थ क अनुरूप है, और आपन इसकी पुष्टि कर ली है ता कृपया हमाग मार्गदशन करन की कृपा करं ताकि वार सवा मन्दिर वस्तुस्थिति र अवगत हा जाय ।
माभिवादन सलग्न : एक
आपका, प्रतिष्ठा में.
महासचिव माननीय साह, अशोक कुमार जैन. नयी दिल्ली
समयसार क विषय में ही आदरणीय माह रमशचन्द्र जैन का 16-3 - 93 का पत्र हमें मिला था जिसका उत्तर वीर संवा मन्दिर की ओर से 17- 3 - 493 को उन्हें भेजा गया । पत्र इस प्रकार है :
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17 मार्च, 1993 आदरणीय साह जी, सादर जय जिनेन्द्र
संदर्भ : समयसार ग्रन्थ आपका । मार्च का पत्र संस्था के विद्वान पं पदमचन्द जी शास्त्री के नाम मिला । इस विषय में विचार-विमर्श करने से पहले मेरा निवेदन है कि कुन्दकन्द भारती में पं बलभद्र जी ने दिनांक 10 3 - 93 के पत्र में लिखा है कि शास्त्री जी में न तो उपदेश देने की पात्रता है और ना ही आदेश देने की क्षमता है, साथ ही उन्होंने शास्त्री जी की भाषा को आतंकवादी बताया है । पत्र के अंत में उन्होंने परिणाम भुगतने की धमकी भी दी है । उनके पत्र की प्रतिलिपि मलग्न है । क्या इन परिस्थितियों में शास्त्री जी के परामर्श का कोई अर्थ होगा,
इस सम्बन्ध म कन्दकन्द भारती से लगातार अनेक पत्र हमें मिले । मा भवत: आपको उन सभी की जानकारी भी होगी । कुन्दकुन्द भारती का और आदरणीय साह अशाक कुमार जी को संस्था से भेजे गये पत्रों की मलग्न प्रतिलिपियां विषय को अधिक स्पष्ट करती है ।
माभिवादन.
आपका, महासचिव
संलग्न : तीन पत्रों की छायाप्रति प्रतिष्ठा में. साह रमेशजी जैन ट्रस्टी कुन्दकुन्द भारती. टाइम्स हाउस, 7. बहादुरशाह जफर मार्ग. नयी दिल्ली
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डॉ गोकुलचन्द जैन, वाराणसी ने आगम बदलाव के सम्बन्ध में अपने विचार ‘जैन सिद्धान्त भास्कर' में दिगम्बर जैन प्राकृत लिटरेचर एण्ड शौरसेनी शीर्षक के अन्तर्गत इस प्रकार दियं हैं।
Digambera Jaina Prakrit Literature and Sauraseni
Tu conclude. I may simply observe that these questions Stand Yahsa Prasnas before scholars of Prakrits, andinot attended timely dangerous consequences are obvious If the Sauraseni grammar is prescribed for the study of Digambera Jauna Prakrit literature, and ancient Prakrit lets de COLrected accordingly, the entire Prakrit works of the tradition wul automatically be prosed after one thousand years of Vardhamana Malaura Then there remains 110 question of historical and objective study Most of the present scholars are repeating the CuSepassed by one on the other culier scholar Iven the studie's already conducted are not conSulled The younger Leneration has advanced few steps turth Icommon practicindercloputonaluthmaller from here and there and to make authoritative statements as their own research ( जैन सिद्धान्त भास्कर स साभार)
डॉ. ए एन उपाध्ये एव डाक्टर हीगलाल जैन क विचार पठनीय हैं ।
In his observation on the Digamber ter Dr Deniche discusses various points about some Digamber Prakrit works. He remarks that the language of these works is influenced by Ardhmagdhi, Jain Maharastri which Approaches 11 and Saurseni ' Dr AN Upadhye
Introduction of Pruruchunsula)
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The Prakrit of the sutras, the Gathas as well as of the commentary, is Saursenunfluenced by the order Ardhamagdhi on the one hand and the Maharashiri on the other, and this is exactly the nature of the language called 'Jain Saurseni'
.. Dr Hiralal (Introleuon of षट् खंडागम P IT') पटखण्डागम के सम्पादक और अपनी पीढ़ी के मान्य विद्वान पोडत फलचन्द शास्त्री के विचार यहां दिए जा रहे हैं ।
'जो ग्रन्थ हस्तलिखित प्रतियों में जैसा प्राप्त हो, उसको आधार मानकर उसे वैसा मुद्रित कर देना चाहिए । हमको यह अधिकार नहीं है कि हम उसमें हेर फेर करें। आप अपने विचार लिख सकते हैं या पाद टिप्पण म अपना सुझाव द सकते हैं । मूल ग्रन्थ बदलवाने का आपको अधिकार नहीं है । उपस आम्नाय की मर्यादा बनाने में सहायता मिलती है और मृन आगमों की सुरक्षा बनी रहती है ।
वेदों के समान मूल आगम प्राचीन है । वे व्याकरण के नियमों से बंधे नहीं हैं । व्याकरण के नियम बाद में उन ग्रन्थों के आधार पर बनाये जाते हैं।
__ - पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री
__बनारस वाले हस्तिनापुर प.. बलभद्र जी का मुख्य आरोप यह रहा है कि हमने उनके किमी पत्र का उत्तर नहीं दिया है । हम वीर सेवा मन्दिर से दिये गये उत्तरों को पाठकों की जानकारी के लिए यहां उद्धृत कर रहे हैं :
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18 फरवरी. 3 माननीय पंडित बलभद्र जी जैन संपादक "समयमार कुन्दकुन्द भारती, नयी दिल्ली
आदरणीय.
आपकं पत्र दि ।- 2 )क उत्तर म निवेदन है कि ।... मं सालापुर से प्रकाशित "मृलाचार'' ग्रन्थ स सम्बन्धित गाथा के पृष्ट की छाया प्रति संलग्न है जिसम हदि का नही "होई" शब्द का प्रयोग है। भारतीय ज्ञानपीठ व अन्य पूजा की पुस्तको अभा दि जैन परिषद की पाठावला में भी 'हर्वाद' शब्द का प्रयाग नही है ।
पण्टिन पदमचन्द्रजी गाम्बी से बात करन पर उन्हान कहा "डय विषय म वह पहल ही लिग्नु चक है । उनका अभिमान है कि एक ही ग्रन्थ में एक गब्द का विभिन्न स्थानों पर विभिन्न पाम दिया गया है । उनकी दृष्टि में व सभी ठीक है । जिस जगह जिम शब्द का जा रूप प्रयुक्त हुआ है आग भी वहीं होना चाहिए । गन्द का बदल कर एकरूपता लाने के चक्कर में मूल रूप म बदलाव य प्राचीनता नष्ट होती है । आवश्यक होने पर कुछ पाठ भेद स्पष्ट करना भी पड़े तो उसे टिप्पणी में दिया जाना चाहिए । मूल गाथा के स्वरूप को बदला नहीं जाना चाहिए, उसे अक्षुण्ण रहना ही चाहिए । यह मत कवल मंग ही नहीं. अनेक उच्चकोटि क मर्धन्य विद्वानों का भी है ।"
पण्डित जी की जिन आपत्नियों का यप्रमाण समाधान आपने तयार
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किया है, कृपया उसकी एक प्रति भेज दें तो विषय के सभी पक्षों पर विचार करने में सुगमता रहेगी और समुचित समाधान भी हो सकेगा। शेष आपका उत्तर आने पर,
भवदीय, महासचिव
3 मार्च, 93 आदरणीय पंडित बलभद्र जी, सादर जजिनेन्द्र
आपस दो सप्ताह पूर्व दूरभाष पर और आपके प्रतिनिधि श्री सुभाषचन्द्र जैन स 2-3 बार बातें हुई । आपने कहा था कि आपके द्वारा प्रकाशित “समयसार'' ग्रन्थ मृडबिद्री के ताडपत्र पर लिखित प्रति पर आधारित है । मैंने आपसे भी निवेदन किया था और आपक प्रतिनिधि से भी कि उक्त मृडबिद्री के ग्रन्थ की छाया प्रति हमें उपलब्ध कराने की कृपा करें ताकि हम भी अपने शोधार्थियों के लिए उपयोग कर सकें।
कल आपके प्रतिनिधि ने कहा कि मैं लिखित में आपसे निवेदन करूं, अत: मेरा निवेदन है कि आप उक्त ग्रन्थ की छाया प्रति भिजवा दें। उसमें कुछ खर्चा भी हो तो हम सहर्ष आपको देंगे । इस प्रकार उस ग्रन्थ से हमारा मार्गदर्शन भी होगा और आपके इस पक्ष को भी बल मिलेगा कि आपने “समयसार" मूडबिद्री के ताडपत्री पर लिखित ग्रन्थ को आदर्श प्रति मानकर ही मुद्रित कराया है ।
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शास्त्री जी का कहना है कि जिस ग्रन्थ में जो शब्द जिस रूप में आया हैं वहां उसका वही रूप रहना चाहिए । उनका विरोध तो यही है कि व्याकरण की दृष्टि से किसी आगम के मूल शब्द को सुधार के नाम पर बदलना आगम को विरूप करना है । कृपया मूडबिद्री ग्रन्थ ही प्रति शीघ्र भिजवाने की कृपा करें ।
भवदीय. महासचिव
13 मार्च, 1993 मंत्री कुन्दकुन्द भारती 18-बी. स्पेश्यल इस्टीटयूशनल एरिया नयी दिल्ली-110017 आदरणीय बंधु.
