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________________ अभिज्ञान शाकुन्तल में अहिंसा के प्रसंग डॉ. रमेश चन्द्र जैन कालिदास एक अहिंमावादी कवि थे। उनके द्वारा सुखाय ।" ग्रथित अभिज्ञान शाकुन्तलम् न टक के सूक्ष्म अध्ययन से शाकुन्तल के प्रथम अङ्क के सातवे श्लोक मे शिकारी उनकी अहिंसावादी मनोवृत्ति की पर्याप्त झांकी प्राप्त राजा दुष्यन्त के द्वारा पीछा किए जाने हा हिरण का होती है । इस नाटक के प्रथम अङ्क के प्रारम्भ में ही नटी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। हिरण की स्थिति को कहती है कि प्रमदाये दयाभाव मे युक्त हो भ्रमरो द्वारा देख कर निष्ठर व्यक्ति के मन में भी करुणा जाग्रत हो कुछ कुछ चमेशा नोपल वे सर शिखा ने युक्त शिरीष सकती है-- पुष्पो को अपने कानो का आभूषण बना रही। इस पद्य "ग्रीवाभगाभिरामं मुहसुपनि स्यन्दा, दददृष्टि: । गे 'दअगाणा' पद साभिशय है। मदयुक्त (सौन्दर्य आदि पश्चार्द्धन प्रविष्ट शरपतनभयाद् भूयमा पूर्वकायम् ।। के कारण मतवाली) होने पर भी दयाभाव के कारण दभैरद्धविलीढे धमविवत मुखभ्र शिभिः कीर्ण वर्मा। युवतियां शिरीष के फलो को मावधानी के साथ तोड़कर पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतर स्तोकमुर्गा प्रयाति ।। कर्णाभूषण बना रही हैं। जिस प्रकार मौरे बहुत सावधानी अर्थात देखो, पीछे दौडते हुए रथ पर पुन: पुन. गर्दन से फलो का रसास्वादन करते हैं, उसी प्रकार युवतियाँ मोडकर दृष्टि डालता हुआ, बाण लगने के भय के कारण भी बड़ी सावधानी से पुष्पो का स्पर्श कर रही हैं । किमी (अपने) अधिकाश पिछले अर्द्धभाग से अगले भाग मे को किसी प्रकार कष्ट पहुनाए बिना उससे कुछ ग्रहण सिमटा हुआ थकावट के कारण खुले हुए मुख से अर्द्धचवित करना उपर्युक्त भ्रामरी वृत्ति की सदृशना के अन्तर्गत कुशो से मार्ग को व्याप्त करता हुआ ऊंची छलाग भरने परिगणित होता है। जैन ग्रन्थो मे साधु को भ्रामरी वृत्ति के कारण आकाश मे अधिक और पृथ्वी पर कम चल का पालक कहा गया है। जैन साधु बिना गृहस्थ को कष्ट रहा है। पहुंचाए उसके न्यायोपाजि। धन से बने हुए आहार मे से राजा आश्रम के मग पर प्रहार करने को उद्यत कछ आहार अपने उदर की पूर्ति हेतु ले लेता है, उसके देखकर तपस्वी कहता है-"राजन्, आश्रममगोऽय न लिए श्रावक को विशेष उपक्रम नही करना पडता है। हनव्यो न हन्तव्य.' अर्थात् यह आश्रम का भुग है, इसे यही कारण है कि साधु को उद्दिष्ट भोजन लेने का मत मारिये । इस कोमल मृग शरीर पर रुई के ढेर पर निषेध ।भ्रामरी वत्ति का एक तात्पर्य यह भी है कि जिस अग्नि के समान यह वाण न चलाइये, न चलाइए। हाय ! प्रकार भ्रमर एक फूल से दूसरे फूल पर थोडा-थोडा रस बेचारे हिरणो का अत्यन्त चञ्चल जीवन कहाँ और तीक्ष्ण ग्रहण कर बैठता रहता है, उसी प्रकार साधु भी वर्षाकाल प्रहार करने वाले वन के समान कठोर आपके बॉण को छोडकर अन्य समय में एक स्थान पर अधिक दिन कहाँ ? निवास न , रे; क्योकि इससे श्रावको से गाढ़ परिचय शस्त्रो की उपयोगिता केवल दुखी प्राणियों की रक्षा होने के कारण रागभाव की वृद्धि की आशङ्का होती है। के लिए है, निरपराध पर हार करने के लिए नही है। इसीलिए भगवान बुद्ध ने भी अपने भिक्षुग्रो को बहुजन आश्रम में सब प्रकार की हिंसा का निषेध है, अत उमका हिताय बहुजन सुखाय सतत गतिशील रहने का उपदेश पुण्याश्रम नाम सार्थक है। ऐसे पुण्याश्रम के दर्शन से ही दिया था-'चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय बहुजन व्यक्ति पवित्र हो जाता है। पश-पक्षी भी ऐसे स्थान पर
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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