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८, वर्ष ४६, कि० २
अनेकान्त
यह नात जब श्रमण गौतम तक पहुंची तो वे स्वयं भिक्षुओं ने रगोन वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया। यह केशी मुनि के उद्यान मे गए। केशी मुनि ने पूछा- देखकर महावीर भगवान ने वस्त्र का ही निषेध कर दिया। एग फज्जपवण्णाणं, विप्लेसे कि कारणं ।
इस संवाद और टीका के अध्ययन से यह नतीजा धम्मे दुविहे मेहायो, कहं विप्पच्चओ न ते।।२८।। निकल रहा है कि दिगम्बरत्व सम्पूर्ण जैन शासन का एक अचेलप्रो प्रजो धम्मो जो इयो संयरुत्तरो। विशिष्ट अग रहा है किन्तु वस्त्रधारी थमणो ने अपना पक्ष देसियो वद्धमाणेण, पामेण य महामुणी । ६॥ सवल करने के लिए अचेक शब्द का अर्थ ही अल्पवस्त्र एकज्ज पवण्णाणं, विसेसे किनु कारणं । कर डाला। जान पडता है यही से श्वेताम्बर परम्परा मे खिगे दुविहे मेहावी, कहं विपच्चयो न ते?॥ ॥ दिगम्बत्व के विरोध की नीव डाल दो गई।
हे मेधावी, एक कार्य प्रपन्न होते हुए भी धर्माचरण (५) ठाणं मे उल्लेख इस प्रकार हैदो प्रकार का तथा लिंग भी दो प्रकार का अलक व से जहाणामए अज्जो। मए समणाणं णिग्गवाण सांनरोत्तर ऐमा वयो? क्या इस विषय मे आपको पाका जग्गभावे मुण्डभ वे अम्हाणए, अवनवण', अच्छतए, अणनही होती?
वाहणए भूमिज्जा फलगसेज्जा कमेज्जा केसलोए वंभ___ गौतम का उत्तर था कि हे महामुनि, समय का चेग्वासे पर घर पवेमे लद्धा बलद्ध वित्तीओ पण्णत्ताओ। विज्ञान पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण कर तथा माघुओं के मानस यह नग्न निग्रंथो के आचार का स्पष्ट ही उल्लेख है। को देखकर इस प्रकार भिन्न-भिन्न धर्म मावन रखने का (६) कल्पमूत्र' मे भगवान महावीर की दीक्षा का विधान किया गया है, जैन माधुओं की पहचान के लिए वर्णन करते हुए बताया है किये नियम बनाए गये हैं, अन्यथा मोक्ष के माधन तो ज्ञान उवागच्छित्ता असोगवर पायवस्स अहे सोय ठावेइ. दर्शन चारित्र है।
अहे मीयं ठावित्ता सीयाओ पच्चोरिहइ, सीयाओ मच्चोइस सवाद मे यह स्पष्ट है कि गौतम स्वामी अचेलक रिहित्ता सयमेव आमरणमल्नालंकार ओमुयति, ओमइत्ता नग्न थे और केशि मुनि सचे न, किन्तु आगे चलकर इस सयमेव पचमुट्ठिय लोयं करेइ, करित्ता छठेण भत्तण विषय पर यो वृत्ति की गई कि सामान्य रीति नञ् समास अपाणएण हत्थुत्त राहिं नवखत्तेण जोगमुवागएण एग देवका अर्थ नकारवाची अर्थात् अचेलक का अर्थ वस्त्ररहित- दूसमादाय एगे अबीए मुंडे वित्ता अगागओ अणगरिय प्रवस्त्र ऐगा किया जा सकता है किन्तु हावीर ने वस्त्र पब इए । की अपेक्षा वस्त्र जन्य मुर्छा को दूर करने पर विशेष जोर समणे भगव महावीरे सवच्छरं साहिय मासं चीवर. दिया इसलिए नत्र समास के छह अर्थों में से ईषत् (अल्प) धारी होत्या तेण पर अचेलए पाणिपडिग्गहिए । यह अर्थ ही उचित है, परन्तु यदि ऐसा होता तो केश ज्ञातृ खण्ड बन पहुंचकर अशोक वृक्ष के नीचे शिविका मनि कोई सशय न करते : इसके इलावा अचेलक का अर्थ रखी गई, शिविका रखे जाने पर भगवान शिविका से ईषत चेल मान लिया जाए तो फिर अहिसा महावत का उतरे, शिविका से उतर कर स्वय ने आभरण माला अर्थ अल हिस', असत्पत्याग महावत का अर्थ अल्प सत्य अलकार उतारे तथा उनके उतारने के बाद स्वय ने पचऔर अस्तेय का अर्थ अल्प स्तेय करना पड़ जाएगा । यदि मष्टि केश लोचन किया और पानी रहित छट्ठभक्त अर्थात् अल्प वस्त्र और अधिक वस्त्र की ही समस्या होती तो दो उपवास किये। हस्तोत्तग नक्षत्र का योग आने पर देशि मनि वस्त्रो को सख्या के बारे में ही प्रश्न करते, इस एक देवष्य को लेकर एकाकी हो मुंडित होकर, गृह त्याग डिमाईको पहचानकर नेमिचन्द्राचार्य ने यह टीका को कर अनगारत्व को स्वीकार किया। कि अचेलक धर्म बद्धमान स्वामी ने चलाया था, कारण श्रमण भगवान महावीर तेरह महीने तक चीवर धारी यह है कि पार्श्वनाथ ने तो वस्त्र पहनने की अनुज्ञा दी थी रहे उसके बाद अचेलक तथा करपात्री हो गये। किन्तु इसका अर्थ रगीन वस्त्र का निषेध न होने के कारण इस पर विनयगणि की टीका का सार इस प्रकार है