सादर जय जिनेन्द्र
कुन्दकुन्द भारती एवं पंडित बलभद्र जी से प्राप्त दिनांक 15-2-93, 18-2 -- 93, 20-2 - 03, 21 2 ) 3. 2-3-93, (-3-93, 10-3-93, 11 -- 3-03 एवं बिना दिनांक के पत्रों पर वीर सेवा मंदिर की कार्यकारिणी ने दिनांक 11 -3 -) को श्री शीलचन्द जी जैन जौहरी की अध्यक्षता में विस्तृत रूप से विचार किया । यह निष्कर्ष निकला कि वर्तमान में भगवान कुन्दकुन्द की, उनके निजी हस्तलिखित समयसार ग्रन्थ की कोई प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है । विभिन्न प्रकाशकों की अथवा प्राचीन ताडपत्र पर लिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं । उनका अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि कोई भी प्रति अक्षरश: एक दूसरे से मेल नहीं खाती । किसी भी प्रति में ऐसा लेख नहीं मिलता कि उसका संशोधन किया गया है ।
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कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में संशोधन कर शब्दों में परिवर्तन से यह विवाद उत्पन्न हुआ । इस विषय पर वीर सेवा मंदिर की कार्यकारिणी ने 1988 में विचार किया और निर्णय लिया कि ऐसे प्राचीन आगम ग्रन्थों में शब्द परिवर्तन कर संशोधन की परिपाटी को रोका जाय अन्यथा मूल आगम का लोप ही हो जायेगा । इसी दृष्टि से इस सम्बन्ध में विद्वानों से प्राप्त विचारों को पत्रक के रूप में प्रसारित कर समाज को जागृत करने का प्रयत्न किया गया ।
हालांकि उक्त प्रसंग में वीर मेवा मंदिर में 1988 में प्रकाशित "अनेकान्त'' के तीन अंकों में प्रकाश डाला गया था जबकि 1993 में कुन्दकुन्द भारती से उपरोक्त आरोप पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनमें 1988 के अंकों का हवाला दिया गया है । उन पत्रों में मुख्य रूप से यह कहा गया है कि मृडबिद्री में प्राप्त ताडपत्रों पर लिखित समयमार को आर्दश प्रति मानकर ही यह ग्रन्थ मुद्रित कराया गया है और यह आशय निकलता है कि कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयमार ग्रन्थ उक्त प्रति के अनुसार है, परन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है क्योंकि उसी ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'मुन्नडि' शीर्षक से जो लेख छपा है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि यह ग्रन्थ किसी भी अन्य उपलब्ध समयसार की सत्य प्रति नहीं है।
आपके उपरोक्त एक पत्र में श्री राजकृष्ण जैन चेरिटेबिल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित समयसार ग्रन्थ के हवाले से कहा गया है कि उन्होंने भी समयसार में संशोधन किया है, किन्तु उसकी प्रस्तावना से विदित हुआ कि उन्होंने संशोधन नहीं किया है बल्कि छूटे शब्द व पंक्तियों की पूर्ति विद्वानों की देख रेख में की । उन्होंने व्याकरण के आधार पर कोई भी शब्द नहीं बदला है ।
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उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया है कि मूडबिद्री से प्राप्त समयसार की छाया प्रति उपलब्ध कराकर उसका मिलान कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयसार से कर लिया जाय । यदि यह उसी की सत्य प्रति है तो वीर सेवा मंदिर अपनी सभी आपत्तियों को सखेद वापस ले लेगा । यही मांग पण्डित बलभद्र जी ने अपने 10-3-93 के पत्र में रखी है।
कार्यकारिणी ने यह निर्णय भी लिया कि वीर सेवा मंदिर का अभिप्राय कुन्दकुन्द भारती अथवा संपादक महोदय को किसी प्रकार की हानि पहुंचाने का नहीं था. न है और ना ही भविष्य में ऐसा हो सकता है।
भवदीय
महासचिव | पूज्य त्यागीगण एवं विद्वानों की कुछ सम्मतियां भी दी जा रही है।
अ -108 पूज्य आचार्य शिरोमणि श्री अजित सागर जी महाराज
'मृल जैन प्राकृत ग्रन्थों को बदलना कथमपि उचित नहीं है।' आ - गणधराचार्य 108 श्री कुन्थुसागर महाराज ___-जो भी पूर्वाचार्यो द्वारा लिखित ग्रंथ हैं अथवा कुन्दकुन्द देवकृत जिनागम हैं उसमें बदल करने का किसी को भी अधिकार नहीं है क्योंकि हमारे आचार्यों ने कहीं भी गलत लिखा ही नहीं है । मूल ग्रन्थों को बदलना व उनकी मूल भाषा को बदलना महापाप है ।' इ -श्री 108 नमिसागर जी महाराज
___-'आगम को अन्यथा करना सबसे खराब बात है इससे परम्परा बिगडेगी ही।'
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ई -क्षुल्लकमणि 105 श्री शीतल सागर जी महाराज
- 'मूल शब्दों, वाक्यों में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए । कोष्टक या टिप्पणी में अपना सुझाव दिया जा सकता है ।' उ - 105 आर्यिका विशुद्ध मती जी
-'मूल में सुधार भूल कर नहीं करना चाहिए अन्यथा सुधरतेसुधरते पृरा ही नष्ट हो जाएगा ।' ऊ- 105 आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी
-यदि कदाचित् कोई पाट बिल्कुल ही अशुद्ध प्रतीत होता है तो भी उसे जहाँ का तहाँ न सुधार कर कोष्ठक में शुद्ध प्रतीत होने वाला पाठ रख देना चाहिए । आजकल मृलग्रन्थों में संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन की परम्परा चल पड़ी है उसकी मुझे भी चिन्ता है ।' ए -पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ____ -'ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हो उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती हैं । उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है । दूसरी प्रतियों में यदि कोई पाठ भेद मिलते हैं तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है ।' ऐ -पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री ___-पूर्वाचार्यो के वचनों में, शब्दों में सुधार करने से परम्परा के बिगड़ने का अन्देशा है । कोई भी सुधार यदि व्याकरण से या विभिन्न प्रतियों के आधार पर करना उचित मानें तो उसे टिप्पण में सकारण उल्लेख ही करना चाहिए न कि मूल के स्थान पर ।'
ओ -पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री ____ -संशोधन करने का निर्णय प्रतियों के पाठ मिलान पर नियमित होना चाहिए न कि सम्पादक की स्वेच्छा पर ।'
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औ -डा. ज्योतिप्रसाद जैन ___-'किसी भी प्राचीन ग्रन्थ के मूल पाठ को बदलना या हस्तक्षेप करना किसी के लिए उचित नहीं है । जहां संशय हो या पाठ त्रुटित हो उसी स्थिति में ग्रन्थ की विभिन्न प्रतिलिपियों में प्राप्त पाठान्तरों का पाद टिप्पणी में संकेत किया जा सकता है ।' अं -डा. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली
