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________________ (गतांक से आगे) श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व 0 जस्टिस एम० एल० जैन जे भिक्ख अचेले परिवपिते, तस्स ण एव भवति- एगया अचेलए होड, सचेले यावि एगया। चाएमि अह तण फास अहियासितए, सोयफास अहया- धम्महियं नच्चा नाणी गो परिदेवए। सित्ता ते उफास अहियासित्तए, दममस गफास अहियामित्तए, अर्थात् कभी अचेलक होने पर तथा कभी सचे न होने एगतरे अण्णतरे वरूवरूवे फासे अहिया सित्तए, हरिपडि पर दोनों ही अवस्थायें धर्म हि के लिए है ऐमा जानकर च्छादणं चहं गो संचाएमि, अहियासित्तए, एव कथति से ज्ञानी खेद न करे । कडि वधण धारित्तए। अचेलगस्स लूहस्स सजयस्स तवस्सिरणी। अदुवा तत्यपरक्कमन भज्जो अचेल तणफासा फुसंत तणेसु लुयमाणस्स होज्जा गायविराहणा॥ सीय फ सा फुमति ते उफासा फुसति, दमममग फामा फुति, आयवस्स निवाएणं, अतुला हवइ वेयणा। एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फामे अहियासेति अचेले लाघ- एवं गच्चा न सेवति तंतुजं तणतज्जिपा ॥ विय आगममाणे तवे से अभिम मन्नागए भवति जमेय जब अचेलक झक्ष सयमी तपस्वी तृण शय्या पर सोता भगवना-पवेदित तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए है तो उमके गात्र को विराधना (क्षति) होगी तथा आप समत्तमेव समभिजारिया । ___ होने पर अतुल वेदना होगी इस प्रकार तृणकथित होने __जो भिक्षु अचेल रहता है तो उसे नही मोचना चाहिए पर भी भिक्षु तन्तु ज (वस्त्रादि को धारण नहीं करेगा। वि मै तृण, सदा, गमा, दशभशक या अन्य तर विविध उत्तराध्ययन सूत्र के ही प्रयोविंश (२३बे) अध्ययन मे प्रकार के परीषद सहन कर सकता हूं किन्तु मैं गुप्तागो के केशी गौतम का परिसवाद विस्तार से लिखा है जो इस आवरण को नही छोड सकता याद ऐसा हो तो वह कटि. प. कता याद एसा हा तो वह काट प्रकार हैबधन धारण कर सकता है। वशी पार्श्वनाथ के शासन के शिष्य थे और गौतम थे यदि अचेल निक्षु अपने चरित्र मे दृढ़ रहता है और शिष्य महावीर के। दोनो का एक समय श्रावस्ती नगरी तण, शीत, उष्ण, दशमशक या अन्य विविध प्रकार के मे अपने-अपने शिष्य समुदाय के साथ निवाम हुआपरीषहो को सहन करता है लाघवता को प्राप्त कता है दोनों ही अचित्त घास की शय्या पर, केणी तिन्दुक नामक हमको भी भगवान ने तप कहा है और सर्वदा सर्वल उद्यान मे तथा गोतम कोष्टक नामक उद्यान मे ठहरे थेसमभाव रखे। एक दिन भिक्षा के निमित्त उनके शिष्य निकले और इसे जिनकल्पी साधुओ का आचरण बताया गया। बामना-सामना हा तो एक ही ध्येय होने तथा एक ही इतना स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी अचेल शब्द का अर्थ धर्म के उपासक होने पर भी एक दूसरे के वेश तथा साधु अला वस्त्र किया गय! । अब तक के परिशीलन से जाहिर क्रियाओ मे अन्तर दिखाई देने से एक दूमरे के प्रति सदेह है कि श्वेताम्बर आगमी में वम्बरहित साधु के अस्तित्व उत्पन्न हुआ। व समादर का वर्णन ही नहीं है उनके आचरण के नियम अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतस्त्तरो। भी बनाए गये हैं। एगफज्ज पवन्नाणं, विसेसे किनु कारणं ।। (४) उत्तराध्ययन सूत्र मे भिक्ष के लिए लिखा है [चेलकश्च यो धमो, यो नांतराणि एक कार्य प्रपन्नो विशेषे किंतु कारणं]
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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