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________________ २४, वर्ष ४६, कि०१ अनेकान्त याचना शब्द का अर्थ होता है जो उससे भिन्न है, कहा भी जानादि के प्राप्त करने का अधिकारी समझता हो, आप गया है कि मांगने से भीख भी नही मिलती" अर्थात् स्वयं सम्यग्नान आदि गुणों का ग्राहक बनकर अपने से मांगना भिक्षु को दुखित करने वाला है। अधिक गुणवान के प्रति समादरभाव रखता हो, जहाँ तक प्रवचनसार के अनुसार द्रव्यलिंगी मुनि श्री जिनवाणी हो सके परमात्म चितन में तल्लीन रहने वाला हो और के ग्यारह अग व नो पूर्व तक के पढ़ने वाले तथा घोर कदाचित इससे उपयोग हट जाये तो इसी मे सलग्न अन्य आतपनादि योग रूप में तपस्या करनेवाले होकर भी परमात्म-चिन्तक महात्माओं की सुश्रुषा मे लगा रहने भवविच्छेद नही कर सकते क्योकि आगम का ब्याख्यान वाला हो, मिथ्यात्व अन्याय अभक्षादि पाप वृत्तियो से करते हुए भी उनके अतरग मे तदनुकूल समुचित श्रद्धान सर्वथा दूर रहने वाला हो, ऐसा मत योगिराज आप को नही होता है। समुचित श्रद्धान और द्वादशाग का ज्ञान भी ससार से पार करने वाला है और अपने भक्तो को भी होकर भी यदि चारित्र धारण नहीं किया जाये तो मुक्ति निमित्त रूप मे संसार से पार करने वाला होता है। वह नहीं मिल सकती है। श्री तीर्थकर भगवान को भी चारित्र स्वय उसी शरीर से मुक्त बन सकता है। उसको श्रद्धा. धारण करना पड़ता है। ससार के सभी पदाथों से सबंध पूर्वक हृदय से सेवा करने वाला भी एक-दो प्रशस्त जन्म विच्छेद करना पडता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, धारण करके सदा के लिए अशरीरी हो जाता है। सम्यग्चारित्र मे तीनो होकर भी जब तक चारित्र की आत्महितेच्छु साधु को चाहिए कि अतरग मे प्रस्फुट पूर्णता नहीं हो जाती है तब तक पुनजन्म का अभाव नहीं होने वाली वीतरागता को प्रगट कर दिखाने वाले निविहो सकता है। कार निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेश के धारक किसी भी तपोधन जो मनि जैन शास्त्रानुसार व्रत नियम आदि का को अपने सम्मुख आते हुए देखे तो प्रसन्नतापूर्वक उठकर यथाशक्ति पालन करने मे सलग्न है फिर भी हृदय की खड़ा होवे, उसके सम्मुख जावे, हाथ जोडकर उसे कटिलता के कारण श्रद्धान को यथार्थ करने में असमर्थ हो नमस्कार करे, रत्नमय की कुशलता आदि प्रश्नों द्वारा ऐसे द्रव्यलिग अवस्था के धारक जैन साधु भी अपने सुश्रुषा करे। इस प्रकार सत्कारपूर्वक उसे अपने पास आचरण मात्र से केवल पुण्यबध करक स्वर्ग सम्पदा प्राप्त स्थान देवे और उसके आसन शयनादि की समुचित कर लेते हैं । वहा से आकर उन्हें संसार भ्रमण हो करना व्यवस्था करे। तत्पश्चात् तीन दिन के सहवास से उसके पड़ता है। कभी की ससार से मुक्त होन मे समथ नहीं हो आचार-वचार और अपने आचार-विचार मे कोई खास सकते है। जो लोग गहस्थाश्रम से मुक्त होकर अपने अन्तर न हो तो सदा के लिए उसे अपने साथ रख सकता आपको साधु मानते हुए भी विषय कषायो की पुष्टि करने है, ऐसी जिनशासन की आज्ञा है।। वाले सांसारिक कार्यों मे ही फसे रहते है, जादू-टोना आगमानुकल चलने वाले साधु को कोई यदि समुचित प्रादि करके साधारण लोगों को प्रसन्न करना ही जिन सत्कार नहीं करता है। प्रत्यत ईर्षा-पके वोडा लोगो का धन्धा है जो रसायन सिद्धि प्रादि में लगकर तिरस्कार करता है तो वह स्वयं चरित्रभ्रष्ट है, ऐसा हिंसा करते हुए पापार्जन करने वाले है, ऐसे लोगो को हो समझना चाहिए। इतना ही नहीं किन्तु मैं भी साधु हूं, प्रभावक तपस्वी मानकर उन्ही को सेवा-सुश्रुषा करने मै कोई कम नही है इस प्रकार घमड करते हुए जो कोई वाले लोग अपनी भद्र चेष्टा के द्वारा जो साधारण पुण्यार्जन अपने से अधिक गणवान साधुओ से भी पहिले अपना विनय करते है उसके फल से अभियोग्य और किल्विषक देवो मे कराना चाहता हो तो वह चरित्रभ्रष्ट ही नही किन्तु जन्म लेते हैं। सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट है। ___ दूसरी ओर जो यह तेरा है और यह मेरा है इस इसी प्रकार जो मनुष्य अपने मोह की मदता से पदार्थों प्रकार की क्षुद्र वृत्ति का त्याग करके समताभाव को धारण के स्वरूप को ठीक-ठीक मानने लग गया है, जिसका चित्त किए हुए हो, जो प्राणीमात्र को अपने ही समान अनन्त शात दशा को प्राप्त हो चुका है अतः जो उचित अनुचित
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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