-'हमें कुन्दकुन्द भारती (आगम) को बदलने से बचाना चाहिए अन्यथा लोग आगम ग्रन्थ तो दूर रहे वे अनादि मूल मंत्र णमोकार मंत्र को भी बदल कर रख देंगे ।' अः -प्रो० गोरावाला खुशालचन्द्र, वाराणसी
__'जिनवाणी भक्तों को मूल को बदले बिना टिप्पणी द्वारा ही अन्तर-प्राकृत रूपों का निर्देश करना चाहिए ताकि पुण्य श्लोक पूज्यवर श्री 108 आ॰ शान्ति मागर जी महाराज के समान समाधि ग्रहण के पहिले "संजद" पद की पुन: स्थिति का उपदेश न देना पड़े ।' क -डा. राजाराम जैन, आरा ___-'मूल आगमों की भाषा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होना चाहिए । जिस भाषा परिवर्तन के आधार पर हमने अर्धमागधी जैनागमों (श्वेताम्बरागमों) का बहिष्कार कर दिया, उसी आधार पर हम अपने मूलागमों की भाषा में परिवर्तन कर उसे अपनाना चाहते हैं, यह कैसे संभव होगा ।' ग -डॉ॰ नेमीचन्द जैन, इन्दौर ____ - वस्तुतः जैन शौरसेनी अन्य प्राकृतों से जुदा है, इस तथ्य को पूरी तरह समझ लेना चाहिए । भाषा के शुद्ध करने की सनक में कहीं ऐसा न हो कि हम जैन-शौरसेनी के मूल व्यक्तित्व से ही हाथ धो बैठें ।'
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घ -डॉ॰ लालचन्द जैन, वैशाली
-'प्राचीन आचार्यो के ग्रन्थों की मूलभाषा को शुद्ध करके उसे विकृत करना एक बहुत बड़ा दु:साहस है । जैन शौरसेनी आगमों की भाषा समस्त प्राकृतों से प्राचीन है, इसलिए उसके रूपों में विविधता का होना स्वाभाविक है । बारहवीं शताब्दी के वैयाकरणों के व्याकरण नियमों के अनुरूप बनाना सर्वथा अनुचित है । आचार्य हैमचन्द ने स्वयं प्राकृत व्याकरण में 'आर्षम्' सूत्र के द्वारा कहा भी है कि 'आप' अर्थात् आगम संबंधी शब्दों की सिद्धि में प्राकृत-व्याकरण के नियम लागू नहीं होते हैं।' च -पद्मश्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर ___ 'मृल में तो किसी भी प्रकार की मिलावट बर्दाश्त नहीं हो सकती' छ - श्री अजितकुमार जैन, ग्वालियर
'कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयसार और नियमसार' आदि ग्रन्थ आ विमल सागर जी महाराज एवं उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज ने यह कहकर लौटा दिए कि इन ग्रन्थों में आचार्यों की मूल गाथाओं के शब्दों को बदल दिया है जो आगम सम्मत नहीं है ।' ज -दि० जैन प्रवन्था समिति ट्रस्ट, बीकानेर ___-'मृल आगम की रक्षा का जो प्रयास आपने किया है वह सराहनीय है।'
झ -डा० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी __-'कुन्दकुन्द आदि पूर्वाचार्यों की प्राकृत परिवर्तन पर विभिन्न विद्वानों का ध्यान गया है और भविष्य में उससे होने वाले खतरों का संकेत भी स्पष्ट हो रहा है । दिगम्बरों द्वारा अपनी ही प्राचीन संस्कृति की इस प्रकार अवहेलना हमारे दिमागी खोखलेपन का नमूना है।'
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ट -श्री भा० दि० जैन विद्वत्परिषद की ओर से दि० 23/6/88 ____ -'प्राचीन ग्रन्थों के संपादन की सर्वमान्य परिपाटी यह है कि उनके शब्दों में उलट फर न करके अन्य प्रतियों में जो दूसरे रूप मिलते हों. परिशिष्ट में या टिप्पणी में उनका उल्लेख कर दिया जाए ।' ठ -डा० विमलप्रकाश जैन, जबलपुर ____-'मंपादक को अपनी ओर से पाठ परिवर्तन करने का कदापि अधिकार नहीं है । जो भी कहना हो, वह अपना अभिमत या सुझाव पाद-टिप्पण में दे सकता है । और प्राकृत ग्रन्थों में तो विशेष रूप से किसी भी सिद्धान्त का मानकर पाठों को एक रूप बनाना तो सरासर प्राकृत की सुन्दरता, स्वाभाविकता को समाप्त कर देना है । जो संपादन कं सर्व मान्य सिद्धान्तों क सर्वथा विरुद्ध है ।' ड -अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्-खुरई अधिवेशन में दि० २७ ६. ९३ को पारित प्रस्ताव
'वर्तमान काल में मृल आगम ग्रन्था के सम्पादन एवं प्रकाशन के नाम पर ग्रन्थकारो की मल गाथाओं में परिवर्तन एवं संशोधन किया जा रहा है । जो आगम की प्रामाणिकता, मौलिकता एवं प्राचीनता का नष्ट करता है । विश्व-मान्य प्रकाशन मंहिता में व्याकरण या अन्य किसी आधार पर मात्रा. अक्षर आदि के परिवर्तन का भी मृल का घाती माना जाता है । इस प्रकार के प्रयामां से ग्रन्थकार द्वारा उपयाग की गई भाषा की प्रचीनता का लोप होकर भाषा क ऐतिहासिक चिन्ह लुप्त हान है । अतएव आगम/आर्य ग्रन्थो की मौलिकता बनाए रखने क उद्देश्य र अ भा दि जैन वि प विद्वानों, सम्पादकां. प्रकाशकों एवं उनके जात अज्ञात सहयोगियों में पाग्रह अनुरोध करती है कि वे आचार्यकृत मूलग्रन्थों में भाषा एवं अर्थ सुधार के नाम पर किसी भी प्रकार का फेरबदल न करें । यदि कोई संशोधन/परिवर्तन आवश्यक समझा जाए तो
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उसे पाद-टिप्पण के रूप में ही दर्शाया जाए ताकि आदर्श मौलिक कृति की गाथाएं यथावत ही बनी रहें और किसी महानुभाव को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण कं २५०० वर्ष उपरान्त उत्पन्न जागरूकता के बाद भी मृल आगमों में संशोधन किया गया है।'
-सुदर्शन लाल जैन
मंत्री
उपसंहार
पं. बलभद्र जी ने संपादकीय में मेरा निवेदन शीर्षक से लिखा है कि उन्होंने आगम में एक भी शब्द न घटाया है न बढ़ाया है। आप और आचार्य परम्परा से आये अर्थ के अनुसार ही अन्वय और अर्थ किया है । हमारा अन्वय और अर्थ से प्रयोजन नहीं । इसलिए उनका यह उल्लेख हमारे लिए अप्रासंगिक है । वीर सवा मन्दिर का तो स्पष्ट मन्तव्य है कि पं० बलभद्र जी ने आगम के मूल शब्दों को निकाल कर व्याकरण के अनुसार शब्दों में एकरूपता लाने का प्रयत्न किया है जो हमें स्वीकार नहीं है । वे लिखते हैं कि उन्हें दस गाथाएं बतायें जो व्याकरण के नियमों के विरुद्ध हों । हमारा कहना है कि जैन शौरसैनी प्राकृत आम लोगों के बोलचाल की भाषा थी जिसका कोई व्याकरण नहीं होता । जिस भाषा पर व्याकरण लागू होता है उसे प्राकृत नहीं कहा जा सकता । प्राकृत भाषा में तो शब्दों के सभी रूपों का प्रयोग हुआ है । यदि वे व्याकरण के नियमों के अनुकूल होते तो सभी जगह शब्द एकरूप होते । खेद है कि पं. बलभद्र जी ने मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति की आड़ में व्याकरण के नियमों के अनुसार शब्दरूप परिवर्तन कर एकरूपता स्थापित कर दी है । इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि इस शुद्धीकरण में हैमचन्द आचार्य के व्याकरण के अनुसार
