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________________ ६, वर्ष ४६, कि०२ पूर्व का है। इन स्थानो मे बसने वाले प्रारम्भिक आर्यों गलियां थीं। गलियों में प्रवेश हेतु बड़े-बड़े दरवाजे थे। की सस्कृति की विशेषताओ को यह समाहित किय हुये नगर के मध्य में ग्क उन्नन मन्दिर था। गली के दोनों है। मिट्टी के बर्तनो को बाह्य तथा निचली मीमा लगभग ओर व्यवस्थित मनकानों की कतार थी। इन पुरातात्विक लगभग १५०० ई० तथा ६०० ई०प० निश्चित की गई अन्वेषणो से सिद्ध है कि शताब्दियो पूर्व से मुसलमानो के है। अहिच्छत्रा में इन बर्तनो के ऊपर वाले स्तर पर आगमन काल तक यह क्षेत्र बहुत समद्ध और वैभवयुक्त बर्तनों की एक दूसरी जाति प्राप्त हुई है। इसका काल रहा था तथा इसको राजधानी अहिच्छत्रा सभ्यता और छठी.चवों ई०प० से द्वितीय शताब्दी ई० पू० है। सस्कृति की उच्च श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती थी। इसी किले के क्षेत्र में दो बरामदायुक्त मन्दिरो के खंडहर प्रकार यह नगरी इस क्षेत्र के व्यापार तथा उद्योग धन्धे, प्राप्त हुए है। गुप्त युग में बनाए प्रतीत हाते हैं और कला, सामाजिक दशा तथा राजनैतिक स्तर का भी प्रतिबारहवी शताब्दी तक इनका प्रयोग होता रहा। लगभग निधि व करती थी। उत्तर प्रदेश के दूसरे प्राचीन नगरों ७५०-८५० तथा ८५०-११०० की पतो को क्रमशः के समान अहिच्छत्रा हिन्दू जैन तथा बौद्ध परम्पराओ का देखने से यह ज्ञात होता है कि इन समयों मे भवन निर्माण बहुत बड़ा केन्द्र था। यह परम्परा अब भी जुडी हुई है का कार्य अधिक नहीं हुआ। और जैन लोग इसे अब भी पवित्र तीर्थ मानते है।। अहिच्छत्रा के खडहरो मे विभिन्न प्रकार के पदाथों अहिच्छवा मे एक विस्तृत मन्दिर का अहाता जो कि से निमित विभिन्न आकार और नाम के माला के दाने सम्भवत: शिव को समपिन था, दो बड़े चौरस मन्दिरों प्राप्त हुए है, जो कि ३०० ई० पूर्व से १.०० ई. तक के के ढाचे तथा बहुत सारी मिट्टी एव पत्थर की देव प्रतिहैं। इनमें खोदे हए सुलेमानी पत्थर से निमित, बिल्लौर मायें प्राप्त हुई हैं। ब्राह्मण, बौद्ध एव जैन प्रतिमाये के बने, नुकेले पत्थर के बने हुए, हरिमणि से निमित, गुप्त ल को है। मुख्य बौद्ध स्तूप तथा इसके चारो ओर रत्नमयी, हड्डी से बने तथा बीजो से बने मनके सम्मिलित चार छोटे स्तूपो की रचना तथा कोठारीखेड़ा के जैन हैं। कुछ दानो पर ऊची किस्म की पालिश है जो कि मन्दिर की रचना इसी काल की निर्धारित की गई है। प्राचीन अहिच्छत्रा के जोहरियो की उत्कृष्ट कारीगरी को इस काल की सुन्दर कला कृतियां इस स्थान के इस स्थान सूचित करती है। हरिन्मरिण में किये हुए छेद यह अभि- के मूर्तिकार, स्थापत्यकार जोहरी तथा अन्य शिल्पकारो व्यक्त करते हैं कि वस्तु की कठोरता के बावजद छेदने की प्रतिभा को अभिव्यक्त करती है तथा यह सूचित करती की वर्मा को तीक्ष्णता तथा निर्धारित धुरी पर खुदाई हकि यह एक हैं कि यह एक स्वतंत्र राज्य की राजधानी के अतिरिक्त उत्कृष्ट थी। पालथी मारकर बैठी हई गर्भवती स्त्री के बढा और समद नगर था। इसमे सुन्दर और ऊची इमाझुमके का घुमाव तथा नक्काशी बड़ी योग्यता से की गई रतें थी। गिलगिट पाण्डुलिपि (जो गुप्तकाल के बाद है यह आकृति शुग काल लगभग (२००-१०० ई० पूर्व) लिखी गई) मे उत्तर पचाल का वर्णन अ.यधिक समद की निर्धारित की गई है। प्राचीन भारतीय नीले और हरे एव धन-धान्य से सम्पन्न एवं धनी जनसख्या वाले जनपद रग के शीशे के नमूने, जो कि प्रथम शताब्दी ई के हैं के रूप में हुआ है। गुप्तो के बाद छठी शताब्दी के उत्ता भी खोद निकाले गए हैं। भारी संख्या मे मौर्य काल से राख में यह क्षेत्र मोखरि राजाओं के अधिकार में आया: लेकर मध्यकाल से पूर्व के सिक्के बहुत ही शैव, वैष्णव जिन्होने राज्य का विस्तार अहिच्छत्रा तक किया। इनके तथा बौद्धधर्म सम्बन्धी पाषाण प्रतिमा मन्दिरों के प्रव. यहा कुछ। शेष, समाधियां, स्तूप, मठ, तालाब, किले की प्राचीर, पभोसा शिलालेख" द्वितीय या प्रथम शताम्दी ई०पू० गलिया, मकान, भवन आदि भी प्रकाश में लाए गय हा १. अधियछात्रा राजो शोनकायन पुत्रस्य वगपालस्य । खुदाई तथा अन्वेषण से प्राचीन ईंट निर्मित नगर के अब २. पुत्रस्य रामो तेवणी पुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण । बेष प्राप्त हुए हैं। यह नगर प्रायः विस्तृत था। इसमें (शेष पृ० १४ पर)
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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