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________________ श्वेताम्बर प्रागम और दिगम्बरत्व कि जब भगवान ने देवों द्वारा लाई गई शिविका से शातृ उस रकम को अघा आधा बांट लेंगे और हमारा दोनों खण्डवन उद्यान मे अशोक वृक्ष के नीचे उतर कर स्वयमेव वा दारिद्र्य दूर हो जाएगा, तब पुनः प्रम के पाप से आभरण माल्यालंकार उतार दिए और पचमुष्टि केश आयाकिन्तु लज्जा के कारण कुछ कहने में असमर्थ साल सोवास पर एक भर तक उनके पीछे-पीछे घूमता रहा । १३ महीने के बाद देवदूष्य रखा जिसे लेकर अगार से अनगार हो गये, घुमने हुए भगवान् जब दक्षिण वाचालपुर के पास सवर्णसामायिक में बैठे और उन्हे चतुर्थ ज्ञान हो गया--कुछ वालुका नदी तट पर आए तो कटको से उलझकर आघा समय पश्चात् कोनाक मन्निवेश मे बहुल ब्राह्मण गृह मे देवदूष्य भी गिर गया । तब पिता के मित्र उस ब्राह्मण यह कहकर कि मेरे द्वारा मपत्र धर्म प्रज्ञापनीय है गहथ उसे उठा लिया और चल दिया। प्रत. भगवान ने सवस्त्र के पात्र में प्रथम पारणा किया तब पच दिव्य प्रादुर्भन हा धर्म प्ररूपण के लिए मासाधिक एक वर्ष तक वस्त्र को (२) चेलोक्षेप, (२) गधोदकवष्टि (1) दुन्दुभिनाद, स्वीकार किया, मपात्र धर्म की स्थापना के लिए प्रथम (४) अहोदान अहोदान ऐनी घोषणा और (५) वसु- पारणा मे पात्र का उपयोग किया, उसके बाद जीवन भर धारावृष्टि । तदन तर अस्थिक ग्राम मे पाच अभिग्रह अवेलक पाणि पात्र रहे। धारण किए - (१) नाप्रतिमदगहे वाम., ( ) स्थेयं प्रति- कल्पमूत्र के नवें क्षण मे जिनकल्पी व स्थविर कल्पी मया सदा, (३) न गेहविनय. कायः, (४) मौन, (५) दोनो माधुओ के चरित्र के नियम दिए है। पाणी च भोजनम् । कल्पसूत्र की विनय विजयगणि द्वारा कृत सुबोधिका वार्षिक दानावसर पर कोई दन्द्र परदेश गया हुआ वत्ति का प्रारम्भ करते हुए लिखा गया है कि कल्प का था, लेकिन दुर्भाग्य में कुछ भी कमा कर नहीं ला सका अर्थ साधुओ का आचार है। उसके दस भेद हैं-(१) तो उसकी भार्या ने उसे झिडका, अरे अभाग्य शेखर, जब प्राचेलका, (२) देसि अ, (३) सिज्जायर, (४) रायपिंड, वर्धमान मेघ की तरह स्वर्ण बरसा रहे थे तब तू विदेश (५) किइकमो, (६) वय, (७, जिटु, (८) परिक्कमणे, चला गया और फिर निधन ही समागत हुआ। दूर हट, (8) मास, (१०) पज्ज'सवणकप्पे । मुंह न दिखा, अब भी तू जगम कल्पतरू से भीख माग इनमे से अचेलक की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वही तेरा दारिद्र हरेगा-इस प्रकार अपनी पत्नी के ऐसे न विद्यते चेल यस्य स अचेलकस्तस्य भाव आचेलक्य वाक्यो से प्रेरित होकर वह भगवान के पहुंचा और प्रार्थना विगतवस्त्रत्व इत्यर्थ. तच्च तीर्थश्व रानाश्रित्य प्रथमातिने की कि प्रभु आप जगदुपारी ने विश्व भर का दाग्द्यि जिनयो शक्रोपनीन देवदूष्यापगमे सर्वदा अलकत्व किन्तु निर्मूल कर दिया किन्तु निर्भाग्य से उस समय मैं यहां नहीं इसी ग्रन्थ कल्पसूत्र को किरणावली टीका मे यह लिखा है था, भ्रमण करते हुए भी मुझे कुछ मिला नही, निष्पुण्य, f. २४ तीर्थकरो के शक्रोपनीत देवदूष्य के अपगम पर निराश्रय, निर्धन मै आप जगद्वाछित दायक की शमा मे अचेलकत्व हो जाता है। विजयगण ने इसको समझाते आया हु विश्व दारिद्र्य को हरने वाले आपके लिए मेरी हए लिखा कि अजित नाथ से लेकर २२ तीर्थकरो के साधु दारिद्रता कितनी सी है। इस प्रकार याचना करने वाले समाज "बहुमूल्य विविध वर्ण वस्त्र परिभोगानुज्ञा सद्विप्र के प्रति करुणापरगण भगवान ने आधा करके देव भावेन सचेलक व मेव केशाचिच्च श्वेतमावो पेत वस्त्र दृष्य दे दिया। विप्र उन ने गधा और दशाचल के लिए धारित्वेन अचलकत्व अपि इति अनियत. तषा अय कल्प: तन्तुवाय को दिखाया और सारा व्यतिकर सुनाया तो श्री ऋषभवीर तीर्थ यतीना च सर्वेणा अनि श्वेतमानो पेत वह बोला, हे ब्राह्मण, तू उन्ही प्रभु के पीछे जा वे निर्मम जीर्णप्रायवस्त्र धारित्वेन अचेलकत्व ।" करुणाम्बोधि द्वितीय अर्ध भाग को भी दे देगे तब मैं दोनो वस्त्र परिभोग होने पर अचेलक कसे होगा? इस आधे-आधे टुकडो को जोड दूंगा। इस प्रकार अक्षत होने शका का निराकरण यो कर दिया कि जीर्ण पाय तुच्छ पर इसका मूल्य एक लाख वीनार हो जाएगा। तब हम वस्त्र के होने पर भी अवस्त्रत्व ऐमा जगत प्रसिद्ध है जैसे
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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