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परिवर्तन किये गये हैं । हैमचन्द आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य के बहुत बाद के हैं, ऐसा करने से दिगम्बर जैन आचार्य कुन्दकुन्द श्री हैमचन्द आचार्य के बाद में हुए सिद्ध होते हैं जो नितांत भ्रामक है ।।
अत्यन्त पीड़ा के साथ हमें लिखना पड़ रहा है कि कुन्दकुन्द भारती (संस्था) में बैठकर पं० बलभद्र जी आगम रूप कुन्दकुन्द भारती को ही भ्रष्ट करने पर तुले हैं । जिन आगमों को पढ़ कर वह विद्वान बनें, जो सदैव उनकी आजीवका का सहारा बना, उन्हीं आगमों को भ्रष्ट कहना और उन्हें बदलना तो ऐसा ही है जैसा उसी पेड़ की जड़ें काटना जिस पर वह बैठा हुआ हो । उन्होंने वीर सवा मन्दिर के मंत्री को अपनं संपादकीय में खेद प्रकट करने की शालीनता दिखाने का परामर्श दिया। हमें आशा है कि पं. बलभद्र जी का भ्रम दूर हो गया होगा और वे आगम भाषा को अत्यन्त भ्रष्ट कहकर आगम को विरूप करने की अभद्रता के लिए समाज से खेद प्रकट करने की शालीनता अवश्य दिखायेंगे।
वीर सेवा मन्दिर
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परम्परित मूल आगम रक्षा प्रसंग
बात मई सन् 1978 की है, जब प्रासंगिक (पश्चाद्वर्ती-व्याकरणसंशोधित) समयसार ( कुंदकुंद भारती) का प्रकाशन हुआ और ला. हरीचंद जैन द्वारा मथुरा वाले पं. राजेन्द्रकुमार जी ने हमें भिजवाया । जैसा कि प्राय: होता है ग्रन्थ को पर्याप्त समय बाद देखने का अवसर मिला । जब ग्रन्थ पठन में मृल प्राकृत के शब्दों में एकरूपता का
अनुभव हुआ तब पुस्तकालय में उपलब्ध प्रतियों से मिलान किया और हमें वहाँ विभिन्न प्रतियों के शब्दों में अनेकरूपता दृष्टिगत हुई । तब प्रासंगिक समयसार की “मुन्नुडि'' अर्थात् पुगवाक् (दो शब्द ) पढ़ना पड़ा ताकि उससे संपादक की संशोधन दृष्टि मिल जाय । संपादक ने उसमें लिखा है :
1 "पाठ संशोधन की अथवा संपादन की हमारी शैली इस प्रकार रही है . हमने विभिन्न प्रतियों के पाठ भेद संग्रह किये । प्रसंग और ग्रन्थकार के अभिप्रेत के अनुसार उचित पाठ को प्राथमिकता दी । प्राथमिकता देते हुए अमृतचन्द्र के मन्तव्य को अवश्य ध्यान में रखा । जहाँ अमृतचन्द्र मौन हैं वहां जयसेन के मन्तव्य को पाठ के औचित्य के अनुसार स्वीकार किया ।" - मुन्नुडि. पृ 13 ( पुरोवाक )
2 "समयसार की मुद्रित और लिखित प्रतियों में अधिकांश भूलें भाषा-ज्ञान की कमी के कारण हुई हैं।" - मुन्नुडि. पृ 10 ( पुरोवाक्)
3 “अधिकांश कमियां जैन-शौरसेनी भाषा के रूप को न समझने का परिणाम हैं ।" - मुन्नुडि, पृ 12 (पुरोवाक्)
संपादक के उक्त वक्तव्य को पढ़ कर यह जानने में देर न लगी कि -
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(क) संपादक ने पाठ-भेद संग्रह किये और अपनी समझ से जो
उन्हें उचित जान पड़ा उस पाठ को रखा : अर्थात् किसी
प्रति को आदर्श नहीं माना । (ख) हम नहीं समझे कि जब प्राकृत शब्द के रूपभेद में अर्थ
भेद न होता हो, तब प्राकृत शब्द रूपो के चयन में संपादक ने प्रसंग को कैसे देखा ? अर्थात् पुग्गल हो या पोग्गल हो दोनों शब्द रूपों के अर्थ में अभेद है - इससे प्रसंग और अर्थ दानों में अन्तर नहीं पड़ता – तब प्रमंग से शब्द चयन कैस किया और कैस जाना कि यहां पागल है या पुग्गल आदि ।
(ग) उन्होंने शन्द्ध- चयन में ग्रन्थकार कदकुद के अभिप्रेत को
कैसे जाना कि कंदकंद ने अमक स्थान पर अमुक शब्द का अमुक रूप रखा है ? जबकि कुन्दकन्दाचार्य की स्व दस्त लिखित कोई प्रति है ही नहीं और जब सपादक स्वयं ही लिखित और मुद्रित प्रतियो को मृत्ल युक्त कह रहे हैं। प्राकृत शब्द रूपां के चयन में सपादक ने अमृतचन्द्र आचार्य के मन्तव्य का कहां से जान लिया जबकि प्राकृत शब्द रूप के विषय में उक्त आचार्य मौन हैं और कंवल संस्कृत में
व्याख्याकार हैं। (च) संपादक का यह कथन कि उन्होंने "जयमन के मंतव्य को
स्वीकार किया" भी सर्वथा मिथ्या है क्योंकि उन्होंने विभिन्न गाथाओं में जयसेनाचार्य द्वारा प्रयुक्त विभिन्न शब्द रूपों में पाठ की औचित्यता देखन की विद्वता दिखाई और जहां इन्हें औचित्यता नहीं दिखी वहां शब्द-रूप बदल दिया - ऐसा
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इनकी मुन्नुडि से फलित है । इन्होंने औचित्यता परखने का
माप-दण्ड भी नहीं बताया । (छ) संपादक के पास कौन सा व्याकरण है जो कुंदकंद से पूर्व
___ था और जैन-शौर सेनी का प्राकृत में हो ? ऐसी अवस्था में संपादक के बयान के अनुसार यह निष्कर्ष निकला कि यह प्रसंग प्राकृत-भाषा की एकरूपता करने जैसा है। फलत: - तब प्राकृत के प्रसिद्ध वेत्ता डा. ए. एन उपाध्ये, डा. हीरालाल जैन, डा. नेमीचन्द जैन, आरा के मन्तव्य जानने का प्रयास करना पड़ा और ज्ञात हुआ कि उन्होंने दिगम्बर आगमों की प्राकृत भाषा के रूप का परीक्षण कर निष्कर्ष तो निकाला कि वह प्राकृत ( पश्चाद्वर्ती व्याकरण से भेद को प्राप्त दायरों से ऊपर) सार्वजनिक प्राकृत है - उसमें कई रूप विद्यमान हैं । पर, वे यह कहने व करने का साहस न कर सकं कि अमुक-अमुक शब्दों के अमुक-अमुक रूप आगम में नहीं हैं या आगम में शब्दों का अमुक रूप ही है । वे शब्द रूपों के बदलाव (इधर-उधर करने) की हिम्मत भी न कर सके - जिसे इन्होंने शब्द रूपों का इधरउधर करके दिखा दिया । हमने डा. जगदीशचन्द्र जी द्वारा निर्दिष्ट व्याकरविभक्त भाषा- भेद के प्रारम्भिक काल को भी पढ़ा - जो काल, प्रासंगिक आगमो के निर्माता आचार्य कुंदकुंद से सदियों बाद का है । फलत: ऐसा लगा कि यह ठीक नहीं हो रहा और तब लिखने के संकल्प-विकल्प उठने लगे-हम सोचते ही रहे, कि -
सन् 7) में हमें इन्हीं संपादक जी द्वारा संपादित “रयणसार" की जयपुर से प्रकाशित प्रति भी मिल गई । इसके "पुरोवाक' में संपादक जी ने वेदनादायक जो शब्द लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं :
'मुद्रित कुन्दकुन्द साहित्य की वर्तमान भाषा अत्यन्त-भ्रष्ट और
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अशुद्ध है। यह बात केवल 'रयणसार' के मुद्रित संस्करणों के संबध में ही नहीं, कुंदकुंद के सभी प्रकाशित ग्रन्थों के बारे में है।' - पृ० 7
'रयणसार' में उक्त पंक्तियाँ लिखते हुए माननीय सम्पादक को यह भी ध्यान न आया कि मन् 74 में कुंदकंद भारती (जिसके संस्करणों को ये शुद्ध कहते हैं) से प्रकाशित 'रयणसार', जिसे भट्टारक चारुकीर्ति जी द्वारा प्रदन ताडपत्रीय प्रति पर अंकित प्रति की चित्र अनुकृति कहा गया है तथा जिस रयणसार के पुरा-वचन में सिद्धान्तचक्रवर्ती, समय प्रमुख, प्रवचनपरमेष्ठी उपाधिधारी आचार्य श्री विद्यानन्द जी द्वारा (आगम भाषा मान्य) निम्न गाथा उद्धृत की गई है ...
