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________________ प्रवचनसार में वणित 'चारित्राधिकार' करना मूठ है, किसी की वस्तु को बलात्कार से या बहाना जिस पर आराम करनेवाले संसारियों की दृष्टि नहीं बनाकर छीन लेना चोरी है। स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेम- जाती हो। 'यदि यत्नपूर्वक इसकी रक्षा नहीं करूंगा तो भाव का नाम कुशील है। दूसरी वस्तुओं को अपनी मान कोई इसको उठाकर ले जावेगा।' इस प्रकार की चिन्ता लेना ममत्वभाव है, मोह परिग्रह है। झूठ, चोरी और जिमके ग्रहण करने मे न हो. जो इंद्रियों का पोषक न कुशील ये तीनों कार्य हिंसा के ही प्रकार हैं जहां किसी होकर मनोनिग्रह का समर्थक हो, जिसमे पाप की कोई भी प्राणी को सीधा कष्ट मे डाला जाता है। उसका नाम सम्भावना न होकर प्रत्युत संयम की साधना हो सके जो हिंसा है जहाँ वचन के द्वारा किसी को कष्ट पहुचाया। अनायाम रूप से प्राप्त होने योग्य साधारण सी जाता है उस हिंसा का नाम झूठ है, जहाँ कोई भी वस्तु परिस्थितियो को लिये हुए हो, ऐसा कमण्डल आदि मुनि का अपहरण करके दूसरे को कष्ट दिया जाता है उस के ग्रहण करने के योग्य हो सकता है। यह भी उपेक्षा हिंसा का नाम चोरी है। जहाँ शील को बिगाडते हुए किसी संयम की प्राप्ति से नीचे केवल अपहृत सयम की दशा में दूसरे को कष्ट में डाला जाता है उस हिमा का नाम ग्राह्य कहा गया है। कुशील है। जहां पर पदार्थ के प्रति अहकार ममकार पानी रखने का कमण्डलु काष्ठ या तुम्बी का बना हुआ करते हुए जो अपने परिणाम बिगड़ते हैं, राग-द्वष उत्पन्न होता है। यह गृहस्थ के काम का नहीं होता है। अत होते हैं. उनका नाम परिग्रह है। इस प्रकार अब दूसरे इसके रखने में उसकी रक्षा करने के लिए चिन्ता की शब्दों में हिंसा तथा परिग्रह ये दो ही परिहार्य अवशिष्ट किंचित भी आवश्यकता नही होती है । इममे केवअ शौच नित भी प ता नही होती. तो रह जाते हैं। के लिए जल होता । यदि उस जल को पीने आदि के काम राग-द्वेष बाह्य पदार्थों के निमित्त से होते हैं। इनके में लेने लग जाए तो फिर वह उपकरण न रहकर योग्य अभाव के लिए धन, मकान, वस्त्रादि का त्याग परमाव. वस्तु बन जाती है। श्यक है। जिस प्रकार शरीर के होते हुए भी इससे राग- वस्त्र को गहस्थ अपने लज्जालुपन के कारण अतरग रहित होकर रहते हैं व मे ही वस्त्रादि आवश्यक वस्तुओ मे रहने वाले कामुकतादि दोषो को अन्य लोगो की दष्टि को रखते हुए उनसे राग रहित नही हो सकते । दूसरी ओर मे छिपाकर रखने के लिए पहिना करता है । स्त्री जीवन प्रवचमसार मे उल्लेख है कि वस्त्र आदि बाह्य बस्तुओ को मे मायाचारादि दोष नैगिक रूप से होते हैं अतः वे वस्त्र भी शरीर की समकक्षता मे रखना भूल है। शरीर धारण का त्याग नहीं कर सकती है। इसीलिए श्री महावीर के पायुकर्म की विशेषत से होता है। इसका दूर होना भी शासन मे स्त्रियो को अपने उसी शरीर मे मिद्धि की आयु अवसान के अधीन है। शरीर के अतिरिक्त वस्त्र णादि आधिकारिणी नहीं बनाया है। सारे मब बाह्य पदार्थों का तो मनुष्य अपनी इच्छा से प्रवचनसार मे योग्य आहार-विहार के विषय मे ही पहण करता है और स्वय ही उनका त्याग कर सकता उल्लेख मिलता है कि साधु को यूक्ताहार-विहारी होना कानको प्राप्त करके धारण करने, धोने, पोछने, मुखाने चाहिए कि स्वय नबनाकर तथा न किसी दूसरे से भी व बनाये रखने और नष्ट हो जाने पर उसकी जगह दूसरा बनवाकर बिना या चना किये भिक्षावात्त से जैसा भी अपने प्राप्त करने आदि मे व्यग्र रहार स्पष्ट रूप से हि- अजहर अन्त राय कर्म के क्षयोपशमानुभार मिल जावे, वह भी करनेवाला बनकर मनुष्य पापारम्भी होता है। ऐसा ही मद्य-मासादि दोषो से सर्वथा रहित शुद्ध हो, ऐसा अन्न श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्मन आचारांग सूत्रादि ग्रन्थो मे का आहार दिन मे एक बार कर लेवे। वह भी पूरा पेट लिखा हुआ है वह ठीक ही । वहाँ वस्त्रपात्रादि को मुनिके भरकर न खावे तथा स्वाद के लालच से न खावे । क्योकि उपकरण कहे गए हैं। उपकरण तो उसे कहा जा सकता मुनि के भोजन करने का हेतु केवल ध्यान सिद्धि ही रहता है जो हमारे मूल उद्देश्य में किसी भी प्रकार से सहायक है। भिक्षा का वास्तविक अर्थ दाता के द्वारा दी गई वस्त हो। जो विलासप्रिय भोगी लोगों के लिए योग्य न हो, को ग्रहण करता है न कि किसी से मागना क्योकि मागना
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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