'दव्वगुण पजएहिं जाणड परसमय ससमयादि विभेयं ।
अप्पाणं जाणइ सो सिवगइ पहणायगो होइ ।।' उक्त गाथा को बदलकर उक्त संपादक जीन शुद्धका निम्नम्प में कर सिद्ध कर दिया है कि 'समय प्रमख्ख' भी गलत बयानी कर सकते हैं और कुदकुंद भारती' का प्रकाशन भी अशुद्ध है । पर हम मानने को तैयार नहीं कि 'सिद्धान्त चक्रवर्ती पद पर स्थित महान विभूति रामी गल्ती कर सकेंगे । इनके द्वारा बदला रूप नीचे दिया जा रहा है । विज्ञ देखें --
'दव्वगुण पज्जयेहिं जाणदि यग्यमय यममयादि विभेदं ।
अप्पाणं जाणदि यो सिवगदि पहणायगा होदि ।।' संपादक जी द्वारा उक्त 'पुगवाक' में आगम भाषा को अत्यंत भ्रष्ट और अशुद्ध घोषित करना तथा पूर्वजों को भाषा से अजान बताना, जिनवाणी और पूर्वजों का घोर अपमान था । यदि ऐसा अपमान किमी अन्य के धर्मग्रन्थ या उसके विद्वान् का ( उस संबंध में) हुआ होता तो
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अवश्य भयानक परिणाम संभव था । पर, अहिंसा प्रधान धर्मियों के लिए वह काम 'क्षमा वीरस्य भूपणम्' में खो गया और इनका काम प्रवचन परमेष्ठी की आड़ लेकर चलता रहा । पू. आचार्य श्री के मान्निध्य में कवच में सुरक्षित ये निश्चिन्त और सब लोग भयाक्रान्त
और मौन जैसे थे कौन बोलता या हिम्मत करता । पर, इस दर्द में इधर चुप न बैठा गया और हमने सन् 198) के अनेकान्त में इसका प्रतिवाद पहिली बार किया । जब लम्बे अर्से के बाद भी सुनवाई नहीं हुई तब उसी बात को दुहराने के लिए सन् 82 में उसे 'जिनशासन के विचारणीय प्रसंग' पुस्तक में छपाया जिसे पं कैलाशचन्द्र शास्त्री ने समर्थन दिया ।
फिर जब सन् 57 में इनके द्वारा ऐसा ही संशोधित ( ? ) 'नियममार' आया तब वीर सेवा मन्दिर की प्रबुद्ध कार्यकारिणी ने यह सोचकर कि 'कही जिनवाणी' के परम्परित प्राचीन मूल रूप का लोप ही न हो जाय' इस रूप-बदलाव का अनेकान्त द्वारा विरोध का प्रस्ताव किया । फलतः - सन् १६ ई. मे लेख पुन: चालू हुए और कार्यकारिणी के निर्णयानुसार त्यागियों व विद्वानों की मम्मतियाँ मँगा कर एक पत्रक भी छपाया गया । फिर भी कोई फल न हुआ । हालांकि ये इस विरोध में खबरदार थे . बारामती आदि में ये इस प्रयत्न में भी रहे कि कछ विद्वानों से ये अपने बदलाव पक्ष को पुष्ट करा सकं । पर-- - -- ?
निश्चय ही आचार्य जयसेन, जिन्होंने कंदकंद के ग्रन्थों की व्याख्या प्राकृत शब्द रूपों का उधृत करते हए की है, वे अपने पश्चाद्वर्ती विद्वानों में प्रकृष्टतम हैं और समय में भी हमारी अपेक्षा कुंदकुंद के अधिक निकट है । समयसार की विभिन्न गाथाओं में उनके द्वारा उद्धृत विभिन्न गाथाओं के विभिन्न शब्द रूपों को संपादक महोदय ने बदल कर प्राकृत को एकरूपता दे दी । शायद संपादक विशेष प्राकृतज्ञ
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हों ओर उन्हें वर्तमान सम्मानित विद्वानों के समर्थन का भरोसा भी हो । पर आधुनिक किसी भी विद्वान् को जयसेनाचार्य से अधिक ज्ञाता नहीं माना जा सकता जिन्हें इन्होंने अमान्य कर दिया । फिर मैं तो विद्वानों की चरणरज तुल्य भी नहीं. जो उक्त संशोधनों का समर्थन कर सकूँ । पश्चाद्वर्ती व्याकरण से तो शुद्धिकरण सर्वथा ही असंगत है । फलतः - आगमरक्षा के लिए हम सद्भाव में अपनी बात लिखते रहे और सम्पादक मौन अपना काम निबटाते रहे ।
सन् 8) से चले हमारे लेखों के 12 साल बाद ।। - 2. () 3 को अचानक उक्त संपादक जी एक यार्थी के साथ मेरे पास आए और बोले - हम समयमार का नया पस्करण छपा रहे हैं । पहिले संस्करण का आपने भारी विरोध किया था । अब आप मशाधन द दीजिए. हम विचार लेंगे । मैंने कहा - आगम में संशोधन देने की मुझ में क्षमता नहीं
और न ऐसा दु:साहस ही । मैं मरी भावना का अनकान्त के ग्यस्करणों में द चुका हूँ। मैं परम्परित मूल म हस्तक्षेप का पक्षधर नहो । उसपर संपादक जी ने मुझसे संबंधित अनेकान्त माग और मैंने दे दिए । साथ में पत्रक भी दे दिया, वे चले गए ।
उसके बाद क्या हुआ इसकी लम्बी कहानी है । मग व वीर संवा मन्दिर का जैसा सार्वजनिक अपमान किया कराया गया वह आगत पत्रों व टेप में बन्द है । इस बीच हम पर लोगां के दबाव भी पड़े कि हम चुप रहें । लोगों ने हमें यहां तक भी कहा कि वे स्वयं हमसे सहमत हैं और उन्हें भी दुख है । पर, अकेला चना भाड़ का नहीं फोड़ सकता' और 'सर्वेगुणाः कांचनमा श्रयन्ते' कहावत भी है अत: चुप रहना ही ठीक है, आदि । लेकिन हम यह सोचकर कि 'धर्म रक्षकों पर सदा ही संकट आते रहे हैं' - हम भाँति- भाँति के भय दिखाने पर भी .. घिराव व त्यागपत्र की चेतावनी सुनकर भी भयभीत नहीं हुए और आगम-रक्षा
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में दृढ़ हैं और अन्तिम क्षण तक दृढ़ रहने में संकल्पबद्ध हैं -धर्म हमारी रक्षा करेगा।
आगम संशोधक महोदय ने जैसा कि प्राकृत विद्या पत्र के जुलाईदिसम्बर 93 अंक में लिखा वैसा हमें विश्वास नहीं होता कि वे कभी अनेकान्त के संपादक या वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी के सदस्य रहे हैं और वीर सेवा मन्दिर ने कभी उन्हें मनोनीत करने की भूल की हो ? हाँ, संशोधक इस सचाई को अवश्य स्वीकार कर रहे हैं कि अनेकान्त में प्रकाशित लेखों में उनका कहीं भी नाम नहीं लिया गया । पर फिर भी वे अनेकान्त पर 'पर्रानन्दोपजीवी' होने का आरोप लगा रहे हैं । उत्तर में मैं उन्हें 'परप्रशंसापजीवी' कहना बड़प्पन नहीं समझता ।
__ यहाँ से यद्यपि किसी व्यक्ति विशेष को इंगित कर नहीं लिखा जाता फिर भी लोग लेखनी की स्पष्टता से 'चोर की दाढ़ी में तिनका' जैसी कहावत से ग्रस्त हो जाँय तो यह उनका ही गुण है - हमारा दोष नहीं।
कहा जा रहा है कि उनकी कुंदकुंद भारती को बदनाम किया जा रहा है । पर ऐसा है नहीं । वीर सेवा मंदिर तो प्राचीन परम्परित आगम के मूल रूप को सुरक्षित रखने के लिए उनकी ही नहीं, सबकी कुंदकुद भारती (आगम) पर लादी हुई विकृति के निवारण का प्रयत्न ही कर रहा है, जो संशोधक ने कर रखी है । यह तो पहिले भी कहा जा चुका हे कि इधर सभी आगम रूपी कंदकुंद भारती के न बदलने की बात कर रहे हैं. किसी व्यक्ति विशेष या किसी संस्था विशेष की बात नहीं ।
यदि संशोधक द्वारा दिगम्बरों की श्रद्धास्पद आगम भाषा को भ्रष्ट कहना अपराध नहीं, तो जन-जन की मान्य शुद्ध भाषा का विरूप करने पर उसे ध्वंस (करना) कहना अपराध क्यों? और ऐसे ध्वंस पर दाता को चेतावनी देना अनिप्टकर कैसे?
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संशोधक जी संग्रहीत सभी प्रतियों में मृडबिद्री की प्रति (जिसकी प्रतिकृति ये अपने समयसार को कह रहे हैं) का (भी) अपेक्षाकृत (ही) शुद्धमान रहे हैं यानी वह भी पूर्णशुद्ध नहीं थी और पुन: उसे संपादक जी ने व्याकरण और छन्द शास्त्र की दृष्टि से स्वयं शुद्ध किया गया बताया है (प्राकृतविद्या दिसंबर 93 ) । इससे पुन: यह सिद्ध हुआ है कि इनकी प्रति मडबिद्री की प्रति की शुद्ध प्रति कृति नहीं है ।।
इनके उक्त कथन से यह भी स्पष्ट नहीं होता कि उसके शुद्धिकरण में इनके द्वारा अपनाया गया व्याकरण कुंदकुद से पूर्वकालीन है या वही है जिसके आधार पर कुंदकंद ने ग्रन्थ रचना में शब्दों का चयन किया? या कुंदकंद के बाद का कोई अन्य व्याकरण)
हाँ. वेसे समयमार पृष्ठ 2 पर सम्पादक ने पोग्गल शब्द की रूपसिद्धि में बारहवीं सदी के हैमचन्द्र के ओत्संयोगे' सूत्र का उल्लेख किया है और दिनांक 20-2 )३ के पत्र में हमें भी लिखा है कि 'संयुक्त अक्षर आगे रहने पर पूर्व के उकार का आकार हो जाता है ।' मा यदि कुंदकंद ने अपनी रचनाओं में हैम-व्याकरण को आधार बनाया है तो वे स्वयं ही ईस्वी पूर्व के नहीं, अपित हैमचन्द्र के समय के बाद के सिद्ध होते हैं । तो क्या संशोधक आचार्य कंदकंद को हैमचन्द्र के बाद तक ले जाना चाहते है ? अन्य पंथी ना यह चाहते ही हैं ? खेद :
दूसरी बात । यदि संपादक जी आचार्यवर को- (व्याकरण के) उक्त सूत्र से बंधा मानते हैं और उनकी रचना का व्याकरण से (जिसे वह प्राकृत में जरूरी कहते हैं) निर्मित मानते हैं और उस हिसाब से शुद्धिकरण का दावा करते हैं तो उन्होंने अपने संशोधित समयसार में सभी ऐसे शब्दों में - जिनमें संयुक्त अक्षरों के पूर्व उकार विद्यमान है, उस उकार को ओकार क्यों नहीं किया? जबकि व्याकरण के नियम में अपवाद नहीं होता । और उक्त सूत्र में विकल्प का कोई संकेत नहीं ।
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यदि वे व्याकरण के हामी हैं तो निम्न शब्दों ( अन्य बहुत से भी) के रूपों को क्यों नहीं बदला -
गाथा 5 में 'चुक्कंज्ज' को 'चाक्कंज्ज' नहीं किया । गाथा 45 में 'बुच्चदि' का 'बोच्चदि' नहीं किया । गाथा 58 में 'मुम्सदि' को 'मोस्सदि' नहीं किया । गाथा 72 में 'दुक्खस्स' को 'दोक्खम्स' नहीं किया । गाथा 74 में 'दुक्खा' को 'दोक्खा' नहीं किया । आदि ।
संशोधक का यह कथन भी गलत है कि उनके पत्रों के उत्तर नहीं दिए गए । उनके 15-2-93 के पत्र के उनर में उनके निराकरण के साथ. महासचिव ने स्पष्ट लिखा कि पण्डित पदमचन्द्र शास्त्री से बात करने पर उन्होंने कहा - "इस विषय में वह पहले ही लिख चुके हैं. उनका अभिमत है कि एक ही ग्रन्थ में एक शब्द को विभिन्न स्थानो पर विभिन्न रूपों में दिया गया है । उनकी दृष्टि में व सभी ठीक है । जिस जगह जिस शब्द का जो रूप प्रयुक्त हुआ है आगे भी वही होना चाहिए । शब्द को बदल कर एकरूपता लाने के चक्कर में मूलरूप में बदलाव से प्राचीनता नष्ट होती है । आवश्यक होने पर कुछ पाठ भेद स्पष्ट करना भी पड़े तो उसे टिप्पणी में दिया जाना चाहिए । मृल गाथा के स्वरूप को बदला नहीं जाना चाहिए । उसे अक्षुण्ण रहना ही चाहिए। यह मत केवल मेरा ही नहीं, अनेक उच्चकोटि के मृर्धन्य विद्वानों का भी है।"
3 मार्च 93 के पत्र में यहाँ से फिर लिखा गया - 'शास्त्री जी का कहना है कि जिस ग्रन्थ में जो शब्द जिस रूप में आया है वहां उसका वही रूप रहना चाहिए । उनका विरोध तो यही है कि व्याकरण की
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दृष्टि से किसी आगम के मूल शब्द को सुधार के नाम पर बदलना
आगम को विरूप करना है । कृपया मृडबिद्री ग्रन्थ की प्रति शीघ्र भिजवाने की कृपा करें ।' -- इसी पत्र में यह भी लिखा था कि - आपने कहा था कि आपके द्वारा प्रकाशित 'समयसार' ग्रन्थ मूडबिद्री के ताडपत्र पर लिखित प्रति पर आधारित है - आप उस ग्रंथ की छाया प्रति भिजवा दें । उसमें कुछ खर्चा भी हो तो हम सहर्प आप को देंगे - 1
13 मार्च 93 को वीर सेवा मंदिर की कार्यकारिणी की ओर से भी प्रति भेजने के लिए मंत्री कुंदकुंद भारती से निवेदन किया गया - उन्हें यह भी लिखा कि 'यदि आपका समयसार उसी की सत्य प्रति है तो वीर सेवा मन्दिर अपनी सभी आपनियाँ सखेद वापस ले लेगा । यही मांग पोडत बलभद्र जी ने अपने 10-3 )3 के पत्र में रखी है ।' __ खेद है कि संशाधक महोदय ने कुंदकुद द्वारा प्रयुक्त 'पोग्गल' रूप की सिद्धि में स्वयं की ओर से परवर्ती हैमचन्द्र के सूत्र का सहारा लेकर भविष्य में दिगम्बरों को पीछे फेंकने के लिए, श्वेतांबरों को यह रिकार्ड तैयार कर दिया है कि वे सहर्ष कह सकें कि 'समयसार' के शब्द रूपों की सिद्धि में कुंदकुंद द्वारा हैम-व्याकरण का अनुसरण करने की बात से यह सिद्ध है कि .. कुंदकुंद का अस्तित्व हैमचन्द्र के बाद का है ओर उक्त उल्लेख एक सिद्धान्तचक्रवर्ती दिगम्बराचार्य की प्राकृत संस्था से प्रकाशित ग्रन्थ में होने से सर्वथा प्रामाणिक और सत्य है।
प्रश्न होता है कि यदि 'पोग्गल' रूप का निर्माण ( जैसा संपादक का मत है) व्याकरण से हुआ तो पहिले उमका रूप क्या था? यदि उसका पूर्व रूप (जैसा कि अवश्यंभावी है) 'पुग्गल' था, तो वह शब्द का प्राकृतिक - जनसाधारण की बोली का स्वाभाविक रूप है और 'पोग्गल' रूप से प्राचीन भी । ऐसे प्राचीन 'पुग्गल' रूप का बहिष्कार
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करना कौनसी बड़ी बुद्धिमानी है ?
और यदि 'पोग्गल' शब्द का प्राकृत का रूप मानते हैं (जैसा कि कहा भी जा रहा है) तो उसमें व्याकरण का उपयोग क्या? वह तो प्राकृत अर्थात् जन जन की बोली का स्वाभाविक रूप है ही । यदि वह रूप जन-जन की बोली का स्वाभाविक रूप नहीं तो पश्चाद्वर्ती व्याकरण से संस्कारित तथा परापेक्षी होने से उसे प्राकृत का नहीं कहा जा सकता । फलतः प्राकृत भाषा के स्वरूप के अनुसार दोनों ही रूप व्याकरण निरपेक्ष - असंस्कारित -प्रान्त प्रान्त की जन भाषाओं के विभिन्न स्वाभाविक रूप हैं। और यह सभी मान रहे हैं कि भापा का रूप पाँच कोप के अन्तराल से स्वयं स्वाभाविक रूप में परिवर्तित होता रहता है ।
प्राकृत भाषा के स्वरूप के विषय में कहा गया है - 'सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचन व्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् ।' - अर्थात् व्याकरणादि के संस्कारों से रहित, लोगों का स्वाभाविक वचन व्यापार अथवा उससे उत्पन्न वचन प्राकृत हे ! संशोधक महोदय ने स्वयं भी लिखा है कि - "प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा प्रकृतीणां सर्वसाधारणजनानामिदं प्राकृतम् ।' अर्थात् प्रकृति स्वभाव से सिद्ध भाषा प्राकृत है अथवा सर्व साधारण मनुष्य जिस भाषा को बोलते हैं, उसे प्राकृत कहते हैं।"
उक्त विश्लेषण के अनुसार प्राकृत भाषा, पश्चाद्वर्ती-व्याकरण के नियमों के बन्धन से मुक्त है और न प्राकृत भाषा में बना प्राकृत भाषा का कोई स्वतंत्र व्याकरण ही है और हो भी तो क्यों? जब कि इस भाषा में कोई निश्चित बन्धन ही नहीं । आज प्राकृत के नाम से उपलब्ध सभी व्याकरण संस्कृतज्ञों को बोध देने के लिए संस्कृत में ही निबद्व हैं और उनमें कोई भी कुन्दकुन्द जैसा प्राचीन नहीं है ।
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यह तर्क सिद्ध बात है कि संसार में विभिन्न भाषाओं के जो भी व्याकरण हैं वे सब (पहिले) अपनी भाषा में ही हैं - संस्कृत का संस्कृत में, हिन्दी का हिन्दी में, गुजराती का गुजराती में, इंगलिश का इंगलिश में, आदि । इस प्रकार प्राकृत में कोई व्याकरण नहीं । क्योंकि व्याकरण 'संस्कार' करने के लिए होता है और प्राकृत में संस्कार का विधान न होने से इस भाषा में इसके संस्कार के लिए किसी व्याकरण की रचना नहीं की गई ।
दिव्य-ध्वनि में अठारह महाभाषाएँ और सात सौ लघु भाषाएँ गर्भित होती हैं और उसे पूर्णश्रुतज्ञानी, समय प्रमुख (गणधर) द्वादशांगों में विभाजित करते हैं और यह जिनवाणी कहलाती है और परम्परित आचार्य इस वाणी को इसी रूप में वहन करते रहे हैं । आचार्य गुणधर, धरसन, भृतवली. पुष्पदन्त और कुन्दकुन्द आदि इसी सार्वजनीन वाणी के अनुसर्ता रह और उनकी रचनाएं भी इसी भाषा में हुई । इस भाषा में आधी भाषा मगध देश की और आधी भाषा मे अन्य सभी प्रान्तों की भाषाएँ अभेद रूप से गर्भित रहती हैं । इस भाषा का व्याकरण से कोई संबंध नहीं होता । प्राचीन आगमों की यही भाषा है और इस परम्परित भाषा में परिवर्तन या शोधन के लिए किमी को कंदकंद स्वामी या किसी प्राचीन आचार्य ने कभी अधिकृत नहीं किया और अभी तक किसी ने किसी में व्याकरण द्वारा उलट फर करने का दु:साहस भी नहीं किया जैसा अब करने का दु:साहस किया जा रहा है । अब तक भी शास्त्रारम्भ में हम पढ़ते रहे हैं कि --- ___ 'अस्यमूलग्रंथस्यकर्तार : श्री सर्वज्ञदेवास्तदुनरग्रंथकर्तारः श्री गणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचानुमारमामाद्य----आचार्येण विरचितम् ।' ऐसी स्थिति में कैसा व्याकरण और कैमा शाधन? और किसके द्वारा?
दिगम्बराचार्यों ने अपनी रचनाओं में एक ही शब्द को विविध रूपों
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में प्रयुक्त किया है और इस प्रकार के अनेक शब्दरूप हैं । और 'कुन्दकुन्द शब्दकोश' में भी कुन्दकुन्द द्वारा प्रयुक्त शब्दों के अनेक रूप (विविध ग्रन्थों के उद्धरणों सहित) उद्धृत हैं और यह शब्दकोश आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद में उदयपुर से प्रकाशित है । कुन्दकुन्द के विविध शब्द रूपों की झलक उक्त कोश से जानी जा सकती है और यह कोश उपयोगी है।
यहाँ से अब तक अपना कुछ नहीं लिखा गया है - उक्त संपादक की कथनी और करनी पर ही चिन्तन दिया गया है और वह भी आगम-रक्षा करने की दिशा में । वरना यहाँ इनसे किस क्या लेना देना?
प्रसग संशोधित समयसार (कुंदकंद भारती प्रकाशन) का है इसके पुरोवाक् के निर्देशानुसार - सुयकेवली, भणियं, ऊणप्रत्ययान्त शब्द, इक्क, चुक्किज्ज, पित्तव्वं, हबिज्ज, गिण्हइ, कह, मुयइ, जाण, करिज, भणिज और पुग्गल शब्द रूपा का आगम भाषा से बाहा घोषित कर उनके बदले में क्रमश: सुदकेवली, भणिदं, जाणिदूण-णादण, सूणिदूण आदि, चुक्केज्ज, घेत्तव्वं, हवेज, गिण्हदि, किह, मुयदि, जाणे, करेज, भणेज और पोग्गल शब्द रूप कर दिए गए हैं । जबकि आगमों में दोनों प्रकार के शब्द रूप मान्य हैं तव किन्हीं रूपों को आगम भाषा बाहा घोषित कर, संशोधन करना आगम का विरूप अथवा एकरूप करना है । यदि संशोधक के फार्मूले को सही माना जाय तब तो दिगम्बरों के सभी प्राकृत मृल-आगम शब्द रूपों को अशुद्ध मानना पड़ेगा और उनमें भी संशोधन करना पड़ेगा. जैसा कि हमें स्वीकार नहीं । हमें तो आगम में गृहीत सभी शब्दरूप प्रामाणिक हैं - सही हैं । हम किसी भी रूप के बहिष्कार के विरूद्ध हैं ।
संशोधक द्वारा आगम-भाषा बाहा घोषित कुछ शब्द रूप, जिन्हें मान्य आचार्यों ने ग्रहण कर मान्यता दी है. और संशोधक ने बदलकर
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जयसेन जैसे प्राकृतज्ञ आचार्यों की अवमानना की है । हम यह मानने के लिए कदापि तैयार नहीं कि हमारे आचार्यों ने भूल की और गलत शब्द रूपों का चयन किया । देखें आचार्यों द्वारा गृहीत वे कुछ शब्द रूप जिन्हें संशोधक ने बदल दिया है।
समयसार (आचार्य जयसेन टीका) गाथा 27, 36, 37, 73, 199 में इक्क व इक्को । गाथा 17, 35. 373 में ऊण प्रत्ययान्त । गाथा 5 चुक्किज्ज । गाथा 23, 24, 25, 45, 2, 101 , 172, 196, 1999 में पुग्गल । गाथा 33 में हविज्ज । गाथा 300 में भणिज्ज । गाथा 44, 68, 103, 249 में कह । गाथा 2, 142 में जाण । इसके अतिरिक्त यदि समयसार के विभिन्न प्रकाशनों का देखा जाय तो उनमें - __ चुक्किज शब्द रूप निम्न प्रकाशनों में उपलब्ध हैं - सोनगढ़ 1940, कोल्हापुर 1908. जे. एल. जैनी 193), अजमेर 1969, अहिंसा मंदिर 1959 भावनगर IV, बनारस, जबलपुर, मदनगंज, फलटण, ज्ञानपीठ, सहारनपुर, काशी, रोहतक, कलकत्ता, फलटण शास्त्राकार, मारोठ, नातेपूते ।
हविज शब्द रूप - सोनगढ, रोहतक, कलकत्ता, कोल्हापुर, अजमेर, जे. एल. जैनी, फलटण, मारोठ, नातेपृते, अहिंसा मन्दिर, भावनगर VI, जयपुर 1983, 1986 1
भणिज्ज शब्द रूप - सानगढ, रोहतक, कलकत्ता, कोल्हापुर, अजमेर, जे. एल. जैनी, मारोठ, नातेपुते, जयपुर 1986, अहिंसा मन्दिर, बनारस, भावनगर IV, VI, जबलपुर, सोनगढ, ज्ञानपीठ, सहारनपुर, कारंजा ।
ऊण प्रत्ययान्त (धवला ।। 1) पृ. 70 चिंतिऊण/ पृ. 71/ दाऊण/ पृ०103 सहिऊण/ पृ. 71/ काऊण/ पृ. 139 गेण्हिऊण/ पृ. 66 होऊण ।
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उक्त प्रकार से अन्य आगमों में विभिन्न स्थलों में दोनों प्रकार के शब्द रूप उपलब्ध हैं । किसी भी शब्द रूप को आगम से बाहा नहीं किया जा सकता । जब इधर से सही मानने की बात कही जाती है, तब वे शब्दों को एकरूप करके और अन्य रूपों को बहिष्कृत करके लोगों से पूछते हैं कि हमारा कौनसा रूप गलत है । कहते हैं - हमारा शब्द आगम का ही तो है - हमने कहाँ बदला । पर, यह तो वीर सेवा मन्दिर द्वारा टिप्पण देने की बात कहकर पहिले प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया था कि उपलब्ध अन्यरूप को टिप्पण में दिया जाना चाहिए (आदर्श प्रति के रखने का प्रयोजन भी यही है) ऐसा करने से एकरूपता का परिहार होता है और सभी प्रकार के रूप होने की पुष्टि भी होती है कि आगमों में अमुक शब्दों के अन्य रूप भी हैं । पर, बारम्बार कहने पर भी टिप्पण देना इन्हें शायद इसीलिए स्वीकार नहीं हुआ हो कि इन्हें तो व्याकरण से अन्य शब्द रूपों का बहिष्कार कर एकरूपता करनी इप्ट थी, जैसी कि इन्होंने बहिष्कार (आगम बाहा होने) की घोषणा भी कर दी और एकरूपता भी करके दिखा दी ।
इन्हें इतना भी ध्यान न आया कि इनके ऐसे व्यवहार से साधारण जनता भ्रमित होगी और वर्तमान में व्याकरण से शुद्धि को महत्व देने वाले (प्राकृत से अनभिज्ञ) सहज ही कहेंगे कि - प्राचीन आगमों की भाषा भ्रष्ट थी और अमुक के द्वारा व्याकरण से शुद्ध किए गए शब्द रूप शुद्ध हैं, आदि । आखिर, इन्हें ऐसा ध्यान आता भी तो क्यों? जब कि इनका उद्देश्य ही भविष्य में, आगमों के संशोधक होने की ख्याति लाभ का बन चुका हो - लोग कहें कि कोई ऐसे भी ज्ञाता हुए जिन्होंने आगम-भाषा की शुद्धि की । ठीक ही है ख्याति की चाह क्या कुछ नहीं करा लेती? इन्होंने इसी चाहना में जल्दी जल्दी कई ग्रन्थों को एक रूप कर दिया और हम चिल्लाते ही रहे । ठीक ही है - 'समरथ को
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नहिं दोष गुंसाई ।' - पर फिर भी हम कह दें 'अपना मेरा कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर' - हमने संशोधक के कथन पर ही विचार किया है, पाठक उनके 'पुरोवाक्' के प्रकाश में चिन्तन करें -- उनके सभी कथन विरोधाभासी हैं।
ध्यान रहे कि विभिन्न चिन्तकों के विभिन्न विचार हो सकते हैं । पर सभी निर्विवाद हों यह संभव नहीं । और न यह ही संभव है कि सभी ज्ञाता पूर्वाचार्यों के मनोभावों को जान सकने में समर्थ हो सकें । फलतः आज की व्याख्याएँ विवाद का विषय बन कर रह गई हैं और उनसे आगमों के कथन की निश्चिति में भी सन्देह बन रहा है।
अब ऐसा विवाद व्याख्याओं तक सीमित न रहकर मृल पर भी चोट करने लगा है और प्राकृत ( जनबोली) के मूल शब्द रूपों में भी परवर्ती व्याकरण द्वारा एकरूपता लाई जा रही है । यह तो संशोधक ही जाने कि प्राकृत में व्याकरण के आत्मघाती प्रयोगों की शिक्षा पाने के लिए उन्होंने किम विश्वविद्यालय को चना और किम डिग्री को कहाँ से प्राप्त किया - या संशोधक ने किस गुरू को चुना? हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं । हमारा तो स्पष्ट मत है कि कोई अन्य किसी भी अन्य की रचना में उलट फर या शब्द चयन का अधिकार लेखक की अनुमति के बिना नहीं कर सकता । विधि यही है कि यदि किसी को मतभेद हो या पाठ भेद मिले तो उस टिप्पण में अंकित करे । ताकि प्राचीनता-विविधता और मूलरूप का लोप न हो । और हम प्रारम्भ से यह ही कहते रहे हैं और कहते रहेंगे-किसी से कोई समझौता नहीं । हमारे आगम परम्परित जिस रूप में हैं प्रामाणिक हैं ।
हम लिखते हैं और बिना किसी के नाम को इंगित किए ही सचाई लिखते हैं और प्रस्तुत प्रसंग में भी संपादकीय 'पुरोवचन' को लक्ष्य कर ही सभी बातें लिखी हैं । फिर भी आश्चर्य है कि जो यह स्वीकार करें
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कि उनका कहीं नाम नहीं लिया गया - वे भी हमें तीखे वचनों की भेंट, घिराव कराने और 'परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा' जैसी धमकी - (जिससे हम किसी संभावित भावी दुर्घटना के प्रति चिन्तित हों) देने के बाद भी पुनः हमें धृष्ट वचन कहें ताकि हम किसी प्रभाव में आकर अपना न्यायसंगत मत बदल कर पूर्वाचार्यों को अपमानित करें और आगम-भाषा को भ्रष्ट मान लें । सो यह तो हमसे अन्तिम साँस तक न हो सकेगा । हम तो यह सन् 88 में ही लिख चुके हैं कि- "हमें अपनी कोई ज़िद नहीं, जैसा समझे लिख दिया- विचार देने का हमें अधिकार है और आगम रक्षा धर्म भी ।" हम फिर कह दें कि हम किसी व्यक्ति या संस्था के विरोधी नहीं, आगम-रक्षा के पक्षपाती हैं और यह हमारी श्रद्धा का विषय है और हमारे लिए सही है । हम कुन्दकुन्दाचार्य और जयसेन प्रभृति आचार्यों से अधिक ज्ञाता अन्य को नहीं मानते और न ही मानेंगे ।
शास्त्रीय निर्णय शास्त्रों से होते हैं । डराने, धमकाने, उत्तेजित होकर क्रोध करने अथवा अपमान जनक शब्दों के शस्त्रों से नहीं । जहां तक जिनवाणी की रक्षा का प्रश्न है, कोई भी श्रद्धालु अपना सिर तक कटा सकता है।
-- सम्पादक
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एक उपयोगी उपलब्धि : पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी की प्रेरणा से सम्पन्न
कुन्दकुन्द शब्दकोश
पाठक पृ. आचार्य श्री से सुपर्गिचत हैं । वे 'ज्ञानध्यानतपोरक्त स्तपस्वी म प्रशस्यते' के अनुरूप और आगम क प्रशस्त ज्ञाता हैं । उनकी प्रगणा में मपादित उक्त काश यथानाम तथा गुण है । डॉ प्रेम सुमन जैसे मनीषी के सक्रिय सहयाग ने इसे चार चाँद लगा दिए हैं । डॉ उदयचन्द जी उदयपुर के श्रम का ना कहना ही क्या? कोश के सकलन में उन्हें कहाँ कितने ग्रन्थो का आनोडन करना पड़ा होगा इसको साक्षी काश हो दे रहा है । काश म कुन्दकन्दाचार्य द्वारा गृहीत प्राकृत के विविध शब्दरूप जैम : मयकंवली । मुदकवली । इक्क । एक्क । घिनव्वा । घेनव्वो । कह । किह । पुग्गल । हाइ । हादि । होऊण । होदण आदि स्पष्ट संकेत दे रह हैं कि आ कन्दकन्द व्यापक प्राकृत भाषा क अपूर्व ज्ञाना थ और उन्होन सर्व बन्धनो सहित प्राकृत भाषा का खलकर उपयाग किया है।
एम समय म जब कि भापा विवाद उठ खड़ा हुआ है, उक्त कोश उम विवाद के निर्णय में उपयागी आर सक्षम है। और क्यों न हा. जब दा प्राकृत मनीषियों ने इसमें पूग श्रम किया है । हम म्मरण हे कि जब हमने पत्र और अनकांत भेजकर डॉ प्रेम मुमन म भाषा और मपादन क विषय म मम्मति चाही तब उन्हान खुलकर स्पष्ट रूप मजा मम्मति भजी वह उन काश क सर्वथा अनुरूप थी (वह सम्मति इसी पत्रिका में अन्यत्र ऑकत है) । हम समझत हैं कि उक काश में आचार्य श्री का आशीर्वाद प्रथम है, उन्हें मादर नमा ऽस्तु । सकलनकर्ता और डॉ. प्रेम ममन के श्रम का दरकर उनमें हमारी श्रद्धा जगी है कि आगम भाषा के सरक्षण में सक्षम हैं - उनक अभ्युदय की कामना है ।
प्रकाशक . श्री दि जेन माहित्य सस्कृति संरक्षण ममिति, डी 302, विवेक विहार, दिल्ली - " । मूल्य पाँच रूपया. पाकिट माइज, 4 353 ।
संपादक
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Regd with the Registrar of Newspaper at R No 10591:62
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१ ०० रु वार्षिक मूल्य : ६) रु. इस अंक का मूल्य : १ रूपया ५० पैसे यह अक स्वाध्याय शालाओं एव मंदिरों की माग पर नि:शुल्क
विद्वान लेखक अपने विचागे के लिए स्वतन्त्र होते है । यह आवश्यक नही कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एव समाचार प्राय: नहीं लिए जाते ।
सपादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सपादक श्री पद्मचन्द्र शाम्बी प्रकाशक : श्री भारतभूषण जैन एडवोकेट, वीर सवा मोदर. नई दिल्ली ?
मुद्रक : सुदर्शन ऑफसेट, 1 /11798. पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
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